धर्म है या धंधा

बाततब की है जब मेरा विवाह हुआ था. मेरे पति एक दिन सुबह कहीं जा रहे थे. उन्हें जाते हुए देखा तो भागीभागी आई और पीछे से आवाज लगा दी, ‘‘आप कहीं जा रहे हो क्या?’’

बस इतना ही कहते वे क्रोधित हो गए और गुस्से में बोले, ‘‘इस तरह क्यों पीछे से आवाज लगा रही हो?’’

मैं बेवकूफ तब भी नहीं सम झी और सामने जा कर खड़ी हो गई. फिर कहा, ‘‘चलो अब बता दो कहां जा रहे हो?’’

उन्होंने मु झे घूर कर ऐसे देखा जैसे मैं ने किसी का कत्ल कर दिया हो, पर घूरने का कारण नहीं सम झ पाई.

2 घंटे बाद जब वापस आए तो बहुत ही आगबबूला होते हुए बोले, ‘‘बड़ी बेवकूफ हो. इतना भी नहीं मालूम कि काम पर जाते समय पीछे से आवाज नहीं लगाते. तुम्हारे टोकने की वजह से मेरा काम नहीं बना.’’

मेरा तो माथा ठनक गया कि यह कैसा अंधविश्वास है भला? मेरे आवाज लगाने से इन का काम कैसे रुक गया? फिर तो इस से अच्छी चाबी और कोई हो ही नहीं सकती. अगर किसी का कोई काम न बनने देना हो तो बस पीछे से आवाज लगा दो. दिन की शुरुआत अपनी दोनों हथेलियों को देख कर करते हैं.

पूजापाठी तो इतने हैं, बस जब देखो, कभी हाथ में हनुमान चालीसा मिलेगा तो कभी शिव चालीसा. 2 घंटे सुबह पूजा, 2 घंटे रात को पूजा. बस पूजा ही पूजा और कोई न दूजा. खुशीखुशी महीने की आधी कमाई पंडितों को दान में दे आएंगे. वैसे कोई गरीब क्व1 भी मांगेगा तो उसे दुत्कार देंगे. जब देखो सासूजी और पतिदेव पंडितों का पेट भरते रहते हैं.

लंबा उपदेश

रोकने पर एक लंबा सा उपदेश, ‘‘ब्राह्मण को दान शास्त्रों में लिखा हुआ है. जितना ब्राह्मणों को दान करोगी उतना फल मिलेगा. अब कोई और फूलेफले या नहीं, लेकिन पंडित जरूर फूलफल रहा है. इतने सालों से पंडितजी को और उन की तोंद को देख रही हूं. फूल कर मोटी होती जा रही है. क्यों न फूले लोगों को बेवकूफ बना कर माल जो खाते हैं.

कितना अजीब सा लगा है ये सब देखना. पर यह बिलकुल सच है कि इस आधुनिक युग में हम आधुनिकीकरण का सिर्फ जामा पहने हुए हैं, परंतु हमारी मानसिकता अब भी वही है. हमारी सोच बदलते वक्त के साथ वही पुरानी है और शायद इस का पूरा श्रेय आजकल के मीडिया चैनलों को जाता है, जो सारा दिन ऐसे अंधविश्वास फैलाते रहते हैं.’’

हर चैनल पर ऐसे कार्यक्रमों की भीड़ है और ऐसे कार्यक्रमों को देखने के लिए दर्शकों की कमी नहीं. एक दिन मेरी सासूमां को सपने में गाय सींग मारते हुए दिखी. बस मानो भूकंप आ गया. पंडितजी को बुलावा भेज दिया.

पंडितों का मायाजाल

पंडितजी ने आते ही कहा, ‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है. गाय का सींग मारना तो शुभ संकेत है. अरे, गाय की सेवा करीए. अपने भार बराबर दान दीजिए. आप की सब चिंताएं खत्म होने वाली हैं,’’

ये भी पढ़ें- सावधान ! अक्‍टूबर तक दस्‍तक दे सकती है Corona की तीसरी लहर !

वाह पंडितजी, सपना गाय का और फायदा पंडित का. अब इन पंडितजी की भी सुनिए. एक दिन पंडितजी घर आए. देखने में परेशान लग रहे थे. पतिदेव से मिलने आए थे. पंडितजी के जाने के बाद मैं ने पूछा, ‘‘क्या हो गया पंडितजी को क्यों इतने परेशान हैं?’’

पतिदेव ने बताया, ‘‘पंडितजी इसलिए परेशान हैं क्योंकि उन का काम मंदा चल रहा है. उन के 2 बेटे हैं. लेकिन कोई भी पंडिताई नहीं करना चाहता.’’

मैं अपनी हंसी नहीं रोक पाई. हंसते हुए बोली, ‘‘हां… हां… पंडितजी के बेटों द्वारा पंडिताई न करने की बात तो उन के लिए दुखदाई है, क्योंकि खानदानी पेशा जो बंद हो रहा है. लगता है पंडितजी ने अपनी पत्रिका नहीं देखी. शायद उपाय करने से उन के कष्ट दूर हो जाते,’’ आदतन मेरे मुंह से निकल गया. और मैं कहते ही हंस पड़ी.

इधर मेरा हंसना था और उधर बम विस्फोट होना लाजिम था. गुस्से में पतिदेव बोले, ‘‘जब भी बोलोगी, उलटा ही बोलोगी… चुप नहीं रह सकती क्या?’’

अंधविश्वास के बहाने

अब आप ही बताएं यह पत्रिका देखना, हाथ देखना आदि सब बातें अंधविश्वास के दायरे में आती हैं न? इस वैज्ञानिक युग में काफी लोगों की मानसिकता वही दकियानूसी है… आज भी काफी लोग बिना पंडित की मरजी के पत्ता नहीं हिलाना चाहते. कोई भी कार्य करने से पहले पंडित या तांत्रिक से सलाह लेते हैं. बच्चा कब पैदा होना है? कब नामकरण होना है? ये सब पंडित तय करते हैं. उसी के लिए मुहूर्त के हिसाब से यह कार्य होते हैं. यही नहीं लड़की होनी है या लड़का, यह भी पंडित ही तय करता है.

अगर लड़का चाहिए तो, पंडितजी कुछ दवाइयों की पुडि़यां बना कर हाथ में दे देंगे, इस कथन के साथ कि तीसरे महीने में खिला देना. लड़का ही होगा और यकीन मानिए लोग आंख बंद कर के इस पर विश्वास करते हैं और अपनी बहू या बेटियों को तीसरे महीने में सुबहसुबह खाली पेट यह दवाई खिलाते हैं.

भले ही लड़का हो या लड़की. लड़का हो गया, तो पंडितजी की चांदी और अगर लड़की हुई तो पंडितजी कह देते हैं कि आप ने दवाई खाते टाइम लापरवाही करी होगी.

मतलब हर हाल में पंडितजी सही… निम्नवर्ग के ही नहीं उच्चवर्ग के लोग भी इन अंधविश्वासों में फंसे हुए हैं.

कर्म ही प्रधान है

एक बार मैं ने पतिदेव से कहा, ‘‘आप विश्वास करो, लेकिन अंधविश्वास नहीं. ये पंडित, तांत्रिक, मौलवी सिर्फ अपनी जेबें भरते हैं. कोई कुछ नहीं करता. कर्म ही प्रधान है.’’

इस पर पतिदेव ने कहा, ‘‘अपने विचारऔर अपनी सोच अपने पास रखो… हमें शिक्षा मत दो. तुम्हारे हिसाब से तो यह टाटा, बिरला, अंबानी सभी नास्तिक हैं. क्या तुम ने देखा नहीं ये सब कितना पूजापाठ करते हैं. तुम्हारी सुनूंगा, तो डूब जाऊंगा.’’

मु झे भी जिद चढ़ गई तो मैं ने भी कह दिया, ‘‘डूबिए तो सही. तब हम न उबारें तो कहना.’’

इन के हाथ में इतने कलावे बंधे हैं कि कभीकभी तो ऐसा लगता है, जैसे कोई मन्नत मांगने का खंभा हो. एक दिन मैं ने कहा, ‘‘भूल गए क्या पंडित के कहने पर गाय को बेसन, मुनक्का और घी से बनी लोई खिलाने गए थे? तब गाय ने ऐसा पटका कि 7 दिन लगे थे ठीक होने में.’’

‘‘बस करो, जब देखो तब टेप चालू रहता है,’’ पतिदेव चिड़चिड़ाते हुए बोले.

‘‘मैं क्या गलत कह रही हूं? क्यों रहूं चुप? भूल गए, जब नया औफिस बनवा रहे थे, नींव खुद रही थी, तो पंडितजी ने कहा कि औफिस तैयार होने से पहले पूरे औफिस की नजर उतार दो और पश्चिम दिशा में लाल कपड़े में बांध कर चावल चढ़ा दो. आप ने तो करना ही था. पंडितजी ने जो कहा था, क्योंकि सारी दुनिया की नजर तो आप ही को लगी हुई है न. हुआ क्या चावल चढ़ाने के चक्कर में 7 फुट गहरे गड्ढे में गिर गए थे. वह तो भला हो मजदूरों का, वहां पर मौजूद थे. जैसेतैसे कर के आप को निकाला,’’ मैं ने कटाक्ष करते हुए कहा.

‘‘हां तो क्या हुआ? तुम्हें नहीं लगता है कि मैं पंडितजी की वजह से मैं बच गया?’’ इतने गहरे गड्ढे में गिर कर भी चोट नहीं आई.

‘‘तोबा. आप और आप के पंडित. यह विश्वास नहीं, अंधविश्वास है… पूरा पागलपन है.’’

अंधविश्वास का खेल

सारा साल यही अंधविश्वास का खेल चलता रहता है. सलाह देने वाले पंडितजी और मानने वाले पतिदेव और उन की माताजी, घर

2 खेमों में बंटा हुआ है… एक तरफ सासूजी और पतिदेव, दूसरी ओर मैं और मेरे बच्चे. हर टाइम वाक् युद्ध की स्थिति रहती है.

कभी माघ का महीना है, तो दान करना है. कभी वसंतपंचमी है तो कथा होनी है. नवरात्रे हैं तो हवन करना है. सावन चल रहा है तो रुद्राभिषेक करना है. श्राद्ध हैं, तो पंडितों को खाना खिलाना है और दान करना है. शरद नवरात्रे हैं तो ब्रह्मभोज. कभी सत्यनारायण की कथा तो कभी महामृत्युंजय जाप होने हैं.

‘‘पंडितजी पारिवारिक परेशानी है. खत्म नहीं हो रही. क्या करूं?’’ सासूजी ने पूछा.

ये भी पढ़ें- पुरुषों को शुक्र मनाना चाहिए कि महिलाएं उन्हें धक्का देकर दूर रहने को नहीं कहतीं !

‘‘ऐसा करो एक हवन करवा लो. हवन के आखिर में सवा पांच किलो सूखी लालमिर्च से सब की नजर उतार कर अग्नि कुंड में आहुति दे दी जाएगी. नजर भी उतर जाएगी और पता भी चल जाएगा कि कितनी नजर है तो उपाय हो जाएगा,’’ पंडितजी ने अपना उल्लू सीधा किया.

बहुत से लोग अपने आगे से कोई बिल्ली गुजर जाए, तो वापस आ जाएंगे. सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण लगने पर भोजन नहीं करेंगे और ग्रहण खत्म होते ही सब से पहले नहाएंगे.

यही नहीं फिर पूरे घर में गंगाजल का छिड़काव करेंगे और ब्रह्माण को दान देंगे. अगर कोई गर्भवती है, तो जब तक ग्रहण है उसे गोद में नारियल रख रामायण पढ़ने को कहा जाएगा. दिन के मुताबिक रंगीन कपड़ों को पहनना. कोई छींक दे तो अशुभ मान कर रुक जाना.

हर छोटी सी छोटी बात के लिए पंडित या तांत्रिक. पता नहीं कैसा विश्वास है? शायद इस गहरे विश्वास को ही अंधविश्वास कहा जाता है. बचपन में सुनी और विश्वास की गई ऐसी ही कितनी चीजें कई सालों तक अंधविश्वास बन कर आज भी बहुतों के साथ चल रही हैं. लेकिन ऐसे लोगों में इस अंधविश्वास की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि हम चाह कर भी बदल नहीं पाते.

फैले अंधविश्वास

–  भारत में लोग विश्वास करते हैं कि चेचकदेवी माता का प्रकोप है और दवा इत्यादि से आप इस का कुछ नहीं कर सकते. केवल प्रार्थना और कर्मकांड करीए देवी माता की शांति के लिए.

–  भारत में अकसर डाक्टर के क्लीनिक के मुख्य दरवाजे पर बुरी नजर से बचने का प्रतीकचिह्न देखेंगे. अस्पताल में आप बोर्ड देखेंगे ‘हम सेवा करते हैं, वह ठीक करता है.’ कितने ही डाक्टर गुरुवार को काम नहीं करते, क्योंकि वे मानते हैं कि यह अच्छा दिन नहीं होता और आप को फिर से डाक्टर के पास जाना पड़ेगा.

–  भारत में वैज्ञानिक विज्ञान पर भरोसा नहीं करते, बल्कि सफलता के लिए ईश्वर का मुंह ताकते हैं.

–  अशुभ नंबरों को त्याग दिया जाता है. डाक्टरों को नजर लगने से डर लगता है. ये लोग साक्षर तो हैं, परंतु शिक्षित नहीं.

–  अंधविश्वासी लोग दवा और इलाज को भी अंधविश्वास के घेरे में ले आते हैं. पीपल के पेड़ पर भूतों का निवास होता है.

–  बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर बच्चों के टीका लगाते हैं.

–  घर से बाहर निकलते वक्त विधवा औरत दिखे तो अशुभ माना जाता है

–  गले में काला धागा या तावीज पहनने से बुरी आत्माएं दूर रहती हैं.

–  अगर आप के जूते खो जाएं तो आप भाग्यशाली हैं इस से बुरी चीजें चली जाती हैं.

–  कुत्ते का रोना किसी की मृत्यु का पूर्वाभास माना जाता है. रात को नाखून नहीं काटने चाहिए.

–  पतीले या हांडी में पैंदे तक चाटने से उस इंसान की शादी पर बरसात होती है.

–  अगर बिल्ली रास्ता काट जाए तो इसे अशुभ माना जाता है.

–  अगर हिचकी आए तो कोई आप को याद कर रहा है.

–  मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल कटिंग या शेविंग नहीं करवानी चाहिए.

–  अरे हां, एक और शामिल है इस लिस्ट में. आंख का फड़कना.

लेकिन धीरेधीरे जब हम चीजों के ऊपर सोचने की प्रक्रिया से गुजरने लगें, तो लगेगा अरे यह तो निरी मूर्खता है. कोई छींक दे तो क्या हम अपना महत्त्वपूर्ण काम टाल देंगे? बिल्ली रास्ता काट देगी तो क्या हम पेपर देने नहीं जाएंगे?

ऐसी बहुत सी बातों की लंबी लिस्ट है, जो अंधविश्वास के दायरे में आती हैं. लेकिन अंधविश्वासियों के हिसाब से वे धर्म का पालन कर रहे हैं. आप ही बताएं यह कैसा धर्म का पालन है?

इस वैज्ञानिक युग में ऐसी सोच के साथ कोई कैसे तरक्की कर सकता है? अगर तांत्रिकों की पूजा में इतना ही दम है, तो फिर बौर्डर पर सेना की क्या जरूरत है? घर बैठे ही ये पंडित, तांत्रिक हर युद्ध को रोक सकते हैं. असलियत तो यह है आज ये पंडित, पुजारी सब चलतीफिरती दुकानें हैं, जिन्हें सिर्फ अपनी जेब भरने से मतलब है और हमारा समाज धार्मिक, ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास, लोभी और गुमराह मुल्लाओं, पंडितों की बेडि़यों द्वारा जकड़ा हुआ समाज है. ऐसा नहीं कि सिर्फ कम पढ़ेलिखे, गरीब ही इन का शिकार होते हैं. धर्म और आस्था के नाम पर बड़बड़े अमीर और पढ़ेलिखे भी इस लिस्ट में शामिल हैं.

महिलाओं का शोषण

चमत्कारी बाबाओं और तांत्रिकों द्वारा महिलाओं के शोषण की बातें हमेशा से प्रकाश में आती रही हैं और धन तो इन के पास दान का इतना आता है कि जिसे ये खुद भी नहीं गिन सकते.

इस के दोषी केवल ये बाबा, मुल्ला या पंडे नहीं, बल्कि हमारा यह भटका हुआ समाज है, जो चमत्कारों से भगवान को पहचानने की गलती करता है. अंधविश्वास की सामाजिक जकड़न का विश्वास ही अंधविश्वास में तबदील होता है.

ये भी पढ़ें- भूल जाएं कि सरकार आंसू पोंछेगी

अंधविश्वासी लोग स्वयं अपनी स्वतंत्रता नष्ट कर लेते हैं. वे अपनी मरजी से कोई निर्णय नहीं ले सकते, क्योंकि उन्होंने अपने दिमाग को अंधविश्वास की जेल में बंद कर रखा होता है. उन्होंने अपनी बुद्धि को अंधविश्वास के हाथों बेच दिया है नहीं तो वे अपनी जिंदगी अंधविश्वास के बिना और प्रसन्नता से गुजार सकते हैं.

दिल से एक बार इस अंधविश्वास के डर को निकालें, तो फिर अमंगल का खयाल कभी आएगा ही नहीं. सोच कर तो देखें.

धर्म पर होती धन की बरबादी

 पढ़ेलिखे और नेता भी शामिल हैं

यह किस्सा है भूपेंद्र सिंह चूडास्मा का, जो गुजरात के शिक्षा मंत्री हैं और आत्माराम परमार, जो राज्य के सामाजिक न्याय मंत्रालय का जिम्मा संभाले हैं, दोनों पिछले दिनों अचानक सुर्खियों में आए. वजह थी कि वह वीडियो वायरल हो गया, जिस में एक तांत्रिक अपना कारनामा दिखा रहा था और जनता ही नहीं, बल्कि गुजरात के ये दोनों मंत्री भी उस नजारे को देख रहे हैं.

भक्ति और पूजा के बीच लोगों में अंधविश्वास इस कदर फैला हुआ है जिस की कोई सीमा नहीं.

विज्ञान के युग में भी अंधविश्वास पूरी तरह लोगों पर हावी है. लोग सचाई के विपरीत बाबाओं के चक्कर में पड़ कर कुछ भी कर रहे हैं. कोई गुरदे की पथरी निकलवा रहा है, तो कोई पेट में कीलें होने का दावा करते तांत्रिक से उन का इलाज करवा रहा है. इन बातों को सुन या देख कर सामने वाले व्यक्ति की बुद्धि पर तरस आता है. अगर भगवान का नाम लेने या पंडेपुजारी के पास जाने और पूजा करने से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं, सुखसमृद्धि मिल जाती है तो दुनिया में इतना दुख ही क्यों होता है.

रा      धेराधे… राधेराधे… राधेराधे… जय श्रीराम… जय श्रीराम… जय श्रीराम… रमाकांत पूरी श्रद्धा के साथ भक्ति में लीन थे. पूरी मंडली साथ में घंटी भी बजा रही थी. ये आवाजें बच्चे को पढ़ने नहीं दे रही थीं. वह बारबार जा कर अपनी मां से कहता, ‘‘मां प्लीज पापा को बोलो ना कि सब लोग थोड़ी हलकी आवाज में पूजा करें. मेरा कल बोर्ड का पेपर है और मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं.’’

जब वह अपने गुस्से को जाहिर कर रहा था तभी रमाकांत ने सुन लिया और फिर गुस्से से बोले, ‘‘यह कोई पढ़ने का टाइम है? अगर कल परीक्षा है तो आज तो तुम्हें भगवान के आगे नतमस्तक होना चाहिए.’’

बोलो जय सियाराम… जय सियाराम… फिर रमाकांत अपने बच्चे की परेशानी से बेखबर… उलटा अपनी पत्नी को झिड़कते हुए कि अकल नहीं है क्या तुझ में… महात्मा बैठे हैं पूजा कर रहे हैं तू यहां बच्चे में लगी हुई है. बेवकूफ औरत जाओ सभी के लिए गरम दूध बना कर ले आओ. बेचारी करती भी क्या. डरते हुए , ‘जी’ बोला और लग गई सेवाटहल में.

बीचबीच में उस की सास की भी आवाजें आती रहीं कि प्रसाद बना कि नहीं? बहू बिस्तर लगाया  कि नहीं… देखो महात्मा की सेवा में कोई कमी न रह जाए. जितनी मन से सेवा कर लेगी उतनी ही मेवा मिलेगा… बहुत भाग्य से महात्मा घर में पधारते हैं… कितने लोगों का निमंत्रण गया होगा… लेकिन हमारा ही स्वीकारा और आज हम जो भी हैं वह इन्हीं की वजह से हैं आदिआदि.

ये भी पढ़ें- कोरोना की नई लहर, बदहाली में फंसे सिनेमाघर

पूरा दिन और आधी रात तो इस सेवा के चक्कर में ही निकल जाती. मुश्किल से 2 घंटे ही लेट पाती कि 4 बजे से ही आवाजें लगने लगतीं कि महात्मा के नहाने का टाइम हो गया है… इंतजाम हुआ कि नहीं… फिर वे सुबह 6 बजे प्रभात फेरी के लिए जाएंगे… याद है न कि तुम्हें उठ कर सब से पहले स्नान करना है.

ऐसा हर साल होता था. जब से वह इस घर में आई थी यही सब देख रही थी. उसे इस बात का बहुत दुख था कि किसी गरीब या जरूरतमंद को तो मांगने पर भी क्व10 नहीं दिए जाते. लेकिन महात्माओं पर लाखों रुपए खर्च कर दिए जाते. शुरूशुरू में तो जब शादी कर के आई तब सिर्फ एक स्वामीजी आते थे. वह भी 2 या 3 घंटों के लिए. लेकिन जैसेजैसे महात्माओं पर विश्वास और उतनी ही तेजी से आदमी की आमदनी बढ़ती गई, वैसे ही एक स्वामी के साथ 2 लोग… और… फिर अब तो महात्मा अपनी पत्नी और पूरे 11 लोगों की मंडली के साथ आते हैं. एक व्यक्ति की सेवाटहल किर भी आसान थी, लेकिन पूरी मंडली की सेवा, ऊपर से पासपड़ोस और रिश्तेदारों का मेला सभी को महात्मा से मिलना होता है और काम करने वाली वह अकेली.

अभी हाल ही की तो बात है जब पड़ोस में साक्षी गोपाल महाराज आए थे, कितने दिनों तक सुबहशाम उन के प्रवचन और सुबह 5 बजे प्रभात फेरी में वे बिना नागा शालमल होते रहे. कामधाम की कोई चिंता नहीं थी. चिंता थी तो बस बिजनैस को बढ़ाना है, महात्मा की सेवा करनी है.

यह कैसा अंधविश्वास

विश्वास या आस्था अपनी जगह है. लेकिन अंधा विश्वास यह मेरी समझ से परे है. ऐसा भी कैसा अंधा विश्वास हो गया जो आप अपने परिवार की दुखतकलीफ न समझ सको. छोटीछोटी बातों के लिए पंडेपुजारियों और महात्माओं के चक्कर लगाते हुए लोगों को देखती हूं तो खून खौलता है.

जैसेजैसे हम ग्लोबलाइजेशन की तरफ बढ़ रहे हैं वैसेवैसे ही लोगों में अंधविश्वास भी बढ़ता जा रहा है. आंकड़े बताते हैं कि भारतीय अंधविश्वास के मामले में पूरी दुनिया में सब से आगे हैं. सच में जिस देश ने सैटेलाइट जैसे वैज्ञानिक दावे किए हों वह नया भारत अंधश्विस की तरफ बढ़ रहा है.

दान क्यों

अकसर नुकसान के डर से पुण्य कमाने को या मनौती मांगने व पूरी होने के एवज में दान दिया जाता है. चढ़ावा चढ़ाया जाता है. कभी कुछ समस्याएं दूर करने के लिए अनापशनाप उपाय बताए जाते हैं. तरहतरह से दान होते हैं . धर्मगुरु, धार्मिक संस्थाएं सभी इसी तरह धन इकट्ठा करने में लगी रहती हैं जैसे राजनीतिक पार्टियां अपना फंड इकट्ठा करने के लिए चंदा उगाही करती हैं.

हकीकत में तो भक्त व श्रद्धालु भले ही गरीब और कंगाल हों, लेकिन जन्म से मरण तक कर्मकांड कर के उन से वसूली बराबर होती रहती है. प्रायश्चित्त करने, ग्रह चाल ठीक कराने, दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने, बहुत सी समस्याओं के हल के बहाने भी मोटी दानदक्षिणा होती है. सोचने की बात यह है कि जिस धर्म पर भगवान के नाम पर लोगों को डराया जाता है उस के नाम पर चलनेठगने व गलत काम करने में खदु पंडितपुजारी क्यों नहीं डरते?

दिखावे से किस का भला

उदाहरण: एक ऐक्सपोर्टर हैं शौक और स्वाद सब पाले हुए हैं. लेकिन साल में 2 बार बांके बिहारी मंदिर वृंदावन जा कर भंडारा कर के आते हैं. पंडों को खुश रखते हैं और यह सोच कर मस्त रहते हैं कि जितना मैं कमा रहा हूं उस का एक हिस्सा भगवान को दे रहा हूं और अब कोई परेशानी नहीं आएगी और नाम होगा वह अलग. घर की महिलाएं भी पूजापाठ में लगी रहती हैं.

मंदिर तो मंदिर लोग घरों में भी बहुत सी मूर्तियां रख लेते हैं और सुबहशाम उन की पूजा की जाती है. घरों में महात्माओं को प्रवचन के लिए बुलाना शान की बात समझी जाती है. जितना बड़ा महात्मा और उस की टोली, उतनी ही समाज में प्रतिष्ठा की बात मानी जाती है.

गरीबों को धन की और अमीरों को यश की इच्छा रहती है. इसलिए मंदिरों में पत्थर लगाए जाते हैं या घरों में इन महात्माओं को बुलाया जाता है. अब दानपुण्य दिखावे की भेंट चढ़ चुका. सब को जताने का जमाना है, अपनी वाहवाही के लिए लोग दान देते हैं या इन महात्माओं को निमंत्रण. ऐसे भी लोग हैं जो काली कमाई तो बहुत करते हैं, लेकिन पाप से डरते हैं, इसलिए वे इस तरह के दान बेफिक्री से करते हैं ताकि उन्हें उतना ही पुण्य मिल जाए. झूठी शान और दिखावा चाहे कैसा भी हो एक बुरी आदत है.

हकीकत में जरूरी क्या है

यदि कोई अनपढ़ ऐसा करे तो भी समझ में आता है, लेकिन कोई पढ़ालिखा व्यक्ति पैसे को पानी की तरह बहाए तो शर्म की बात है. पैसा कमाना ही नहीं बचाना भी एक कला है, क्योंकि जो बचाया समझो बस वही काम आया. इसलिए फुजूलखर्ची कर के दान देने या चढ़ावा चढ़ाने से बेहतर है बचत करना. उस पैसे से दूसरी जरूरतों को पूरा करना. यदि दान देना व चढ़ावा चढ़ाना बंद हो जाए तो मुफ्तखोरी जैसी समस्या ही खत्म हो जाए. लेकिन ऐसा होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है.

हम आज भी अंधविश्वास तथा बेडि़यों की पगडंडी पर घिसट रहे हैं. गरीबी,गंदगी और अशिक्षा विकास के रास्ते का रोड़ा है. ऐसे में दान और चढ़ावा रास्ते के गड्ढे हैं. रोशनी की मशाल नहीं अब पुरानी जंजीरों को तोड़ कर उन से छुटकारा पाने का वक्त आ गया है. अत: दिखावा और मन का वहम छोड़ें.

पढ़ेलिखे भी जिम्मेदार

अगर ढोंगी पंडेपुजारियों की दुकानें चल रही हैं तो इस का एक कारण वे पढ़ेलिखे लोग भी हैं, जो इस जाल में फंस कर अपना बहुत कुछ लुटा देते हैं. बौलीवुड भी अछूता नहीं इस से. कोई भी दुकान तभी चलती है जब ग्राहक उस में जाए पंडेपुजारियों की दुकान है. अगर फूलफल रही है तो इस में जितना हाथ गरीब का है उतना ही इन अमीरों का भी. सोचने वाली बात है कि जिस धर्म, भगवान का नाम ले कर लोग पंडों के पास जाते हैं, उसी भगवान के घर में काम करने वाले कर्मचारियों के मन में गलत हरकत करने की बात क्यों और कैसे आती है?

ये भी पढ़ें- नाइट कर्फ्यू से गड़बड़ाती जिंदगी

नाजायज मांगें

उदाहरण: एक दंपती को कई वर्षों से कोई औलाद नहीं थी. वे अकसर अपने बाबा से इस विषय पर मिलते थे. उस बाबा ने भी मौके का फायदा उठाया और पति से कहा कि रात भर के लिए अपनी पत्नी को मेरे पास छोड़ जाओ. पति ने इस बाबा पर ऐसी अंधभक्ति दिखाई कि उस ने खुद अपनी पत्नी को रातभर के लिए बाबा को सौंप दिया. उस बाबा ने पूरी रात महिला के साथ दुष्कर्म किया.

हैरानी तो यह बात सोच कर होती है कि पढ़ेलिखे लोगों और नेताओं के सामने धर्म का गणुगान करने वाले ये बाबा, महात्मा या तांत्रिक जब कोई आपत्तिजनक मांग रखते हैं तो वे उन्हें तमाचा मारने के बजाय उस नाजायज मांग को पूरा करते हैं. साथ ही अंधी आस्था रखते हैं.

उदाहरण

यूपी का एक बाबा दावा करता हैं कि वह गठिया को ठीक कर सकता है. वह मरीज का खून निकाल कर उसे एक तांबे के बरतन में रख देता है और फिर उसे मरीज को पिलाता है. हुआ यों कि एक फिजिशियन की खुद की बहन उन के द्वारा दी गई चेतावनियों के बाद भी इस बाबा के चक्कर में पड़ गई और किर बहुत बीमार भी हो गई, क्योंकि उस का हीमोग्लोबिन लैवल 2 हो गया (नौर्मल  15 या 12). ऐसे उदाहरण हमें रोज देखने को मिलते हैं. इस लड़की को कई दिन आईसीयू में बिताने पड़े.

कई डाक्टरों व नर्सों ने उस की जान बचाने के लिए बहुत मेहनत की. उसे बचाने के लिए फैमिली ने 5 लाख रुपए खर्च किए. जबकि यदि गठिया का इलाज रूटीन से कराया जाए तो महीने में केवल 1 हजार रुपए तक का खर्च आता है.

धार्मिक ढकोसले परेशान करते हैं, सांत्वना या साहस नहीं देते

जब मेरे पापा की मृत्यु हुई, पडोसी, रिश्तेदार, पंडितों का ज्ञान रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, खूब पूजा पाठ, दान दक्षिणा की बात की जा रही थी, पापा टीचर थे, कई दिनों की बीमारी को झेल रहे थे, एम्स में उनका इलाज चलता रहा था, वहीँ लम्बे समय से एडमिट थे, मुज़फ्फरनगर से दिल्ली आने जाने में मम्मी और हम तीन भाई बहन काफी चक्कर लगा रहे थे, अब उनके जाने के बाद मम्मी के सामने और भी जरुरी चीजें थीं पर जैसा कि हमारे समाज में होता है कि जो धर्म ग्रंथों में लिख दिया गया है, वही सच है, आम इंसान अपना आगे का जीवन कैसे जियेगा, इसकी चिंता धर्म के नियम बनाने वालों को कम रही है, खैर, मम्मी भी चूँकि टीचर थीं, तो उन्होंने अच्छी तरह से सोचा समझा और साफ़ कहा कि मैं किसी भी धार्मिक रीति में वो गाढ़ी  कमाई का पैसा खर्च नहीं करुँगी जो हमने अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए रखा है, वो बचा हुआ पैसा मैं इन ढकोसलों में नहीं उड़ाऊँगी,  सबका मुँह बन गया कि पढ़ लिख कर ऐसे ही दिमाग खराब हो जाता है, अब अपने मन की करेंगीं! अति आवश्यक कार्य पूरे कर लिए गए, पर मम्मी के साथ सबका व्यवहार ऐसा था कि पता नहीं मम्मी ने कितना  बुरा काम कर दिया है जो वे रिश्तेदारों, पड़ोसियों, पंडितों की बात मानने के लिए तैयार नहीं हुईं, काफी लम्बे समय तक वे लोगों की नाराजगियाँ झेलती रहीं. पद्रह दिन बाद जब उन्होंने स्कूल जाना शुरू किया तो पड़ोस की कुछ महिलाएं उनके स्कूल निकलने के समय गेट पर आ गयीं और कहने  लगीं, ”कम से कम एक महीना  तो शोक मना लेतीं, आप तो बड़ी जल्दी तैयार होकर चल दीं. ”

मम्मी ने कहा, ”मुझे अपनी छुट्टियां आगे के लिए भी बचा कर रखनी हैं, पता नहीं, कब जरुरत पड़ जाए.‘’

एक महिला ने कहा, ”आपने सफ़ेद कपडे भी नहीं पहने !आप तो कोई भी नियम नहीं मानती हैं.‘’

मम्मी ने कहा, ”बच्चों ने कहा है कि मम्मी अब तक जैसे आप रहतीं थीं, वैसे ही रहना,  नहीं तो हमारा दिल उदास होगा !”

ये भी पढे़ं- आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं

महिलाओं का कहना था, ”बच्चे कहाँ जानते हैं धर्म कर्म की बातें, आपको खुद ही सोचना चाहिए कि इतनी जल्दी आप तैयार होकर निकल लीं, हमें तो देख कर ही अजीब लग रहा है !”

मम्मी फिर चुपचाप स्कूल चली गयीं, हम वहीँ खड़े थे, बड़ों की बातों में बीच में नहीं बोले थे पर यह दृश्य याद रह गया. यह बात मन में बैठ गयी कि धर्म के नाम पर इंसान को काफी मजबूर किया जाता है, जब एक परिवार किसी अपने के जाने के बाद दुःख में डूबा हो, ये ढकोसले उसकी हिम्मत तोड़ रहे होते हैं. यह कहने वाले चुनिंदा लोग ही होते हैं कि धर्म की जंजीरों से खुद को आज़ाद कर जैसे जीना हो, जी लो.

एक परिचित शुक्ला दंपत्ति हैं, मुंबई में तीस सालों से रहते  है, उनके सारे रिश्तेदार दिल्ली में रहते हैं, दिल्ली में किसी के घर भी कोई दुःख सुख हो, इनका जाना जरुरी होता है, चाहे इस परिवार का कोई भी जरुरी काम यहाँ मुंबई में हो, चाहे यहाँ घर में कोई बीमार हो, दिल्ली में अगर किसी रिश्तेदार के यहाँ कुछ भी हो, इन्हे सब छोड़ कर जाना होता है, ये मीरा शुक्ला अपनी परेशानी शेयर करते हुए बताती हैं, ”किसी की भी डेथ हो, उसकी तेरहवीं तक रुकना पड़ता है, सारे धर्म कर्म के समय यहाँ से जाकर हाजिर रहना पड़ता है, कभी बच्चों के एक्जाम्स  भी चलते हैं तो बीच में भागना पड़ता है नहीं तो सब ऐसे ऐसे ताने देते हैं कि पूछिए मत, कहते हैं, मुंबई जाकर सब भुला दिया, धर्म के नाम पर बहाने नहीं करने हैं, जो धार्मिक रस्में हैं, सब अटेंड करनी हैं, बार बार भागना पड़ता है, हर साल कितने रुपए तो इन ढकोसलों में भाग भाग कर जाने में ही खर्च हो जाते हैं, ऊपर से यहाँ बच्चे अकेले कितने परेशान होते हैं, इससे किसी को मतलब ही नहीं !”

शामली निवासी प्रीती जब विवाह करके ससुराल आयी, धर्म के नाम पर पंडितों पर खूब लुटाने वाले सास ससुर को देख कर हैरान थी, वह बताती है, ”कहाँ तो सास ससुर इतने कंजूस कि पूछिए  मत, पर अगर घर आने वाले पंडित ने किसी भी नाम से एक लिस्ट पकड़ा दी, तो वह जरूर पूरी की  जाती. हमने जब नयी कार ली, पंडित जी को बुलाया गया और उसे हमसे मोटी दक्षिणा दिलवाई गयी, मना करने का सवाल ही नहीं पैदा होता था, वरना खराब बहू का तमगा मिलने में देर न लगती. ससुराल के पंडितों ने हमारा खूब खर्च करवाया है,  कभी कुछ बोल भी नहीं पाए. बस, अपनी मेहनत की कमाई धर्मांध, अंधविश्वासी सास ससुर के कहने पर लुटाते रहे.हम पति पत्नी दिल्ली में काम करते हैं, हमें कई बार कई मौकों पर पंडित के बताये हुए मुहूर्त से काम करना पड़ता है, जो काफी असुविधाजनक होता है पर कुछ नहीं कर सकते.‘’

ऐसा भी नहीं है कि छोटे शहरों के परिवारों में ही ऐसा होता है, बड़े बड़े शहरों के परिवारों में भी धार्मिक ढकोसलों में इतना पैसा, एनर्जी , समय खराब किया जाता है कि इंसान चाहे तो इसके बजाय कुछ और सार्थक कर ले. धर्म के नाम पर होने वाले काम इंसान को हौसला नहीं देते, बल्कि उसे मानसिक रूप से कमजोर करते हैं.

कई बार लोग धर्म के हर नियम को मानने से यह समझते हैं कि अब उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचेगा क्योकि वे तो धार्मिक प्रवृत्ति के हैं पर भला ऐसा कभी हुआ है कि अंधविश्वासी होना सुखी रहने की गारंटी हो सकता है ? एक और परिचिता हैं शबाना खान, इन्हे शक हुआ कि इनके पति का किसी से अफेयर है, झट से एक मौलवी  को अकेले में घर बुलाया, झाड़ फूंक कराई, सर्वज्ञानी मौलवी ने भी कह दिया कि किसी का साया है, इन्होने उसके कहने पर पता नहीं कितने पैसे उसे दे दिए कि वही कुछ पढ़ पढ़ कर उसके पति को सही रास्ते पर लाये,  यह कोई अनपढ़ महिला नहीं हैं, टीचर रही हैं, बच्चों को आज भी ट्यूशंस पढ़ाती हैं. अब कोई इनसे पूछे कि मौलवी की हर बात को सही मानने की पीछे क्या तर्क है, यही न कि वे धर्म, मजहब की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, बस, और क्या! धर्म के नाम पर हम सब ऐसे क्यों हो जाते हैं कि कोई तर्क नहीं करते, सच से भागते हैं, कोई सवाल करता है तो उसे नास्तिक कहकर उसका अपमान कर देते हैं.

ये भी पढ़ें- आई सपोर्ट की शुरूआत करना मेरे लिए चैलेंजिंग था: बौबी रमानी

हमारी सोसाइटी में दो फ्रेंड्स पार्क में एक साथ सैर करती हैं, एक महिला क्रिस्चियन है, नीलम, दूसरी दलित हैं,  सीमा,  जब इन्हे पता चला कि सीमा  के पति बहुत बीमार रहते हैं तो इन्होने उन्हें कहना शुरू किया, ”मैं आजकल आपके लिए चर्च में प्रेयर्स कर रही हूँ, सीमा  काफी प्रभावित हुई,  पति को जो थोड़ा आराम मिला था,  उसका कारण चर्च में की गयी प्रेयर्स का नतीजा लगा  तो धीरे धीरे नीलम  के कहने पर  पूरे परिवार ने ईसाई धर्म ही स्वीकार कर लिया,  आर्थिक रूप से भी मदद मिली तो सीमा का परिवार तो नीलम के साथ भक्ति में रंग गया,  हर संडे चर्च जाना नियम बन गया, इलाज पर ध्यान कम दिया जाने लगा जिसके कारण सीमा के पति की तबियत खूब बिगड़ी,  इतनी कि संभलने में घर का हिसाब ही बिगड़ गया, नीलम के पास भागी,  उसने कन्नी काट ली,  दोस्ती में दरार आयी सो अलग !  पति की गंभीर बीमारी को  भूल धर्म के बड़े बड़े उपदेश में डूब कर सीमा ने आर्थिक, मानसिक कष्ट इतना सहा कि खुद भी बीमार पड़ गयी,  डॉक्टर्स से अलग डांट पड़ी,  लोगों ने अलग ताने मारे, मजाक उड़ाया, कि न यहाँ के रहे, न वहां के!

बनारस की मोनिका अपना अनुभव कुछ यूँ बताती हैं, “मैं एक बार बहुत बीमार पड़ी, मैं बेड से उठ ही नहीं पा रही थी, तेज बुखार था, पति टूर पर थे,  पर ऐसी हालत में भी मुझे ही खाना बनाने के लिए आदेश देकर मेरी सासू माँ गुरुद्वारे चली गयीं क्यूंकि उन्हें वहां रोटी बनानी थी,  अपनी सेवा देनी थी जो उनका सालों से चलता आया एक नियम था,  मुझे इस बात में कोई भी आपत्ति नहीं थी पर मेरी इतनी खराब तबीयत में भी वह मेरा ध्यान न रख कर एक दिन भी अपना यह नियम नहीं छोड़ पायीं,  यह बात हमेशा मेरे दिल में चुभी. आँखों के सामने परिवार के ही किसी सदस्य  की हालत इतनी खराब हो,  उसमे भी उनका उस दिन गुरुद्वारे जाकर पुण्य कमाना थोड़ा खल गया.”

होना यह चाहिए कि इंसान के काम आना धर्म हो, इंसानियत सबसे अहम हो. ढकोसलों से दूर रहें, टी वी पर अंधविश्वास फैलाते प्रोग्राम देखना बंद करें,  पत्रिकाएं पढ़ें, किताबें पढ़ें, आज तक पढ़ने के शौक ने किसी का कोई नुकसान नहीं किया है,  पढ़ें,  दिमाग को इन ढकोसलों से आज़ाद करें, ये सिर्फ इंसान को बाँध कर रखते हैं, इनसे जीवन में कोई फ़ायदा नहीं होता.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन खूब लड़ रहीं मर्दानी

ताकि धर्म की दुकानदारी चलती रहे

तनिष्क ज्वैलरी के एक विज्ञापन पर जिस में मुसलिम सास और  हिंदू बहू का प्रेम एक पारंपारिक रिवाज के माध्यम से दिखाया था, हिंदू कट्टरपंथियों को नहीं भाया. उन्होंने पहले ट्विटर पर जम कर कंपनी को लताड़ा और फिर स्वयं नियुक्त भगवा चौकीदार धर्म रक्षा के लिए तनिष्क के शोरूमों पर हमला करने लगे.

कंपनी का मुख्य उद्देश्य तो जेवर बेचने थे, धार्मिक विवाद में फंसना नहीं, इसलिए उस ने तुरंत विज्ञापन प्रसारित करना बंद कर दिया.

कहने को यह असहिष्णुता नई है पर असल में यह हर धर्म में बहुत गहराई तक मौजूद है और जरा सी दरार भी धर्मों के दुकानदारों को मंजूर नहीं. हर धर्म असल में  झूठी कहानियों पर टिका है. यह कमाल है ताश के पत्तों और रेत से बने महल सारे विश्व में मौजूद हैं और कोई समाज इन से अछूता नहीं है. हर धर्म दूसरे धर्म वाले को दुश्मन मानता है और अपने धर्म के बारे में सचाई कहने पर बेहद बिगड़ता है.

इस विज्ञापन में जो दर्शाया गया है वह साफ करता है कि विज्ञापन बनाने वाले ने हिंदूमुसलिम विवाह को एक सामान्य घटना बताया है. यह घटना सामान्य नहीं है.

हिंदूमुसलिम विवाह का अर्थ है कि विवाह भारत में स्पैशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत हुआ जिस में न तो पंडित आया न मौलवी. दोनों की रोजीरोटी मारी गई. इन दोनों के परिवारों ने विवाह के समय बहुत सी पूजाएं नहीं की थीं. उन सब की आमदनी मारी गई. ये परिवार अमीर और संपन्न थे. अत: पैसे मोटे मिलने थे जो मारे गए. नुकसान हो गया.

यही नहीं इन की संतानों के जन्म पर बहुत से रीतिरिवाज नहीं होंगे. उन सब में पैसा मारा गया. सावधानी के लिए विज्ञापन निर्माता ने गोदभराई रस्म दिखाई थी पर यह कहां मंजूर है कट्टरपंथियों को? वे तो जन्म से ले कर मरने तक धर्म का कब्जा हर जीवित व्यक्ति पर रखना चाहते हैं और उस में कोई छूट भी बरदाश्त नहीं है.

भारत में कट्टरपंथी राममंदिर वाले शासन का लाभ ही क्या जब विवाह जैसे पैसे देने वाले रीतिरिवाजों को कम करने की भी बात होने लगे.

कोई बड़ी बात नहीं कि यह भगवा गैंग स्पैशल मैरिज एक्ट जो अंतर्धर्मीय विवादों को कानूनी मान्यता देता है को स्क्रैप करने की बात करने लगे. धर्म की दुकानें बचाने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं और व्यक्ति की स्वतंत्रता व पसंद को कुचल सकते हैं.

किस काम का धर्म

एक दृष्टिकोण से तो यह मामला छोटा सा है, जिस में एक 19 साल की लड़की की जान गई. इस तरह की सैकड़ों जानें हर साल इस देश में जाती हैं. लड़की उत्तर प्रदेश के एक कसबे से दूसरे कसबे में अपने रिश्तेदार के साथ बाइक पर जा रही थी जिस के गिरने से वह मर गई. गिरने का कारण भी आम ही है.

इन 2 जनों को बाइक पर देख कर 2 युवकों ने अपनी बाइक पर से इन्हें छेड़ना शुरू कर दिया. इस इलाके में यह आम सोच है कि अगर एक लड़कालड़की बाइक पर जा रहे हैं तो दोनों प्रेमी हैं और उन्हें छेड़ने का मौलिक अधिकार हर उस जने के पास है जो ज्यादा मजबूत और दबंग है.

इस युवती के बड़े सपने थे. वह एक छोटे से कसबे दादरी के पास डेरी स्वैनर की रहने वाली थी और 99% अंक पा कर अमेरिका में बैक्सन कालेज, मैसाचूसेटस में फु ल स्कौलरशिप पर पढ़ रही थी. एक सुनहरा सपना दबंगों की हरकतों के कारण कुचल दिया गया.

इस तरह की घटनाएं तब से बढ़ गईं हैं जब से देश के कई हिस्सों में रोमियो स्क्वायड बन गए हैं. इन का ऊ पर से कहें तो उद्देश्य गैरजाति में प्रेम होने को ही रोकना नहीं है, किसी तरह का प्रेम होने से रोकना भी है ताकि शादियां सिर्फ  पंडितों के कहने पर कुं डलियां मिला कर हों.

ये भी पढ़ें- समझना होगा धर्म को

इन स्क्वायडों का दूसरा लाभ भगवा गैंगों को लगभग पुलिस पावर देना है ताकि ये धर्म के नाम पर मुसलमानों, दलितों और लड़कियों को लूट सकें और फि र लूट के पैसे से बड़े आलीशान धार्मिक आयोजन कर सकें. आखिर जो आशियाने, झांकियां, फू लों की मालाएं, बत्तियां, भंडारे हर थोड़े से दिनों के बाद लगते हैं, उन का पैसा आया कहां से है. यह लूट का पैसा होगा या उस चंदे का जो बाइकों पर सवार दबंग पे्रमी जोड़ो से है, मुसलमानों से, दलितों से, दुकानदारों स??े वसूलते हैं.

ये दबंग हर ताकत हाथ में रखते हैं. पुलिस वाले भी इन से डरते हैं क्योंकि आज शासन पर इन की पकड़ मजबूत है. थानेदारों का तबादला कराना उन की भीड़ के बाएं हाथ का काम है.

ये भगवाधारी गैंग वैसे जम कर भक्ति संगीत सुनते हैं और भजनकीर्तन में नाचते हैं पर धर्म भक्ति का अर्थ यह कब है कि वे शराफ त से पेश आएंगे? धर्म तो हिंसा सिखाता है. हमारे यहां हिंदू गैंग हैं तो इसलामी देशों में मुसलिम युवकों के और अमेरिका तक में ईसाई कट्टर गैंग हैं. अमेरिका में युवा कम हैं इन गैंगों में, वहां यह बीमारी 30-35 के बाद लगती है जब 1-2 गर्लफ्रैं ड छोड़ कर जा चुकी हों और नौकरी नहीं लग रही हो.

ये भी पढ़ें- छोटे शहरों की लड़कियां क्या असल में दकियानूसी होती हैं

धर्म अगर सद्व्यवहार सिखाता तो दुनिया में कहीं पुलिस की जरूरत ही नहीं होती. हर देश की जेलों में पादरियों, मुल्लाओं, पंडितों की पूजाप्रार्थना कराने वालों की जरूरत रहती है क्योंकि कैदी आमतौर पर कट्टर होते हैं. धर्म किस काम का अगर वह ढंग से जीना न सिखा सके, यह पूछने वाले का मुंह ही बंद कर दिया जाता है.

समझना होगा धर्म को

फरवरी माह से कोरोना, लौकडाउन विषय पर न जाने कितनी चर्चाएं, लेख, कहानियां, कविताएं लिखी और कही गई हैं. आम जीवन में भी न जाने कितने नए किस्सेकहानियां बन पड़े हैं. जीवन और रिश्ते कोरोना से बहुत प्रभावित भी हुए हैं. कोरोना भगाने के मंत्र एंव पूजा भी बताए गए. इन्हीं तीनचार माह में कुछ घटनाएं देखने व सुनने को मिली.

जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाना

मुंबई के एक परिवार में दो बेटे हैं. एक बेटा अन्य महानगर में नौकरी के चलते करीब दस वर्ष पूर्व ही शिफ्ट हो गया था. दूसरा बेटा अकसर विदेश यात्रा पर रहता है. हां उस के पत्नी और बच्चे मुंबई में ही रह रहे हैं. मातापिता मुंबई में अकेले रह रहे थे. वैसे यह उन की मां का स्वयं का फैसला था कि वे परिवार के साथ नहीं रहना चाहती. शुरू से मुंबई में एकल परिवार में ही रही थीं वे. बेटेबहू के साथ व्यवहार में कुछ सामंजस्य नहीं बैठा पाईं, किंतु बड़े बेटेबहू ने समयसमय पर उन की जरूरतों और हारीबीमारी का पूरा खयाल रखा. अब बड़ा बेटा दूसरे शहर में और पिताजी बिस्तर पर. यहां तक कि शौच भी बिस्तर पर. मां ने अपने छोटे बेटे को कह दिया पिताजी को वृद्धाश्रम में भेज दो. छोटा बेटा भी स्वयं पर जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था. सो उस ने तुरंत एक केयर सेंटर का पता किया और पिताजी के लिए वहां व्यवस्था कर दी.

कुछ समय बीता और मुंबई में कोरोना ने जोर पकड़ लिया. कोई भी किसी भी कारण से अस्पताल आए तो कोरोना संक्रमण का डर सताने लगा था.

ऐसे में बड़ी बहू ने अपने देवर को फोन कर सख्त हिदायत दी कि पिताजी को अपने घर में रखो. देवर ने भी टालने के लिए कह दिया ‘‘हां सोचता हूं क्या कर सकता हूं.’’ कुछ दिन बीते और मालूम हुआ जिस केयर सेंटर में पिताजी को रखा गया था वहां भी लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं और उन के पिताजी भी.

अब जैसे ही बड़े बेटे के पास यह खबर पहुंची उस का रोरो कर बुरा हाल था.

सोचने की बात है कि क्या यह छोटे बेटे की गलती थी या उस की नीयत में खोट?

ऐसा नहीं कि उसे जानकारी नहीं थी, उसे हिदायत भी मिली थी फिर भी उस ने अपने पिताजी के लिए स्वयं के घर में व्यवस्था क्यों नहीं की? मैं जो सम झती हूं कि कहीं न कहीं परिवार में आपसी संबंधों में दरार थी या बच्चों की परवरिश में कुछ खोट था.

ये भी पढ़े- छोटे शहरों की लड़कियां क्या असल में दकियानूसी होती हैं

जब थोड़ी छानबीन की गई तो मालूम हुआ उन की मां खूब मंदिर और सत्संग जाती थी. घर में ञ्जा व्रत उपवास करती और अपनी बहुओं को भी ऐसा करने के लिए जोर दिया करती थीं. लेकिन जहां कहीं जिम्मेदारी निभाने का समय आता सास पीछे हट जाती और मौजमस्ती के समय सब से आगे. मंदिर सत्संग भी उन के लिए घूमनेफिरने का एक स्थान था. व्यवहार में बहुत खराब महिला हैं.

यहां तक कि बहुओं की गर्भावस्था के समय उन से दूरी बना लेती और बच्चे के जन्म के समय वह अस्पताल भी न जातीं न ही ऐसे समय में मां द्वारा अपने बेटेबहू को अन्य कुछ सहयोग मिलता. जबकि वे अपने जातसमाज के अन्य लोगों में बहुत मिलनसार रहीं और अकसर जब कोई अस्पताल में एडमिट होता तो फल ले कर उन से मिलने जाया करती थीं.

उन की नजर में अपने घर वालों के लिए अस्पताल जाना मतलब जिम्मेदारी मिलने की आशंका. शायद इसी लिए वे अकेले रहना पसंद करती थीं.

किंतु अब जब बुढ़ापा आया तो अपने पति की जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहतीं सो बेटों ने भी परवाह नहीं की.

अब पिताजी को कोरोना संक्रमण हो गया तो पहले से ही घर में चर्चा होने लगी कि यदि यह बात कहीं फैली तो समाज में इज्जत पर बट्टा लगेगा. सो यह खबर न फैले तो अच्छा. यहां तक भी खुसरफुसर हो गई कि अब पिताजी का बचना मुश्किल है लेकिन मौत कोरोना से हुई यह नहीं बताना चाहिए.

कुल मिला कर बात यह है कि समाज में  झूठी इज्जत कमाने के लिए इतने जोड़तोड़ पहले मां ने किए वे सब से मिलतीजुलती, मौजमस्ती करतीं लेकिन जब किसी का काम पड़ता वे नदारद हो जातीं और कहती अपने लोगों से दूरी रखना ही अच्छा. सो उन्हें कभी इज्जत भी नहीं मिली. अब वही काम बेटेबहू करने लगे.

तो क्या पहले से ही मिलजुल कर मुसीबत के समय एकदूसरे को सहयोग कर परिवार की शांति और इज्जत बरकरार नहीं रखी जा सकती थी?

मंदिरों और सत्संग में जा कर कौन सा धर्म कमाया था और जानेअनजाने अपने बेटों को क्या सीख दी थी कि मौजमस्ती के समय सभी के साथ और काम के समय पीछे हट जाओ.

शायद छोटे बेटे ने बड़े के साथ हुए व्यवहार से जल्दी ही सीख ले ली थी और वह बहुत प्रैक्टिकल हो गया था. वह सम झता था कि यदि मांपिताजी को अपने घर ले कर गया तो उस के स्वयं के परिवार में अशांति होने की संभावना है. घर में काम बढ़ेगा सो अलग. इस के बजाय केयर सेंटर में भेज देना अच्छा. किंतु कोरोना के समय में हिदायत मिलने पर भी उन्हें घर न लाना?

यह वाकई आश्चर्य की बात है.

सिर्फ नौकरों के भरोसे क्यों

ऐसा एक और उदाहरण देखने को मिला बीकानेर के एक परिवार का. जिस में एक बेटा विदेश में रहता है और दूसरा भारत के किसी अन्य शहर में. अपने जीवन को बड़ी जिंदादिली से जीने वाले एक वृद्ध दम्पति अकेले रहते थे.

कोरोना ने पैर पसारे हुए थे और देश के कई शहरों में लौकडाउन था. तभी एक दिन अखबार में तस्वीरों के साथ खबर आती है कि बीकानेर में आकाशवाणी से रिटायर हुए वृद्ध की घर में ही मौत हो गई, उन की दिव्यांग पत्नी रात भर शव के पास बैठी रही और वह चल नहीं सकती थी इसलिए दरवाजा भी नहीं खोल पाई. सुबह कामवाली आई और जब अंदर से दरवाजा नहीं खोला गया तब उस ने पड़ौसियों को खबर की और जब उन्होंने जैसेतैसे दरवाजा खोला तो पाया कि वृद्ध पुरुष घर की लौबी में गिर पड़ा और मर गया. उस की पत्नी जो कि पैरालिटिक है, जैसेतैसे सरकसरक कर उन के पास आई, शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण पड़ोसियों को आवाज भी न लगा पाई और रोरो कर वहीं बेहोश हो गई. यह एक बहुत ही मार्मिक और बड़ी खबर बनी.

यहां भी यह सोचने की बात है कि इतने साधन संपन्न होते हुए भी वे परिवार के साथ क्यों नहीं थे? जबकि वृद्ध दम्पति सरकारी नौकरियों से सेवानिवृत्ति थे यानी कि पढ़ेलिखे थे.

दूसरी बात कोरोना संक्रमण का ज्यादा खतरा कमजोर और वृद्धों को है तो बाहर से आ कर खाना बनाने वाली और सफाई वाली के भरोसे क्यों मातापिता को छोड़ दिया गया था.

ऐसा महसूस होता है, शायद कहीं न कहीं परिवार में भावनात्मक लगाव की ही कमी रही होगी. वरना भारत में जैसे ही कोरोना पैर पसारने लगा उन के बेटे को उन की व्यवस्था अपने पास ही करनी चाहिए थी.

मातापिता की बजाय यदि उन के बच्चे किसी दूसरे शहर में या होस्टल में होते तो भी वे ये व्यवस्था करते.

ये भी पढ़ें- झूठ और भ्रम फैलाते छोटे शहरों के अखबार और न्यूज़ चैनल

कोरोना संक्रमित मरीजों की मृत्यु के बाद

इसी तरह के और भी कई उदाहरण खबरों के माध्यम से मालूम हुए कि यदि परिवार का कोई सदस्य कोरोना संक्रमित हो कर अस्पताल में गया और वहां उस की मृत्यु हो गई तो उस के परिजन उस का शव लेने भी अस्पताल में न पहुंचे और बाद में फोन कर उन का फोन या हाथ की अंगूठी के बारे में पूछा. कई परिजनों ने तो अपने परिवार के सदस्यों को अस्पताल भेज फोन स्विच औफ ही कर दिए थे.

इस तरह के मामले जब सामने आते हैं तो स्थिति सोचनीय हो जाती है कि आखिर परिवारों में ऐसा क्या हो जाता है कि मुसीबत के समय सदस्य एकदूसरे के साथ नहीं होते हैं. खास कर अपने बूढ़े मातापिता को क्यों उन के बच्चे अकेले छोड़ देते हैं या मातापिता स्वयं अकेले रहने का निर्णय ले लेते हैं.

आखिर कमी कहां है

जरूरी कहीं न कहीं कुछ तो कमी है. वे अपने करीबी रिश्तों से उम्मीद छोड़ या तो बाहरी लोगों में मिलनाजुलना पसंद करते हैं या बाबाओं, धार्मिक स्थलों के चक्कर लगाते नजर आते हैं. कोई ञ्जा धर्म यह तो नहीं सिखाता कि मुसीबत के समय अपनों का साथ छोड़ दो या उन की जिम्मेदारी न उठाओ.

कहीं न कहीं धार्मिक ज्ञान की कमी है या सिर्फ धर्म के नाम पर ढोंग, पाखंड किया जाता है. जो लोग सुबहशाम पूजाअर्चना करते हैं, धार्मिक स्थलों, सत्संग एवं अन्य धार्मिक आयोजनों में नियमित रूप से जाते हैं वे आखिर ऐसा करने से कतराते क्यों नहीं?

आज ऐसा महसूस होता है कि धर्म कीसही परिभाषा सीखने एवं सिखाने की अत्यंत आवश्यकता है.

मानवता एवं सत्कर्म ही धर्म होना चाहिए. मुसीबत के समय अपने आसपास, अपने रिश्तेनातों, अपने पास काम करने वालों सभी के साथ सद्व्यवहार, दया भाव एवं करुणा ही धर्म का पर्याय हो.वरना मोटेमोटे ग्रंथों को पढ़पढ़ कर कंठस्थ करना, दियाबत्ती करना, धार्मिक स्थलों में दानदक्षिणा देना, प्रसाद, चढ़ावा सब व्यर्थ है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें