एक रात की उजास : क्या उस रात बदल गई उन की जिंदगी

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

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