अभिनेता महेश ठाकुर ने न्यूज़ मीडिया को लेकर कही खरी-खरी बातें, क्या कहा उन्होंने, पढ़ें इंटरव्यू

28 साल से फिल्म इंडस्ट्री में काम कर चुके अभिनेता महेश ठाकुर से कोई अपरिचित नहीं. महेश ठाकुर की फिल्म ‘हम साथ साथ है’ काफी लोकप्रिय फिल्म रही. इस फिल्म में उन्होंने आनंद की भूमिका निभाई थी. इस ब्लाक-बस्टर हिट फिल्म के बाद उन्होंने कई टेलीविजन शो में काम किया है. हिंदी फिल्म के अलावा महेश ने तमिल, तेलगू और मलायलम फिल्मों में भी काम किया है.

महेश ने एमबीए की पढाई अमेरिका से की है, इसके बाद वे 80 की दशक में मुंबई आये और फिल्म इंडस्ट्री में काम करने की कोशिश करने लगे. महेश का फिल्मों में अभिनय के प्रति प्यार बचपन से था, यही वजह थी कि उन्होंने स्कूल, कॉलेज से थिएटर करना शुरू कर दिया था. उन्हें पहली फिल्म ‘जानेमन’ मिली जो फ्लॉप रही. इसके बाद उन्होंने टीवी का रुख किया और कई धारावाहिकों में काम किया. उस दौरान उन्हें फिल्म हम साथ साथ है में काम करने का ऑफर मिला. फिल्म हिट रही और महेश ठाकुर को इंडस्ट्री वालों ने पहचाना. इसके बाद वे आशिकी 2, सत्या 2, जय हो आदि कई फिल्मों में दिखाई पड़े. उन्होंने जीवन में जो चाहा, उन्हें मिला और वे इससे बहुत खुश है, उनके इस जर्नी में उन्हें पत्नी सपना मिली और वे दो बेटों के पिता बने. उनके अभी वे सोनी सब की धारावाहिक आंगन..अपनों का में एक पिता की भूमिका निभा रहे है. उन्होंने गृहशोभा के लिए खास बात की पेश है, कुछ खास अंश.

पिता बनना है गर्व  

धारावाहिक में एक बेटी की पिता की भूमिका निभाना महेश के लिए गर्व की बात है, क्योंकि एक बेटी परिवार में पेरेंट्स की सबसे अधिक नजदीक होती है और माता – पिता के मानसिक स्ट्रेंथ को बढाती है. वे कहते है कि बेटे हो या बेटी पिता बनना ही अपने आप में एक बड़ी बात होती है, क्योंकि बच्चे के जन्म के बाद ही कोई माता – पिता बन पाता है. इस तरह की कहानी मैंने पहले नहीं किया है, ये एक अलग कहानी है, जो टीवी पर दिखाई जा रही है. मुझे ऐसी कहानी का हिस्सा बनना अच्छा लग रहा है. इसमें कई इमोशनल सीन्स है, जिसमे मुझे चरित्र में घुसना पड़ता है, जो मुश्किल नहीं होता, क्योंकि अभिनय मैं काफी समय से कर रहा हूँ. एक्टिंग से अधिक ये स्किल होता है, जिसे करने के लिए मैं तैयार हूँ. इसे हर किसी के लिए आसान नहीं होता. इसमें सारे सीन्स बहुत ही इमोशनल है, जिसे करते हुए अनायास ही मेरे आँखों में आंसू आ जाते है.

सोच में बदलाव जरुरी

आज भी लड़कियों के जन्म होने पर कई पेरेंट्स दुखी होते है, क्या ऐसी किसी घटना को आपने अपने आसपास देखा है? महेश कहते है कि आर्थिक रूप से कमजोर या कुछ को बेटी की शादी में दहेज़ देना पड़ता है, ऐसे में उन्हें बेटी बोझ लगती है. ये मानसिकता है और इसे बदलना है. इसके अलावा लोगो की मानसिकता है कि शादी के बाद बेटी की जिम्मेदारी केवल ससुराल के लिए होनी चाहिए और कुछ नहीं. इस सोच को मैंने आसपास के लोगों में देखा है, इसे भी बदलना बहुत जरुरी है. एक बार शादी होने के बाद पेरेंट्स को छोड़कर बेटी की पूरी फोकस ससुराल पर चली जाती है, क्योंकि परिवार वाले यही चाहते है, इस सोच को बदलना है. समाज में इसे बैलेंस करने की जरुरत है. शादी होने के बाद बेटी को पराई कहने वालों के सोच को बदलना जरुरी है.

लड़की को न समझे कम  

कुछ परिवारों में आज भी लड़की पैदा होने पर पेरेंट्स दहेज़ जोड़ना शुरू कर देते है, जबकि आज की लड़की पढ़ी लिखी और कमाऊ होती है, क्या उसे व्याह कर ले जाने वाला पति और ससुराल वाले उसे ही दहेज़ समझे, क्या ऐसा होना संभव नहीं? इसमें जिम्मेदारी किसकी बनती है, समाज, परिवार या धर्म ? इस प्रश्न के जवाब में महेश कहते है कि आज लड़की ही दहेज़ होनी चाहिए, क्योंकि आज की लड़की हर क्षेत्र में पुरुषों की तरह ही काम करती है. साथ ही वह शादी के बाद प्यार को घर में लाती है. लड़की को कम समझना, ये परिवार और समाज की सोच है, जो काफी समय से चला आ रहा है, जिसे पूरी तरह से बदलना मुश्किल हो रहा है, लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव अवश्य आएगा.

मिला है सम्मान

महेश का जब अपना परिवार शुरू हुआ था, तो परिवार वाले इस काम को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे. उन्हें इस बात की हमेशा चिंता रहती थी, लेकिन अब इंडस्ट्री में जीएसटी के आने पर उन्हें ऐसा महसूस नहीं होता. वे इसे एक अच्छा कदम मानते है. इस बदलाव के बारें में महेश कहते है कि पहले बड़े कलाकार को छोड़कर, बाकी कलाकारों को सम्मान नहीं मिलता था, लेकिन अब सभी एक्टर्स इनकम टैक्स के अलावा जीएसटी भी भरते है. मैं भी एक इंटरटैनर के रूप में सर्विस टैक्स भरता हूँ, जिससे मुझे ख़ुशी महसूस होती है, क्योंकि सरकार मेरे काम और मेरी इंडस्ट्री को रिकॉगनाइज कर रही है. अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान जैसे कलाकार को ही पहले रेस्पेक्ट मिलता था, लेकिन अब मुझे भी एक कलाकार के रूप में सम्मान मिलता है. अब कलाकार के काम को सम्मानपूर्वक माना जाने लगा है. मेरे दोनों बेटे मेरे काम से प्रभावित है और अगर वे चाहे, तो पढ़ाई पूरी कर इस क्षेत्र में आ सकते है.

नकारात्मक चीजो की भरमार

इतने सालों में इंडस्ट्री में कहानी में आये बदलाव के बारें में महेश का कहना है कि आजकल चारों तरफ कहानियां ही कहानियां है. चीजे जो चल रही है, वे प्रोग्रेसिव नहीं है, अधिकतर रिग्रेसिव ही है, इसकी वजह टीआरपी है और उसके पीछे भागने पर कोई भी चीज रिग्रेसिव ही दिखेगी. आज जो भी शोज चल रहे है, सारे निगेटिव विचार वाले है, कुछ पोजिटिव नहीं है. निर्माता मानते है कि सकारात्मक चीजे नहीं चलती, क्योंकि दर्शकों के विचार को समझ पाना आज मुश्किल हो चुका है. नकारात्मक फिल्में और वेब सीरीज ही आज सुपर डुपर हिट हो रही है. इसमें अगर सभी निर्माता निर्देशक कहानीकार समूह में सकारात्मक चीजे आज की जेनरेशन को परोसेंगे, तो शायद ऐसी नकारात्मक माहौल से यूथ निकल पायेंगे और समाज में बदलाव आएगा. आपस में कॉम्पिटीशन करने पर कुछ नहीं बदल सकेगा. मेरे धारावाहिक की कहानी आज के परिवेश की है, जिसे हर कोई रिलेट कर सकता है.

वायलेंस है हिट  

वेब सीरीज का प्रचलन पिछले कुछ सालों में अधिक बढ़ा है. पहले और आज की कहानियों में बदलाव अधिक है. महेश कहते है कि वेब की भी कहानियां दर्शकों के अनुसार ही चल रही है. दो – तीन फिल्में जिसमे वायलेंस अधिक होने पर भी हिट हुई है. अभी आगे आने वाली फिल्मों को बनाने वाले सोच रहे होंगे कि इसमें 90 प्रतिशत वायलेंस है, तो आगे हम 100 प्रतिशत वायलेंस दिखायेंगे, क्योंकि दर्शकों को यही पसंद है, ऐसे में मनोरंजन गायब हो जायेगा और पैसा केसे बनाया जाय, उसके बारें में फिल्म निर्माता सोचने लगेंगे. मेरी शो में भी अगर टीआरपी नहीं आएगी, तो ये भी बंद हो जायेगी.

मीडिया को लेनी है जिम्मेदारी

महेश मानते है कि अच्छी मनोरंजक कहानियों को बढ़ावा देने के लिए सभी मीडिया पर्सन को समवेत रूप में आगे आने की जरुरत है. नकारात्मक शो हमेशा ही सबका ध्यान खींचती है और उसका असर समाज और परिवार पर पड़ता है. यही वजह है कि आज के यूथ की सहनशीलता में कमी आ चुकी है. न्यूज़ एजेंसियां भी इस दिशा में कम नहीं, हर चैनल पर युद्ध और उससे जुड़े न्यूज़ ही देखने को मिलते है, जिसमे कुछ भयावह तस्वीरों को दिखाकर लोगों को डराया जाता है. सभी चैनल इसे दिखाने की होड़ में रहते है.

किताबें पढ़ना जरुरी  

वे आगे कहते है कि देखा जाय तो किसी भी देश में, कही भी, किसी भी  बुद्धिजीवी की लिखी किताब में नकारात्मक बातें नहीं लिखी होती. रोज सुबह उठकर अगर एक अच्छी किताब केवल 15 मिनट के लिए कोई पढ़ लें, तो उसका दिन सुखद जायेगा. पर्सनल जीवन में किसी की भी इतनी तनाव नहीं होती, लेकिन दूसरों की जिंदगी में झांकना सबको पसंद होता है. मीडिया भी इसी को बढ़ावा देती है. पड़ोस में चोरी होने पर व्यक्ति खुद की ताले को मजबूत करता है और चोरी करने वाले की छानबीन नहीं करता, क्योंकि उन्हें किसी के बारें में नहीं, खुद के बारें में सोचना पसंद है. ये प्रभाव आज की यूथ पर गहरा हो रहा है, जिसका अंजाम कुछ सालों बाद सबको दिखेगा. इसलिए सभी को जागरूक होने की जरुरत है.

डंकी को लेकर डरे शाहरुख, क्रिटिक्स को लगे धमकाने

कारपोरेट और बल्क बुकिंग की मदद से अपनी पिछली दो फिल्मों ‘पठान’ और जवान’ को सफल सिद्ध करा चुके अभिनेता शाहरुख खान इन दिनों 22 दिसंबर को प्रदर्शिात होने वाली अपनी नई फिल्म ‘‘डंकी’ को लेकर आशंकित है.फिल्म ‘‘डंकी’’ के टीजर के अलावा दो गाने और ट्रेलर सोशल मीडिया पर रिलीज किए जा चुके हैं.जिनसे यह बात उभर कर आती है कि फिल्म ‘डंकी’ लोगों को पसंद नही आने वाली.यॅूं तो ‘डंकी’ के टे्लर को सोशल मीडिया पर एक सौ तीस मिलियन व्यूज मिल चुके हैं.मगर शाहरुख खान अच्छी तरह से समझते है कि यह सारे फेक/गलत आंकड़े हैं. यह आंकड़े तो उन्ही के पैसे पर पल रही पीआर व मार्केटिंग एजंसी द्वारा कम्प्यूटर पर खेल करके दर्शकों को धोखा देने के लिए बताए जा रहे हैं.पर उन्हे पता है कि अब दर्शक मूर्ख बनने से रहा.

यही वजह है कि टीजर या किसी गाने को जितने व्यूज सोशल मीडिया पर मिलते हैं ,उसका पांच प्रतिशत दर्शक भी फिल्म देखने सिनेमाघर नहीं पहुॅचता.अंदर से हकीकत को समझने वाले शाहरुख खान इन दिनों काफी बेचैन हैं.सूत्रों का दावा है कि इसी बेचैनी के चलते शाहरुख खान ने अपने कुछ विश्वस्त लोगों को बुलाकर फिल्म ‘‘डंकी’’ दिखाकर उनकी प्रतिक्रिया ली.लोगों को फिल्म पसंद नही आयी.तो अब शाहरुख खान इसी योजना पर काम कर रहे हैं कि उनकी फिल्म को एडवांस बुकिंग ज्यादा से ज्यादा मिल जाए और फिल्म सिनेमाघर पहुंचे,उससे पहले कम से कम तीन दिन की टिकटें सर्वाधिक बिक जाएं.

इसी सोच के साथ शाहरुख खान ने आनन फानन में एक नया प्रमोशनल गाना लिखवाया, उसे रिकार्ड करने के बाद फिल्म के निर्देशक राज कुमार हिरानी के साथ आबू धाबी जाकर तीन दिन में इस प्रमोशनल गाने की शूटिंग कर खुशी खुशी वापस आए.क्योंकि वह अपनी बेटी सुहाना खान की पहली फिल्म ‘‘द आर्चीज’’ का प्रीमियर कराना चाहते थे.

मगर ‘द आर्चीज’ का प्रीमियर कराना उनके लिए ही घातक बन गया.जी हाॅ! उनकी बेटी सुहाना खान के कैरियर की पहली फिल्म ‘‘द आर्चीज’’ भी  टें बोल गयी.और अब शाहरुख खान शुक्र मना रहे हैं कि अच्छा हुआ कि उनकी बेटी सुहाना खान की फिल्म ‘‘द आर्चीज’’ सिनेमाघरों की बजाय ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘नेटफ्लिक्स’’ पर स्ट्रीम हो रही है.अब शाहरुख खान को अपनी बेटी की फिल्म व उसके अभिनय से फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गजों को रूबरू कराने के लिए फिल्म ‘द आर्चीज’ का प्रीमियर आयोजित करने का फैसला भी उन्हें गलत लग रहा है. सूत्रों का दावा है कि शाहरुख खान के अति करीबी लोगों से मिली प्रतिक्रिया से उन्हे काफी निराशा हुई.अंततः ‘द आर्चीज’ को मीडिया में भी अच्छी प्रतिक्रियाएं नहीं मिली. कई फिल्म आलोचको ने ‘द आर्चीज’ को जीरो स्टार दिया है.

इसके बाद शाहरुख खान ने खुलेआम सोशल मीडिया पर अपने आलोचकों को धमकाना शुरू कर दिया है.सोशल मीडिया पर एक आलोचक को धमकाते हुए शाहरुख खान ने अपनी पीआर टीम से आग्रह किया है कि जिन लोगों के पेट में उनकी फिल्म ‘डंकी’ को लेकर अपच हो गयी है,ऐसे लोगों का अच्छी दवा देकर इलाज किया जाए.अब सवाल उठ रहा है कि क्या शाहरुख खान अपने आलोचकों को धमकी देकर उनका मुंह बंद कर अपनी फिल्म को सफलता दिला पाएंगे? क्या दर्शक  बेवकूफ है.

शाहरुख खान को आलोचको को धमकाने की बजाय अपनी फिल्म ‘‘डंकी’’ का ठीक से प्रचार करने पर धन देना चाहिए.अभी तक इस फिल्म का प्रचार बहुत खराब हुआ है.फिल्म का टीजर ,दो गानों और ट्रलेर ने निराश किया है.उम्मीद है कि फिल्म के प्रमोशनल सांग से कुछ उम्मीद बन जाएगी.

कंगना को जवाब देने के लिए करण जोहर ने मिलाया डिज्नी प्लस हौटस्टार से हाथ

कंगना रानौट और करण जोहर के बीच 36 का आंकड़ा है? यह बात जग जाहिर है. कंगना रानौट हर मौके पर करण जोहर पर हमला करने से बाज नही आती है. कंगना बार बार नेपोटिजम का मुद्दा उठाकर करण जोहर को कटघरे में खड़ी करती रहती हैं. जबकि करण जोहर कभी भी कंगना के खिलाफ तीखी टिप्पणी नही करते.मगर वह कंगना पर जब भी कोई सकारात्मक या यॅूं कहें कि व्यंगात्मक टिप्पणी करते है,तब भी कंगना ,करण जोहर पर हमला करने से बाज नही आती है.

पिछले दिनों करण जोहर ने एक ईवेंट में कहा कि वह कंगना रानौट की फिल्म ‘इमरजेंसी’ देखने के लिए उत्साहित हैं. तो इससे भी  कंगना रानौट को मिर्ची लग गयी और कंगना ने ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) का सहारा लेते हुए करण जोहर पर उनके खिलाफ बदनामी अभियान शुरू करने का आरोप लगाते हुए लिखा- ‘‘हा हा पिछली बार जब उन्होंने कहा था कि वह ‘मणिकर्णिका’ देखने के लिए उत्साहित हैं, तो फिल्म के प्रदर्शन वाले सप्ताहांत पर मेरे जीवन का सबसे बुरा बदनामी भरा अभियान मेरे ऊपर थोप दिया गया.फिल्म में काम करने वाले लगभग सभी मुख्य कलाकारों को मुझ पर कीचड़ उछालने के लिए भुगतान किया गया था.फिल्म में तोड़फोड़ की गयी और अचानक मेरे जीवन का सबसे सफल सप्ताहांत मेरे लिए एक जीवित दुःस्वप्न में बदल गया… हा हा, मैं अब बहुत डर गई हूं… क्योंकि वह फिर से उत्साहित है…‘‘

इस पर करण जोहर ने कोई प्रतिक्रिया नही दी.जबकि बौलीवुड के एक तबके ने शंका जाहिर की थी कि कहीं करण जोहर,कंगना के साथ भी दोस्ती तो नहीं करना चाहते.जिस तरह से वह कार्तिक आर्यन, सलमान खान सहित कई लोेगों के साथ दुश्मनी भुलाकर दोस्ती का हाथ बढ़ा चुके हैं.

मगर हकीकत यह है कि करण जोहर अपनी आदत के ुमुताबिक किसी पर भी आरोप लगाकर आरोप प्रत्यारोप के चक्कर में नहीं पड़ते.वह तो मीठे शब्दों या अपने कार्य से सामने वाले को जवाब देने में यकीन करते हैं. जी हाॅ! यह कटु सत्य है.पिछले तीन चार वर्षों से ‘नेपोटिजम’ को लेकर कंगना रानौट  ,करण जोहर पर लगातार हमलावर हैं.पर अब जो खबर आ रही है,उससे यह बात साफ हो गयी कि करण जोहर ने कंगना के नेपोटिजम के आरोपों का जवाब देने के लिए एक बड़ा कदम उठाते हुए ओटीटी प्लेटफार्म ‘डिज्नी प्लस हौटस्टार’ से हाथ मिलाया है.यह कटु सत्य है.

इन दिनों करण जोहर एक फिक्शनल वेब सीरीज ‘‘शो टाइम’’ बना रहे हैं,जो कि 2024 में ‘डिज्नी प्लस हौट स्टार’ पर स्ट्रीम होगी. इस वेब सीरीज में करण जोहर नेपोटिजम पर बात करेंगे.इस बात को कबूल करते हुए ‘डिज्नी प्लस हौट स्टार’ के कंटेट हेड गौरव बनर्जी कहते हैं-‘‘हम करण जोहर के साथ मिलकर एक शो ‘‘शो टाइम’’ बना रहे है.इस शो  में फिल्म इंडस्ट्री के अंदर की कहानी है,जिसमें करण जोहर नेपोटिजम की कहानी बयां करेंगे.और नेपोटिजम हमारे लिए क्या मायने रखता है,यह भी समझ में आएगा.यह बहुत ही ज्सादा उत्साह जनक शो होगा.’’

गौरव बनर्जी के इस बयान के बाद बौलीवुड में चर्चाएं गर्म हो गयी हैं कि करण जोहर ने ‘नेपोटिजम’ के मुद्दे पर कंगना रानौट को जवाब देने का यह रास्ता निकाला है.कुछ लोगों की राय में करण जोहर का ‘‘शो टाइम’ उसी वक्त स्ट्रीम होगा,जब कंगना रानौट की फिल्म ‘‘इमरजंसी’’ प्रदर्शित होगी.

समलैगिकता के साथ भारतीय परिवारों के पाखांड पर बात करती फिल्म ‘‘सहेला’’

ब्रिटिश फिल्मकार डैनी बॉयल ने 2008 में भारत आकर जुहू की स्लम बस्ती में पलने वाले 18 साल के बालक जमाल की कहानी बयां करने वाली फिल्म ‘स्लमडौग मिलेनियर’ का फिल्मांकन झुग्गी झोपड़ी में किया था,जिसमें जमाल का किरदार देव पटेल ने निभाया था.इसी के चलते वह महज अठारह साल की उम्र में स्टार कलाकार बन गए थे.यह उनके कैरियर की दूसरी फिल्म थी.इंग्लैंड में बसे देव पटेल गुजराती भी बोलते हैं.उनके पूर्वज भारत के गुजरात में जामनगर और उंझा में रहते थे.तब से अब तक वह  ‘लायन’,‘होटल मंुबई’,‘आई लास्ट माई बौडी’ सहित तकरीबन सत्रह फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं.देव पटेल ने 2018 में घोषणा की थी कि अब वह अभिनय के साथ ही बतौर सह लेखक और निर्देशक एक्शन रोमांच प्रधान फिल्म ‘‘मंकी मैन’’ बना रहे है ,जिसके निर्माता रघुवीर जोशी थे.इस फिल्म की क्या प्रगति हुई पता नही ,मगर अब देव पटेल ने रघुवीर जोशी के निर्देशन में अंग्रेजी-हिंदी भाषी फिल्म ‘‘सहेला’’ (कंपेनियन) का निर्माण किया है,जिसका दक्षिण एशियाई प्रीमियर 27 अक्टूबर से पांच नवंबर तक चलने वाले ‘जियो मामी मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 2023’ हो रहा है.

सिडनी में फिल्मायी गयी फिल्म ‘‘सहेला (कंपेनियन)’’ की कहानी पश्चिमी सिडनी में रह रहे भारतीय समुदाय और वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है.जिसमें षादी के बाद पति पत्नी के बीच उस वक्त दरार पैदा होती है,जब पत्नी नित्या को पता चलता है कि उसका पति रवि ओझा समलैंगिक है.वीर (एंटोनियो अकील) और नित्या (अनुला नावलेकर) सिडनी के पैरामाट्टा में रहने वाले एक खुशहाल शादीशुदा जोड़े हैं.उन्हें एक साथ सितार बजाना पसंद है, वह एक सफल दंत चिकित्सक है, और वह अपनी लेखांकन परीक्षा के लिए अध्ययन कर रहा है.हालाँकि, जैसे-जैसे बचपन से उनमें निहित सांस्कृतिक अपेक्षाएँ प्रभावित होने लगती हैं, यह दोनों दिखावे को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं.टूटने के बिंदु पर पहुंचने के बाद, वीर अपनी कामुकता के बारे में नित्या के सामने आता है.यह रहस्योद्घाटन जोड़े के बीच अलगाव का कारण बनता है, जिससे उनके परिवार के गहरे सांस्कृतिक मूल्यों पर सामाजिक अपमान के बादल मंडराते हैं. जैसे ही वीर आत्म-खोज की यात्रा पर निकलता है, नित्या अपनी वास्तविकता के ताने-बाने से जूझती है, और उन्हें अन्वेषण और परिवर्तन के रास्ते पर ले जाती है. यद्यपि वह अभी भी भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से बंधे हुए हैं, फिर भी वह प्रेम पर एक वैकल्पिक दृष्टिकोण खोजते हैं.

मुंबई में जन्में व पले बढ़े मूलतः गुजराती रघुवीर जोशी का देव पटेल के संग काफी पुराना जुड़ाव है. देव पटेल के अभिनय से सजी फिल्मों ‘बेस्ट एक्सोटिक मैरीगोल्ड होटल (1-2), जीरो डार्क थर्टी और द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट जैसी फिल्मों में सहायक निर्देशक के रूप में रघवुीर जोशी ने काम किया. वह डेम जूडी डेंच के सहायक और अभिनेता देव पटेल को हिंदी भाषा के कोच रहे हैं.  2018 में रघुवीर जोशी ने लघु फिल्म ‘यमन’ का निर्देशन किया,जिसे पाम स्प्रिंग्स फिल्म फेस्टिवल और इंडियन फिल्म फेस्टिवल ऑफ लॉस एंजिल्स (आईएफएफएलए) के लिए चुना गया था और सकारात्मक समीक्षा मिली, जिसने ‘सहेला‘ की अवधारणा के प्रमाण के रूप में मार्ग प्रशस्त किया. रघुवीर जोशी,देव पटेल के निर्देशन में बन रही फिल्म ‘मंकी मैन’ के सह-निर्माता भी हैं, जो ब्रॉन स्टूडियो और थंडर रोड द्वारा निर्मित है.पर अब रघुवीर जोशी निर्देशित फिल्म ‘‘सहेला’’ का निर्माण देव पटेल ने किया है.

निर्देशक रघुवीर जोशी कहते हैं-‘‘हमारी फिल्म ‘सहेला’ भारतीय परिवारों के पाखंड को रेखांकित करती है.यह फिल्म प्यार और आत्म- खोज का एक अंतरंग चित्रण है,जो हमारे समाज में पारिवारिक अपेक्षाओं और स्थापित लैंगिक भूमिकाओं के बोझ को चुनौती देती है.यह एक ऐसी कहानी है,जो प्रेम के बारे में हमारी धारणाओं को फिर से परिभाषित करती है,कामुकता की जटिलता और अनुरूपता को तोड़ने से मिलने वाली स्वतंत्रता की खोज करती है.अपनी फिल्म ‘सहेला‘ में मैंने इस बात को भी रेखांकित किया है कि प्यार का सबसे गहरा काम ‘जाने देने’ की शक्ति है.’’

फिल्म ‘‘सहेला’’ (कंपेनियन) को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं-एंटोनियो अकील,अनुला नावलेकर, हरीश पटेल,अनिता पटेल, निकोलस ब्राउन,जॉर्जिया ब्लिजार्ड,गस मरे, निकोलस बर्टन,सबा जैदी आब्दी,  जैन अयूब,शीबा चड्ढा,लीना बहल,विपिन शर्मा,सक्षम शर्मा,अनन्या दीक्षित, ताई हारा,मार्टिन हार्पर,मिरांडा डौट्री,वसीम खान व अन्य.

Diwali Special: बौलीवुड के सितारे कैसे मनांएगे दीवाली

भारतीय संस्कृति में हर त्यौहार का अपना महत्व है.हर त्यौहार एक जश्न होता है.इस जश्न को मनाने के लोगो के अपने अपने अंदाज है.बौलीवुड में तो यह पैसे के दिखावे का त्यौहार/उत्सव रहा है.बौलीवुड में दीवाली के दिन मां लक्ष्मी का पूजन करने से अधिक जष्न मनाने व एक दूसरे को उपहार देने का उत्सव ज्यादा है, जिसमें हर धर्म के कलाकार शिरकत करते हैं.अमिताभ बच्चन,अनिल कपूर,शाहरुख खान, आमीर खान,एकता कपूर,भूषण कुमार सहित कई फिल्मी हस्तियां ‘दीवाली पार्टी का आयोजन कर दीवाली का जश्न मनाते हैं.जी हाॅ! कई बॉलीवुड सितारे दिवाली पार्टी के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर देते हैं. इन सितारों को दिवाली जश्न काफी शानदार और देखने लायक होता है.इनकी पार्टी में बौलीवुड के तमाम सितारे भी शामिल होते हैं.

दिवाली से एक सप्ताह पहले या दिवाली के दिन जिस कलाकार की फिल्म प्रदर्शित हो और  वह सफल हो जाए, उसके यहां दीवाली का जश्न देखते ही बनता है.मगर अफसोस की बात यह है कि इस बार दीवाली से पहले जितनी फिल्में प्रदर्शित हुई हैं,वह सभी फिल्में बुरी तरह से असफल हो चुकी है.जिसके चलते बौलीवुड में उदासी का माहौल है. मगर शाहरुख खान अति उत्साहित हैं. इस वर्ष उनकी दो फिल्में ‘पठान’ व ‘जवान’ बाक्स आफिस पर धमाल  मचा चुकी हैं.और उन्हे पूरा यकीन है कि 22 दिसंबर को प्रदर्शित होने वाली उनकी फिल्म ‘डंकी’ सफलता के नए रिकार्ड बनाएगी.फिल्म ‘डंकी’ का निर्माण शाहरुख खान ने खुद राज कुमार हिरानी व जियो स्टूडियो के साथ मिलकर किया है.तो वहीं दीवाली के दिन यानी कि रविवार,12 नवंबर को सलमान खान की फिल्म ‘‘टाइगर 3’’ प्रदर्शित होगी. इस फिल्म को लेकर कोई उत्साह नजर नही आ रहा है.इससे पहले सलमान खान की बतौर अभिनेता और बतौर अभिनेता सात आठ फिल्में बुरी तरह से बाक्स आफिस पर दम तोड़ चुकी हैं.इससे भी सलमान खान उत्साहित नही है.वैसे ‘टाइगर 3’ का निर्माण ‘यशराज स्टूडियो’ ने किया है और इसके निर्देशक मनीष शर्मा हैं.यह पहला मौका है,जब ‘यशराज फिल्मस’ दीवाली का बहाना कर अपनी फिल्म ‘टाइगर 3’ का ‘प्रेस शो’ भी नहीं करेगा. इसलिए सलमान खान कैंप में दीवाली के जष्न को लेकर फिलहाल खामोशी है. माना कि बौलीवुड में बाक्स आफिस पर फिल्मों की लगातार असफलता के चलते उदासी है,फिर भी बौलीवुड के कलाकारों ने दीवाली उत्सव मनाने की तैयारियां कर ली हैं.

आइए,जानते है कि इस बार दीवाली पर बौलीवुड के सितारे क्या करने वाले हैं

 ‘‘दीवाली पर हमारे मन्नत में ‘अतिरिक्त चमक-दमक‘ होगी.’’ शाहरुख खान

‘‘हमारे लिए तो दीवाली का त्यौहार खुशियो का त्याहार है.हम खुशियां बांटने में यकीन करते हैं.हम त्योहारों का आनंद लेते है क्योंकि त्योहार हमें अपने प्रियजनों के साथ समय बिताने का मौका देते हैं.इस अवसर पर हमारे मन्नत में ‘अतिरिक्त चमक-दमक‘ होगी.मुझे लगता है,त्योहारों में,आप सिर्फ परिवार के एक साथ रहने और कुछ जश्न मनाने और कुछ का इंतजार करने की उम्मीद करते हैं.अगर और कुछ नहीं, तो बस घर में ढेर सारी मिठाइयाँ रखना, कुछ वजन बढ़ाना और ताश खेलना.साथ रहने का मजा ही कुछ और है परिवार और घर को सजाना, इसलिए मैं इसके लिए उत्सुक हूं.दीवाली का त्योहार उपहार देने व लेने का दिन है.वैसे भी हम तो हर त्यौहार मनाते हैं.दिवाली के दिन हम अपने परिचितों को ‘दिवाली उपहार’ भेजते हैं.हम चाहते हैं कि सभी इस त्योहार में खुश होकर जश्न मनाए.हम अपनी कंपनी ‘रेड चिल्ली’ के दफ्तर जाकर सभी कर्मचारियों के संग भी दिवाली मनाते हैं.इस बार भी हम यह सब करने वाले हैं.’’

‘‘पति बेटी के साथ दीवाली का जश्न मनाउंगी,दिए जलाउंगी..’’ आलिया भट्ट

आलिया भट्ट कहती हैं-‘‘बचपन से अब तक मैने दीवाली का जश्न अलग अलग शहरों में मनाती आयी हूं.मेरे पापा हमेशा दीवाली के दिन जश्न मानते आए हैं.मैं जब से समझदार हुई हूं या यूं कहें कि पिछले कुछ वर्षों से दीवाली का त्योहार अपने दोस्तों व सहेलियों के साथ मनाते आए हैं.दीवाली के दिन हम सभी मिलते हैं और एक साथ मिलकर दिए जलाते हैं.अच्छा, मीठा व स्वादिष्ट भोजन करते हैं.कई तरह के गेम खेलते हैं.मौज मस्ती करते हैं.हाॅ! इस दिन हम सभी परंपरा गत भारतीय पोशाक ही पहनते हैं.मैं तो हर दीवाली के दिन अति खूबसूरत लाल रंग या पीले रंग की साड़ी पहनकर ही दिए जलाती हूं.

लेकिन इस बार की दीवाली मेरे लिए कुछ खास मायने रखती है.यह दीवाली मेरी शादी के बाद की दूसरी दीवाली होगी,जब मैं अपने पति रणबीर कपूर व ससुराल के सदस्यों के साथ मनाउंगी,वहीं मेरी सबसे बड़ी खुशी यह दीवाली मेरी बेटी की पहली दीवाली होगी,जो छह नवंबर को एक वर्ष की हुई है.तो इस बार हम दीवाली सही मायनों में खुशी के लिए मनाएंगे.हम कलाकार वैसे भी पटाखा चलाने से दूर रहते हैं.इस बार तो हम अपनी बेटी की वजह से भी ऐसा नही करेंगे.तीसरी बात हम तो हर मुंबई वासी से आग्रह करना चाहते हैं कि वह पटाखे कम जलाकर प्रदूषण पर रोक लगाए.क्योकि इन दिनों मुंबई में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ा हुआ है.

हमारे लिए यह पांच दिन का महोत्सव है..’’ अनन्या पांडे

अनन्या पांडे कहती हैं-‘‘हमारे लिए दीवाली का त्यौहार पाॅच दिन का होता है.हम धनतेरस से भईयादूज तक दिवाली का पांच दिवसीय महोत्सव मनाते हैं.धनतेरस से पहले ही हम घर को खूबसूरती से सजाते हैं.इस बार के लिए मेरे मन में घर को सजाने की कई तरकीबें मेरे दिमाग में हैं.मिठाइयां भी बांटूॅंगी.घर के अंदर ही दीवाली के दिन अपने दोस्तों व परिवार के लोगों के लिए एक छोटी सी पार्टी रखने वाली हूं,पर यह पार्टी परंपरागत भारतीय षैली मंे ही होगी.मेरे मन मे इस बार की दीवाली बहुत खास बनाने की कई योजनाएं हैं,अभी से उनकी चर्चा नहीं करना चाहती.

‘‘ मैं तो दिवाली के त्यौहार को काफी इंज्वाॅय करती हूं.’’जया ओझा

मुंबई की दीवाली की बात ही कुछ और होती है.जब कोई त्यौहार आता है तो लगता है कि जैसे स्वर्ग उतर आया हो.पर इस बार अभी तक तो दीवाली पर महंगाई का असर नजर आ रहा है.लोग इस बार टैंशन फ्री होकर मस्ती के साथ दिवाली नही मना पाएंगे,पर मैं तो दिवाली के त्यौहार को काफी इंज्वाॅय करती हूं.इस बार भी पारंपरिक शैली में लक्ष्मी पूजन,दिए जलाने व पटाके फोड़कर दिवाली मनाउंगी.’’

‘‘रंगोली बनाने का शौक..’’ अनुस्मृति सरकार

‘‘मुझे रंगोली बनाने का बड़ा शौक हैं.मैं हर दिवाली तरह तरह की रंगोली बनाती हूं.दिवाली की अलग अलग तरह की प्रतिमाएं बनाती हूं दिवाली मैं हमेशा अपने रिश्तेदारों के साथ उनके यहां जाकर हर एक पल को इंज्वाॅय करती हूं.पर उनका आशिर्वाद लेती हूं.मैं अपने प्रशंसकों वाॅर्म और हैप्पी दिवाली कहना चाहूंगी.सभी का जीवन खुशियों,तरक्की और मस्ती से परिपूर्ण रहें.’’

‘‘दिवाली परिवार के साथ..’’ एकता जैन

अभिनेत्री एकता जैन कहती हैं- ‘‘दिवाली का मजा नही आता, अगर हम उसे अपने परिवार के साथ नहीं मनाते हैं.दिवाली के मौके पर धनतेरस से लेकर दिवाली की पूजा तक मेरा पूरा परिवार एक साथ रहता हैं.दिवाली के दिन हम पूजा करने के बाद एक साथ बैठकर भोजन करते हैं.उसके बाद पटाकें फोड़ते हैं.खुले आकाष के नीचे मिठाइयां खाते हैं.दिवाली के समय मैं अपने हाथों में फुलझड़ी जलाना पसंद करती हूं.मैं तो दिवाली के त्यौहार को काफी इंज्वाॅय करती हूं .इस बार भी पारंपरिक शैैली में लक्ष्मी पूजन,दिए जलाने व पटाके फोड़कर दिवाली मनाउंगी. हर वर्ष की तरह इस बार भी हम दिन में अनाथाश्रम जाकर अनाथ बच्चों के साथ इस जश्न को मनाने वाली हॅूं.इस बार हम अपने पारिवारिक ‘एनजीओ’ की तरफ से दूसरो की जिंदगी में दीवाली के अवसर पर उजाला भरने वाले हैं,पर उसको लेकर अभी हम बात नही करना चाहते. ’’

‘‘ सभी की दिवाली बहुत ही खुशनुमा तरक्की से भरपूर हो.’’ पंकज झा

अपने घर में अभी से ढेर सारे दिए लाकर रख दिए है,जिनसे दिवाली के दिन मैं अपने पूरे घर को रोशन करुॅंगा.मुझे तो रंगोली बनाना और आकाश कैंडिल बनाना भी आता है.मैं दिवाली के दिन पैसों की देवी लक्ष्मी को अपने घर लाने का पूरा प्रयास करुॅंगा.इसलिए इस दिवाली मैं अपने घर पर ही रहकर उनका स्वागत करना चाहूंगा. दिवाली ढेर सारे नए कपड़ों,पटाकों और मिठाइयों को दोस्तों व रिश्तेदारों के साथ मिलकर मनाने का त्यौहार है.वह बहुत ही स्पेशल समय होता है,जब सभी दोस्त व रिष्तेदार मजा करने के लिए इकट्ठा होते हैं.सभी की दिवाली बहुत ही खुशनुमा व तरक्की से भरपूर हो.’’

‘‘हम सपरिवार लक्ष्मी पूजन करेंगे..’’ सुरेंद्र पाल

दिवाली का त्यौहार तो पूरे पारिवारिक सुख का अहसास करने का त्यौहार है.मैं हर साल दिवाली का त्यौहार अपने ही घर पर रहकर अपने तीनों बच्चों के साथ मनाता हॅंू.इस बार भी हम सपरिवार लक्ष्मी पूजन करेंगे.दिये जलाएंगे,पटका फोड़ेंगे..हम मां लक्ष्मी की आराधना करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे.’’

 ‘‘यह दीवाली मेरे लिए दोहरी खुशी लेकर आयी है..’’ सिमरत कौर

‘गदर 2’फेम अदाकारा सिमरत कौर कहती हैं-‘‘मेेरे लिए दीवाली का त्यौहार का मतलब सदैव लक्ष्मी पूजा का त्यौहार, रोषनी, मिट्टी के दिये और बहुत सारी मिठाइयां ही रहा है.मेरे पास बहुत सारी अच्छी बचपन की यादें हैं कि कैसे हम इस त्यौहार को सेलीबे्रट करते थे.लक्ष्मी गणेश पूजा के बाद हमारा पहला काम मिट्टी के दियों को जलाना और पटाका फोड़ना होता था.हमारे घर में दिवाली के दौरान पान रखने की परंपरा हैं.यह दीवाली मेरे लिए दोहरी खुषियां लेकर आयी है.मेरी फिल्म ‘गदर 2’ ने जबरदस्त सफलता हासिल की है.इसके अलावा मुझे नाना पाटेकर के साथ एक नई फिल्म ‘जर्नी’ भी मिल गयी है। इस वजह से इस बार दीवाली मेरे लिए ढेर सारी खुशियां लेकर आयी है.’’

‘‘लोग दीवाली मिल जुलकर प्यार मोहब्बत के साथ मनाएं’’ दिव्या दत्ता

हम चाहते हैं कि इस बार दीवाली लोग मिल जुलकर प्यार मोहब्बत के साथ बिना पटाखे फोडे़ मनाएं.मिल जुल कर,एक साथ बैठकर भोजन करें,मिठाई का सेवन करे और लोगों के बीच मिठाई बांटें.अच्छी अच्छी बातें करे,अच्छा उपहार दें.दीवाली का त्योहार दो दिए जलाकर, एक अनार फोड़कर,एक फुलझड़ी जलाकर भी मनाया जा सकता है.कम से कम मैं तो इसी तरह से दीवाली मनाउंगी.जो लोग दिखावे के लिए बोरी भरकर पटाखे लेकर आते हैं और अपने घर के सामने फोड़ते हंै,वह सबसे पहले अपने घर के अंदर प्रदूषण को निमंत्रण देते हैं,फिर मोहल्ले और पूरे शहर में कम से कम इससे बचने का प्रयास तो किया ही जाना चाहिए. ’’

हिंदी सिनेमा से उत्सव त्योहार और लोक संस्कृति गायब: कौन है दोषी….?

हमेशा से माना जाता रहा है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता  है.यही वजह है कि जब भारतीय सिनेमा बनना शुरू हुआ, तब से भारतीय सिनेमा में भारतीय लोक संस्कृति, होली,दशहरा,दीवाली,ईद व बकरीद आदि को सिनेमा में उत्सव की तरह चित्रित किया जाता रहा है.लेकिन नब्बे के दशक के ही दौरान सिनेमा में अचानक बदलाव नजर आने लगा.और अब सिनेमा से उत्सव या लोक संस्कृति पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है.सह धर्मिता,समाज की लोकसंस्कृति व उत्सव धर्मिता से वर्तमान का सिनेमा दूर जा रहा है.‘सिनेमा’ से ‘रस’ खत्म हो गया है.इसके लिए कुछ हद तक कारपोरेट व राजनेता ही दोषी हैं!!

सिर्फ सिनेमा ही क्यों? जीवन के दूसरे आयामों से भी ‘रस’ गायब होता जा रहा है.पहले यही ‘रस’ देश की आत्मा हुआ करती थी.संगीत,नाट्य शास्त्र,कला संस्कृति, साहित्य,लोक कला से भी ‘रस’ गायब हो चुका है.आज हर रीति रिवाज का बाजारीकरण धर्म के रूप में सिनेमा में बेचा जा रहा है.

भारतीय सिनेमा कीश्षुरूआत के साथ हिंदी सिनेमा में दीपावली की अभिव्यक्ति पर्व की विविधता और परंपरा को दर्शाती थी.तब गीतों में मिट्टी के दीपकों के बीच जगमगाते चेहरों की रंगत अलग ही चमकती थी. 1961 पं.नरेंद्र शर्मा लिखित व लता मंगेशकर आवाज में लय बद्ध गीत ‘‘ज्योति कलश छलके हुए गुलाबी लाल सुनहरे रंग दल बादल के ज्योति कलश छलकेघर आंगन वन उपवन उपवन करती ज्योति अमृत के सिंचन मंगल घट ढलके, ज्योति कलश छलके..’,जब आज भी सुनाई देते हैं,तो दीपावली की रोशनी जैसे मनप्राण आलोकित कर देती है.क्योकि उस वक्त दीपावली का मतलब खरीदारी नहीं, रोशनी का त्योहार होता था.तब यह धर्म का प्रचार नहीं था. बिजली की झालरें नहीं लगाई जाती थीं, दीपकों में तेल-बाती रख रोशनी की जाती थी.किसी के बताए बगैर भी हमें पता होता था कि दीपावली भगवान श्रीराम के अयोध्या लौट आने की खुशी में मनाई जाती है.वह समय था जब गांव, समाज, परिवार, रिश्ते कहानियों भर में नहीं थे. उन्हें हम जीते थे, उनसे सीखते थे.मां-बुआ से दीपावली के अवसर पर लीपना और रंगोली बनाना सीखा जाता था, तो चाचा से कंदील बनाकर रोशन करना.बहनों के साथ कच्ची मिट्टी के घरकुंडे बनाने का अलग ही सुख था.बुजुर्गों को लक्ष्मी पूजन करते देखा जाता था और उसी तरीके से उसी परंपरा का निर्वहन आगे तक करने की कोशिश की जाती थी. गांव, समाज समय के साथ छूट जाता था, लेकिन परंपराएं साथ रहती थीं, हमारे साथ चलती थीं.

जयंत देसाई की 1940 में प्रदर्शित फिल्म ‘दीवाली’,गजानन जागीरदार ने 1955 मंे ‘घरघर आयी दीवाली’,दीपक आषा 1956 में ‘दीवाली की रात’ आदि में दीवाली का त्योहार उत्सव की तरह चित्रित किया गया था.1972 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘अनुराग’’ में समूहता,आपसी भरोसे व विश्वास को प्रदर्शित करने के लिए सभी पड़ोसी ‘दीवाली’ का त्योहार कैंसर के बच्चों की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मनाता है.             गोविंदा की फिल्म ‘आमदनी  अठन्नी खर्चा रूपया’’ में भी ‘‘आई है दीवाली,सुनो जी घर वाली’’ था.

लेकिन जैसे-जैसे परिवार, समाज और गांव से दूर शहरों में सिमटते गए, हमारे त्योहार भी परंपरा से दूर होते गए. त्योहारों में क्या करना चाहिए, की बातें कम होने लगी, क्या नहीं करना चाहिए, चर्चा में वह रहने लगा.तो वहीं दीपावली के उत्साह में हिंदी सिनेमा ने शामिल होना ही छोड़ दिया है. दीपावली ही क्यों, बीते कई वर्षों में शायद ही कोई फिल्म हो, जिसमें त्योहार को उसके पारंपरिक अंदाज में दिखाया गया हो. 2001 में करण जोहर ने बाजार को समर्पित फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ बनाकर हमें दीपावली का एक नया तरीका समझाया. स्टाइलिश कपड़े पहनो, स्टाइलिश जेवर पहनो, स्टाइलिश मोमबत्ती जलाओ, स्टाइल से खडे़ हो जाओ, स्टाइल से पूजा कर लो, बस हो गई ‘सभ्य’ लोगों की दीपावली.इसमंे न कोई उत्साह न कोई उमंग.. कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक ‘एलिट’ में शामिल होना चाहते हैं तो बस यही तरीका स्वीकार करना होगा दीपावली का.मतलब त्योहारों मंे विविधता व उत्साह खत्म हो गया.

वास्तव में 1992 में जब सुभाष चंद्र गोयल ने सेटेलाइट चैनल ‘‘जीटीवी’’ की शुरूआत की,तो उन्होने भारतीय लोक संस्कृति,उत्सव,त्यौहार आदि से परे जाकर आधुनिकता परोसना शुरू किया.(खैर,अब कर्ज तले दबे जीटीवी /जी नेटवर्क को सोनी टीवी द्वारा खरीदने की बातीत चल रही है.)तब फिल्मकारों, लेखकों, निर्देशकों व कलाकारों की एक नई पौध विकसित हुई.मसलन-दिया टोनी सिंह,विंटा नंदा,रमण कुमार वगैरह वगैरह…

दिया टोनी सिंह ने आधुनिकता के नाम पर अपने टीवी सीरियल ‘‘बनेगी अपनी बात’’ में चार लड़कियों के छोटे शहर से बड़े शहर पहुॅचने के बाद की कहानी पेश की.दिया टोनी सिंह ने समुद्री बीच व स्वीमिंग पुल संस्कृति के साथ अर्ध  नग्न दृश्यांे से लेकर चंुबन दृश्य तक  जमकर परोसे.इस सीरियल से पहले किसी भी फिल्म में तब तक ख्ुालकर चंुबन दृश्य नही दिखाए गए थे.इससे उस वक्त फिल्मकारों के बीच हंगामा मचना स्वाभाविक था.पर जीटीवी या दिया टोनी सिंह शर्मिंदा नहीं थे.‘बनेगी अपनी बात’ में कहीं भी भारतीय लोक संस्कृति,भारतीय त्यौहार व उत्सव का आनंद,सामूहिता ,भारतीयता का दूर दूर तक नामोनिशां नही था.

इसके बाद फिल्म ‘‘साथ साथ’’ के निदशर््षक रमण कुमार ने बतौर निर्माता व निर्देशक जीटीवी पर टीवी सीरियल ‘‘तारा’’ लेकर आए.और जिन मूल्यांे की वकालत उन्होने 1982 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘साथ साथ’’ में की थी,1993 में टीवी सीरियल ‘‘तारा’’ में उन सभी की धज्जियां उड़ाते हुए उन्होने रिश्ते नातों के साथ साथ ही अति आधुनिक,अति भ्रष्ट,बिगड़ैल, विद्रोही युवा पीढ़ी को पेश किया.रमण कुमार ने इस सीरियल में युवा पीढ़ी के जिस रूप का चित्रण किया,उसकी कल्पना उस वक्त के समाज में नही की जा रही थी.मगर उस वक्त रमण कुमार ने स्वीकार किया था कि उनके सीरियल की सह निर्देशक व सह लेखक विंटा नंदा ने होस्टल की जिंदगी जीते हुए जो अनुभव हासिल किए थे,वही सब उनके सीरियल ‘तारा’ का हिस्सा है.

सीरियल ‘‘साथ साथ’’ का नायक अविनाश वर्मा (फारुख शेख ) अपने अमीर पिता के विचारों से असहमत होकर समाजवाद की विचार धारा की सोच के साथ अलग राह अपनाता है.अविनाश को साथ मिलता है गीतांजली (दीप्ति नवल) का.गीतांजली भी अपने उद्योगपति पिता के विचारों से असहमत होकर अविनाश का साथ पकड़ती है.फिल्म में दो पीढ़ियों का टकराव सैद्धांतिक है.यह आधुनिक पीढ़ी आधुनिक होते हुए भी समानता व सामाजिक न्याय  की बात करती है.अपने पिता के साथ विद्रोही बनकर गाली गलौज नहीं करती.यह पीढ़ी मटेरियालिस्टिक  सोच के खिलाफ है.जबकि ‘तारा’ में  एक भी किरदार भारतीय नजर नही आता.इस सीरियल की हर महिला शराब व सिगरेट का सेवन करने के  साथ अवैध शारीरिक संबंध बनाने से पीछे नहीं रहतीं.मजेदार बात यह कि इसे काफी अच्छी टीआरपी मिली थी और यह सीरियल पूरे पांच वर्ष तक प्रसारित हुआ था.इस पूरे पांच सौ एपीसोड के सीरियल में एक भी उत्सव नजर नही आता.

उस वक्त सीरियल ‘तारा’ में तारा की सौतेली टीन एजर बेटी देवयानी ( ग्रुशा कपूर) का किरदार लोगों की समझ से परे थे,यह अलग बात है कि वर्तमान समय में समाज में देवयानी जैसी टीन एजर लड़कियां नजर आती हैं..अब यह सीरियल ‘तारा’ का असर है या….? देवयानी टीन एजर है,जो कि अपने माता पिता से गाली गलौज व अपशब्द करने के साथ ही अपनी उम्र से कई गुना बड़े पुरूष से प्यार करती है.इतना ही नहीं इस सीरियल में तारा (नवनीत कौर) और दीपक सेठ (आलोक नाथ) के बीच लंबे दृश्य फिल्माए गए,जिन्हे विंटा नंदा ने ही निर्देशित किया था.‘मी टू’ के वक्त विंटा नंदा ने आलोक नाथ पर अपना शारीरिक शोषण करने के साथ कई गंभीर आरोप लगाए थे.

सेटेलाइट टीवी चैनल ‘‘जीटीवी’’ पर ‘‘तारा’’ को लगातार पांच वर्षों तक जिस तरह की शोहरत मिली थी,और इसमें जिस तरह से भारतीयता,भारतीय संस्कृति,फोक कल्चर,उत्सव,त्योहार आदि का उपहास उड़ाया गया था,उसे धीरे धीरे हिंदी फिल्मों के फिल्मकारों ने भी आत्मसात करना शुरू कर दिया.इसकी मूल वजह यह भी रही कि सिनेमा से फिल्मकारों,लेखकों व कलाकारांे की वह पौध जुड़ रही थी,जिनकी जिंदगी ‘सार विहीन‘ थी.

वास्तव में ‘जीटीवी’ के साथ ही कारपोरेट जगत ने सिनेमा जगत/ कला जगत में कदम पसारने शुरू किए.एमबीए की पढ़ाई अथवा विदेशो से उच्च शिक्षा हासिल कर सीमेंट या कार वगैरह बेचने का काम करने वाले लोग सिनेमा बनाने लगे थे.इनकी अपनी जिंदगी में कोई सार नहीं था.यह सभी एकाकी जीवन जीने में यकीन करने वाले लोग थे,ऐसे में इनमें परिवार,उत्सव, लोक संस्कृति की समझ कहां से आती?तो फिर हम यह कैसे उम्मीद कर ले कि ऐसी पीढ़ी सिनेमा या टीवी जगत में उत्सव/लोकसंस्कृति भाईचारा आदि को परोसे.इस वजह से भी टीवी/सिनेमा से लोकसंस्कृति, उत्सव,त्योहार आदि गायब होते गए.जबकि टीवी व सिनेमा में धर्म को ज्यादा बेचा जाता रहा.आज भी टीवी सीरियलों,वेब सीरीज या सिनेमा में  त्यौहार या उत्सव नहीं परोसे जा रहे हैं,मगर धर्म को बेचकर दर्शको को लुभाने के प्रयास खुलेआम जारी है.

जब सिनेमा के निर्माण व वितरण पर कारपोरेट कल्चर हावी होने लगा,तो फिल्म की कहानी से लेकर हर चीज का बाजारीकरण हो गया.फिल्म के कलाकारांे ने त्योहारो पर कब्जा कर लिया.यह तय हो गया कि ईद पर किस कलाकर की फिल्म आएगी.दीवाली पर किस कलाकार की फिल्म आएगी.15 अगस्त के अवसर पर किस कलाकार की फिल्म आएगी.क्रिसमस पर किस कलाकर की फिल्म आएगी? इस बंटवारे ने भी उत्सव को दफनाने का काम किया.इतना ही नही अब तो राजनीतिज्ञों ने भी त्योहारों पर कब्जा कर ‘त्योहार’ को ‘उत्सव’ की बजाय‘वोट बैंक’ और ‘धर्म का बाजार’ बना डाला.

इन दिनों मुंबई सहित पूरे महाराष्ट् राज्य में ‘‘गणेशोत्सव’’ के दौरान पूरे ग्यारह दिन जिस तरह का माहौल नजर आता है,उसे देखकर 1893 में इस उत्सव की शुरूआत करने वाले स्व.बाल गंगाधर तिलक भी खुद को कोस रहे होंगे कि उनके उत्सव को लोगों ने क्या बना डाला.बाल गंगाधर तिलक के लिए ‘गणेशोत्सव’ में धार्मिक पूजा कम,  जन जागृति व शिक्षा के प्रचार प्रसार का उत्सव था.बाल गंगाधर तिलक की सोच वाला उत्सव नब्बे के दशक तक हिंदी व मराठी फिल्मों में नजर आता रहा है.

इतना ही नही 2000 से पहले तक मुंबई में ‘गणेशोत्सव’ को मनाने वाले हर पंडाल में उत्सव व लोकसंस्कृति को महत्व दिया जाता था.उन दिनों पांडाल की गणेषमूर्ति के आगे परदा नही होता था,कोई भी इंसान चाहे जितनी दूर खड़े होकर दर्शन कर सकता था.हर पांडाल में लोेक गीत संगीत व लोक नृत्य को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम आयोजित होते थे.मुझे याद है कि 1990 से 197 तक हर वर्ष मुझे ‘लालबाग चा राजा’ के आयोजक मुझे बुलाया करते थे,पर हम समयाभाव के चलते जा नही पाते थे.पर अब हालात यह है कि आम इंसान को सिर्फ ‘मुख दर्शन’ करने के लिए आठ से दस घंटे कतार में खड़ा होना पड़ा है,पांडाल के स्वयंसेवकों की डांट व लाट खानी पड़ती है.अब यह महत्वपूर्ण हो गया है कि गणेष मूर्ति पर कौन कितना चढ़ावा चढ़ाता है.अब धर्म के ठेकेदारों,राजनीतिज्ञों,पांडाल के आयोजकों और फिल्मी हस्तियों ने ‘गणेषोत्सव’ को ‘उत्सव’ की बजाय ‘बाजार’ का रूप दे दिया है.गणेशोत्सव का यही बाजारू रूप सिनेमा में भी नजर आने लगा है.अब सिनेमा में ‘गणेशोत्सव’,उत्सव या त्योहार नजर नही आता.

इतना ही नही बिहार में लोग दीवाली के छठे दिन ‘छठ पूजा’ का त्योहार मनाते हैं.पहले यह त्योहार सूर्य को जल देने की पूजा अर्चना के साथ मेला/उत्सव की षक्ल में मनाया जाता था.मतलब यह कि पहले ‘छठ पूजा’ पूरी तरह से सामाजिक मेला व सामाजिक उत्सव नजर आता था.लेकिन जब पत्रकार से राजनेता बने संजय निरूपम व कुछ भोजपुरिया कलाकारों का मंुबई में एक गठजोड़ बना,तब ‘छठ पूजा’ भी एक सास्कृतिक उत्सव या त्योहार की बजाय धार्मिक बाजार बन गया.और ‘छठ पूजा’ का यही आधुनिक रूप अब भोजपुरी सिनेमा में भी नजर आने लगा है. अब छठ पूजा का यह तीन दिवसीय मेला मंुबई के ‘जुहू बीच’ पर देखकर लोग सोचते है कि क्या यही भारतीय त्यौहार है? क्या यही भारतीय उत्सव है? क्योंकि संजय निरूपम और भोजपुरी फिल्म कलाकारों द्वारा मनाए जाने वाले इस ‘छठ पूजा’ मेले में कान फोड़ू शोरगुल, अश्लील नृत्य व गानों के बोलबाला के साथ नेतागण और कलाकार अपने आपको ही महान बताते हुए नजर आते हैं.मैं पिछले दस पंद्रह वर्षों से ‘छठ पूजा’ के जिस रूप को देख रहा हॅॅूं,उसकी मैंने कभी सपने मंे भी कल्पना नही की थी.तो वहीं समाज में जो कुछ हो रहा है,उसे फिल्मकार अपनी फिल्मों में पेश करने से बाज नही आते.

कारपोरेट राजनीतिज्ञों का संस्कृति या उत्सव से कभी संबंध नहीं रहा

कारपोरेट का संस्कृति ,भावनाआंे या उत्सव से कभी संबंध नहीं रहा.कारपोरेट का काम है चीजें बेचना.बाजार को बढ़ाना.धन कमाना.अफसोस अब सिनेमा के दीवानों के हाथ में सिनेमा रहा नही.सिनेमा जगत में कारपोरेट की घुसपैठ के बाद अब सीमेंट बेचने वाला तय कर रहा है कि दर्शक सिनेमा व टीवी सीरियल में क्या देखेगा? कारपोरेट ने ही रीयालिस्टिक षो  के नाम पर ‘बिगबौस’ जैसा कार्यक्रम परोसा है.

कारपोरेट की ही तरह राजनीतिज्ञों  या राजनेता का भी दूर दूर तक लोकसंस्कृति, उत्सवधर्मिता सहधर्मिता या ‘रस’ से रिष्ता नही है.

नवरात्रोत्सव पर राजनेताओं का कब्जा

नब्बे के दशक के बाद या यूं कहे कि फाल्गुनी पाठक के उत्कर्ष के साथ ही ‘नवरात्रोत्सव’ का बाजारीकरण हो गया था.लेकिन इस बार मुंबई के नवरौत्सव  पर ‘बाजार वाद’ के साथ ही ‘धर्म’ कुछ ज्यादा ही हावी नजर आ रहा है और यह पूर्णरूपेण राजनेता और कारपोरेट की मिली भगत का नतीजा है.पहली बार नवरात्रौत्सव मडल/ पंडालों में गणेषोत्सव की तरह ‘दुर्गादेवी’ की बड़ी बड़ी मुर्तियां स्थापित की गयी हैं..इनमें से ज्यादातार पांडाल राजनेता समर्थित हैं. इन पांडालों गरबा खेलने के लिए प्रति दिन दस रूपए से लेकर दस हजार रूपए तक वसूले गए.हर दिन हर पांडाल में किसी फिल्मी हस्ती को बुलाया गया.इतना ही नही सरकार ने उत्सव की इस दुकान पर खुद को बेचने मंे कोई कोताही नही बरती.धर्म के प्रचार,दुर्गा पूजा व भारतीय संस्कृति के प्रचार व प्रसार के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की जमकर धज्जियां उड़ायी गयी. शुक्रवार,शनीवार व रवीवार के दिन गरबा व डांडिया रास खेलने और दुर्गा पूजा के नाम पर कानफोड़ू संगीत बजाने शोरगुल करने के लिए रात साढ़े दस की बजाय रात  बारह बजे तक का समय तय कर दिया गया.मेट्रो की सेवाएं देर रात तक बढ़ा दी गयीं. यानी कि ‘नवरात्रोत्सव’ भी लोक संास्कृतिक उत्सव की बजाय धर्म का ऐसा बाजार बन गया,जहां हर राजनेता अपनी रोटी सेकने के लिए मौजूद नजर आता है.यानी कि उत्सव भी धर्म का बाजार के साथ ही वोट बैंक बनकर रह गए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखे गरबा गीत

जब देश का प्रधानमंत्री गरबा गीत लिखेगा तो किस तरह की संस्कृति/ उत्सव का बाजार लहलहाएगा? इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो गरबा गीत लिखे, जिन्हें नामचीन गायकांे से गवाकर फिल्म निर्माता वासु भगनानी और जैकी भगनानी की संगीत कंपनी ने आम लोगों तक पहुॅचाया.हम लोगों को याद दिला दें कि वासु भगनानी और जैकी भगनानी ने ही अक्षय कुमार के अभिनय से सजी डेढ़ सौ करोड़ की लागत वाली फिल्म ‘मिषन रानीगंज’ तथा टाइगर श्राफ व कृति सैनन के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘ गणपत’ का निर्माण किया है.बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल इन दोनों फिल्मों में फूहड़ तरीके से धर्म को ही बेचा गया है.जबकि फिल्म की कहानी व अन्य पक्षों की पूरी तरह से अनदेखी की गयी है.

कारपोरेट जगत में ऐसे तीरंदाज बैठे हुए हैं,जिनमें न संजीदगी,न रस,न संवेदना,न समझ है.इनके अंदर उत्सव व लोक संस्कृति को समझने की योग्यता भी नही है.कलात्मकता से तो इनका दूर दूर तक कोई नाता नही.आर्थिक उदारीकरण के चलते यह एनआरआई सिनेमा बनाकर आम दर्षक को लूटने व मूर्ख बनाने के साथ ही सिनेमा व कारपोरेट दोनों को बर्बादी के कगार पर ले जा रहे हैं.एमबीए व विदेष से षिक्षा लेकर आयी जमात ने ही ‘ईरोज इंटरनेषनल’, ‘अष्टविनायक’, ‘यूटीवी’ सहित कई कंपनियांे को डुबा दिया.

यश चोपड़ा सहित कुछ फिल्मकारों ने जिस तरह से ‘उत्सव’ का बाजारीकरण किया,उसके चलते समाज में ‘करवा चैथ’ का चलन तेजी से बढ़ा है.इसे भी सही नही माना जा सकता. क्योंकि  पहले हर महिला ‘करवा चैथ’ साधारण तरीके से मानती रही हैं.पर अब तो बहुत बड़ा बाजार बन चुका है.अब ‘करवा चैथ’ के नाम पर महंगी साड़ियां व गहने तक खरीदे जाते हैं.

दीपावली जैसे त्योहार भारतीय जीवन में इस तरह गुंथे रहे कि उसके बगैर हमारे सुख-दुख की अभिव्यक्ति ही संभव नहीं थी.यह त्योहार किसी न किसी रूप में हमारी संवेदना, हमारी सामाजिकता को प्रदर्शित करते थे. यदि बड़े पर्दे पर हर्ष का चरम दिखाना था, तो दीपावली जैसे त्योहार ही बहाने बनते थे, चाहे वह ‘खजांची’ में राजेंद्र कृष्ण के शब्द में कुछ ऐसे सुनाई दे-‘आई दीवाली आई, कैसे उजाले लाई घर-घर खुशियों के दीप जले, सूरज को शरमाए ये, चरागों की कतारें,रोज रोज कब आती हैं, उजाले की ये बहारें.’

उत्सव या त्योहार का अर्थ होता है समाज के हर तबके को एकता के सूत्र में पिरोना,लोगों को जोड़ना. नब्बे के दशक तक तो सिनेमा में इसी तरह से त्योहार चित्रित किए जाते थे.फिर चाहे वह होली का त्योहार हो या दीवाली का.फिल्म ‘‘शोले’’ के होली गीत को याद कीजिए.यह गीत और इस गीत के दृष्य समाज को एकजुट करने का का ही संदेश देता है.अब तो भारतीय सिनेमा में ‘होली का उत्सव’ और ‘होली गीत’ ही गायब हो गए हैं.फिल्म ‘ये जवानी हे दीवानी’ के होली गीत ‘बलम पिचकारी..’ देखकर क्या कहेंगें? वर्तमान पीढ़ी को तो पात ही नही होगा कि हारे हिंदी सिनेाम ने ही ‘होली आई रे’ जैसा होली गीत दिया था. वास्तव में पहले फिल्मों में त्योहार या उत्सव के गीत ‘समूहता’ के प्रतीक होते थे.सिर्फ त्योहार या उत्सव ही क्यों विवाह के बाद लड़की का ‘विदाई गीत’ भी ‘समूहता’ का ही प्रतीक होता था. अब इस तरह के विदाई गीत भी फिल्मों से गायब हो चुके हैं.

आजादी के बाद भारतीय सिनेमा पर मुस्लिम समुदाय ही हावी रहा.फिल्म के निर्माता,गीतकार, पटकथा लेखक सभी मुस्लिम ही होते थे.तब फिल्मों में मुस्लिम किरदार भी सही अनुपात में नजर आते थे.मगर अब तो फिल्मों से मुस्लिम किरदार गायब हो चुके हैं.हिंदू किरदारों में उच्च व ब्राम्हण वर्ग के किरदार ही नजर आते हैं.

हिंदी फिल्मों में होली व दीवाली के चित्रण में जमीन आसामान का अंतर आ चुका है.पहले फिल्मों में यह सभी त्योहार उत्सव की तरह नजर आते थे.ऐसे उत्सव जो समाज के हर तबके,वर्ग व धर्म के लोगों को जोड़ने का काम करते थे.नब्बे के दषक तक फिल्मों में चित्रित होने वाले होली व दीवाली के त्योहारों को हिंदू, मुस्लिम,सिख व ईसाई सभी धर्मावलंबी एक साथ मिलकर मनाते थे.पर अब पहले तो किसी फिल्म में यह त्योहार/ उत्सव नजर ही नही आते और अगर नजर भी आते हैं,तो इन्हे फूहड़ तरीके से ही चित्रित किया जाता है.

अब त्योहार /उत्सव कैसे मनाया जाए,इस पर पूरी तरह से कारपोरेट जगत का कब्जा हो चुका है.परिणामतः सिर्फ फिल्मों में ही नही बल्कि समाज में भी इन त्योहारो को  मनाने के तरीके /अंदाज बदल गए हैं.सिर्फ कारपोरेट जगत ही नहीं बल्कि राजनेता भी समाज पर अपने  अंदाज में दबाव बनाते हैं कि किसी भी त्योहार को,फिर चाहे वह ‘दही हांडी’ हो या ‘होली’ हो या ‘दीवाली’ हो या गणेषोत्सव या नवरात्रोत्सव हो या ईद का त्योहार ही क्यों न हो,यह सारे उत्सव च त्योहार कारपोरेट जगत व राजनेताओं की सोच के अनुसार ही मनाए जाने लगे हैं.

फिल्मों में गणेशोत्सव में शम्मी कपूर का नृत्य करना या संजय दत्त का नृत्य करना या रितेश देषमुख या सिद्धार्थ मल्होत्रा का नृत्य करने में जो बदलाव आया है,वह इसी बात की ओर इषारा करता है कि सिनेमा में उत्सव,त्योहार,लोकसंस्कृति  का विनाष ही हो रहा है.अब इन उत्सवों में ‘समूहता’ या सहउत्सव धर्मिता’ का घोर अभाव नजर आ रहा है.क्योंकि एमबीए पढ़कर या विदेशों में शिक्षा लेकर आने वालों की जिंदगी में ‘रस’ का अभाव होता है.यह सब ‘समूहता’ में यकीन करने की बजाय ‘एकल’ जीवन में यकीन करते हैं. यह लोग मटेरियालिस्टिकता को ही अपनाते हैं.और अपनी इसी सोच को सिनेमा के माध्यम से वह समाज पर देष पर थोपने का कम कर रहे है.अब हम याद दिला दें कि रमण कुमार ने अपने निर्देषन में बनी फिल्म ‘‘साथ साथ’’ में बाजारवाद व मटेरियालिस्टिक संसार के खिलाफ बात की थी.लेकिन इन्ही रमण कुमार  ने जब 1993 में सीरियल ‘तारा’ बनाया तो रिष्तों,संबंधों,उत्सव, ‘समूहता’ को तोड़ने की वकालत की.इसी सीरियल के बाद धीरे धीरे  फिल्मों में भी इसी का चलन हो गया.मसलन-फरहान अख्तर की फिल्म ‘दिल चाहता है’ में भी संबंध तोड़ने की ही बात है. ज्ञातब्य है कि रमण कुमार को ऐसा कारपोरेट के दबाव में करना पड़ा था.क्योंकि ‘तारा’ का प्रसारण सेटेलाइट चैनल ‘जीटीवी’ पर हुआ था, जिसके मालिक उद्योगपति सुभाषचंद्र गोयल हैं.

यदि हम बहुत गहराई से अवलोकन करे तो पता चलता है कि भारतीय सिनेमा में अमिताभ बच्चन की यंग्री यंग मैन के रूप में षोहरत मिलने के साथ ही कहानी, पटकथा ,संगीत व नृत्य सहित हर स्तर पर बदलाव आना षुरू हुआ था.फिर धीरे धीरे हिंसा के दृष्य बढ़ते गए तथा फिल्म से ‘लोक जीवन’ और ‘उत्सव’ खत्म होता गया.कई फिल्मकारों के अनुसार अमिताभ बच्चन के आगमन के दस साल बाद से उनके द्वारा मंुहमांगी पारिश्रमिक राशि मांगने के साथ ही बौलीवुड पर व्यावसायिकता हावी होने लगी थी,जिसे बाद में शाहरुख खान व अक्षय कुमार सहित दूसरे कलाकारों ने हवा दे दी.तों वही जीटीवी निर्मित फिल्म ‘गदरः एक प्रेम कथा’ से बौलीवुड पूरी तरह से कारपोरेट के चंगुल में फंसता चला गया. यह वह दौर था जब पहली बार कारपोरेट यानी कि अनिल अंबानी की कंपनी ‘रिलायंस इंटरटेनमेंट ’ ने अमिताभ बच्चन को पंद्रह सौ करोड़ रूपए में दस फिल्मों के लिए अनबंधित किया था.तब पहली बार एक कारपोरेट ने अक्षय कुमार को एक फिल्म के लिए 135 करोड़ रूपए दिए थे.

आश्चर्य की बात यह है कि यह सभी बड़े स्टार निजी जीवन में पारिवारिक संबंधों को अहमियत देते हैं,उत्सवधर्मिता में यकीन करते हैं,मगर फिल्म में परिवार, त्योहार,उत्सव ,समूहता की खिलाफत करने वाले किरदार निभाते हैं.यह उसी तरह से है,जैसे कि दक्षिण का हर कलाकार सेवा भावी व अति विनम्र है,पर फिल्म में हमेशा खॅूखार किरदार निभाते हुए अति लाउड आवाज में बात करते नजर आता है.यह सच्चाई है कि सिनेमा के परदे पर जिस तरह का जीवन जिया जा रहा है,जिस तरह के संबंध नजर आते हैं,उस तरह का जीवन /संबंध निजी जीवन मे नजर नही आता.सिनेमा से रिश्तेदार,हीरो का परिवार ,हीरो के दोस्त आदि भी गायब हो गए हैं.जब रिश्तेदार नही,सगा संबंधी नही,तो फिर ‘उत्सव’ या ‘समूहता’ या त्योहार या लोक संस्कृति कैसे होगी? हकीकत में हम सारे सांस्कृतिक त्योहार,उत्सव भूल रहे हैं,पर हर त्योहार पर धार्मिकता का रंग कुछ ज्यादा ही चढ़ गया है.धार्मिक तत्व हावी हो गए हैं.अब ‘होली गीत’ या ‘दीवाली’ गीत की जगह ‘पब’ संगीत की परंपरा ने ली है. यह गिरावत हिंदी फिल्मों मे ही ज्यादा है.भाषायी सिनेमा में आज भी संस्कृति/उत्सव का आधार नजर आता है.

अतीत में फिल्मों में त्योहार भारतीय संस्कृति के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाते रहे हैं.मिसाल के तौर पर 1976 में आई फिल्म ‘जीवन ज्योति’ में लता मंगेशकर की स्वरबद्ध गीत है,जिसमें गाय, तुलसी, मंदिर, रंगोली, परिवार भारतीय संस्कृति के तमाम प्रतीक खूबसूरती से झलकते हैं- ‘जिस गैया घर की बहू यूं तिलक लगाती है,वो गैया घर की मां बनकर,दूध पिलाती है…जिस द्वारे घर की बहू रंगोली सजाती है उस द्वारे घर के अंदर लक्ष्मी आती है.’ फिल्म ‘‘हम आपके हैं कौन’’ को भी याद किया जाना चाहिए.इसमें धर्म का प्रार नही किया गया,पर दिखाया गया कि त्योहारों का आयोजन और पारिवारिक उत्सव प्रत्येक व्यक्ति के लिए बाध्यकारी इकाइयों के रूप में कार्य करते हैं, जिनमें वफादारी, त्याग, प्रेम और समझौते की आवश्यकता होती है.फिल्म में परिवार में एक नए बच्चे के आगमन के साथ रोशनी के त्योहार का हर्षोल्लास मनाया जाता है.

वास्तव में सिनेमा में उत्सव को लेकर जो बदलाव नजर आ रहा है,उसका संबंध समाज से भी है.राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण प्रक्रिया का अंतद्र्वंद भी एक मूल वजह है.तो वहीं सिनेमा का अपना आंतरिक संघर्ष भी है.इतना ही नहीं हमारी शिक्षा भी लोगों के जीवन से ‘रस’ को खत्म करती है.तो वहीं हमारे देष की राजनीति ऐसे ब्यूरोक्रेट्स पैदा कर रही है,जिनका उत्सव/त्योहार,लोक संस्कृति से कोई लेना देना नही है.हमारे देष की वर्तमान राजनीति तो ब्यूरोक्रेट्स को धर्म, वह भी धार्मिक कट्टरता की वकालत करना सिखा रही है.

जहां तक फिल्मकारों का सवाल है,तो क्षमता,साहस,संवेदना की कमी के चलते यह फिल्मकार नकलची हो गए हैं और भारतीय फिल्मों को विष्व पटल पर पहुंचाने के नाम पर हौलीवुड फिल्मों की नकल करते हुए हिंदी फिल्में न सिर्फ बना रहे हैं,बल्कि उसी तरह के दृष्य भी पिरो रहे हैं.

क्या आज सिनेमा में जिस तरह से उत्सव,त्योहार,लोकसंस्कृति गायब हुई है,उसके लिए पूरी तरह से सिनेमा दोषी है.जी नहीं..क्योंकि सिनेमा समाज को नही बदलता,बल्कि समाज सिनेमा को बदलता है.जिस तरह से कारपोरेट और राजनेताओं की सोच बदल रही हे,जिस तरह से यह सभी समूह धर्मिता,उत्सव धर्मिता व संस्कार भूल रहे हैं और जिस तरह का धार्मिक उन्माद,धार्मिक कट्टरता समाज के अंदर फैला रहे हैं,वही सब सिनेमा में प्रतिबिंबित हो रहा है.यह राजनेता या कारपोरेट में कार्यरत लोग कहां से आए? यह सब भी हमारे देष का ही हिस्सा है. कमी हमारे अंदर है.हम हमारी युवा व भविष्य की पीढ़ी को  अच्छे संस्कार देने में विफल रहे हैं.हमने अपने बच्चों को एमबीए करा दिया या विदेश पढ़ने भेज दिया,पर उनके अंदर सहधर्मिता,उत्सवधर्मिता, समूहता आदि के बीज नही भरे.हमने उन्हे लोगों को साथ लेकर चलना नहीं सिखाया.हमने उन्हे उत्सव के सही मायने नहीं सिखाए.ऐसे में उन्होने जो कुछ सीखा,वही वह कर रहे हैं.तो जरुरत सिनेमा को बदलने स पहले समाज को व खुद को बदलने की है.

क्या आज की फिल्मों में ‘रक्षा बंधन’ का त्योहार नजर आता है.नहीं..रक्षा बंधन तो भाई बहन के प्यार व अपनत्व को मनाने का उत्सव है.पहले गीत बनते थे-‘‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना..’’

कुछ फिल्मकार तर्क देते है कि उन्होने बौलीवुड की फिल्मों को पूरे विष्व तक पहुॅचाने के लिए ‘उत्सव धर्मिता’ की बजाय आधुनिकता को फिल्मों में महत्व दे रहे हैं.जी हाॅ!  फिल्मकार अनीस बजमी कहते हैं-‘‘अब भारतीय सिनेमा वैष्विक दृष्टिकोण से बन रहा है.हर फिल्मकार कुछ नया करना चाहता है.ऐसे में सिनेमा में लोक संस्कृति, उत्सव, त्योहार आदि तलाषना ही गलत है.’’ पर वह भूल जाते हैं कि पूरे विश्व में प्रष्श्ंसित स्वय सत्यजीत रे की फिल्म ‘‘पाथेर पांचाली’ ग्रामीण भारत में खतरों की बात करने के साथ ही फिल्म के दो प्रमुख पात्रों दुर्गा व अप्पू के बीच भाई बहन के संबंधो की भी बात करती है.राज कपूर की फिल्म ‘बूट पाॅलिा’ समाज के वंचित तबके के सषक्तिकरण के साथ बेबी नाज और नरेंद्र रूपाणी की भी कहानी है.ष्षादी विवाह भी ‘समूहता’ व उत्सव ही है.फिल्म ‘‘सच्चा झूठा’’ में राजेष खन्ना का गीत ‘‘मेरी प्यााी बहनिया बनेगी दुल्हनिया’..फिल्म ‘हरे राम हरे कृष्णा ..’ का गाना-‘‘फूलों का तारा..सबका कहना है..’

भारतीय समाज हमेशा से समूह में रहना पसंद करता आया है.हमें नदियां,मेले,तमाषे,उत्सव,सावन के झूले हमेशा पसंद रहे हैं.क्यांेकि भारतीय समाज का आधर हमेषा से ‘आनंद’ ही रहा है.भारतीय समाज हर त्योहार को उत्सव की तरह मनाते हुए आनंद का अनुभव लेना चाहता है,जिसे अब सिनेमा से गायब कर दिया गया है.यदि अपनी पहचान, अपनी संस्कृति, अपने परिवार और अपने आपको बचाना है,तो अपनी दीपावली भी वापस लानी ही होगी.

अभिनेता निशांत दहिया के सपने क्या सच हुए? पढ़ें इंटरव्यू

‘फिल्म 83’ फेम अभिनेता निशांत दहिया ने मुख्य रूप से हिंदी फिल्मों में काम किया हैं, जिसमे टीटू एमबीए, मुझसे फ्रेंडशिप करोगे, मेरी प्यारी बिंदु आदि फिल्में शामिल हैं. निशांत ने मॉडलिंग से अपने अभिनय की शुरुआत की है और वर्ष 2006 में ग्रासिम मिस्टर इंडिया की प्रतियोगिता में भाग लिया, जिसमे वे फर्स्ट रनर अप रहे. बेस्ट स्माइल और मिस्टर फोटोजेनिक का टाइटल भी जीता. इसके बाद वे मुंबई आये और मॉडलिंग शुरू की. इससे उनकी पहचान इंडस्ट्री में बनी और उन्हें छोटी – छोटी भूमिका मिलने लगी. उन्होंने शुरू में जो भी काम मिला करते गए, क्योंकि इंडस्ट्री में पहचान बनाना आसान नहीं होता.

मध्यप्रदेश के जाट परिवार में जन्मे निशांत के पिता राजेंद्र सिंह इंडियन आर्मी में रहे और उनकी माँ उर्मिला एक हाउसवाइफ है. सरकारी पद पर कार्य करने की वजह से निशांत को देश के विभिन्न स्थानों पर जाना पड़ा. उनका एक बड़ा भाई प्रशांत दहिया भी सेना में है.

मिली प्रेरणा

निशांत कहते है कि मैं एक आर्मी परिवार से हूँ, मेरे पिता आर्मी में कर्नल थे, अब  रिटायर हो चुके है. मेरे दादा कर्नल रहे, वे भी रिटायर्ड है. मेरे बड़े भाई कर्नल है आर्मी में मेरे परिवार की तीसरी पीढ़ी चल रही है, पर मैं नहीं गया , क्योंकि भाई कश्मीर बॉर्डर पर है और पिता चाइना बॉर्डर पर रहे, ऐसे में माँ की इच्छा थी कि मैं उनके साथ रहूँ. उसी वजह से मैं आर्मी में नहीं गया. मैंने इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की, फ़ौज में सेलेक्ट भी हुआ, एक छोटी सी नौकरी भी किया, लेकिन अंत में मुंबई एक्टिंग के लिए आ गया, जबकि मैंने अभिनय के बारें में कभी सोचा नहीं था. मुझे परफॉर्म करना पसंद था. मुंबई आकर मैंने छोटे – छोटे काम करने लगा, इससे लोगों ने मुझे जाना और धीरे – धीरे बड़ा काम मिला. इस तरह एक फिल्म से दूसरी और दूसरी से तीसरी फिल्में की.

किये संघर्ष  

निशांत आगे कहते है कि बीच के 3 साल का दौर कभी ऐसा भी था, जब बहुत संघर्ष था और मुझे काम नहीं मिल रहा था. मैंने काफी अच्छे दोस्त खो दिए, रिश्ते टूटे, वित्तीय रूप से भी कमजोर रहा, लेकिन मेरी कोशिश हमेशा जारी रही और माता – पिता के आशीर्वाद से मैं यहाँ तक पहुँच पाया. आगे भी मेरी इच्छा है कि मैं अच्छा काम करू और दर्शकों का प्यार मिलता रहे.

सपना आगे बढ़ने का

निशांत की वेब सीरीज सुल्तान ऑफ़ दिल्ली डिजनी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हो चुकी है, जिसे सभी पसंद कर रहे है और निशांत खुश है कि उन्हें एक अच्छी वेब सीरीज में काम करने का अवसर मिला. उनका कहना है कि ये वेब सीरीज फिल्म की तरह है. इसकी कहानी बहुत रिलेटेबल है, क्योंकि देखा गया है कि सालों से लोगों का सपना सुल्तान यानि पॉवर को पाने का होता है. जिसमे उनके आपसी रिश्ते बंट जाने के अलावा बिगड़ भी जाते है.

इसके आगे निशांत कहते है कि हर व्यक्ति कामयाब होने का सपना देखता है. मैंने भी देखा है और उसी के अनुसार काम कर रहा हूँ. इसके लिए मुझे हर काम को चुनने से पहले सोच – विचार करना पड़ता है. मैं एक अभिनेता हूँ और अभिनय करना मेरा काम है. मैं अपने निर्णय स्क्रिप्ट को पढने के बाद लेता हूँ. स्क्रिप्ट फिल्म की है या वेब की इस बारें में नहीं पूछता, क्योंकि इतने कम्पटीशन में जहाँ इतने बड़े – बड़े एक्टर्स है, ऐसे में अगर कोई मेरे पास अपनी स्क्रिप्ट लेकर आता है, तो वह मेरे लिए बड़ी बात होती है, ऐसे में स्क्रिप्ट पसंद होने पर मैं कर लेता हूँ.

मैं जब छोटा था तो ओटीटी नहीं थी, थिएटर ही मुख्य था, ऐसे में जब बड़े पर्दे पर एक्टर्स को अभिनय करते हुए देखता था, तो मैं अपने मन में सोचता था कि शायद मैं भी कभी ऐसा काम कर सकूँ, तो मेरे लिए अच्छी बात होगी. ये दूर का सपना था और तब उस ख्याल से खुश हो जाता था. बड़े पर्दे पर दिखना मुझे पसंद रहा, लेकिन एक अच्छी कहानी का हिस्सा बनना ही मुझे बहुत अधिक अपील करती है.

मॉडल और अभिनेत्री अनुप्रिया गोयनका, त्यौहार को कैसे मनाती है, पढ़ें इंटरव्यू

मॉडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली विनम्र, सांवली रंगत, छरहरी काया की धनी अभिनेत्री अनुप्रिया गोयनका कानपुर की है. उन्हें बचपन से ही अभिनय की इच्छा थी, जिसमे उनके माता – पिता ने साथ दिया. विज्ञापनों में काम करते हुए उन्हें कई भूमिकाएं मिली, जिसमें फिल्म ‘टाइगर जिन्दा है, ‘पद्मावत’ और ‘वार’ में उसकी भूमिका को दर्शकों ने सराहा. अनुप्रिया को इंडस्ट्री में जो भी काम मिलता है, उसे अच्छी तरह करना पसंद करती है. फिल्मों के अलावा उन्होंने कई वेब सीरीज में भी काम किया है. डिजनी प्लस हॉटस्टार पर उनकी वेब सीरीज ‘सुल्तान ऑफ़ दिल्ली’ रिलीज पर है, जिसे लेकर वह बहुत उत्साहित है. उन्होंने ज़ूम पर अपनी जर्नी और सपने को साकार करने की संघर्ष को लेकर बात की आइये जानते है, उनकी कहानी उनकी जुबानी.

अभिनय को दी है प्राथमिकता

काफी सालों तक इंडस्ट्री में रहने के बावजूद उन्हें उस हिसाब से फिल्मों में कामयाबी न मिलने की वजह के बारें में पूछने पर अनुप्रिया कहती है कि मैं हमेशा से थोड़ी क्वालिटी वर्क करने के पक्ष में हूँ. भूमिका छोटी हो या बड़ी,  उस विषय पर मैंने कभी अधिक जोर नहीं दिया. मेरे लिए चरित्र और जिनके साथ काम कर रही हूँ वह अच्छा होना बहुत जरुरी है. जहाँ मुझे लगता है कि मैं कुछ उनसे सीखूंगी, नया चरित्र है, या काम करने में मज़ा आएगा, वहां मैं काम करना पसंद करती हूं. मैं रोमांटिक, ग्रामीण और कॉमेडी फिल्म करना चाहती हूँ. इसके अलावा मुझे पीरियड फिल्म बहुत पसंद है. अलग और क्वालिटी वर्क, जो अलग हो, उसे करना पसंद करती हूँ. मेरे पास जो स्क्रिप्ट आती है, उसमें से मैं अच्छी भूमिका को खोजकर काम करती हूँ.

मेहनत जरुरी

किसी भी नई भूमिका के लिए अनुप्रिया बेहद मेहनत करती है, वह कहती है कि हर फिल्म की एक ख़ास जरुरत होती है जैसे फिल्म ‘वॉर’ के लिए शारीरिक रूप से फिट महिला चाहिए था, उसके लिए मैंने काफी वर्क आउट किया, क्लासेज लिए. एक्शन फिल्म के लिए फिटनेस जरुरी होता है. पद्मावत फिल्म में मैंने रानी नागमती की भूमिका के लिए बहुत रिसर्च किया. मैं खुद भी राजस्थान से हूँ, इसलिए वहाँ की रीतिरिवाज से परिचित थी. फिर भी मैंने संवाद बोलने के तरीके को अच्छी तरह से सीखा. इस तरह से मैंने हर किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय देने की कोशिश किया है और उसके लिए जो भी जरुरी हो उसे अवश्य करती हूँ, ताकि भूमिका सजीव लगे.

 

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सपना एक महिला की  

वेब सीरीज सुल्तान ऑफ़ दिल्ली में अनुप्रिया शंकरी की भूमिका निभा रही है, जो  60 की दशक में क्राइम से सम्बंधित है. इस कहानी में स्वाधीनता के बाद लोगों ने किस प्रकार अपनी उम्मीदों को पूरा करने की कोशिश में लगे है, जिसमे एक नारी, पुरुषों की दुनिया में अपने अस्तित्व को बनाये रखने की कोशिश करती है. इसमें सबसे बड़ी उसकी हथियार उसकी सेक्सुअलिटी और सेंसुअलिटी है. दिमाग से तीखी भी है. वह ऐसी औरत है, जो अपनी मोरालिटी की वजह से पीछे नहीं हटती, जिसने सारी दुनिया देखीं है, उसे काफी चीजों का सामना करना पड़ा है. उससे निकलकर कैसे वह अपनी वजूद को साबित करना चाहती है और कई बार वह सिद्ध भी कर देती है कि वह पुरुषों से पीछे नहीं, बराबर है. उसकी कोशिश है कि वह सुल्तान भले ही न बने , लेकिन सुल्तान की साथी बनकर सभी पर राज्य करें.

 

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चुनौतीपूर्ण भूमिका

अनुप्रिया आगे कहती है कि इसमें चुनौती इंटिमेट सीन्स का था, जिसे कठिन परिस्थिति में शूट किया गया.  इसे करीब 45 डिग्री की तापमान के साथ – साथ उसमे तकनिकी चीजो का अधिक प्रयोग हुआ है. राजकोट में 5 घंटे की इस शूटिंग को गर्मी में करना मुश्किल था. इमोशनली भी कठिन था, क्योंकि इसके तुरंत बाद मुझे शादी के गेटअप में आना था. ये मेरे लिए यादगार दृश्य है और जब तक कुछ नया अभिनय न कर लूँ, ये दृश्य मेरे जीवन का सबसे अधिक कठिन और यादगार सीन ही रहेगा.

सपने देखना आवश्यक

सपने हर कोई देखता है, क्या आप अपने सपने तक पहुंच पाई? अनुप्रिया कहती है कि सपने तो मैंने देखे है और इसमें अगर जद्दोजहत न हो, तो जिंदगी का मजा कम रह जाता है. सब सही होने पर सिंपल लाइफ शुरू होता है. मेरे हिसाब से एक सपना पूरा होने पर दूसरा सामने आ जाता है. मैंने जो सोचा था उससे कही अधिक मुझे मिला है, मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक जानी – मानी एक्ट्रेस बनूँगी, मेरे कई लाख फैन फोलोवर्स होंगे. दर्शक मेरे काम की तारीफ करेंगे. ये मेरी एक जर्नी है, जिसमें मैंने धीरे – धीरे कामयाबी पाई है. मैंने अच्छे फिल्म मेकर्स और को स्टार के साथ काम किया है. मैंने जो सोचा उसी चरित्र को मैंने किया. इसके अलावा मेरे 4 से 5 मेरे लक्ष्य है, जिसे मैं पाना चाहती हूँ. जिसमे स्मिता पाटिल की ‘ मिर्च मसाला, रेखा की उमराव जान जैसे उन फिल्मों की इंतजार में हूँ और वैसी फिल्मों में काम करने की इच्छा रखती हूँ.

किये संघर्ष

अनुप्रिया कहती है कि मुझे यहाँ इंडस्ट्री में कोई जानने वाला नहीं है, ऐसे में मेरे लिए कोई कहानी लिखी नहीं जायेगी. मुझे काम ढूढना पड़ा और सब कुछ सीखना पड़ा. टाइगर जिन्दा है और पद्मावत फिल्म के बाद ऑडिशन देने की संख्या कम हो गयी है. ये मेरे लिए सबसे अधिक राहत है. इसके अलावा अभी भी आगे काम के लिए निर्देशकों से मिलना पड़ता है, पर मैं फिल्मों के अलावा विज्ञापनों में भी काम करती हूँ. आउटसाइडर के कलाकार का लर्निंग पीरियड हमेशा चलता ही रहता है.

इंटिमेट सीन्स समस्या नहीं

अन्तरंग दृश्यों को लेकर सहजता के बारें में पूछने पर अनुप्रिया कहती है कि मैं बहुत सहज हूँ, लेकिन सीन्स उस कहानी के साथ जाने की जरुरत होनी चाहिए. महिलाओं की कामुकता को उसकी गहराई को दिखाए बिना, मार्केटिंग के उद्देश्य से इंटिमेट सीन्स को दिखाने में मैं सहज नहीं और करना भी नहीं चाहूंगी. ऐसे दृश्य को बहुत ही मर्यादित तरीके से दिखाए जाने की जरुरत होती है, क्योंकि एक औरत में बहुत सारी चीजे होती है और उसे सम्हालना फिल्म मेकर का काम होता है.

 

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समय मिलने पर

अभी अनुप्रिया ह्यूमन ट्राफिकिंग पर कुछ काम करना चाहती है, जो देश में बहुत जरूरी है. इसके अलावा अनुप्रिया डांसिंग, सिंगिंग, पेंटिंग और गाने सुनती है.

महिलाओं के लिए अनुप्रिया का मेसेज है कि महिलाओं को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होने की जरुरत है. जिससे उनकी सोच और विचार को रखने के साथ -साथ कुछ कहने की आज़ादी मिलती है. तभी वे एक अच्छे भविष्य का निर्माण कर सकती है.

त्यौहार, परिवार के साथ

त्यौहार को अनुप्रिया मनाना बहुत पसंद करती है, वह कहती है कि त्यौहार में शुरू से मैं अपने परिवार के साथ रहना पसंद किया है. उस दिन साथ मिलकर खाना खाते है. त्यौहार की सबसे अधिक खास बात उस दिन को परिवार के साथ सेलिब्रेट करना होता है. इसके अलावा इसमें घर की साफ – सफाई और नए कपडे पहनना आदि भी उत्साहवर्धक होते है, लेकिन इसका स्वरुप अब बदल चुका है. मोबाइल फ़ोन के ज़रिये ही त्यौहार मनाया जाता है, जो मुझे पसंद नहीं. थोड़े समय साथ मिलकर खुशियों को मनाना ही इसमें प्रमुख होना चाहिए, जिसे दूर – दूर रहकर अनुभव नहीं किया जा सकता. किसी भी रिश्ते की मजबूती साथ रहने से होती है.

अभिनेता प्रेम परिजा सुपर पॉवर होने पर क्या करना चाहते है, पढ़ें इंटरव्यू

उड़ीसा के भुवनेश्वर में जन्मे अभिनेता प्रेम परिजा ने काफी संघर्ष के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी साख जमाने में कामयाब हुए है. उनकी डेब्यू वेब सीरीज कमांडो रिलीज पर है, जिसमें उन्होंने कमांडो की मुख्य भूमिका निभाई है. इसे लेकर वे बहुत उत्साहित है.

उन्हें बचपन से ही अभिनय की इच्छा थी. दिल्ली में हायर स्टडीज के साथ-साथ उन्होंने थिएटर में अभिनय करना शुरू किया, ताकि वे एक्टिंग सीख सकें. मुंबई आकर प्रेम ने पर्दे के पीछे कई फिल्मों के लिए असिस्टेंट डायरेक्टर का भी काम किया, जिसमे लखनऊ सेंट्रल, वेलकॉम टू कराची आदि कई है, जिससे वे फिल्मों की बारीकियों को अच्छी तरह से समझ सकें.

एक्टिंग था पैशन

प्रेम कहते है कि मैं 11 साल की आयु से अभिनय करना चाहता था. एक्टिंग मेरा पैशन रहा है. मैंने अपने पेरेंट्स को शुरु से ही इस बात की जानकारी दे दी थी. मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ, इसलिए मुझे अपनी राह खुद ही चुनना और उस पर चलना था. इसलिए मैंने संघर्ष को साथी समझा और आज यहाँ पहुँच पाया हूँ. मेरे आदर्श अभिनेता शाहरुख़ खान है, उन्होंने भी पहली टीवी शो फौजी में सैनिक की भूमिका निभाई थी और आज मैं भी पहली वेब सीरीज में कमांडो की भूमिका निभा रहा हूँ.

 

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मिला ब्रेक

कमांडों फिल्म में काम करने की उत्सुकता के बारें में पूछने पर प्रेम का कहना है कि मैंने भुवनेश्वर में रहते हुए छोटी उम्र से एक्टर बनना चाहता था. वहां से दिल्ली और फिर मुंबई आया, पर्दे के पीछे काफी सालों तक काम किया, ऐसे करीब 16 साल के बीत जाने पर अगर एक बड़ी हिंदी वेब शो जिसके निर्देशक विपुल अमृतलाल शाह है, उस फिल्म में काम करने का मेरा सपना, अब साकार होता हुआ दिखता है, इसकी ख़ुशी को बयान करना मेरे लिए संभव नहीं.

चुनौतीपूर्ण भूमिका

कमांडों की भूमिका में फिट बैठना आपके लिए कितना चुनौतीपूर्ण रहा? प्रेम कहते है कि मैं मुंबई में एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम छोड़ने के बाद एक्टिंग के बारें में जब सोचा, तब मेरे दो ट्रेनर अक्षय और राकेश ने मुझे बहुत स्ट्रोंग ट्रेनिग दिया और मुझे एक कमांडो तैयार किया. स्क्रिप्ट मिलने पर जब पता चला कि मुझे कमांडो विराट की भूमिका निभानी है, तो मैंने थोड़े एक्स्ट्रा मार्शल आर्ट सीखा, मसल्स बढ़ाए और इंटरनली स्ट्रोंग मानसिक भावनाओं पर भी काम करना पड़ा.

कठिन था फिल्माना  

कठिन दृश्यों के बारें में प्रेम कहते है कि इसमें दो ऐसे मौके थे जब मुझे उसे शूट करना कठिन था. मेरे पहले दिन की शूटिंग, जब मुझे कैमरे के सामने एक्टिंग करना पड़ा. पहला दिन मुझे तिग्मांशु धुलिया के साथ शूट करना था. उस दिन कॉन्फिडेंस आने में समय लगा. पहले सीन में 6 से 7 टेक लगे थे. इसके अलावा एक सीन में आँखों से 10 साल की दोस्ती को बताना था, जो बहुत कठिन था. इसे भी करने में 7 से 8 टेक लगे थे.

 

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मिली प्रेरणा  

प्रेम आगे कहते है कि मेर परिवार में कोई भी एक्टिंग फील्ड से नहीं है, मेरे परिवार के सारें लोग एकेडमिक प्रोफेशन में है. मेरे पिता एक प्रतिभावान व्यक्ति थे. जब मैंने पहली बार सबको अभिनय की इच्छा के बारें में बताया तो सभी चकित रह गयें. मैं छोटी उम्र से फिल्में बहुत देखता था और फिल्में मुझे आकर्षित करती थी. मुझे याद है कि मैं शाहरुख़ की अधिक फिल्में देखता था. उनकी एक फिल्म को देखकर लगा कि मुझे भी इसी फील्ड में आना है. उनकी फिल्में देखकर ही मेरी एक्टिंग की प्रेरणा जगी.

मिला सहयोग  

परिवार के सहयोग के बारें में प्रेम का कहना है कि शुरू में उन्होंने पढ़ाई पूरी करने को कहा और मैं स्टडीज में काफी अव्वल भी था, लेकिन थिएटर में मेरी रूचि को देखने के बाद उन्हें लगने लगा कि मैं वाकई अभिनय में इंटरेस्ट रखता हूँ और उन्होंने मुझे अभिनय के लिए सहयोग दिया. दिल्ली के कॉलेज में मैंने पढ़ाई के साथ-साथ थिएटर सोसाइटी में भाग लिया. वहां परिवार वालों ने मुझे डांस और अभिनय करते हुए देखा तो उन्हें भी समझ आ गई कि मेरा इसी फील्ड में जाना सही होगा और सहयोग दिया.

किये संघर्ष

दिल्ली से मुंबई आकर खुद की पहचान बनाना प्रेम के लिए काफी मुश्किल था. वे कहते है कि मैं संघर्ष के बारें में कितना भी बताऊँ वह कम ही होगा. मैं इसे अपनी जर्नी मानता हूँ, संघर्ष नहीं. दिल्ली में मेरी जर्नी ख़त्म होने के बाद मुझे मुंबई जाना सही लगा लगा. यहाँ आकर भी मुझे फिल्म बनाने के बारें में जानकारी हासिल करना जरुरी लगा. मुझे एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम 9 महीने के बाद मिला, जो डायरेक्टर निखिल अडवानी के साथ काम करने का था. मैंने उनके साथ कई फिल्मों के लिए काम किया और फिल्म बनाने की कला सीखी. शुरू में मैं खुद हर प्रोडक्शन हाउस में जाकर अपनी रिजुमे दिया करता था और एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम माँगता था. इस दौरान मैंने फिजिकल ट्रेनिग और अभिनय को भी चालू रखा.

 

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वित्तीय संघर्ष

9 महीने की गैप में आपने अपनी फिनेंशियल स्थिति को कैसे सम्हाला? इस प्रश्न के जवाब में प्रेम का कहना है कि उन दिनों फाइनेंस को सम्हालना बहुत मुश्किल था. पेरेंट्स के भेजे गए पैसे से दिन गुजारता रहा. कई बार बहुत मुश्किल होता था. मुझे याद आता है कि मैं जिस फ्लैट में रहता था, उसमे 14 लड़के रहते थे, बाथरूम एक था, ताकि रेंट बचाया जा सकें. उस वक्त पिता थे, तो उन्होंने फाइनेंसियली बहुत हेल्प किया.

रिजेक्शन से होती है मायूसी  

शुरुआत में हुए रिजेक्शन का सामना करना और आगे फिर से खुद को ऑडिशन के लिए तैयार करना आसान नहीं था, क्योंकि ऐसे में उन्हें खुद की फाइनेंसियल पहलू को भी ध्यान में रखना पड़ा. प्रेम सोचते हुए कहते है कि सबसे अधिक मैं इन सबसे निपटने के लिए खुद को अनुसाशन में रखना पसंद करता किया. इसमें मैं मेडिटेशन करता हूँ, इससे मुझे आत्मविश्वास और शक्ति मिलती है. रिजेक्शन तो होना ही है और इसे सहजता से लेना भी पड़ता है. नहीं तो इस इंडस्ट्री में काम करना संभव नहीं. कई बार बहुत मायूसी होती है, तब मैं अपनी माँ, बहन और कुछ दोस्तों से बातचीत कर लेता हूँ, जो मुझे मेरे पैशन को याद दिलाते थे. इसके अलावा मैं अभिनय की ट्रेनिंग पर बहुत अधिक फोकस करता हूँ. इन सभी को करने से मुझे स्ट्रेस नहीं होता.

सपना स्टार बनने का

ड्रीम के बारें में प्रेम कहते है कि मैंने इस देश का सबसे बड़ा स्टार बनने का सपना देखा है और उसी दिशा में मेहनत कर रहा हूँ. इसके अलावा सबसे अधिक मनोरंजन वाली फिल्मों और अभिनय से दर्शकों को खुश करना चाहता हूँ. मेरे पास सुपर पॉवर, स्ट्रेंथ की होनी चाहिए, ताकि मैं जरुरतमंदों को जी-जान से मदद कर सकूँ. मेरी माँ की सीख भी यही है.

खूबसूरत एक्ट्रेस रकुल प्रीत सिंह को सुपर पॉवर मिलने पर क्या बदलना चाहती है, पढ़े इंटरव्यू

फिल्म ‘यारियां’ से चर्चा में आने वाली मॉडल और अभिनेत्री रकुल प्रीत सिंह दिल्ली की है. उसने अपने कैरियर की शुरुआत मॉडलिंग से की है. हिंदी के अलावा उसने तमिल, तेलगू, कन्नड़ फिल्मों में भी काम किया है. माध्यम चाहे कोई भी हो, रकुल को किसी प्रकार की समस्या नहीं होती. उसे अच्छी और चुनौतीपूर्ण कहानियां प्रेरित करती है.

छरहरी काया और इंडस्ट्री की खूबसूरत रकुल को हर तरह की फिल्मों में काम करना पसंद है. उसे एडवेंचर और समुद्री तट अच्छा लगता है. कॉलेज के दिनों में वह गोल्फ प्लेयर भी रह चुकी है और फिटनेस को जीवन में अधिक महत्व देती है. गृहशोभा के लिए उन्होंने खास बात की पेश है कुछ खास अंश.

 

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सोशल फिल्में करना जरुरी

रकुल ने अब तक कई सुपरहिट फिल्में की है, जिसमे फिल्म ‘छतरीवाली’ काफी लोकप्रिय रही, क्योंकि ये सोशल मेसेज देती है. रकुल का कहना है कि इस फिल्म को करने का मकसद यही था कि लोग सेक्स एजुकेशन के बारें में खुलकर बात करें. हालाँकि सरकार ने इसे शिक्षा में अनिवार्य बताया है और पाठ में भी है, लेकिन बच्चे और अध्यापक इस पर आज भी बात करने से कतराते है.

लोग अपने दिल की बात कर सकते है, पेट से जुडी बिमारियों के बारें में बात कर सकते है, लेकिन रिप्रोडक्शन के बारें में बात क्यों नहीं कर सकते? इन सब बातों को नार्मल तरीके से लेना जरुरी है, क्योंकि ये एक बॉडी पार्ट है, इसी बात पर ये फिल्म फोकस करती है. इस फिल्म में मैंने सतीश कौशिक के साथ काम किया है, जो एक अच्छा अनुभव रहा, वे एक अनुभवी, मेहनती और खुश रहने वाले इंसान थे. उनको खो देना इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी लॉस है.

 

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इसके अलावा रकुल बेटी बचाओं बेटी पढाओं की ब्रांड एम्बेसेडर भी रही. इसका उद्देश्य छोटे शहरों और गावं में जाकर काम करना है. तेलंगाना के नालगोडा में जाकर रकुल इस पर काम किया. अभी उनकी रोमांटिक थ्रिलर फिल्म ‘आई लव यू’ जियो सिनेमा पर रिलीज हो चुकी है, जिसमे उन्होंने शोर्ट हेयर के साथ एक अलग लुक दिया है.

मिली प्रेरणा

रकुल कहती है कि बचपन मेरा खेलकूद में गुजरा, क्योंकि मैं एक फौजी की बेटी हूँ. 10वीं कक्षा के बाद मैंने फिल्में देखनी शुरू की थी, लेकिन मेरी माँ रिनी सिंह चाहती थी कि मैं अभिनय के क्षेत्र में कुछ करूँ, क्योंकि मेरी कद काठी अच्छी थी. उन्होंने मुझे मिस इंडिया में भी भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया था, लेकिन तब मुझे जाना नहीं था. 12वीं के बाद मुझे लगने लगा कि मैं मॉडलिंग करूँ और मैंने पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मॉडलिंग शुरू की, साथ में फिल्मों के लिए भी ऑडिशन देती रही. इस तरह इस प्रोफेशन में आ गयी.

मिला ब्रेक

रकुल आगे कहती है कि जब मॉडलिंग शुरू की थी तो मुझे साउथ की इंडस्ट्री के बारें में कोई जानकारी नहीं थी. मैंने पहली बार तो उन्हें मना भी कर दिया था, लेकिन बाद में फिल्म समझ कर अभिनय किया. इससे मुझे कुछ पैसे भी मिले. मैंने अपने पैसे से कार भी खरीद ली और अभिनय के बारें में बहुत कुछ सीखने को भी मिला. अभिनय में मुझे मज़ा भी आने लगा. मेरे लिए माध्यम कोई बड़ी बात नहीं है. काम करते रहना जरुरी है. ‘यारियां’ मेरी पहली हिंदी फिल्म सफल थी, जिससे काम मिलना थोडा आसान हुआ था.

नहीं हुई हताश

इंडस्ट्री में कभी रकुल को किसी गलत परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने कभी भी काम के लिए हताश नहीं थी. वह कहती है कि अगर आप हताश है और जब ये बात किसी को पता चलता है तो लोग उसका फायदा उठाने की कोशिश करते है. मुझे जो काम मिला उसे करती गयी. इसके अलावा मेरे पास एक अच्छी फॅमिली सपोर्ट है, जिससे ‘डू ऑर डाई’ वाली परिस्थिति कभी भी नहीं आई. मैं जानती हूँ कि ऐसे कई कलाकार है, जो काम की तलाश में यहाँ आ जाते है और संघर्ष करते है, पर अच्छा काम नहीं मिल पाता.

केवल ग्लैमर इंडस्ट्री ही नहीं, दुनिया में हर कोई लाभ उठाने के लिए बैठा है, ऐसे में आप उन्हें कितना उसे लेने देते है, ये आप पर निर्भर करता है. मेरी जर्नी अच्छी चल रही है, जितना मिला उससे संतुष्ट हूँ, लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है. अच्छे काम के लिए हंगरी हूँ. मैं इंडस्ट्री में जब आई थी, तो किसी को नहीं जानती थी, ऐसे में अपनी बलबूते पर आना, दक्षिण की फिल्मों और यहां की फिल्मों में बड़े- बड़े कलाकारों के साथ काम करना, इसे जब मैं देखती हूँ तो लगता है कि मैंने वाकई एक अच्छी जर्नी अबतक तय की है.

 

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इंटरेस्टिंग है कहानी

रकुलप्रीत सिंह आगे कहती है कि ‘आई लव यू’ की स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी. मुझे सत्या का ये चरित्र इंटरेस्टिंग और स्ट्रोंग लगा. ये एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो प्यारी है, फॅमिली वुमन है, काम भी अच्छा करती है, लेकिन जब मुसीबत आती है, तो कैसे कंट्रोल करती है, ये सारी बातें मेरे लिए नई और चुनौतीपूर्ण थी. ये फिल्म डर और गुप्त जैसी है, लेकिन अंतर यह है कि इस फिल्म में मेरी भूमिका सत्या लाचार नहीं, स्ट्रोंग है.

फिल्म शुरू करने के दो हफ्ते पहले मैंने कई वर्कशॉप किये है, जिसमे कलाकार के साथ निर्देशक भी थे. ये बहुत ही इनोवेटिव सेशन था, जहां चरित्र को पूरी तरह से समझने में कामयाबी मिली. फिल्म में एक्टिंग से अधिक रियल इमोशन को प्रयोग करना था. इसके अलावा मैंने अंडरवाटर ट्रेनिंग भी ली है. एक दृश्य में ढाई मिनट पानी के अंदर रहना पड़ा था.

इसे एक स्क्यूबा इंस्ट्रक्टर ने सिखाई थी. ये अलग चीजे करना ही मेरे लिए चुनौती होती है. आगे रकुल एक कम्पलीट लव स्टोरी करने की ड्रीम रखती है. वह कहती है कि मैंने अभी तक रोमांटिक लव स्टोरी नहीं की है. इसके अलावा मुझे हिस्टोरिकल फिल्म करने की इच्छा है, जिसमे हिस्टोरिकल ऑउटफिट पहननी पड़े. मैं एक डायरेक्टर की एक्टर हूँ और उनके विज़न के हिसाब से फिल्में करती हूँ, क्योंकि एक निर्देशक के सामने उसकी पूरी फिल्म होती है. कुछ भी अलग करने की इच्छा होने पर निर्देशक के साथ बैठकर चर्चा कर फिर उसे अमल करती हूँ.

खूबसूरत अभिनेत्री होने का फायदा

इंडस्ट्री की खुबसूरत अभिनेत्री होने का कोई फायदा या नुकसान के बारें में पूछने पर रकुल हंसती हुई कहती है कि कोई सुंदर होने पर न तो नुकसान होता है और न ही कुछ फायदा. असल में काम के प्रति डेडीकेशन, हार्ड वर्क, एक्टिंग स्किल्स, आदि ही मुख्य होता है, क्योंकि मैं जानती हूँ कि मुझसे भी अधिक सुंदर और प्रतिभावान कलाकार अवश्य इंडस्ट्री में होंगे, लेकिन मुझसे अधिक हार्ड वर्क करने वाला कोई नहीं होगा. ये सब किसी को भी आगे बढ़ने में हेल्प करता है. आगे हिंदी और तमिल में कई फिल्में आने वाली है और कुछ की शूटिंग शुरू होने वाली है.

मिला पिता का सहयोग

रकुल का कहना है कि मेरे परिवार का मेरे काम के प्रति बहुत सहयोग रहा है. पिता कर्नल के जे सिंह के साथ बिताया मेरे कई पल है, खासकर जब मैं घर से दूर रहती हूँ तो वे पल काफी याद आते है. आज जो मैं हूँ, मेरी कॉन्फिडेंस, मेरी वैल्यू सिस्टम, अनुसाशन सब मेरे पिता की वजह से मेरे अंदर आये है. मैंने 18 साल की उम्र में अभिनय शुरू किया था, उस समय पिता ने मुझे किसी से बात करना तक सिखाया है .

मेरे अकाउंट मेरे पिता ही हैंडल करते है. किसी भी स्ट्रेस को मैं उनसे डिस्कस करती हूं, वे मेरे लिए एक स्ट्रोंग पिलर है. बचपन मैं बहुत अच्छी बच्ची थी, किसी प्रकार की शैतानी करने पर भाई पर डाल देती थी. उसे ही डांट पड़ती थी. मेरा सभी यूथ के लिए सन्देश है कि जब हम छोटे होते है, तो लगता है कि हमारे पेरेंट्स हमें नहीं समझते, लेकिन जब बड़े होते है, तो समझ में आती है कि उनसे बेहतर हमें कोई भी समझ नहीं सकता.

आज के यूथ को इसकी समझ होना जरुरी है. खासकर इंडियन पेरेंट्स की पूरी जिंदगी बच्चों की परवरिश में लग जाती है, इसलिए उनकी दी हुई सीख को जीवन में उतारना है और अपने पेरेंट्स की देखभाल जितना हो सकें, दिल से करें, उन्हें कभी दुःख न दें. करती हूँ खुद की देखभाल वह आगे कहती है कि मानसून स्किन के लिए सबसे सुरक्षित समय होता है, विंटर और समर में स्किन की समस्या सबसे अधिक होती है.

मैं अधिक पानी पीती हूँ, वर्कआउट करती हूँ, ताकि पसीने से शारीर की टोक्सिन्स बाहर निकलती रहे और ये मेरे रोज का रूटीन रहता है, जिसमे समय से खाना, सोना, स्किन को हमेशा मोयास्चराइज करना, मेकअप उतार कर सोना और सबसे जरुरी होता है, अंदर से खुश रहना. इससे किस भी सीजन में स्किन हमेशा ग्लो करती है. अंत में वह मुस्कुराती हुई कहती है कि सुपर पॉवर मिलने पर मैं पूरे देश से क्राइम और नकारात्मकता को हटाना चाहती हूँ.

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