चुनाव इतने निरर्थक क्यों हैं

हालांकि 5 विधानसभा चुनावों के बाद सरकारें बन गई है पर क्या इन चुनाव परिणामों के बाद औसत आदमी और विशेषतौर पर औसत औरतों की जिंदगी पर कोई असर पडऩे वाला है. आजकल हर 5 साल में 3 चुनाव होते हैं. केंद्र का, राज्य विधानसभा का, म्यूनिसिप्लैटी का जिला अध्यक्ष का पर हर चुनाव के बाद वादों और नारों के जीवन उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहता है.

चुनाव भारत में ही नहीं, लगभग सारी दुनिया में न उत्साह जगाते है, न नई आशा लाते हैं. लगभग सभी देशों में चुनाव अखबारों की सुर्खियों में कुछ माह बने रहते हैं. पर जनता पर कोई असर पडऩा हो, यह नहीं दिखता. शायद ही किसी देश में चुनावों से ऐसी सरकार निकली जिस ने पूरी जनता की कायापलट कर दी हो. भारत में 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी पर 2004 तक लोग खिन्न हो चुके थे कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार आ गई. यानी लोगों को चुनी सरकार का काम पसंद नहीं आया.

2009 में कांग्रेस एक बार फिर आई पर 2014 में उसे रिजैक्ट कर दिया गया. 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आई और आज भी मजबूती से बैठी है पर फिर क्या? क्या कहीं कुछ ऐसा हो रहा है जो पहले नहीं हुआ. कहीं नई सरकार का असर दिख रहा है?

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चुनावों से सरकारें आती जाती रहती हैं या बनी भी रहती हैं पर जनता को कोई लंबाचौड़ा अंतर नहीं दिखता. आखिर क्यों? वह लोकतंत्र किस काम का, वह वोिटग किस काम की, वह हल्लागुल्ला किस काम का जब अंत में वही या उसी तरह के लोग उसी तरह से देश चलाने रहें.

भारत में सब कुछ अच्छा हो रहा है. यह दावा तो बहुत थोड़े से ही कर सकेंगे. चुनाव देश की कार्यप्रणाली को बदलने में पूरी तरह असफल होते जा रहे हैं. घर में एक बच्चा होता है, घर की शक्ल बदल जाती है. शादी हो जाती है, घर व रवैया बदल जाता है. किसी की अकाल मृत्यु होती है, झटका लगता है. कुछ भी पहले की तरह नहीं होता रहता. फिर चुनाव देश की जिंदगी में ऐसा बदलाव क्यों नहीं करते जैसे एक व्यक्ति जिंदगी में बच्चे होना उन की पढ़ाई में सफलता मिलना, नौकरी मिलना, दोस्ती बनने से होती है. चुनाव इतने निरर्थक से क्यों हैं.

लोग लेट देने जा रहे हैं. पिछले चुनावों में 4 विधानसभाओं ने उसी पार्टी को चुना जो पहले थी. तो अब वहां क्या नया होगा? पंजाब में कुछ दिन नई पार्टी का नयापन दिखेगा पर फिर सब कुछ दर्रे पर आ जाएगा. तो क्या चुनाव निरर्थक हो गए हैं?

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जीवन में पढाई-लिखाई का सबसे एहम महत्व  है .’बिना पढाई के कोई भी व्यक्ति जीवन में कुछ खास नहीं कर पाता’; यह अक्सर बड़ों को कहते सुना जाता है.

लेकिन यह कहावत हमारे आजकल के नेताओं के ऊपर फिट नहीं बैठती. अगर आज के प्रचलित नेताओं की एजुकेशन की बात करें तो शायद 60 और 40 का अनुपात मिले .

यानी 60% ऐसे होंगे जिन्होंने कुछ खास पढ़ाई नहीं की होगी.

लेकिन आज राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय है . उन्हें सरकार चलाना और हर एहम मुद्दों पर अपनी राय रखना बखूबी आता है.

देश की प्रगति के लिए वे अच्छी योजना व कार्य कर रहे है.

आइये आज हम आपको कुछ ऐसे ही नेताओ के बारे में  बताते है.

1. मोदी जी

मोदी ने गुजरात यूनिवर्सिटी से एमए किया है. उन्होंने 1978 में दिल्ली विश्वविद्यालय से आर्ट्स में ग्रेजुएशन किया है.

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2. मेनका गाँधी

उन्होंने केवल इंटरमीडिएट तक ही पढाई की है यानि की सिर्फ बारवीं कक्षा तक ही उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है. मेनका गाँधी ने शादी भी बहुत जल्दी कर ली थी उन्होंने महज़ 18 वर्ष की उम्र में ही संजय गाँधी जी के साथ शादी क्र ली थी.  शादी के बाद उन्होंने अपनी एक हिंदी पत्रिका भी शुरू की थी जिसका नाम  सूर्या था.  आज मेनका गाँधी बीजेपी सरकार में एक एहम भूमिका निभाती है.

3. बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकी राबड़ी यादव

उन्होंने  कोई भी शिक्षा प्राप्त नहीं की है.उनकी शादी 14 साल की उम्र में लालू प्रसाद यादव से हो गयी थी.  बाद में कुछ एहम घोटालों की वजह से लालू प्रसाद को जेल हो गयी और उन्होंने अपनी सारी बागडोर अपनी पत्नी के हाथों सौंप दी.

4. तेजस्वी यादव

इन्होंने केवल 9वीं कक्षा तक ही पढाई की है.

5. राहुल गांधी

देहरादून के ‘दून स्कूल’ से स्कूल पढ़ाई की है.1984 में इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद राहुल को सुरक्षा कारणों के चलते अपनी पढ़ाई घर से ही करनी पड़ी.1989 में राहुल ने दिल्ली का Saint stepehen कॉलेज में दाखिला लिया और सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें यहां भी पढ़ाई छोड़नी पड़ी. आगे की पढ़ाई के लिए राहुल अमेरिका चले गए.इसके बाद राहुल ने हावार्ड यूनीवर्सिटी में एडमिशन लिया. इसके बाद 1991 से 1994 तक रोलिंस कॉलेज  से ग्रेजुएशन पास किया. 1995 में यूनीवर्सिटी ऑफ कैंम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में एमफिल से डिग्री ली.

6. समृति ईरानी

जो की टेलीविज़न दुनिया की मनपसंदीदा बहु व सास रह चुकी है.  अब वे बीजेपी पार्टी में एक एहम भूमिका निभा रही है. बता दे की सिम्रिति ईरानी ने दिल्ली से ही अपनी 12वीं की है और फिर उन्होंने दिल्ली  यूनिवर्सिटी से ही कोरेस्पोंडेंट के जरिये बीए के फर्स्ट ईयर तक की पढाई की हुई है.

7. वरुण गांधी

भाजपा नेता वरुण गांधी ने अपनी पढ़ाई डिस्टेंस लर्निंग के जरिए पूरी की थी.

8. ममता बनर्जी

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के पास ईस्ट जॉर्जिया यूनिवर्सिटी से डॉक्ट्रेट की उपाधि है. जब की कोई डिग्री अस्तित्व में ही नहीं है.

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9. अखिलेश यादव

सपा नेता अखिलेश यादव की शुरुआती पढ़ाई राजस्थान बाद में सिविल इंवायमेंटर इंजीनियरिंग में बैचलर्स और मास्टर्स की डिग्री हासिल की.

10. सुरेश प्रभु

पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने द इंस्टीट्यूट आफ चार्टर्ड एकाउटेंट्स आफ इंडिया से एकाउंट्स की डिग्री हासिल की है.

11. डिंपल यादव

सपा नेता अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव भी पढ़ाई में बहुत होशियार रही हैं. वो आर्मी स्कूल से पढ़ी हुई हैं.

12. रविशंकर प्रसाद

बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद ने पटना विश्वविद्यालय से बीए,एमए और एलएलबी की है. उन्होंने एमए पॉलिटिकल साइंस से किया है.

13. मनमोहन सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पंजाब यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में बैचलर्स और मास्टर्स किया. इसके बाद वे कैमब्रिज यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स ट्रिपॉस की डिग्री हासिल की.

14. प्रियंका गांधी

कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी की स्कूलिंग मॉर्डन स्कूल और कॉन्वेंट आफ जीजस मेरी से हुई है. इसके बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के जीजस मेरी कॉलेज से साइकोलॉजी में ग्रेजुएशन किया. इसके बाद प्रियंका ने बुद्धिस्ट में एमए भी किया है.

15. उमा भारती

बीजेपी की तेजतर्रार नेता मंत्री उमा भारती ने सिर्फ पांचवीं तक की पढ़ाई की है.

16. योगी आदित्यनाथ

44 साल के यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ उत्तराखंड के पौढ़ी गढ़वाल की श्रीनगर यूनिवर्सिटी से बीएससी मैथ हैं.

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जिस की लाठी उस की भैंस

जमीनों के मामलों में आज भी गांवों में किसानों के बीच लाठीबंदूक की जरूरत पड़ती है, जबकि अब तो हर थोड़ी दूर पर थाना है, कुछ मील पर अदालत है. यह बात घरघर में बिठा दी गई है कि जिस के हाथ में लाठी उस की भैंस. असल में मारपीट की धमकियों से देशभर में जातिवाद चलाया जाता है. गांव के कुछ लठैतों के सहारे ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य गांवों के दलितों और पिछड़ों को बांधे रखते हैं. अब जब लाठी और बंदूक धर्म की रक्षा के लिए दी जाएगी और उस से बेहद एकतरफा जातिवाद लादा जाएगा, तो जमीनों के मामलों में उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाएगा.

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अब झारखंड का ही मामला लें. 1985 में एक दोपहर को 4 लोगों ने मिल कर खेत में काम कर रहे कुछ किसानों पर हमला कर दिया था. जाहिर है, मुकदमा चलना था. सैशन कोर्ट ने उन चारों को बंद कर दिया. लंबी तारीखों के बाद 2001 में जिला अदालत ने उन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई.

इतने साल जेल में रहने के बाद उन चारों को अब छूटने की लगी. हाथपैर मारे जाने लगे. हाईकोर्ट में गए कि कहीं गवाह की गवाही में कोई लोच ढूंढ़ा जा सके. हाईकोर्ट ने नहीं सुनी. 2009 में उस ने फैसला दिया. अब चारों सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. क्यों भई, जब लाठीबंदूक से ही हर बात तय होनी है तो अदालतों का क्या काम? जैसे भगवा भीड़ें या खाप पंचायतें अपनी धौंस चला कर हाथोंहाथ अपने मतलब का फैसला कर लेती हैं, वैसे ही लाठीबंदूक से किए गए फैसले को क्यों नहीं मान लिया गया और क्यों रिश्तेदारों को हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट दौड़ाया गया, वह भी 34 साल तक?

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लाठी और बंदूक से नरेंद्र मोदी चुनाव जीत लें, पर राज नहीं कर सकते. पुलवामा में बंदूकें चलाई गईं तो क्या बालाकोट पर बदले की उड़ानों के बाद कश्मीर में आतंकवाद अंतर्ध्यान हो गया? राम ने रावण को मारा तो क्या उस के बाद दस्यु खत्म हो गए? पुराणों के हिसाब से तो हिरण्यकश्यप और बलि भी दस्यु थे, अब वे विदेशी थे या देशी ही यह तो पंडों को पता होगा, पर एक को मारने से कोई हल तो नहीं निकलता. अमेरिका 30 साल से अफगानिस्तान में बंदूकों का इस्तेमाल कर रहा है, पर कोई जीत नहीं दिख रही.

बंदूकों से राज किया जाता है पर यह राज हमेशा रेत के महल का होता है. असली राज तब होता है जब आप लोगों के लिए कुछ करो. मुगलों ने किले, सड़कें, नहरें, बाग बनवाए. ब्रिटिशों ने रेलों, बिजली, बसों, शहरों को बनाया तो राज कर पाए, बंदूकों की चलती तो 1947 में ब्रिटिशों को छोड़ कर नहीं जाना पड़ता. जहां भी आजादी मिली है, लाठीबंदूक से नहीं, जिद से मिली है. जमीन के मामलों में ‘देख लूंगा’, ‘काट दूंगा’ जैसी बातें करना बंद करना होगा. जाति के नाम पर लाठीबंदूक काम कर रही है, पर उस के साथ भजनपूजन का लालच भी दिया जा रहा है, भगवान से बिना काम करे बहुतकुछ दिलाने का सपना दिखाया जा रहा है.

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शत्रुघ्न और उदित राज के बहाने

भारतीय जनता पार्टी के 2 सांसद हाल ही में भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए. एक थे शत्रुघ्न सिन्हा और दूसरे उदित राज. शुत्रघ्न सिन्हा काफी समय से अपनी पार्टी के खिलाफ कुछ न कुछ कह रहे थे. वे लाल कृष्ण आडवाणी के खेमे के माने जाते थे, पर ऊंची जाति के हैसियत वाले थे, इसलिए उन्हें कहा तो खूब गया, लेकिन गालियां नहीं दी गईं. सोशल मीडिया में चौकीदार का खिताब लगाए गुंडई पर उतारू बड़बोले, गालियों की भाषा का जम कर इस्तेमाल करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के मामले में मोदीभक्त होने का फर्ज अदा करते रहे.

हां, उदित राज के मामले में वे एकदम मुखर हो गए. एक दलित और दलित हिमायती की इतनी हिम्मत कि पंडों की पार्टी की खिलाफत कर दे. जिस पार्टी का काम मंदिर बनवाना, पूजाएं कराना, ढोल बजाना, तीर्थ स्थानों को साफ करवाना, गंगा स्नान करना हो, उस की खिलाफत कोई दलित भला कैसे कर सकता है?

वैसे, उदित राज ने 5 साल पहले ही भाजपा में जा कर गलती की थी. दलितों की सदियों से जो हालत है, वह इसीलिए है कि ऊंची जातियों के लोग हर निचले पिछड़े तेज जने को अपने साथ मिला लेते हैं, ताकि वह दलितों का नेता न बन सके. यह समझदारी न भारत के ईसाइयों में है, न मुसलमानों में और न ही सिखों या बौद्धों में. उन्हें अपना नेता चुनना नहीं आता, इसलिए हिंदू पंडों को नेताटाइप लोगों को थोड़ा सा चुग्गा डाल कर अपना काम निकालने की आदत रही है.

1947 से पहले आजादी की लड़ाई में यही किया गया. किसी सिख, ईसाई, बौद्ध, शूद्र, अछूत को अलग नेतागीरी करने का मौका ही नहीं दिया गया. जैसे ही कोई नया नाम उभरता, चारों ओर से पंडों की भीड़ उसे फुसलाने को पहुंच जाती. मायावती के साथ हाल के सालों में ऐसा हुआ, प्रकाश अंबेडकर के साथ हुआ, किसान नेता चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह के साथ हुआ. उदित राज मुखर दलित लेखक बन गए थे. उन्हें भाजपा का सांसद का पद दे कर चुप करा दिया गया. इस से पहले वाराणसी के सोनकर शास्त्री के साथ ऐसा किया गया था.

उदित राज का इस्तेमाल कर के, उन की रीढ़ की हड्डी को तोड़ कर घी में पड़ी मरी मक्खी की तरह निकाल फेंका और किसी हंसराज हंस को टिकट दे दिया. अगर वे जीत गए तो वे भी तिलक लगाए दलितवाद का कचरा करते रहेंगे. दलितों की हालत वैसी ही रहेगी, यह बिलकुल पक्का?है. यह भी पक्का है कि जब तक देश के पिछड़ों और दलितों को सही काम नहीं मिलेगा, सही मौके नहीं मिलेंगे, देश का अमीर भी जलताभुनता रहेगा कि वह किस गंदे गरीब देश में रहता?है.

अमीरों की अमीरी बनाए रखने के लिए गरीबों को भरपेट खाना, कपड़ा, मकान और सब से बड़ी बात इज्जत व बराबरी देना जरूरी है. यह बिके हुए दलित पिछड़े नेता नहीं दिला सकते हैं.

मुसीबत का दूसरा नाम सुलभ शौचालय

घटना दिल्ली के कौशांबी मैट्रो स्टेशन के नीचे बने सुलभ शौचालय की है. रविवार का दिन था. सुबह के 8 बजे का समय था. राजू को उत्तम नगर पूर्व से वैशाली तक जाना था. उस ने उत्तम नगर पूर्व से मैट्रो पकड़ी और कौशांबी तक पहुंचते-पहुंचते पेट में तेजी से प्रैशर बनने लगा. मैट्रो में ही किसी शख्स से पूछ कर राजू कौशांबी मैट्रो स्टेशन उतर गया.

मैट्रो से उतरने के बाद नीचे मौजूद तमाम लोगों से सुलभ शौचालय के बारे में पूछा, पर कोई बताने को तैयार नहीं था क्योंकि सभी को अपने गंतव्य की ओर जाने की जल्दी थी. तभी एक बुजुर्ग का दिल पसीजा और उस ने वहां जाने का रास्ता बता दिया.

सैक्स संबंधों में उदासीनता क्यों?

सुलभ शौचालय कौशांबी मैट्रो के नीचे ही बना था, पर जानकारी न होने के चलते राजू दूसरी ओर उतर गया. एक आटो वाले ने कहा कि उस तरफ जाओ जहां से तुम आ रहे हो. राजू फिर वहां पहुंचा तब जा कर शांति मिली कि चलो, सुलभ शौचालय जल्दी ही सुलभ हो गया.

अंदर जाते ही एक मुलाजिम वहां बैठा नजर आ गया. उस से इशारे में कहा कि जोरों की लगी है तो उस ने हाथ से इशारा कर के बता दिया कि उस टौयलेट में चले जाओ.

टौयलेट में गंद तो नहीं पसरी थी, पर बालटीमग्गे गंदे थे. पोंछा भी ज्यादा साफ नहीं था. जब वह फारिग हो कर बाहर निकला तो उस मुलाजिम को 10 रुपए का नोट थमाया. उस ने पैसे गल्ले में डाले और कहा कि जाओ, हो गया हिसाब.

राजू ने वहां उसी के ऊपर टंगी सूची की तरफ इशारा कर के कहा कि यहां पर तो 5 रुपए लिखा है तो उस ने जवाब दिया कि सफाई के भी 5 रुपए और जोड़ लिए गए हैं. इस हिसाब से 10 रुपए हो गए. राजू अपना सा मुंह ले कर बाहर आ गया. राजू के निकलने के बाद उसी टौयलेट में दूसरा शख्स भी गया और उस से भी 10 रुपए वसूले गए. वह भी अपना सा मुंह ले कर बाहर निकला. वहां न तो शिकायतपुस्तिका थी और न ही कोई पक्का बिल. शिकायत का निवारण करने के लिए न कोई सुनने वाला अफसर. जबकि सरकार पैसों के लेनदेन के डिजिटाइजेशन पर जोर दे रही है. सरकार मोबाइल ऐप के जरीए औनलाइन पेमैंट करने की बात कहती है, पर यहां ऐसी कोई सुविधा नहीं थी.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

वैसे, टौयलेट के 5 रुपए और पेशाब करने के 2 रुपए निर्धारित किए गए हैं, पर किसी न किसी तरह से ज्यादा पैसे वसूले जाते हैं. भले ही 5-10 रुपए ज्यादा देना अखरता नहीं है पर जो तय कीमत रखी गई है, वही वसूली जाए तो न्यायपूर्ण होगा.

वैसे, शौचालय को ले कर तमाम खामियां हैं. कई जगह शौचालय ऐसी जगहों पर बना दिए गए हैं जहां हर कोई नहीं पहुंच सकता. ज्यादातर शौचालाय पानी की कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए कहींकहीं ताला लटका मिलता है, तो कहीं कूड़ेकचरों के बीच शौचालय बना दिए गए हैं. गंदगी के ढेर पर बने शौचालयों में कोई नहीं जाता, ऐयाशी का अड्डा बने हुए हैं.

ये तो महज उदाहरण मात्र हैं. ऐसे न जाने कितने लोग शौचालय में कभी खुले पैसे को ले कर जूझते होंगे या फिर ज्यादा वसूली का रोना रोते होंगे. यही वजह है कि लोग शौचालय में जाने से कतराते हैं. इतना ही नहीं, कई सुनसान शौचालयों में तो देहधंधा होने तक की शिकायतें सुनी गई हैं.

एक ओर स्वच्छता अभियान जोरों से चल रहा है. ‘हर घर शौचालय’, ‘चलो स्वच्छता की ओर’, ‘शौचालय का करें प्रयोग गंदगी भागे मिटे रोग’, ‘बेटी ब्याहो उस घर में शौचालय हो उस घर में’ जैसी मुहिम चल रही है तो कहीं बड़ेबड़े इश्तिहार दे कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इस योजना पर काम करने वाले ही इसे पलीता लगा रहे हैं. कई निजी संस्थाएं भी आम आदमी को सहूलियतें देने के नाम पर सरकार को चूना लगा रही हैं. सरकार तो तमाम उपायों को अमल में लाने की कोशिश कर रही है, पर लोग हैं कि सुधरने को तैयार ही नहीं.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

सच तो यह है कि हम भले ही कितने पढ़लिख जाएं, पर सुधरने के नाम पर अगलबगल झांकने लगते हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि हमारे बापदादा यही सब करते रहे हैं तो हम भी यही करेंगे. सुलभ शौचालय के मुलाजिमों पर किसी तरह का कोई शिकंजा नहीं है. सरकारी अमला खुले में शौच करने वालों को पकड़पकड़ कर जुर्माना लगा रहा है वहीं आम आदमी घर में बने टौयलेट में जाने से कतरा रहा है. वह कहता है कि खुले में शौच ठीक से आ जाती है, वहीं टौयलेट में बैठना नहीं सुहाता. वहीं दूसरी ओर घर की औरतेंबच्चे भी वहीं जाते हैं और मारे बदबू के चलते दिमाग ही हिल जाता है और पेट खराब रहता है, गैस बनती है, इसलिए मजबूरन खेत में ही जाना पड़ता है.

सुलभ शौचालय की शुरुआत करने वाले बिंदेश्वरी पाठक ने साल 1974 में जब इस की कल्पना की थी तब उन्हें भी तानेउलाहने सुनने को मिले होंगे, पर अब यही शौचालय नजीर बन कर उभरा है और देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी इस ने अपना परचम फहराया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छता मुहिम को एक मिशन मानते हैं. वे स्वच्छ भारत का सपना साकार करने में लगे हैं. तमाम ग्रामीण,शहरी, अपढ़ व पढ़ेलिखों को इस मुहिम में शामिल कर जागरूक करने में लगे हैं और शौचालय बनाने को ले कर गांवों तक में अपनी मुहिम चला रहे हैं. शौचालय तो बन गए हैं, लेकिन तमाम तरह की दिक्कतें हैं.

गरीब व वंचित लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रख कर सुलभ शौचालय बनाए गए थे. शौचालय की सुविधा तो मिली, पर दूसरी ओर इस पर किराया लगना आम लोगों को काफी अखर रहा है. भले ही शौच करने की कीमत काफी कम रखी गई है, फिर भी असलियत वहां जाने पर ही पता चलती है. कर्मचारियों का अपना दुखड़ा है, वहीं आम आदमी की अपनी परेशानी.

दलितों की बदहाली

यही वजह है कि जो भी शख्स वहां फारिग होने जाता है, उसे हलाल करने की कोशिश की जाती है. यानी तय कीमत से ज्यादा वसूली. न देने पर कहासुनी,  मारपीट. हैरानी तो तब होती है जब शौचालय कर्मियों पर किसी तरह की निगरानी नहीं होती.

सुबहसवेरे फारिग होने के लिए तमाम लोग लाइन में खड़े नजर आते हैं. चाहे वह जगह बसअड्डा हो या रेलवे स्टेशन या फिर भीड़ वाली जगह, वहां जाने पर ही पता चलता है कि बिना किसी सूचना के शौचालय में ताला लटका हुआ है तो कहीं पूछने पर दूसरे शौचालय का दूरदूर तक पता भी नसीब नहीं होता.

क्या है नियम

नियमानुसार शौचालयों में केवल शौच व नहाने के पैसे लिए जा सकते हैं, लेकिन ठेकेदार और शौचालय में तैनातकर्मी की मनमानी से नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही है. पैसे देने के बावजूद इन शौचालयों में सफाई नहीं रहती है.

दिल्ली शहर में जितने भी सुलभ शौचालय बने हैं उन में लघुशंका का शुल्क प्रति व्यक्ति महज 2 रुपए है जबकि टौयलेट का 5 रुपए, वहीं नहानेधोने के लिए 10 रुपए. हालांकि कहींकहीं ज्यादा पैसा वसूले जाते हैं.

सुलभ शौचालय द्वारा आम लोगों की सुविधा के लिए दिल्ली के विभिन्न चौकचौराहों पर शौचालय बनाए गए हैं. इन के बनाने के पीछे यह मकसद है कि आम आदमी मामूली शुल्क दे कर जरूरत पडऩे पर इन का इस्तेमाल कर सके. लेकिन अब ये शौचालय कमाई का जरीया बन गए हैं. बाहर से आने वालों से शौचालय कर्मी मनमाना पैसा वसूल रहे हैं, जो गलत है.

सुलभ शौचालय की शिकायत कहां करें, इस का कोई खुलासा नहीं है. आम आदमी को ये बातें पता ही नहीं हैं. जागरूकता का सिर्फ ङ्क्षढढोरा पीटने से काम नहीं चलने वाला. अनपढ़ को भी समझाना होगा और शौचालय की अहमियत बतानी होगी, तभी हम जागरूक हो पाएंगे. पढ़ेलिखे भी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करा पाते तो वहीं आम आदमी के लिए ये शौचालय कितने सुलभ रह पाएंगे.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक आजकल दुनियाभर में सरकारों और समाजों के निशाने पर हैं. जब से फेसबुक का कैंब्रिज एनालिटिक्स को अपने से जुड़े लोगों के व्यवहार के बारे में डेटा बेच कर पैसा कमाने की बात सामने आई है, तब से लगातार डिजिटल मीडिया, डिजिटल संवादों पर सवाल उठ रहे हैं. गूगल के सुंदर पिचाई ने अमेरिकी संसद को बताया है कि गूगल चाहे तो मुफ्त भेजे जाने वाले जीमेल अकाउंटों के संवाद भी वे पढ़ सकता है.

असल में डिजिटल क्रांति दुनिया के लिए खतरनाक साबित हो रही है कुछ हद तक परमाणु बमों की तरह. परमाणु परीक्षणों का विनाशकारी उदाहरण बाद में देखने को मिला पर उस दौरान किए गए शोध का फायदा बहुत से अन्य क्षेत्रों में बहुत हद तक हुआ है और आजकल जो रैडिएशन के दुष्प्रभाव की बात हो रही है वह परमाणु परीक्षणों से ही जुड़ी है. डिजिटल क्रांति में उलटा हुआ है. पहले लाभ हुआ है, अब नुकसान दिख रहे हैं.

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न केवल आज डिजिटल मीडिया या सुविधा से अपनी बात मित्रों, संबंधियों, ग्राहकों तक पहुंचाई जा सकती है, इस का जम कर फेक न्यूज फैलाने में भी इस्तेमाल हो सकता है.

दुनियाभर में फेक मैसेज भेजे जा रहे हैं. स्क्रीनों के पीछे कौन छिपा बैठा है यह नहीं मालूम इसलिए करोड़ों को मूर्ख बनाया जा रहा है और लाखों को लूटा भी जा रहा है. लोग फेसबुक, व्हाट्सऐप के

जरीए प्रेम करने लगते हैं जबकि असलियत पता ही नहीं होती.

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जो बात 2 जनों में गुप्त रहनी चाहिए वह सैकड़ों में कब बंट जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. पीठ पीछे की आप की बात कहां से कहां तक जाएगी आप को पता भी नहीं चलेगा. सरकारों के लिए ये प्लैटफौर्म बहुत काम के हैं. वे कान मरोड़ कर उन से अपने विरोधियों के मेल, मैसेज, बातें सब पता कर लेती हैं. आज मोबाइल पर कही गई बात भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि उस का रिकौर्ड कहीं रखा जा रहा. न केवल आप ने कहां से किस को फोन किया यह रिकौर्डेड है, क्या बात की यह भी रिकौर्डेड है. हां, उसे सुनना आसान नहीं यह बात दूसरी है. पर खास विरोधी का हर कदम सरकार जान सकती है. टैक कंपनियां असल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सब से बड़ा अंकुश बन गई हैं. पहले लगा था कि इन से अपनी बात लाखोंकरोड़ों तक पहुंचाई जा सकती है.

आप कागज पर ही लिखें, यह तो नहीं कहा जा सकता पर यह जरूर ध्यान में रखें कि सरकारी शिकंजा आप के गले में तो है ही आप व्यापारियों के लिए भी टारगेट बन रहे हैं. वे आप की सोच, आप के खरीदने के व्यवहार को भी नियंत्रित कर रहे हैं.

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औरतों के हाथ कुछ नहीं

अप्रैल मई में होने वाले चुनावों में औरतों की भूमिका मुख्य रहेगी, क्योंकि अब की बार बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिन का औरतों पर सीधा असर होगा. 2014 के चुनाव से पहले मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था जो अखबारों की सुर्खियां तो बनता था पर आम जनजीवन पर उस का असर न था. अब नरेंद्र मोदी इस चुनाव को भारत पाकिस्तान मुद्दे का बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हरेक को डराया जा सके कि पाकिस्तान को खत्म करना भारत के लिए आवश्यक है. जो इसे मुद्दा नहीं मानेगा, वह देशद्रोही होगा.

इस झूठी देशभक्ति और देश प्रेम के पीछे असल में औरतों को मानसिक व सामाजिक गुलाम रखने वाली धार्मिक परंपराओं को न केवल बनाए रखना है, बल्कि उन्हें मजबूत भी करना है. पिछले 5 सालों में देश में आर्थिक मामलों से ज्यादा धार्मिक या धर्म या फिर धर्म की दी गई जाति से जुड़े मामले छाए रहे हैं.

गौरक्षा सीधा धार्मिक मामला है. पौराणिक ग्रंथों में गायों की महिमा गाई गई है. असल में यह एक ऐसा धन था जिसे किसी भी गृहस्थ से पंडे बड़ी आसानी से बिना सिर पर उठाए दान में ले जा सकते थे.आज गायों के नाम पर जम कर राजनीति की जा रही है, चाहे इस की वजह से शहर गंदे हो रहे हों, घर सुरक्षित न रहें, किसानों की फसलें नष्ट हो रही हों.

इस की कीमत औरतों को ही देनी होती है. एक तरफ वे इस वजह से महंगी होती चीजों को झेलती हैं तो दूसरी ओर उन्हें पट्टी पढ़ा कर गौसेवा या संतसेवा में लगा दिया जाता है. इन 5 सालों में कुंभों, नर्मदा यात्राओं, तीर्थों, मूर्तियों, मंदिरों की बातें ज्यादा हुईं. वास्तविक उद्धार के नाम पर कुछ सड़कों, पुलों का उद्घाटन हुआ जिन पर काम वर्षों पहले शुरू हो चुका था.

भारत तरक्की कर रहा है, इस में संदेह नहीं है पर यह आम आदमी की मेहनत का नतीजा है, इस मेहनत का बड़ा हिस्सा सरकार संतसेवा, गौसेवा, तीर्थसेवा या सेनासेवा में लगा देगी तो घरवाली के हाथ क्या आएगा?

आज रिहायशी मकानों की भारी कमी है, जबकि उन के दाम नहीं बढ़ रहे हैं. ऐसा इसलिए है कि लोगों के पास पैसा बच ही नहीं रहा. बदलते लाइफस्टाइल के बाद घरवाली इतना पैसा नहीं बचा पाती कि युवा होने के 10-15 साल में अपना खुद का घर खरीद सके. उसे किराए के दड़बों में अपनी स्टाइलिश जिंदगी जीनी पड़ रही है. औरतों को चुनावों में जीत के लिए लड़ाई में झोंक दिया गया तो यह एक और मार होगी.

पुराने राजा अपनी जनता से टैक्स वसूलने के लिए अकसर उन्हें साम्राज्य बनाने के लिए बलिदान के लिए उकसाते थे, लोगों को सेना में भरती कराते थे, ज्यादा काम करा कर टैक्स वसूलते थे और ज्यादा बंधनों में बांधते थे. आज भी कितने ही देशों में इस इतिहास को दोहराया जा रहा है.

औरतों को जो आजादी चाहिए वह शांति लाने वाली और कम जबरदस्ती करने वाली सरकार से मिल सकती है धर्मयुद्ध की ललकार लगाने वालों से नहीं. धर्म है तभी तो धंधा है औरतों की गुरुओं पर अपार श्रद्धा होती है और वे खुद को, पतियों को, बच्चों को ही नहीं सहेलियों को भी गुरुओं के चरणों के लिए उकसाती रहती हैं.

रजनीश, आसाराम, रामरहीम, रामपाल, निर्मल बाबा जैसों की पोल खुलने के बाद भी वे इन गुरुओं और स्वामियों की अंधभक्ति में लगी रहती हैं. अब औरतों की क्या कहें जब अरबों खरबों का व्यवसाय सफलतापूर्वक चलाने वाला रैनबैक्सी कंपनी का शिवेंद्र सिंह भी इसी तरह के गुरुकुल का सहसंचालक बन बैठा है और उसे धंधे की तरह चला रहा है, जहां सफेद कपड़े पहने हजारों भक्तिनें दिखती हैं.

शिवेंद्र की शिकायत और किसी ने नहीं उस के भाई और पार्टनर मानवेंद्र सिंह ने ही की है. पुलिस से अपनी शिकायत में मानवेंद्र सिंह ने कहा है कि राधा स्वामी सत्संग के मुख्य गुरु गुरिंद्र सिंह ढिल्लों और उस की वकील फरीदा चोपड़ा ने उसे जान से मारने की धमकी दी है. भाइयों की कंपनियों में बेईमानी के आरोप मानवेंद्र सिंह ने खुल कर लगाए हैं. पैसों को इधर से उधर करने का आरोप भी लगाया गया है.

राधा स्वामी सत्संग के संपर्क में आने के बावजूद शिवेंद्र सिंह शराफत का पुतला नहीं बना है. उस की कंपनियों को एक जापानी कंपनी को धोखे से बेचने पर 3,500 करोड़ का हरजाना देना भी अदालत ने मंजूर किया हुआ है. नकली दस्तखत तक करने के आरोप लगाए गए हैं.

सारे स्वामियों के आश्रम, डेरे, केंद्र इस तरह के आरोपों से घिरे हैं. इन स्वामियों का रोजाना औरतों को बलात्कार करना तो आम होता ही है, ये भक्तों का पैसा भी खा जाते हैं, सरकारी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं, विरोधी को मार डालते हैं, विद्रोही कर्मचारियों को लापता तक कर देते हैं. फिर भी इन्हें भक्तिनों की कभी कमी नहीं होती.

आमतौर पर इन आश्रमों में भीड़ औरतों की ही होती है जो घरों की घुटन से निकलने के लिए गुरुओं की शरणों में आती हैं पर दूसरे चक्रव्यूहों में फंस जाती हैं. इन आश्रमों में नाचगाना, बढि़या खाना, पड़ोसिनों की बुराइयों के अवसर भी मिलते हैं. बहुतों को गुरुओं से या उन के चेलों से यौन सुख भी जम कर मिलता है. आश्रम में जा रही हैं, इसलिए घरों में आपत्तियां भी नहीं उठाई जातीं. भक्तिनें अपने घर का कीमती सामान तो आश्रमों में चढ़ा ही आती हैं, अपनी अबोध बेटियों को भी सेवा में दे आती हैं.

केरल का एक मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था जहां एक 16 साल की लड़की को उस की मां खुद स्वामी को परोस आई थी कि इस से उस को पुण्य मिलेगा. शिवेंद्र सिंह और मानवेंद्र सिंह का विवाद जिस में राधा स्वामी सत्संग पूरी तरह फंसा है साफ करता है कि इस तरह के गुरुओं के गोरखधंधों को पनपने देना समाज के लिए सब से ज्यादा हानिकारक है.

अफसोस यह है कि इक्कादुक्का नेताओं को छोड़ कर ज्यादातर नेता भी इन गुरुओं के चरणों में नाक रगड़ते हैं, शिवेंद्र, मानवेंद्र सिंह और लाखों भक्तिनों की तरह. आप भी क्या ऐसी ही भक्तिन तो नहीं

भरोसा करें तो किस पर

वृद्धों की देखभाल करने में अब ब्लैकमेल और सैक्स हैरसमैंट से भी बेटों को जूझना पड़ सकता है. हालांकि, मुंबई का एक मामला जिस में 68 वर्षीय पिता के लिए रखी नर्स ने पिता की मालिश करते हुए वीडियो बनवा लिया और फिर उस वीडियो के सहारे 25 करोड़ रुपए की मांग कर डाली. भले अकेला ऐसा मामला सामने आया हो पर ऐसे और मामले नहीं होते होंगे, ऐसा नहीं हो सकता.

वृद्धों के लिए रखे गए नौकर अकसर शिकायत करते हैं कि वृद्ध उन से मारपीट करते हैं. यह कह कर वे नौकरी छोड़ने की धमकी दे कर बेटेबेटियों से पैसा भी वसूलते हैं. कुछ नौकरनौकरानियां धीरेधीरे शातिर बन कर पैसा वसूलने के बीसियों तरीके सीख लेते हैं. कामकाजी बेटेबेटियां वृद्ध मातापिता की जिद को पहचानते हैं, क्योंकि इस उम्र तक आते आते वृद्धों के मन में शंका भरने लगती है कि कहीं कोई उन्हें छोड़ न दे, किसी कागज पर दस्तखत न करा ले, कुछ लूट न ले. वे कभी उस नौकर या नौकरानी पर भरोसा करते हैं जो 24 घंटे उन के साथ होता है तो कभी 24 घंटे उस पर शक करते रहते हैं.

वीडियो बना कर ब्लैकमेल करना बहुत आसान है और अच्छे घरों के बेटेबेटियों के पास न तो माता पिता से पूछताछ करने की हिम्मत होती है और न ही वे बदनामी सहना चाहते हैं. वे पुलिस में चले जाएं तो भी खतरा बना रहता है कि घर के हर राज को जानने वाला नौकर या नौकरानी न जाने क्या क्या गुल खिलाए.

इस समस्या का आसान हल नहीं है. दुनियाभर में युवा बेटे बेटियों की गिनती घट रही है और वृद्धों की बढ़ रही है. अब तो यह बोझ पोतेपोतियों पर पड़ने लगा है. जब तक वृद्ध वास्तव में असहाय होते हैं तब तक पोते पोतियां युवा हो चुके होते हैं और उन्हें भी इन नौकर नौकरानियों से जूझना पड़ता है.

हमारे समाज ने पहले तो व्यवस्था कर रखी थी कि वानप्रस्थ आश्रम ले लो यानी किसी जंगल में जा कर मर जाओ पर आज का सभ्य, तार्किक, संवेदनशील व उत्तरदायी समाज उसे पूरी तरह नकारता है. वृद्धों को झेलना पड़ेगा, यह ट्रेनिंग तो अब बाकायदा दी जानी चाहिए. इस के कोर्स बनने चाहिए. यह समस्या विकराल बन रही है, यह न भूलें.

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