एहसास : बिंदास आजादी ने श्रेया को कैसे गर्त में पहुंचा दिया

Serial Story: एहसास (भाग-1)

आईने में निहारती, तैयार होती श्रेया से किरण ने पूछा, ‘‘कहां जा रही हो इस समय?’’ श्रेया बड़बड़ाई, ‘‘ओह मौम, आप को बताया तो था कि आज मनजीत की बर्थडे पार्टी है, उसी में जा रही हूं.’’

‘‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि तुम लोगों की बर्थडे पार्टी इतनी देर से क्यों शुरू होती है? थोड़ी पहले नहीं हो सकती क्या?’’

मांबेटी की तकरार सुन कर किशोर को लगा कि अगर उन्होंने मध्यस्थता नहीं की, तो बात बिगड़ सकती है. ड्राइंगरूम से उन्होंने कहा, ‘‘किरण, यह तुम लोगों की किटी पार्टी नहीं है, जो दोपहर में होती है. यह तो जवानों की पार्टी है… श्रेया बेबी, तुम जाओ, मम्मी को मैं समझाता हूं.’’

‘‘थैंक्स ए लौट… पापा… बाय सीयू.’’

‘‘बाय ऐंड टेक केयर स्वीटहार्ट… थोड़ीथोड़ी देर में फोन करती रहना.’’

श्रेया ने सैनिकों की तरह सैल्यूट मारते हुए कहा, ‘‘येस सर,’’ और चली गई.

उस के जाते ही किरण की बकबक शुरू हुई, ‘‘श्रेया को आप ने बिलकुल आजाद कर दिया है. मेरी तो यह सुनती ही नहीं है.’’

‘‘किरण, सोचो, यह हमारी संतान है.’’

‘‘वह भी एकलौती… और लाडली भी,’’ पति की बात बीच में काटते हुए किरण बोली.’’

‘‘तुम गुस्से में कुछ भी कहो, लेकिन हमें अपनी संतान पर भरोसा होना चाहिए. श्रेया 21 साल की हो गई है. बच्चों की यह उम्र बड़ी नाजुक होती है. इस उम्र में ज्यादा रोकटोक ठीक नहीं है. कहीं विद्रोह कर के गलत रास्ते पर चली गई तो…’’

‘‘लेकिन यह भी तो सोचो, रात 9 बजे वह पार्टी में जा रही है, वहां न जाने कैसेकैसे लोग आए होंगे.’’

किशोर ने दोनों हाथ हवा में फैलाते हुए कहा, ‘‘किरण, अब श्रेया की चिंता छोड़ कर मेरी चिंता करो. कुछ खानेपीने को मिलेगा कि किचकिच से ही पेट भरना होगा.’’

‘‘जब देखो तब मजाक, बात कितनी भी गंभीर हो, हंस कर उड़ा देते हो.’’ बड़बड़ाते हुए किरण किचन में चली गई.

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श्रेया की तरह ही किशोर भी मांबाप की एकलौती संतान थे. अमेरिका के एक विशाल स्टोर को कौटन की शर्ट्स सप्लाई करने का बढि़या बिजनैस था उन का. नोएडा के इंडस्ट्रियल एरिया में बहुत बड़ी फैक्टरी भी थी, जहां शर्ट्स तैयार होती थीं. नोएडा के ही सैक्टर 15ए जैसे पौश एरिया में उन की विशाल कोठी थी. राज्य के ही नहीं, केंद्र के भी तमाम राजनेताओं और अधिकारियों से उन के अच्छे संबंध थे.

इन्हीं संबंधों की वजह से वे एनजीओ भी चलाते थे. एनजीओ का कामकाज श्रेया संभालती थी. शायद श्रेया के लिए ही उन्होंने एनजीओ का काम शुरू किया था. इस से भी उन्हें मोटी कमाई होती थी, लेकिन पुराने विचारों वाली किरण को श्रेया से हमेशा शिकायत रहती थी. उसे ले कर जब भी पतिपत्नी में बहस होती, किरण बनावटी गुस्सा कर के एक ही बात कहती, ‘‘मेरी तो इस घर में कोई गिनती ही नहीं है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. इस घर में पहला नंबर तुम्हारा ही है.’’

‘‘ये सब बेकार की बातें हैं,’’ किरण उसी तरह कहती, ‘‘छोड़ो इन बातों को. मैं इतनी भी बेवकूफ नहीं, जितना तुम समझते हो.’’

श्रेया की सहेली थी, मनजीत कौर. दोनों ने एमबीए साथसाथ किया था. एमबीए करने के बाद जहां श्रेया अपने एनजीओ का कामकाज देखने लगी थी, वहीं मनजीत एक मल्टीनैशनल कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हो गई थी, लेकिन दोनों के संबंध आज भी वैसे ही थे. वे सप्ताह में कम से कम 2-3 बार तो मिल ही लेती थीं, लेकिन रविवार की शाम का खाना निश्चित रूप से दोनों किसी रैस्टोरैंट में साथसाथ खाती थीं.

मनजीत को पार्टियों का बहुत शौक था इसलिए वह अकसर पार्टियों में जाती रहती थी. इस के बाद श्रेया से मिलने पर पार्टियों की चर्चा भी करती थी. कभीकभार श्रेया भी मौका मिलने पर मनजीत के साथ डिस्कोथिक, होटल या रैस्टोरैंट में होने वाली पार्टियों में चली जाती थी. एक दिन मनजीत ने कहा, ‘‘यार श्रेया, इस संडे को एक अलग तरह की पार्टी है. तू कभी इस तरह की पार्टी में गई नहीं है इसलिए मैं चाहती हूं कि तू भी उस पार्टी में मेरे साथ चल.’’

‘‘अलग तरह की पार्टी. उस पार्टी में क्या होता है?’’ श्रेया ने हैरानी से पूछा.

‘‘चल कर खुद ही देख लेना. लौटने में थोड़ी देर हो सकती है, इसलिए घर में कोई बहाना बना देना. बहाना क्या बनाना, बता देना कि मेरी बर्थडे पार्टी है.’’

उसी पार्टी में शामिल होने के लिए मनजीत जब श्रेया को एक फार्महाउस में ले कर पहुंची, तो उसे बहुत हैरानी हुई. श्रेया ने पूछा, ‘‘तू मुझे यहां क्यों ले आई?’’

‘‘यहीं तो वह पार्टी है. इस तरह की पार्टियां ऐसी ही जगहों पर होती हैं, क्योंकि ये एकदम व्यक्तिगत होती हैं. इन पार्टियों में वही लोग आते हैं, जो आमंत्रित होते हैं. अनजान लोगों को अंदर बिलकुल नहीं जाने दिया जाता,’’ मनजीत ने समझाया.

दोनों फार्महाउस की विशाल इमारत के सामने पहुंचीं, तो वहां खड़ा एक युवक आगे बढ़ा और मनजीत से हाथ मिलाते हुए बोला, ‘‘तो यही हैं आप की फ्रैंड श्रेयाजी,’’ इस के बाद वह श्रेया को गहरी नजरों से देखते हुए बोला, ‘‘मैं अमन हूं, आप पहली बार मेरी इस पार्टी में आई हैं, इसलिए आप का विशेष रूप से स्वागत है.’’

कानफोड़ू डीजे म्यूजिक, म्यूजिक की ताल पर थिरकते युवकयुवतियां. पूरा हौल सिगरेट के धुएं से भरा था. मनपसंद दोस्त… सबकुछ तो था यहां. फिर भी श्रेया का मन नहीं लग रहा था. इसलिए उस के मुंह से निकल गया, ‘‘व्हाट ए बोरिंग पार्टी… यहां के जिक में कोई दम नहीं है. यहां तो सब जैसे नशे में हैं.’’

श्रेया की बात का कोई और जवाब देता, उस से पहले वही स्मार्ट युवक, जो गेट पर मिला था, उस के सामने आ कर बोला, ‘‘हाय श्रेया, शायद आप यहां खुश नहीं हैं. आप को न मेरी यह पार्टी अच्छी लग रही है और न ही यह म्यूजिक.’’

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‘‘जी, आप की इस पार्टी में मैं बोर हो रही हूं. म्यूजिक में भी कोई दम नहीं है. क्राउड भी बहुत है. फिर यहां मैं देख रही हूं कि लोग डांस करने के बजाय छेड़छाड़ ज्यादा कर रहे हैं. मुझे यह सब पसंद नहीं है.’’

‘‘दरअसल, मेरा डीजे आज छुट्टी पर है इसलिए इस डीजे को लगाना पड़ा. आप पहली बार इस पार्टी में आई हैं, इसलिए आप को यहां का माहौल रास नहीं आ रहा है. बेसमैंट में मेरा पर्सनल कमरा है. वहां अच्छा म्यूजिक कलैक्शन भी है और एकांत भी. आप वहां चल सकती हैं. वहां हर चीज की व्यवस्था है. खानेपीने की, म्यूजिक की और आराम करने की भी.’’

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Serial Story: एहसास (भाग-2)

अमन की बातें सुन कर श्रेया का दिमाग घूम गया, वह होंठों ही होंठों में बुदबुदाई, ‘‘हूं, अमीर बाप की औलाद, अपनेआप को समझता क्या है? आप का एकांत, म्यूजिक, ड्रिंक और आराम आप को मुबारक.’’

‘‘मिस श्रेया, एक मिनट. आप को मुझ से बात न करनी हो, तो कोई बात नहीं. लेकिन जाने से पहले मेरी एक बात जरूर सुन लीजिए.’’

दोनों हाथ कमर पर रख कर श्रेया बोली, ‘‘बोलो.’’

‘‘मिस श्रेया, मैं ने आप से जो कहा, शायद उस से आप ने मुझे पैसे वाले बाप का बिगड़ा बेटा समझ लिया. आप सोच रही हैं कि यह फार्महाउस मेरे बाप का है और मैं उन के पैसे पर ऐश कर रहा हूं. यही सोच है न आप के दिमाग में मेरे लिए.’’

श्रेया ने कोई जवाब नहीं दिया. वह होंठ चबाते हुए यही सोच रही थी कि इस का कहना सच है. यही धारणा थी उस के मन में उस के प्रति.

श्रेया को चुप देख कर अमन आगे बोला, ‘‘श्रेया, ऐसी बात नहीं है. फौर योर काइंड इन्फौरमैशन, 2 साल पहले मैं लंदन से पढ़ाई पूरी कर के दिल्ली आया हूं. वहां 4 साल पढ़ाई करने के बाद जीतोड़ मेहनत कर के जो कमाया है, कुछ वह रकम और कुछ बैंक से कर्ज ले कर यह फार्महाउस खरीदा है. यह फार्महाउस मैं पार्टियों के लिए किराए पर देता हूं और खुद भी पार्टियां करता हूं. बाप की एक पाई भी इस में नहीं लगी है. आप जैसे ग्राहकों की मेहरबानी से मैं इस फार्महाउस से मोटी कमाई कर रहा हूं. उम्मीद है कि अगले साल तक मैं इस में रैस्टोरैंट और डिस्कोथिक भी शुरू कर दूंगा. इस के अलावा ऐंटरटेनमैंट के बिजनैस में मोटी रकम लगाने का इरादा है. जस्ट विश मी ए लक, आप ने मुझे जो समय दिया, उस के लिए धन्यवाद. चलिए.’’

श्रेया ने हाथ बढ़ा कर अमन को रोका, ‘‘रुकिए, मिस्टर अमन, सौरी. आप को मैं पहचान नहीं पाई, यह मैं स्वीकार करती हूं. ऐक्चुअली आज मेरा मूड ठीक नहीं है. चलिए, आप का म्यूजिक कलैक्शन देखती हूं. मेरा मतलब सुनती हूं.’’

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‘‘थैंक यू, चलिए.’’

अगले दिन सुबह श्रेया की आंख खुली, तो मम्मी झकझोर रही थीं, ‘‘श्रेया…श्रेया… ओ श्रेया…’’

श्रेया दोनों हाथों से सिर दबाते हुए बोली, ‘‘ओह मौम, कितने बजे हैं? मेरा तो सिर फटा जा रहा है…’’

‘‘साढ़े 11 बज रहे हैं और अब भी तेरा सिर फटा जा रहा है? पार्टी में क्या पिया था?’’

‘‘क्या… साढ़े 11…’’ इतना कहतेकहते श्रेया को रात की बातें याद आ गईं. पैप्सी पीतेपीते उसे चक्कर आ गया था. फिर उसे होश नहीं रहा. अच्छा हुआ कि मनजीत ने उसे झकझोर कर जगाया था और घर तक छोड़ गई थी. श्रेया कान पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘ओ मौम, आप तो जानती हैं कि मैं हार्ड ड्रिंक नहीं लेती. आप की कसम मम्मी.’’

श्रेया ने कसम खाई, तो किरण को थोड़ी राहत महसूस हुई. उन्होंने बेटी का हाथ पकड़ कर उठाते हुए कहा, ‘‘चल उठ, जल्दी से नहाधो कर नाश्ता कर ले.’’

अंगड़ाई ले कर आलस्य को झटकते हुए श्रेया पलंग से उठ कर खड़ी हुई. मम्मी के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘मम्मी, पापा तो चले गए होंगे? उन से थोड़ा काम था.’’

‘‘तो मोबाइल पर बात कर ले,’’ किरण ने कहा, ‘‘रास्ते में होंगे. अभी फैक्टरी नहीं पहुंचे होंगे.’’

बाथरूम का दरवाजा बंद करते हुए श्रेया बोली, ‘‘जाने दीजिए. रात को आएंगे, तो बात कर लूंगी. एक प्रोजैक्ट के बारे में चर्चा करनी थी. खैर, अब तो वह हो नहीं पाएगी.’’

शाम को किशोर लौटे, तो घर का माहौल देख कर ही समझ गए कि स्थिति ठीक नहीं है. ब्रीफकेस मेज पर रख कर सोफे पर पसरते हुए बोले, ‘‘भई, कोई मुझे भी तो बताएगा कि यहां क्या हुआ है?’’

‘‘आप की लाडली कह रही है कि उसे एक प्रोजैक्ट तैयार करना है, जिस में राजस्थान के एक गांव में देहव्यापार करने वाली महिलाओं में होने वाले यौन रोगों के बारे में पता कर के उन के इलाज और उन के पुनर्वास के लिए क्या व्यवस्था की जा सकती है, इस का सर्वे करना है. यह वहां जा कर उन के बीच रह कर उन के बारे में सर्वे करेगी. लड़की के लिए यह कैसा प्रोजैक्ट है?’’

किशोर उठ खड़े हुए, ‘‘रियली, यह बात है. मैं तो मझा श्रेया ने किसी क्रिश्चियन लड़के से प्यार कर लिया है और…’’

‘‘अरे, आप भी कैसे बाप हैं?’’

‘‘देखो किरण, तुम्हें श्रेया की चिंता है न? तुम्हारा सोचना है कि उस गांव में वह अकेली जाएगी. तो सुनो, मुझे तो इस बात की जरा भी चिंता नहीं है. रही बात तुम्हारी चिंता की, तो हम एक काम करते हैं. हम भी इस के साथ चलते हैं. जैसलमेर में मेरा एक दोस्त रहता है. उसी के पड़ोस में एक मकान किराए पर ले लेंगे. तब तो अपनी लाड़ली अकेली नहीं रहेगी. फिर इस के एनजीओ में काम करने वाले लोग भी तो रहेंगे. यह वहां अपना काम करेगी और हम लोग जैसलमेर घूमेंगे. श्रेया, तुम्हें कब जाना है?’’

‘‘प्रोजैक्ट जल्दी ही जमा करना है. आप को जब समय मिले, पहुंचा दीजिए. प्रोजैक्ट जमा होने के बाद ही मंत्रालय से ऐड मिलेगा. मैं इस प्रोजैक्ट को किसी भी हालत में हाथ से नहीं जाने देना चाहती.’’

15 दिन में तैयारी कर के किशोर बेटी श्रेया और पत्नी किरण के साथ जैसलमेर से 60 किलोमीटर दूर रेत के धोरों के बीच बसे एक कसबे में रहने वाले सरपंच के यहां जा पहुंचे. किशोर को देखते ही सरपंच ने कहा, ‘‘आइए…आइए… किशोरजी, कल रात को ही आप लोगों के बारे में साहब का फोन आया था.’’

श्रेया अपने पापा और मम्मी के साथ वहां के एक गांव में देहव्यापार करने वाली महिलाओं के जीवन पर अध्ययन करने आई थी. उसे यहां महीने, डेढ़ महीने रहना था. किशोर के एक मित्र जैसलमेर में डिप्टी कलैक्टर थे. उन्होंने ही शहर से इतनी दूर श्रेया के रहने के लिए सरपंच से कह कर एक मकान की व्यवस्था करवा दी थी. किशोर, श्रेया और किरण को चायनाश्ता कराने के बाद सरपंच ने वहां खड़े एक युवक से कहा, ‘‘बुधिया, यह ले चाबी. साहब को उस मकान पर पहुंचा दे, जहां इन के रहने की सारी व्यवस्था की गई है.’’

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‘‘यह लड़का…’’ किशोर ने पूछा.

‘‘अरे साहब, यह बुधिया है. आप यहां नए हैं. पूरे दिन आप के साथ रहेगा. घर की साफसफाई करेगा, घरबाहर के काम करेगा. पहले यह एक ढाबे पर काम करता था. खाना भी बना लेता है. गरीब घर का लड़का है, जो इच्छा हो, जाते समय दे दीजिएगा,’’ सरपंच ने कहा.

आगे पढ़ें- श्रेया 18-19 साल के उस युवक को देख रही थी. गठा…

Serial Story: एहसास (भाग-3)

श्रेया 18-19 साल के उस युवक को देख रही थी. गठा शरीर, भरीपूरी पानीदार आंखें, बिखरे बाल. शरीर से चिपकी टीशर्ट और हाफ पैंट.

धीरेधीरे सब व्यवस्थित हो गया. अच्छा गांव था. साफ दिल के लोग थे. रोज सवेरे श्रेया और बुधिया निकल पड़ते. किशोर अपनी कार ले गए थे. श्रेया स्वयं गाड़ी चलाती थी, इसलिए उसे कहीं भी आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. देहधंधा करने वाली महिलाओं से श्रेया मिलती, उन से बातें करती, सवाल करती और उन के जवाब वौइस रिकौर्डर में रिकौर्ड कर लेती. शाम को घर आ कर अपने लैपटौप में सब सेव कर लेती. अगले दिन फिर वही काम.

उस शाम श्रेया बाथरूम से निकली, तो उस के युवा शरीर में जवानी की उथलपुथल मची थी. यह भी कैसा इलाका है. वह जिस गांव में सर्वे कर रही थी, वहां के लोग पत्नियों से धंधा कराते हैं, व्यभिचार की कमाई खाते हैं. पैसों के लिए अपनी पत्नी को दूसरे के हवाले करते हैं. न जाने कैसेकैसे लोग उन के पास आते हैं और उन से कितनी ही महिलाओं को कैसेकैसे यौनरोग लग गए हैं.

फिर भी वे धंधा करती हैं. अपनी ये बीमारियां न जाने कितने लोगों को बांट रही हैं. इस के अलावा भी गांवों में ऐंटरटेनमैंट के नाम पर पत्नी से व्यभिचार, एक से अधिक लोगों से संबंध, पत्नी को पत्नी न समझ कर उस का हर तरह से शोषण, ऐसीऐसी बातें श्रेया को जानने को मिलतीं, जिन से उस का  रोमरोम सिहर उठा था.

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श्रेया समय से प्रोजैक्ट पूरा कर के नोएडा वापस आ गई. उस ने प्रोजैक्ट तैयार कर के जमा भी कर दिया. काम पूरा होने के कुछ दिन बाद एक दिन किरण ने पति से कहा, ‘‘अपनी श्रेया को पता नहीं क्या हो गया है? जैसलमेर से लौटने के बाद वह चुपचुप रहती है.’’

‘‘वह ज्यादा बोलती है, तब भी तुम्हें परेशानी होती है. अब चुप है, तो भी तुम्हें परेशानी हो रही है,’’ किशोर ने हंसी में कहा.

‘‘बच्चे जैसे रहते हैं, उसी तरह रहें, तो अच्छे लगते हैं. मैं बड़बड़ाती हूं, तो इस का मतलब यह नहीं कि वह अपना स्वभाव ही बदल ले,’’ थोड़ा परेशान हो कर किरण ने कहा.

‘‘सयानी लड़की है. हर चीज मैं नहीं पूछ सकता. मां लड़कियों की सहेली जैसी होती है. अब तुम्हीं पता करो कि चुप्पी की वजह क्या हो सकती है?’’

इस के बाद किरण ने श्रेया से चुप्पी की वजह पूछी, तो उस ने जो बताया, सुन कर वह सन्न रह गईं. उसी शाम श्रेया को एम्स के रिटायर्ड स्किन स्पैशलिस्ट डा. स्वजन को दिखाया गया. डा. स्वजन ने श्रेया की गहन जांच की. उस के बाद उन्होंने उसे किरण के साथ बाहर भेज कर किशोर को अंदर बुला लिया और बड़ी गंभीरता से बोले, ‘‘आप की बेटी का किसी ऐसे आदमी से संबंध है, जो खतरनाक यौनरोग का शिकार है. यह यौनरोग उन्हीं मर्दों को होता है, जो अकसर बाजारू औरतों के पास जाते हैं. यह रोग उन्मुक्त सैक्स करने वालों को होता है, यह ऐसा रोग है, जो जीवन भर पीछा नहीं छोड़ेगा. जब तक दवा चलती रहेगी, ठीक रहेगा. दवा बंद होने के कुछ दिन बाद फिर उभर आएगा.’’

किशोर क्या कहते, उन का सिर शर्म से झुक गया. उन्होंने श्रेया को जो छूट दी थी, उस ने उस का गलत फायदा उठाया था. उन्हें बेटी पर बहुत विश्वास था, लेकिन उस ने उन के विश्वास को तोड़ दिया था. अब उन्हें पश्चात्ताप हो रहा था कि उन्होंने पत्नी की बात मानी होती, तो आज बेटी की जिंदगी बरबाद न होती. बेटी तो नासमझ थी, वे तो समझदार थे. अगर अपनी समझदारी दिखाते हुए बेटी पर अंकुश लगाए रहते, तो आज यह दिन देखने को न मिलता. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें, इसलिए डाक्टर जो कहते रहे, सिर झुकाए सुनते रहे.

डाक्टर ने आगे कहा, ‘‘इस के लिए बच्चे ही नहीं, मांबाप भी उतने ही दोषी हैं. मांबाप के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं होता और जिन के पास समय होता है, वे अपने बच्चों को आधुनिक बनाने के चक्कर में बिगाड़ देते हैं. बच्चे देर रात तक पार्टियां करते हैं, डिस्कोथिक जाते हैं, उन्हें रोकते ही नहीं. इस तरह की जगहों पर जाने वाले बच्चे ही ऐसे रोग लाते हैं. वहां नशा करने के बाद वे किस से मिलते हैं, क्या करते हैं, उन्हें होश ही नहीं रहता. उस के बाद जिंदगी बरबाद हो जाती है. आप की बेटी को एड्स भी हो सकता था. अब आप इस बात का ध्यान रखें कि आगे वह उस आदमी से न ही मिले, तो अच्छा रहेगा वरना दवा भी फायदा नहीं करेगी.’’

डाक्टर की बातें सुन कर किशोर को श्रेया पर गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन इस के लिए वे खुद को भी दोषी मान रहे थे. उन्होंने ही उसे आजादी दे रखी थी. उन्होंने सोचा, अगर इन सब बातों की जानकारी किरण को हो गई, तो वह बेटी का ही नहीं, उन का भी जीना हराम कर देगी. वे डाक्टर के कैबिन से बाहर आए, तो किरण ने उन्हें सवालिया नजरों से घूरा. श्रेया की नजरों में भी सचाई जानने की उत्सुकता थी. जब किशोर कुछ नहीं बोले, तो श्रेया ने पूछ ही लिया, ‘‘पापा, डाक्टर ने आप को अकेले में क्यों बुलाया था, कोई गंभीर बात है क्या?’’

‘‘नहीं, कोई गंभीर बात नहीं है. डाक्टर ने ऐसे ही बातचीत के लिए बुलाया था. चलो, घर चलते हैं,’’ कह कर किशोर आगे बढ़ गए, तो पीछेपीछे श्रेया और किरण भी चल पड़ीं. घर आ कर वे ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि श्रेया को वे उस की बीमारी के बारे में कैसे बताएं, जिस से वह स्वयं को उस आदमी से मिलने से रोक सके. वे सामने बैठी श्रेया को एकटक ताक रहे थे. श्रेया को पापा की नजर बदलीबदली सी लगी. इस तरह उन्होंने उसे पहले कभी नहीं देखा था. श्रेया से रहा नहीं गया, तो उस ने कहा, ‘‘क्या बात है पापा, डाक्टर ने क्या कहा, मुझे क्या हुआ है?’’

किशोर ने पलभर में निर्णय ले लिया. उन्हें लगा कि सचाई छिपाने का कोई फायदा नहीं है. बेटी को बचाने के लिए उन्होंने शर्मसंकोच त्याग कर कहा, ‘‘बेटा, केयरफुली, डाक्टर के कहने के अनुसार तुम्हें खतरनाक यौन रोग हुआ है. यह बीमारी तुम्हें किसी ऐसे आदमी से मिली है, जिसे यह बीमारी पहले से रही होगी.’’

श्रेया बच्ची नहीं थी, उस की समझ में आ गया कि पापा क्या कह रहे हैं. पापा की बातें सुनते ही उसे कमरा गोलगोल घूमता हुआ लगा. बड़ी मुश्किल से उन के मुंह से निकला, ‘‘व्हाट…आप? हैव यू गोन मैड. नो…नो… दिस इज नौट पौसिबल.’’

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‘‘श्रेया प्लीज. जस्ट टैल मी कि तुम्हारा किस आदमी से संबंध है. बेटा, अब उस से बिलकुल संबंध मत रखना. डाक्टर ने कहा है कि अगर उस आदमी से संबंध खत्म नहीं किए, तो यह बीमारी कभी ठीक नहीं होगी.’’

पापा की बात सुन कर श्रेया को झटका सा लगा. उस की समझ में यह नहीं आया कि आज तक उस ने ऐसा कुछ किया ही नहीं, तो फिर डाक्टर या पापा उस से ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं. राजस्थान में वह ऐसी औरतों से मिली जरूर है, जिन्हें इस तरह की बीमारी थी, तो क्या मिलने भर से उसे इस बीमारी ने पकड़ लिया, लेकिन ये लोग संबंध बनाने की बात कर रहे हैं जबकि आज तक उस ने किसी पुरुष से संबंध बनाया ही नहीं है.

श्रेया उठी और पापा के सीने पर सिर रख कर फफक पड़ी. किशोर बिना कुछ बोले उस की पीठ सहलाने लगे. उन्होंने श्रेया को रोने दिया, जिस से उस का मन हलका हो जाए, रो लेने के बाद श्रेया ने किशोर से सीने पर सिर रखेरखे ही कहा, ‘‘पापा, आप सोच रहे होंगे कि नासमझी में बच्चों से गलतियां हो जाती हैं, लेकिन मैं ने इस तरह की कोई गलती नहीं की है.’’

‘‘कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया, सो हो गया. तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. हम तुम्हारे साथ हैं. जरूरत पड़ी, तो हम तुम्हारा इलाज विदेश तक में कराएंगे. ठीक है, तुम आराम करो. इस सब के बारे में अभी अपनी मम्मी को कुछ मत बताना, वे बेकार में परेशान होंगी,’’ कह कर किशोर बगल में रखे फोन से किसी को फोन करने लगे.

श्रेया सोच में डूब गई. तभी उसे 8-9 महीने पहले की फार्महाउस की वह पार्टी याद आ गई. फार्महाउस के स्मार्ट मालिक अमन की बातों से प्रभावित हो कर श्रेया बेसमैंट में स्थित उस के कमरे में चली गई थी. बहुत अच्छा कमरा था. सोफासैट, छोटा सा बार और कुछ बार स्टूल, अमन ने कहा, ‘‘बोलिए, क्या लेंगी श्रेयाजी? व्हाइट वाइन या रैडवाइन? हाऊ अबाउट चिल्ड बीयर?’’

‘‘सौरी, नो हार्ड ड्रिंक फौर मी. जस्ट गिव मि ए ग्लास औफ पैप्सी, अगर हो, तो… न हो तो पीने के लिए पानी ही दे दीजिए.’’

‘‘औफकोर्स पैप्सी है. आप सामने की रैक से अपने मनपसंद गाने की सीडी सलैक्ट कीजिए, तब तक मैं पैप्सी ले आता हूं,’’ कह कर अमन बार की ओर चला गया, तो श्रेया सीडी देखने लगी. थोड़ी देर बाद अमन श्रेया के पास आ कर बोला, ‘‘श्रेया, यह लो पैप्सी. भई, मुझे तो कोक पसंद है, हम दोनों की ड्रिंक भले ही सौफ्ट है, लेकिन मुझे उम्मीद है कि हमारी फ्रैंडशिप हार्ड होगी… चीयर्स.’’

श्रेया ने मुसकराते हुए अपना गिलास धीरे से अमन के गिलास से टकराया और पैप्सी की चुसकी लेने लगी. थोड़ी देर बाद श्रेया का सिर चकराने लगा. क्या हुआ, वह सोच पाती, उस के पहले ही अमन ने उसे बांहों में भर लिया था. ‘ओह नो…’ अब उस की समझ में आया कि सादी पैप्सी पीने के बावजूद अगले दिन वह क्यों सुस्त थी. उस का शरीर क्यों टूट रहा था. उस के मुंह से चीख निकल गई, ‘‘यू रास्कल, आई विल किल यू.’’

श्रेया की चीख सुन कर फोन पर बातें कर रहे किशोर फोन छोड़ कर बोले, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

‘‘कुछ नहीं पापा, डाक्टर सच कह रहे हैं. मेरे साथ धोखा हुआ है. मगर…’’

श्रेया की बात काटते हुए किशोर बोले, ‘‘जो हुआ बेटा जाने दो. मैं ने कहा न कि मैं तुम्हारा इलाज विदेश में कराऊंगा. जब मैं तुम्हारे साथ हूं, तो तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है.’’

श्रेया एक बार फिर पापा के सीने से लग कर सिसकते हुए बोली, ‘‘थैंक्यू पापा. मुझे भी अपनी गलती का एहसास हो गया है लेकिन हमें उस आदमी की शिकायत पुलिस में करनी चाहिए. अन्यथा वह मेरी जैसी न जाने कितनी युवतियों की जिंदगी बरबाद करता रहेगा.’’

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किशोर फटी आंखों से बेटी को देखते रहे. उस के चेहरे पर दृढ़ता देख कर सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘ठीक है बेटी, हम इस की भी व्यवस्था करते हैं. अभी कमिश्नर साहब से बात कर के सारी बात बताते हैं.’’

पिता की बातें सुन कर श्रेया एक बार फिर से फफक पड़ी.

एहसास: लाड़-प्यार में पली बढ़ी सुधांशी को जब पता चला नारी का पूर्ण सौंदर्य

Serial Story: एहसास (भाग-3)

लेखिका- रश्मि राठी

सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से देख रही थी. आज उस का परिचय प्यार के एक नए रूप से हो रहा था. यह भी तो प्यार है कितना पवित्र, एकदूसरे के लिए समर्पण की भावना लिए हुए. उसे महसूस हो रहा था कि प्यार सिर्फ वह नहीं जो रात के अंधेरे में किया जाए. प्यार के तो और भी रूप हो सकते हैं. लेकिन उस ने तो कभी सुशांत की पसंद जानने की भी कोशिश न की. उस ने तो हमेशा अपनी आकांक्षाओं को ही महत्त्व दिया.

‘‘चलो, हम दूसरे कमरे में बैठ कर बातें करते हैं, ये लोग तो अपने दफ्तर की बातें करेंगे,’’ अमिता ने सुधांशी को उठाते हुए कहा.

अमिता और सुधांशी के विचारों में जमीनआसमान का फर्क था. अमिता घर के बारे में बातें कर रही थी, जबकि सुधांशी ने कभी घर के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था. तभी अमिता ने कहा, ‘‘बड़ी सुंदर साड़ी है तुम्हारी, क्या सुशांत ने ला कर दी है?’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ चौंक सी गई सुधांशी, ‘‘मैं ने खुद ही खरीदी है.’’

‘‘भई, ये तो मुझे कभी खुद लाने का मौका ही नहीं देते. इस से पहले कि मैं लाऊं ये खुद ही ले आते हैं. लेकिन इस बार मैं ने भी कह दिया है कि अगर मेरे लिए साड़ी लाए तो बहुत लड़ूंगी. हमेशा मेरा ही सोचते हैं. यह नहीं कि कभी कुछ अपने लिए भी लाएं. इस बार मैं उन्हें बिना बताए उन के लिए कपड़े ले आई. दूसरों की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है वह अपनी इच्छाएं पूरी करने में नहीं है.’’

‘‘चलो, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सुशांत ने उस की बातों में खलल डालते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं. किसी दिन आप लोग भी समय निकाल कर आइए न,’’ सुधांशी ने चलते हुए कहा.

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आज हर्षल के घर से लौटने पर सुधांशी के मन में हलचल मची हुई थी. उस के कानों में अमिता के स्वर गूंज रहे थे, ‘एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है, अपनी इच्छाएं पूरी करने में वह नहीं है.’

लेकिन उस ने तो कभी दूसरों की जरूरतों को जानना भी नहीं चाहा था. उस ने तो यह भी नहीं सोचा कि घर में किस चीज की जरूरत है और किस की नहीं? और एक अमिता है, सुंदर न होते हुए भी उस से कहीं ज्यादा सुंदर है. जिम्मेदारियों के प्रति अमिता की सजगता देख कर सुधांशी के मन में ग्लानि का अनुभव हो रहा था.

‘‘अमिता भाभी, बहुत अच्छी हैं न,’’ सुधांशी ने मौन तोड़ते हुए कहा.

‘‘हां,’’ सुशांत ने ठंडी आह छोड़ते हुए कहा.

उस रात सुधांशी चैन से सो न सकी. सुबह उठी तो उसे तेज बुखार था. सुशांत ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने दवा दे दी. सुधांशी को आराम करने के लिए कह कर सुशांत दफ्तर चला गया. सुधांशी को बुखार के कारण सिर में बहुत दर्द था. तभी गरिमा लड़खड़ाते हुए आई, ‘‘कैसी तबीयत है, भाभी? लाओ, तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ कह कर सिर दबाने लगी.

मां भी बहुत चिंतित थीं. समयसमय पर मां दवा दे रही थीं. आज सुधांशी को महसूस हो रहा था कि उस ने कभी भी इन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर भी उस के जरा से बुखार ने किस तरह सब को दुखी कर दिया. अपने पैर में चोट होने के बावजूद गरिमा उस का कितना ध्यान रख रही थी. मां भी कितनी परेशान थीं उस के लिए?

3-4 दिन में सुधांशी ठीक हो गई. आज वह सुशांत से पहले ही उठ गई थी. चाय बना कर सुशांत के पास आई, ‘‘उठिए जनाब, चाय पीजिए, आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’’

सुशांत को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न, आज इतनी जल्दी कैसे जाग गईं?’’ उस ने हड़बड़ाते हुए पूछा.

‘‘जल्दी कहां, मेरी आंखें तो बहुत देर में खुलीं,’’ शून्य में देखते हुए सुधांशी ने कहा.

आज उस ने घर के सारे काम खुद ही किए थे. काम करने में मुश्किल तो बड़ी हो रही थी, मगर फिर भी यह सब करना उसे अच्छा लग रहा था. आज वह पहली बार नाश्ता बनाने के लिए रसोई में आई थी.

‘‘मांजी, आज से नाश्ता मैं बनाया करूंगी,’’ मांजी के हाथ से बरतन लेते हुए सुधांशी ने कहा.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाओगी?’’ मां ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं जानती हूं, मांजी, मुझे कुछ बनाना नहीं आता, लेकिन आप मझे सिखाएंगी न? बोलिए न मांजी, आप सिखाएंगी मुझे?’’

‘‘हां बहू, अगर तुम सीखना चाहोगी तो जरूर सिखाऊंगी.’’

आज सुशांत को बड़ा अजीब लग रहा था. उस का सारा सामान उसे जगह पर मिल गया था. कपड़े भी सलीके से रखे हुए थे. जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आया तो सुधांशी को नाश्ता लाते देख चौंक गया.

‘‘आज तुम ने नाश्ता बनाया है क्या?’’

‘‘क्यों? मेरे हाथ का बना नाश्ता क्या गले से नीचे नहीं उतर पाएगा?’’ मुसकराते हुए सुधांशी बोली.

‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सैंडविच उठाते हुए सुशांत बोला, ‘‘सैंडविच तो बड़े अच्छे बने हैं. तुम ने खुद बनाए हैं?’’ सुशांत ने पूछा, फिर कुछ रुपए देते हुए बोला, ‘‘तुम कल अपनी साडि़यों के लिए पैसे मांग रही थीं न, ये रख लो.’’

सुशांत के दफ्तर जाने के बाद जब सुधांशी ने सैंडविच चखे तो उस से खाए नहीं गए. नमक बहुत तेज हो गया था. उसे सुशांत का खयाल आ गया, जो इतने खराब सैंडविच खा कर भी उस की तारीफ कर रहा था, शायद उस का दिल रखने के लिए सुशांत ने ऐसा किया था. उस की पलकें भीग गईं. प्यार की भावना को देख कर उस का मन श्रद्धा से भर उठा.

उस ने जल्दीजल्दी सारा काम खत्म किया. घर का काम करने में आज उसे अपनत्व का एहसास हो रहा था. फिर उसे सुशांत के दिए गए पैसों का खयाल आया. उस ने गरिमा को साथ लिया

और बाजार गई. सुशांत के दफ्तर से लौटने से पहले उस ने सारा काम निबटा लिया था.

‘‘अपनी साडि़यां ले आईं?’’ शाम को चाय पीतेपीते सुशांत ने पूछा.

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‘‘मेरे पास साडि़यों की कमी कहां है? आज तो मैं ढेर सारा सामान ले कर आई हूं,’’ इतना कह कर उस ने सारा सामान सुशांत के सामने रख दिया, ‘‘यह मां की साड़ी है, यह गरिमा का सूट और यह तुम्हारे लिए.’’

सुशांत उसे अपलक निहार रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही सुधांशी है, जिसे अपनी जरूरतों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था. आज उसे सुधांशी पहले से कहीं अधिक सुंदर लगने लगी थी.

‘‘अपने लिए कुछ नहीं लाईं?’’ प्यार से पास बिठाते हुए सुशांत ने पूछा.

‘‘क्या तुम सब लोग मेरे अपने नहीं हो? सच तो यह है कि आज पहली बार ही मैं अपने लिए कुछ ला पाई हूं. यह सामान ला कर जितनी खुशी मुझे हुई है उतनी कई साडि़यां ला कर भी न मिल पाती. सच, आज ही मैं प्यार का वास्तविक मतलब समझ पाई हूं.

‘‘प्यार एक भावना है, समर्पण की चेतना, खो जाने की प्रक्रिया, मिट जाने की तमन्ना. इस का एहसास शरीर से नहीं होता, अंतर्मन से होता है, हृदय ही उस का साक्षी होता है,’’ कह कर सुधांशी ने अपना सिर सुशांत के सीने पर रख दिया.

Serial Story: एहसास (भाग-2)

लेखिका- रश्मि राठी

सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.

आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.

उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’

उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

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सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.

तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’

‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.

जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.

घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.

एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.

‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.

मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’

शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.

‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.

सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.

अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.

‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.

‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.

वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.

‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.

‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना

चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.

मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.

शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’

‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’

घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.

‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’

‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’

अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.

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सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.

‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.

आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’

यह देख सभी लोग हंस पड़े.

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Serial Story: एहसास (भाग-1)

लेखिका- रश्मि राठी

कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’

मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.

आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.

शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.

सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’

‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.

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सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’

सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.

‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.

सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’

‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’

‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.

आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी  भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’

‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’

‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.

आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.

‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.

‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’

‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’

‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.

आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.

‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.

‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.

‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’

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‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.

याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.

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