काम के साथ परिवार का सामंजस्य कैसे करती है अभिनेत्री परिवा प्रणति, पढ़ें पूरी इंटरव्यू

परिवा प्रणति आज एक खूबसूरत और विनम्र अभिनेत्री के रूप में जानी जाती है. उन्होंने हिन्दी फिल्मों और धारावाहिकों में काम किया है. धारावाहिक तुझको है सलाम जिंदगीं, हमारी बेटियों का विवाह, अरमानों का बलिदान, हल्ला बोल, हमारी बहन दीदी, लौट आओ त्रिशा, बड़ी दूर से आये हैं आदि कई है. परिवा का जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ है. उनके पिता एक वायु सेना अधिकारी हैं. पिता का जॉब में बार – बार स्थानांतरण होने की वजह से परिवा कई शहरों में रह चुकी है. उनकी पढ़ाई दिल्ली में पूरी हुई है. ऐक्टिंग के दौरान परिवा को, ऐक्टर और वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर पुनीत सचदेवा से प्यार हुआ और शादी की. उन दोनों का एक बेटा रुशांक सिन्हा है. परिवा अपने खाली समय में पेंटिंग करना, लिखना और सूफी संगीत सुनना पसंद करती है, परिवा एक पशु प्रेमी है, उन्होंने कई बिल्लियां और कुत्ते पाल रखे है. इन दिनों परिवा सोनी सब पर चल रही शो वागले की दुनिया – नई पीढ़ी नए किस्से में वंदना वागले की भूमिका निभा रही है, जिसे सभी पसंद कर रहे है, रियल लाइफ परिवा एक बच्चे की माँ है, काम के साथ परिवार को कैसे सम्हालती है, आइए जानते है. 

मां की भावना को समझना हुआ आसान  

शो में परिवा माँ की भूमिका निभा रही है और रियल लाइफ में माँ होने की वजह से उन्हें एक माँ की भावना अच्छी तरह से समझ में आती है. वह कहती है कि बन्दना वागले की भूमिका मेरे लिए एक आकर्षक भूमिका है, इसमें मैँ दो बच्चे सखी और अपूर्वा की माँ हूँ, जिसमें बेटी समझदार है और बेटा थोड़ा शरारती है. देखा जाय, तो रियल लाइफ में भी बेटियाँ बेटों से थोड़ी अधिक समझदार होती है, वैसा ही शो में दिखाया गया है. रियल लाइफ में मेरा बेटा रुशांक सिन्हा 6 साल का है और बहुत शरारती भी है. असल में जब मैँ माँ बनी तो माँ की भावनाओं को समझ सकी, जिसका फायदा मुझे शो में मिल रहा है. मुझे याद आता है, जब मैँ काम कर रही थी, तो मेरी मा रोज मुझसे बात किये बिना नहीं सोती थी, लेकिन अब मैँ माँ की भावना को समझती हूँ. पेरेंट्स बनने के बाद मेरी हमेशा चिंता बच्चे की शारीरिक रूप से सुरक्षित रहने में होती है. 

काम के साथ करें प्लानिंग 

काम के साथ परिवार को सम्हालने के बारें में पूछने पर परिवा कहती है कि मैंने हमेशा कोशिश की है कि बच्चे को पता चले कि मेरा काम करना जरूरी है, साथ ही उसे हमेशा कुछ नया सीखने के लिए मैँ उसे प्रेरित करती हूँ, ताकि वह छोटी उम्र से ही कुछ सीखता रहे और व्यस्त रहें. धीरे -धीरे मेरा बेटा अब काफी कुछ समझने लगा है कि मेरा काम पर जाना जरूरी है. इसके अलावा मेरे पति और एक हेल्पिंग हैन्ड है, जो उसका ख्याल रखते है. कई बार जरूरत पड़ने पर मेरे पेरेंट्स भी सहयोग करने आ जाते है. बच्चे को सम्हालने में पति का अधिक सहयोग रहता है, उनका मेरे बेटे के साथ एक अलग दोस्ती है. मेरे पति भी हमेशा बेटे को कुछ नया सीखने की कोशिश करता है, उसे अभी टेनिस खेलने ले जातें है, बेटे को कुछ खाने को मन हुआ तो वे उसे बनाकर दे देते है. हम दोनों आपस में मिलकर अपने समय के अनुसार बेटे की परवरिश कर रहे है. मेरे पति ऐक्टर के अलावा वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफ़र भी है, इसलिए मैँ बेटे को कई बार जिम कॉर्बेट नैशनल पार्क और ताडोबा नैशनल पार्क लेकर गए है, उसे भी ये सब पसंद है. 

जरूरत से अधिक प्रोटेक्शन देना ठीक नहीं 

अधिकतर बच्चे खाना खाने में पेरेंट्स को परेशान करते है, ऐसे में आप बच्चे को किस प्रकार से खाना खिलाती है? मैंने हमेशा घर का खाना खिलाने की कोशिश किया है, अगर वह सब्जियां नहीं खाता है, तो उसे पीसकर आटे में मिला देती हूँ, जिसे वह खा लेता है. अधिक समस्या करने पर नाना – नानी के पास भेज देती हूँ. मेरे पिता फौजी में थे, इसलिए अनुसाशन बहुत कड़ी रहती है, इसलिए वहाँ जाकर सब खाने लगता है. मैँ बेटे को लेकर अधिक प्रोटेक्टिव नहीं, क्योंकि मैँ उसे भोंदू बच्चा नहीं बनाना चाहती, लेकिन उसकी सुरक्षा पर ध्यान देती हूँ और एक आत्मनिर्भर बच्चा बनाना चाहती हूँ. हम दोनों उस पर अपनी इच्छाओं को थोपते नहीं, उसे निर्णय लेने की आजादी देते है. मैंने देखा है कि कई बार पेरेंट्स अपने बच्चे की गलती नहीं देखते, जो गलत होता है.  हमें अपने बच्चे की गलती भी पता होनी चाहिए. मैँ बचपन में बहुत समझदार बच्ची थी और सुरक्षित माहौल में बड़ी हुई हूँ. आजकल के बच्चे जरूरत से अधिक सेंसेटिव होते जा रहे है, जो पहले नहीं था. मुझे हमेशा कहा गया कि ‘नो’ सुनना भी हमें आना चाहिए. मेरे पेरेंट्स ने कभी किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला. जब मैंने उन्हे ऐक्टिंग की बात कही, तो उन्होंने मना नहीं किया, बल्कि सहयोग दिया.

एक्टिंग नहीं था इत्तफाक 

परिवा कहती है कि मुझे बचपन में बहुत कुछ बनना होता था, हर दो महीने में मेरी इच्छा बदलती थी, फिर पता चला कि एक ऐक्टर बहुत कुछ ऐक्टिंग के जरिए बन सकता है, फिर मैंने इस क्षेत्र में आने का मन बनाया. मैँ ऐक्टिंग को बहुत इन्जॉय करती हूँ.  

जर्नी से हूँ खुश 

परिवा कहती है कि मैँ अपनी जर्नी से बहुत खुश हूँ, जितना चाहा उससे कही अधिक मुझे मिला है. ऐक्टिंग के अलावा मैं कहानियां भी लिखती हूं, एक किताब लिखने की इच्छा है. 

हाउसवाइफ से मेयर बनने तक का सफर: अनामिका मिथिलेश

देश की राजधानी दिल्ली में स्थित, सब से ऊंची सरकारी इमारत, ठीक रामलीला मैदान के सामने, सिविक सेंटर. नीले शीशों की इस इमारत के ए ब्लोक में तीसरे फ्लोर पर बैठतीं हैं साउथ दिल्ली म्युनिसिपल कोरपोरेशन की मेयर, अनामिका मिथिलेश सिंह (40). गोरा रंग और औसत कद काठी की अनामिका, किसी भी आम व्यक्ति को साधारण महिला सी दिखाई देंगी, लेकिन अपने मजबूत इरादों और नेतृत्व क्षमता के बदौलत वह असाधारण मुकाम तक पहुंची हैं.

नोर्मली जब कभी राजनीति की बात होती है तो मुख्य रूप से हमारे दिमाग में मर्दों का ही चेहरा नजर आता है. सिर्फ राजनीति ही क्यों, घर के बाहर कोई भी काम क्यों न हो, पुरुषों को ही उस का कर्ताधर्ता बताया जाता है. वहीँ, महिलाओं को घरों के भीतर ही समेट दिया जाता हैं.
इसी मेंटेलिटी को भाजपा पार्टी से निर्वाचित दक्षिणी दिल्ली म्युनिसिपेलिटी की मेयर अनामिका चैलेंज करती हैं, जो बिहार के छोटे से गांव मुरलीगंज कसबा, जिला मधेपुरा से आती हैं. अपने स्कूल के दिनों से ही ब्राइट छात्रा रहीं अनामिका ने राजधानी दिल्ली की मेयर बन कर महिलाओं को राजनीती में आने की प्रेरणा दी है.

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2017 में दिल्ली एमसीडी के चुनाव हुए थे जिस में अनामिका हरी नगर-बी वार्ड से निगम पार्षद बनीं. यह एक दुर्भाग्य है कि अधिकतर दिल्लीवासियों को अभी तक यह नहीं पता कि नगर निगम क्या है और यह कैसे काम करती हैं. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को 3 नगर निगमों द्वारा संचालित किया जाता है. एनडीएमसी, एमसीडी और दिल्ली कन्टेनमेंट बोर्ड. साल 2012 में दिल्ली एमसीडी को 3 हिस्सों में बांटा गया, नोर्थ दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन (104 सीटें), साउथ दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन (104 सीटें) और ईस्ट दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन (64 सीटें). कुल मिला कर 272 सीटें हैं, जिन में से 3 मेयर और 3 डिप्टी मेयर चुने जाते हैं.
24 जून 2020 को अनामिका मिथिलेश के कार्यों को सराहते हुए उन्हें दक्षिणी दिल्ली नगर निगम से मेयर बनाया गया. मेयर का काम केवल विभिन्न सेरेमनी में रिबन काटना ही नही होता बल्कि इस से कहीं ज्यादा होता है. सदन में अध्यक्षता के अलावा वे नई परियोजनाओं का सुझाव दे सकते हैं, अधिकारियों को बुला सकते हैं और यहां तक ​​कि सिविल कार्य में तेजी लाने के लिए एडवांस अप्रूवल दे सकते हैं.
इसी के चलते हम मेयर अनामिका मिथिलेश से मिलने, उन के ओफिस चल दिए. सिविक सेंटर पहुंचें तो, सिक्यूरिटी गार्ड ने गेट नंबर 5 से प्रवेश करने के लिए कहा. गेट पास बना कर हम ए ब्लोक में तीसरे फ्लोर पर मेयर के ओफिस पहुंचें तो, हमें कुछ देर रुकने को कहा गया. थोड़े इंतज़ार के बाद जब फाइनली ओफिस में एंटर हुए तो देखा की मेयर अपनी कुर्सी पर बैठे, अपने रूटीन वर्क में बीजी थीं.
अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए अनामिका कहती हैं, “स्कूल के दिनों से ही मैं सभी कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भूमिका निभाती रहती थी. अपने स्कूल में मैं सभी शिक्षकों की चहेती थी. कुछ समय बाद स्कूल की तरफ से मुझे एक्टिविटीज के लिए अध्यक्ष भी चुना गया. स्कूल के दिनों से ही मुझे सोशल एक्टिविटीज में भाग लेना बहुत अच्छा लगता था.”

कुछ इस तरह से अनामिका अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जीवन में आगे बढ़तीं रहीं हैं. लेकिन अनामिका का राजनीतिक सफर आननफानन में ही शुरू नहीं हुआ, बल्कि उन के नाना 15 सालों तक बिहार में एमएलसी (म्युनिसिपल लेजिस्लेटिव कौंसिलर) रह चुके थे. यह बताते हुए उन्होंने कहा, “राजनीति की तरफ मेरा झुकाव बचपन से ही रहा है. पहले मेरे नाना और फिर शादी के बाद मेरे पति दोनों से ही मुझे सीखने के लिए बहुत कुछ मिला है और फाइनली मेरा जो मेरा बनने का पैशन था वह मैं ने हांसिल किया.”
अकसर देखा जाता है कि किसी भी सफल महिला के लिए उन की पर्सनल लाइफ और प्रोफेशनल लाइफ को बैलेंस करना बेहद मुश्किल हो जाता है. खासकर तब जब बात किसी महिला राजनेता की हो, जिन की प्रोफेशनल लाइफ ही पब्लिक सेवा में हो. ऐसे में अनामिका भी अपने जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए समय के अनुसार सारे काम करना पसंद करती हैं.

वह बताती हैं, “मैं शिक्षक की बेटी हूं और शुरुआत से ही डिसिप्लिन माहौल में मेरी परवरिश हुई है. इसीलिए मुझे कोई भी काम करना ज्यादा टफ नहीं लगता, क्योंकि बचपन से मेरे घर, परिवार और स्कूल में मेरी ट्रेनिंग ही ऐसे हुई है कि मैं सारे काम अपनी पूरी जिम्मेदारी से कर सकूं.”
वह आगे कहती हैं, “जब मैं घर पर होती हूं तो मेरे पति की क्या आवश्यकता है, उन के साथ मेरी अच्छी अंडरस्टैंडिंग बने, उस की जिम्मेदारी मैं अच्छे से निभाती हूं. मैं एक अच्छी मदर कैसे बनूं, इस के लिए वीकेंड पर कोशिश करती हूं कि पूरा दिन मैं अपने दो बेटों के साथ गुजार सकूं.

“इस के अलावा हर रात काम से घर पहुंच कर अपने बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करती हूं. उन से बात करती हूं. अपने पिता की अच्छी बेटी कैसे बनूं, इस के लिए मैं समयसमय पर उन से बात करती रहती हूं. उन से अलगअलग चीजों के ऊपर सलाह मशविरा लेती हूं.”

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दक्षिणी दिल्ली मेयर के पद पर आसीन एक महिला का होना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है. जब हम बात करते हैं पुरुषों की तो राजनीति में मर्दों के जीवन में एक सेट विजन होता है, और वह अपने उस विजन के पदचिन्हों पर चलते हुए अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं. जिन पर सिर्फ अपने करियर को बनाने की जिम्मेदारी होती है. लेकिन महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा नहीं होता. यदि कोई महिला राजनीति में है तो वह एक साथ कई रोल अदा करती है. उदाहरण के लिए अनामिका को ही देखा जा सकता है. वह केवल दक्षिणी दिल्ली की मेयर ही नहीं है, बल्कि जब वह घर में होती हैं तो वह पत्नी, मां, बेटी, बहु इत्यादि होती है. ऐसे में हमारे समाज में किसी महिला का राजनीति में होना मात्र ही अपनेआप में बहुत बड़ी बात है.
राजधानी दिल्ली की मेयर होने के साथ ही वह राजनीति के दांव पेंचों को बेहद बखूबी समझती हैं. उन से बात करते हुए उन की राजनीति में सक्रियता झलक रही थी. वह इस समय दिल्ली सरकार और एमसीडी के बीच चलने वाली घमासान को ले कर काफी सक्रीय हैं. फिर चाहे सीएम का घेराव करना हो, मांगों को ले कर भूख हड़ताल करना हो या फिर आन्दोलन करना हो.

इसी खींचतान को ले कर जब उन से सवाल पूछा गया तो उस के जवाब में उन्होंने बताया कि, “एमसीडी में आने वाली तीनों निगम, दक्षिणी, उत्तरी और पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अपनीअपनी मान्यताएं और अपनेअपने काम हैं. संविधान की गाइडलाइन्स के अनुसार, किसी भी निकाय का खर्च वहां की राज्य सरकारें देंगी. प्रत्येक वर्ष दिल्ली फाइनेंस कमीशन की तरफ से, दिल्ली सरकार को बजट मुहैय्या करवाया जाता है. और केजरीवाल सरकार निगम के पैसे को, दिल्ली की खून पसीने से कमाए पैसे को, देश के अलग अलग राज्यों में अपने चेहरे चमकाने के लिए खर्च करती है जिस का बकाया 13 हजार करोड़ रूपए है.”

“कोरोना काल में अपनी जान से हाथ धो बैठे कर्मचारियों को दिल्ली सरकार ने एक पैसा नहीं दिया. पिछले 6 सालों जब से केजरीवाल साहब दिल्ली संभाल रहे हैं, तब से तीनों निगमों का 13 हजार करोड़ रूपए दिल्ली सरकार पर कर्जा है. इतना अनुरोध करने के बावजूद, दिल्ली सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी है. विवश हो कर निगम कर्मचारियों के फंड के लिए हमें, इस सर्द और ठिठुरती हुई रात में, उन के घर के बाहर बैठना पड़ा, और पाषाण ह्रदय वाले केजरीवाल एक बार भी हम से बात करने बाहर नहीं निकले.”
राजनीति में महिलाओं की संख्या ज्यादा से ज्यादा बढ़ सके इस के लिए अनामिका देश की युवतियों को संदेश देते हुए कहती हैं, “महिलाओं का नेचर ही ऐसा होता है कि वह कोई भी चुनौती को स्वीकार कर उसे सकारात्मक रूप भी देती है. आज का दौर तो महिलाओं के लिए ही बना है, चाहे वह कोई भी फील्ड हो हर फील्ड में महिलाएं नजर आती है और काफी महत्वपूर्ण पद हासिल करती हैं. भारत की राजनीति में महिलाओं का बहुत उज्जवल भविष्य है, जरुरत है अपने डर को खत्म करने की और कदम आगे बढ़ाने की.”

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वादे हैं वादों का क्या

हमारे देश के लगभग सारे शहर बड़े अस्तव्यस्त हैं. चंडीगढ़ और गांधीनगर जैसे नए शहर भी 40-50 सालों में बुरी तरह टूटीफूटी सड़कों पर कच्ची दुकानों, कोनों में गुमटियों, मैदानों में झुग्गियों की बस्तियों से भरे पड़े हैं. पुराने शहरों का तो कुछ कहना ही नहीं. स्मार्ट सिटी का जो नारा दिया जाता है वह पंडों द्वारा यज्ञ करो, दान करो और धनधान्य पाओ जैसा होता है. मिलता कुछ नहीं, खर्च बहुत ज्यादा हो जाता है.

दिल्ली में बारबार मास्टर प्लान बनते हैं. अब 2041 की विशाल दिल्ली की योजनाएं बन रही हैं. बड़ीबड़ी बातें हो रही हैं पर हाल यह है कि इतने बड़े शहर में मास्टर प्लान के मसौदे पर अपने विचार देने के लिए सिर्फ 70 लोग आए, बाकी को पता है कि यहां सरकार को सुनना नहीं आता, तोड़ना और रिश्वत लेना ज्यादा आता है. क्या फायदा है 20 साल बाद की सोचने का जब अगले 20 दिन का पता नहीं.

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नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को 21 दिनों में कोरोना पर फतह पा लेने का वादा किया था. क्या हुआ? वैसे भी 2-3 घंटे में 70 लोगों की बातें भारीभरकम दस्तावेजों को ले कर सुनना संभव कहां है.

दिल्ली ही नहीं हर शहर, कसबे की औरतें अब इस बात को तैयार हो गई हैं कि उन्हें बदबूदार सड़कों, तंग गलियों, भयंकर प्रदूषण, खतरनाक ट्रैफिक में जीना है. जिस के पास पैसा है वह अपना अंदरूनी घर ठीक कर रहा है, बाहर की साजसज्जा, साफसफाई की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. वैसे भी मकान अगर आकर्षक लगे तो पड़ोसियों को ईर्ष्या होती है और सरकारी लोगों का रिश्वत का रेट बढ़ जाता है.

मास्टर प्लान में भी सोलर पैनलों का हल्ला कुछ ज्यादा मचाया गया है. लोग लगवा भी लेते हैं पर सस्ते और जल्दी खराब होने वाले सोलर पैनलों से बिजली का वही हिसाब है जैसा वाटर हारवेस्टिंग से पीने के पानी का. ये सरकारी चोंचले बन कर रह जाते हैं और शहरों के मास्टर प्लानों की उपज होते हैं. इन मास्टर प्लानों पर अरबों रुपए खर्च करे जाते हैं पर आखिर में शहर में रहने वालों को कुछ नहीं मिलता.

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हमारे यहां की शहरी जिंदगी एक जंगल की तरह है जहां पेड़पौधों की तरह टेढ़ेसीधे उगे मकान होते हैं और इन में औरतों को हर समय जंगल का सा डर रहता है. ऊपर से गंद और बदबू बोनस में मिलती हैं. दिल्ली का कल्याण पिछले मास्टर प्लानों से कुछ भी नहीं हुआ, अब तो बिलकुल नहीं होगा.

एक बार फिर दिल्ली हुई शर्मसार

एक स्त्री की आत्मा उसी वक्त आत्महत्या कर लेती है जब उसके साथ बलात्कार होता है. ये घटना उस स्त्री को अन्दर से तोड़कर रख देती है, लेकिन उस छोटी सी बच्ची का क्या जिसे इसका मतलब भी नहीं पता और वे एक हैवान की हैवानियत का शिकार हो गई.

हाल ही में एक सनसनीखेज वारदात से दिल्ली फिर दहल गई. एक मासूम बच्ची की अस्मत के साथ खिलवाड़ किया गया. उस बच्ची को आरोपी टौफी दिलाने के बहाने ले गया और फिर झाड़ियों में ले जाकर कुकर्म को अंजाम दिया. फिलहाल आरोपी को सीसीटीवी फुटेज की मदद से गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन बच्ची की हालात नासाज है. वे जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बच्ची की हालत को जानने अस्पताल पहुंचे थे.

आखिर कब तक होगा ये सब…

पीड़ित परिवार को मुआवजा देने की बात भी कही, लेकिन अब सवाल ये है कि आखिर कबतक? कबतक इस तरह की वारदात होती रहेगी और दिल्ली सरकार कर क्या रही है? एक बार फिर से इस घटना ने दिल्ली को कटघरे में ला कर खड़ा कर दिया है. आज से कुछ साल पहले जब देश की राजधानी दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था तब पूरी दिल्ली सड़क पर उतर आई थी तब सरकार ने कहा था कि इसके लिए कड़े से कड़े कानून बनाए जाएंगे. लेकिन आज जब फिर से दिल्ली में निर्भया जैसी घटना घटी तो फिर से राजनेता अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने में लग गए हैं. क्या उस बच्ची के साथ जो हुआ वो उसे भूल पाएगी. शायद जब वो बड़ी हो जाए तो उसे समझ आए कि उसके साथ क्या हुआ था. अभी तो बस उसके बचने की दुआ ही की जा सकती है. आरोपी की पहचान मोहम्मद नन्हें के रुप में की गई है.

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मुझे तो ये समझ नहीं आता की आखिर इन हैवानों के अंदर क्या जरा सी भी दया नहीं होती. एक स्त्री क्या ये तो छोटी सी बच्ची को भी नहीं छोड़ते. क्या इनका अपना कोई परिवार नहीं या फिर इन्हें परवरिश ही अच्छी नहीं मिलती. ये हैवान इस तरह के गलत काम करने की हिम्मत कहां से लाते हैं जो इंसानियत को शर्मसार कर देती है.

सुरक्षा पर सवाल…

आज एक बार फिर से देश की राजधानी की सुरक्षा पर सवाल खड़े हुए हैं. अभी तक तो सिर्फ महिलाएं, लड़कियां घर से रात को बाहर निकलने पर डरती थीं लेकिन इस घटना के बाद अब तो लोग अपनी छोटी सी बच्ची को खेलने के लिए भी भेजने से डरेंगे. उनके बच्चे अपना बचपन भी नहीं खेल पाएंगे. क्योंकि अब तो उनका बचपन भी सुरक्षित नहीं रहा है. आज सिर्फ इस बच्ची की ही बात नहीं है आए दिन खबर सुनने को मिलती है कि पांच साल की बच्ची से रेप, तो कभी सात साल की बच्ची से रेप.

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जिन बच्चों ने ठीक से बोलना भी नहीं सीखा उनके साथ भी बलात्कार जैसी घटना घट रही है देश कहां जा रहा है हमारा. क्या ये भारत है? आज ये सवाल सिर्फ आप से, मुझसे या दिल्ली प्रशासन से,भारत सरकार से ही नहीं बल्कि पूरे भारत को लोगों से है. सरकार को इसके लिए कुछ कड़े रुख अपनाने होंगे और कुछ कड़े कानून का प्रावधान करना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब घर में बच्ची को जन्म देने से भी लोग डरेंगे की कहीं उसके साथ बलात्कार न हो जाए.

जरा सोचिएगा आप भी…

एडिट बाय- निशा राय

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