एक भावनात्मक शून्य: क्या हादसे से उबर पाया विजय

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एक भावनात्मक शून्य: भाग 3- क्या हादसे से उबर पाया विजय

मानो आसमान से नीचे गिरा मैं. कानों से सुनी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या विजय अपनी सगी बहन से बात नहीं करता? लेकिन क्यों? ऐसा क्यों?

‘‘एक वक्त था…मुझे बहुत तकलीफ हुई थी जब मेरी बहन ने इतना बड़ा मजाक मेरे साथ किया था. किसी पराई लड़की के साथ शर्त लगाई थी. मेरा दोष सिर्फ इतना था कि मैं ने उसे किसी के साथ दोस्ती करने से रोका था. कोई था जो अच्छा नहीं था. उन दिनों मिन्नी बी.सी.ए. कर रही थी. उस की सुरक्षा चाहता था मैं. उस के मानसम्मान की चिंता थी मुझे. नहीं मानी तो मैं ने मम्मी से बात की. मान गई थी मिन्नी…उस के साथ दोस्ती तोड़ दी…और उस का बदला मुझ से लिया अपनी एक सहेली से मेरी दोस्ती करा कर.’’

मैं टुकुरटुकुर उस का चेहरा पढ़ता रहा.

‘‘मेरी बहन है न मिन्नी. मुझे कैसी लड़कियां पसंद हैं उसे पता था. बिलकुल उसी रूप में ढाल कर उसे घर लाती रही. मुझे सीधीसादी वह मासूम प्यारी सी लड़की भा गई. मम्मीपापा को भी वह घरेलू लगने वाली लड़की इतनी अच्छी लगी कि उसे बहू बना लेने पर उतारू हो गए. हमारा पूरा परिवार उस पर निछावर था. वह मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी समूल भावनाएं उसी पर जा टिकी थीं.

‘‘मैं कोई सड़कछाप आशिक तो नहीं था न सोम, ईमानदारी से अपना सब उस पर वार देने को आतुर था. क्या यही मेरा दोष था? क्या प्रेम की भूख लगना अनैतिक था? पूरी श्रद्धा थी मेरे मन में उस के लिए और जिस दिन मैं ने उसे अपने मन की बात कही उस ने खिलखिला कर हंसना शुरू कर दिया. क्षण भर में उस का रूप ऐसा बदला कि मेरी आंखें विश्वास ही नहीं कर पाईं. वह मिन्नी से शर्त जीत चुकी थी.

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‘‘ ‘तुम्हारी बहन को किसी से प्रेम हो जाए तो गलत. अब तुम्हें मुझ से प्रेम हो गया तो सही. कैसे दोगले इनसान हो तुम.’ ’’

चुप हो गया विजय कहताकहता. धीरेधीरे बच्ची की आंखों के किनारे पोंछने लगा. सोईसोई भी वह रो रही थी. प्रश्न लिए आंखों में मुझे देखा विजय ने.

‘‘यह बेजबान बच्ची देखी है न, इतना रोई मेरे गले को अपने छोटेछोटे हाथों से कस कर कि मैं पत्थर हूं क्या जो समझ ही न पाऊं? मिन्नी तो मेरा खून है. क्या उसे पता नहीं चल सकता था मैं उस से कितना प्यार करता हूं. दुश्मन था क्या मैं? प्यार कोई तमाशा है क्या जिसे जहां चाहो मोड़ लो. उस का भला चाहा क्या यही मेरा दोष था. वह पल और आज का दिन मेरा मन ही मर गया. अब न मिन्नी के लिए दर्द होता है न अपने लिए ही कोई इच्छा जागती है.’’

रो पड़ा था मैं. स्नेह से विजय का हाथ पकड़ लिया, सोच रहा था…मैं भावुक हूं…मैं हूं जो भावना को सब से ऊपर मानता हूं.

‘‘वह लड़का अच्छा होता तो मैं मिन्नी का साथ देता,’’ विजय पुन: बोला, ‘‘उस की पढ़ाई पूरी हो जाती, कुछ तो भविष्य होता दोनों का. मैं तो नौकरी कर रहा था. शादी की उम्र थी मेरी. मांबाप भी सहमत थे. मैं गलत कहां था जो उस लड़की के मुंह से मुझे दोगला इनसान कहला भेजा. उस की हंसी मैं आज भी भूल नहीं पाता.

‘‘उस के बाद कुछ समझ में आया होगा मिन्नी के. मम्मीपापा ने भी डांटा. मुझ से माफी भी मांगी लेकिन दिल से मैं उसे माफ नहीं कर सका. बहन है राखी पर राखी बांध देती है. भाई हूं न, कहीं भाग तो नहीं सकता. मुसाफिर जैसी लगती है वह मुझे, जैसे सफर में कोई साथ हो. अपनी नहीं लगती. मैं मन को समझाता भी हूं. बुरा सपना समझ सब भूल जाना चाहता हूं लेकिन मन का कोना जागता ही नहीं, सदासदा के लिए मर गया.’’

‘‘मर गया मत कहो विजय, सो गया कहो. जीवन में सब का एक हिस्सा प्रकृति निश्चित कर देती है. जो लड़की उस ने तुम्हारे लिए बनाई है वह अभी तुम्हारी आंखों के सामने आई ही नहीं तो कैसे तुम्हारा सोया कोना जागे. तुम एक अच्छे ईमानदार इनसान हो. कोई भी ऐसीवैसी तुम्हारी साथी नहीं न हो सकती. तुम्हारे समूल भाव बस उसी के लिए हैं जिन्हें तुम टुकड़ाटुकड़ा कर कहीं भी बिखेरना नहीं चाहते, जिसे भी मिलोगे तुम पूरेपूरे मिलोगे.

‘‘यह पूरापूरा, प्यारा सा मेरा भाई जिसे मिलेगा वह खुद भी तो उतनी ही सच्ची और ईमानदार होगी…और ऐसी लड़कियां आजकल बहुत कम मिलती हैं, बहत कम होती हैं ऐसी लड़कियां. इसलिए कीमती होती हैं लेकिन होती हैं यह एक शाश्वत सत्य है. तुम्हारा हिस्सा तुम्हें मिलेगा यह निश्चित है.’’

टपकने लगी थीं विजय की आंखें. मैं कंधा थपका कर कहने लगा, ‘‘क्या इसीलिए सब से दूरदूर भागते हो? चोर या अपराधी हो क्या तुम? मत भागो सब से दूर. मिन्नी तो सब के साथ घुलमिल कर खुश है और तुम व्यर्थ कटे से हो सब से. हादसा था, हुआ, बीत गया. माफ कर दो बहन को. हो सकता है उसे भी वह लड़का बहुत ज्यादा पसंद हो. प्यार की सीमा जरा अलग और ज्यादा विशाल होती है इतना तो मानते हो न. तुम भाई हो, तुम्हारे प्यार की हद उस सीमा से टकरा गई थी…बस, इतना ही हुआ था. इस में इतना गंभीर होने की क्या जरूरत है. जरा सोचो…माफ कर दो मिन्नी को. तुम्हारा हर सोया कोना जाग उठेगा.’’

सुनता रहा विजय. जैसे उस ने भी बरसों बाद अपना मन खोला था किसी के साथ. बच्ची सहसा उठ कर रोने लगी थी. वही टूटेफूटे शब्द थे, ‘पा…पा…’

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‘‘आजा बच्चे मेरे पास.’’

समस्त अनुराग से विजय ने नताशा की मासूम सी गुडि़या बिटिया को पास खींच लिया…चूम कर गले से लिपटा लिया… बड़बड़ाने लगा, ‘क्या होगा इस बच्ची का. हम सब तो परसों चले जाएंगे तब इस का क्या होगा?’

विजय उठ कर कमरे में टहलने लगा था और बच्ची को थपथपा कर सुलाने का प्रयास करने लगा. नताशा भी बच्ची का रोना सुन कर चली आई थी. दोनों मिल कर उसे चुप कराने की कोशिश में थे.

मैं सब सुन कर और देख कर कुछ दुखी था. भावनाओं में जीने वाला इनसान ऐसे ही तो जीता है. कभी अपनी पीड़ा पर परेशान और कभी दूसरे की तकलीफ…दर्द पर दुखी. सत्य है उस की पीड़ा…और यही तो उस की कमाई है. भावुक न हो तो जी ही न पाए. यह भावुकता ही तो है जो मनुष्य को जमीन से जोड़ती है. आज हर तीसरा इनसान आज के तेज युग के साथ भागता हुआ कहीं न कहीं अपनी जमीन से कट रहा है और गहरा अवसाद उस का साथी बनता जा रहा है. सोचा जाए तो आज हम कहां जा रहे हैं, हमें ही पता नहीं. कहीं न कहीं तो हमें जमीन से जुड़ना पड़ेगा न. बिना जुड़े हमारा भविष्य हमें एक भावनात्मक शून्य के सिवा कुछ नहीं दे पाएगा…वह चाहे आप हों चाहे हम.

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एक भावनात्मक शून्य: भाग 2- क्या हादसे से उबर पाया विजय

सुनता रहा विजय सब. बस, जरूरत की बात करता रहा जिस के बिना गुजारा नहीं चल सकता था.

‘‘अब तुम्हारे घर पर ही देख लो. मिन्नी की शादी के बाद तुम भी अकेले रह जाओगे. घरबाहर, मांबाप सब को अकेले ही तो देखना होगा. मिन्नी का पति घुलमिल गया तो ठीक. नहीं तो एक असुरक्षा की भावना तो है ही न. जैसे मुझ में है… किसी अपने को ही खोजता रहता हूं… कोई अपना ऐसा जिस पर भरोसा कर सकूं. तुम्हारी तो एक बहन है भी, मेरे पास तो वह भी नहीं है.’’

मेरे इस वाक्य से उसे एक झटका सा लगा. गाड़ी के स्टेयरिंग पर उस के हाथ घूम गए और पैर बे्रक पर जम गए. बहुत गौर से उस ने मुझे देखा.

‘‘क्या हुआ, विजय? रुक क्यों गए?’’ इतना कह कर मैं सोचने लगा कि सामने कोई वाहन भी नहीं था जिस वजह से उस ने गाड़ी कच्चे पर उतार दी थी. परेशान सा हो गया सहसा जैसे कुछ नया ही सुन लिया हो, कुछ ऐसा जो अविश्वसनीय हो.

विजय स्वयं ही मुसकरा भी पड़ा. हंस कर गरदन हिला दी मानो मैं ने कोई बेवकूफी भरी बात कर दी हो. कहीं वह मुझे ‘इमोशनल फूल’ तो नहीं समझ रहा. अकसर लोग मुझ जैसे इनसान को एक भावुक मूर्ख की संज्ञा भी देते हैं. ऐसा इनसान जिस की जिंदगी में भावना का स्थान सब से ऊपर आता है, ऐसा इनसान जो सोचता है कि एक मानव दूसरे मानव के बिना अधूरा है, ऐसा इनसान जो रिश्तों को तोड़ना नहीं, निभाना चाहता है.

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विजय के व्यवहार से मैं किसी निष्कर्ष तक पहुंचने लगा था, कहीं कुछ ऐसा है अवश्य जिस की वजह से उस में इतना बदलाव है वरना विजय तो ऐसा नहीं था, खुश रहता था, भावुक था, 20 साल की उम्र तक तो हम निरंतर मिले ही थे, वह तो इंजीनियरिंग करने के लिए मुझे इतना दूर जाना पड़ा था, जिस वजह से मेरा ननिहाल छूट गया था. मेरी शादी में मामा अकेले आए थे क्योंकि तब मिन्नी के एम.सी.ए. के इम्तहान थे. विजय तब भी नहीं आया था क्योंकि उस के पास छुट्टी नहीं थी.

घर चले आए थे हम. घर के बाहर पार्क में रात को महिला संगीत का कार्यक्रम था. खासी चहलपहल थी. नताशा की सहेलियां, सीमा की सहेलियां, सभी पढ़ीलिखी, सुंदर, स्मार्ट. मेरी तो भावनाएं अब पत्नी तक सीमित हैं लेकिन विजय तो कुंआरा है, वह एक बार भी बाहर भीड़ में नहीं आया. उस ने एक बार भी किसी चेहरे पर नजर टिकाना नहीं चाहा. कपड़े बदल कर वहीं अपने कमरे में चुपचाप किसी किताब में लीन था.

‘‘आओ विजय, नीचे आ जाओ न. देखो, कितनी रौनक है. इतने पराए से क्यों हो गए हो भाई. क्या हो गया है तुम्हें? तुम तो ऐसे नहीं थे.’’

मेरे होंठों से निकल ही गया. बड़ी चाह से मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया. किताब हाथ से छीन ली.

मेरा मान रख लिया था विजय ने. कोट पहन नीचे चला आया. बहुत सुंदर और शालीन है विजय. लंबा कद और आकर्षक व्यक्तित्व. आंखों पर चश्मा, इंजीनियरिंग कालिज में पढ़ाने वाला एम-टेक नौजवान. क्या कमी है इस में? सुनने में आया था, शादी ही नहीं करना चाहता. चला तो आया था मेरे साथ लेकिन भीड़ से अलग एक तरफ जा बैठा था जहां सोफे पर नताशा की बेटी सो रही थी. प्यारी सी गुडि़या, बुखार में तपती हुई.

‘‘खाना खा ले बेटा.’’

मौसी के अनुरोध पर मैं खाने की तरफ चला आया. आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. नताशा की प्यारी सी गुलाबी कपड़ों वाली बिटिया विजय के गले से लिपटी हुई थी और वह बड़े ममत्व से उस से बातें कर रहा था.

नताशा की सास पास ही खड़ी खाना खा रही थी. पता चला पिछले 2 घंटे से बिटिया ने विजय को इसी तरह पकड़ रखा है. नताशा का पति देखने में ऐसा ही लगता है न, मासूम बच्ची पिता समझ यों लिपट गई थी कि बस. सारा बुखार उड़न छू हो गया था. विजय के हाथ से ही उस ने दूध की बोतल पी थी और विजय के हाथों में ही अब वह सोने भी जा रही थी. नताशा को भी चैन की सांस आई थी.

‘‘विजय भैया ने मेरी बेटी बचा ली,’’ नताशा बोली, ‘‘मुझे तो लगता था यह बुखार इस की जान ही ले लेगा.’’

आंखें गीली थीं नताशा की. मैं ने स्नेह से पास खींच लिया था. उदास थी नताशा. विजय ने भी हाथ बढ़ा कर उदास नताशा का माथा सहला दिया.

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‘‘अब कितनी बार रोएगी पगली, बच्ची तो नासमझ है जो बस, पापापापा ही बोल पाती है. तुम ने मामा कहना सिखाया ही नहीं वरना मुझे मामा कह कर ही पुकारती. बेचारी पापा कहना ही जानती है इसलिए पापा कह कर ही मेरी गोद में आ गई…चल, फोन लगा अमेरिका…अभी इस के पापा से बात कर.’’

जेब से मोबाइल निकाल विजय ने नताशा की तरफ बढ़ा दिया था.

‘‘आज उन का फोन आया था. पूछ रहे थे बिटिया के बारे में. अभी मैं बात नहीं कर…’’

इतना कह नताशा पुन: रोने लगी थी. क्षण भर में फूट पड़ी थी नताशा जिसे विजय ने किसी तरह समझाबुझा कर बहलाया था.

रात अपने कमरे में सोने गए तब बिटिया विजय की बगल में ही थी. मिन्नी पास नहीं थी, वह शायद सीमा के साथ थी. उस की जगह मैं लेट गया. प्यारी सी बच्ची हम दोनों के बीच में सो रही थी. विजय उस का माथा सहला रहा था. ढेर सा प्यार था उस पल विजय की आंखों में, सहसा पूछने लगा, ‘‘भाभी का हाल पूछा कि नहीं. वह ठीक हैं न?’’

हां में सिर हिला दिया मैं ने. ऐसा लग रहा था जैसे विजय किसी खोल में से बाहर आ गया है. बिटिया का नन्हा सा हाथ चूमते हुए मानो भीतर की सारी ममता वह उस पर बरसा रहा था.

‘‘इनसान को भूख हर पल तो नहीं लगती न. इस पल इस जरा सी जान को पिता के प्यार की भूख है. पिता पास नहीं हैं, नताशा को पति का प्यार चाहिए, पति पास नहीं है, मां इस पल यही सोच कर बेचैन हैं…अगर मर गईं तो बेटा आग भी दे पाएगा या नहीं, बुढ़ापे को जवान बेटा चाहिए जो दूर है. आज ये सब लोग उस इनसान के भूखे हैं कल नहीं रहेंगे. आदत पड़ जाएगी इन्हें भी उस के बिना जीने की. इन की भूख धीरेधीरे मर जाएगी. यह जीना सीख जाएंगे. ऐसा ही होता है सोम जब भूख हो तभी कुछ मिले तो संतुष्टि होती है. हर भूख का एक निश्चित समय होता है.’’

सांस रोके मैं उसे सुन रहा था.

‘‘ऐसा ही होगा इस बच्ची के साथ भी. धीरेधीरे पिता को भूल जाएगी. नताशा का भी पति से बस उतना ही मोह रह जाएगा जितना डालर का भाव होगा. आज वह इन के मोह को पीठ दिखा कर चला गया कल जब उसे जरूरत होगी इन लोगों के मन मर चुके होंगे. किसी के प्यार का तिरस्कार कभी नहीं करना चाहिए सोम. बदनसीब है वह पिता जो आज इस बच्ची का प्यार नकार कर चला गया. मैं होता तो इतनी प्यारी बेटी को छोड़ कभी नहीं जाता. रुपया रुपया होता है, सोम. वह भावना का स्थान कभी नहीं ले सकता.’’

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‘‘तुम शादी क्यों नहीं करते विजय. पता चला था तुम ने फैसला ही कर लिया है…क्या मिन्नी का इंतजार कर रहे हो. उस की हो जाए उस के बाद करोगे.’’

‘‘मिन्नी का तो मम्मीपापा जानें… मुझे अपना पता है. बस, शादी नहीं करना चाहता.’’

‘‘मिन्नी के लिए मम्मीपापा क्यों जानें? तुम भाई हो न.’’

‘‘मिन्नी से बात किए मुझे शायद 5-6 साल हो गए. हम आपस में बात ही नहीं करते. तुम तरस रहे हो तुम्हारी कोई बहन होती. मेरी है न, मैं उस से बोलता ही नहीं.’’

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एक भावनात्मक शून्य: भाग 1- क्या हादसे से उबर पाया विजय

काफी समय के बाद विजय से मिलना हुआ. मौसी की बेटी की शादी थी. मामा की एक बेटी थी मिन्नी और बेटा विजय. मिन्नी बचपन से ही नकचढ़ी थी और विजय मेधावी और शालीन. मिन्नी काफी सभ्य, समझदार और विजय भी एक पूर्ण अस्तित्व. समूल परिपक्वता लिए हुए नजरों के सामने आए तो समझ ही नहीं पाया कैसे बात शुरू करूं. अजनबी से लगे वे. बचपन का प्यार, बिना लागलपेट का व्यवहार कहां चला गया. मिलने का उत्साह उड़नछू हो गया जब विजय ने बस इतना ही पूछा, ‘‘कहो, कैसे हो? सोम ही हो न. बहुत समय के बाद मिलना हुआ. घर में सब ठीक हैं न. शांति बूआ के ही बेटे हो न?’’

अवाक् रह गया था मैं. सोचा था झट से गले मिलूंगा सब से. कितना सब बांट लूंगा बचपन का, वह बारिश में भीग कर छींकना…

मेरे और विजय के कपड़े बदलवाती मामी सारा दोष विजय पर ही थोप देतीं. ‘क्यों वह मेरे साथ मस्ती करता रहा,’ बड़बड़ा कर तुलसी का काढ़ा पिलातीं और खबरदार करतीं कि फिर से बारिश में गए तो घर से ही निकाल देंगी. बहुत प्यार करती थीं मामी मुझे. हर साल मामी के पास जाने की एक और वजह भी थी, मामी नारियल और खसखस के लड्डू बड़े स्वादिष्ठ बनाती थीं. तरहतरह के व्यंजन बना कर खिलाना मामी का प्रिय शौक था.

‘‘मामीजी कैसी हैं विजय, उन्हें साथ नहीं लाए?’’

‘‘मां भी चली आतीं तो पापा अकेले रह जाते. मेरे पास भी छुट्टी नहीं थी. मजबूरीवश आना पड़ा. यहां मामा की जगह सारी रस्में मुझे जो निभानी हैं. पापा तो चलफिर नहीं न सकते…’’

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विजय ने मजबूरी स्वीकार कर ली थी, जो उस के व्यवहार में भी झलक रही थी. जाहिर था वह यहां आ कर खुश नहीं था. एक मजबूरी ढोने आया था, बस.

‘‘बूआ और फूफाजी नहीं आए? कैसे हैं वे दोनों?’’ मिन्नी ने सवाल किया था. शायद मैं ने उस के मांबाप का हालचाल पूछा था इसलिए मिन्नी ने भी कर्ज उतार दिया था. मन बुझ सा गया था. ये दोनों वे नहीं रहे, कहीं खो से गए हैं दोनों.

खासी चहलपहल थी घर में. मौसी की बड़ी बेटी नताशा और छोटी सीमा है जिस की शादी में हम आए हैं. नताशा का पति अभी कुछ दिन पूर्व अमेरिका गया है. शादीब्याह में दस काम करने को होते हैं. एक वजह यह भी थी सोम के आने की.

‘‘सोमू भैया, तुम….’’

मेरी तंद्रा टूटी थी.

नताशा सामने खड़ी थी. गहनों से लदीफंदी. पहले से थोड़ी मोटी और सुंदर.

‘‘हाय, सोमू भैया,’’ हाथों में पकड़े बैग पटक लगभग भाग कर आई थी मेरे पास और मेरे गले से लिपट मेरे गाल पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए थे.

‘‘कैसी हो, नताशा?’’

मन भर आया था मेरा. मैं अकेली संतान हूं न अपने मांबाप की जिस वजह से किसी भाईबहन का प्यार मुझे सदा दरकार रहता है. नताशा मेरी प्यारी सी बहन है. इस की शादी में भी आया था मैं, भाई की हर रस्म मैं ने ही पूर्ण की थी.

‘‘सुना है श्रीमान अमेरिका गए हैं… बिटिया कैसी है?’’

‘‘क्या बताऊं भैया, बिटिया ने बहुत तंग कर रखा है. अपने पापा के बिना उदास हो गई है. उस का बुखार ही नहीं उतर रहा. जब से गए हैं तब से बुखार में तप रही है.’’

अपनी दादी की गोद में थी बिटिया. खाना खा कर हम सब अपने कमरे में आ गए, जहां नन्ही सी बच्ची बुखार में तप रही थी. नताशा शादी के काम में व्यस्त थी और उस की सास पोती की देखभाल में. कुछ ही पल में मैं तो दोनों दादीपोती से हिलमिल गया लेकिन मिन्नी और विजय औपचारिक बातचीत के बाद आराम करने के लिए लेट गए. 2 साल की गोलमटोल बच्ची तेज बुखार में तप रही थी.

‘‘क्या बताएं बेटा, सभी टेस्ट करा चुके हैं. कोई रोग नहीं. बाप वहां उदास है… बेटी यहां तप रही है.’’

बेटे के वियोग में मां भी बेचैन और बेटी भी. नताशा की आंखें भी भर आई थीं.

‘‘मैं ने बहुत समझाया था उन्हें, माने ही नहीं. कहने लगे, तरक्की करनी है तो परिवार का मोह छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘एक ही बेटा है मेरा…इतना बड़ा घर है. बिटिया के दादाजी की पेंशन आती है. हमारी कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी उस पर, कहता है कि बिटिया ही बहुत है और बच्चा नहीं चाहिए…अब इस बिटिया के लिए क्या यहां कुछ कम था जो पराए देश में जा बसा है. इस बिटिया के लिए ही न सारा झमेला, बिटिया ही न रही तो किस के लिए सब. महीना भर हुआ है उसे गए और महीना ही हो गया है हमें डाक्टरों के चक्कर लगाते. क्या करें हम.’’

‘‘आजा, बेटा मेरे पास,’’ यह कह कर मैं ने हाथ बढ़ाए तो बिटिया ने झटक दिए.

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‘‘किसी के पास जाती भी तो नहीं, दादीदादा और मां के सिवा कोई हाथ न लगाए.

वैसे तो सारा इंतजाम होटल में है फिर भी…’’ नताशा ने मन खोला था.

‘‘कोई बात नहीं, मैं और विजय हैं ही. तुम हमें काम समझा दो. आज और कल 2 दिन की ही तो बात है. काम बांट दो न, हम कर लेंगे सब…क्यों विजय?’’

पुकार लिया था मैं ने विजय को. ममेरा भाई है, शादी में काम तो कराएगा न. लाख अजनबी लगे, है तो अपना.

तय हो गया सब. कल जब सब घर से चले जाएं तब पूरे घर की जिम्मेदारी विजय पर. शादी का सारा सामान घर पर है न. सोना, चांदी, जेवर, कपड़े और क्या नहीं. सिर्फ मामा की मिलनी के समय विजय होटल में जाएगा. जैसे ही रस्म हो जाए वह घर वापस आ जाएगा और तब तक मौसी के पड़ोसी उन के घर का खयाल रखेंगे. मेरे जिम्मे था होटल का सारा इंतजाम देखना.

‘‘सीमा को ब्यूटी पार्लर से लाने का काम भी विजय का. विजय सीमा को होटल छोड़, रस्म पूरी कर घर आ जाएगा. क्यों विजय, ठीक रहेगा न?’’

गरदन हिला दी थी विजय ने. उसी शाम हम दोनों जा कर सभी रास्ते समझ आए थे. लगभग पूरी शाम हम साथ रहे थे. वह चुप था. उस ने अपनी तरफ से कोई भी बात नहीं की थी. मैं ही था जो निरंतर उसे कुरेद रहा था.

‘‘शादी कब कर रहे हो, विजय? सीमा के बाद अब तुम दोनों ही बच गए हो, जो आजाद घूम रहे हो.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी कैसी है सोम? उसे साथ क्यों नहीं लाए?’’

‘‘तुम चाचा बनने वाले हो न. आजकल में कभी भी, इसीलिए मम्मी और पापा भी नहीं आ पाए.’’

‘‘अरे, ऐसी हालत में तुम पत्नी को छोड़ कर यहां चले आए.’’

‘‘क्या करें भाई, यही तो गृहस्थी है. अपने घर के साथसाथ भाईबहन का घर भी तो देखना चाहिए. यहां मौसी का कोई बेटा होता तो वही संभाल लेता न सब. अब संयोग देखो, दामादजी हैं तो ठीक शादी से पहले अमेरिका चले गए. छोटे परिवारों की यही तो त्रासदी है. एक भी सदस्य कम हो जाए तो सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

आगे पढ़ें- विजय स्वयं ही मुसकरा भी पड़ा….

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