Hindi Kahaniyan : कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश

Hindi Kahaniyan : सुनंदा ने ड्रैसिंगटेबल के शीशे में खुद पर एक नजर डाली, खुश हुई. लगा वह अच्छी लग रही है, अपने शोल्डर कट बालों पर कंघी फेरी, मनपसंद परफ्यूम लगाया, टाइम देखा, 5 बज रहे थे. किट्टी पार्टी में जाने का टाइम हो रहा था. अपने बैग में अपना फोन, घर की चाबी रखी, अपने नए कुरते और चूड़ीदार पर फिर एक नजर डाली.

यह ड्रैस उस ने पिछले हफ्ते ही खरीदी थी अपने लिए. आज उस का जन्मदिन है. उस ने सोचा किट्टी पार्टी में जाते हुए एक केक ले कर जाएगी और किट्टी की बाकी सदस्याओं के साथ काटेगी और भरपूर ऐंजौय करेगी.

वह अपनी किट्टी की सब से उम्रदराज सदस्या है. खुद ही उसे हंसी आ गई, उम्रदराज क्यों, 50 की ही तो हो रही है आज, यह इतनी भी उम्र नहीं है कि वह अपने को उम्रदराज सम  झे. वह तो अपनेआप को बहुत यंग और ऊर्जावान महसूस करती है. उम्र से क्या होता है. चलो, कहीं देर न हो जाए. उस ने जैसे ही पर्स उठाया, डोरबैल बजी.

‘इस वक्त कौन है, सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला, तो सामने दिल धक से रह गया. सामने बूआसास सुभद्रा, जेठानी रमा और उस की अपनी बड़ी बहन अलका खड़ी थी.

सुनंदा के मुंह से कोई बोल नहीं फूटा, तो सुभद्रा ने ही कहा, ‘‘अरे, मुंह क्या देख रही है, अंदर आने के लिए नहीं कहेगी?’’

‘‘हांहां, अरे, आइए न आप लोग,’’ कहते हुए उस ने सुभद्रा के पैर छुए. तीनों ने उसे जन्मदिन बिश करते हुए गिफ्ट्स दिए.

रमा बोली, ‘‘आज बहुत अच्छे दिन तुम्हारा बर्थडे पड़ा है, सुबह ही देवीमंदिर में बाबाजी आए हैं. पहले उन का प्रवचन होगा फिर कीर्तन, चलो, हम लोग तुम्हें लेने आए हैं.’’

सुनंदा हकलाई, ‘‘मैं कीर्तन?’’

सुभद्रा ने कहा, ‘‘चल, पता नहीं सारा दिन क्या करती रहती है, कुछ धर्म में मन लगा, पुण्य मिलेगा, बाबाजी इस बार बहुत दिनों में आए हैं. अगली बार पता नहीं कब आएं.’’

सुनंदा का मूड खराब हो गया. मन ही मन बाबाजी को कोसा, आज ही क्यों आ गए, उस की किट्टी है, लेकिन ये तीनों तो यह सुन कर ही बिदक जाएंगी कि वह कीर्तन छोड़ कर किट्टी में जाना चाहती है. वैसे ही ये तीनों उस के रंगढंग देख कर परेशानी रहती हैं.

फिर अलका ने उसे तैयार देख कर पूछा, ‘‘कहीं जा रही थी क्या?’’

‘‘हां दीदी, कुछ जरूरी काम था.’’

‘‘बाद में करती रहना अपना जरूरी काम, बाबाजी के प्रवचन से ज्यादा जरूरी क्या है? इस समय. जल्दी चलो, नहीं तो जगह नहीं मिलेगी.’’

‘तो न मिले. ऐसीतैसी में गया प्रवचन और कीर्तन, उसे नहीं जाना है,’ सुनंदा ने मन ही मन सोचा. तीनों को प्रत्यक्षत: कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी वह, क्या करे यही सोच रही थी कि सुभद्रा ने अधिकारपूर्वक हठीले स्वर में कहा, ‘‘अब चल.’’

सुनंदा ने भरे मन से कहा, ‘‘ठीक है, कार निकाल लेती हूं.’’

सुभद्रा ने कहा, ‘‘हां, गाड़ी से जाना ठीक रहेगा, देर तो कर ही दी तूने.’’

सुनंदा ने कार निकाली, तीनों बैठ गईं. देवीमंदिर पहुंच कर देखा, खूब भीड़भाड़ थी, पुरुष बहुत कम थे जो थे बुजुर्ग ही थे, महिलाओं का एक मेला सा था, सुनंदा मन ही मन छटपटा रही थी, चुपचाप तीनों के साथ जा कर फर्श पर बिछी एक दरी पर एक कोने में बैठ गई. बाबाजी पधारे, सारी महिलाओं ने बाबाजी की जय का नारा लगाया, प्रवचन शुरू हो गया.

सुनंदा परेशान थी, उस का कहां मन लगता है इन प्रवचनों में, कीर्तनों में, किसी बाबाजी में उस की कोई श्रद्धा नहीं है. उसे सब ढोंगी, पाखंडी लगते हैं. प्रवचन के एक भी शब्द की तरफ उस का ध्यान नहीं था. उसे तो यही खयाल आ रहा था कि किट्टी शुरू हो गई होगी. उफ, सब उस का इंतजार कर रहे होंगे. आज वह अपने बर्थडे पर एंजौय करना चाहती थी और यहां यह बाबाजी का उबाऊ प्रवचन, फिर कीर्तन.

हाय, अब सब हाउजी खेल रहे होंगे, कितना मजा आता है उसे इस खेल में. उस के उत्साह का सब कितना मजे लेती हैं, अब स्नैक्स का टाइम हो रहा होगा, नेहा के घर है आज पार्टी, हम सब में सब से कम उम्र की है, लेकिन कितना हिलमिल गई है सब से. आज उस ने मालपुए बनाए होंगे सब की फरमाइश पर. कितने अच्छे बनाती है. सुनंदा के मुंह में पानी आ गया. बाबाजी का ज्ञान चल रहा था.

‘यह दुनिया क्या है, माया है,’ सुनंदा ने मन ही मन तुक बनाई.

‘तू आज मेरे बर्थडे पर ही क्यों आया है,’ अपनी तुकबंदी पर वह खुद ही हंस दी.

उसे मुकराता देख अलका ने उसे कुहनी मारी, ‘शांति से बैठ.’

‘कैसे निकले यहां से. अभी कीर्तन शुरू हो जाएगा,’ यह सोच सब की नजर बचा कर उस ने अपने बैग में हाथ डाल कर मोबाइल पर सुनीता को मिस काल दी. उसे पता था वह तुरंत वापस फोन करेगी. सुनीता उस की सब से करीबी सहेली थी, यह किट्टी इन दोनों ने ही शुरू की थी. छांटछांट कर एक से एक पढ़ीलिखी, नम्र, शिष्ट महिलाओं का ग्रु्रप बनाया था.

सुनीता का फोन आ गया, ‘‘क्या हुआ सुनंदा? तुम कहां हो?’’

सुनंदा ने ऐक्टिंग करते हुए सुभद्रा को सुनाते हुए कहा, ‘‘क्या, कब? अच्छा, मैं अभी पहुंच रही हूं.’’

रमा और अलका ने उसे घबराए हुए देखा, धीरे से पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ सुनंदा ने घबराते हुए कहा, ‘‘मैं जा रही हूं, एक परिचित का ऐक्सीडैंट हो गया है, जाना जरूरी है.’’

सुभद्रा ने आंखें तरेंरी, ‘‘तू फोन बंद नहीं रख सकती थी क्या. बाद में चली जाना, तू जा कर क्या कर लेगी, बाबाजी…’’

सुनंदा ने बात पूरी ही नहीं होने दी, उठ खड़ी हुई, ‘बाद में मिलते हैं.’ सुनंदा जाने लगी, कितनी ही औरतों ने उसे घूरा, वह सब को अनदेखा कर बाहर निकल गई, चैन की सांस ली. केक की प्रसिद्ध शौप पर जा कर केक खरीद और पहुंच गई नेहा के घर. सब उसे देख कर खुश हो गईं.

नेहा ने कहा, ‘‘सुनंदाजी, इतना लेट?’’

सुनीता ने कहा, ‘‘यह तुम फोन पर कब, क्या, क्यों कर रही थीं?’’

सुनंदा ने हंसते हुए सब को पूरी कहानी सुनाई, सब बहुत हंसीं.

अनामिका बोली, ‘‘सुनंदाजी, आप का जवाब नहीं. आप हमारे सामने जिंदादिली का सजीव उदाहरण हैं.’’

‘‘तो और क्या, मैं आज की शाम किसी बाबाजी के लिए तो खराब नहीं कर सकती थी.’’

सब ने पूछा, ‘‘क्यों? आज कुछ खास है क्या?’’

सुनंदा ने केक टेबल पर रखते हुए कहा, ‘‘हां भई, आज मेरा बर्थडे है और मैं यह शाम तुम लोगों के साथ बिताना चाहती थी.’’

सब सुनंदा को गरमजोशी से विश करते हुए उस के गले लग गईं. सुनंदा की आंखें भर आईं. बोली, ‘‘तुम लोग ही तो अब मेरा परिवार हो जिन के साथ समय बिता कर मैं खुश हो जाती हूं.’’

बहुत अच्छा समय बिता कर सुनंदा खुशीखुशी घर लौट आई. घर आ कर अपने बैडरूम में थोड़ी देर के लिए लेट गई, वह अकेली रहती थी, वह 30 साल की थी जब उस के पति नीलेश की कैंसर से मृत्यु हो गई थी. तब उन का इकलौता बेटा गौरव केवल 7 साल का था, सुनंदा के ऊपर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था.

नीलेश की असामयिक मौत पर वह परकटे पंछी की तरह मर्मांतक पीड़ा के अगाध सागर में डूब गई थी पर गौरव को देख कर उस ने खुद को संभाला था. नीलेश इंजीनियर थे, उन की सब जमापूंजी सुनंदा को हस्तांतरित हो गई थी, जिसे सुनंदा ने बहुत सोचसम  झ कर गौरव की पढ़ाई में लगाया था, घर अपना था ही.

आज गौरव भी सौफ्टवेयर इंजीनियर है, जो 1 साल के लिए अपनी पत्नी कविता के साथ अपनी कंपनी की तरफ से किसी प्रोजैक्ट के लिए आस्ट्रेलिया गया हुआ था.

रोज रोरो कर जीने के बजाए सुनंदा ने जीवन को हंसीखुशी से काटना चाहा. गौरव उस  के बैंक अकाउंट में बारबार मना करने पर भी उस की जरूरत से ज्यादा पैसे जमा करवाता रहता था. वे मांबेटे कम, दोस्त ज्यादा थे. गौरव एक आदर्श बेटा सिद्ध हुआ था. ऐसे ही अच्छे स्वभाव की कविता भी थी. गौरव की जिद पर वह ड्राइविंग, कंप्यूटर सब सीख चुकी थी.

एक मेड आ कर सुनंदा के सारे घर के काम कर जाती थी. गौरव और कविता से उस की रोज बात होती थी. कुल मिला कर अपने जीवन से सुनंदा पूर्णत: संतुष्ट थी.

नीलेश अपने मातापिता के छोटे बेटे थे. नीलेश की मृत्यु का उन्हें ऐसा धक्का लगा कि 1 साल के अंदर दोनों का हार्टफेल हो गया था. बड़ा बेटा देवेश उस की पत्नी रमा और उन के 2 बच्चे सार्थक और तन्वी, जिन्हें अपनी चाची सुनंदा से बहुत लगाव था. वे अपनी चाची से मिलने आते रहते थे.

अलका का भी कुछ ही दिन पहले पूना ट्रांसफर हुआ था. इन सब का साथ सुनंदा को अच्छा लगता था, लेकिन वह तब परेशान हो जाती जब ये तीनों उसे किसी न किसी कीर्तन या सत्संग में ले जाने के लिए तैयार रहतीं और उस की इन सब चीजों में कोई रुचि नहीं थी.

वह इन लोगों का अपमान भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि नीलेश की मृत्यु के समय इन सब ने उसे बहुत भावनात्मक सहारा दिया था, जिसे वह भूली नहीं थी.

सुनंदा लेटेलेटे सोच रही थी कि वह अपना जीवन पुण्य कमाने के लिए किसी धार्मिक आयोजन में नहीं बिता सकती, वह वही करेगी जो उसे अच्छा लगता है, जिस से उस के मन को खुशी मिलती है.

नीलेश भी तो अंतिम समय तक उस से यही कहते रहे कि वह हमेशा खुश रहे, अपनी जिंदादिली कभी नहीं छोड़े. वह थी भी तो शुरू से ऐसी ही हंसमुख, मिलनसार, बेहद सुंदर, अपने कोमल व्यवहार से सब के दिल में जगह बनाने वाली.

सुभद्रा बूआ का तो उसे सम  झ आता था. पुराने जमाने की बुजुर्ग महिला थीं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी थी. अपने बहूबेटे के साथ रहती थीं. उन की बहू को उन की कितनी भी जरूरत हो वे हमेशा किसी न किसी प्रवचन या सत्संग में अपना समय बिताती थी.

सुनंदा से वे कभीकभी नाराज हो जाती थीं. कहतीं, ‘‘सुनंदा, क्यों अपना परलोक खराब कर रही हो? नीलेश तो चला गया, अब तुम्हें धर्मकर्म में ही मन लगाना चाहिए. मन शांत रहेगा.’’

सुनंदा कभी तो उन की उम्र और रिश्ते का लिहाज कर के चुप रह जाती. कभी प्यार से कहती, ‘‘बूआजी, मन की शांति के लिए मु  झे किसी के प्रवचन की जरूरत नहीं है.’’

सुनंदा को रमा और अलका पर मन ही मन गुस्सा आता, इस जमाने की पढ़ीलिखी औरतें हो कर कैसे अपना समय किसी बाबाजी के लिए खराब करती हैं, लेकिन वह यही कोशिश करती ये तीनों उसे न ले जाने पाएं.

अगले दिन वह नाश्ता कर के फ्री हुई. रोज की तरह उस ने वेबकैम सैट किया और गौरव और कविता से बात करने लगी. आस्ट्रेलिया के समय के अनुसार गौरव लंच करने इस समय घर आता था तो सुनंदा से जरूर बात करता था. दोनों से बात कर के सुनंदा का मन पूरा दिन खुश रहता था.

गौरव ने पूछा, ‘‘मां, कैसा रहा कल बर्थडे?’’

सुनंदा ने प्रवचन और किट्टी का किस्सा सुनाया, तो गौरव बहुत हंसा. बोला, ‘‘मां, आप का जवाब नहीं. आप हमेशा ऐसी रहना.’’

और थोड़ीबहुत बातचीत के बाद सुनंदा रोज के काम निबटाने लगी. शारीरिक रूप से वह बहुत चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट थी, किसी को अंदाजा नहीं होता था कि वह 50 की हो गई है. वह एमए, बीएड थी.

उस ने काफी साल तक एक स्कूल में अध्यापिका के पद पर काम किया था, लेकिन गौरव ने अपनी नौकरी लगते ही बहुत जिद कर के मां से रिजाइन करवा दिया था. अब वह मनचाहा जीवन जी रही थी और खुश थी. पासपड़ोस की किसी भी स्त्री को उस की जरूरत होती, वह हमेशा हाजिर रहती. पूरी कालौनी में उस ने अपने मधुर व्यवहार और जिंदादिली से अपनी विशेष जगह बनाई हुई थी.

बस कभीकभी पड़ोस की कुछ महिलाएं उस के धार्मिक आयोजनों से दूर भागने पर मुंह बनाती थीं, जिसे वह हंस कर नजरअंदाज कर देती थी. उस का मानना था कि यह जीवन उस का है और वह इसे अपनी इच्छा से जीएगी, हमेशा खुश रहना उसे अच्छा लगता था.

एक दिन नेहा शाम को आई. कहने लगी, ‘‘संडे को हमारी पहली मैरिज ऐनिवर्सरी की ‘वैस्ट इन’ में पार्टी है, आप को जरूर आना है.’’

सुनंदा ने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार किया. थोड़ी देर इधरउधर की गप्पें मार कर नेहा चली गई. संडे को पूरा गु्रप ‘वैस्ट इन’ पहुंचा. पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी. लौन में चारों ओर पेड़ों और सलीके से कटी   झाडि़यों पर टंगी छोटेछोटे बल्बों की   झालरें बहुत सुंदर लग रही थी.

जुलाई का महीना था, बारिश की वजह से प्रोग्राम अंदर हौल में ही था, जो  बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. सब ने नेहा और उस के पति विपिन को बहुत सी शुभकामनाएं और गिफ्ट्स दिए. सब से मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

नेहा ने सब को अपने मातापिता, सासससुर से मिलवाया और अंत में एक सौम्य, स्मार्ट और आकर्षक व्यक्ति को अपने साथ ले कर आई और सब से मिलवाने लगी, ‘‘ये मेरे देव मामा हैं, अभी इन का ट्रांसफर पूना में ही हो गया है. बाकी सब तो कल ही चले जाएंगे, ये हमारे साथ ही रहेंगे.’’

देव ने सब को हाथ जोड़ कर नमस्ते की, अपनी आकर्षक मुसकराहट और बातों से उन्होंने सब को प्रभावित किया.

डिनर हो गया. सुनंदा घर जाना चाहती थी. 12 बज रहे थे. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी. सुनंदा ने नेहा और विपिन से विदा ली और बाहर निकल आई. थोड़ी दूर ही पहुंची थी कि अचानक उस की कार रुक गई. बारिश बहुत तेज थी. उस ने बहुत कोशिश की, लेकिन कार स्टार्ट नहीं हुई. वह परेशान हो गई. पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था. कुछ सम  झ नहीं आया तो उस ने नेहा को अपनी परेशानी बताई.

नेहा ने फौरन कहा, ‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी मामा को भेजती हूं.’’

‘‘अरे, नहीं, उन्हें क्यों तकलीफ देती हो?’’

‘‘कोई तकलीफ नहीं होगी उन्हें. बाकी सब डांस फ्लोर पर हैं. मामा ही अकेले बैठे है. वे आ जाएंगे. मैं आप का नंबर भी उन्हें दे देती हूं.’’

थोड़ी देर में देव पहुंच गए, उन्होंने फोन पर कहा, ‘‘आप अपनी गाड़ी वहीं लौक  कर के मेरी गाड़ी में आ जाइए. बारिश बहुत तेज है. ध्यान से आइएगा. मैं सामने खड़ी ब्लैक गाड़ी में हूं.’’

सुनंदा ने गाड़ी में हमेशा रहने वाला छाता उठाया, गाड़ी लौक की और फिर देव की गाड़ी में बैठते ही बोली, ‘‘सौरी, मेरी वजह से आप को परेशानी उठानी पड़ी.’’

देव हंसते हुए बोले, ‘‘मैं तो वहां अकेले बेकार ही बैठा था. मु  झे बरिश में ड्राइविंग करना अच्छा लगता है.’’

सुनंदा उन्हें अपने घर का रास्ता बताती रही. घर आ गया, तो देव ने कहा, ‘‘अगर आप चाहें तो अपनी कार की चाबी मु  झे दे दें, मैं ठीक करवा दूंगा या घर पर कोई है तो ठीक है.’’

‘‘ओह, थैंक्स अ लौट,’’ कहते हुए सुनंदा ने कार की चाबी देव को दे दी.

देव ‘गुडनाइट’ बोल कर चले गए.

अगले दिन शाम को नेहा देव के साथ सुनंदा से मिलने चली आई. सुनंदा दोनों को देख कर खुश हुई. नेहा देव को सुनंदा के बारे में सब बता चुकी थी. बातचीत के साथ चायनाश्ता होता रहा, रात की पार्टी की बातें होती रहीं.

नेहा ने कहा, ‘‘कितना मना कर रहे हैं हम लोग मामा को अलग फ्लैट ले कर शिफ्ट करने से, लेकिन मामा तो हैं ही शुरू से जिद्दी.’’

देव मुसकराते हुए बोले, ‘‘तुम लोगों को प्राइवेसी चाहिए या नहीं?’’

सुनंदा हंस पड़ी, तो देव उठ खड़े हुए. बोले, ‘‘मैं चलता हूं. मु  झे अपनी नई गृहस्थी की शौपिंग करनी है.’’

नेहा ने कहा, ‘‘विपिन आने वाले होंगे, मैं भी चलती हूं.’’

सुनंदा बोली,’’ मैं भी थोड़ा घर का सामान लेने जा रही हूं.’’

नेहा ने कहा, ‘‘तो आप मामा के साथ ही चली जाइए न. कार तो अभी है नहीं आप के पास.’’

सुनंदा ने औपचारिकतावश मना किया तो देव बोले, ‘‘चलिए न, मु  झे कंपनी मिल जाएगी.’’

सुनंदा ने सहमति में सिर हिला दिया. कहा, ‘‘आप बैठिए, मैं तैयार हो जाती हूं.’’

नेहा चली गई. देव सुनंदा का इंतजार करने लगे. सुनंदा तैयार हो कर आई तो देव ने उसे तारीफ भरी नजरों से देखा तो वह थोड़ा सकुचाई. फिर दोनों घर से निकले ही थे कि बहुत तेज बारिश होने लगी. दोनों ने एकदूसरे को देखा. देव ने कहा, ‘‘क्या हमेशा हम दोनों के साथ होने पर तेज बारिश होगी?’’

सुनंदा खुल कर हंस दी. दोनों ने शौपिंग की. फिर कौफी पी और देव ने सुनंदा को उस के घर छोड़ दिया. देव की बातों से उस ने इतना जरूर अंदाजा लगाया था कि देव अकेले हैं. ज्यादा कुछ उस ने पूछा नहीं था.

वह सोच रही थी वह माने या न माने, देव ने उस के मन में कुछ हलचल सी जरूर पैदा कर दी है. यदि ऐसा नहीं है तो उस का मन देव के इर्दगिर्द ही क्यों भटक रहा है, बाहर बारिश, कार के अंदर चलता एक पुराना कर्णप्रिय गीत, देव का बात करने का मनमोहक ढंग सुनंदा को बहुत अच्छा लगा था. नीलेश के बाद आज पहली बार किसी पुरुष के साथ ने उस के मन में इस तरह हलचल मचाई थी.

अगली किट्टी पार्टी का दिन आ गया. पार्टी सुरेखा के यहां थी. इस बार नेहा सब को उत्साहित हो कर बता रही थी, ‘‘मामा की शादी के 1 साल बाद ही उन का डाइवोर्स हो गया था. मामी अपने किसी प्रेमी के साथ शादी करना चाहती थी.

वह मामा के साथ एक दिन भी नहीं चाहती थी, मामा को उन्होंने बहुत तंग किया. मामी की इच्छा को देखते हुए मामा ने उन्हें चुपचाप डाइवोर्स दे दिया, उन्होंने तो अपने प्रेमी से शादी कर ली, लेकिन मामा ने उस के बाद गृहस्थी नहीं बसाई. मामा एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं. बस, उन्होंने काम में ही हमेशा खुद को व्यस्त रखा.’’

सुनंदा चुपचाप देव की कहानी सुन रही थी. नेहा ने अचानक पूछा, ‘‘सुनंदाजी, आप की और मामा की शौपिंग कैसी रही?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ कह कर सुनंदा और बाकी महिलाएं बातों में व्यस्त हो गईं.

अगले दिन औफिस से लौट कर देव सुनंदा के घर आए, उन्हें कार की चाबी दी. कहा, ‘‘आप की गाड़ी ले आया हूं.’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘थैंक्स, आप बैठिए. मैं चाय लाती हूं.’’

थोड़ी देर में सुनंदा चाय ले आई. बातों के दौरान पूछा, ‘‘आप कैसे जाएंगे अब?’’

देव हंसे, ‘‘आप छोड़ आइए.’’

सुनंदा ने भी कहा, ‘‘ठीक है,’’ और खिलखिला दी.

तभी सुनंदा के मोबाइल की घंटी बजी. अलका थी. हालचाल पूछने के बाद वह कह रही थी, ‘‘सुनंदा, तुम फ्री हो न?’’

सुनंदा के कान खड़े हुए, ‘‘क्यों, कुछ काम है क्या?’’

‘‘अभी से बता रही हूं, मेरी सहेली ने घर पर कीर्तन रखा है. उस ने तुम्हें भी बुलाया है. कल आ जाना, साथ चलेंगे.’’

‘‘ओह दीदी, कल नहीं आ पाऊंगी, मेरी गाड़ी खराब है. मु  झे कल तो समय नहीं मिलेगा. कल डाक्टर के यहां भी जाना है. रैग्युलर चैकअप के लिए और गाड़ी लेने भी जाना है. बहुत काम है दीदी कल.’’

थोड़ीबहुत नाराजगी दिखा कर अलका ने फोन रख दिया. सुनंदा भी फोन रख कर मुसकराने लगी, तो देव ने कहा, ‘‘लेकिन आप की गाड़ी तो ठीक है.’’

सुनंदा ने हंसते हुए अपनी कीर्तन, प्रवचनों से दूर रहने की आदत के बारे में बताया तो देव ने भरपूर ठहाका लगाया. बोले, ‘‘  झूठ तो बहुत अच्छा बोल लेती हैं आप.’’

देव अलग फ्लैट में शिफ्ट हो चुके थे. सुनंदा उन्हें उन की कालोनी तक छोड़ आई. अब तक दोनों में अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. कोई औपचारिकता नहीं बची थी. अब दोनों मिलते रहते, अंतरंगता बढ़ रही थी. कई जगह साथ आतेजाते. सबकुछ अपनेआप होता जा रहा था. देव कभी नेहा के यहां भी चले जाते थे. उन्होंने एक नौकर रख लिया था, जो घर का सब काम करता था.

सुनंदा ने गौरव को देव के बारे में सब कुछ बता दिया था. उन के साथ उठनाबैठना, आनाजाना सब. सुनंदा विमुग्ध थी, अपनेआप पर, देव पर, अपनी नियति पर. अब लगने लगा था शरीर की भी कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं हैं. उसे भी किसी के स्निग्ध स्पर्श की कामना थी. आजकल सुनंदा को लग रहा था कि जैसे जीवन का यही सब से सुंदर, सब से रोमांचकारी समय है. वह पता नहीं क्याक्या सोच कर सचमुच रोमांचित हो उठती.

देव और सुनंदा की नजदीकियां बढ़ रही थीं. देव औफिस से भी सुनंदा से फोन पर हालचाल पूछते. अकसर मिलने चले आते. सुनंदा की पसंदनापसंद काफी जान चुके थे. अत: अकसर सुनंदा की पसंद का कुछ लेते आते तो सुनंदा हैरान सी कुछ बोल भी न पाती.

एक दिन विपिन से विचारविमर्श के बाद नेहा ने सुनंदा को छोड़ कर किट्टी पार्टी की  बाकी सब सदस्याओं को अपने घर बुलाया.

सब हैरान सी पहुंच गईं.

मंजू ने कहा, ‘‘क्या हुआ नेहा? फोन पर कुछ बताया भी नहीं और सुनंदा जी को बताने के लिए क्यों मना किया?’’

नेहा ने कहा, ‘‘पहले सब सांस तो ले लो. मेरे मन में बहुत दिन से कोई बात चल रही है. मु  झे आप सब का साथ चाहिए.’’

अनीता ने कहा, ‘‘जल्दी कहो, नेहा.’’

नेहा ने गंभीरतापूर्वक बात शुरू की, ‘‘सुनंदाजी और मेरे देव मामा को आप ने कभी साथ देखा है?’’

सब ने कहा, ‘‘हां, कई बार.’’

‘‘आप ने महसूस नहीं किया कि दोनों एकदूसरे के साथ कितने अच्छे लगते हैं, कितने खुश रहते हैं एकसाथ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ? सुनंदाजी तो हमेशा खुश रहती हैं.’’

‘‘मैं सोच रही हूं कि सुनंदाजी मेरी मामी बन जाएं तो कैसा रहेगा?’’

पूजा बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या नेहा? सुनंदाजी सुनेंगी तो कितना नाराज होंगी.’’

‘‘क्यों, नाराज क्यों होंगी? अगर वे देव मामा के साथ खुश रहती हैं तो हम आगे का कुछ क्यों नहीं सोच सकते? आज तक वे हमारी हर जरूरत के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. हम उन के लिए कुछ नहीं कर सकते क्या?’’

अनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें अंदाजा है उन की सुभद्रा बूआ, जेठानी और बहन यह सुन कर भी उन का क्या हाल करेंगी?’’

‘‘क्यों, इस में बुरा क्या है? मैं आप सब से छोटी हूं. आप से रिक्वैस्ट ही कर सकती हूं कि आप लोग मेरा साथ दो प्लीज, समय बहुत बदल चुका है और सुनंदाजी तो किसी की परवाह न करते हुए जीना जानती हैं.’’

पूजा ने कहा, ‘‘गौरव के बारे में सोचा है?’’

बहुत देर से चुप बैठी सुनीता ने कहा, ‘‘जानती हूं मैं अच्छी तरह गौरव को, वह बहुत सम  झदार लड़का है, वह अपनी मां को हमेशा खुश देखना चाहता है.’’

बहुत देर तक विचारविमर्श चलता रहा. फिर तय हुआ सुनीता ही इस बारे में सुनंदा से बात करेगी.

अगले दिन सुनीता सुनंदा के घर पहुंच गई. इधरउधर की बातों के बाद सुनीता ने  पूछा, ‘‘और देव कैसे हैं? मिलना होता है या नहीं?’’

सुनंदा के गोरे चेहरे पर देव के नाम से ही एक लालिमा छा गई और वह बड़े उत्साह से देव की बातें करने लगी.

सुनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इतने अच्छे हैं मि. देव तो कुछ आगे के लिए भी सोच लो.’’

सुनंदा ने प्यार भरी डांट लगाई, ‘‘पागल हो गई हो क्या? दिमाग तो ठीक है न?’’

‘‘हम सब की यही अच्छा है. अभी मैं जा रही हूं, अच्छी तरह सोच लो, लेकिन जरा जल्दी. हम लोग जल्दी आएंगी.’’

सुनंदा कितने ही विचारों में डूबतीउतराती रही कि क्या करें. मन तो यही चाहता है देव को अपने जीवन में शामिल कर ले सदा के लिए, पर अब? गौरव क्या कहेगा? सुभद्रा बूआ, रमा और अलका क्या कहेंगी? वह रातभर करवटें बदलती रही. बीचबीच में आंख लगी भी तो देव का चेहरा दिखाई देता रहा.

उधर विपिन और नेहा ने देव से बात की. उम्र के इस मोड़ पर उन्हें भी किसी साथी की जरूरत महसूस होने लगी थी. देव के मन में भी जीवन के सारे संघर्ष   झेल कर भी हंसतीमुसकराती सुनंदा अपनी जगह बना चुकी थी. कुछ देर सोच कर देव ने अपनी स्वीकृति दे दी.

सुबह जब सुनंदा का गौरव से बात करने का समय हो रहा था, सब पहुंच गईं और विपिन और देव के साथ. देव और सुनंदा एकदूसरे से आंखें बचातेशरमाते रहे.

सुनीता ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम हटो, मैं गौरव से बात करती हूं,’’ और फिर वेबकैम पर सुनीता ने गौरव को सबकुछ बताया.

सुनंदा बहुत संकोच के साथ गौरव के सामने आई तो गौरव ने कहा, ‘‘यह क्या मां, इतनी अच्छी बात, मु  झे ही सब से बाद में पता चल रही है.’’

सुनंदा की आंखों से भावातिरेक में अश्रुधारा बह निकली. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

सुनीता ने ही गौरव का परिचय देव से करवाया. देव की आकर्षक, सौम्य सी मुसकान गौरव को भी छू गई और उस ने इस बात में अपनी सहर्ष सहमति दे दी तो सुनंदा के दिल पर रखा बो  झ हट गया.

गौरव ने कहा, ‘‘मां, आप दादी, ताईजी और मौसी की चिंता मत करना, उन सब को मैं आ कर संभाल लूंगा. आप किसी की चिंता मत करना मां. आप अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं. मु  झे तो अभी छुट्टी नहीं मिल पाएगी, लेकिन आप मेरे लिए देर मत करना.’’

गौरव की बातें सुनंदा को और मजबूत बना गईं.

थोड़ी देर चायनाश्ता कर सब सुनंदा को गले लगा कर प्यार करती हुईं अपनेअपने घर चली गईं.

नेहा, विपिन और देव रह गए. विपिन ने कहा, ‘‘अब देर नहीं करेंगे, कल ही मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस में चलते हैं.’’

अगले दिन सुनंदा तैयार हो रही थी. सालों पहले नीलेश की दी हुई लाल साड़ी निकाल कर पहनने का मन हुआ. फिर सोचा नहीं, कोई लाइट कलर पहनना चाहिए. मन को न सही, शरीर को उम्र का लिहाज करना ही चाहिए. वह कुछ सिहर गई, क्या देव को उस के शरीर से भी उम्मीदें होंगी? स्त्री को ले कर पता नहीं क्यों लोग हमेशा नकारात्मक भ्रांतियां रखते हैं, कभी किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि उम्रदराज स्त्री भी…

आगे कुछ सोचने से पहले ही वह खुद ही हंस दी, उम्रदराज? उम्र से क्या होता है, फिर नीलेश का चेहरा अचानक आंखों को धुंधला कर गया. नीलेश उसे हमेशा खुश देखना चाहते थे और बस वह अब खुश थी, सारे संदेहों, तर्कवितर्कों में डूबतेउतराते वह जैसे ही तैयार हुई, डोरबैल बजी. सुनंदा ने गेट खोला. देव उसे ले जाने आ गए थे.

Hindi Stories Online : बंदिनी – रेखा ने कौनसी कीमत चुकाई थी कीमत

Hindi Stories Online : जेल की एक कोठरी में बंद रेखा रोशनदान से आती सुबह की पहली किरण की छुअन से मूक हो जाया करती थी. अपनी जिन यादों को उस ने अमानवीय दुस्साहस से दबा रखा था, वे सब इसी घड़ी जीवंत हो उठती थीं.

पहली बार जब रेखा ने सुना था कि उसे जेल की सजा हुई है, तो उस ने बहुत चाहा था कि जेलखाने में घुसते ही उस के गले में फांसी लगा दी जाए. उसे कहां मालूम था कि सरकारी जेल में महिला कैदियों की कोई कमी नहीं है, और कोर्ट में अपनी सुनवाई के इंतजार में ही वे कितनी बूढ़ी हो गई हैं. फीमेल वार्ड में घुसते ही रेखा आश्चर्यचकित हो गई थी. अनगिनत स्त्रियां थीं वहां. बूढ़ी से ले कर बच्चियां तक.

देखसुन कर रेखा ने साड़ी से फांसी लगा कर मरने का विचार भी त्याग दिया था. सोचा, बड़ी अदालत को उस के लिए समय निकालतेनिकालते ही कितने साल पार हो जाएंगे. और वही हुआ था. देखते ही देखते दिनरात, महीने गुजरते चले गए और 4 वर्ष बीत गए थे. बीच में एकदो बार जमानत का प्रयास हुआ था, परंतु विफल ही रहा था. एनजीओ कार्यकर्ता आरती दीदी ने अभी भी प्रयास जारी रखा था, परंतु रिहाई की आशा धूमिल ही थी.

‘‘रेखा, रोज सुबह तुझे इस रोशनदान में क्या दिख जाता है?’’

शीला के इस प्रश्न पर रेखा थोड़ी सहज हो गई थी. पिछले 2 वर्षों से दोनों एकसाथ जेल की इस कोठरी में कैद थीं. शीला ने अपने शराबी पति के अत्याचारों से तंग आ कर उस की हत्या कर दी थी. उस ने अपना अपराध न्यायाधीश के सामने स्वीकार कर लिया था. किंतु किसी ने उसे छुड़ाने का प्रयास नहीं किया था. उसे उम्रकैद हुई थी.

तभी से वह और अधिक चिड़चिड़ी हो गई थी. वह रेखा की इस नित्यक्रिया से अवगत थी और इस क्रिया का प्रभाव भी देख चुकी थी. आज वह खुद को रोक नहीं पाई थी और रेखा से वह प्रश्न पूछ बैठी थी. शीला के प्रश्न पर रेखा ने एक हलकी मुसकान के साथ उत्तर दिया था.

‘‘रोज एक नई सुबह.’’

‘‘हमारे जीवन में क्या बदलाव लाएगी सुबह, हमारे लिए तो हर सुबह एकसमान है,’’ शीला ने ठंडी आह भरी.

‘‘यहां तुम गलत हो, स्वतंत्र मनुष्य रोज एक नई सृजन के बारे में सोच सकता है,’’ रेखा के चेहरे पर हलकी सी लुनाई छा गई थी.

शीला का चेहरा और आंखें सख्त हो आईं, बोली, ‘‘तुम एक बंदिनी हो, याद है या भूल गईं, तुम क्या स्वतंत्र हो?’’

रेखा इस सवाल का जवाब ठीक से न दे सकी, ‘‘शायद अभी पूरी तरह से नहीं, परंतु उम्मीद है…’’

‘‘यह हत्यारिनों का वार्ड है. यहां से रिहाई तो बस मृत्यु दिला सकती है. चिरबंदिनियां यहां निवास करती हैं,’’ रेखा की बात को बीच में काट कर ही शीला लगभग चिल्लाते हुए बोली थी.

रेखा बोली, ‘‘स्वतंत्र प्रतीत होता मनुष्य भी बंदी हो सकता है, उस यंत्रणा की तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं.’’

दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि घंटी की तेज आवाज सुनाई पड़ी थी. बंदिनियों के लिए तय काम का समय हो चुका था. सभी कैदी वार्ड से बाहर निकलने लगी थीं. रेखा और शीला भी बाहर की तरफ चल दी थीं.

आज जिस अपराध की दोषी बन रेखा इस जेल की चारदीवारों में कैद थी उस अपराध की नींव वर्षों पूर्व ही रख दी गई थी. उस के बंदीगृह तक का यह सफर उसी दिन शुरू हो गया था जब वह सपरिवार ओडिशा से शिवपुरी आई थी.

शिवपुरी, मध्य प्रदेश का एक शहर है. यह एक पर्यटन नगरी है. यहां का सौंदर्य अनुपम है. यहीं के एक छोटे से गांव में रेखा अपने परिवार के साथ आई थी.

ओडिशा के एक छोटे से गांव मल्कुपुरु में रेखा का गरीब परिवार रहा करता था. पिछले कई सालों से उस के मामा अपने परिवार समेत शिवपुरी के इसी गांव में आ कर बस गए थे. उन की आर्थिक स्थिति में आए प्रत्याशित बदलाव ने रेखा के पिता को इस गांव में आने के लिए प्रोत्साहित किया था.

4 भाईबहनों में रमेश सब से बड़ा था और विवाहित भी. सतीश उस से छोेटा था परंतु अधिक चतुर था. वह अभी अविवाहित ही था. उन के बाद कल्पना और रेखा थीं. सब से छोटी होने के कारण रेखा थोड़ी चंचल थी. आरंभ में रेखा और उस की बड़ी बहन कल्पना इस बदलाव से खुश नहीं थीं, परंतु मामा के घर की अच्छी स्थिति ने उन के भीतर भी आशा की लौ रोशन कर दी थी. यह उन्हें मालूम नहीं था कि यह लौ ही उन्हें और उन के सपनों को जला कर भस्म कर देगी.

गांव में आने के कुछ दिनों बाद ही कल्पना के विवाह की झूठी खबर उस के पिता और मामा ने उड़ा दी थी. मां का विरोध सिक्कों की झनकार में दब गया था. कल्पना अपने सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई थी और रेखा इस खुशी का आनंद लेने में. परन्तु दोनों ही बहनें सचाई से अनजान थीं. जब तक दोनों को हकीकत का पता चला तब तक देर हो चुकी थी.

प्रथा के नाम पर स्त्री के साथ अत्याचारों की तो एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है. इस गांव में भी कई सालों से एक विषैली प्रथा ने अपनी जड़ें फैला ली थीं. स्थानीय भाषा में इस प्रथा का नाम ‘धड़ीचा’ था, जिस के तहत लड़कियों को एक साल या ज्यादा के लिए कोई भी पुरुष अपने साथ रख सकता था, अपनी बीवी बना कर. इस के एवज में वह लड़की की एक कीमत उस के घर वालों  या संबंधित व्यक्ति को देता था. लड़की को बीवी बना कर एक साल के लिए ले जाने वाला पुरुष कोई गड़बड़ी न करे, अनुबंध में रहे, इस के लिए 10 रुपए से ले कर 100 रुपए के स्टांपपेपर पर लिखापढ़ी होती थी. एक बार अनुबंध से निकली लड़की को दोबारा अनुबंधित कर के बेच दिया जाता था.

इस दौरान जन्म लिए गए संतानों की भी एक अलग कहानी थी. उन्हें यदि पिता का परिवार नहीं अपनाता था तो वे मां के साथ ही लौट आते थे. अगला खरीदार यदि उन्हें साथ ले जाने को तैयार नहीं होता तो लड़की को उसे अपने परिवार के पास छोड़ना पड़ता था.

पुत्रमोह के लालच में कन्याभू्रण की हत्या करते गए, और जब स्त्रियों का अनुपात कम होता गया तो उन का ही क्रयविक्रय करने लगे. परंतु बात इतनी भी आसान नहीं थी. हकीकत में पैसे वाले पुरुषों को अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए रोज एक नया खिलौना प्राप्त करना ही इस प्रथा का प्रयोजन मात्र था.

भारत में इन दिनों नारीवाद और नारी सशक्तीकरण का झंडा बुलंद है. परंतु महानगरों में बैठे लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि देश के गांवकूचों में महिलाओं की हालत किस कदर बदतर हो चुकी है.

कल्पना को भी 10 रुपए के स्टांपपेपर पर एक साल के लिए 65 साल के एक बुजुर्ग के हवाले कर दिया गया था. हालांकि उस की पहली पत्नी जीवित थी, परंतु वह वृद्ध थी. और पुरुष कहां वृद्ध होते हैं. कल्पना के दूसरे खरीदार का भी चयन हो रखा था. वह उसी बुजुर्ग का भतीजा था और उस की पत्नी का देहांत पिछले वर्ष ही हुआ था. कल्पना का पट्टा देना तय करने के बाद वे रेखा को ले कर अपने महत्त्वाकांक्षी विचार बुनने लगे थे.

लाखों में एक न होने पर भी रेखा के चेहरे का अपना आकर्षण था. लंबी, छरहरी देह, गेहुआं रंग, सुतवां नाक, और ऊंचे उठे कपोल. बड़ी आंखें जिन में चौबीसों घंटे एक उज्ज्वल हंसी चमकती रहती, काले रेशम जैसे बाल और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे जिस में पलभर का पाहुना भी सदा के लिए गिरने स्वयं ही चला आए. अशोक तो पहली नजर में ही दिल हार बैठा था.

अशोक एक व्यापारी मोहनलाल के घर में काम करता था. मोहनलाल ग्वालियर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था. गांव में उस की बहुत जमीनें थीं जिन की देखभाल के लिए उस ने अशोक और उस के बड़े भाई को लगा रखा था. वह साल में कई बार गांव आता था. मंडी में आई अकसर हर कुंआरी लड़की का खरीदार वही होता था. शादीशुदा, अधेड़ उम्र का आदमी और 4 बच्चों का पिता, परंतु पुरुष की उम्र और वैवाहिक स्थिति उस की इच्छाओं के आड़े नहीं आती.

समाज के नियम बनाने वालों के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता. जाति से ब्राह्मण और व्यवसाय से बनिया मोहनलाल बहुत ही कामी और धूर्त पुरुष था. वह अपना व्यवसाय तो बदल चुका था परंतु जातीय वर्चस्व का झूठा अहंकार आज भी कायम था. बहुत जल्द ही वह राजनीतिक मंच पर पदार्पण करने वाला था. इसी व्यस्तता के कारण पिछले कुछ वर्षों में उस का गांव आना थोड़ा कम हो गया था.

अशोक इसी बात से निश्ंिचत था. उस ने रेखा को खरीद कर कहीं दूर भाग जाने की साहसी योजना भी बना रखी थी. शुरू में रेखा केवल अशोक के प्रेम से अवगत थी, वह न तो उस के अस्तित्व के बारे में जानती थी और न ही उस की योजना के बारे में. परंतु कल्पना की  विदाई ने उसे वास्तविकता से अवगत करा दिया था. रेखा को यह भी मालूम हो गया था कि उस के धनलोलुप परिवार के मुंह में खून लग चुका है.

शीघ्र ही रेखा को अपने परिवार की नई योजना की भनक भी लग गई थी. अशोक सदा रेखा से किसी बड़े काम के लिए पैसे बचाने की बात करता था. उस समय रेखा को लगा करता था, वह शायद किसी व्यवसाय हेतु बचत कर रहा है. परंतु अब वह इस बचत के पीछे का मतलब समझ गई थी. किंतु अब रेखा के परिवार वालों के पास एक नया और प्रभावशाली ग्राहक आ गया था. इस में कोई शक नहीं था कि वे रेखा का सौदा उस के साथ तय करने वाले थे.

इस प्रथा की बात छिपाने की वजह से रेखा अशोक से नाराज थी, परंतु अशोक ने उसे समझाबुझा कर शांत कर दिया था. रेखा इस गांव से पहले ही भाग जाना चाहती थी, अशोक के तर्कों से हार गई थी. बदली हुई परिस्थितियों ने उसे भयभीत कर दिया था और उस ने अपना गुस्सा अशोक पर जाहिर किया था कि, ‘‘जिस बहुमूल्य को खरीदने के लिए तू इतने महीनों से धन जोड़ रहा था, उस के कई और खरीदार आ गए हैं.’’

एकाएक हुए इस आघात के लिए अशोक तैयार नहीं था, वह लड़खड़ा गया. न जाने कितने महीनों से पाईपाई जोड़ कर उस ने 2 लाख रुपए जमा किए थे. रेखा की यही बोली उस के भाई ने लगाई थी. अशोक जानता था कि रेखा को अपना बनाने के लिए उस का प्रेम थोड़ा कम पड़ेगा, इसलिए वह धन जोड़ रहा था. परंतु आज रेखा के इस खुलासे ने जाहिर कर दिया था कि विक्रेता अपनी वस्तु के दाम में परिस्थिति के अनुसार बदलाव कर सकता है.

थोड़ी देर पहले रेखा को उस पर गुस्सा आ रहा था, परंतु अब अशोक की दशा देख कर उसे दुख हो रहा था. उस ने करीब जा कर अशोक को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘तूने कैसे भरोसा कर लिया उस भेडि़ए पर. अरे पगले, जो अपनी बहन का व्यापार कर सकता है, वह क्या कभी सौदे में लाभ से परे कुछ सोच सकता है?’’

‘‘जान से मार दूंगा मैं, उन सब को भी और तेरे भाई को भी,’’ रेखा के बाजुओं को जोर से पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ा था अशोक.

‘‘अच्छा, मोहनलाल को भी?’’ रेखा ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

वह एक ही पल में छिटक कर दूर हो गया,

‘‘क्य्याआआ?’’

एक दर्दभरी मुसकान खिल गई थी रेखा के चेहरे पर, ‘‘बस, प्यार का ज्वार उतर गया लगता है.’’

काफी समय तक दोनों निशब्द बैठे रहे थे. फिर अशोक ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘रेखा, तू अपने भाई की बात मान ले. हां, परंतु मोहनलाल से पहले तू मेरी बन जा.’’

‘‘पागल हो गया है क्या? मैं…’’ रेखा को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी उस ने और दोबारा बोल पड़ा था, ‘‘रेखा, सारा चक्कर तेरे कौमार्य का है. एक बार तेरा कौमार्य भंग हो गया तो तेरा दाम भी कम हो जाएगा. मोहनलाल ज्यादा से ज्यादा तुझे एक साल रखेगा. चल, हो सकता है तेरी सुंदरता के कारण अवधि को एकदो साल के लिए बढ़ा दे परंतु उस के बाद तो तुझे छोड़ ही देगा. फिर तुझे मैं खरीद लूंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन?’’

‘‘मैं मोहनलाल को जीतने नहीं दूंगा. कुंआरी लड़कियों का कौमार्य उसे आकर्षित करता है न, तू उसे मिलेगी तो जरूर, पर मैली…’’

रेखा अशोक के ऐसे आचरण के लिए तैयार नहीं थी. पुरुष चाहे कितनी ही लड़कियों के साथ संबंध रखे, वह हमेशा पाक, परंतु स्त्री मैली. वह यह भूल जाता है मैला करने वाला स्वयं पाक कैसे हो सकता है. परंतु कोई भी निर्णय लेने से पहले वह कुछ और प्रश्नों का उत्तर चाहती थी, ‘‘यदि मेरा कोई बच्चा हो गया तो?’’

‘‘न, न. तुझे गर्भवती नहीं होना है. किसी और का पाप मैं नहीं पालूंगा.’’

एक आह निकल गई थी रेखा के मुख से. इस पुरुष की कायरता से ज्यादा उसे स्वयं की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. उस की वासना को प्रेम समझने की भूल उस ने स्वयं की थी. रेखा ने एक थप्पड़ के साथ अशोक के साथ अपने संबंधों पर विराम लगा दिया था. परंतु अब अपने परिवार द्वारा रचित व्यूह में वह अकेली रह गई थी.

चक्रव्यूह की रचना तो हो गई थी, उसे भेदने के लिए महाभारत काल में अभिमन्यु भी अकेला था और आज रेखा भी अकेली ही थी. तब भी केशव नहीं आए थे और आज भी कोई दैवी चमत्कार नहीं हुआ था. पराजित दोनों ही हुए थे.

पराजित रेखा मोहनलाल की रक्षिता बन ग्वालियर चली गई थी. दूर से ही जिस के जिस्म की सुगंध राह चलते को भी मोह कर पलभर को ठिठका देती थी, वही रेखा अब सूखी झाडि़यों के झंकार के समान मोहनलाल के घर में धूल खा रही थी.

केवल शरीर ही नहीं, वजूद भी छलनी हो गया था उस का. मोहनलाल के घर में बीते वो 10 साल अमानुषिक यातनाओं से भरे हुए थे. उस का शरीर जैसे एक लीज पर ली हुई जमीन थी, जिसे लौटाने से पहले मालिक उस का पूरी तरह से दोहन कर लेना चाहता था. कभी मालिक खुद रौंदता था, कभी उस के रिश्तेदार, तो कभी उस के मेहमान. घर की स्त्रियों से भी सहानुभूति की उम्मीद बेकार थी.

औरतों के लिए कू्ररता करने में स्वयं औरतें पुरुषों से कहीं आगे हैं. वे शायद यह नहीं जानतीं कि इसी वजह से पुरुषों के लिए उन की नाकदरी और उन का शोषण करना इतना आसान हो जाता है. औरतों का शोषण करने के लिए पुरुषों को साथ भी औरतों का ही मिलता है.

रेखा का शारीरिक शोषण घर के पुरुष करते थे, परंतु घर की स्त्रियां भी उस का जीवन नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. वे सभी घर के पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ तो कभी एकजुट नहीं हो पाईं, परंतु एक निरपराधी को सजा देने में एकजुट हो गई थीं. पुरुषों की शारीरिक भूख रात में शांत कर, दिन में उसे घर के बाकी काम भी निबटाने पड़ते थे.

10 वर्षों के अमानुषिक शोषण के बाद एक दिन एकाएक अनुबंध समाप्त होने का हवाला देते हुए रेखा को वापस उस के परिवार के पास छोड़ दिया गया था. इन 10 सालों में उस के 8 गर्भपात भी हुए थे. कारण जो भी बताया गया हो परंतु रेखा शायद अनुबंध समाप्त करने की सही वजह समझ रही थी.

जब रेखा मोहनलाल के घर पर थी, उस समय एक एनजीओ की मैडम ने एकदो बार उस से संपर्क करने का प्रयास किया था. परंतु उन्हें बुरी तरह प्रताडि़त कर निकाल दिया गया था. बड़ी मुश्किलों से अपने प्राण बचा कर निकल पाई थी बेचारी, परंतु जातेजाते भी न जाने कैसे अपना फोन नंबर कागज पर लिख कर फेंक गई थी. 5वीं तक की गई पढ़ाई काम आई थी उस के, रेखा ने नंबर कंठस्थ करने के बाद कागज को जला दिया था.

ग्वालियर एक शहर था और वहां इस के बाद बात का छिपना आसान नहीं था. सो, रेखा को वापस भेज दिया गया था, वैसे भी, अब तक रेखा का पूर्ण इस्तेमाल हो चुका था.

10 सालों में रेखा का परिवार भी बदल चुका था. उन की आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई थी. कल्पना भी अपने 5वें अनुबंध के खत्म होने के बाद घर आ गई थी. उस की अब एक बेटी भी थी, पूजा.

दोनों ही बहनें जानती थीं कि कुछ ही दिनों में उन्हें उन के नए सहचरों के साथ चले जाना होगा. इसलिए अब अपना पूरा समय दोनों पूजा पर मातृत्व लुटाने में व्यतीत करने लगीं थीं. किंतु अति शीघ्र ही रेखा ने आने वाली विपत्तियों को भांप लिया था, जब उस ने अशोक को अपने द्वार पर खड़ा पाया था, ‘‘तुम हो मेरे नए ग्राहक?’’

अशोक ने रेखा की विदाई के कुछ दिनों बाद ही विवाह कर लिया था. सो, आज वह फिर यहां क्यों आया था, यह समझने में रेखा को थोड़ी देर लगी थी.

‘‘मैं यहां तेरे लिए नहीं आया हूं. वैसे भी तेरे पास बचा क्या है,’’ उस ने बड़ी ही हिकारत से उत्तर दिया था.

‘‘फिर किस लिए आए हो?’’

‘‘मैं पूजा के लिए आया हूं.’’

रेखा सब समझ गई थी. प्रतिदिन की वे गोष्ठियां कल्पना और रेखा के लिए नहीं, बल्कि पूजा के लिए हो रही थीं. अशोक से लड़ना मूर्खता थी. वह सीधा अपने भाइयों के पास गई और बड़े भाई की गरदन दबोच ली.

‘‘9 साल की बच्ची है पूजा, मामा है तू उस का. लज्जा न आई तुझे?’’

एक झटके में उस के भाई ने अपनी गरदन से रेखा का हाथ हटा लिया था. लड़खड़ा गई थी रेखा, कल्पना ने संभाला नहीं होता तो गिर ही जाती.

‘‘दोबारा हिम्मत मत करना, वरना हाथ उठाने के लायक नहीं रहेगी.’’

भाई से इंसानियत की अपेक्षा उस की भूल थी. उस ने कल्पना से बात करनी चाही, ‘‘दीदी, तुम ने सुना, ये लोग पूजा के साथ क्या करने वाले हैं?’’

उत्तर में कल्पना ने मात्र सिर झुका दिया था.

हमारे समाज की ज्यादातर स्त्रियां अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम दे देती हैं. बिना कोशिश किए अपनी हार स्वीकार करने की सीख तो उन्हें जैसे घुट्टी में मिला कर पिलाई जाती है. परजीवी की तरह जीवन गुजारती हैं और फिर एक दिन वैसे ही मृत्यु का वरण कर लेती हैं. हमेशा एक चमत्कार की उम्मीद करती रहती हैं, जैसे कोई आएगा और उन के कष्टों का समाधान हो जाएगा. आत्मनिर्भरता तो वे खुद भीतर कभी जागृत नहीं कर पातीं. कल्पना भी अपवाद नहीं थी.

रेखा और कल्पना के विरोध के बावजूद पूजा का विवाह मोहनलाल के छोटे बेटे से तय कर दिया गया था. वह मंदबुद्धि था. किसी महान पंडित ने उन्हें बताया था कि यदि उस का विवाह एक नाबालिग कुंआरी कन्या से हो जाए तो वह बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा. शादी जैसे संजीवनी बूटी हो, खाया और एकदम फिट. रेखा यह भी जानती थी कि उस घर के बंद दरवाजों के पीछे कितना भयावह सत्य छिपा था.

शादी का मुहूर्त 3 महीने बाद का निकला था. इसी बीच रेखा और कल्पना को भी बेचने की तैयारियां चल रही थीं. रेखा जानती थी कि उस के पास समय कम है, जो करना है जल्द ही करना होगा.

परंतु इस बार रेखा किसी भी तरह का विरोध झेलने के लिए मजबूती के साथ तैयार थी. पिछली बार खुद के लिए लड़ी गई जंग वह हार गई थी, परंतु इस बार उस ने अंतिम सांस तक प्रयत्न करने का निश्चय कर लिया था. पुलिस और पंचायत से तो रेखा ने उसी समय उम्मीद छोड़ दी थी जब उसे जबरदस्ती प्रथा के नाम पर बलि चढ़ा दिया गया था. सभी प्रथाओं की लाश स्त्रियों के कंधों पर ही तो ढोई जाती है.

अपने भाइयों की नजर बचा कर उस ने अपने भाई के मोबाइल से आरतीजी को फोन किया. उस की आपबीती सुन कर आरती ने भी मदद ले कर शीघ्र आने का आश्वासन दिया था. परंतु नियति उस की चौखट पर खड़ी अलग ही कहानी रच रही थी.

वह रात पूनम की थी जो उस घर में अमावस ले कर आई थी. जिस प्रथा को छिपा कर रखने के लिए पूरा गांव कुछ भी करने को तैयार था, उस एक घटना ने इस प्रथा की कलई पूरे देश के सामने खोल कर रख दी थी. इस एक घटना से यह प्रथा समाप्त तो नहीं हुई थी, परंतु वह भारत जो ऐसी किसी प्रथा के अस्तित्व के बारे में अनभिज्ञ था, इस के बारे में बात करने लगा था.

उस रात जब रेखा सोने के लिए अपने कमरे में गई थी, सबकुछ स्वाभाविक ही था. परंतु खुद सुप्त ज्वालामुखी को नहीं पता होता कि उस के किसी हिस्से में आग अभी भी बाकी है. असहनीय पीड़ा की परिणति कभीकभी भयावह होती है. ऐसी बात तो सभी करते हैं, परंतु अगली सुबह जब लोगों ने उस घर में 6 लाशें देखीं, तो मान भी गए थे.

रेखा के अलावा घर के सभी लोग मौत की स्याह चादर ओढ़ कर सो गए थे. उन के वजूद की मृत्यु तो बहुत पहले हो चुकी थी, आज शरीर खत्म हुआ था. एकएक कर पुलिस शिनाख्त कर रही थी.

पहली चादर उस मां के चेहरे पर डाली गई जिस ने अपनी बेटियों को जन्म देने की कीमत उन के शरीर की बोली लगा कर वसूल की थी. कल्पना को मारे गए कई थप्पड़ आज जीवंत हो कर उसी के चेहरे को स्याह कर रहे थे.

अगली चादर उस पिता के ऊपर डाली गई जिस ने पिता होने का कर्तव्य तो कभी नहीं निभाया, परंतु पुत्री के शरीर को भेडि़यों के बीच फेंक कर उस की कीमत वसूलने को अपना अधिकार अवश्य माना था.

फिर चादर उन 2 भाइयों के चेहरों पर डाली गई जो खुद अपनी बहनों के दलाल बने घूमते थे.

चादर उस भाभी के चेहरे पर भी डाली गई जो एक स्त्री थी और मां बनने के लिए न जाने कितने तांत्रिकों व पंडितों के चक्कर लगा रही थी. परंतु जब एक छोटी बच्ची की बोली उस का पति लगा रहा था, वह न केवल मौन थी बल्कि आने वाले धन के मधुर स्वप्नों में खोई हुई थी.

छठी लाश को देख कर प्रशासन और गांव वाले सभी चकित थे. वह लाश बड़े मंदिर के पुजारी और मोहनलाल के सलाहकार गोपाल चतुर्वेदी की थी. वे नीची जाति से बात करना तो दूर, उन की छाया से भी परहेज करते थे. वे ही अनुबंध के बाद मोहनलाल के घर जाने से पहले सभी लड़कियों का शुद्धि हवन करवाते थे. उन्होंने ही पूजा को चुना था. ऐसा धार्मिक पुरुष इन लोगों के घर क्या करने आया था, इस बात ने सब को अचंभे में डाल दिया था. परंतु क्या वो लोग नहीं जानते थे कि दलाल भी रातों में ही काम करते हैं.

कल्पना और उस की बेटी पूजा घर से लापता थीं. पुलिस वाले एक स्वर में कल्पना को ही अपराधी मान रहे थे. प्रथम दृष्टया में हत्या विष दे कर की गई लगती थी.

काफी देर से कोने में खामोश बैठी रेखा अचानक ही बोल पड़ी थी, ‘‘कल्पना पिछली रात ही अपने प्रेमी के साथ भाग गई है. इन सब को मैं ने मारा है.’’

रेखा की आवाज में लेश मात्र भी कंपन नहीं था. ‘‘ऐ लड़की, तुझे पता भी है क्या कह रही है, फांसी भी हो सकती है,’’ एक पुलिस वाली चिल्ला कर बोली.

रेखा ने एक गहरी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘वैसे भी, बस सांस ले रही हूं. मैं एक मुर्दा ही हूं.’’

अपराध स्वीकार कर लेने के कारण रेखा को उसी पल गिरफ्तार कर लिया गया. कोर्ट में भी वह अपने बयान से नहीं पलटी थी. पूरे आत्मविश्वास के साथ जज की आंखों में आंखें डाल कर अपनी हर बात स्पष्ट रूप से सामने रखी थी. चाहे वह प्रथा की बात हो, चाहे वह कल्पना और पूजा को घर से भागने में सहयोग की बात हो या खुद उन सभी के खाने में विष मिलाने की बात हो.

उस का कहना था कि यदि रेखा भी कल्पना के साथ भाग जाती, तो परिवार वाले कुछ न कुछ कर के उन्हें ढूंढ़ ही लाते. इसी कारण से रेखा ने यहां रहने का निश्चय किया था. परंतु कल्पना भी यह नहीं जानती थी कि रेखा के मन में कब इस योजना ने जन्म ले लिया था.

इस स्वीकारोक्ति के बाद रेखा को जेल हो गई थी. पिछले 4 सालों से रेखा इस जेल में बंद थी. अपने मधुर व्यवहार की बदौलत रेखा ने सभी का दिल जीत लिया था. आरती की पहल पर ही एक समाजसेवी संगठन के तत्त्वावधान में रेखा की पढ़ाई भी शुरू हो गई थी. जेल की सुपरिटैंडैंट एम के गुप्ता रेखा की स्थिति से अवगत थीं, उन्हें उस से लगाव भी हो गया था. उन्हीं की पहल पर रेखा को खाना बनाने वालों की सहायता में लगा दिया गया था.

इधर, रेखा अविचलित अपने जीवन में आगे बढ़ रही थी, उधर आरती निरंतर उस की रिहाई के प्रयत्न में लगी हुई थी. काफी दिनों के अथक परिश्रम के बाद आज रेखा के केस का फैसला आने वाला था. पिछली बार की सुनवाई में आरोप तय हो गए थे, परंतु आरती न जाने किनकिन से मिल कर रेखा की सजा कम कराने को प्रयत्नशील थीं. फैसले वाले दिन रेखा का जाना आवश्यक नहीं था, वह जाना भी नहीं चाहती थी.

रेखा मनयोग से रोटी बेलने में लगी हुई थी कि तभी लेडी कांस्टेबल ने उसे आरती के आने की सूचना दी थी, ‘‘रेखा, चल तुझ से मिलने तेरी आरती दीदी आई हैं.’’

प्रसन्न मुख के साथ रेखा उस लेडी कांस्टेबल के पीछे चल दी थी.

आरती के मुख पर स्याह बादलों को देख लिया था रेखा ने, परंतु जाहिर में कुछ बोली नहीं थी.

‘‘कैसी हो रेखा?’’

आरती की आवाज की पीड़ा को भी रेखा ने भांप लिया था.

‘‘दीदी, आप परेशान न हों. मैं खुश हूं.’’

‘‘हम्म.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद आरती ने दोबारा बोलना शुरू किया, ‘‘कल्पना का पता चल गया है. वो और पूजा रमन के साथ भागी थीं.’’

‘‘दीदी, इतने दिनों में पहली अच्छी खबर सुनी है. वह रमन ही पूजा का बाप है, कल्पना का दूसरा ग्राहक.’’

रेखा के चेहरे पर मुसकान खिल गई थी. परंतु अपने केस के फैसले के बारे में उस की कोई जिज्ञासा न देख कर आरती ने खुद ही पूछ लिया था.‘‘रेखा, अपने केस के फैसले के बारे में नहीं पूछोगी?’’

‘‘वह क्या पूछना है?’’

‘‘तुम कल्पना को बुलाने क्यों नहीं देतीं. वह तो आने…’’

‘‘नहीं दीदी, आप ने मुझ से वादा किया था,’’ रेखा ने आरती का हाथ थाम लिया था.

‘‘हां, तभी तो जब आज कोर्ट में जज फैसला सुना रहा था, मैं चाह कर भी नहीं कह पाई कि उन सभी लोगों को जहर तुम ने नहीं, कल्पना ने दिया था.’’ इस बार आरती की आवाज में रोष स्पष्ट था. पिछले कुछ सालों में रेखा के साथ उस का एक खूबसूरत रिश्ता बन गया था, जो खून से नहीं दिल से जुड़ा हुआ था.

‘‘नाराज न हों दीदी, अच्छा बताइए क्या फैसला आया है?’’ रेखा ने आरती के हाथों को सहलाते हुए कहा.

‘‘आजीवन कारावास,’’ इतना कह कर आरती ने रेखा के चेहरे की तरफ देखा. किंतु रेखा के चेहरे पर शांति और संतोष के भाव एकसाथ थे. आरती ने आगे कहा, ‘‘पर तू चिंता मत कर. हमारे पास बड़ी अदालत का विकल्प शेष है.’’

आरती जैसे रेखा को नहीं स्वयं को समझाने लगी थी. रेखा के चमकते मुख को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अकस्मात ही सूर्य के ऊपर से बादलों का जमावड़ा हट गया हो और उस की समस्त किरणों का प्रकाश रेखा के चेहरे पर सिमट आया हो.

उस ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आरती की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘दीदी, आप अब कहीं अपील नहीं करेंगी. मुझे यह फैसला स्वीकार है.’’

‘‘तू यह क्या…’’

‘‘दीदी, मेरे केस ने शायद देश के सामने इस कुप्रथा को उजागर कर दिया है. परंतु यह प्रथा तब तक नहीं थमेगी जब तक सरकार तक हमारी बात नहीं पहुंचेगी. धर्म और संस्कृति के ठेकेदार इस मार्ग में चुनौती बन कर खड़े हैं. आप से बस इतनी प्रार्थना है, यह लौ, जो जलाई है, बुझने मत देना.’

आरती उसे आश्चर्य से देख रही थी. ‘‘तुम शायद समझीं नहीं. अब तुम आजीवन बंदिनी ही रहोगी,’’ आरती की आवाज में कंपन था.

आरती की आवाज सुन कर दो पल को थम गई थी रेखा, फिर उस के होंठों पर एक मनमोहक मुसकान फैल गई थी. ‘‘मुझे भी ऐसा ही लगा था कि मैं आजीवन बंदिनी ही रह जाऊंगी. परंतु…’’

‘‘परंतु क्या?’’ आरती उस साहसी स्त्री को श्रद्धा के साथ देखते हुए बोली, ‘‘आज का दिन पावन है, आज बंदिनी की रिहाई की खबर आई है.’’

जीवन की मुसकान

मैं बच्चों के साथ उदयपुर (राजस्थान) गया था. वहां हमारा 3-4 दिनों का कार्यक्रम था. मगर पहले ही दिन जब हम घूमफिर कर वापस होटल पहुंचे ही थे कि मेरे भांजे संजय का फोन आया, ‘‘डैडी (मेरे जीजाजी) के हृदय की शल्य चिकित्सा होने वाली है, सो आप को कल ही दिल्ली पहुंचना है.’’

वापसी में हमें रात 12 बजे की बस की पिछली सीट मिली. सुबह घर पहुंच कर रिकशे वाले को पैसे देने के लिए ज्यों ही पौकेट में हाथ डाला, मेरे होश उड़ गए. पर्स गायब था. उलटेपांव उसी रिकशे से मैं वापस बसस्टैंड गया. देखा, बस अड्डे से बाहर निकल रही है. मैं झट बस पर चढ़ गया और पीछे की सीट पर नजर दौड़ाने लगा. इतने में कंडकटर ने पूछा, ‘‘साहब, क्या देख रहे हैं?’’

मैं ने बताया कि रात को इसी बस से हम उदयपुर से आए थे. अंतिम सीट थी. वहां मेरा पर्र्स गिर गया. इतना जान कर कंडक्टर ने अपनी जेब से निकाल कर पर्स मुझे पकड़ा दिया. पर्स पा कर मैं खुशी से झूम उठा. मैं ने कंडक्टर को बख्शिश देनी चाही, मगर उस ने लेने से मना कर दिया, कहा कि आप को अपना सामान मिल गया, इसी में उसे खुशी है.

उस ने कुछ भी लेने से मना कर दिया. मैं ने सोचा कि आज की इस लालची व स्वार्थभरी दुनिया में इतने ईमानदार लोग भी हैं.    राजकुमार जैन

मेरे दोस्त के बेटे की जन्मदिन की पार्र्टी थी. मैं पूरे परिवार के साथ बर्थडे पार्टी में गया था.

हम सब खाना खा रहे थे. मेरे दोस्त ने शराब की भी व्यवस्था कर रखी थी. कुछ लोग शराब पी रहे थे और मुझे

भी पीने के लिए बारबार बोल रहे

थे. मेरे पास ही मेरा बेटा भी खाना खा रहा था.

बेटे ने कहा, ‘‘मेरे पापा शराब नहीं पीते है. पापा कहते हैं, शराब पीने से कैंसर और कई भयानक बीमारियां होती हैं, जो जानलेवा होती हैं. शराब पी कर लोग घर में बीवीबच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं, जो बुरी बात है. आप लोग भी शराब मत पीजिए, सेहत के लिए खराब है.’’

वहां बैठे सभी लोगों का सिर शर्म से झुक गया. जहां बेटे की बात दिल को छू गई वहीं इस बात की भी खुशी हुई कि आज का युवावर्ग शराब जैसी गंभीर समस्याओं के प्रति जागरूक है.

Hindi Story : दिशा की दृष्टिभ्रम – क्या कभी खत्म हुई दिशा के सच्चे प्यार की तलाश

Hindi Story : खुशी से दिशा के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. फ्रैंड्स से बात करते हुए वह चिडि़यों की तरह चहक रही थी. उस की आवाज की खनक बता रही थी कि बहुत खुश है. यह स्वाभाविक भी था. मंगनी होना उस के लिए छोटी बात नहीं थी.

मंगनी की रस्म के लिए शहर के नामचीन होटल को चुना गया था. रात के 9 बज गए थे. सारे मेहमान भी आ चुके थे. फ्रैंड्स भी आ गई थीं. लेकिन मानस और उस के घर वाले अभी तक नहीं आए थे.

देर होते देख उस के पापा घबरा रहे थे. उन्होंने दिशा को मानस से पूछने के लिए कहा तो उस ने तुरंत उसे फोन लगाया. मानस ने बताया कि वे लोग ट्रैफिक में फंस गए हैं. 20-25 मिनट में पहुंच जाएंगे.

दिशा ने राहत की सांस ली. मानस के आने में देर होते देख न जाने क्यों उसे डर सा लगने लगा था. वह सोच रही थी कि कहीं उसे उस के बारे में कोई नई जानकारी तो नहीं मिल गई. लेकिन उस ने अपनी इस धारणा को यह सोच कर पीछे धकेल दिया कि वह आ तो रहा है. कोई बात होती तो टै्रफिक में फंसा होने की बात क्यों बताता.

अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस ने ‘हैलो’ कहा तो परिमल की आवाज आई, ‘‘2 दिन पहले ही जेल से रिहा हुआ हूं. तुम्हारा पता किया तो जानकारी मिली कि आज मानस से तुम्हारी मंगनी होने जा रही है. मैं एक बार तुम्हें देखना और तुम से बात करना चाहता हूं. होटल के बाहर खड़ा हूं. 5 मिनट के लिए आ जाओ, नहीं तो मैं अंदर आ जाऊंगा.’’

दिशा घबरा गई. जानती थी कि परिमल अंदर आ गया तो उस की फजीहत हो जाएगी. मानस को सच्चाई का पता चल गया तो वह उस से मंगनी नहीं करेगा.

उसे परिमल से मिल लेने में ही भलाई नजर आई. लोगों की नजर बचा कर वह होटल से बाहर चली गई.

गेट से थोड़ी दूर आगे परिमल खड़ा था. उस के पास जा कर दिशा गुस्से में बोली, ‘‘क्यों परेशान कर रहे हो? बता चुकी हूं कि मैं तुम से किसी भी हाल में शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘तुम ने मेरी जिंदगी बरबाद की है, फिर भी मैं तुम्हें परेशान नहीं कर सकता. मैं तो तुम से सिर्फ यह जानना चाहता हूं कि मेरी दुर्दशा करने के बाद तुम्हें कभी पछतावा हुआ या नहीं?’’

दिशा ने रूखे स्वर में जवाब दिया, ‘‘कैसा पछतावा? जो कुछ भी हुआ उस में सारा दोष तुम्हारा था. मैं ने तो पहले ही आगाह किया था कि मुझे बदनाम मत करो. आज के बाद अगर तुम ने मुझे फिर कभी बदनाम किया तो याद रखना पहली बार 3 साल के लिए जेल गए थे. अब उम्र भर के लिए जाओगे.’’

अपनी बात कह कर दिशा बिना परिमल का जवाब सुने होटल के अंदर आ गई. उस की फ्रैंडस उसे ढूंढ रही थीं. एक ने पूछ लिया, ‘‘कहां चली गई थी? तेरे पापा पूछ रहे थे.’’स्थिति संभालने के लिए दिशा ने बाथरूम जाने का बहाना कर दिया. पापा को भी बता दिया. फिर राहत की सांस ले कर सोफे पर बैठ गई.

उसे विश्वास था कि परिमल अब कभी परेशान नहीं करेगा और वह मानस के साथ आराम की जिंदगी गुजारेगी. परिमल से दिशा की पहली मुलाकात कालेज में उस समय हुई थी, जब वह बीटेक कर रही थी. परिमल भी उसी कालेज से बीटेक कर रहा था. वह उस की पर्सनैल्टी पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकी थी. लंबी चौड़ी कद काठी, आकर्षक चेहरा, गोरा रंग, स्मार्ट और हैंडसम.

मन ही मन उस ने ठान लिया था कि एक न एक दिन उसे पा कर रहेगी, चाहे कालेज की कितनी भी लड़कियां उस के पीछे पड़ी हों. दरअसल, उसे पता चला था कि कई लड़कियां उस पर जान न्योछावर करती हैं. यह अलग बात थी कि उस ने किसी का भी प्रेम प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था.

प्यार मोहब्बत के चक्कर में वह अपनी पढ़ाई खराब नहीं करना चाहता था. पढ़ाई में वह शुरू से ही मेधावी था. एक ही कालेज में पढ़ने के कारण दिशा उस से पढ़ाईलिखाई की ही बात करती थी. कई बार वह कैंटीन में उस के साथ चाय भी पी चुकी थी.

एक दिन कैंटीन में परिमल के साथ चाय पीते हुए उस ने कहा, ‘‘इन दिनों बहुत परेशान हूं. मेरी मदद करोगे तुम्हारा बड़ा अहसान होगा.’’

‘‘परेशानी क्या है?’’ परिमल ने पूछा. ‘‘कहते हुए शर्म आ रही है पर समाधान तुम्हें ही करना है. इसलिए परेशानी तो बतानी ही पडे़गी. बात यह है कि पिछले 4-5 दिनों से तुम रातों में मेरे सपनों में आते हो और सारी रात जगाए रहते हो.

‘‘दिन में भी मेरे दिलोंदिमाग में तुम ही रहते हो. शायद इसे ही प्यार कहते हैं. सच कहती हूं परिमल तुम मेरा प्यार स्वीकार नहीं करोगे तो मैं जिंदा लाश बन कर रह जाऊंगी.’’

परिमल ने तुरंत जवाब नहीं दिया. उस ने कुछ सोचा फिर कहा, ‘‘यह तो पता नहीं कि तुम मुझे कितना चाहती हो, पर यह सच है कि तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो.’’

दिशा के चेहरे की मुसकान का सकारात्मक अर्थ निकालते हुए उस ने आगे कहा, ‘‘मैं भी तुम्हारा प्यार पाना चाहता हूं. लेकिन मैं ने इस डर से कदम आगे नहीं बढ़ाए कि तुम अमीर घराने की हो. तुम्हारे पापा रिटायर जज हैं. भाई पुलिस में बड़े अधिकारी हैं. धनदौलत की कमी नहीं है.’’

दिशा उस की बातों को बडे़ मनोयोग से सुन रही थी. परिमल ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘मैं गरीब परिवार से हूं. पिता मामूली शिक्षक हैं. ऊपर से उन्हें 2 जवान बेटियों की शादी भी करनी है. यह  सच है कि तुम अप्सरा सी सुंदर हो. कोई भी अमीर युवक तुम से शादी कर के अपने आप को भाग्यशाली समझेगा. तुम्हारे घर वाले तुम्हारा हाथ भला मेरे हाथ में क्यों देंगे?’’

दिशा तुरंत बोली, ‘‘इतनी सी बात के लिए डर रहे हो? मुझ पर भरोसा रखो. हमारा मिलन हो कर रहेगा. हमें एक होने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. तुम केवल मेरा प्यार स्वीकार करो, बाकी सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो.’’

दिशा ने समझाया तो परिमल ने उस का प्यार स्वीकार कर लिया. उस के बाद दोनों को जब भी मौका मिलता कभी पार्क में, कभी मौल में तो कभी किसी रेस्तरां में जा कर घंटों प्यारमोहब्बत की बातें करते.

सारा खर्च दिशा की करती थी. परिमल खर्च करता भी तो कहां से? उसे सिर्फ 50 रुपए प्रतिदिन पौकेट मनी मिलती थी. उसी में घर से कालेज आनेजाने का किराया भी शामिल था.

2 महीने में ही दोनों का प्यार इतना अधिक गहरा हो गया कि एकदूसरे में समा जाने के लिए व्याकुल हो गए. अंतत: एक दिन दिशा परिमल को अपनी फ्रैंड के फ्लैट पर ले गई.

दिशा का प्यार पा कर परिमल उस का दीवाना हो गया. दिनरात लट्टू की तरह उस के आगेपीछे घूमने लगा. नतीजा यह हुआ कि पढ़ाई से मन हट गया और उसे दिशा के साथ उस की फ्रैंड के फ्लैट पर जाना अच्छा लगने लगा.

सहेली के मम्मीपापा दिन में औफिस में रहते थे. इसलिए उन्हें परेशानी नहीं होती थी. फ्रैंड तो राजदार थी ही.

इस तरह दोनों एक साल तक मौजमस्ती करते रहे. फिर अचानक दिशा को लगा कि परिमल के साथ ज्यादा दिनों तक रिश्ता बनाए रखने में खतरा है. वजह यह कि वह उस से शादी की उम्मीद में था.

दिशा ने परिमल से मिलनाजुलना बंद कर दिया. उस ने परिमल को छोड़ कर कालेज के ही एक छात्र वरुण से तनमन का रिश्ता जोड़ लिया. वरुण बहुत बड़े बिजनैसमैन का इकलौता बेटा था.

सच्चाई का पता चलते ही परिमल परेशान हो गया. वह हर हाल में दिशा से शादी करना चाहता था. लेकिन दिशा ने उसे बात करने का मौका ही नहीं दिया था. दिशा का व्यवहार देख कर परिमल ने कालेज में उसे बदनाम करना शुरू कर दिया. मजबूर हो कर दिशा को उस से मिलना पड़ा.

पार्क में परिमल से मिलते ही दिशा गुस्से में चीखी, ‘‘मुझे बदनाम क्यों कर रहे हो. मैं ने कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’‘‘अपना वादा भूल गईं. तुम ने कहा था न कि हमारा मिलन हो कर रहेगा. तभी तो तुम्हारी तरफ कदम बढ़ाया था.’’ परिमल ने उस का वादा याद दिलाया.

‘‘मैं ने मिलन की बात की थी, शादी की नहीं. मेरी नजरों में तन का मिलन ही असल मिलन होता है. मैं ने अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप कर अपना वादा पूरा किया था, फिर शादी के लिए क्यों पीछे पड़े हो? तुम छोटे परिवार के लड़के हो, इसलिए तुम से किसी भी हाल में शादी नहीं कर सकती.’’

परिमल शांत बैठा सुन रहा था. उस के चेहरे पर तनाव था और मन में गुस्सा. लेकिन उस सब की चिंता किए बगैर दिशा बोली, ‘‘तुम अच्छे लगे थे, इसीलिए संबंध बनाया था. अब हम दोनों को अपनेअपने रास्ते चले जाना चाहिए. वैसे भी मेरी जिंदगी में आने वाले तुम पहले लड़के नहीं हो. मेरी कई लड़कों से दोस्ती रही है. मैं सब से थोड़े ही शादी करूंगी? अगर आज के बाद मुझे कभी भी परेशान  करोगे तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा. बदनामी से बचने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.’’

दिशा का लाइफस्टाइल जान कर परिमल को बहुत गुस्सा आया. इतना गुस्सा कि उस के वश में होता तो उस का गला दबा देता. जैसेतैसे गुस्से को काबू कर के उस ने खुद को समझाया. लेकिन सब की परवाह किए बिना दिशा उठ कर चली गई.

दिशा ने भले ही परिमल से बुरा व्यवहार किया, लेकिन उस ने उस की आंखों में गुस्से को देखा था, इसलिए उसे डर लग रहा था. उसे लगा कि परिमल अगर शांत नहीं बैठा तो उस की जिंदगी में तूफान आ सकता है.  वह बदनाम नहीं होना चाहती थी. इसलिए उस ने भाई की मदद ली. उस का भाई पुलिस में उच्च पद पर था, उसे चाहता भी था.

नमक मिर्च लगा कर उस ने परिमल को खलनायक बनाया और भाई से गुजारिश की कि परिमल को किसी भी मामले में फंसा कर  जेल भिजवा दे. फलस्वरूप परिमल को गिरफ्तार कर लिया गया. उस पर इल्जाम लगाया गया कि उस ने कालेज की एक लड़की की इज्जत लूटने की कोशिश की थी.

अदालत में सारे झूठे गवाह पेश कर दिए गए. पुलिस का मामला था, सो आरोपी लड़की भी तैयार कर ली गई. अदालत में उस का बयान हुआ तो 2-3 तारीख पर ही परिमल को 3 वर्ष की सजा हो गई.

परिमल हकीकत जानता था, लेकिन चाह कर भी वह कुछ नहीं कर सकता था. लंबी लड़ाई के लिए उस के पास पैसा भी नहीं था. उस ने चुपचाप सजा काटना मुनासिब समझा. इस से दिशा ने राहत की सांस ली. साथ ही उस ने अपना लाइफस्टाइल भी बदलने का फैसला कर लिया. क्योंकि वह यह सोच कर डर गई थी कि परिमल जैसा कोई और उस की जिंदगी में आ गया तो वह घर परिवार और समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगी.

उस के दुश्चरित्र होने की बात पापा तक पहुंच गई तो वह उन की नजर में गिर जाएगी. पापा उसे इतना चाहते थे कि हर तरह की छूट दे रखी थी. उस के कहीं आनेजाने पर भी कोई पाबंदी नहीं थी. यहां तक कि उन्होंने कह दिया था कि अगर उसे किसी लड़के से प्यार हो गया तो उसी से शादी कर देंगे, बशर्ते लड़का अमीर परिवार से हो.

मम्मी थीं नहीं, 7 साल पहले गुजर गई थीं. भाभी अपने आप में मस्त रहती थीं. दिशा जब 12वीं में पढ़ती थी तो एक लड़के के प्रेम में आ कर उस ने अपना सर्वस्व सौंप दिया था. वह नायाब सुख से परिचित हुई तो उसे ही सच्चा सुख मान लिया.

वह बेखौफ उसी रास्ते पर आगे बढ़ती गई. नएनए साथी बनते और छूटते गए. वह किसी एक की हो कर नहीं रहना चाहती थी.

पहली बार परिमल ने ही उस से शादी की बात की थी. जब वह नहीं मानी तो उस ने उसे खूब बदनाम भी किया था.

वह बदनामी की जिंदगी नहीं जीना चाहती थी. इसलिए परिमल के जेल में रहते परिणय सूत्र में बंध जाना चाहती थी. तब उस की जिंदगी में वरुण आ चुका था.

परिमल के जेल जाने के 6 महीने बाद दिशा ने जब बीटेक कर लिया तो उस ने वरुण से अपने दिल की बात कही, ‘‘चोरीचोरी प्यार मोहब्बत का खेल बहुत हो गया. अब शादी कर के तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं.’’

वरुण दिशा की तरह इस मैदान का खिलाड़ी था. उस ने शादी से मना कर दिया, साथ ही उस से रिश्ता भी तोड़ दिया.

दिशा को अपने रूप यौवन पर घमंड था. उसे लगता था कि कोई भी युवक उसे शादी करने से मना नहीं करेगा. वरुण ने मना कर दिया तो आहत हो कर उस ने शादी से पहले अपने पैरों पर खड़ा होने का निश्चय किया.

पापा से नौकरी की इजाजत मिल गई तो उस ने जल्दी ही जौब ढूंढ लिया. जौब करते हुए 2 महीने ही बीते थे कि एक पार्टी में उस का परिचय रंजन से हुआ, जो पेशे से वकील था. उस के पास काफी संपत्ति थी. शादी के ख्याल से उस ने रंजन से दोस्ती की, फिर संबंध भी बनाया. लेकिन करीब एक साल बाद उस ने शादी से मना कर दिया.

रंजन से धोखा मिलने पर दिशा तिलमिलाई जरूर लेकिन उस ने निश्चय किया कि पुरानी बातों को भूल कर अब विवाह से पहले किसी से भी संबंध नहीं बनाएगी.

दिशा ने घर वालों को शादी की रजामंदी दे दी तो उस के लिए वर की तलाश शुरू हो गई. 4 महीने बाद मानस मिला. वह बहुत बड़ी कंपनी में सीईओ था. पुश्तैनी संपत्ति भी थी. उस के पिता रेलवे से रिटायर्ड थे. मम्मी हाईस्कूल में पढ़ाती थीं.

मानस से शादी होना तय हो गया तो दिशा उस से मिलने लगी. उस ने फैसला किया था कि शादी से पहले किसी से भी संबंध नहीं बनाएगी. लेकिन अपने फैसले पर वह टिकी नहीं रह सकी. हवस की आग में जलने लगी तो मानस से संबंध बना लिया.

2 महीने बाद जब मानस मंगनी से कतराने लगा तो दिशा ने पूछा, ‘‘सच बताओ, मुझ से शादी करना चाहते हो या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’ मानस ने कह दिया.

‘‘क्यों?’’ दिशा ने पूछा. वह गुस्से में थी.

कुछ सोचते हुए मानस ने कहा, ‘‘पता चला है कि मुझ से पहले भी तुम्हारे कई मर्दों से संबंध रहे हैं.’’

पहले तो दिशा सकते में आ गई, लेकिन फिर अपने आप को संभाल लिया और कहा, ‘‘लगता है, मेरे किसी दुश्मन ने तुम्हारे कान भरे हैं. मुझ पर विश्वास करो तुम्हारे अलावा मेरे किसी से संबंध नहीं रहे.’’

मानस ने सोचने के लिए दिशा से कुछ दिन का समय मांगा, लेकिन उस ने समय नहीं दिया. उस पर दबाव बनाने के लिए दिशा ने अपने घर वालों को बताया कि मानस ने बहलाफुसला कर उस से संबंध बना लिए हैं और अब गलत इलजाम लगा कर शादी से मना कर रहा है.

उस के पिता और भाई गुस्से में मानस के घर गए. उस के मातापिता के सामने ही उसे खूब लताड़ा और दिशा की बेहयाई का सबूत मांगा.

मानस के पास कोई सबूत नहीं था. मजबूर हो कर वह दिशा से मंगनी करने के लिए राजी हो गया. 15 दिन बाद की तारीख रखी गई. आखिर वह दिन आ ही गया. मानस उस से मंगनी करने आ रहा था.

एक सहेली ने दिशा की तंद्रा भंग की तो वह वर्तमान में लौट आई. सहेली कह रही थी, ‘‘देखो, मानस आ गया है.’’

दिशा ने खुशी से दरवाजे की तरफ देखा. मानस अकेला था. उस के घर वाले नहीं आए थे. उस के साथ एक ऐसा शख्स था जिसे देखते ही दिशा के होश उड़ गए. वह शख्स था डा. अमरेंदु.

मानस को अकेला देख दिशा के भाई और पापा भी चौंके. उस का स्वागत करने के बाद भाई ने पूछा, ‘‘तुम्हारे घर वाले नहीं आए?’’

‘‘कोई नहीं आएगा.’’ मानस ने कहा.

‘‘क्यों नहीं आएगा?’’

‘‘क्योंकि मैं दिशा से शादी नहीं करना चाहता. मुझे उस से अकेले में बात करनी है? वह सब कुछ समझ जाएगी. खुद ही मुझ से शादी करने से मना कर देगी.’’

भाई और पिता के साथ दिशा भी सकते में आ गई. उस की भाभी उस के पास ही थी. उस की बोलती भी बंद हो गई थी.

दिशा के पिता ने उसे अकेले में बात करने की इजाजत नहीं दी. कहा, ‘‘जो कहना है, सब के सामने कहो.’’

मजबूर हो कर मानस ने लोगों के सामने ही कहा, ‘‘दिशा दुश्चरित्र लड़की है. अब तक कई लड़कों से संबंध बना चुकी है. 2 बार एबौर्शन भी करा चुकी है. इसीलिए मैं उस से शादी नहीं करना चाहता.’’

भाई को गुस्सा आ गया. उस ने मानस को जोरदार थप्पड़ मारा और कहा, ‘‘मेरी बहन पर इल्जाम लगाने की आज तक कभी किसी ने हिम्मत नहीं की. अगर तुम प्रमाण नहीं दोगे तो जेल की हवा खिला दूंगा.’’

‘‘भाईसाहब, आप गुस्सा मत कीजिए अभी सबूत देता हूं. जब मेरे शुभचिंतक ने बताया कि दिशा का चरित्र ठीक नहीं है, तभी से मैं सच्चाई का पता लगाने में जुट गया था. अंतत: उस का सच जान भी लिया.’’

मानस ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘मेरे साथ जो शख्स हैं, उन का नाम डा. अमरेंदु है. दिशा ने उन के क्लिनिक में 2 बार एबौर्शन कराया था. आप उन से पूछताछ कर सकते हैं.’’

डा. अमरेंदु ने मानस की बात की पुष्टि करते हुए कुछ कागजात दिशा के भाई और पिता को दिए. कागजात में दिशा ने एबौर्शन के समय दस्तखत किए थे.

दिशा की पोल खुल गई तो चेहरा निष्प्राण सा हो गया. उस की समझ में नहीं आ रहा था  कि अब उसे क्या करना चाहिए. भाई और पापा का सिर शर्म से झुक गया था. फ्रैंड्स भी उसे हिकारत की नजरों से देखने लगी थीं.

दिशा अचानक मानस के पास जा कर बोली, ‘‘तुम ने मेरी जिंदगी तबाह कर दी. तुम्हें छोडूंगी नहीं. तुम्हारे जिंदगी भी बर्बाद कर के रख दूंगी. तुम नहीं जानते मैं क्या चीज हूं.’’

‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हो रहा है वह सब तुम्हारे लाइफस्टाइल की वजह से हो रहा है. इस में किसी का कोई दोष नहीं है. जब तक तुम अपने आप को नहीं सुधारोगी, ऐसे ही अपमानित होती रहोगी.’’

पलभर चुप रहने के बाद मानस ने फिर कहा, ‘‘आज की तारीख में तुम इतना बदनाम हो चुकी हो कि तुम से कोई भी शादी करने के लिए तैयार नहीं होगा.’’

वह एक पल रुक कर बोला, ‘‘हां, एक ऐसा शख्स है जो तुम्हें बहुत प्यार करता है. तुम कहोगी तो खुशीखुशी शादी कर लेगा.’’

‘‘कौन?’’ दिशा ने पूछा.

‘‘परिमल…’’ मानस ने कहा, ‘‘गेट पर उस से मिल कर आने के बाद तुम उसे भूल गई थीं, पर वह तुम्हें नहीं भूला है. होटल के गेट पर अब तक इस उम्मीद से खड़ा है कि शायद तुम मुझ से शादी करने का अपना फैसला बदल दो. कहो तो उसे बुला दूं.’’

‘‘तुम उसे कैसे जानते हो?’’ दिशा ने पूछा.

मानस ने बताया कि वह परिमल को कब और कहां मिला था.

कार पार्क कर मानस डा. अमरेंदु के साथ होटल में आ रहा था तो गेट पर परिमल मिल गया था. न जाने वह उसे कैसे जानता था. उस ने पहले अपना परिचय दिया फिर दिशा और अपनी प्रेम कहानी बताई.

उस के बाद कहा, ‘‘तुम्हें दिशा की सच्चाई भविष्य में उस से सावधान रहने के लिए बताई है. अगर उस से सावधान नहीं रहोगे तो विवाह के बाद भी वह तुम्हें धोखा दे सकती है.’’

मानस ने परिमल को अंदर चलने के लिए कहा तो उस ने जाने से मना कर दिया. कहा, ‘‘मैं यहीं पर तुम्हारे लौटने का इंतजार करूंगा. बताना कि तुम से मंगनी कर वह खुश है या नहीं?’’

कुछ सोच कर मानस ने उस से पूछा, ‘‘मान लो दिशा तुम से शादी करने के लिए राजी हो जाए तो करोगे?’’

‘‘जो हो नहीं सकता, उस पर बात करने से क्या फायदा? जानता हूं कि वह कभी भी मुझ से शादी नहीं करेगी.’’ परिमल ने मायूसी से कहा.

मानस ने परिमल की आंखों में देखा तो पाया कि दिशा के प्रति उस की आंखों में प्यार ही प्यार था. उस ने चाह कर भी कुछ नहीं कहा और डा. अमरेंदु के साथ होटल में चला आया.

मानस ने दिशा को सच्चाई से दोचार करा दिया तो उसे भविष्य अंधकारमय लगा. परिमल के सिवाय उसे कोई नजर नहीं आया तो वह उस से बात करने के लिए व्याकुल हो गई.

उस का फोन नंबर उस के पास था ही, झट से फोन लगा दिया. परिमल ने फोन उठाया तो उस ने कहा, ‘‘तुम से कुछ बात करना चाहती हूं. प्लीज होटल में आ जाओ.’’

कुछ देर बाद ही परिमल आ गया और दिशा ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, परिमल. मैं तुम्हारा प्यार समझ नहीं पाई थी, लेकिन अब समझ गई हूं. मैं तुम से शादी करना चाहती हूं. अभी मंगनी कर लो, बाद में जब कहोगे शादी कर लूंगी.’’

कुछ सोचने के बाद परिमल ने कहा, ‘‘यह सच है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं. पर तुम आज भी मुझ से बेवफाई कर रही हो. सच नहीं बता रही हो. सच यह नहीं है कि मेरा प्यार तुम समझ गई हो, इसलिए मुझ से शादी करना चाहती हो. सच यह है कि आज की तारीख में तुम इतना बदनाम हो गई हो कि तुम से कोई भी शादी नहीं करना चाहता. मानस ने भी शादी से मना कर दिया है. इसीलिए अब तुम मुझ से शादी कर अपनी इज्जत बचाना चाहती हो.

‘‘तुम से शादी करूंगा तो प्यार की नहीं, समझौते की शादी होगी, जो अधिक दिनों तक नहीं टिकेगी. अत: मुझे माफ कर दो और किसी और को बलि का बकरा बना लो. मैं भी तुम्हें सदैव के लिए भूल कर किसी और से शादी कर लूंगा.’’

परिमल रुका नहीं. दिशा की पकड़ से हाथ छुड़ा कर दरवाजे की तरफ बढ़ गया. वह देखती रह गई. किस अधिकार से रोकती?

कुछ देर बाद मानस और डा. अमरेंदु भी चले गए. दिशा के घर वाले भी चले गए. सहेलियां चली गईं. महफिल खाली हो गई, पर दिशा डबडबाई आंखों से बुत बनी रही.

लेखक- राम महेंद्र राय

Hindi Story Collection : एक नन्ही परी

Hindi Story Collection :  विनीता कठघरे में खड़े राम नरेश को गौर से देख रही थीं पर उन्हें याद नहीं आ रहा था कि इसे कहां देखा है. साफ रंग, बाल खिचड़ी और भोले चेहरे पर उम्र की थकान थी. साथ ही, चेहरे पर उदासी की लकीरें थीं. वह उन के चैंबर में अपराधी की हैसियत से खड़ा था. वह आत्मविश्वासविहीन था. लग रहा था जैसे उसे दुनिया से कोई मतलब ही नहीं. वह जैसे अपना बचाव करना ही नहीं चाहता था. कंधे झुके थे. शरीर कमजोर था. वह एक गरीब और निरीह व्यक्ति था. लगता था जैसे बिना सुने और समझे हर गुनाह कुबूल कर रहा था. ऐसा अपराधी उन्होंने आज तक नहीं देखा था. उस की पथराई आखों में अजीब सा सूनापन था, जैसे वे निर्जीव हों.

लगता था वह जानबूझ कर मौत की ओर कदम बढ़ा रहा था. जज साहिबा को लग रहा था, यह इंसान इतना निरीह है कि यह किसी का कातिल नहीं हो सकता. क्या इसे किसी ने झूठे केस में फंसा दिया है या पैसों के लालच में झूठी गवाही दे रहा है? नीचे के कोर्ट से उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी. आखिरी अपील के समय अभियुक्त के शहर का नाम देख कर उन्होंने उसे बुलवा लिया था और चैंबर में बात कर जानना चाहा था कि वह है कौन.

विनीता ने जज बनने के समय मन ही मन निर्णय किया था कि कभी किसी निर्दोष या लाचार को सजा नहीं होने देंगी. झूठी गवाही से उन्हें सख्त नफरत थी. अगर राम नरेश का व्यवहार ऐसा न होता तो शायद जज साहिबा ने उस पर ध्यान भी न दिया होता. दिनभर में न जाने कितने केस निबटाने होते हैं. ढेरों जजों, अपराधियों, गवाहों और वकीलों की भीड़ में उन का समय कटता था. पर ऐसा दयनीय कातिल नहीं देखा था. कातिलों की आंखों में दिखने वाला पश्चाताप या आक्रोश कुछ भी तो नजर नहीं आ रहा था. विनीता अतीत को टटोलने लगीं. आखिर कौन है यह? कुछ याद नहीं आ रहा था.

विनीता शहर की जानीमानी सम्माननीय हस्ती थीं. गोरा रंग, छोटी पर सुडौल नासिका, ऊंचा कद, बड़ीबड़ी आंखें और आत्मविश्वास से भरे व्यक्तित्व वाली विनीता अपने सही और निर्भीक फैसलों के लिए जानी जाती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बालों ने उन्हें और प्रभावशाली बना दिया था. उन की चमकदार आंखें एक नजर में ही अपराधी को पहचान जाती थीं. उन के न्यायप्रिय फैसलों की चर्चा होती रहती थी.

पुरुषों के एकछत्र कोर्ट में अपना कैरियर बनाने में उन्हें बहुत तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा था. सब से पहला युद्ध तो उन्हें अपने परिवार से लड़ना पड़ा था. विनीता के जेहन में बरसों पुरानी बातें याद आने लगीं…

घर में सभी प्यार से उसे विनी बुलाते थे. उस की वकालत करने की बात सुन कर घर में तो भूचाल आ गया. मां और बाबूजी से नाराजगी की उम्मीद थी, पर उसे अपने बड़े भाई की नाराजगी अजीब लगी. उन्हें पूरी आशा थी कि महिलाओं के हितों की बड़ीबड़ी बातें करने वाले भैया तो उस का साथ जरूर देंगे. पर उन्होंने ही सब से ज्यादा हंगामा मचाया था.

तब विनी को हैरानी हुई जब उम्र से लड़ती बूढ़ी दादी ने उस का साथ दिया. दादी उसे बड़े प्यार से ‘नन्ही परी’ बुलाती थीं. विनी रात में दादी के पास ही सोती थी. अकसर दादी कहानियां सुनाती थीं. उस रात दादी ने कहानी तो नहीं सुनाई पर गुरुमंत्र जरूर दिया. दादी ने रात के अंधेरे में विनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘मेरी नन्ही परी, तू शिवाजी की तरह गरम भोजन बीच थाल से खाने की कोशिश कर रही है. जब भोजन बहुत गरम हो तो किनारे से फूंकफूंक कर खाना चाहिए. तू सभी को पहले अपनी एलएलबी की पढ़ाई के लिए राजी कर, न कि अपनी वकालत के लिए. मैं कामना करती हूं, तेरी इच्छा जरूर पूरी हो.’

विनी ने लाड़ से दादी के गले में बांहें डाल दीं. फिर उस ने दादी से पूछा, ‘दादी, तुम इतनी मौडर्न कैसे हो गईं?’

दादी रोज सोते समय अपने नकली दांतों को पानी के कटोरे में रख देती थीं. तब उन के गाल बिलकुल पिचक जाते थे और चेहरा झुर्रियों से भर जाता था. विनी ने देखा दादी की झुर्रियों भरे चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभर आईं और वे बोल पड़ीं, ‘बिटिया, औरतों के साथ बड़ा अन्याय होता है. तू उन के साथ न्याय करेगी, यह मुझे पता है. जज बन कर तेरे हाथों में परियों वाली जादू की छड़ी भी तो आ जाएगी न.’

अपनी अनपढ़ दादी की ज्ञानभरी बातें सुन कर विनी हैरान थी. दादी के दिए गुरुमंत्र पर अमल करते हुए विनी ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली. तब उसे लगा, अब तो मंजिल करीब है. पर तभी न जाने कहां से एक नई मुसीबत सामने आ गई. बाबूजी के पुराने मित्र शरण काका ने आ कर खबर दी. उन के किसी रिश्तेदार का पुत्र शहर में ऊंचे पद पर तबादला हो कर आया है. क्वार्टर मिलने तक उन के पास ही रह रहा है. होनहार लड़का है. परिवार भी अच्छा है. विनी के विवाह के लिए बड़ा उपयुक्त वर है. उस ने विनी को शरण काका के घर आतेजाते देखा है. बातों से लगता है कि विनी उसे पसंद है. उस के मातापिता भी कुछ दिनों के लिए आने वाले हैं.

शरण काका रोज सुबह एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में धोती थाम कर टहलने निकलते थे. अकसर टहलना पूरा कर उस के घर आ जाते थे. सुबह की चाय के समय उन का आना विनी को हमेशा बड़ा अच्छा लगता था. वे दुनियाभर की कहानियां सुनाते. बहुत सी समझदारी की बातें समझाते. पर आज विनी को उन का आना अखर गया. पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि शादी की बात छेड़ दी. विनी की आंखें भर आईं. तभी शरण काका ने उसे पुकारा, ‘बिटिया, मेरे साथ मेरे घर तक चल. जरा यह तिलकुट का पैकेट घर तक पहुंचा दे. हाथों में बड़ा दर्द रहता है. तेरी मां का दिया यह पैकेट उठाना भी भारी लग रहा है.’

बरसों पहले भाईदूज के दिन मां को उदास देख कर उन्होंने बाबूजी से पूछा था. भाई न होने का गम मां को ही नहीं, बल्कि नानानानी को भी था. विनी अकसर सोचती थी कि क्या एक बेटा होना इतना जरूरी है? उस भाईदूज से ही शरण काका ने मां को मुंहबोली बहन बना लिया था. मां भी बहन के रिश्ते को निभातीं, हर तीजत्योहार में उन्हें कुछ न कुछ भेजती रहती थीं. आज का तिलकुट मकर संक्रांति का एडवांस उपहार था. अकसर काका कहते, ‘विनी की शादी में मामा का फर्ज तो मुझे ही निभाना है.’

शरण काका और काकी अपनी इकलौती काजल की शादी के बाद जब भी अकेलापन महसूस करते, तब उसे बुला लेते थे. अकसर वे अम्माबाबूजी से कहते, ‘काजल और विनी दोनों मेरी बेटियां हैं.’

शरण काका भी अजीब हैं. लोग बेटी के नाम से घबराते हैं और काका का दिल ऐसा है कि दूसरे की बेटी को भी अपना मानते हैं.

काजल दीदी की शादी के समय विनी अपनी परीक्षा में व्यस्त थी. काकी उस के परीक्षा विभाग को रोज कोसती रहतीं. हलदी की रस्म के एक दिन पहले तक उस की परीक्षा थी. काकी कहती रहती थीं, ‘विनी को फुरसत होती तो मेरा सारा काम संभाल लेती. ये कालेज वाले परीक्षा लेले कर लड़की की जान ले लेंगे,’ शांत और मृदुभाषी विनी उन की लाड़ली थी.’

आखिरी पेपर दे कर विनी जल्दीजल्दी काजल दीदी के पास जा पहुंची. उसे देखते काकी की तो जैसे जान में जान आ गई. काजल के सभी कामों की जिम्मेदारी उसे सौंप कर काकी को बड़ी राहत महसूस हो रही थी. उन्होंने विनी के घर फोन कर ऐलान कर दिया कि विनी अब काजल की विदाई के बाद ही घर वापस जाएगी.

शाम के वक्त काजल के साथ बैठ कर विनी उन का सूटकेस ठीक कर रही थी, तब उसे ध्यान आया कि दीदी ने शृंगार का सामान तो खरीदा ही नहीं है. मेहंदी की भी व्यवस्था नहीं है. वह काकी से बात कर भागीभागी बाजार से सारे सामान की खरीदारी कर लाई. विनी ने रात में देर तक बैठ कर काजल दीदी को मेहंदी लगाई. मेहंदी लगा कर जब हाथ धोने उठी तो उसे अपनी चप्पलें मिली ही नहीं. शायद किसी और ने पहन ली होंगी. शादी के घर में तो यह सब होता ही रहता है. घर मेहमानों से भरा था. बरामदे में उसे किसी की चप्पल नजर आई. वह उसे ही पहन कर बाथरूम की ओर बढ़ गई. रात में वह दीदी के बगल में रजाई में दुबक गई. न जाने कब बातें करतेकरते उसे नींद आ गई.

सुबह, जब वह गहरी नींद में थी, किसी ने उस की चोटी खींच कर झकझोर दिया. कोई तेज आवाज में बोल रहा था, ‘अच्छा, काजल दीदी, तुम ने मेरी चप्पलें गायब की थीं.’

हैरान विनी ने चेहरे पर से रजाई हटा कर अपरिचित चेहरे को देखा. उस की आखों में अभी भी नींद भरी थी. तभी काजल दीदी खिलखिलाती हुई पीछे से आ गईं, ‘अतुल, यह विनी है. श्रीकांत काका की बेटी और विनी, यह अतुल है. मेरे छोटे चाचा का बेटा. हर समय हवा के घोड़े पर सवार रहता है. छोटे चाचा की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए छोटे चाचा और चाची नहीं आ सके तो उन्होंने अतुल को भेज दिया.’

अतुल उसे निहारता रहा, फिर झेंपता हुआ बोला, ‘मुझे लगा, दीदी तुम सो रही हो. दरअसल, मैं रात से ही अपनी चप्पलें खोज रहा था.’

विनी को बड़ा गुस्सा आया. उस ने दीदी से कहा, ‘मेरी भी तो चप्पलें खो गई हैं. उस समय मुझे जो चप्पलें नजर आईं, मैं ने पहन लीं. मैं ने इन की चप्पलें पहनी हैं, किसी का खून तो नहीं किया. सुबहसुबह नींद खराब कर दी. इतने जोरों से झकझोरा है. सारी पीठ दुख रही है,’ गुस्से में वह मुंह तक रजाई खींच कर सो गई.

अतुल हैरानी से देखता रह गया. फिर धीरे से दीदी से कहा, ‘बाप रे, यह तो वकीलों की तरह जिरह करती है.’ तबतक काकी बड़ा पैकेट ले कर विनी के पास पहुंच गईं और रजाई हटा कर उस से पूछने लगीं, ‘बिटिया, देख मेरी साड़ी कैसी है?’

विनी हुलस कर बोल पड़ी, ‘बड़ी सुंदर साड़ी है. पर काकी, इस में फौल तो लगी ही नहीं है. हद करती हो काकी. सारी तैयारी कर ली और तुम्हारी ही साड़ी तैयार नहीं है. मुझे दो, मैं जल्दी से फौल लगा देती हूं.’

विनी पलंग पर बैठ कर फौल लगाने में मशगूल हो गई. काकी भी पलंग पर पैरों को ऊपर कर बैठ गईं और अपने हाथों से अपने पैरों को दबाने लगीं.

विनी ने पूछा, ‘काकी, तुम्हारे पैर दबा दूं क्या?’

वे बोलीं, ‘बिटिया, एकसाथ तू कितने काम करेगी. देख न पूरे घर का काम पड़ा है और अभी से मैं थक गई हूं.’

सांवलीसलोनी काकी के पैर उन की गोलमटोल काया को संभालते हुए थक जाएं, यह स्वाभाविक ही है. छोटे कद की काकी के ललाट पर बड़ी सी गोल लाल बिंदी विनी को बड़ी प्यारी लगती थी.

तभी काजल की चुनरी में गोटा और किरण लगा कर छोटी बूआ आ पहुंचीं, ‘देखो भाभी, बड़ी सुंदर बनी है चुनरी. फैला कर देखो न,’ छोटी बूआ कहने लगीं.

पूरे पलंग पर सामान बिखरा था. काकी ने विनी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘इस के ऊपर ही डाल कर दिखाओ, छोटी मइयां.’

सिर झुकाए, फौल लगाती विनी के ऊपर लाल चुनरी बूआ ने फैला दी.

चुनरी सचमुच बड़ी सुंदर बनी थी. काकी बोल पड़ीं, ‘देख तो, विनी पर कितना खिल रहा है यह रंग.’

विनी की नजरें अपनेआप ही सामने रखी ड्रैसिंग टेबल के शीशे में दिख रहे अपने चेहरे पर पड़ीं. उस का चेहरा गुलाबी पड़ गया. उसे अपना ही चेहरा बड़ा सलोना लगा. तभी अचानक किसी ने उस की पीठ पर मुक्के जड़ दिए.

‘तुम अभी से दुलहन बन कर बैठ गई हो, दीदी,’ अतुल की आवाज आई. वह सामने आ कर खड़ा हो गया. अपलक कुछ पल उसे देखता रह गया. विनी की आंखों में आंसू आ गए थे. अचानक हुए मुक्केबाजी के हमले से सूई उंगली में चुभ गई थी. उंगली के पोर पर खून की बूंद छलक आई थी. अतुल बुरी तरह हड़बड़ा गया.

‘बड़ी अम्मा, मैं पहचान नहीं पाया था. मुझे क्या मालूम था कि दीदी के बदले किसी और को दुलहन बनने की जल्दी है. पर मुझ से गलती हो गई.’ वह काकी से बोल पड़ा. फिर विनी की ओर देख कर न जाने कितनी बार ‘सौरीसौरी’ बोलता चला गया. तब तक काजल भी आ गई थी. विनी की आंखों में आंसू देख कर सारा माजरा समझ कर, उसे बहलाते हुए बोली, ‘अतुल, तुम्हें इस बार सजा दी जाएगी. बता विनी, इसे क्या सजा दी जाए?’

विनी बोली, ‘इन की नजरें कमजोर हैं क्या? अब इन से कहो सभी के पैर दबाएं.’ यह कह कर विनी साड़ी समेट कर, पैर पटकती हुई काकी के कमरे में जा कर फौल लगाने लगी.

अतुल सचमुच काकी के पैर दबाने लगा, बोला, ‘वाह, क्या बढि़या फैसला है जज साहिबा का. बड़ी अम्मा, देखो, मैं हुक्म का पालन कर रहा हूं.’

‘तू हर समय उसे क्यों परेशान करता रहता है, अतुल?

काजल दीदी की आवाज विनी को सुनाई दी.

‘दीदी, इस बार मेरी गलती नहीं थी,’ अतुल सफाई दे रहा था.

फौल का काम पूरा कर विनी हलदी की रस्म की तैयारी में लगी थी. बड़े से थाल में हलदी मंडप में रख रही थी. तभी काजल दीदी ने उसे आवाज दी. विनी उन के कमरे में पहुंची. दीदी के हाथों में बड़े सुंदर झुमके थे. दीदी ने झुमके दिखाते हुए पूछा, ‘ये कैसे हैं, विनी? मैं तेरे लिए लाई हूं. आज पहन लेना.’

‘मैं ये सब नहीं पहनती, दीदी,’ विनी झल्ला उठी. सभी को मालूम था कि विनी को गहनों से बिलकुल लगाव नहीं है. पर दीदी और काकी तो पीछे ही पड़ गईं. दीदी ने जबरदस्ती उस के हाथों में झुमके पकड़ा दिए. गुस्से में विनी ने झुमके ड्रैसिंग टेबल पर पटक दिए. फिसलता हुआ झुमका फर्श पर गिरा. दरवाजे पर खड़ा अतुल ये सारी बातें सुन रहा था. तेजी से बाहर निकलने की कोशिश में वह सीधे अतुल से जा टकराई. उस के दोनों हाथों में लगी हलदी के छाप अतुल की सफेद टीशर्ट पर उभर आए.

वह हलदी के दाग को हथेलियों से साफ करने की कोशिश करने लगी. पर हलदी के दाग और भी फैलने लगे. अतुल ने उस की दोनों कलाइयां पकड़ लीं और बोल पड़ा, ‘यह हलदी का रंग जाने वाला नहीं है. ऐसे तो यह और फैल जाएगा. आप रहने दीजिए.’ विनी झेंपती हुई हाथ धोने चली गई.

बड़ी धूमधाम से काजल की शादी हो गई. काजल की विदाई होते ही विनी को अम्मा के साथ दिल्ली जाना पड़ा. कुछ दिनों से अम्मा की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. डाक्टरों ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जा कर हार्ट चैकअप का सुझाव दिया था. काजल की शादी के ठीक बाद दिल्ली जाने का प्लान बना था. काजल की विदाई वाली शाम का टिकट मिल पाया था.

एक शाम अचानक शरण काका ने आ कर खबर दी. विनी को देखने लड़के वाले अभी कुछ देर में आना चाहते हैं. घर में जैसे उत्साह की लहर दौड़ गई. पर विनी बड़ी परेशान थी. न जाने किस के गले बांध दिया जाएगा? उस के भविष्य के सारे अरमान धरे के धरे रह जाएंगे. अम्मा उस से तैयार होने को कह कर रसोई में चली गईं. तभी मालूम हुआ कि लड़का और उस के परिवार वाले आ गए हैं. बाबूजी, काका और काकी उन सब के साथ ड्राइंगरूम में बातें कर रहे थे.

अम्मा ने उसे तैयार न होते देख कर, आईने के सामने बैठा कर उस के बाल सांवरे. अपनी अलमारी से झुमके निकाल कर दिए. विनी झुंझलाई बैठी रही. अम्मा ने जबरदस्ती उस के हाथों में झुमके पकड़ा दिए. गुस्से में विनी ने झुमके पटक दिए.

एक झुमका फिसलता हुआ ड्राइंगरूम के दरवाजे तक चला गया. ड्राइंगरूम उस के कमरे से लगा हुआ था.

परेशान अम्मा उसे वैसे ही अपने साथ ले कर बाहर आ गईं. विनी अम्मा के साथ नजरें नीची किए हुए ड्राइंगरूम में जा पहुंची. वह सोच में डूबी थी कि कैसे इस शादी को टाला जाए. काकी ने उसे एक सोफे पर बैठा दिया. तभी बगल से किसी ने धीरे से कहा, ‘मैं ने कहा था न, हलदी का रंग जाने वाला नहीं है.’ सामने अतुल बैठा था.

अतुल और उस के मातापिता के  जाने के बाद काका ने उसे बुलाया. बड़े बेमन से कुछ सोचती हुई वह काका के साथ चलने लगी. गेट से बाहर निकलते ही काका ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘विनी, मैं तेरी उदासी समझ रहा हूं. बिटिया, अतुल बहुत समझदार लड़का है. मैं ने अतुल को तेरे सपने के बारे में बता दिया है. तू किसी तरह की चिंता मत कर. मुझ पर भरोसा कर, बेटी.’

काका ने ठीक कहा था. वह आज जहां पहुंची है वह सिर्फ अतुल के सहयोग से ही संभव हो पाया था. अतुल आज भी अकसर मजाक में कहते हैं, ‘मैं तो पहली भेंट में ही जज साहिबा की योग्यता पहचान गया था.’ उस की शादी में शरण काका ने सचमुच मामा होने का दायित्व पूरी ईमानदारी से निभाया था. पर वह उन्हें मामा नहीं, काका ही बुलाती थी.

कोर्ट का कोलाहल विनीता को अतीत से बाहर खींच लाया. पर वे अभी भी सोच रही थीं, इसे कहां देखा है. दोनों पक्षों के वकीलों की बहस समाप्त हो चुकी थी. राम नरेश के गुनाह साबित हो चुके थे. वह एक भयानक कातिल था. उस ने इकरारे जुर्म भी कर लिया था. उस ने बड़ी बेरहमी से हत्या की थी. एक सोचीसमझी साजिश के तहत उस ने अपने दामाद की हत्या कर शव का चेहरा बुरी तरह कुचल दिया था और शरीर के टुकड़ेटुकड़े कर जंगल में फेंक दिए थे. वकील ने बताया कि राम नरेश का आपराधिक इतिहास है. वह एक कू्रर कातिल है. पहले भी वह कत्ल का दोषी पाया गया था पर सुबूतों के अभाव में छूट गया था. इसलिए इस बार उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए. वकील ने पुराने केस की फाइल उन की ओर बढ़ाई. फाइल खोलते ही उन की नजरों के सामने सबकुछ साफ हो गया. सारी बातें चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूमने लगीं.

लगभग 22 वर्ष पहले राम नरेश को कोर्ट लाया गया था. उस ने अपनी दूधमुंही बेटी की हत्या कर दी थी. तब विनीता वकील हुआ करती थीं. ‘कन्या भ्रूण हत्या’ और ‘बालिका हत्या’ जैसे मामले उन्हें आक्रोश से भर देते थे. मातापिता और समाज द्वारा बेटेबेटियों में किए जा रहे भेदभाव उन्हें असह्य लगते थे. तब विनीता ने राम नरेश के जुर्म को साबित करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा दिया था. उस गांव में अकसर बेटियों को जन्म लेते ही मार डाला जाता था. इसलिए किसी ने राम नरेश के खिलाफ गवाही नहीं दी. लंबे समय तक केस चलने के बाद भी जुर्म साबित नहीं हुआ. इसलिए कोर्ट ने राम नरेश को बरी कर दिया था. आज वही मुजरिम दूसरे खून के आरोप में लाया गया था. विनीता ने मन ही मन सोचा, ‘काश, तभी इसे सजा मिली होती. इतना सीधासरल दिखने वाला व्यक्ति 2-2 कत्ल कर सकता है? इस बार वे उसे कड़ी सजा देंगी.’

जज साहिबा ने राम नरेश से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है?’’ राम नरेश के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान खेलने लगी. कुछ पल चुप रहने के बाद उस ने कहा, ‘‘हां हुजूर, मुझे आप से बहुत कुछ कहना है. मैं आप लोगों जैसा पढ़ालिखा और समझदार तो नहीं हूं, पता नहीं आप लोग मेरी बात समझेंगे या नहीं. आप मुझे यह बताइए कि अगर कोई मेरी परी बिटिया को जला कर मार डाले और कानून से भी अपने को बचा ले. तब क्या उसे मार डालना अपराध है?

‘‘मेरी बेटी को उस के पति ने दहेज के लिए जला दिया था. मरने से पहले मेरी बेटी ने आखिरी बयान दिया था कि कैसे मेरी फूल जैसी सुंदर बेटी को उस के पति ने जला दिया. पर वह शातिर पुलिस और कानून से बच निकला. इसलिए उसे मैं ने अपने हाथों से सजा दी. मेरे जैसा कमजोर पिता और कर ही क्या सकता है? मुझे अपने किए गुनाह पर कोई अफसोस नहीं है.’’

उस का चेहरा मासूम लग रहा था. उस की बूढ़ी आंखों में आंसू चमक रहे थे. लेकिन चेहरे पर संतोष झलक रहा था. वह जज साहिबा की ओर मुखातिब हुआ,  ‘‘हुजूर, आज से 22 वर्ष पहले जब मैं ने अपनी बड़ी बेटी को जन्म लेते ही मार डाला था, तब आप मुझे सजा दिलवाना चाहती थीं. आप ने तब मुझे बहुत भलाबुरा कहा था. आप ने कहा था, ‘बेटियां अनमोल होती हैं. मार कर आप ने जघन्य अपराध किया है.’

‘‘आप की बातों ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन खत्म कर दिया था. इसलिए जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ तब मुझे लगा कि प्रकृति ने मुझे भूल सुधारने का मौका दिया है. मैं ने प्रायश्चित करना चाहा. उस का नाम मैं ने ‘परी’ रखा. बड़े जतन और लाड़ से मैं ने उसे पाला. अपनी हैसियत के अनुसार उसे पढ़ाया और लिखाया. वह मेरी जान थी.

‘‘मैं ने निश्चय किया कि उसे दुनिया की हर खुशी दूंगा. मैं हर दिन मन ही मन आप को आशीष देता कि आप ने मुझे ‘पुत्रीसुख’ से वंचित होने से बचा लिया. मेरी परी बड़ी प्यारी, सुंदर, होनहार और समझदार थी. मैं ने उस की शादी बड़े अरमानों से की. अपनी सारी जमापूंजी लगा दी. मित्रों और रिश्तेदारों से उधार लिया. किसी तरह की कमी नहीं की. पर दुनिया ने उस के साथ वही किया जो मैं ने 22 साल पहले अपनी बड़ी बेटी के साथ किया था. उसे मार डाला. तब सिर्फ मैं दोषी क्यों हूं? मुझे खुशी है कि मेरी बड़ी बेटी को इस कू्रर दुनिया के दुखों और भेदभाव को सहना नहीं पड़ा. छोटी बेटी को समाज ने हर वह दुख दिया जो एक कमजोर पिता की पुत्री को झेलना पड़ता है. ऐसे में सजा किसे मिलनी चाहिए? मुझे या इस समाज को?

‘‘अब आप बताइए कि बेटियों को पालपोस कर बड़ा करने से क्या फायदा है? पलपल तिलतिल कर मरने से अच्छा नहीं है कि वे जन्म लेते ही इस दुनिया को छोड़ दें. कम से कम वे जिंदगी की तमाम तकलीफों को झेलने से तो बच जाएंगी. मेरे जैसे कमजोर पिता की बेटियों का भविष्य ऐसा ही होता है. उन्हें जिंदगी के हर कदम पर दुखदर्द झेलने पड़ते हैं. काश, मैं ने अपनी छोटी बेटी को भी जन्म लेते ही मार दिया होता.

‘‘आप मुझे बताइए, क्या कहीं ऐसी दुनिया है जहां जन्म लेने वाली ये नन्ही परियां बिना भेदभाव के सुखद जीवन जी सकें? आप मुझे दोषी मानती हैं पर मैं इस समाज को दोषी मानता हूं. क्या कोई अपने बच्चे को इसलिए पालता है कि उसे यह नतीजा देखने को मिले या समाज हमें कमजोर होने की सजा दे रहा है? क्या सही क्या गलत, आप मुझे बताइए?’’

विनीता अवाक् थीं. मूक नजरों से राम नरेश के लाचार, कमजोर चेहरे को देख रही थीं. उन के पास जवाब नहीं था. आज एक नया नजरिया उन के सामने था. उन्होंने उस की फांसी की सजा को माफ करने की दया याचिका प्रैसिडैंट को भिजवा दी.

अगले दिन अखबार में विनीता के इस्तीफे की खबर छपी थी. उन्होंने वक्तव्य दिया था, ‘इस असमान सामाजिक व्यवस्था को सुधारने की जरूरत है. यह समाज लड़कियों को समान अधिकार नहीं देता है. जिस से न्याय, अन्याय बन जाता है, क्योंकि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. गलत सामाजिक व्यवस्था न्याय को गुमराह करती है और लोगों का न्यायपालिका से भरोसा खत्म करती है. मैं इस गलत सामाजिक व्यवस्था के विरोध में न्यायाधीश पद से इस्तीफा देती हूं,’ उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ा कि वे अब एक समाजसेवी संस्था के माध्यम से आमजन को कानूनी सलाह देंगी और साथ ही, गलत कानून को बदलवाएंगी भी.

Mother’s Day 2025 : रिश्तों की कसौटी

Mother’s Day 2025 : ‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा. ‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई. 2 साल पहले ही पता चला था कि मां को कैंसर है. डाक्टर ने एक तरह से उन के जीने की अवधि तय कर दी थी. पापा ने भी उन की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. मां को ले कर 3-4 बार अमेरिका भी हो आए थे और अब वहीं के डाक्टर के निर्देशानुसार मुंबई के जानेमाने कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष की देखरेख में उन का इलाज चल रहा था. अब तो मां ने कालेज जाना भी बंद कर दिया था.

‘‘दीदी, चाय,’’ कम्मो की आवाज से सुरभी अपने खयालों से वापस लौटी. ‘‘मम्मी के कमरे में चाय ले चलो. मैं वहीं आ रही हूं,’’ उस ने जवाब दिया और फिर आंखें मूंद लीं.

सुरभी इस समय एक अजीब सी परेशानी में फंस कर गहरे दुख में घिरी हुई थी. वह अपने पति शिवम को जरमनी के लिए विदा कर अपने सासससुर की आज्ञा ले कर मां के पास कुछ दिनों के लिए रहने आई थी. 2 दिन पहले स्टोर रूम की सफाई करवाते समय मां की एक पुरानी डायरी सुरभी के हाथ लगी थी, जिस के पन्नों ने उसे मां के दर्द से परिचित कराया.

‘‘ऊपर आ जाओ, दीदी,’’ कम्मो की आवाज ने उसे ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया. सुरभी ने मां के साथ चाय पी और हर बार की तरह उन के साथ ढेरों बातें कीं. इस बार सुरभी के अंदर की उथलपुथल को मालती नहीं जान पाई थीं.

सुरभी चाय पीतेपीते मां के चेहरे को ध्यान से देख रही थी. उस निश्छल हंसी के पीछे वह दुख, जिसे सुरभी ने हमेशा ही मां की बीमारी का हिस्सा समझा था, उस का राज तो उसे 2 दिन पहले ही पता चला था. थोड़ी देर बाद नर्स ने आ कर मां को इंजेक्शन लगाया और आराम करने को कहा तो सुरभी भी नीचे अपने कमरे में आ गई.

रहरह कर सुरभी का मन उसे कोस रहा था. कितना गर्व था उसे अपने व मातापिता के रिश्तों पर, जहां कुछ भी गोपनीय न था. सुरभी के बचपन से ले कर आज तक उस की सभी परेशानियों का हल उस की मां ने ही किया था. चाहे वह परीक्षाओं में पेपर की तैयारी करने की हो या किसी लड़के की दोस्ती की, सभी विषयों पर मालती ने एक अच्छे मित्र की तरह उस का मार्गदर्शन किया और जीवन को अपनी तरह से जीने की पूरी आजादी दी. उस की मित्रमंडली को उन मांबेटी के इस मैत्रिक रिश्ते से ईर्ष्या होती थी.

अपनी बीमारी का पता चलते ही मालती को सुरभी की शादी की जल्दी पड़ गई. परंतु उन्हें इस बात के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. परेश के व्यापारिक मित्र व जानेमाने उद्योगपति ईश्वरनाथ के बेटे शिवम का रिश्ता जब सुरभी के लिए आया तो मालती ने चट मंगनी पट ब्याह कर दिया. सुरभी ने शादी के बाद अपना जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया. ‘‘दीदी, मांजी खाने पर आप का इंतजार कर रही हैं,’’ कम्मो ने कमरे के अंदर झांकते हुए कहा.

खाना खाते समय भी सुरभी का मन मां से बारबार खुल कर बातें करने को कर रहा था, मगर वह चुप ही रही. मां को दवा दे कर सुरभी अपने कमरे में चली आई. ‘कितनी गलत थी मैं. कितना नाज था मुझे अपनी और मां की दोस्ती पर मगर दोस्ती तो हमेशा मां ने ही निभाई, मैं ने आज तक उन के लिए क्या किया? लेकिन इस में शायद थोड़ाबहुत कुसूर हमारी संस्कृति का भी है, जिस ने नवीनता की चादर ओढ़ते हुए समाज को इतनी आजादी तो दे दी थी कि मां चाहे तो अपने बच्चों की राजदार बन सकती है. मगर संतान हमेशा संतान ही रहेगी. उन्हें मातापिता के अतीत में झांकने का कोई हक नहीं है,’ आज सुरभी अपनेआप से ही सबकुछ कहसुन रही थी.

हमारी संस्कृति क्या किसी विवाहिता को यह इजाजत देती है कि वह अपनी पुरानी गोपनीय बातें या प्रेमप्रसंग की चर्चा अपने पति या बच्चों से करे. यदि ऐसा हुआ तो तुरंत ही उसे चरित्रहीन करार दे दिया जाएगा. हां, यह बात अलग है कि वह अपने पति के अतीत को जान कर भी चुप रह सकती है और बच्चों के बिगड़ते चालचलन को भी सब से छिपा कर रख सकती है. सुरभी का हृदय आज तर्क पर तर्क दे रहा था और उस का दिमाग खामोशी से सुन रहा था. सुरभी सोचसोच कर जब बहुत परेशान हो गई तो उस ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

मां की वह डायरी पढ़ कर सुरभी तड़प कर रह गई थी. यह सोच कर कि जिन्होंने अपनी सारी उम्र इस घर को, उस के जीवन को सजानेसंवारने में लगा दी, जो हमेशा एक अच्छी पत्नी, मां और उस से भी ऊपर एक मित्र बन कर उस के साथ रहीं, उस स्त्री के मन का एक कोना आज भी गहरे दुख और अपमान की आग में झुलस रहा था. उस डायरी से ही सुरभी को पता चला कि उस की मां यानी मालती की एम.एससी. करते ही सगाई हो गई थी. मालती के पिता ने एक उद्योगपति घराने में बेटी का रिश्ता पक्का किया था. लड़के का नाम अमित साहनी था. ऊंची कद- काठी, गोरा रंग, रोबदार व्यक्तित्व का मालिक था अमित. मालती पहली ही नजर में अमित को दिल दे बैठी थीं. शादी अगले साल होनी थी. इसलिए मालती ने पीएच.डी. करने की सोची तो अमित ने भी हामी भर दी.

अमित का परिवार दिल्ली में था. फिर भी वह हर सप्ताह मालती से मिलने आगरा चला आता. मगर ठहरता गेस्ट हाउस में ही था. उन की इन मुलाकातों में परिवार की रजामंदी भी शामिल थी, इसलिए उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. पर मालती ने इस प्यार को एक सीमा रेखा में बांधे रखा, जिसे अमित ने भी कभी तोड़ने की कोशिश नहीं की. मालती की परवरिश उन के पिता, बूआ व दादाजी ने की थी. उन की मां तो 2 साल की उम्र में ही उन्हें छोड़ कर मुंबई चली गई थीं. उस के बाद किसी ने मां की खोजखबर नहीं ली. मालती को भी मां के बारे में कुछ भी पूछने की इजाजत नहीं थी. बूआजी के प्यार ने उन्हें कभी मां की याद नहीं आने दी.

बड़ी होने पर मालती ने स्वयं से जीवनभर एक अच्छी और आदर्श पत्नी व मां बन कर रहने का वादा किया था, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया था. उन की शादी से पहले की दीवाली आई. मालती के ससुराल वालों की ओर से ढेरों उपहार खुद अमित ले कर आया था. अमित ने अपनी तरफ से मालती को रत्नजडि़त सोने की अंगूठी दी थी. कितना इतरा रही थीं मालती अपनेआप पर. बदले में पिताजी ने भी अमित को अपने स्नेह और शगुन से सिर से पांव तक तौल दिया.

दोपहर के खाने के बाद बूआजी के साथ घर के सामने वाले बगीचे में अमित और मालती बैठे गपशप कर रहे थे. इतने में उन के चौकीदार ने एक बड़ा सा पैकेट और रसीद ला कर बूआजी को थमा दी.

रसीद पर नजर पड़ते ही बूआ खीजती हुई बोलीं, ‘2 महीने पहले कुछ पुराने अलबम दिए थे, अब जा कर स्टूडियो वालों को इन्हें चमका कर भेजने की याद आई है,’ और पैसे लेने वे घर के अंदर चली गईं. ‘लो अमित, तब तक हमारे घर की कुछ पुरानी यादों में तुम भी शामिल हो जाओ,’ कह कर मालती ने एक अलबम अमित की ओर बढ़ा दिया और एक खुद देखने लगीं.

संयोग से मालती के बचपन की फोटो वाला अलबम अमित के हाथ लगा था, जिस में हर एक तसवीर को देख कर वह मालती को चिढ़ाचिढ़ा कर मजे ले रहा था. अचानक एक तसवीर पर जा कर उस की नजर ठहर गई. ‘यह कौन है, मालती, जिस की गोद में तुम बैठी हो?’ अमित जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था.

‘यह मेरी मां हैं. तुम्हें तो पता ही है कि ये हमारे साथ नहीं रहतीं. पर तुम ऐसे क्यों पूछ रहे हो? क्या तुम इन्हें जानते हो?’ मालती ने उत्सुकता से पूछा. ‘नहीं, बस ऐसे ही पूछ लिया,’ अमित ने कहा.

‘ये हम सब को छोड़ कर वर्षों पहले ही मुंबई चली गई थीं,’ यह स्वर बूआजी का था. बात वहीं खत्म हो गई थी. शाम को अमित सब से विदा ले कर दिल्ली चला गया.

इतना पढ़ने के बाद सुरभी ने देखा कि डायरी के कई पन्ने खाली थे. जैसे उदास हों. फिर अचानक एक दिन अमित साहनी के पिता का माफी भरा फोन आया कि यह शादी नहीं हो सकती. सभी को जैसे सांप सूंघ गया. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. अमित 2 सप्ताह के लिए बिजनेस का बहाना कर जापान चला गया. इधरउधर की खूब बातें हुईं पर बात वहीं की वहीं रही. एक तरफ अमित के घर वाले जहां शर्मिंदा थे वहीं दूसरी तरफ मालती के घर वाले क्रोधित व अपमानित. लाख चाह कर भी मालती अमित से संपर्क न बना पाईं और न ही इस धोखे का कारण जान पाईं.

जगहंसाई ने पिता को तोड़ डाला. 5 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे, फिर चल बसे. मालती के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था. उन की पढ़ाई बीच में छूट गई. बूआजी ने फिर से मालती को अपने आंचल में समेट लिया. समय बीतता रहा. इस सदमे से उबरने में उसे 2 साल लग गए तो उन्होंने अपनी पीएच.डी. पूरी की. बूआजी ने उन्हें अपना वास्ता दे कर अमित साहनी जैसे ही मुंबई के जानेमाने उद्योगपति के बेटे परेश से उस का विवाह कर दिया.

अब मालती अपना अतीत अपने दिल के एक कोने में दबा कर वर्तमान में जीने लगीं. उन्होंने कालेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. परेश ने उन्हें सबकुछ दिया. प्यार, सम्मान, धन और सुरभी. सभी सुखों के साथ जीते हुए भी जबतब मालती अपनी उस पुरानी टीस को बूंदबूंद कर डायरी के पन्नों पर लिखती थीं. उन पन्नों में जहां अमित के लिए उस की नफरत साफ झलकती थी, वहीं परेश के लिए अपार स्नेह भी दिखता था. उन्हीं पन्नों में सुरभी ने अपना बचपन पढ़ा.

रात के 3 बजे अचानक सुरभी की आंखें खुल गईं. लेटेलेटे वे मां के बारे में सोच रही थीं. वे उन के उस दुख को बांटना चाहती थीं, पर हिचक रही थीं.

अचानक उस की नजर उस बड़ी सी पोस्टरनुमा तसवीर पर पड़ी जिस में वह अपने मम्मीपापा के साथ खड़ी थी. वह पलंग से उठ कर तसवीर के करीब आ गई. काफी देर तक मां का चेहरा यों ही निहारती रही. फिर थोड़ी देर बाद इत्मीनान से वह पलंग पर आ बैठी. उस ने एक फैसला कर लिया था. सुबह 6 बजे ही उस ने पापा को फोन लगाया. सुन कर सुरभी आश्वस्त हो गई कि पापा के लौटने में सप्ताह भर बाकी है. वह पापा की गैरमौजूदगी में ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती थी.

उस दिन वह दिल्ली में रह रहे दूसरे पत्रकार मित्रों से फोन पर बातें करती रही. दोपहर तक उसे यह सूचना मिल गई कि अमित साहनी इस समय दिल्ली में अपने पुश्तैनी मकान में हैं. शाम को मां को बताया कि दिल्ली में उस की एक पुरानी सहेली एक डाक्युमेंटरी फिल्म तैयार कर रही है और इस फिल्म निर्माण का अनुभव वह भी लेना चाहती है. मां ने हमेशा की तरह हामी भर दी. सुरभी नर्स और कम्मो को कुछ हिदायतें दे कर दिल्ली चली गई.

अब समस्या थी अमित साहनी जैसी बड़ी हस्ती से मुलाकात की. दोस्तों की मदद से उन तक पहुचंने का समय उस के पास नहीं था, इसलिए उस ने योजना के अनुसार अपने ससुर ईश्वरनाथ से अपनी ही एक दोस्त का नाम ले कर अमित साहनी से मुलाकात का समय फिक्स कराया. ईश्वरनाथ के लिए यह कोई बड़ी बात न थी. अगले दिन सुबह 10 बजे का वक्त सुरभी को दिया गया. आज ऐसे वक्त में पत्रकारिता का कोर्स उस के काम आ रहा था.

खैर, मां की नफरत से मिलने के लिए उस ने खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया. अगले दिन पूरी जांचपड़ताल के बाद सुरभी ठीक 10 बजे अमित साहनी के सामने थी. वे इस उम्र में भी बहुत तंदुरुस्त और आकर्षक थे. पोतापोती व पत्नी भी उन के साथ थे.

परिवार सहित उन की कुछ तसवीरें लेने के बाद सुरभी ने उन से कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे पर असल मुद्दे पर न आ सकी, क्योंकि उन की पत्नी भी कुछ दूरी पर बैठी थीं. सुरभी इस के लिए भी तैयार हो कर आई थी. उस ने अपनी आटोग्राफ बुक अमित साहनी की ओर बढ़ा दी. अमित साहनी ने जैसे ही चश्मा लगा कर पेन पकड़ा, उन की नजर मालती की पुरानी तसवीर पर पड़ी. उस के नीचे लिखा था, ‘‘मैं मालतीजी की बेटी हूं और मेरा आप से मिलना बहुत जरूरी है.’’

पढ़ते ही अमित का हाथ रुक गया. उन्होंने प्यार भरी एक भरपूर नजर सुरभी पर डाली और बुक में कुछ लिख कर बुक सुरभी की ओर बढ़ा दी. फिर चश्मा उतार कर पत्नी से आंख बचा कर अपनी नम आंखों को पोंछा.

सुरभी ने पढ़ा, लिखा था : ‘जीती रहो, अपना नंबर दे जाओ.’ पढ़ते ही सुरभी ने पर्स में से अपना कार्ड उन्हें थमा दिया और चली गई.

फोन से उस का पता मालूम कर तड़के साढ़े 5 बजे ही अमित साहनी सिर पर मफलर डाले सुरभी के सामने थे. ‘‘सुबह की सैर का यही 1 घंटा है जब मैं नितांत अकेला रहता हूं,’’ उन्होंने अंदर आते हुए कहा.

सुरभी उन्हें इस तरह देख आश्चर्य में तो जरूर थी, पर जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, समय बहुत कम है. इसलिए सीधी बात करना चाहती हूं.’’ ‘‘मुझे भी तुम से यही कहना है,’’ अमित भी उसी लहजे में बोले.

तब तक वेटर चाय रख गया. ‘‘मेरी मम्मी आप की ही जबान से कुछ जानना चाहती हैं,’’ गंभीरता से सुरभी ने कहा.

सुन कर अमित साहनी की नजरें झुक गईं. ‘‘आप मेरे साथ कब चल रहे हैं मां से मिलने?’’ बिना कुछ सोचे सुरभी ने अगला प्रश्न किया.

‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ चलने से मना कर दूं तो?’’ अमित साहनी ने सख्ती से पूछा. ‘‘मैं इस से ज्यादा आप से उम्मीद भी नहीं करती, मगर इनसानियत के नाते ही सही, अगर आप उन का जरा सा भी सम्मान करते हैं तो उन से जरूर मिलिएगा. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं,’’ कहतेकहते नफरत और दुख से सुरभी की आंखें भर आईं.

‘‘क्या हुआ मालती को?’’ चाय का कप मेज पर रख कर चौंकते हुए अमित ने पूछा. ‘‘उन्हें कैंसर है और पता नहीं अब कितने दिन की हैं…’’ सुरभी भरे गले से बोल गई.

‘‘ओह, सौरी बेटा, तुम जाओ, मैं जल्दी ही मुंबई आऊंगा,’’ अमित साहनी धीरे से बोले और सुरभी से उस के घर का पता ले कर चले गए. दोपहर को सुरभी मां के पास पहुंच गई.

‘‘कैसी रही तेरी फिल्म?’’ मां ने पूछा. ‘‘अभी पूरी नहीं हुई मम्मी, पर वहां अच्छा लगा,’’ कह कर सुरभी मां के गले लग गई.

‘‘दीदी, कल रात मांजी खुद उठ कर अपने स्टोर रूम में गई थीं. लग रहा था जैसे कुछ ढूंढ़ रही हों. काफी परेशान लग रही थीं,’’ कम्मो ने सीढि़यां उतरते हुए कहा. थोड़ी देर बाद मां से आंख बचा कर उस ने उन की डायरी स्टोर रूम में ही रख दी.

उसी रात सुरभी को अमित साहनी का फोन आया कि वह कल साढ़े 11 बजे की फ्लाइट से मुंबई आ रहे हैं. सुरभी को मां की डायरी का हर वह पन्ना याद आ रहा था जिस में लिखा था कि काश, मृत्यु से पहले एक बार अमित उस के सवालों के जवाब दे जाता. कल का दिन मां की जिंदगी का अहम दिन बनने जा रहा था. यही सोचते हुए सुरभी की आंख लग गई. अगले दिन उस ने नर्स से दवा आदि के बारे में समझ कर उसे भी रात को आने को बोल दिया.

करीब 1 बजे अमित साहनी उन के घर पहुंचे. सुरभी ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया तो उन्होंने ढेरोें आशीर्वाद दे डाले. ‘‘आप यहीं बैठिए, मैं मां को बता कर आती हूं. एक विनती है, हमारी मुलाकात का मां को पता न चले. शायद बेटी के आगे वे कमजोर पड़ जाएं,’’ सुरभी ने कहा और ऊपर चली गई.

‘‘मम्मी, आप से कोई मिलने आया है,’’ उस ने अनजान बनते हुए कहा. ‘‘कौन है?’’ मां ने सूप का बाउल कम्मो को पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘कोई मिस्टर अमित साहनी नाम के सज्जन हैं. कह रहे हैं, दिल्ली से आए हैं,’’ सुरभी वैसे ही अनजान बनी रही. ‘‘क…क…कौन आया है?’’ मां के शब्दों में एक शक्ति सी आ गई थी.

‘‘ऐसा करती हूं आप यहीं रहिए. उन्हें ही ऊपर बुला लेते हैं,’’ मां के चेहरे पर आए भाव सुरभी से देखे नहीं जा रहे थे. वह जल्दी से कह कर बाहर आ गई.

मालती कुछ भी सोचने की हालत में नहीं थीं. यह वह मुलाकात थी जिस के बारे में उन्होंने हर दिन सोचा था. थोड़ी देर में सुरभी के पीछेपीछे अमित साहनी कमरे में दाखिल हुए, मालती के पसंदीदा पीले गुलाबों के बुके के साथ. मालती का पूरा अस्तित्व कांप रहा था. फिर भी उन्होंने अमित का अभिवादन किया.

सुरभी इस समय की मां की मानसिक अवस्था को अच्छी तरह समझ रही थी. वह आज मां को खुल कर बात करने का मौका देना चाहती थी, इसलिए डा. आशुतोष के पास उन की कुछ रिपोर्ट्स लेने के बहाने वह घर से बाहर चली गई. ‘‘कितने बेशर्म हो तुम जो इस तरह से मेरे सामने आ गए?’’ न चाहते हुए भी मालती क्रोध से चीख उठीं.

‘‘कैसी हो, मालती?’’ उस की बातों पर ध्यान न देते हुए अमित ने पूछा और पास के सोफे पर बैठ गए. ‘‘अभी तक जिंदा हूं,’’ मालती का क्रोध उफान पर था. उन का मन तो कर रहा था कि जा कर अमित का मुंह नोच लें.

इस के विपरीत अमित शांत बैठे थे. शायद वे भी चाहते थे कि मालती के अंदर का भरा क्रोध आज पूरी तरह से निकल जाए. ‘‘होटल ताज में ईश्वरनाथजी से मुलाकात हुई थी. उन्हीं से तुम्हारे बारे में पता चला. तभी से मन बारबार तुम से मिलने को कर रहा था,’’ अमित ने सुरभी के सिखाए शब्द दोहरा दिए. परंतु यह स्वयं उस के दिल की बात भी थी.

‘‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया, अमित?’’ अपलक अमित को देख रही मालती ने उन की बातों को अनसुना कर अपनी बात रखी. इतने में कम्मो चाय और नाश्ता रख गई.

‘‘तुम्हें याद है वह दोपहरी जब मैं ने एक तसवीर के विषय में तुम से पूछा था और तुम ने उन्हें अपनी मां बताया था?’’ अमित ने मालती को पुरानी बातें याद दिलाईं.

मालती यों ही खामोश बैठी रहीं तो अमित ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘उस तसवीर को मैं तुम सब से छिपा कर एक शक दूर करने के लिए अपने साथ दिल्ली ले गया था. मेरा शक सही निकला था. यह वृंदा यानी तुम्हारी मां वही औरत थी जो दिल्ली में अपने पार्टनर के साथ एक मशहूर ब्यूटीपार्लर और मसाज सेंटर चलाती थी. इस से पहले वह यहीं मुंबई में मौडलिंग करती थी. उस का नया नाम वैंडी था.’’ इस के बाद अमित ने अपनी चाय बनाई और मालती की भी.

उस ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘उस मसाज सेंटर की आड़ में ड्रग्स की बिक्री, वेश्यावृत्ति जैसे धंधे होते थे और समाज के उच्च तबके के लोग वहां के ग्राहक थे.’’ ‘‘ओह, तो यह बात थी. पर इस में मेरी क्या गलती थी?’’ रोते हुए मालती ने पूछा.

‘‘जब मैं ने एम.बी.ए. में नयानया दाखिला लिया था तब मेरे दोस्तों में से कुछ लड़के भी वहां के ग्राहक थे. एक बार हम दोस्तों ने दक्षिण भारत घूमने का 7 दिन का कार्यक्रम बनाया और हम सभी इस बात से बहुत रोमांचित थे कि उस मसाज सेंटर से हम लोगों ने जो 2 टौप की काल गर्ल्स बुक कराई थीं उन में से एक वैंडी भी थी जिसे हाई प्रोफाइल ग्राहकों के बीच ‘पुरानी शराब’ कह कर बुलाया जाता था. उस की उम्र उस के व्यापार के आड़े नहीं आई थी,’’ अमित ने अपनी बात जारी रखी. उसे अब मालती के सवाल भी सुनाई नहीं दे रहे थे. चाय का कप मेज पर रखते हुए अमित ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरी परवरिश ने मेरे कदम जरूर बहका दिए थे मालती, पर मैं इतना भी नीचे नहीं गिरा था कि जिस स्त्री के साथ 7 दिन बिताए थे, उसी की मासूम और अनजान बेटी को पत्नी बना कर उस के साथ जिंदगी बिताता? मेरा विश्वास करो मालती, यह घटना तुम्हारे मिलने से पहले की है. मैं तुम से बहुत प्यार करता था. मुझे अपने परिवार की बदनामी का भी डर था, इसलिए तुम से बिना कुछ कहेसुने दूर हो गया,’’ कह कर अमित ने अपना सिर सोफे पर टिका दिया.

आज बरसों का बोझ उन के मन से हट गया था. मालती भी अब लेट गई थीं. वे अभी भी खामोश थीं. थोड़ी देर बाद अमित चले गए. उन के जाने के बाद मालती बहुत देर तक रोती रहीं.

रात के खाने पर जब सुरभी ने अमित के बारे में पूछा तो उन्होंने उसे पुराना पारिवारिक मित्र बताया. लगभग 3 महीने बाद मालती चल बसीं. परंतु इतने समय उन के अंदर की खुशी को सभी ने महसूस किया था. उन के मृत चेहरे पर भी सुरभी ने गहरी संतुष्टि भरी मुसकान देखी थी. मां की तेरहवीं वाले दिन अचानक सुरभी को उस डायरी की याद आई. उस में लिखा था : मुझे क्षमा कर देना अमित, तुम ने अपने साथसाथ मेरे परिवार की इज्जत भी रख ली थी. मैं पूर्ण रूप से तृप्त हूं. मेरी सारी प्यास बुझ गई.

पढ़ते ही सुरभी ने डायरी सीने से लगा ली. उस में उसे मां की गरमाहट महसूस हुई थी. आज उसे स्वयं पर गर्व था क्योंकि उस ने सही माने में मां के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज जो अदा किया था.

Mother’s Day 2025 : फैसला – बेटी के एक फैसले से टूटा मां का सपना

Mother’s Day 2025 : मेरे सामने आज ऐसी समस्या आ खड़ी हुई है, जिस का हल मुझे अभी  निकालना है. मम्मी मेरे कमरे में कई बार झांक कर जा चुकी हैं, लेकिन मैं अभी तक कोई फैसला नहीं कर पाई हूं. अगर मैं ने जल्दी अपना फैसला न सुनाया तो मम्मी आ कर कहेंगी, ‘नेहा, बेटे तुम ने क्या सोचा. देखो, वे लोग अमेरिका से आ कर हमारे फैसले के इंतजार में बैठे हुए हैं. वे चाहते हैं तुम समीर से शादी के लिए हां कर दो.’

हम एक बार रिश्ता खत्म कर चुके हैं, फिर दोबारा उसे जोड़ने की जिद क्यों. मम्मी सोचती हैं कि समीर अच्छा लड़का है, अमेरिका में जमाजमाया बिजनैस है. वे यह क्यों भूल जाती हैं कि समीर की मम्मी ने हमारी सगाई पर दिए गए तोहफों को ले कर उन्हें कैसी खरीखोटी सुनाई थी. क्या हम यह भी भूल गए हैं कि समीर के पापा होटल का बिल चुकाए बिना अमेरिका लौट गए थे और बिल पापा को चुकाना पड़ा था. इस तरह की  गलती को कोई कैसे अनदेखा कर सकता है. फिर इस बात की क्या गारंटी है कि आगे ऐसा कुछ नहीं दोहराया जाएगा. अगर कभी ऐसा हुआ तो उस का अंजाम क्या होगा? मैं कहीं की नहीं रहूंगी.

अपनी बेटी को अमेरिका भेजने के लालच में कोई और मांबाप समीर को बेटी दे देंगे. वरना तब तक मैं राहुल को खो चुकी होउंगी. मैं राहुल को खोना नहीं चाहती, मां.

पिछले साल इन्हीं दिनों समीर से मेरी सगाई हुई थी. मेरी एक आंटी अमेरिका से आईर् हुई थीं, उन्होंने यह रिश्ता बताया था. जब भी मेरी शादी की बात चलती, मम्मीपापा आह भर कर कहते, ‘काश, हमारी बेटी की शादी भी इंगलैंड या अमेरिका में हो जाती.’ पड़ोस में किसी के बेटे की शादी इंगलैंड से हुई है तो किसी की बेटी अमेरिका में सैटल्ड है. मेरे मम्मीपापा भी चाहते थे कि उन की बेटी भी विदेश में सैटल हो जाए, तब वे भी गर्व से कह सकेंगे कि उन की बेटी अमेरिका में रहती है, बहुत बड़ा बंगला है, बड़ीबड़ी गाडि़यां हैं और तो और घर में स्विमिंग पूल भी है.

बस, इसी लालच के चलते जैसे ही अमेरिका में रहने वाले लड़के का औफर आंटी ने दिया, मम्मी इस रिश्ते के लिए आंटी पर जोर डालने लगीं. आंटी ने कहा कि जब वे अमेरिका लौटेंगी, तब बात कर लेंगी. लेकिन मम्मी को सब्र कहां. आंटी से जिद कर के अमेरिका फोन करवा दिया. वे लोग इंडिया आने वाले थे, लेकिन अभी उन का कार्यक्रम रीशैड्यूल हो रहा है. 2 दिन में आने की डेट बता देंगे.

मम्मी ने 2 दिन बाद ही फिर आंटी से अमेरिका फोन करवा दिया. वे लोग 21 तारीख को आ रहे हैं. इंडिया में 2 हफ्ते तक रुकेंगे. मम्मी ने गिनती कर ली, आज 7 तारीख है, 2 हफ्ते बाद इंडिया आ जाएंगे. मम्मी ने आंटी से कह दिया कि यहां बात पक्की हो जाए तो नेहा अमेरिका शिफ्ट हो जाएगी. हम भी सालछह महीने में चक्कर लगा लिया करेंगे.

तनवी आंटी ने बताया कि समीर अच्छा लड़का है. उन का वहां सालों से जमा हुआ बिजनैस है. शहर में 4 बड़े स्टोर हैं. आंटी ने बढ़चढ़ कर उन की तारीफ कर दी. मम्मी को यह सुन कर अच्छा लगा.

‘यहीं बात पक्की हो जाए तो नेहा की तरफ से हम निश्चिंत हो जाएंगे,’ मम्मी ने आंटी से कह दिया, ‘जैसे ही वे लोग इंडिया आएं, अगले दिन हमारे यहां चाय पर बुला लेना. नेहा को देख कर कोई कैसे मना कर सकता है. रंगरूप में कोईर् कमी नहीं, गोरीचिट्टी, स्लिम और स्मार्ट. हम शादी में कोई कसर छोड़ने वाले नहीं. फाइव स्टार होटल में शादी करेंगे. लेनदेन में भी कोई कमी नहीं रखेंगे.’

जिस दिन वे लोग इंडिया पहुंचे, आंटी ने अगले ही दिन उन्हें चाय पर बुला लिया. मम्मी ने मुझे अच्छी तरह तैयार होने के लिए पहले से ही कह दिया था. आंटी के कहने पर समीर और उस के मम्मीपापा हमारे घर पहुंचे. आंटी ने उन का परिचय करवाया, ‘मीट मिसेज शिखा, मिस्टर हरीश और इन का बेटा समीर.’

समीर की मम्मी ने आंटी को झट टोक दिया, ‘समीर नहीं तनवी, सैमी, इसे हिंदुस्तानी नाम बिलकुल पसंद नहीं.’

‘सैमी… औल राइट,’ शिखा ने जिस सख्ती से विरोध किया, तनवी आंटी ने उतनी ही सहजता से उन की बात मान ली.

‘सौरी मिसेज शिखा, मैं खास व्यक्ति से तो इंट्रोड्यूस करवाना भूल ही गई,‘ आंटी मुझे आते देख उठ खड़ी हुईं. ‘मीट द मोस्ट चार्मिंग गर्ल, नेहा.’ आंटी ने मेरी कमर में हाथ डाल कर बड़े दुलार से उन के आगे मुझे पेश कर दिया, जैसे मैं कोई बड़ी नायाब चीज हूं.

‘नेहा बड़ी होनहार लड़की है, वैरी स्मार्ट, ब्यूटीफुल ऐंड औफकौर्स वैरी वैल ऐजुकेटेड’, आंटी ने मेरे गुणों का बखान कर दिया.

आंटी हमारे बारे में अच्छी बातें बता कर उन्हें प्रभावित कर रही थीं. ‘मिसेज शिखा, नेहा अच्छे संस्कारों वाली लड़की है, इसे अपनी बहू बना लोगी तो हमेशा मेरी आभारी रहोगी.’

आंटी ने उन्हें आश्वस्त कर दिया. शादी में किसी प्रकार की कमी नहीं रहेगी. फाइव स्टार होटल में शादी होगी… वगैरा…वगैरा…

समीर की मम्मी स्वभाव से घमंडी लग रही थीं, अमेरिका में रहती हैं न, शायद इसीलिए. समीर के पापा ज्यादा नहीं बोले, बस पत्नी की ओर देखते रहे, जैसे कहना चाहते हों, ‘श्रीमतीजी, अब बोलिए.’

समीर की मम्मी ने जब सारे घर का अच्छी तरह मुआयना कर लिया, तब मेरी मम्मी से कहा, ‘देखिए, मिसेज रजनी, हमारा इंडिया आने का मकसद समीर के लिए लड़की देखने का नहीं था. तनवी ने जब यह प्रपोजल दिया तो हम ने सोचा, देख लेते हैं. उस के कहने पर हम आप के घर आ गए. नेहा हमें पसंद है, लेकिन हम आप को जल्दी में कोई जवाब नहीं दे सकेंगे. हमें एक हफ्ते का समय चाहिए, वी विल टेक सम टाइम टु डिसाइड, आई होप यू कैन अंडरस्टैंड,’ कहते हुए वे खड़ी हो गईं और साथ ही समीर और उस के पापा भी खड़े हो गए.

‘ओके, मिसेज रजनी, नाइस टु मीट यू औल. तनवी तुम अमेरिका कब लौट रही हो?

‘अभी कुछ दिन यहीं इंडिया में हूं. मेरे भतीजे की शादी है. यहां बहुत से रिश्तेदार हैं. सब से मिलना है. आप अचानक उठ क्यों गए, बैठिए न. चाय तो लीजिए प्लीज,’ आंटी ने कहा.

‘नहीं तनवी, अब चलेंगे. तुम्हारे कहने पर आ गए… ओके…‘ बायबाय कर के वे तीनों बाहर निकल गए.

‘तनवी, लगता है उन्हें बात जमी नहीं. ठीक से चाय भी नहीं पी. मैं ने इतनी अच्छी तैयारी की थी,‘ मेरी मम्मी ने अपनी चिंता जताई.

‘भाभी, आप चिंता न करें,’ शिखा का व्यवहार ही ऐसा है. मैं उन से बात कर के पता लगाऊंगी.

5 दिन गुजर गए, उन की तरफ से कोई खबर नहीं आई. मम्मी आंटी को फोन करने की सोच रही थीं कि तभी आंटी आ पहुंचीं. ‘2 दिन के लिए कानपुर चली गई थी, छोटी बहन के पास. भाभी, मैं अभी मिसेज शिखा से बात कर के आई हूं. कह रही हैं शाम तक बताएंगे.’

शाम तक कोई खबर नहीं आई. रात 9 बजे आंटी का फोन आया. मेरी मम्मी खुशी से उछल पड़ीं. जरूर अच्छी खबर होगी.

‘मिसेज शिखा ने कहा है कि हम सोच रहे हैं.’ आंटी ने बताया, ‘पौजिटिव हैं.’ अगले दिन मैसेज आ गया कि उन्हें रिश्ता मंजूर है.

आंटी ने कहा, ‘जल्दी किसी बड़े होटल में सगाई समारोह करना होगा. आज… या ज्यादा से ज्यादा कल तक.’

अगले ही दिन एक शानदार होटल में बड़ी धूमधाम से समीर के साथ मेरी सगाई हो गई. समीर के परिवार में सभी को बहुत महंगे तोहफे दिए गए. डायमंड की अंगूठियां व महंगी घडि़यों से ले कर डिजाइनर साडि़यां व सूट आदि सभी तोहफे बहुत महंगे थे.

मेरी मम्मी बहुत खुश थीं. पापा को भी सब ठीक लग रहा था. मम्मी की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. आखिरकार उन की बेटी अब अमेरिका चली जाएगी. वे भी सालछह महीने में एक बार वहां हो आएंगे.

अमेरिका में सैटल्ड लड़के के साथ मेरी सगाई की बधाइयां अभी भी आ ही रही थीं कि अमेरिका लौटने के अगले ही दिन समीर की मम्मी का फोन आ गया, ‘मिसेज रजनी, आप ने जो तोहफे दिए हैं, वे हमारे किस काम के. यहां अमेरिका में कौन पहनेगा इतनी हैवी साडि़यां और डै्रसेज. डायमंड ऐंड गोल्ड ज्वैलरी इज ओके बट वट टु डू विद दीज हैवी सारीज ऐंड सिल्ली ड्रैसेज. ये सब हमारे लिए बेकार हैं. यही पैसे आप ने समझदारी से खर्च किए होते… इट वुड हैव गिवन सम वैल्यू टु अस.’

समीर की मम्मी का ऐसा रूखा व्यवहार देख कर मम्मी ने अपनी गलती मान ली, ‘शिखाजी, हम से गलती हो गई. आप बुरा न मानें. आगे हम ध्यान रखेंगे.’

मम्मी ने स्वीकार कर लिया ताकि वे नाराज न हो जाएं और आगे सावधानी बरतने का विश्वास भी उन्हें दिला दिया. मुझे समीर की मम्मी का व्यवहार और अपनी मम्मी का गलती मान लेना अच्छा नहीं लगा, लेकिन मैं चुप रही.

‘मिसेज रजनी, हम डायमंड ज्वैलरी और वे गिफ्ट जो हमें ठीक लगे, साथ ले आए हैं, बाकी सब वहीं तनवी के पास छोड़ आए हैं. आप मंगवा लेना, शायद आप के किसी काम आ जाएं.’ मिसेज शिखा ने मम्मी को खूब खरीखोटी सुनाई. मम्मी जीजी करती उन की बेतुकी डांट चुपचाप सुनती रहीं.

सगाई के बाद अमेरिका लौट कर समीर की मम्मी का यह पहला फोन था. मम्मी उम्मीद कर रही थीं कि सगाई की रस्म कम वक्त में इतने बढि़या तरीके से करने पर वे उन का थैंक्स कहेंगी और हमारे दिए तोहफों के लिए आभार जताएंगी, लेकिन इतने करीबी और नएनए जुड़े रिश्ते का भी खयाल न रखते हुए उन्होंने जिस तरह मम्मी के साथ व्यवहार किया, उन्हें उस की जरा भी उम्मीद नहीं थी.

कुछ दिन तक मम्मी बहुत परेशान रहीं. पापा को सारी बात न बता कर इतना बताया कि हमारे तोहफे उन्हें पसंद नहीं आए, इसलिए शादी के वक्त हमें ध्यान रखना होगा. रिश्तों की गरिमा को ताक पर रख कर समीर की मम्मी के कड़वे बोलों ने उन्हें चिंता में डाल दिया था.

अपनी चिंता आंटी से शेयर करने के लिए मम्मी ने उन के भाई के घर फोन किया. वहां से पता चला कि वे अमेरिका लौट गई हैं. उन्होंने उसी वक्त आंटी को अमेरिका फोन कर दिया. आंटी ने मम्मी को विश्वास दिलाया, ‘चिंता की कोई बात नहीं. वे उन लोगों से बात कर के हमें वापस फोन करेंगी.‘

सगाई के बाद जब भी समीर से मेरी बात हुई, वह बेहद फीकी रही. न रोमांचक, न रोचक. जब भी मैं ने कुछ पूछा, उस ने हमेशा सधा सा जवाब दे दिया, ‘जब मैं वहां पहुंचूंगी, सब जान लूंगी.’ कई बार तो बात बस हां और ना पर ही खत्म हो जाती. समीर का इस तरह अनमना व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगा. मैं ने मम्मीपापा को समीर के रूखे व्यवहार के बारे में कुछ नहीं बताया, लेकिन मुझे बहुत बुरा लगा. मैं चुप रही. मम्मी के लिए एक और चिंता खड़ी करने से अच्छा है, चुप रहना.

मैं मम्मी को किसी नई चिंता में उलझने से कहां तक बचा पाती, क्योंकि अगले दिन तनवी आंटी का फोन आ गया. उन्होंने जो बताया, उस से हमारा सारा उत्साह फीका पड़ गया.

‘भाभी, यहां कुछ ठीक नहीं लग रहा. आप जानती हैं अमेरिका में मंदी आने से बिजनैस पर असर पड़ा है और बिजनैस मंदी की वजह से बुरे दौर से गुजर रहा है. वे लोग भी परेशान हैं. मुझे यह भी पता चला है कि वे लोग इंडिया वापस आने की भी सोच रहे हैं.

पिछली बार इंडिया आने का उन का मकसद यहां सही अवसर देखने के साथ समीर के लिए लड़की देखना भी था. उन्होंने नेहा के अलावा और भी 3-4 लड़कियां देखी थीं. मिसेज शिखा ने तब झूठ बोला

था कि वे मेरे कहने पर नेहा को देखने आ गए थे. यहां आ कर जो कुछ मुझे पता चला है, मैं ने आप को बता दिया. अब आप जैसा ठीक समझें.’

तनवी आंटी ने जो बताया, वह मम्मीपापा के लिए एक बड़ी चिंता का कारण बन गया. वे लोग वापस इंडिया लौटने की सोच रहे हैं. नेहा के अलावा उन्होंने और लड़कियां भी देखीं. मिसेज शिखा कह रही थीं, तनवी ने प्रपोजल दिया, इसलिए हम आ गए.

मम्मी अपना गुस्सा समीर की मम्मी पर निकालने लगीं, ‘वाह शिखाजी, डायमंड ज्वैलरी और महंगे तोहफे तो साथ ले गईं. बाकी यहां छोड़ गईं. ऐसा सामान देते जिस की हमें वैल्यू मिलती. वैल्यू की बड़ी पहचान है आप को.’

मेरे पापा पहले ही उन से नाराज बैठे थे. कुछ दिन पहले समीर के पापा ने अमेरिका से फोन कर अपने लिए होटल बुक करवाने के लिए कहा था और होटल का बिल हमारे नाम करवा कर चले गए. अमेरिका लौट कर फोन पर सौरी कह कर अपनेआप को बचा लिया.

कुछ दिन घर में उदासी छाई रही. मम्मीपापा दोनों परेशान थे. मैं भी असमंजस की स्थिति में थी. इसी उधेड़बुन में 3 महीने से ज्यादा निकल गए. इस बीच न उधर से कोई फोन आया, न ही हम ने उन से बातचीत करने की पहल की. जो भी हुआ हम उसे भुलाने की कोशिश में थे कि अचानक तनवी आंटी का अमेरिका से फोन आ गया. आंटी समीर की मम्मी के पास बैठ कर वहीं से फोन कर रही थीं. उन्होंने मम्मी को बताया कि शिखा ने फोन पर उन्हें जो बुराभला कहा था, उस के लिए वे मेरी मम्मी को सौरी कहना चाहती हैं.

आंटी ने फोन समीर की मम्मी को दे दिया, ‘मिसेज रजनी, मैं शिखा, समीर की मम्मी. दैट डे आई वाज इन ए वैरी बैड मूड. मेरा मकसद आप का दिल दुखाने का नहीं था. आई एम रियली सौरी. नेहा हमें बड़ी अच्छी लगी. शी इज ए लवली गर्ल और हम उसे अपनी बहू बनाना चाहते हैं. आई होप यू विल नौट डिसअपौइंट अस. आप मेरी बात मान लीजिए. मैं आप को फिर एक बार सौरी बोल रही हूं’.

‘शिखाजी, आप ऐसा न कहिए, आप को सौरी बोलने की जरूरत नहीं. आप लोग हमें बड़े अच्छे लगे. आप जैसे लोगों से रिश्ता जोड़ने में हमें कोई प्रौब्लम नहीं है. मैं नेहा के पापा से बात कर के आप को…’

समीर की मम्मी बीच में ही बोल पड़ीं, ‘मिसेज रजनी आप को अपनी बेटी के बारे में फैसला लेने का पूरा हक है. नेहा के पापा आप से क्यों असहमत होने लगे. नाऊ ऐवरीथिंग इज क्लीयर बिटवीन अस. आप जब कहेंगे, हम इंडिया आ जाएंगे. लीजिए, आप तनवी से बात कीजिए,‘ और उन्होंने फोन आंटी को दे दिया.

आंटी फिर उन की वकालत करने लगीं, ‘उन का बिजनैस अब अच्छा चल रहा है. वे लोग 2 और स्टोर खोल रहे हैं. समीर के लिए अलग से घर खरीद लिया है. भाभी, आप जानती हैं अमेरिका में बच्चे बड़े होने पर मांबाप के साथ नहीं रहते. वे अलग रहना पसंद करते हैं, इसलिए समीर शादी के बाद अपने अलग घर में शिफ्ट हो जाएगा.‘

ये सब सुन कर मेरी मम्मी का मन फिर डोलने लगा. अमेरिका सैटल्ड लड़के के साथ मेरे रिश्ते का लालच फिर उन के मन में प्रबल हो उठा.

आंटी ने जैसे ही फोन रखा, मम्मी मेरे पास आ कर बैठ गईं. वे देखना चाहती थीं कि आंटी की बातें सुन कर मुझे कितना अच्छा लगा है. मम्मी चाहती थीं कि मैं समीर से शादी कर के अमेरिका सैटल हो जाऊं. मम्मी की यह चाह कैसे पूरी होगी, मैं नहीं जानती, लेकिन मैं हैरान हूं कि मम्मी हमेशा यह क्यों भूल जाती हैं कि हमारी सगाई पर दिए गए तोहफों को ले कर समीर की मम्मी ने उन्हें कैसे फटकारा था और कैसे झूठ बोल कर हम पर रोब जमाने की कोशिश करती रही थीं. तब मेरी मम्मी से कह रही थीं कि तनवी ने प्रपोजल दिया तो हम नेहा को देखने आ गए, जबकि उन्होंने समीर के लिए और भी लड़कियां देखी थीं.

आंटी के फोन के 2 दिन बाद समीर का फोन आया. फोन मैं ने ही उठाया, मम्मी के पूछने पर मैं ने बताया कि समीर का फोन है. समीर का नाम सुनते ही उन की आंखों में चमक आ गई. वे पहले मेरे नजदीक खड़ी रहीं, फिर दूर जा कर हमारी बातें सुनने की कोशिश करती रहीं.

‘समीर का फोन आने की मुझे उम्मीद नहीं थी, लेकिन मैं जानती थी कि मैं उसे कोई भाव देने वाली नहीं थी. मेरे हैलो करने पर जैसे ही उस ने ‘हैलो, मैं समीर… अमेरिका से,’ बोला, मैं ने अपने अंदर भरे आक्रोश को उगलना शुरू कर दिया, ‘ओह समीर… नहीं…नहीं… सैमी… हिंदुस्तानी नाम तो आप को पसंद नहीं. आप सैमी कहते, तब भी मैं पहचान लेती. क्योंकि मेरी आप से सगाई हो चुकी है.

कब से शादी के सपने देख रही हूं, क्यों न देखूं आखिर सगाई के बाद अगला कदम शादी ही है न. मिस्टर सैमी आप रहते अमेरिका में हैं, लेकिन पत्नी हिंदुस्तानी चाहिए क्योंकि वह तेजतर्रार नहीं होती, बड़ों का मानसम्मान करना जानती है, मुश्किलों में साथ निभाती है जबकि अमेरिकी लड़कियां जराजरा सी बात पर तलाक के कागज भेजने की धमकी दे देती हैं.’

‘प्लीज डोंट मिसअंडरस्टैंड मी. वैन वी टौक, आई वाज टैरिबली अपसैट… इनफैक्ट आई वाज इन ए वैरी बैड मूड…’

‘क्या आप अपनी मम्मी की तरह हमेशा बैड मूड में ही रहते हैं. कुछ दिन पहले आप की मम्मी ने इसी बैड मूड के लिए मेरी मम्मी से सौरी कहने के लिए फोन किया था और आज उन के बेटे ने…’

‘आप इतनी नाराज क्यों हो रही हैं…’

‘शायद आज मैं बैड मूड में हूं… इसलिए.’

‘आई एम रियली सौरी. आप जो चाहे मुझे सजा दें. बट…बट प्लीज डोंट स्पौयल…’

‘मिस्टर सैमी, आप और आप की मम्मी दोनों इस रिश्ते को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार हैं. मेरी मम्मी तो आज भी आप की मम्मी के बेहद रूखे और डांटडपट वाले व्यवहार को भूल कर इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए तैयार बैठी हैं, लेकिन मिस्टर सैमी अब ऐसा कभी नहीं हो पाएगा.’

‘प्लीज डोंट से दैट. आई विल बी डिसअपौइंटेड…’

‘आप डिसअपौइंट क्यों हो रहे हैं. आप को हिंदुस्तानी लड़की से ही शादी करनी

है, बड़े शौक से करिए. यहां आप कुछ और लड़कियां देख गए थे. चुन लीजिए, उन में से कोई. मेरी मम्मी की तरह अमेरिका भेजने के लालच में कोई और मातापिता आप को अपनी बेटी देने के लिए तैयार हो जाएंगे.’

‘आई कैन अंडरस्टैंड योर ऐंगर. आई स्वीयर इन फ्यूचर नथिंग लाइक दिस विल हैपन.’

‘आप के स्वीयर करने या सौरी कहने से क्या हमारी तकलीफें कम हो जाएंगी? हाऊ मच वी हैव सफर्ड, यू कांट इमैजिन. मैं दुआ करती हूं कि आप को जल्दी एक हिंदुस्तानी लड़की मिल जाए और आप की मम्मी को उन के दिए गए तोहफों की पूरी वैल्यू न मिलने पर खरीखोटी सुनाने का मौका एक बार फिर मिल जाए,’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

जैसे ही मैं ने फोन रखा, मम्मी गुस्से से घूरती हुई मुझे डांटने लगीं, ‘नेहा

बेटे, यह कैसा तरीका है समीर से बात करने का.’

‘क्यों मम्मा, क्या मैं कहती कि समीरजी कब से हम आप का इंतजार कर रहे थे. आप कब सेहरा बांध कर हमारे घर आओगे. जिन राहों से आप आने वाले थे, उन पर हम ने अब भी फूल बिछा रखे हैं वगैरा…वगैरा… ‘

मम्मी का गुस्सा अब भी बरकरार था, ‘बसबस बेटा, जो तुम ने किया वह ठीक नहीं था. उसे बहुत बुरा लगा होगा.’

‘बुरा लगा हो… जरूर लगे. हमें कोई परवा नहीं. अब हम क्या चाहते हैं, यह समीर की समझ में आ गया होगा. मम्मी आप की बेटी अब अमेरिका जाने वाली नहीं. वह यहीं रहेगी आप के आसपास. अब आप समीर का नाम हमेशा के लिए भूल जाएं. मम्मी, मैं आप को विश्वास दिलाती हूं, राहुल के साथ मेरी जिंदगी बड़े मजे में कटेगी. मैं खुश रहूंगी और आप भी निश्चिंत रहेंगे. आप राहुल को जानती हैं, कालेज के दिनों में वह 2 बार हमारे घर आ चुका है. जब आप उसे देखेंगी, एकदम पहचान लेंगी. कालेज के दिनों से हमारी आपस में खूब जमती थी.’

लगभग 5 साल बाद राहुल से मेरी मुलाकात बड़े अजीब तरीके से हुई. समीर के साथ रिश्ता खत्म होने के बाद मैं ने पापा से जौब करने की अनुमति ले ली थी. जिस कंपनी में मुझे जौब मिली थी, राहुल वहां सीनियर पोस्ट पर था. जौब जौइन करने के पहले दिन जब मैं औफिस में ऐंटर कर रही थी तो उसी वक्त राहुल भी औफिस पहुंच रहा था. गार्ड ने जैसे ही दरवाजा खोला, राहुल ने मुझे पहले अंदर जाने के लिए इशारा किया. मैं ने उस की ओर देखा. मुझे उस का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा. राहुल ने दोबारा मेरी ओर देखा और हैरानी से बोला, ‘नेहा… मैं राहुल…’

‘ओ, राहुल…, कैसे हो, कहां हो.’

‘ठीक हूं, यहीं तुम्हारे शहर में हूं. इसी कंपनी में जौब कर रहा हूं. तुम ने सोचा, राहुल दुनिया से गया… अभी इतनी जल्दी नहीं है… अभी बहुत कुछ करना है. शादी करनी है, बच्चे होंगे… पापापापा बुलाएंगे… फिर उन के बच्चे…’

इतने सालों बाद मिलने पर भी राहुल सबकुछ इतना सहज कह गया, मुझे हैरानी हुई, लेकिन मैं ने सावधानी बरतते हुए तपाक से कह दिया, ‘तुम नहीं बदलोगे राहुल, उसी तरह मस्तमौला, शरारती.’

‘और बताओ नेहा जौब क्यों, तुम्हें तो वर्किंग वूमन नहीं बनना था, वाए चेंज औफ माइंड?’ राहुल ने पूछा.

इसी तरह बातें करतेकरते हम औफिस में ऐंटर कर गए.

कालेज के दिनों की लाइफ में कितनी बेफिक्री और मौजमस्ती थी. हम एकदूसरे को चाहते थे, ऐसा कुछ नहीं था. राहुल कभी मेरा हाथ थाम लेता, कभी अजीब नहीं लगता. अब 5 साल बाद मिलने पर उस तरह की सहजता इतनी जल्दी नहीं आ पाई, लेकिन धीरेधीरे हम पहले की तरह घुलनेमिलने लगे. कईर् बार वह मुझे अपनी बाइक पर घर ड्रौप कर देता.

पिछले 3-4 महीने में राहुल कई बार हमारे घर चायकौफी पर आया था. हम दोनों कितनी बार रैस्टोरैंट में बैठे गपशप कर चुके थे. एक दिन लंच टाइम में राहुल ने पूछा, ‘क्या आज शाम हम कौफी पीने जा सकते हैं?’

‘हां… क्यों नहीं,’ मैं सोच में पड़ गई. कई बार पहले भी हम जा चुके हैं. आखिर आज क्या कुछ नया है. हम उसी रैस्टोरैंट में जा बैठे जहां आमतौर पर जाया करते थे. वेटर कौफी और सैंडविच टेबल पर रख गया. अभी हम ने कौफी पीनी शुरू नहीं की थी कि राहुल ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया. मुझे हलका कंपन हुआ. पहले कितनी बार राहुल ने मेरा हाथ थामा होगा,  लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा, जैसा आज… मुझे लगा हमारे बीच आज कुछ नया घटता जा रहा है, जो पहले से बहुत अलग है.

राहुल कुछ कहना चाहता था, लेकिन नहीं कह सका. कौफी पीने के बाद राहुल ने मुझे घर ड्रौप कर दिया. वह बिना कुछ बोले बाय कर हाथ हिला कर चला गया. अगले दिन औफिस आते समय राहुल की बाइक तेज गति से आती कार से टकरा गई. उसे गंभीर चोटें आईं. उस की सर्जरी हुई और टांग में रौड डाली गई.

एक हफ्ते बाद राहुल को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. जब राहुल औफिस आया  तो उसे देख कर मुझे अच्छा लगा लेकिन उस के हंसमुख चेहरे पर हलकी उदासी देख कर मुझे चिंता भी हुई, ‘राहुल, तुम्हें इतना बुझाबुझा पहले कभी नहीं देखा.’

राहुल की उदासी दूर करने के लिए मैं उस जैसे शरारती अंदाज में उसे ‘बकअप’ करने लगी, ‘राहुल भूल गए, तुम ने कहा था शादी करनी है, बच्चे होंगे, पापापापा बुलाएंगे. फिर उन के बच्चे…’

राहुल का शरारती चेहरा अपने असली रंग में आ गया. चंचल, मौजमस्ती वाला. मुझे लगा राहुल का असली रूप कितना लुभावना है.

राहुल ने चुटकी बजा कर मुझे सचेत किया. वह मेरी ओर देख रहा था… लगातार… उस की आंखों में एक प्रश्न था, जिस का उत्तर वह मुझ से मांग रहा था.

मैं ने ‘हां’ में सिर हिला कर उस के प्रश्न का उत्तर दे दिया. मुझे लगा हमारे बीच नए रिश्ते की नन्ही सी, प्यारी सी कोंपल फूट आई है.

मेरी मम्मी कमरे के आसपास थीं. उन्हें बुला कर मैं ने कह दिया, ‘मैं ने फैसला कर लिया है मम्मी, समीर से कह दो वह यहां किसी उम्मीद से न आए. मैं ने राहुल को अपना बनाने का फैसला कर लिया है, लेकिन अफसोस मम्मी, अब आप यह नहीं कह सकेंगी कि आप की बेटी अमेरिका में सैटल्ड है और न ही आप सालछह महीने में अपनी बेटी के पास अमेरिका जा पाएंगी.

मेरी शरारत भरी चुटकी मम्मी को पसंद आई कि नहीं, नहीं जानती, लेकिन मेरा फैसला उन्हें अच्छा नहीं लगा.

Interesting Hindi Stories : पिघलते पल

 Interesting Hindi Stories :  अभिमन्यु को वापस छोड़ कर मानव मुड़ा तो अभिमन्यु ने हाथ पकड़ लिया, ‘‘मत जाइए न पापा… यहीं रह जाइए… रुक जाइए न पापा… आप के बिना अच्छा नहीं लगता…’’

‘‘अगले रविवार को आऊंगा न अभि… हमेशा तो आता हूं,’’ मानव उस का गाल सहलाते हुए बोला.

‘‘नहीं, आप बहुतबहुत दिनों बाद आते हैं… मुझे आप की बहुत याद आती है… मेरे दोस्त भी आप के बारे में पूछते हैं… मेरे स्कूल भी आप कभी नहीं आते. मेरे दोस्तों के पापा आते हैं… क्यों पापा?’’

8 साल के नन्हे अभि के अनगिनत सवाल थे. मानव हैरान सा खड़ा रह गया. उस के पास कोई जवाब नहीं था. कुछ ऐसे सवाल थे जिन के जवाब देने से वह खुद से कतराता था. उसे नहीं पता कि यह सिलसिला कब तक यों ही चलता रहेगा.

‘‘मैं आऊंगा अभि. तुम तो मेरे समझदार बेटे हो. जिद्द नहीं करते बेटा… अब तुम ऊपर जाओ… मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. फिर हम दोनों साथ रहेंगे.’’

‘‘नहीं, फिर वहां मम्मी नहीं होंगी.’’

‘‘अभि, अब तुम ऊपर जाओ बेटा. हम फिर बात करेंगे. मुझे भी देर हो रही है,’’ कह कर मानव ने उसे लिफ्ट के अंदर किया और खुद बिल्डिंग के बाहर आ कर अपनी कार स्टार्ट की और घर की तरफ चल दिया. मुंबई जैसी जगह में दोनों घरों की दूरी बहुत थी. फिर भी हर रविवार की उस की यही दिनचर्या थी.

मानव एक कंपनी में अच्छे पद पर था. बड़ा पद था तो जिम्मेदारियां भी बड़ी थीं. बहुत व्यस्त रहता था. टूअरिंग जौब थी उस की. 10 साल पहले मिताली से उस का प्रेम विवाह हुआ था. दोनों ने एमबीए साथ किया था. पहली ही नजर में शोख, चुलबुली, फैशनेबल मिताली उसे भा गई थी. एमबीए पूरा होतेहोते कैंपस प्लेसमैंट में दोनों को बढि़या जौब मिल गई. फिर दोनों ने अपनेअपने मातापिता को एकदूसरे के बारे में बताया. दोनों के मातापिता खुशीखुशी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए. दोनों को ही पहली पोस्टिंग बैंगलुरु में मिली. विवाह के बाद दोनों बैंगलुरु चले गए.

नईनई नौकरी की व्यस्तता और नईनई शादी, व्यस्त दिनचर्या के बावजूद दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. दोनों बहुत खुश थे. विवाह का पहला साल खुशीखुशी में बीत गया. दूसरे साल में बच्चे के आने की आहट दस्तक दे गई. दोनों अभी बच्चे के लिए तैयार नहीं थे पर दोनों परिवारों के दबाव की वजह से बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार हो गए.

मिताली को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. नौकरी छोड़ने का मिताली को बहुत दुख हुआ पर मानव ने उसे समझाया कि बच्चे के थोड़ा बड़ा होने पर वह फिर नौकरी कर सकती है. लेकिन वह समय फिर कभी नहीं आया और जब आया तब तक सब कुछ बिखर चुका था. जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता गया मिताली की घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ती चली गईं. इधर मिताली की घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ीं उधर मानव नौकरी में और एक के बाद बड़े पद पर पहुंचता चला गया. इसीलिए उस की नौकरी की जिम्मेदारियां भी बढ़ती गईं.

नौकरी छोड़ने के कारण एक रोष तो मिताली के स्वभाव में पहले ही घुल गया था. उस पर मानव की अत्यधिक व्यस्तता ने आग में घी का काम कर दिया. वह चिड़चिड़ी हो गई. थोड़ाबहुत गुस्सैल स्वभाव तो उस का पहले ही था. अब तो वह बातबात पर गुस्सा करने लगी. मानव के घर आने का कोई वक्त नहीं होता था. उस पर टूअरिंग जौब. मिताली जबतब भन्ना जाती थी.

‘‘ऐसे कब तक चलेगा मानव? घरगृहस्थी, बीवी के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी है या नहीं?’’

‘‘क्या जिम्मेदारी नहीं निभा रहा हूं मैं?’’ थकामांदा मानव भी भन्ना जाता, ‘‘अब क्या नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘ऐसी भी क्या नौकरी हो गई… अभि को तुम से ठीक से मिले हुए भी कितने दिन हो जाते हैं… रात को जब तुम आते हो वह सो जाता है… सुबह वह स्कूल चला जाता है, तब तक तुम सो रहे होते हो… एक टूअर से आ कर तुम दूसरे पर चले जाते हो. यह कैसी जिंदगी बना दी है तुम ने हमारी?’’

‘‘मिताली प्राइवेट कंपनी में जौब कर चुकी हो तुम,’’ मानव किसी तरह स्वर संयत कर कहता, ‘‘प्राइवेट कंपनी की व्यस्तता को समझती हो, फिर भी नासमझों वाली बात करती हो… इतने बड़े पद पर ऐसे ही तो नहीं पहुंचा हूं… काम और मेहनत से ही पहुंचा हूं… ऐशोआराम के सारे साधन हैं तुम्हारे पास… ये सब मेरी मेहनत से ही आए न…’’

‘‘नहीं चाहिए हमें ऐसे ऐशोआराम के साधन जिन से जिंदगी इतनी नीरस हो गई. हमें तुम्हारी जरूरत है मानव, तुम्हारी,’’ मिताली का चिड़चिड़ा स्वर भर्रा जाता, ‘‘घर आ कर भी फोन कौल्स तुम्हारा पीछा नहीं छोड़तीं… फोन पर ही लगे रहते हो.’’

‘‘औफिस के काम के ही फोन आते हैं… अटैंड नहीं करूं क्या?’’ मानव का स्वर भी ऊंचा होने लगता.

‘‘कितने दिन हो जाते हैं हमें दोस्तों के घर गए हुए, दोस्तों को घर बुलाए हुए, कहीं बाहर गए… छुट्टी के दिन तुम थके हुए होते हो.’’

‘‘मैं तुम्हें मना करता हूं क्या? तुम अपना सामाजिक दायरा क्यों नहीं बढ़ातीं? व्यस्त रहोगी तो फालतू की बातों पर ध्यान नहीं जाएगा,’’ कह कर मानव पैर पटक कर सोने चला जाता और आंखों में आंसू भरे मिताली खड़ी रह जाती.

अब अकसर यही होने लगा. मानव ज्यादातर टूअर पर रहता या औफिस के काम में व्यस्त. जो थोड़ाबहुत वक्त मिलता वह दोनों के झगड़ों की भेंट चढ़ जाता. मानव टूअर पर रहता तो मिताली की अनुपस्थिति में परिस्थिति को नए नजरिए से सोचता. सोचता कि आखिर मिताली की शिकायत एकदम गलत भी तो नहीं है. अब वह कोशिश करेगा उसे और अभि को थोड़ा वक्त देने की.

मानव की अनुपस्थिति में मिताली के सोचने का नजरिया भी बदल जाता कि आखिर मानव भी क्या करे. कंपनी के इतने बड़े पद पर है तो उस की जिम्मेदारियां भी बड़ी हैं. वह थक भी जाता है और वह उस की व्यस्तता समझने के बजाय उस से झगड़ा करने लगती है… जो थोड़ाबहुत वक्त उन्हें मिलता है उस का भी सदुपयोग नहीं कर पाते हैं.

मगर जब वे एकदूसरे के सामने होते तो ये विचार तिरोहित हो जाते. मानव की व्यस्तता ने पतिपत्नी के शारीरिक संबंधों को भी प्रभावित किया था. एक तो समय ही नहीं उस पर भी झगड़ा और नाराजगी. महीनों बीत जाते उन्हें संबंध बनाए हुए. दोनों मानसिक, शारीरिक स्तर पर अधूरापन महसूस कर रहे थे.

यह समस्या एकमात्र मानव और मिताली की ही नहीं थी. आज के समय में युवावर्ग इतना व्यस्त हो गया है कि अधिकतर की दिनचर्या कुछ ऐसी ही हो गई है. जहां दोनों नौकरी कर रहे हैं वहां तो घर जैसे रैन बसेरा हो गया है. एक तो नौकरी की व्यस्तता दूसरे महानगरों में घर से औफिस आनेजाने में काफी समय लग जाता है. एक छुट्टी का दिन थकान उतारने और दूसरे जरूरी कार्य करने में ही बीत जाता है.

युवावर्ग आज विवाह के नाम से ही घबरा रहा है. लड़का हो या लड़की विवाह की जिम्मेदारियां उठाना ही नहीं चाहते और विवाह कर लें तो बच्चे को जन्म देने से कतरा रहे हैं विशेषकर लड़कियां, क्योंकि विवाह और बच्चे के बाद सब से पहले उन्हीं की स्वतंत्रता और नौकरी दांव पर लगती है.

मानव और मिताली के झगड़े दिनोंदिन बढ़ते चले गए. धीरेधीरे झगड़ों की जगह शीतयुद्ध ने ले ली. दोनों के बीच बातचीत बंद या बहुत ही कम होने लगी. फिर एक दिन मिताली ने विस्फोट कर दिया यह कह कर कि उसे नौकरी मिल गई है और उस ने औफिस के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया है. वह और अभि अब वहीं जा कर रहेंगे.

मानव हैरान रह गया. उस ने कहना चाहा कि अकेले वह नौकरी के साथ अभि को कैसे पालेगी और यदि नौकरी करनी ही है तो यहां रह कर भी कर सकती है. लेकिन उस का स्वाभिमान आड़े आ गया कि जब मिताली को उस की परवाह नहीं तो उसे क्यों हो. फिर मिताली ने उसी दिन नन्हे अभि के साथ घर छोड़ दिया. तब से अब तक 2 साल होने को आए हैं, 6 साल का अभि 8 साल का हो गया है. मानव की जिंदगी नौकरी के बाद इन 2 घरों की दूरी नापने में ही बीत रही थी.

तभी रैड लाइट पर मानव ने कार को ब्रैक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. कब तक चलेगा यह सब. वह पूरीपूरी कोशिश करता कि अभी का व्यक्तित्व उन के झगड़ों और मनमुटावों से प्रभावित न हो. उसे दोनों का प्यार मिले. लेकिन ऐसा हो ही नहीं पा रहा. नन्हे अभि का व्यक्तित्व 2 भागों में बंट गया था. बड़े होते अभि के व्यक्तित्व में अधूरेपन की छाप स्पष्ट दिखने लगी थी.

तभी सिगनल ग्रीन हो गया. मानव ने अपनी कार आगे बढ़ा दी. घर पहुंचा तो मन व्यथित था. अभि के अनगिनत सवालों के उस के पास जवाब नहीं थे. वह सोचने लगा कि इतने ही सवाल अभि मिताली से भी करता होगा, क्या उस के पास होते होंगे जवाब… आखिर कब तक चलेगा ऐसा?

दोनों के मातापिता ने पहलेपहल दोनों को समझाया, लेकिन दोनों ही झुकने को तैयार नहीं हुए. आखिर थकहार कर दोनों के मातापिता चुप हो गए. पर पिछले कुछ समय से मानव के मातापिता जो बातें दबेढके स्वर में कहते थे अब वे स्वर मुखर होने लगे थे कि ऐसा कब तक चलेगा मानव… साथ में नहीं रहना है तो तलाक ले लो और जिंदगी दोबारा शुरू करने के बारे में सोचो.

यह बात मानव के तनबदन में सिहरन पैदा कर देती कि क्या इतना सरल है एक अध्याय खत्म करना और दूसरे की शुरुआत करना… आखिर उस की जो व्यस्तता आज है वह तब भी रहेगी और फिर अभि? उस का क्या होगा? फिर वही प्रश्नचिह्न उस की आंखों के आगे आ जाता. आखिर क्या करे वह… बहुत चाहा उस ने कि जिस तरह मिताली खुद ही घर छोड़ कर गई है वैसे ही खुद लौट भी आए, लेकिन इस इंतजार को भी 2 साल बीत गए. खुद उस ने कभी बुलाने की कोशिश नहीं की. अब तो जैसे आदत सी पड़ गई है अकेले रहने की.

इधर अभि घर के अंदर दाखिल हुआ तो सीधे अपने कमरे में चला गया. उस का नन्हा सा दिल भी इंतजार करतेकरते थक गया था. कब मम्मीपापा एकसाथ रहेंगे. वह खिन्न सा अपनी स्टडी टेबल पर बैठ गया. हर हफ्ते रविवार आता है. पापा आते हैं, उसे ले जाते हैं, घुमातेफिराते हैं, उस की पसंद की चीजें दिलाते हैं, उस की जरूरतें पूछते हैं और शाम को घर छोड़ देते हैं. मम्मी सोमवार से अपने औफिस चल देती हैं और वह अपने स्कूल. हफ्ता बीतता है. फिर रविवार आता है. वही एकरस सी दिनचर्या. कहीं मन नहीं लगता उस का. पापा के साथ रहता है तो मम्मी की याद आती है और मम्मी के साथ रहता है तो पापा की याद आती है. पता नहीं मम्मीपापा साथ क्यों नहीं रहते?

तभी मिताली अंदर आ गई. उसे ऐसे अनमना सा बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? कैसा रहा तुम्हारा दिन आज?’’

अभि ने कोई जवाब नहीं दिया. वैसे ही चुपचाप बैठा रहा.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ वह उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर अभि ने मिताली का हाथ हटा दिया.

‘‘तुम ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो? किसी ने कुछ कहा क्या तुम्हें?’’

‘‘नहीं,’’ वह तल्ख स्वर में बोला. फिर क्षण भर बाद उस की तरफ मुंह कर उस का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मम्मी, यह बताओ कि हम पापा के पास जा कर कब रहेंगे? हम पापा के साथ क्यों नहीं रहते? मुझे अच्छा नहीं लगता पापा के बिना… चलिए न मम्मी हम वहीं चल कर रहेंगे.’’

‘‘बेकार की बात मत करो अभि,’’ मिताली का कोमल स्वर कठोर हो गया, ‘‘रात काफी हो गई है. खाना खाओ और सो जाओ. सुबह स्कूल के लिए उठना है.’’

‘‘नहीं, पहले आप मेरी बात का जवाब दो,’’ अभि जिद्द पर आ गया.

‘‘अभि कहा न कि बेकार की बातें मत करो. हम यहीं रहेंगे… खाना खाओ और सो जाओ,’’ कह कर मिताली हाथ छुड़ा कर किचन में चली गई.

अभि बैठा रह गया. ‘दोनों ही उसे जवाब देना नहीं चाहते. जब भी वह सवाल करता है दोनों ही टाल देते हैं या फिर डांट देते हैं. आखिर वह क्या करे,’ वह सोच रहा था.

काम खत्म कर के मिताली कमरे में आई तो अभि खाना खा कर सो चुका था. वह उस के मासूम चेहरे को निहारने लगी. कितनी समस्याओं से भरा था अभि के लिए उस का बचपन. वह उस के पास लेट कर उस का सिर सहलाने लगी. अभि के सवालों के जवाब नहीं हैं उस के पास. निरुद्देश्य सी जिंदगी बस बीती चली जा रही है. वह गंभीरता से बैठ कर कुछ सोचना नहीं चाहती. एक के बाद एक दिन बीता चला जा रहा है. कब तक यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा. अभि बड़ा हो रहा है. उस के मासूम से सवाल कब जिद्द पर आ कर कल कठोर होने लगें क्या पता.

मानव के साथ भी जिंदगी बेरंग सी हो रही थी पर उस से अलग हो कर भी कौन से रंग भर गए उस की जिंदगी में. उस समय तो बस यही लगा कि मानव को सबक सिखाए ताकि वह उस की कमी महसूस करे. अपनी जिंदगी में वह पत्नी के महत्त्व को समझे. पर यह सब बेमानी ही साबित हुआ. शुरूशुरू में उस ने बहुत इंतजार किया मानव का कि एक न एक दिन मानव आएगा और उसे मना कर ले जाएगा. कुछ वादे करेगा उस से और वह भी सब कुछ भूल कर वापस चली जाएगी पर मानव के आने का इंतजार बस इंतजार ही रह गया. न मानव आया और न वह स्वयं ही वापस आ गई.

हर बार सोचती जब मानव को ही उस की परवाह नहीं, उसे उस की कमी नहीं खलती तो वही क्यों परवाह करे उस की. और दिन बीतते चले गए. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उन दोनों के बीच की बर्फ की तह मोटी होतेहोते शिलाखंड बन गई. धीरेधीरे वह इसी जिंदगी की आदी हो गई. पर इस एकरस दिनचर्या में अभि के सवाल लहरें पैदा कर देते थे. वह समझ नहीं पाती आखिर यह सब कब तक चलेगा.

कल मां फोन पर कह रही थीं कि यदि उसे वापस नहीं जाना है तो अब अपने भविष्य के बारे में कोई निर्णय ले. कुछ आगे की सोचे. आगे का मतलब तलाक और दूसरी शादी. क्या सब इतना सरल है और अभि? उस का क्या होगा. वह भी शादी कर लेगी और मानव भी तो अभि दोनों की जिंदगी में अवांछित सा हो जाएगा.

यह सोच आते ही मिताली सिहर गई कि नहीं और फिर उस ने अभि को अपने से चिपका लिया. पहले ही कितनी उलझने हैं अभि की जिंदगी में. वह उस की जिंदगी और नहीं उलझा सकती. वह लाइट बंद कर सोने का प्रयास करने लगी. पता नहीं क्यों आज दिल के अंदर कुछ पिघला हुआ सा लगा. लगा जैसे दिल के अंदर जमी बर्फ की तह कुछ गीली हो रही है. कुछ विचार जो हमेशा नकारात्मक रहते थे आज सकारात्मक हो रहे थे. समस्या को परखने का नजरिया कुछ बदला हुआ सा लगा. वह खुद को ही समझने का प्रयास करने लगी. सोचतेसोचते न जाने कब नींद आ गई.

सुबह अभि उठा तो सामान्य था. वैसे भी कुछ बातों को वह अपनी नियति मान चुका था. वह स्कूल के लिए तैयार होने लगा. अभि को स्कूल भेज कर वह भी अपने औफिस चली गई. सब कुछ वही था फिर भी दिल के अंदर क्या था जो उसे हलकी सी संतुष्टि दे रहा था… शायद कोई विचार या भाव… पूरा हफ्ता हमेशा की तरह व्यस्तता में बीत गया. फिर रविवार आ गया.

मानव जब बिल्डिंग के नीचे अभि को लेने पहुंचता तो अभि को फोन कर देता और अभि नीचे आ जाता. पर आज मिताली अभि के साथ नीचे आ गई. अभि के लिए यह आश्चर्य की बात थी.

अभि के साथ मिताली को देख कर मानव चौंक गया. आंखें चार हुईं. आज मिताली के चेहरे पर हमेशा की तरह कठोरता नहीं थी. बहुत समय बाद देख रहा था मिताली को… जिंदगी के संघर्ष ने उस के रूपलावण्य को कुछ धूमिल कर दिया था. किसी का प्यार, किसी की सुरक्षा जो नहीं थी उस की जिंदगी में… लेकिन उसे क्या… उस ने अपने विचारों को झटका दिया. तीनों चुपचाप खड़े थे. अभि बड़ी उम्मीद से दोनोें को देख रहा था कि दोनों कोई बात करेंगे. बहुत कुछ कहने को था दोनों के दिलों में पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

‘‘चलें अभि,’’ आखिर उन के बीच पसरी चुप्पी को तोड़ते हुए मानव ने सिर्फ इतना ही कहा. फिर से मिताली से आंखें चार हुईं तो उसे लगा कि मिताली की आंखों में आज कुछ नमी है. मानव को भी अपने अंदर कुछ पिघलता हुआ सा लगा. बिना कुछ कहे वह मुड़ने को हुआ.

तभी मिताली बोल पड़ी, ‘‘मानव.’’

इतने समय बाद मिताली के मुंह से अपना नाम सुन कर मानव ठिठक गया.

‘‘कल अभि के स्कूल में पेरैंट्सटीचर मीटिंग है. क्या तुम थोड़ा समय निकाल कर आ सकते हो… अभि को अच्छा लगेगा.’’

मानव का दिल किया, हां बोले, पर प्रत्युत्तर में बोला, ‘‘मुझे टाइम नहीं है… कल टूअर पर निकलना है,’’ कह कर बिना उस की तरफ देखे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और अभि के लिए दरवाजा खोल दिया. निराश सा अभि भी आ कर कार में बैठ गया.

मिताली अपनी जगह खड़ी रह गई. उस का दिल किया कि वह मानव को आवाज दे, कुछ बोले पर तब तक मानव कार स्टार्ट कर चुका था. मानव और अपने बीच जमी बर्फ को पिघलाने की मिताली की छोटी सी कोशिश बेकार सिद्ध हुई. वह ठगी सी खड़ी रह गई. मानव के इसी रुख के डर ने उसे हमेशा कोशिश करने से रोका. थके कदमों से वह घर की तरफ चल दी.

शाम को अभि घर आया तो मिताली ने हमेशा के विपरीत उस से कुछ नहीं पूछा. अभि भी गुमसुम था. आज उस का व मानव का अधिकांश समय अपनेआप में खोए हुए ही बीता था. अभि ने एक बार भी मानव से पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आने की जिद्द नहीं की.

अभि को छोड़ कर मानव जब घर पहुंचा तो मिताली व मिताली की बात दिलदिमाग में छाई थी और साथ ही अभि की बेरुखी भी चुभी हुई थी. अभि ने एक बार भी उसे आने के लिए नहीं कहा. शायद उसे उस से ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी. सोचतेसोचते अनमना सा मानव कपड़े बदल कर बिना खाना खाए ही सो गया.

दूसरे दिन मिताली अभि के साथ स्कूल पहुंची. वे दोनों अभि की क्लास के बाहर पहुंचे तो सुखद आश्चर्य से भर गए. मानव खड़ा उन का इंतजार कर रहा था. उसे देख कर अभि मारे खुशी के उछल पड़ा.

‘‘पापा,’’ कह कर वह दौड़ कर मानव से लिपट गया. उस की उस पल की खुशी देख कर दोनों की आंखें नम हो गईं. मिताली पास आ गई. उस के होंठों पर मुसकान खिली थी.

‘‘थैंक्स मानव… अभि को इतनी खुशी देने के लिए.’’

जवाब में मानव के चेहरे पर फीकी सी मुसकराहट आ गई.

पेरैंट्सटीचर मीटिंग निबटा कर दोनों बाहर आए तो उत्साहित सा अभि मानव से अपने दोस्तों को मिलाने लगा. उस की खुशी देख कर मानव को अपने निर्णय पर संतुष्टि हुई. उसे उस के दोस्तों के बीच छोड़ कर मानव उसे बाहर इंतजार करने की बात कह कर बाहर निकल आया. पीछेपीछे खिंची हुई सी मिताली भी आ गई.

दोनों कार के पास आ कर खड़े हो गए. दोनों ही कुछ बोलना चाह रहे थे पर बातचीत का सूत्र नहीं थाम पा रहे थे. इसलिए दोनों ही चुप थे.

‘‘अभि बहुत खुश है आज,’’ मिताली किसी तरह बातचीत का सूत्र थामते हुए बोली.

‘‘हां, बच्चा है… छोटीछोटी खुशियां हैं उस की,’’ और दोनों फिर चुप हो गए.

‘‘ठीक है… मैं चलता हूं. अभि से कह देना मुझे देर हो रही थी… रविवार को आऊंगा,’’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मानव बोला और फिर पलटने को हुआ.

‘‘मानव,’’ मिताली के ठंडे स्वर में पश्चात्ताप की झलक थी, ‘‘एक बात पूछूं?’’

मानव ठिठक कर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘हां पूछो,’’ और फिर उस ने मिताली के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, जहां कई भाव आ जा रहे थे.

मिताली चुपचाप थोड़ी देर खड़ी रही जैसे मन ही मन तोल रही हो कि कहे या न कहे.

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो.’’

मानव का अपेक्षाकृत कोमल स्वर सुन कर मिताली का दिल किया कि जिन आंसुओं को उस ने अभी तक पलकों की परिधि में बांध रखा है, उन्हें बह जाने दे. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘सच कहो, क्या कभी इन 2 सालों में मेरी कमी नहीं खली तुम्हें… क्या मेरे बिना जीवन से खुश हो?’’ मिताली का स्वर थका हुआ था. लग रहा था कि ये सब कहने के लिए उसे अपनेआप से काफी संघर्ष करना पड़ा होगा, लेकिन कह दिया तो लग रहा था कि कितना आसान था कहना. कह कर वह मानव के चेहरे पर नजर डाल कर उस के चेहरे पर आतेजाते भावों को पढ़ने का असफल प्रयास करने लगी.

‘‘क्या तुम्हें मेरी कमी खली? क्या तुम खुश हो मेरे बिना जिंदगी से?’’ पल भर की चुप्पी के बाद मानव बोला.

मिताली को समझ नहीं आया कि तुरंत क्या जवाब दे मानव की बातों का, इसलिए चुप खड़ी रही.

‘‘छोड़ो मिताली,’’ उसे चुप देख कर मानव बोला, ‘‘अब इन बातों का क्या फायदा… इन बातों के लिए अब बहुत देर हो चुकी है.’’

‘‘जब देर नहीं हुई थी तब भी तो तुम ने एक बार भी नहीं बुलाया,’’ सप्रयास मिताली बोली. उस का स्वर भीगा था.

‘‘मैं ने बुलाया नहीं तो मैं ने घर छोड़ने के लिए भी नहीं कहा था. घर तुम ने छोड़ा. तुम्हें इसी में अपनी खुशी दिखी. जैसे अपनी मरजी से घर छोड़ा था वैसे ही अपनी मरजी से लौट भी सकती थीं,’’ मिताली के स्वर का भीगापन मानव के स्वर को भी भिगो गया था.

‘‘एक बार तो बुलाया होता मैं लौट आती,’’ मिताली का स्वर अभी भी नम था.

‘‘तुम तब नहीं लौटती मिताली. ऐसा ही होता तो तुम घर छोड़ती ही क्यों. घर छोड़ते समय एक बार भी अपने बारे में न सोच कर अभि के बारे में सोचा होता तो तुम्हारे कदम कभी न बढ़ पाते. तुम्हारी जिद्द या फिर मेरी जिद्द हम दोनों की जिद्द में मासूम अभि पिस रहा है. उस का बचपन छिन रहा है. उस का व्यक्तित्व खंडित हो रहा है. क्या दे रहे हैं हम उसे… न खुद खुश रह पाए न औलाद को खुशी दे पाए,’’ कह कर अपने नम हो आए स्वर को संयत कर मानव कार की तरफ मुड़ गया.

कार का दरवाजा खोलते हुए मानव ने पलट कर पल भर के लिए मिताली की तरफ देखा. क्या था उन निगाहों में कि मिताली का दिल किया कि सारा मानअभिमान भुला कर दौड़ कर जा कर मानव से लिपट जाए. इसी पल उस के साथ चली जाए.

एकाएक मानव वापस उस के करीब आया. लगा वह कुछ कहना चाहता है पर वह कह नहीं पा रहा है.

‘‘हां,’’ उस ने अधीरता से मानव की तरफ देखा.

‘‘नहीं कुछ नहीं,’’ कह कर मानव जिस तेजी से आया था उसी तेजी से वापस मुड़ कर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. कार स्टार्ट की और चला गया. वह खोई हुई खड़ी रह गई कि काश मानव कह देता जो कहना चाहता था पर उस का आत्मसम्मान आड़े आ गया था शायद.

अभि के साथ घर पहुंची. अभि उस दिन बहुत खुश था. वह ढेर सारी बातें बता रहा था. खुशी उस के हर हावभाव, बातों व हरकतों से छलक रही थी. ‘कितना कुछ छीन रहे हैं हम अभि से,’ वह सोचने लगी.

कुछ पल ऐसे आ जाते हैं पतिपत्नी के जीवन में जो पिघल कर पाषाण की तरह कठोर हो कर जीवन की दिशा व दशा दोनों बदल देते हैं और कुछ ही पल ऐसे आते हैं जो मोम की तरह पिघल कर जीवन को अंधेरे से खींच कर मंजिल तक पहुंचा देते हैं. उस के और मानव के जीवन में भी वही पल दस्तक दे रहे थे और वह इन पलों को अब कठोर नहीं होने देगी.

दूसरे दिन मानव औफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘कौन हो सकता है इतनी सुबह’, सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला तो सामने मिताली और अभि को मुसकराते हुए पाया. वह हैरान सा उन्हें देखता रह गया.

‘‘तुम दोनों?’’ उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे मानव?’’ मिताली संजीदगी से बोली.

‘‘तुम अपने घर आई हो मिताली… मैं भला रास्ता रोकने वाला कौन होता हूं,’’ कह मानव एक तरफ हट गया.

मिताली और अभि अंदर आ गए. मानव ने दरवाजा बंद कर दिया. उस ने खुद से मन ही मन कुछ वादे किए. अब वह अपनी खुशियों को इस दरवाजे से कभी बाहर नहीं जाने देगा.

Famous Hindi Stories : पापा जल्दी आ जाना

 Famous Hindi Stories : ‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

Women’s Day 2025 : एहसास – लाड़-प्यार में पली बढ़ी सुधांशी को जब पता चला नारी का पूर्ण सौंदर्य

Women’s Day 2025 : कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’

मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.

आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.

शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.

सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’

‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.

सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’

सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.

‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.

सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’

‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’

‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.

आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी  भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’

‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’

‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.

आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.

‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.

‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’

‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’

‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.

आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.

‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.

‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.

‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.

याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.

सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.

आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.

उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’

उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.

तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’

‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.

जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.

घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.

एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.

‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.

मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’

शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.

‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.

सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.

अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.

‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.

‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.

वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.

‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.

‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना

चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.

मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.

शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’

‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’

घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.

‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’

‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’

अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.

सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.

‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.

आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’

यह देख सभी लोग हंस पड़े.

सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से देख रही थी. आज उस का परिचय प्यार के एक नए रूप से हो रहा था. यह भी तो प्यार है कितना पवित्र, एकदूसरे के लिए समर्पण की भावना लिए हुए. उसे महसूस हो रहा था कि प्यार सिर्फ वह नहीं जो रात के अंधेरे में किया जाए. प्यार के तो और भी रूप हो सकते हैं. लेकिन उस ने तो कभी सुशांत की पसंद जानने की भी कोशिश न की. उस ने तो हमेशा अपनी आकांक्षाओं को ही महत्त्व दिया.

‘‘चलो, हम दूसरे कमरे में बैठ कर बातें करते हैं, ये लोग तो अपने दफ्तर की बातें करेंगे,’’ अमिता ने सुधांशी को उठाते हुए कहा.

अमिता और सुधांशी के विचारों में जमीनआसमान का फर्क था. अमिता घर के बारे में बातें कर रही थी, जबकि सुधांशी ने कभी घर के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था. तभी अमिता ने कहा, ‘‘बड़ी सुंदर साड़ी है तुम्हारी, क्या सुशांत ने ला कर दी है?’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ चौंक सी गई सुधांशी, ‘‘मैं ने खुद ही खरीदी है.’’

‘‘भई, ये तो मुझे कभी खुद लाने का मौका ही नहीं देते. इस से पहले कि मैं लाऊं ये खुद ही ले आते हैं. लेकिन इस बार मैं ने भी कह दिया है कि अगर मेरे लिए साड़ी लाए तो बहुत लड़ूंगी. हमेशा मेरा ही सोचते हैं. यह नहीं कि कभी कुछ अपने लिए भी लाएं. इस बार मैं उन्हें बिना बताए उन के लिए कपड़े ले आई. दूसरों की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है वह अपनी इच्छाएं पूरी करने में नहीं है.’’

‘‘चलो, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सुशांत ने उस की बातों में खलल डालते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं. किसी दिन आप लोग भी समय निकाल कर आइए न,’’ सुधांशी ने चलते हुए कहा.

आज हर्षल के घर से लौटने पर सुधांशी के मन में हलचल मची हुई थी. उस के कानों में अमिता के स्वर गूंज रहे थे, ‘एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है, अपनी इच्छाएं पूरी करने में वह नहीं है.’

लेकिन उस ने तो कभी दूसरों की जरूरतों को जानना भी नहीं चाहा था. उस ने तो यह भी नहीं सोचा कि घर में किस चीज की जरूरत है और किस की नहीं? और एक अमिता है, सुंदर न होते हुए भी उस से कहीं ज्यादा सुंदर है. जिम्मेदारियों के प्रति अमिता की सजगता देख कर सुधांशी के मन में ग्लानि का अनुभव हो रहा था.

‘‘अमिता भाभी, बहुत अच्छी हैं न,’’ सुधांशी ने मौन तोड़ते हुए कहा.

‘‘हां,’’ सुशांत ने ठंडी आह छोड़ते हुए कहा.

उस रात सुधांशी चैन से सो न सकी. सुबह उठी तो उसे तेज बुखार था. सुशांत ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने दवा दे दी. सुधांशी को आराम करने के लिए कह कर सुशांत दफ्तर चला गया. सुधांशी को बुखार के कारण सिर में बहुत दर्द था. तभी गरिमा लड़खड़ाते हुए आई, ‘‘कैसी तबीयत है, भाभी? लाओ, तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ कह कर सिर दबाने लगी.

मां भी बहुत चिंतित थीं. समयसमय पर मां दवा दे रही थीं. आज सुधांशी को महसूस हो रहा था कि उस ने कभी भी इन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर भी उस के जरा से बुखार ने किस तरह सब को दुखी कर दिया. अपने पैर में चोट होने के बावजूद गरिमा उस का कितना ध्यान रख रही थी. मां भी कितनी परेशान थीं उस के लिए?

3-4 दिन में सुधांशी ठीक हो गई. आज वह सुशांत से पहले ही उठ गई थी. चाय बना कर सुशांत के पास आई, ‘‘उठिए जनाब, चाय पीजिए, आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’’

सुशांत को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न, आज इतनी जल्दी कैसे जाग गईं?’’ उस ने हड़बड़ाते हुए पूछा.

‘‘जल्दी कहां, मेरी आंखें तो बहुत देर में खुलीं,’’ शून्य में देखते हुए सुधांशी ने कहा.

आज उस ने घर के सारे काम खुद ही किए थे. काम करने में मुश्किल तो बड़ी हो रही थी, मगर फिर भी यह सब करना उसे अच्छा लग रहा था. आज वह पहली बार नाश्ता बनाने के लिए रसोई में आई थी.

‘‘मांजी, आज से नाश्ता मैं बनाया करूंगी,’’ मांजी के हाथ से बरतन लेते हुए सुधांशी ने कहा.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाओगी?’’ मां ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं जानती हूं, मांजी, मुझे कुछ बनाना नहीं आता, लेकिन आप मझे सिखाएंगी न? बोलिए न मांजी, आप सिखाएंगी मुझे?’’

‘‘हां बहू, अगर तुम सीखना चाहोगी तो जरूर सिखाऊंगी.’’

आज सुशांत को बड़ा अजीब लग रहा था. उस का सारा सामान उसे जगह पर मिल गया था. कपड़े भी सलीके से रखे हुए थे. जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आया तो सुधांशी को नाश्ता लाते देख चौंक गया.

‘‘आज तुम ने नाश्ता बनाया है क्या?’’

‘‘क्यों? मेरे हाथ का बना नाश्ता क्या गले से नीचे नहीं उतर पाएगा?’’ मुसकराते हुए सुधांशी बोली.

‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सैंडविच उठाते हुए सुशांत बोला, ‘‘सैंडविच तो बड़े अच्छे बने हैं. तुम ने खुद बनाए हैं?’’ सुशांत ने पूछा, फिर कुछ रुपए देते हुए बोला, ‘‘तुम कल अपनी साडि़यों के लिए पैसे मांग रही थीं न, ये रख लो.’’

सुशांत के दफ्तर जाने के बाद जब सुधांशी ने सैंडविच चखे तो उस से खाए नहीं गए. नमक बहुत तेज हो गया था. उसे सुशांत का खयाल आ गया, जो इतने खराब सैंडविच खा कर भी उस की तारीफ कर रहा था, शायद उस का दिल रखने के लिए सुशांत ने ऐसा किया था. उस की पलकें भीग गईं. प्यार की भावना को देख कर उस का मन श्रद्धा से भर उठा.

उस ने जल्दीजल्दी सारा काम खत्म किया. घर का काम करने में आज उसे अपनत्व का एहसास हो रहा था. फिर उसे सुशांत के दिए गए पैसों का खयाल आया. उस ने गरिमा को साथ लिया

और बाजार गई. सुशांत के दफ्तर से लौटने से पहले उस ने सारा काम निबटा लिया था.

‘‘अपनी साडि़यां ले आईं?’’ शाम को चाय पीतेपीते सुशांत ने पूछा.

‘‘मेरे पास साडि़यों की कमी कहां है? आज तो मैं ढेर सारा सामान ले कर आई हूं,’’ इतना कह कर उस ने सारा सामान सुशांत के सामने रख दिया, ‘‘यह मां की साड़ी है, यह गरिमा का सूट और यह तुम्हारे लिए.’’

सुशांत उसे अपलक निहार रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही सुधांशी है, जिसे अपनी जरूरतों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था. आज उसे सुधांशी पहले से कहीं अधिक सुंदर लगने लगी थी.

‘‘अपने लिए कुछ नहीं लाईं?’’ प्यार से पास बिठाते हुए सुशांत ने पूछा.

‘‘क्या तुम सब लोग मेरे अपने नहीं हो? सच तो यह है कि आज पहली बार ही मैं अपने लिए कुछ ला पाई हूं. यह सामान ला कर जितनी खुशी मुझे हुई है उतनी कई साडि़यां ला कर भी न मिल पाती. सच, आज ही मैं प्यार का वास्तविक मतलब समझ पाई हूं.

‘‘प्यार एक भावना है, समर्पण की चेतना, खो जाने की प्रक्रिया, मिट जाने की तमन्ना. इस का एहसास शरीर से नहीं होता, अंतर्मन से होता है, हृदय ही उस का साक्षी होता है,’’ कह कर सुधांशी ने अपना सिर सुशांत के सीने पर रख दिया.

Kahaniyan : वह चालाक लड़की – क्या अंजुल को मिल पाया उसका लाइफ पार्टनर

Kahaniyan : रोज की तुलना में अंजुल आज जल्दी उठ गई. आज उस का औफिस में पहला दिन है. मास मीडिया स्नातकोत्तर करने के बाद आज अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए उस ने थोड़ा अधिक परिश्रम किया. अनुपम देहयष्टि में वह किसी से उन्नीस नहीं.

सभी उस की खूबसूरती के दीवाने थे. अपनी प्रखर बुद्धि पर भी पूर्ण विश्वास है. अपने काम में तीव्र तथा चतुर. स्वभाव भी मनमोहक, सब से जल्दी घुलमिल जाना, अपनी बात को कुशलतापूर्वक कहना और श्रोताओं से अपनी बात मनवा लेना उस की खूबियों में शामिल है. फिर भी उस ने यह सुन रखा है कि फर्स्ट इंप्रैशन इज द लास्ट इंप्रैशन. तो फिर रिस्क क्यों लिया जाए भले?

मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी का माहौल उसे मनमुताबिक लगा. आबोहवा में तनाव था भी और नहीं भी. टीम्स आपस में काम को ले कर खींचातानी में लगी थीं किंतु साथ ही हंसीठिठोली भी चल रही थी. वातावरण में संगीत की धुन तैर रही थी और औफिस की दीवारों पर लोगों ने बेखौफ ग्राफिटी की हुई थी.

अंजुल एकबारगी प्रसन्नचित्त हो उठी. उन्मुक्त वातावरण उस के बिंदास व्यक्तित्व को भा गया. उस की भी यही इच्छा थी कि जो चाहे कर सकने की स्वतंत्रता मिले. आज तक  अपने जीवन को अपने हिसाब से जीती आई थी और आगे भी ऐसा ही करने की चाह मन में लिए जीवन के अगले सोपान की ओर बढ़ने लगी.

बौस रणदीप के कैबिन में कदम रखते हुए अंजुल बोली, ‘‘हैलो रणदीप, आई एम अंजुल, योर न्यू इंप्लोई.’’ उस की फिगर हगिंग यलो ड्रैस ने रणदीप को क्लीन बोल्ड कर दिया. फिर ‘‘वैलकम,’’ कहते हुए रणदीप का मुंह खुला का खुला रह गया.

अंजुल को ऐसी प्रतिक्रियाओं की आदत थी. अच्छा लगता था उसे सामने वाले की ऐसी मनोस्थिति देख कर. एक जीत का एहसास होता था और फिर रणदीप तो इस कंपनी का बौस है. यदि यह प्रभावित हो जाए तो ‘पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में’ वाली कहावत को चिरतार्थ होते देर नहीं लगेगी. वैसे रणदीप करीब 40 पार का पुरुष था, जिस की हलकी सी तोंद, अधपके बाल और आंखों के नीचे काले घेरे उसे आकर्षक की परिभाषा से कुछ दूर ही रख रहे थे.

अंजुल अपना इतना होमवर्क कर के आई थी कि उस का बौस शादीशुदा है. 1 बच्चे का बाप है, पर जिंदगी में तरक्की करनी है तो कुछ बातों को नजरअंदाज करना ही होता है, ऐसी अंजुल की सोच थी.

अपने चेहरे पर एक हलकी स्मित रेखा लिए अंजुल रणदीप के समक्ष बैठ गई. उस का मुखड़ा जितना भोला था उस के नयन उतने ही चपल दिल मोहने की तरकीबें खूब आती थीं.

रणदीप लोलुप दृष्टि से उसे ताकते हुए कहने लगा, ‘‘तुम्हारे आने से इस ऐजेंसी में और भी बेहतर काम होगा, इस बात का मुझे विश्वास है. मुझे लगता है तुम्हारे लिए मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट सही रहेगा. अपने ए वन ग्रेड्स और पर्सनैलिटी से तुम जल्दी तरक्की कर जाओगी.’’

‘‘मैं भी यही चाहती हूं. अपनी सफलता के लिए आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा करती जाऊंगी,’’ द्विअर्थी संवाद करने में अंजुल माहिर थी. उस की आंखों के इशारे को समझाते हुए रणदीप ने उसे एक सरल लड़के के साथ नियुक्त करने का मन बनाया. फिर अपने कैबिन में अर्पित को बुला कर बोला, ‘‘सीमेंट कंपनी के नए प्रोजैक्ट में अंजुल तुम्हें असिस्ट करेंगी. आज से ये तुम्हारी टीम में होंगी.’’

‘‘इस ऐजेंसी में तुम्हें कितना समय हो गया?’’ अंजुल ने पहला प्रश्न दागा.

अर्पित एक सीधा सा लड़का था. बोला, ‘‘1 साल. अच्छी जगह है काम सीखने के लिए. काफी अच्छे प्रोजैक्ट्स आते रहते हैं. तुम इस से पहले कहां काम करती थीं?’’

अर्पित की बात का उत्तर न देते हुए अंजुल ने सीधा काम की ओर रुख किया, ‘‘मुझे क्या करना होगा? वैसे मैं क्लाइंट सर्विसिंग में माहिर हूं. मैं चाहती हूं कि मुझे इस सीमेंट कंपनी और अपनी क्रिएटिव टीम के बीच कोऔर्डिनेशन का काम संभालने दिया जाए.’’

अगले दिन अंजुल ने फिर सब से पहले रणदीप के कैबिन से शुरुआत की, ‘‘हाय रणदीप, गुड मौर्निंग,’’ कर उस ने पहले दिन सीखे सारे काम का ब्योरा देते हुए रणदीप से कुछ टिप्स लेने का अभिनय किया और बदले में रणदीप को अपने जलवों का भरपूर रसास्वादन करने दिया. रणदीप की मधुसिक्त नजरें अंजुल के सुडौल बदन पर इधरउधर फिसलती रहीं और वह बेफिक्री से मुसकराती हुई रणदीप की आसक्ति को हवा देती रही.

जल्द ही अंजुल ने रणदीप के निकट अपनी जगह स्थापित कर ली. अब यह रोज का क्रम था कि वह अपने दिन की शुरुआत रणदीप के कैबिन से करती. रणदीप भी उस के यौवन की खुमारी में डुबकी लगाता रहता.

उस सुबह कौफी देने के बहाने रणदीप ने अंजुल के हाथ को हौले से छुआ. अंजुल ने इस की प्रतिक्रिया में अपने नयनों को झाका कर ही रखा. वह नहीं चाहती थी कि रणदीप की हिम्मत कुछ ढीली पड़े. फिर काम दिखाने के बहाने वह उठी और रणदीप के निकट जा कर ऐसे खड़ी हो गई कि उस के बाल रणदीप के कंधे पर झालने लगे. इशारों की भाषा दोनों तरफ से बोली जा रही थी.

तभी अर्पित बौस के कैबिन में प्रविष्ट हुआ तो दोनों संभल गए. उफनते दूध में पानी के छींटे लग गए. किंतु अर्पित के शांत प्रतीत होने वाले नयनों ने अपनी चतुराई दर्शाते हुए वातावरण को भांप लिया.

इस प्रकरण के बाद अर्पित का अंजुल के प्रति रवैया बदल गया. अब तक अंजुल को नई

सीखने वाली मान कर अर्पित उस की हर मुमकिन मदद कर रहा था, परंतु आज के दृश्य के बाद वह समझा गया कि इस मासूम दिखने वाली सूरत के पीछे एक मौकापरस्त लड़की छिपी है. कौरपोरेट वर्ल्ड एक माट्स्करेड पार्टी की तरह हो सकता है जहां हरकोई अपने चेहरे पर एक मास्क लगाए अपनी असली सचाई को ढकते हुए दूसरों के सामने अपनी एक छवि बनाने को आतुर है.

आज लंच में अर्पित ने अंजुल को टालते हुए कहा, ‘‘आज मुझे कुछ काम है. तुम लंच कर लो,’’ वह अब अंजुल से बहुत निकटता नहीं चाह रहा था. उस की देखादेखी टीम के अन्य लोगों ने भी अंजुल को टालना आरंभ कर दिया. इस से अंजुल को काम समझाने और करने में दिक्कत आने लगी.

‘‘जो नई पिच आई है, उस में मैं तुम्हारे साथ चलूं? मुझे पिच प्रेजैंटेशन करना आ जाएगा,’’ अंजुल ने अपनी पूरी कमनीयता का पुट लगा कर अर्पित से कहा. अपने कार्य में दक्ष होते हुए भी उस ने अर्पित की ईगो मसाज की.

‘‘उस का सारा काम हो चुका है. तुम्हें अगली पिच पर ले चलूंगा. आज तुम औफिस में दूसरी प्रेजैंटेशन पर काम कर लो,’’ अर्पित ने हर प्रयास करना शुरू कर दिया कि अंजुल केवल औफिस में ही व्यस्त रहे.

अपने हाथ से 2 पिच के अवसर निकलते ही अंजुल भी अर्पित की चाल समझाने लगी, ‘उफ, बेवकूफ है अर्पित जो मुझे इतना सरलमति समझा रहा है. क्या सोचता है कि यदि यह मुझे अवसर नहीं प्रदान करेगा तो मैं अनुभवहीन रह जाऊंगी,’ सोचते हुए अंजुल ने सीधा रणदीप के कैबिन में धावा बोल दिया.

‘‘रणदीप, क्या मैं आप के साथ आज लंच कर सकती हूं? आप के साथ मेरे इंडक्शन की फीडबैक बाकी है,’’ अंजुल ने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा कि वह आवश्यक कार्य प्रतीत हुआ. अत: रणदीप ने सहर्ष स्वीकारोक्ति दे दी.

लंच के दौरान अंजुल ने अपने काम का ब्योरा दिया और साथ ही दबेढके शब्दों में एक स्वतंत्र क्लाइंट लेने की पेशकश कर डाली, ‘‘टीम में सभी इतने व्यस्त रहते हैं कि किसी से काम सीखना मुझे उन के काम में रुकावट बनना लगता है और फिर अपनी शिक्षा, प्रशिक्षण व अनुभव के बल पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक क्लाइंट मैं हैंडल कर सकती हूं, यदि आप अनुमति दें तो?’’

बातचीत के दौरान अंजुल के नयनों का मटकना, उस के भावों का अर्थपूर्ण चलन उस के अधरों पर आतीजाती स्मितरेखा, कभी पलकें उठाना तो कभी झाकाना, सबकुछ इतना मनमोहक था कि रणदीप के पुरुषमन ने उसे एक अवसर देने का निश्चय कर डाला, ‘‘ठीक है, सोचता हूं कि तुम्हें किस अकाउंट में डाल सकता हूं.’’

उस शाम अंजुल ने आर्ट गैलरी में कुछ समय व्यतीत करने का सोची. जब से जौब लगी तब से उस ने कोई तफरी नहीं की. दिल्ली आर्ट गैलरी शहर की नामचीन जगहों में से एक है सो वहीं का रुख कर लिया. मंथर गति से चलते हुए अंजुल वहां सजी मनोरम चित्रकारियां देख रही थी कि अगली पेंटिंग पर प्रचलित लौंजरी ब्रैंड ‘औसम’ के मालिक महीप दत्त को खड़ा देखा. ऐजेंसी में उस ने सुना था कि पहले महीप दत्त का अकाउंट उन्हीं के पास था, किंतु पिछले साल से उन्होंने कौंट्रैक्ट रद्द कर दिया, जिस के कारण ऐजेंसी को काफी नुकसान हुआ. स्वयं को सिद्ध करने का यह स्वर्णिम अवसर वह जाने कैसे देती. उस ने तुरंत महीप दत्त की ओर रुख किया.

‘‘आप महीप दत्त हैं न ‘औसम’ ब्रैंड के मालिक?’’ अपने मुख पर उत्साह के सैकड़ों दीपक जला कर उस ने बात की शुरुआत की.

‘‘यस. आप हमारी क्लाइंट हैं क्या?’’ महीप अपने ब्रैंड को प्रमोट करने का कोई मौका नहीं चूकते थे.

‘‘मैं आप की क्लाइंट हूं और आप मेरे.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

‘‘दरअसल, मैं आप के ब्रैंड की लौंजरी इस्तेमाल करती हूं और एक हैप्पी क्लाइंट हूं. मेरा नाम अंजुल है और मैं मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी में कार्यरत हूं, जिस के आप एक हैप्पी क्लाइंट नहीं हैं. सही कहा न मैं ने?’’ वह अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘तो आप यहां मचल की तरफ से आई हैं?’’ महीप ने हैंड शेक करते हुए कहा, परंतु उन के चेहरे पर तनाव की रेखाएं सर्वविदित थीं, ‘‘मैं काम की बात केवल अपने औफिस में करता हूं,’’ कहते हुए वे आगे बढ़ गए.

‘‘काम की बात तो यह है महीप दत्तजी कि मैं आप को वह फीडबैक दे सकती हूं, जो आप के लिए सुननी जरूरी है और वह भी फ्री में. मैं यहां आप से मचल की कार्यकर्ता बन कर नहीं, बल्कि आप की क्लाइंट के रूप में मिल रही हूं. विश्वास मानिए, मुझे आइडिया भी नहीं था कि मैं यहां आप से मिल जाऊंगी,’’ अंजुल के चेहरे पर मासूमियत के साथ ईमानदारी के भाव खेलने लगे. वह अपने चेहरे की अभिव्यक्ति को स्थिति के अनुकूल मोड़ना भली प्रकार जानती थी.

बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि अब आप अपने विज्ञापन किसी एजेंसी के द्वारा नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर इन्फ्लुऐंसर के जरीए करते हैं. किंतु एक इन्फ्लुऐंसर की पहुंच केवल उस के फौलोअर्स तक सीमित होती है. मेरा एक सुझाव है आप को- आप का प्रोडक्ट प्रयोग करने वाली महिलाएं आम गृहिणियां या कामकाजी महिलाएं अधिक होती हैं, उन की फिगर मौडल की दृष्टि से बिलकुल अलग होती है.

‘‘मौडल का शरीर एक आदर्श फिगर होता है, जबकि आम महिला की जरूरत भिन्न होती है. तो क्यों न आप अपने विज्ञापन में मौडल की जगह आम महिलाओं से अपनी बात कहलवाएं. यदि वे कहेंगी तो यकीनन अधिक प्रभाव पड़ेगा,’’ अपनी बात कह कर अंजुल महीप दत्त की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी.

कुछ क्षण मौन रह कर महीप ने अंजुल के सुझाव को पचाया. फिर अपनी कलाई पर

बंधी घड़ी देख कहने लगे, ‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, अंजुल. आल द बैस्ट,’’ और महीप चले गए.

उन के चेहरे पर कोई भाव न पढ़ने के कारण अंजुल असमंजस में वहीं खड़ी रह गई.

अगले दिन अंजुल औफिस में अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रही थी कि रणदीप का फोन आया, ‘‘क्या मेरे कैबिन में आ सकती हो?’’

अंजुल तुरंत रणदीप के कैबिन में पहुंची. वहां उन के साथ महीप दत्त को बैठा देख कर उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सिर हिला कर हैलो किया. रणदीप ने उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘महीप हमारे साथ दोबारा जुड़ना चाहते हैं और साथ ही यह भी कि उन का अकाउंट तुम हैंडल करो,’’ कहते हुए रणदीप के मुख पर कौंटै्रक्ट वापस मिलने की प्रसन्नता थी तो अंजुल के चेहरे पर अपनी जीत की दमक. अब उस के रास्ते में कोई रोड़ा न था. उस ने साधिकार अपना स्वतंत्र अकाउंट प्राप्त किया था.

‘‘इस कौंट्रैक्ट की खुशी में क्या मैं आप को एक डिनर के लिए इन्वाइट कर सकती हूं?’’ अचानक अंजुल ने पूछा.

यह सुन कर रणदीप चौंक गया. फिर बोला, ‘‘कल चलते हैं. आज मुझे अपनी पत्नी के साथ बाहर जाना है,’’ रणदीप ने जानबूझा कर अपनी पत्नी का जिक्र छेड़ा ताकि अंजुल भविष्य की कोई कल्पना न करने लगे और फिर फ्लर्ट किसे बुरा लगता है खासकर तब जब सबकुछ सेफजोन में हो.

‘औसम’ के औफिस में जब अंजुल मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट की तरफ से क्रिएटिव दिखाने पहुंची तो वहां उसे करण मिला. करण ‘औसम’ की ओर से अंजुल को काम समझाने के लिए नियुक्त किया गया था. आज एक लौंजरी ब्रैंड के साथ मीटिंग के लिए अंजुल बेहद सैक्सी ड्रैस पहन कर गई. उसे देखते ही करण, जोकि लगभग उसी की उम्र का अविवाहित लड़का था, अंजुल पर आकृष्ट हो उठा. जब उसे ज्ञात हुआ कि अंजुल के यहां आने का उपलक्ष्य क्या है, तो उस के हर्ष ने सीमा में बंधने से इन्कार कर दिया.

‘‘हाय अंजुल,’’ करण की विस्फारित आंखें उस के मन का हाल जगजाहिर कर रही थीं, ‘‘मैं तुम्हारा मार्केटिंग क्लाइंट हूं.’’

होंठों को अदा से भींचती हुई अंजुल ने जानबूझा कर अपना हाथ बढ़ा कर मिलाते हुए कहा, ‘‘और मैं तुम्हें सर्विस दूंगी, पर कोई ऐसीवैसी सर्विस न मांग लेना वरना…’’ कहते हुए अंजुल ने उस के कंधे पर आहिस्ता से अपना हाथ रखा और हंस पड़ी.

उस के शरारती नयन करण के अंदर एक सुरसुरी पैदा करने लगे. मन ही मन वह बल्लियों उछलने लगा. आज से पहले उस ने कभी इतनी हौट लड़की के साथ काम नहीं किया था. बहुत जल्दी दोनों में दोस्ती हो गई. करण ने अंजुल को अगले हफ्ते अपने औफिस की पार्टी का न्योता दे डाला.

‘‘इतनी जल्दी पार्टी इन्वाइट? हम आज ही मिले हैं,’’ अंजुल ने करण की गति को थामने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘मैं टाइम वेस्ट करने में विश्वास नहीं करता,’’ वह अपने पूरे वेग से दौड़ना चाह रहा था.

‘‘दिन में सपने देख रहे हो…’’

‘‘दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं, मैडम,’’ अंजुल की खुमारी पहले ही दिन से करण के सिर चढ़ कर बोलने लगी.

पार्टी में अंजुल काली चमकदार ड्रैस में कहर ढा रही थी. करण तो उस के पास से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. कभी दौड़ कर स्नैक्स लाता तो कभी ड्रिंक.

‘‘क्या कर रहे हो करण. मैं खुद ले लूंगी जो मुझे चाहिए होगा,’’ उस की इन हरकतों से मन की तहों में पुलकित होती अंजुल ने ऊपरी आवरण ओढ़ते हुए कहा.

‘‘ये सब मैं तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए कर रहा हूं. मुझे पता है किस को खुश करने से मैं खुश रहूंगा,’’ करण फ्लर्ट करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता था.

पार्टी में सब ने बहुत आनंद उठाया. खायापीया, थिरकेनाचे. पार्टी खत्म होने

को थी कि अंजुल के पास अचानक महीप आ पहुंचे. इसी बात की राह वह न जाने कब से देख रही थी.

औसम की पार्टी में आने का एक कारण यह भी था.

‘‘तुम्हें यहां देख कर अच्छा लगा,’’ संक्षिप्त सा वाक्य महीप के मुख से निकला.

‘‘तुम महीप दत्त को कैसे जानती हो?’’ उन की मुलाकात से करण अवश्य अचरज में पड़ गया, ‘‘बहुत ऊंची चीज लगती हो.’’

‘‘हैलो, चीज किसे बोल रहे हो?’’ अंजुल ने अपनी कोमल उंगलियों से एक हलकी सी चपत करण के गाल पर लगाते हुए कहा, ‘‘आफ्टर औल, महीप दत्त हमारे क्लाइंट हैं,’’ उस ने इस से अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं समझा.

अंजुल हर दूसरे दिन औसम के औफिस पहुंच जाती. करण से फ्लर्ट करने से उस के कई काम बन जाते, यहां तक कि जब उस की ऐड कैंपेन डिजाइन में कुछ कमी रह जाती तब भी उसे काम करवाने के लिए फालतू समय मिल जाता. ‘औसम’ के फाइनैंस सैक्सशन से भी अंजुल एकदम समय पर पेमैंट निकलवाने में कारगर सिद्ध होती.

‘‘हमारे यहां एक फाइनैंस डिपार्टमैंट पेमैंट को ले कर बहुत बदनाम है, पर देखता हूं कि तुम्हारी हर पेमैंट टाइम से हो जाती है. वहां भी अपना जादू चलाती हो क्या?’’ एक दिन करण के पूछने पर अंजुल खीसें निपोरने लगी. अब उसे क्या बताती कि अपनी सैक्सी बौडी पर मर्दों की लोलुप्त नजरों को झेलना उस की कोई मजबूरी नहीं, अपितु कई नफे हैं. जरा अदा से हंस दिए, एकाध बार हाथ से हाथ छुआ दिया, आंखों की गुस्ताखियों वाला खेल खेल लिया और बन गया अपना मन चाहा काम.

कुछ माह बीतने के बाद इतने दिनों की जानपहचान, हर मुलाकात में फ्लर्ट, दोनों का लगभग एक ही उम्र का होना, ऐसे कारणों की वजह से अंजुल को आशा थी कि संभवतया करण उस के साथ लिवइन में रहने की पेशकश कर सकता है. तभी तो वह हर बार अपने मकानमालिक के खड़ूस होने, अधिक किराया होने, कमरा अच्छा न होने जैसी बातें किया करती, ‘‘काश, मैं किसी के साथ अपना किराया आधा बांट सकती.’’

‘‘तुम अपना रूम शेयर करने को तैयार हो? मैं तो कभी भी शेयर न करूं. मुझे अपनी प्राइवेसी बहुत प्यारी है,’’ करण की ऐसी फुजूल की बातों से अंजुल का मनोबल गिर जाता.

‘‘जरा मेरे कैबिन में आना, अंजुल,’’ रणदीप ने इंटरकौम पर कहा.

अंजुल ने उस के कैबिन में प्रवेश किया तो हर ओर से ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ के सुर गुंजायमान होने लगे.

रणदीप आज उस का जन्मदिन खास अपने कैबिन में औफिस के सभी लोगों को बुला कर मना रहा था, ‘‘अंजुल, हमारे औफिस में जब से आईं हैं तब से इन की मेहनत और लगन ने हमारी ऐजेंसी को कहां से कहां पहुंचा दिया…’’, रणदीप सब को संबोधित करते हुए कहने लगा.

‘‘ऐसा लग रहा है जैसे हम तो यहां काम करने नहीं तफरी करने आते हैं,’’ लोगों में सुगबुगाहट होने लगी.

‘‘हमारा तो कभी जन्मदिन नहीं मनाया गया,’’ अर्पित फुंका बैठा था. आखिर उस के नीचे आई अंजुल आज औफिस में उस से अधिक धूम मचा रही थी.

‘‘आप अंजुल हैं क्या जो रणदीप आप की तरफ यों मेहरबान हों?’’ दबेढके ठहाकों के स्वर अंजुल के कानों में चुभने लगे.

औफिस में शानदार पार्टी फिर कभी रणदीप तो कभी करण तो कभी फाइनैंस डिपार्टमैंट के अनिल साहब… अंजुल ने कहां नहीं अपने तिलिस्म का जादू बिखेरने का प्रयास किया. किंतु हाथ क्या लगा. केवल दफ्तर के लोगों की खुसपुसाहट. पुरुष सहकर्मियों की लार टपकाती निगाहें या फिर महिला सहकर्मियों की घृणास्पद हेय दृष्टि.

आज अंजुल पूरे 32 वर्ष की हो गई थी, परंतु इतनी खूबसूरती और इतनी हौट फिगर होते हुए भी कोई उस का हाथ थामने को तैयार नहीं था. सब को केवल उस की कमर में अपनी बांह की चाहत थी. व्यग्र मन और निद्राहीन नयन लिए अंजुल कई घंटे बिस्तर पर लेटी अपने कमरे की छत ताकती रही.

जब पिछले महीने वह अपना रूटीन चैकअप करवाने डाक्टर के पास गई थी तब उस लेडी डाक्टर ने भलमनसाहत में सलाह दी थी कि देखिए अंजुल, स्त्रियों का शरीर एक जैविक घड़ी के हिसाब से चलता है. मां और बच्चे की अच्छी सेहत के लिए 30 वर्ष की आयु से पहले बच्चा हो जाए तो सर्वोत्तम रहता है किंतु 35 वर्ष से देर करना श्रेयस्कर नहीं रहता. आप की बायोलौजिकल क्लौक चल रही है. आप को सैटल होने के बारे में सोचना चाहिए. इन विचारों में घिरी अंजुल के कानों में घड़ी की टिकटिक का शोर बजने लगा. व्याकुलता से उस ने तकिए से अपने कान ढक लिए.

अगले दिन अंजुल ने औफिस में एक नए प्रोजैक्ट की पिच के बारे में सुना तो रणदीप से उसे मांगने पहुंच गई.

‘‘परंतु यह प्रोजैक्ट मुंबई में है और तुम दिल्ली का ‘औसम’ अकाउंट हैंडल कर रही हो,’’ रणदीप के सुरों में हिचकिचाहट थी.

‘‘सो वाट, रणदीप, मैं दोनों को हैंडल कर सकती हूं. मुंबई में भी तो हमारा एक औफिस है. मैं वहां विजिट करती रहूंगी और ‘औसम’ तो जाती ही रहती हूं,’’ अंजुल ने रणदीप को अपनी बात मानने हेतु राजी कर लिया.

मुंबई पहुंच कर अंजुल औफिस के गैस्ट हाउस में ठहरी. कमरा एकदम साधारण

था, किंतु उस के यहां आने का लक्ष्य कुछ और था. अंजुल डरने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो जाए कि उस के हाथों से उस की उम्र तेजी से रेत की मानिंद फिसल जाए और वह खाली हथेलियों को मलती रह जाए. अपनी सैक्सी बौडी की बदौलत उस ने कई अवसर पाए थे, जिन्हें उस ने अपनी बुद्धि व चपलता के बलबूते बखूबी भुनाया था.

उस का अनुमान रहा था कि इसी आकर्षण के कारण उसे अपना जीवनसाथी मिल जाएगा, परंतु अब बढ़ती उम्र ने उसे डरा दिया था. हो सकता है करण बात आगे बढ़ाए, मगर अभी तक उस ने ऐसा कोई इशारा नहीं दिया, केवल फ्लर्ट करता रहता है.

इसलिए समय रहते उसे अपने लिए एक जीवनसाथी तो खोजना ही पड़ेगा. मुंबई में 2 दफ्तरों में जा कर हो सकता है उसे अपने औफिस या फिर क्लाइंट औफिस में कोई मिल जाए…

जब अंजुल मुंबई में क्लाइंट के औफिस पहुंची तो उसे एक लड़के से मिलवाया गया. लड़का बेहद खूबसूरत लगा. उसे देख कर अंजुल के मन में सुनहरे ख्वाब सजने लगे.

‘‘माई नेम इस ऋषि. मैं इस औफिस की तरफ से आप का कौंटैक्ट पौइंट रहूंगा,’’ ऋषि ने अपना परिचय दिया.

‘‘आप का नाम, आप का व्यक्तित्व, सबकुछ शानदार है. आप से मिल कर बेहद प्रसन्नता हुई,’’ अंजुल ने अपने दिल में उठ रही हिलोरों को बाहर बहने से बिलकुल नहीं रोका.

उस की बात सुन कर ऋषि हौले से हंस पड़ा. काम पर अपनी पकड़ से अंजुल ने उसे पहली ही मीटिंग में प्रभावित कर दिया. फिर लंच के समय ऋषि ने अंजुल से पूछा कि औफिस की तरफ से उस के लिए क्या मंगवाया जाए?

‘‘कुछ भी चलेगा बस साथ में आप की कंपनी जरूर चाहिए,’’ अंजुल अब समय बरबाद नहीं करना चाहती थी.

पहले ही दिन से दोनों में अच्छी मित्रता हो गई. अपने बचपन, शिक्षा, कैरियर, परिवार संबंधी काफी बातें साझा करने के बाद दोनों ने शाम को एकदूसरे से विदा ली. गैस्ट हाउस लौट कर अंजुल ने कपड़े बदले और निकल गई गेटवे औफ इंडिया की सैर करने. ‘कल ऋषि से कहूंगी कि मुंबई की सैर करवाए,’ वह सोचने लगी. आज इसलिए नहीं कहा कि कहीं वह डैसपरेट न लगे. सुबह जो कमरा उसे बहुत साधारण लगा था, अब वहीं उसे उजले सपनों ने घेर लिया.

अगले दिन क्लाइंट औफिस जाते हुए रास्ते में करण का फोन आया, ‘‘हाय जानेमन, कैसा लग रहा है मुंबई?’’

‘‘फर्स्ट क्लास, शहर भी और यहां के लोग भी,’’ अंजुल ने चहक कर उत्तर दिया.

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