Serial Story: एक ही भूल (भाग-2)

यह सुनते ही विनय का चेहरा सफेद पड़ गया. बोला, ‘‘यह नहीं हो सकता डाक्टर… इतने छोटे बच्चे को कैंसर कैसे… यह नहीं…’’ शब्द उस के हलक में अटकने लगे. मन ही मन सोचने लगा कि काश, यह खबर  झूठ निकले… काश टैस्ट रिपोर्ट गलत हो, क्योंकि उस का मन यह मानने को कतई तैयार नहीं हो रहा था.

‘‘विनय बीमारी उम्र नहीं देखती. आप हिम्मत रखिए… यह रोग गंभीर तो है, मगर लाइलाज नहीं है… हमारे अस्पताल में हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध है. हम आज से ही कबीर का इलाज शुरू कर देते हैं… बस आप कुछ औपचारिकताएं पूरी कर दीजिए.’’

लड़खड़ाते कदमों के साथ विनय सारिका के पास पहुंचा. कबीर आंखें मूंदे सारिका से एक कहानी सुन रहा था. उस के भोले चेहरे पर शांति थी. विनय की आहट सुन कर उस ने धीरे से आंखें खोली. बोलीं, ‘‘पापा, मु झे यहां नहीं रहना, घर जाना है,’’ और उस ने विनय का बाजू पकड़ लिया.

‘‘हां बेटे हम बहुत जल्दी घर जाएंगे,’’ विनय ने भर्राए गले से कहा और फिर कबीर को छाती से लगा लिया.

कबीर ने फिर आंखें मूंद लीं. कुछ ही पलों में वह नींद के आगोश में चला गया. बीमारी से हुई कमजोरी अब उस के चेहरे पर साफ दिखने लगी थी.

खुद पर काबू करते हुए विनय ने सारिका को धीरेधीरे सब बताया. जो वज्रपात विनय पर हुआ था वही सारिका पर भी हुआ. उस ने कातर नजरों से सोए बेटे की ओर देखा.

यह कैसा मजाक किया कुदरत ने? उन्हें दुनिया में जो चीज सब से प्यारी है उसे ही छीनने की साजिश रच दी.

कुछ समय बाद कबीर को गोद में लिटाए दोनों घर आ गए. इलाज में लाखों रुपए खर्च होने थे, जिस के लिए सारिका ने अपने सारे गहने विनय के सामने ला कर रख दिए. बोली, ‘‘कुछ भी करो, मेरे बच्चे को बचा लो प्लीज विनय… मैं इस के बिना नहीं रह सकती,’’ और फिर माथा पकड़ वहीं जमीन पर बैठ जोरजोर से रोने लगी.

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‘‘मैं कुछ नहीं होने दूंगा अपने बच्चे को सारिका… इस के इलाज में भले ही सबकुछ बिक जाए, मगर इसे कुछ नहीं होने दूंगा,’’ कह विनय ने सारिका को बांहों में थाम लिया.

विनय के कंधे पर सिर रख सारिका सारी रात आंसू बहाती रही. रो तो विनय भी रहा था, मगर दिल ही दिल. उस के कंधों पर एक बाप और पति होने की जिम्मेदारी जो थी. इस मुश्किल घड़ी में वह खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था.

कबीर रहरह कर नींद से जाग उठता था. वह उन दोनों को देखता तो दोनों  झट से अपने आंसू पोंछ कर मुसकरा कर उस से बातें करने लगते.

विनय और सारिका ने अपने मन को तैयार कर लिया था. जिंदगी और मौत की इस लड़ाई को लड़ने के लिए दोनों ने हर हाल में अपने जिगर के टुकड़े को बचाने के लिए कमर कस ली थी. आएदिन दोनों कबीर को ले कर अस्पताल के चक्कर काटते. एक के बाद एक टैस्ट करवाने के लिए भागदौड़ करते.

बीमारी अपनी शुरुआत में थी. मगर इस छोटी उम्र में कोई भी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती थी. शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटने की वजह से उसे संक्रमण बहुत जल्दी हो जाए, आएदिन तेज बुखार चढ़ जाता.

विनय ने सारी जमापूंजी उस के इलाज में लगा दी. दोस्तों और रिश्तेदारों से भी उधार लिया. पैसा पानी की तरह बह रहा था, मगर कबीर की हालत में मामूली सुधार था.

अस्पताल में दाखिल कबीर का कमजोर शरीर बीमारी से दिनोंदिन कुम्हलाने लगा. अब तक उस की तबीयत खास थेरैपी और दवा से स्थिर थी, मगर यह स्थायी इलाज नहीं था.

कुछ दिन बाद डाक्टर ने विनय और सारिका को बोन मैरो सर्जरी के बारे में बताया. कबीर को अपने मातापिता में से किसी एक का बोन मैरो ट्रांसप्लांट हो सकता था, जो उस जानलेवा बीमारी का एकमात्र स्थायी उपचार था.

सारिका और विनय इस के लिए तैयार थे पर दोनों के ही बोन मैरो नहीं मिल पाए. यह बेहद निराशाजनक बात थी, क्योंकि सर्जरी के लिए बोन मैरो डोनर मिलना बेहद जरूरी था.

‘‘मगर डाक्टर यह कैसे हो सकता है…हम इस के मांबाप हैं?’’ विनय ने पूछा.

‘‘जरूरी नहीं है विनय… कभीकभी मांबाप में से कोई भी डोनर नहीं बन पाता… हालांकि यह बहुत कम होता है. आमतौर पर पिता या मां का या फिर सगे भाईबहन का बोन मैरो मैच हो जाता है. खैर, हम हार नहीं मान सकते. हमें कबीर के लिए जल्द से जल्द एक डोनर ढूंढ़ना ही पड़ेगा, क्योंकि हमारे पास वक्त बहुत कम है.’’

‘एक आखिरी उम्मीद भी टूट गई थी. इतनी जल्दी कहां मिलेगा डोनर जो कबीर को नई जिंदगी दे सके,’ सोच में डूबा विनय कमरे के चक्कर लगा रहा था.

सारिका उसे चुपचाप देखती रही. उस के मन की उथलपुथल उस वक्त कोई नहीं सम झ सकता था.

रातभर रहरह उसे कुछ कचोटता रहा. ग्लानि, पछतावा, अपराधबोध या

फिर कुदरत का खेल… सारिता सम झ ही नहीं पा रही थी कि अचानक उन की हंसतीखेलती जिंदगी में यह कैसा जलजला आ गया. क्यों आज वह इस दोराहे पर खुद को खड़ा पा रही जहां एक ओर कबीर की जिंदगी का सवाल है तो दूसरी ओर वह राज जो उस के सीने में आज तक दफन है. क्या करे वह क्या न करे? अजीब कशमकश थी मन में… अब कोई चारा भी तो नहीं रहा था… अब चाहे जो भी सजा मिले, अपनी औलाद की जिंदगी से बढ़ कर कुछ नहीं है उस के लिए.

सारिका रातभर सोचती रही. क्या कहेगी विनय से, किस तरह कहेगी, शब्दों को तोलती रही. कहना तो पड़ेगा ही वरना अनर्थ हो जाएगा. अब वक्त आ गया था कि वह इस राज से परदा उठा दे.

किसी फिल्म की रील की तरह सारी बातें उस के जेहन में घूमने लगीं. वह कितना खुशगवार दिन था जब वह विनय की दुलहन बन कर उस के घर आई थी. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर सारिका को मानो दुनियाभर की खुशियां मिल गई थीं. एक नए शहर में अपनी नई गृहस्थी की शुरुआत के वे खूबसूरत दिन सारिका को आज भी याद थे…

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‘‘सुनो, मेरा चयन हो गया है… अगले सोमवार से मैं काम पर जाना शुरू

कर दूंगी… सुबह का नाश्ता बना जाया करूंगी,’’ सारिका को नई नौकरी मिलने की जितनी खुशी हो रही थी उस से ज्यादा चिंता विनय के खानेपीने को ले कर थी.

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