जब मेरे पापा की मृत्यु हुई, पडोसी, रिश्तेदार, पंडितों का ज्ञान रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, खूब पूजा पाठ, दान दक्षिणा की बात की जा रही थी, पापा टीचर थे, कई दिनों की बीमारी को झेल रहे थे, एम्स में उनका इलाज चलता रहा था, वहीँ लम्बे समय से एडमिट थे, मुज़फ्फरनगर से दिल्ली आने जाने में मम्मी और हम तीन भाई बहन काफी चक्कर लगा रहे थे, अब उनके जाने के बाद मम्मी के सामने और भी जरुरी चीजें थीं पर जैसा कि हमारे समाज में होता है कि जो धर्म ग्रंथों में लिख दिया गया है, वही सच है, आम इंसान अपना आगे का जीवन कैसे जियेगा, इसकी चिंता धर्म के नियम बनाने वालों को कम रही है, खैर, मम्मी भी चूँकि टीचर थीं, तो उन्होंने अच्छी तरह से सोचा समझा और साफ़ कहा कि मैं किसी भी धार्मिक रीति में वो गाढ़ी  कमाई का पैसा खर्च नहीं करुँगी जो हमने अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए रखा है, वो बचा हुआ पैसा मैं इन ढकोसलों में नहीं उड़ाऊँगी,  सबका मुँह बन गया कि पढ़ लिख कर ऐसे ही दिमाग खराब हो जाता है, अब अपने मन की करेंगीं! अति आवश्यक कार्य पूरे कर लिए गए, पर मम्मी के साथ सबका व्यवहार ऐसा था कि पता नहीं मम्मी ने कितना  बुरा काम कर दिया है जो वे रिश्तेदारों, पड़ोसियों, पंडितों की बात मानने के लिए तैयार नहीं हुईं, काफी लम्बे समय तक वे लोगों की नाराजगियाँ झेलती रहीं. पद्रह दिन बाद जब उन्होंने स्कूल जाना शुरू किया तो पड़ोस की कुछ महिलाएं उनके स्कूल निकलने के समय गेट पर आ गयीं और कहने  लगीं, ”कम से कम एक महीना  तो शोक मना लेतीं, आप तो बड़ी जल्दी तैयार होकर चल दीं. ”

मम्मी ने कहा, ”मुझे अपनी छुट्टियां आगे के लिए भी बचा कर रखनी हैं, पता नहीं, कब जरुरत पड़ जाए.‘’

एक महिला ने कहा, ”आपने सफ़ेद कपडे भी नहीं पहने !आप तो कोई भी नियम नहीं मानती हैं.‘’

मम्मी ने कहा, ”बच्चों ने कहा है कि मम्मी अब तक जैसे आप रहतीं थीं, वैसे ही रहना,  नहीं तो हमारा दिल उदास होगा !”

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महिलाओं का कहना था, ”बच्चे कहाँ जानते हैं धर्म कर्म की बातें, आपको खुद ही सोचना चाहिए कि इतनी जल्दी आप तैयार होकर निकल लीं, हमें तो देख कर ही अजीब लग रहा है !”

मम्मी फिर चुपचाप स्कूल चली गयीं, हम वहीँ खड़े थे, बड़ों की बातों में बीच में नहीं बोले थे पर यह दृश्य याद रह गया. यह बात मन में बैठ गयी कि धर्म के नाम पर इंसान को काफी मजबूर किया जाता है, जब एक परिवार किसी अपने के जाने के बाद दुःख में डूबा हो, ये ढकोसले उसकी हिम्मत तोड़ रहे होते हैं. यह कहने वाले चुनिंदा लोग ही होते हैं कि धर्म की जंजीरों से खुद को आज़ाद कर जैसे जीना हो, जी लो.

एक परिचित शुक्ला दंपत्ति हैं, मुंबई में तीस सालों से रहते  है, उनके सारे रिश्तेदार दिल्ली में रहते हैं, दिल्ली में किसी के घर भी कोई दुःख सुख हो, इनका जाना जरुरी होता है, चाहे इस परिवार का कोई भी जरुरी काम यहाँ मुंबई में हो, चाहे यहाँ घर में कोई बीमार हो, दिल्ली में अगर किसी रिश्तेदार के यहाँ कुछ भी हो, इन्हे सब छोड़ कर जाना होता है, ये मीरा शुक्ला अपनी परेशानी शेयर करते हुए बताती हैं, ”किसी की भी डेथ हो, उसकी तेरहवीं तक रुकना पड़ता है, सारे धर्म कर्म के समय यहाँ से जाकर हाजिर रहना पड़ता है, कभी बच्चों के एक्जाम्स  भी चलते हैं तो बीच में भागना पड़ता है नहीं तो सब ऐसे ऐसे ताने देते हैं कि पूछिए मत, कहते हैं, मुंबई जाकर सब भुला दिया, धर्म के नाम पर बहाने नहीं करने हैं, जो धार्मिक रस्में हैं, सब अटेंड करनी हैं, बार बार भागना पड़ता है, हर साल कितने रुपए तो इन ढकोसलों में भाग भाग कर जाने में ही खर्च हो जाते हैं, ऊपर से यहाँ बच्चे अकेले कितने परेशान होते हैं, इससे किसी को मतलब ही नहीं !”

शामली निवासी प्रीती जब विवाह करके ससुराल आयी, धर्म के नाम पर पंडितों पर खूब लुटाने वाले सास ससुर को देख कर हैरान थी, वह बताती है, ”कहाँ तो सास ससुर इतने कंजूस कि पूछिए  मत, पर अगर घर आने वाले पंडित ने किसी भी नाम से एक लिस्ट पकड़ा दी, तो वह जरूर पूरी की  जाती. हमने जब नयी कार ली, पंडित जी को बुलाया गया और उसे हमसे मोटी दक्षिणा दिलवाई गयी, मना करने का सवाल ही नहीं पैदा होता था, वरना खराब बहू का तमगा मिलने में देर न लगती. ससुराल के पंडितों ने हमारा खूब खर्च करवाया है,  कभी कुछ बोल भी नहीं पाए. बस, अपनी मेहनत की कमाई धर्मांध, अंधविश्वासी सास ससुर के कहने पर लुटाते रहे.हम पति पत्नी दिल्ली में काम करते हैं, हमें कई बार कई मौकों पर पंडित के बताये हुए मुहूर्त से काम करना पड़ता है, जो काफी असुविधाजनक होता है पर कुछ नहीं कर सकते.‘’

ऐसा भी नहीं है कि छोटे शहरों के परिवारों में ही ऐसा होता है, बड़े बड़े शहरों के परिवारों में भी धार्मिक ढकोसलों में इतना पैसा, एनर्जी , समय खराब किया जाता है कि इंसान चाहे तो इसके बजाय कुछ और सार्थक कर ले. धर्म के नाम पर होने वाले काम इंसान को हौसला नहीं देते, बल्कि उसे मानसिक रूप से कमजोर करते हैं.

कई बार लोग धर्म के हर नियम को मानने से यह समझते हैं कि अब उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचेगा क्योकि वे तो धार्मिक प्रवृत्ति के हैं पर भला ऐसा कभी हुआ है कि अंधविश्वासी होना सुखी रहने की गारंटी हो सकता है ? एक और परिचिता हैं शबाना खान, इन्हे शक हुआ कि इनके पति का किसी से अफेयर है, झट से एक मौलवी  को अकेले में घर बुलाया, झाड़ फूंक कराई, सर्वज्ञानी मौलवी ने भी कह दिया कि किसी का साया है, इन्होने उसके कहने पर पता नहीं कितने पैसे उसे दे दिए कि वही कुछ पढ़ पढ़ कर उसके पति को सही रास्ते पर लाये,  यह कोई अनपढ़ महिला नहीं हैं, टीचर रही हैं, बच्चों को आज भी ट्यूशंस पढ़ाती हैं. अब कोई इनसे पूछे कि मौलवी की हर बात को सही मानने की पीछे क्या तर्क है, यही न कि वे धर्म, मजहब की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, बस, और क्या! धर्म के नाम पर हम सब ऐसे क्यों हो जाते हैं कि कोई तर्क नहीं करते, सच से भागते हैं, कोई सवाल करता है तो उसे नास्तिक कहकर उसका अपमान कर देते हैं.

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हमारी सोसाइटी में दो फ्रेंड्स पार्क में एक साथ सैर करती हैं, एक महिला क्रिस्चियन है, नीलम, दूसरी दलित हैं,  सीमा,  जब इन्हे पता चला कि सीमा  के पति बहुत बीमार रहते हैं तो इन्होने उन्हें कहना शुरू किया, ”मैं आजकल आपके लिए चर्च में प्रेयर्स कर रही हूँ, सीमा  काफी प्रभावित हुई,  पति को जो थोड़ा आराम मिला था,  उसका कारण चर्च में की गयी प्रेयर्स का नतीजा लगा  तो धीरे धीरे नीलम  के कहने पर  पूरे परिवार ने ईसाई धर्म ही स्वीकार कर लिया,  आर्थिक रूप से भी मदद मिली तो सीमा का परिवार तो नीलम के साथ भक्ति में रंग गया,  हर संडे चर्च जाना नियम बन गया, इलाज पर ध्यान कम दिया जाने लगा जिसके कारण सीमा के पति की तबियत खूब बिगड़ी,  इतनी कि संभलने में घर का हिसाब ही बिगड़ गया, नीलम के पास भागी,  उसने कन्नी काट ली,  दोस्ती में दरार आयी सो अलग !  पति की गंभीर बीमारी को  भूल धर्म के बड़े बड़े उपदेश में डूब कर सीमा ने आर्थिक, मानसिक कष्ट इतना सहा कि खुद भी बीमार पड़ गयी,  डॉक्टर्स से अलग डांट पड़ी,  लोगों ने अलग ताने मारे, मजाक उड़ाया, कि न यहाँ के रहे, न वहां के!

बनारस की मोनिका अपना अनुभव कुछ यूँ बताती हैं, “मैं एक बार बहुत बीमार पड़ी, मैं बेड से उठ ही नहीं पा रही थी, तेज बुखार था, पति टूर पर थे,  पर ऐसी हालत में भी मुझे ही खाना बनाने के लिए आदेश देकर मेरी सासू माँ गुरुद्वारे चली गयीं क्यूंकि उन्हें वहां रोटी बनानी थी,  अपनी सेवा देनी थी जो उनका सालों से चलता आया एक नियम था,  मुझे इस बात में कोई भी आपत्ति नहीं थी पर मेरी इतनी खराब तबीयत में भी वह मेरा ध्यान न रख कर एक दिन भी अपना यह नियम नहीं छोड़ पायीं,  यह बात हमेशा मेरे दिल में चुभी. आँखों के सामने परिवार के ही किसी सदस्य  की हालत इतनी खराब हो,  उसमे भी उनका उस दिन गुरुद्वारे जाकर पुण्य कमाना थोड़ा खल गया.”

होना यह चाहिए कि इंसान के काम आना धर्म हो, इंसानियत सबसे अहम हो. ढकोसलों से दूर रहें, टी वी पर अंधविश्वास फैलाते प्रोग्राम देखना बंद करें,  पत्रिकाएं पढ़ें, किताबें पढ़ें, आज तक पढ़ने के शौक ने किसी का कोई नुकसान नहीं किया है,  पढ़ें,  दिमाग को इन ढकोसलों से आज़ाद करें, ये सिर्फ इंसान को बाँध कर रखते हैं, इनसे जीवन में कोई फ़ायदा नहीं होता.

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