दिमाग को कुंद करने की मंशा

इंगलिश की एक सलाह है, ‘कैच देम यंग’ यानी उन्हें तभी अपना बना लो जब वे छोटे हों. बुनियाद में सारे धर्म यही करते हैं और बच्चे के जन्म के कुछ दिनों बाद ही उसे धर्म का अनुयायी बिना उस की इजाजत के बना लिया जाता है. अब चूंकि मातापिता भी इसी प्रक्रिया से गुजरे होते हैं, उन्हें इस में कोई आपत्ति नजर नहीं आती और वे खुशीखुशी अपने छोटे से बच्चे के भविष्य की सारी स्वतंत्रताएं धर्म को दान कर देते हैं.

यही शिक्षा के साथ किया जाता है. जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता है उस में उस का अपना विवेक जागता है. अपने स्वतंत्र निर्णय लेने की इच्छा होती है, हर  झूठसच को परखने की कोशिश करता है, धर्म के पांव लड़खड़ाने लगते हैं और तरहतरह के प्रपंच रचे जाते हैं कि बढ़ते बच्चे को काबू में रखा जाए और हर समाज की 95% जनता इस फंदे में कैद हो जाती है.

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तानाशाह भी इसी का इस्तेमाल करते हैं और शिक्षा ऐसी देने की कोशिश करते हैं कि तानाशाह के विरुद्ध कोई कुछ सोच न सके. पहले तो सदियों तक  कुछ पढ़ने को नहीं था, केवल बोले गए शब्दों का बोलबाला था. पर 500 सालों से मुद्रित शब्दों के कारण सोचविचार में क्रांति आई है क्योंकि धर्म या तानाशाह के शब्द ही अंतिम सत्य नहीं हैं. यह परखने के विचार कागज पर साकार हो कर घूमने लगे और जो भी इन छपे शब्दों को पढ़ सकता था वह अपने विचारों को नए तरीके से ढाल सकता था. पिछले 500 सालों में जो प्रगति दुनिया ने की है वह इन कागजी घोड़ों के कारण की है, जिन्होंने धर्म की सत्ता को हिलाया, तानाशाहों को समाप्त किया. इस से लोकतंत्र तो साकार हो गया, साथ में नई तकनीक, नए विज्ञान, नए तथ्यों और सब से बड़ी बात नई स्वतंत्रताओं को भी जन्म मिला.

धर्म को यह खला है, बहुत खला है, पर धर्म की सत्ता बहुत मजबूत है और उस ने फिर कागजों पर छपे शब्दों पर फिल्टर लगाए हैं और उसे ही प्रचारकों के हाथों परोसा है. ये प्रचारक ही धर्म के मुख्य सैनिक हैं और यही लूट में हिस्सा भी बांटते हैं.

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इसी प्रयास का एक कदम है, जिस में उद्देश्य तर्क और परीक्षण को हटा कर बच्चों को पहली कक्षा से संस्कृति व धरोहर के नाम पर समाज को 2000 साल पहले ले जाने की साजिश रची गई है.

इस नीति के हर पृष्ठ पर कहीं न कहीं यही छिपा है कि हर छात्र एकलव्य की तरह है जिसे गुरु द्रोणाचार्य की तरह के मौडर्न गुरुओं को अपना दिमाग अर्पित कर देना चाहिए.

बच्चे कहां, कितने साल तक, कितनी फीस दे कर पढ़ें, यह बात बहुत छोटी है. मुख्य बात यह है कि पढ़ाने वाले कौन हैं और वे क्या पढ़ाएंगे. इस शिक्षा नीति में कम से कम यह तो स्पष्ट है कि शब्दजाल ऐसा बुना गया है कि इस में अकेला रास्ता पुरातनकाल के गहरे अंधकार की ओर ले जाता है. जहां बारबार यह कहा जाए कि ज्ञान तो था हमारे पास, हमारे वेदों में है, शास्त्रों में है, परंपराओं में, रीतिरिवाजों में है, वहां जेनेटिक्स, अंतरिक्ष की खोज, फिजिक्स के पार्टिकल विश्लेषण, बायोटैक को कौन पूछेगा.

हमारे देश के प्रतिद्वंद्वी देशों के लिए यह नई शिक्षा नीति एक सोने की खान साबित होगी. पुराने जाले लगी, पौराणिक, पाखंडभरी शिक्षा के छिपे उद्देश्य, धर्मप्रचारकों की बातों को अंतिम सत्य मानना जिसे नहीं आएगा वह विदेशों की ओर भागेगा. देश का टैलेंट वैसे भी लगातार बाहर जा रहा था, अब और बड़ी संख्या में जाएगा.

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दूसरी ओर देश में पुरातनपंथी कूढ़मगज, अतार्किक पाखंड समर्थकों की बड़ी जमात पैदा होगी. हमारा शत्रु बना चीन इस नीति से खुश होगा क्योंकि वहां तानाशाही और कम्युनिज्म के बावजूद महान चीनी सभ्यता का ढोल नहीं पीटा जाता है.

अफ्रीका, दक्षिणपूर्व एशिया, यूरोप, अमेरिका को तो लाभ होगा ही, इसलामी कट्टर कहे जाने वाले देश भी राहत की सांस लेंगे कि भारत अब 150 से 170 करोड़ लोगों का एक मुरदा देश बनने वाला है जहां ऊंचे मंदिर बनेंगे, नदियों के किनारों पर तीर्थ विकसित होंगे. आयुर्वेद, वैदिक विज्ञान, वैदिक वास्तुकला के नाम पर कंगूरों और शिखरों वाले भवन बनेंगे और उन में पूजापाठी ठस दिमाग वाले गुलाम होंगे जो विश्वामित्र के कहने पर मारीच पर तीर चलाना शुरू कर देंगे, बिना जांचेपरखे कि दुश्मन कौन है, कैसा है और उसे क्यों मारा जा रहा है. गुरु का आदेश अंतिम होगा. यह नीति को पढ़ने पर साफ चाहे न दिखे पर नई शिक्षा नीति का सार यही है कि एक पूरे जीवंत समाज को गंगा में डुबो दो.

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