बढ़ती बेकारी का एक असर यह है कि लड़कियां जो पहले पढ़ाई के बाद कैरियर के नाम पर कुछ साल घरों से दूर निकल सकती थीं और अपने मनचाहे से प्रेम, सैक्स और विवाह कर सकती थीं, अब घरों में रह रही हैं और रोज शादी का दबाव झेल रही हैं. मातापिता चाहे कितने ही उदार और प्रगतिशील हों, वे तो समझते हैं कि अगर नौकरी पर नहीं हैं तो विवाह योग्य साथी नहीं मिलेगा और बिना साथी बेटी कुंठित रहेगी इसलिए उस की शादी कर देनी चाहिए.
यह दबाव और अप्रिय हो जाता है, क्योंकि छोटे शहरों में या अरेंज्ड मैरिज में ज्यादातर लड़के जो दिखते हैं वे आधे पढ़ेलिखे और आधे सफल होते हैं. सफल, स्मार्ट युवा तो बड़े शहरों में नौकरियों पर जा चुके होते हैं. लड़कियों को इस समस्या का सामना करना पड़ता है कि वे 4,5,6 को इनकार करने के बाद क्या करें. मातापिता तो उन्हीं को दिखाएंगे न जो उन्हें मिलेंगे. बिचौलिए तो अपनी फीस की चिंता करते हैं, लड़की की इच्छा की नहीं.
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पढ़ीलिखी मेधावी लड़कियां एक ऐसी सरकार की गलत नीतियों से लगी आग में झुलसने लगीं जो इन बातों की चिंता ही नहीं करती और हर चीज कर्म और भाग्य पर छोड़ने वाली है. जब प्रधानमंत्री बिना शास्त्र का नाम लिए संस्कृत में बात करने लगें और वित्त मंत्री देश की आर्थिक दुर्व्यस्था को एक्ट औफ गौड कहने लगें तो बेचारी अदना अकेली युवती के लिए कुछ कहनेकरने को बचा क्या है?
जो आशा पिछले 4-5 दशकों में बंधी थी कि लड़कियां लड़कों के बराबर हो जाएंगी, अब मिटने लगी है, क्योंकि यदि लड़कियों को नौकरी नहीं मिलेगी तो उन्हें घरों में रसोई में ही घुसना पड़ेगा चाहे बायोकैमिस्ट्री में पीएचडी ही क्यों न की हो. दूसरी तरफ मातापिता खुद लड़कों को घर पर बैठा देख कर बाहर भेज देंगे ताकि घर में शांति रहे. मतलब है कि आवारा निठल्ले लड़कों की सप्लाई बढ़ेगी और घरेलू लड़कियों की.
सरकार की गलत आर्थिक नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था ज्यादा खराब हुई है. कोरोना से पहले ही कारखाने बंद होने लगे थे और उत्पादन कम होने लगा था. देश के कर्णधारों को हिंदूमुसलिम और मंदिरों की पड़ी थी और इन्हीं लड़कियों के मातापिता बेवकूफी में आरतियों, प्रवचनों, तीर्थयात्राओं और स्नानों में जा रहे थे कि उन के बच्चों का भविष्य सुधर जाएगा.
लड़कियों को जो आजादी नौकरियां मिलने से मिली थी वह सदियों बाद मिली थी. लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर चलना सदियों बाद हुआ है. शायद पहली बार जब से सभ्यता पनपी है. भारत में ज्यादा और दूसरे देशों में कम यह अवसर हाथ से फिसलता नजर आ रहा है.
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक आज भी बहुत हैं, क्योंकि धर्मभीरु लोग ट्रंप को चाहते हैं और वे धार्मिक गोरों का समर्थन करते हैं. मगर वहां लड़केलड़कियों को बराबर के अवसर मिल रहे हैं और वहां बिचौलियों की बरात नहीं है, जो जन्मकुंडलियां बगल में दबाए घूमते हैं.
भारत में लड़कियों की आजादी की यह दुर्दशा कब तक रहेगी और कितनों को प्रभावित करेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. डर यही है कि यह लंबे समय तक चलेगा. न तो कोरोना जाने लगा है और न ही यह कट्टरपंथी विचारधारा कि लड़कियां तो घरों में ही शोभा देती हैं. आज भी इस तरह का जम कर प्रचार हो रहा है: ‘‘संजोग विवाह, असवर्ण विवाह, तलाकादि पापपूर्ण कुकृत्यों को कानूनी प्रोत्साहन दे कर हिंदू संस्कृति की रजवीर्य शुद्धिमूलन व्यवस्था को भ्रष्ट कर के देश में वर्णसंकरों द्वारा राष्ट्र के सर्वनाश का बीज बोया जा रहा है.’’
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ये बातें देश को कहां ले जाएंगी छोडि़ए, पक्का है लड़कियों और औरतों को 8वीं सदी में अवश्य ले जाएंगी और लड़कियों की नौकरियां छूटना पहला कदम है. अगर
2-4 साल लगा कि लड़कियों को नौकरियां नहीं मिलेंगी तो मातापिता उन की शिक्षा पर होने वाले खर्च को बचाना शुरू कर देंगे. धार्मिक प्रचार और कोरोना के प्रहार से वैसे ही बाहर निकलना दूभर हो गया है, नौकरियां न रहने पर सवाल उठाया जाने लगेगा कि पैसे लगा कर लड़की को दूसरे शहर महंगी शिक्षा के लिए भेजा भी क्यों जाए. शादी कर दो ताकि वह व्यस्त रहे. आसपास का शोर भी यही बात दोहराएगा. घर बैठी ऊबती लड़कियां भी शादी को मातापिता से मुक्ति का रास्ता समझेंगी और जीवनभर फिर पिछली शताब्दी की लड़कियों की तरह रसोई और बच्चों में जिंदगी गुजार देंगी.