दूसरी मुसकान: भाग-4

उस ने खुद को उस वक्त बहुत छोटा महसूस किया था. बिखर गई थी वह…प्यार में छला हुआ आदमी कहीं का नहीं रहता…उस के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

हेमा दी और रमन जीजा देर तक उसे समझाते रहे थे कि वसंत किसी भी मामले में खरा नहीं उतरा और अब भी बच्चे की आड़ में वह सिर्फ अपना मतलब ही निकाल रहा है.

मगर वह सोच रही थी कि अब पैसे वसंत के हाथों में नहीं देगी…जो करेगी खुद करेगी…खर्चा कैसे चलेगा…वसंत के पास कुछ था नहीं. बैंक में  8-9 महीने का खर्चा ही बचा था. फिर कैसे होगा सब…एक बार वह बस जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाना चाहती थी और उस के लिए उसे पैसे की सख्त जरूरत थी.

हेमा दी और रमन जीजा जानते थे कि उस की उम्र और अक्ल इतनी नहीं है कि वसंत की चालाकियों से बच सके. बड़ी मुश्किल से ही नतीजा निकला था. रमन जीजा ने मकान की कीमत लगवा कर उसे उस के हिस्से का पैसा दे दिया था और कुछ पैसा शुभी के नाम फिक्स कर दिया था, जिस का जिक्र उन्होंने वसंत के आगे करने से मना किया था. वे दोनों आखिर तक उसे वसंत की चालों से बचाना चाह रहे थे.

मगर वसंत की चालाकियों के आगे तीनों मुंह ही ताकते रह गए थे. चंद महीने के अंदर ही वसंत ने उस का सारा पैसा साफ कर दिया और फिर वही रवैया शुरू हो गया. अब वसंत पहले से ज्यादा घर से बाहर रहता और महीने 2 महीने में ही घर आता. जिस बच्ची के भविष्य की चिंता दिखा कर उस ने सारा पैसा समेट लिया था अब उस की तरफ देखता भी नहीं था.

वह घर और बच्ची की जिम्मेदारी के साथ फिर अकेली खड़ी थी. दोनों के रिश्ते कड़वाहट से भरने लगे थे. कुछ था, जो उसे साफसाफ न सही, मगर नजर आ रहा था. उस का सामाजिक जीवन पूरी तरह खत्म हो चुका था. शुभी के स्कूल दाखिले के वक्त उसे खासी परेशानी उठानी पड़ी. धीरेधीरे उस का धीरज जवाब दे गया. वह पहली बार रमन जीजा के सामने बिखर गई, ‘‘मुझे मुक्ति दिला दीजिए…शायद तभी मुझे सांस आएगी.’’

रमन जीजा ने पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी. पहली बार बिना उस की सलाह के उन्होंने अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर के वसंत की खोजखबर निकलवाने की कोशिश करी. जब सच सामने आया तो वह कई दिनों तक अस्पताल के बिस्तर पर रही.

वसंत पहले से शादीशुदा था. वह अपनी पहली पत्नी और बच्चों के प्रति भी कोई जिम्मेदारी नहीं उठाता था. उन की देखभाल वसंत के मातापिता ही करते थे, क्योंकि वसंत एक आवारा किस्म का इनसान था.

इतना सब होने के बाद अब उस का रिश्ता वसंत के साथ बेनाम और बेअसर हो चुका था. हेमा दी उसे और शुभी को अस्पताल से ही अपने घर ले गईं, घर में उन्होंने ताला लगा दिया था. वह तो जैसे पत्थर ही हो गई थी. हेमा दी और रमन जीजा उस का गम समझते थे. वक्त हर जख्म का मरहम होता है. मगर एक अच्छाखासा वक्त लगा था उसे अपनी सोचसमझ वापस लाने में. आखिरकार वह वसंत से अलग हो गई. उस वसंत से जो खून बन कर उस की रगों में दौड़ता था. कागज के एक टुकड़े पर साइन करते वक्त उसे ऐसा लगा था कि क्यों नहीं उस के प्राण शरीर को छोड़ देते…उस दिन वह बिलखबिलख कर रोई थी.

पूरा साल उस ने हेमा दी के पास गुजारा था. उस की हालत ऐसी नहीं थी कि वह वापस आती खाली मकान में. आने के नाम से ही उस को घबराहट होने लगती. पहले उसे वसंत का इंतजार रहता था और आने की उम्मीद अब किस का इंतजार करेगी? फिर पासपड़ोस के उन लोगों का कैसे सामना करेगी, जो हमदर्दी जताने के बहाने जख्म कुरेद जाते हैं.

हेमा दी चाहती थीं की वह उस मकान को बेच कर यहीं आ कर रहे और दोबारा अपनी जिंदगी शुरू करे. रमन जीजा तो उस के लिए रिश्ते खोजने की कोशिश में थे. बस उन्हें उस की हां का इंतजार था. वसंत की तमाम यादों से जुड़े मकान को बेचना उस की मजबूरी हो गई थी, मगर वह वापस अलवर भी आना नहीं चाहती थी. रिश्तेनातेदारों से भरा शहर, हेमा दी का सुखीसंपन्न परिवार और ससुराल उसे उस का खाली होने का ज्यादा एहसास करवाते. वह भाग जाना चाहती थी वहां से.

विलियम की टच में वह हमेशा थी. उस ने जिद कर उन के पड़ोस में ही एक छोटा मकान खरीद लिया और चली आई उसी में. एक बार फिर सब को नाराज कर के.

जिंदगी फिर शुरू हो चुकी थी, मगर इतना आसान नहीं था. वसंत था कि उस के दिलोदिमाग से निकलता नहीं था. हेमा दी कितनी बार उसे ले जाने आ चुकी थीं. उन्हें उस की खाली जिंदगी खौफ देती थी, खुद उसे भी. मगर उस के अंदर से यकीन जैसे खत्म हो चुका था.

फिर अचानक जिंदगी में नया मोड़ आया और उस मोड़ ने मेजर आनंद से मिलवा दिया. जब से उन से मिली थी, जिंदगी में हलचल होने लगी थी… ठहरे पानी पर जमी काई उखड़ने लगी थी. वह कहीं कुछ महसूस करने लगी थी… वे जज्बात जो दर्द की तह में सो चुके थे, अब फिर जागने लगे थे…बिना इजाजत कोई दिल के दरवाजे पर दस्तक देने लगा था.

मेजर आनंद की आदतें उसे रमन जीजा की याद दिलाती थीं. हेमा दी कितनी खुश थीं उन के साथ. शुरूशुरू में उसे कितनी परेशानी हुई थी काम करने में…इतना सारा काम, स्टोर की देखभाल, सैकड़ों आइटम्स देखना कि कुछ खत्म न हो, ऊपर से इंस्टिट्यूट का काम, ट्रेड फेयर की व्यवस्था और न जाने कहांकहां से काम निकल आता था…उस के लिए काफी मुश्किल था सब कुछ, मगर मेजर साहब की वजह से धीरेधीरे सब आसान होने लगा था. वह धीरेधीरे मेजर आनंद की तरफ खिंचती चली जा रही थी.

उसे जौब करते अभी कुछ ही महीने हुए थे. चंपारन में एक बड़ा ट्रेड फेयर लगाया जा रहा था. मेजर साहब ने स्थानीय और बाहर के काफी हस्तशिल्पियों की उस में शिरकत करवाई थी. स्थानीय किसान जो ऐक्सपर्ट्स के अंडर रह कर जड़ीबूटियों की खेती कर रहे थे वे उन के इस प्रयास से काफी खुश और उत्साहित नजर आ रहे थे.

औफिस के स्टाफ से कुछ लोग और उन के सामाजिक कार्यकर्ता वहीं मेले में ही रहे थे. मगर उसे शुभी के स्कूल की वजह से डेली अपडाउन करना पड़ रहा था.

1 हफ्ते से मेला काफी अच्छा चल रहा था. सभी में उत्साह था, मगर उस दिन अचानक तेज आंधीतूफान से बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई. सब कुछ समेटवाते हुए वह काफी लेट हो गई थी.

वह शुभी को ले कर परेशान हो गई थी. भले ही विलियम उस के पास थी, मगर शुभी को रात में उस ने कभी अकेला नहीं छोड़ा था. मेजर आनंद ने खुद उसे गाड़ी से छोड़ने को कहा. देर रात सवारी मिलना, वह भी इस मौसम में मुश्किल था. वह तैयार हो गई. मगर बीच रास्ते में ही गाड़ी खराब हो गई.

वह घबरा गई. तरहतरह के गंदे खयाल उस के दिमाग में आने लगे. मेजर आनंद ने बोनट खोल कर देखा, मगर कुछ समझ न आने की वजह से वे फोन उठा कर किसी को फोन करने लगे. जाने उसे क्या हुआ, उस ने मेजर के हाथ से फोन छीन लिया. मेजर आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगे.

‘‘आप किसी को भी फोन नहीं करेंगे,’’ उस ने सख्ती से कहा.

‘‘मगर क्यों? मैकैनिक को फोन कर रहा हूं. गाड़ी ठीक नहीं हुई तो जाएंगे कैसे?’’

‘‘हुआ क्या?’’ मेजर हैरान थे.

‘‘पहले मैं फोन करूंगी,’’ कह वह तुरंत विलियम को फोन करने लगी.

मेजर दोनों हाथ जेब में डाल कर किनारे खड़े हो कर उसे ध्यान से देखने लगे.

उस ने पहली बार उन नजरों की ताब को महसूस किया था. वह गाड़ी में जा बैठी. मेजर पेड़ के सहारे खड़े रहे. उन्होंने उसे कुछ कहने या समझाने की कोशिश नहीं की. उसे मेजर के रवैए पर गुस्सा आ रहा था. वह मन ही मन एक अनजाने भय से घिरी बैठी थी. करीब 1 घंटे से ऊपर बीत चुका था और मेजर यों ही बाहर एक पेड़ के सहारे खड़े थे. सुनसान रास्ता, रात का वक्त उस पर बारिश फिर होने लगी थी. मेजर भीगने लगे थे. वह कुछ देर तक देखती रही. आखिर उसे लगा वह बेवजह के वहम में गिरफ्तार है. अत: गाड़ी से बाहर आई, तो ठंड और बारिश से सिहर उठी.

‘‘अंदर चलिए,’’ उस ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मेजर ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘आप भी भीग रहे हैं और मैं भी… अब चलिए भी,’’ उस ने खीजते हुए कहा.

‘‘अब डर नहीं लग रहा मुझ से?’’ और फिर मेजर गाड़ी में आ कर बैठ गए. उन्होंने नंबर मिलाया तो दूसरी तरफ से जो कहा गया उसे सुन मेजर के मुंह से निकला, ‘‘ओह नो.’’

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने पूछा.

‘‘भूस्खलन से रास्ते बंद हो गए हैं. कोई मैकैनिक इस वक्त नहीं आ सकता. अब सारी रात गाड़ी में ही बितानी होगी.’’

‘‘क्या?’’ उस के हाथपैर ठंडे होने लगे. गाड़ी से बाहर निकलने से मेजर के साथसाथ वह भी भीग गई थी. यों सारी रात भीगे बदन गाड़ी में बैठना कैसे हो पाएगा? इस सोच से ही वह कांपने लगी थी.

आगे पढ़ें- मेजर आनंद ने वापस कैंप में फोन किया. मगर…

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