दो भूत : उर्मिल से तालमेल क्या बैठा पाई अम्माजी

लेखिका- सरोज गोयल

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’

‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. यद्यपि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

हाय हाय बिदाई कैसे आए रुलाई

आज बन कर आ ही गया मेरी शादी का वीडियो. सारे फंक्शन, 1-1 रीतिरिवाज सच कितना मजा आ रहा है देखने में… सब से आखिर में बिदाई की रस्म. ‘उफ, कितनी रोई हूं मैं…’ सोचतेसोचते मेरा बावला मन शादी के मंडप के नीचे जा खड़ा हुआ…

‘‘देख, अभी से समझा देती हूं कि बिदाई के वक्त तेरा रोना बहुत जरूरी है वरना हमारी बड़ी बदनामी होगी. लोग कहेंगे कि बेटी को कभी प्यार न दिया होगा तभी तो जाते वक्त बिलकुल न रोई. अच्छी तरह समझ ले वरना पता चला उस वक्त भी खीखी कर के हंस रही है,’’ मंडप के नीचे किसी बात पर मेरे जोर से हंसने पर मां का प्रवचन शुरू  था.

‘‘पर क्यों मां, अकेला लड़का वह भी मेरी पसंद का… अच्छी जौब और पैसे वाला. सासससुर इतने सीधे कि अगर मैं रोई तो वे भी मेरे साथ रोने लगेंगे. फिर क्यों न हंसतेहंसते बिदा हो जाऊं.’’

‘‘अरी नाक कटवाएगी क्या? शुक्ला खानदान की लड़कियां बिदाई के समय पूरा महल्ला सिर पर उठा लेती हैं. देखा नहीं था कुछ साल पहले अपनी शादी में तेरी बूआ कितनी रोई थीं?’’

‘‘मां, बूआ तो इसलिए रोई थीं कि तुम लोगों ने उन की शादी उन की पसंद से न करा कर दुहाजू बूढ़े खड़ूस से करवा दी थी… बेचारी बुक्का फाड़ कर न रोतीं तो क्या करतीं?’’

‘‘अपनी मां की सीख गांठ बांध ले लड़की… हमारे खानदान में बिदाई में न रोने को अपशकुन मानते हैं,’’ दादी ने भी मां की बात का समर्थन करते हुए आंखें तरेरीं.

मरती क्या न करती. बिदाई का तो मालूम नहीं पर फिलहाल मुझे यह सोच कर ही रोना आ रहा था कि बिदाई पर कैसे रोऊंगी.

‘‘बता न रिंकू, क्या करूं जिस से मुझे रोना आ जाए?’’ मैं ने अपनी सहेली को झंझोड़ा.

‘‘अरे यह भला मैं कैसे बता सकती हूं… थोड़ी सी प्रैक्टिस कर शायद काम बन जाए.’’

‘‘क्या बताऊं, कई बार आईने में देख कर रोने की प्रैक्टिस कर चुकी हूं, मगर हर बार नाकाम रही. क्या करूं यार, नहीं रोई तो बड़ा बवाल मच जाएगा. दादी, बूआ, चाची यहां तक कि मम्मी ने भी खास हिदायतें दी हैं कि स्टेज पर बैठी खाली खीसें न निपोरती रहूं, बल्कि बिदाई पर कायदे से रोऊं भी.’’

‘‘यह कायदे से रोना क्या होता है? रोना तो रोना होता है और फिर मैं ने रोने के विषय पर कोई पीएचडी थोड़े ही कर रखी है, जो तुझे टिप्स दूं,’’ रिंकू चिढ़ गई.

‘‘कुछ तो कर यार, अगर बिदाई में न रोई तो बड़ी जगहंसाई होगी. मेरे यहां जब तक महल्ले के आखिरी घर तक रोने की चीखें न पहुंच जाएं तब तक बिदाई की रस्म पूरी नहीं मानी जाती. मेरी मामी की लड़की तो गए साल इतना रोई

ी कि सुबह की बरात दोपहर तक बिदा हो पाई थी. हां, यह बात अलग है कि उस का लफड़ा कहीं और चल रहा था और शादी कहीं और हो रही थी. पर मैं क्या करूं, मेरी तो शादी भी मेरी पसंद से हो रही है. कहीं कोईर् रुकावट नहीं, कोई जबरदस्ती नहीं. तो आखिर रोऊं कैसे मैं?’’ मैं ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए उस से विनती की. ‘‘ठीक है देखती हूं कि क्या किया जा सकता है,’’ रिंकू ने सीरियस होते हुए कहा.

2 दिन बाद ही रिंकू ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया, ‘‘खुशखबरी है तेरे लिए. मिल गई रोने की जादुई चाबी. चल मेरे साथ. वैसे तो 7 दिन की ट्रेनिंग है, पर मैं ने बात की है कि हमें थोड़ी जल्दी है. लिहाजा, डबल चार्ज पर वे हमारा रजिस्ट्रेशन कर लेंगी.’’ ‘‘क्या बात कर रही है ट्रेनिंग और वह भी रोने की?’’ मेरा मुंह हैरानी से खुला का खुला रह गया.

‘‘हां मेरी जान,’’ हंसी से रिंकू दोहरी हुई जा रही थी, ‘‘बिदाई में सही से रोने की यह समस्या अब सिर्फ तुम्हारी नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय समस्या बन गई है… आजकल दुलहनों को अपनी पसंद के दूल्हे जो मिलने लगे हैं. अब उन्हें रुलाई आए भी तो कैसे? इसी समस्या से छुटकारा दिलाता यह ट्रेनिंग सैंटर. यह दुलहन के साथसाथ उस की सखियों को भी सिखाता है कि बिदाई पर कैसे रोना है.’’

‘‘इस का मतलब अब मैं सही से रो सकूंगी,’’ मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था. कुछ ही देर में हम शहर के मशहूर मौल के अंदर खुले उस ट्रेनिंग सैंटर में थे.

‘‘देखिए, सब से पहले इस चार्ट को अच्छी तरह स्टडी कीजिए. इस में रोने के कई तरीकों का उल्लेख है. हर रुलाई का अलगअलग चार्ज है,’’ रिसैप्शन पर बैठी मैडम ने मुसकराते हुए हमें एक चार्ट पकड़ाया.

रोने के तरीकों को देख कर हमारी आंखें चौड़ी होती चली गईं: सिंपल रुलाई यानी शालीनता से धीरेधीरे रोना. चार्ज 5000. मगरमच्छी रुलाई यानी बिना एक भी आंसू टपकाए सिर्फ रोने की आवाज निकालना. चार्ज 4000. सैलाबी रुलाई यानी इतने जोर से रोना मानो सैलाब आ गया हो. चार्ज 3500. दहाड़ेंमार रुलाई यानी रुकरुक कर दहाड़ें मारना जैसे कहीं बम के धमाके हो रहे हों. चार्ज क्व3000.

सिसकी रुलाई यानी सिसकते हुए रोना. चार्र्ज 2500. मिलीजुली रुलाई यानी सभी सखियों सहित एकसाथ रोना. चार्ज 2000. बहुत देर विमर्श करने के बाद मैं ने मगरमच्छी रुलाई का चुनाव किया, क्योंकि मेरा तो लक्ष्य ही आवाज कर के रोने

का था. अपने कीमती आंसू तो मैं एक भी नष्ट नहीं करना चाहती थी. अत: डबल चार्ज यानी क्व8000 जमा कर मैं ने रोने का अभ्यास शुरू कर दिया.

एक बड़े हौल में शीशे के पार्टीशन थे. बनने वाली दुलहनें उन में अपनेअपने तरीके से रोने में लगी थीं. एक बात तो पक्की थी कि बहुतों की फूहड़ रुलाई देख सामने वाली की हंसी छूटना तय था. खैर, मुझे इस से क्या…

आखिर बिदाई का वह शुभ दिन आ गया. लेकिन शादी की सभी रस्में निभाने और रातभर जागते रहने के कारण मेरी हालत पहले ही इतनी खराब हो गई थी कि रोना आने लगा. अगर उसी वक्त बिदाई का समय तय होता तो कसम से मैं बेपनाह रोती, लेकिन बिदाई के मुहूर्त में अभी कुछ समय शेष था.

एहतियातन मैं ने तय कर रखा था कि बिदाई के वक्त मेरा घूंघट खूब लंबा रहेगा ताकि मैं आराम से रोने की आवाजें निकाल सकूं.

ऐन बिदाई के वक्त मां रोती हुईं मुझ से लिपट कर मुझे भी रोने के लिए उकसाने लगीं. मैं ने भी अचानक भरपूर आवाज में रोना शुरू कर दिया पर वौल्यूम कुछ अधिक होने से लोगों के साथसाथ मुझे भी अपनी आवाज थोड़ी अजीब लगी. अत: 1-2 लोगों से मिल कर थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई.

तभी 8-10 साल के एक शैतान बच्चे ने कमैंट किया, ‘‘अभी तो आप इतनी जोर से रो रही थीं… अब क्यों नहीं रो रहीं?’’

शायद मेरे रोने पर उसे मजा आ रहा था. गुस्सा तो उस के ऊपर इतना आया कि एक तो इतनी मुश्किल से रो रही और उस का भी यह मजाक उड़ा रहा सब के सामने. पर वक्त की नजाकत देख मैं ने कोई प्रतिक्रिया न दी.

तभी अचानक चाची ने खींच कर मुझे अपने सीने से चिपटा लिया और आ… आ… आ… की आवाजों के साथ मैं चीख पड़ी.

‘‘इतना न रो मेरी लाडो, हम तुझे जल्द ही बुलवा लेंगे,’’ कहते हुए चाची ने देर तक मुझे अपने से लिपटाए रखा बिना यह जाने कि उन की साड़ी में लगी सेफ्टीपिन इतनी तेजी से मुझे चुभे जा रही है… जैसेतैसे उन से जान छूटी और मैं पलटी तो देखा वही शैतान बच्चा मेरे घूंघट के अंदर झांक रहा है. मैं ने उसे घूर कर भगाने की कोशिश की कि कहीं फिर से कुछ उलटासीधा न बक दे, पर वह मुझ से डरने के बजाय उलटा मुझे घूर कर देखता रहा.

आखिरकार मैं वहां से चल दी. तभी उस ने टंगड़ी फंसा कर मुझे मुंह के बल गिरा दिया. अब मेरी बहुत भद्द उड़ चुकी थी. मुझे गिराने के बाद वह जोरजोर से हंस रहा था.

उसे हंसता देख मुझे अपनी हार का दर्दनाक एहसास हुआ और चोट भी काफी लग चुकी थी. अत: अब मुझे असली रोना आने लगा और मैं बुक्का फाड़ कर रोने लगी. लोग आते गए और गले लगा कर मुझे चुप कराते गए, पर मुझे न चुप होना था और न हुई.

सब से ज्यादा आश्चर्य मेरी सखी रिंकू को हो रहा था कि सब के रोने पर ठहाका लगा कर हंसने वाली मैं आखिर अपनी बिदाई पर इतना रियल कैसे रो पाई. लेकिन उस वक्त जो भी हुआ भला हो उस बच्चे का कि मेरी बिदाई को उस ने यादगार बना दिया और फिर हमारा वीडियो भी क्या खूब बना.

औरत की औकात: प्रौपर्टी में फंसे रिश्तों की कहानी

लेखक- आशीष दलाल

कल रात से ही वह अपनी सास से हुई बहस को ले कर परेशान थी. उस पर सोते वक्त पति के सामने अपना दुखड़ा रो कर मन हलका करना चाहा तो उस के मुंह से रमा सहाय का नाम सुन कर पति का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. सारी रात आंखों में ही कुछ समझते हुए और कुछ न समझ आने पर उस पर गहन विचार करते हुए उस ने गुजार दी.

सुबह उठी तो आंखें बोझिल हो रही थीं और सिर भारी हुआ जा रहा था. रात को सास और फिर पति के संग हुई बहस की वजह से आज उस का मन किसी से भी बात करने को न हो रहा था. न चाहते हुए भी भारी मन से पति के लिए टिफिन बना कर उन्हें नौकरी के लिए विदा किया और फिर आंखें बंद कर बैठ गई. वैसे भी इंसान को अपनी समस्याओं का कोई हल नहीं मिलता तो अंतिम सहारे के रूप में वह आंख बंद कर प्रकृति के बारे में सोचने लगता है.

“अब बंद भी कर यह नाटक और रसोई की तैयारी कर.” तभी उस के कानों में तीखा स्वर गूंजा.

अपनी सास की बात का कोई जवाब न दे कर वह हाथ जोड़ कर अपनी जगह से खड़ी हो गई. सास से उस की नजरें मिलीं. एक क्षण वह वहां रुकी और फिर चुपचाप रसोई में आ गई. उस के वहां से उठते ही उस की सास अपनी रोज की क्रिया में मग्न हो गई.

अभी भी कल वाली ही बात पर विचार कर वह अनमनी सी रसोई के प्लेटफौर्म के पास खड़ी हुई थी. तभी रसोई के प्लेटफौर्म की बगल वाली खिड़की से उस की नजर बाहर जा कर टिक गई. रसोईघर के बाहर खाली पड़ी जगह में पड़े अनुपयोगी सामान के ढेर पर कुछ दिनों से कबूतर का एक जोड़ा तिनकातिनका जोड़ कर घोंसला बनाने की कोशिश कर रहा था लेकिन थोड़े से तिनके इकट्ठे करने के बाद दोनों में न जाने किस बात को ले कर जोरजोर से अपने पंख फड़फड़ाते व सारे तिनके बिखर कर जमीन पर आ गिरते. जैसेतैसे आपस में लड़तेझगड़ते और फिर एक हो कर आखिरकार घोंसला तो उन्होंने तैयार कर ही लिया था और कबूतरी घोंसले में अपने अंडों को सेती हुई कई दिनों से तपस्यारत इत्मीनान से बैठी हुई थी. उसे आज घोंसले में कुछ हलचल नजर आई. अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए वह खिड़की के पास के दरवाजे से बाहर गई और अपने पैरों के पंजों को ऊंचा कर घोंसले में नजर डालने लगी. उस की इस हरकत पर घोंसले में बैठी हुई कबूतरी सहम कर अपनी जगह से थोड़ी सी हिली. 2 अंडों में से एक फूट चुका था और एक नन्हा सा बच्चा मांस के पिंड के रूप में कबूतरी से चिपका हुआ बैठा था. सहसा उस के चेहरे पर छाई उदासी की लकीरों ने खुदबखुद मुड़ कर मुसकराहट का रूप ले लिया. उस ने अपना हाथ बढ़ा कर कबूतरी को सहलाना चाहा लेकिन कबूतरी उस के इस प्रयास को अपने और अपने बच्चे के लिए घातक जान कर गला फुला कर अपनी छोटी सी चोंच से उसे दूर खदेड़ने का यत्न करने लगी.

एक छोटा सा नजारा उस के मन को अपार खुशी से भर गया. वह वापस अंदर रसोई में आने को मुड़ी और उस के होंठों से अनायस ही उस का पसंदीदा गाना, मधुर आवाज के साथ, निकल कर उस के मन के तारों को झंकृत करने लगा.

“न समय देखती है न बड़ों का लिहाज करती है. यह कोई समय है फिल्मी गाना गाने का? गाना ही है तो भजन गा तो मेरी पूजा भी सफल हो जाए,” सास का यह नाराजगीभरा स्वर सुन कर उस की आवाज बंद होंठों के अंदर सिमट गई और चेहरे पर कुछ देर पहले छाई हुई मुसकराहट को उदासी ने वापस अपनी आगोश में समा लिया. हाथ धो कर उस ने फ्रिज खोला और उस में रखा पत्तागोभी निकाल कर अनमने भाव से उसे काटने लगी.

तभी डोरबैल बजने पर उस ने जा कर दरवाजा खोला तो अपने सामने एक अपरिचित व्यक्ति को खड़ा पा कर अचरज से उस से कुछ पूछने जा ही रही थी कि तभी पीछे से आ कर उस की सास ने उस व्यक्ति को नमस्ते करते हुए अंदर आने को कहा. उस ने भगवा धोतीकुरता पहने उस व्यक्ति को गौर से देखा. उस के माथे पर लंबा तिलक लगा हुआ था और उस ने गले में रुद्राक्ष की माला पहन रखी हुई थी. उस की सास उस पंडितवेशधारी व्यक्ति से कुछ दूरी बना कर उस के साथ सोफे पर बैठ गई और उसे पानी लाने के लिए कहा.

पानी देने के बाद खाली गिलास ले कर वह अंदर जाने को हुई तो सास ने उसे टोका, “यहां पंडितजी के पास बैठ. ये बहुत बड़े ज्ञानी है और हाथ देख कर सारी समस्याओं का हल बता देते हैं.”

सास की बात सुन कर वह चौंक गई. उस ने मना करना चाहा लेकिन फिर कल रात परिवार में हुई अनबन को याद कर बात को और आगे न बढ़ाने के लिए वह पंडितजी से कुछ दूरी बना कर उन के पास बैठ गई. पंडितजी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा और उसे अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाने को कहा. उस ने झिझकते हुए अपने सीधे हाथ की हथेली उन के आगे कर दी. पंडितजी ने उस की हथेली को छूते हुए उस पर हलका सा दबाव डाला. उस ने अपनी हथेली पीछे करनी चाही पर उस के ऐसा करने से पहले ही पंडित उस की हथेली पर अपनी उंगलिया फेरते हुए उस की सास से पूछने लगे, “तो यह आप की बहू है?”

“जी पंडितजी,” उस की सास हां में सिर हिलाते हुए जवाब दिया तो पंडितजी आगे बोले, “समय की बहुत बलवान है आप की बहू. इस के हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि इसे अपने पिता की संपत्ति से बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त हुई है और उसी धनराशि से आप सब के समय संवरने वाले हैं.”

उस ने पंडित पर एक नजर डाली. पंडितजी बड़े ही ध्यान से उस की हथेली की रेखाओं को देख कर उस का वर्तमान बता रहे थे.

“जी पंडितजी. आप तो ज्ञानी हैं. गांव में इस के पिता की कई एकड़ जमीन बुलेट ट्रेन के प्रोजैक्ट में सरकार ने ले ली है. इस का कोई भाई या बहन तो है नहीं, तो उसी के पैसे से इस के पिता ने इस के नाम 20 लाख रुपए की एफडी कर दी है,” उस की सास ने पंडितजी की बात का जवाब दिया तो उस ने अपनी सास की तरफ देखा. उसे अपनी सास का पंडितजी के सामने इस तरह अपनी निजी बातें शेयर करना पसंद नहीं आया लेकिन वह उन की उम्र का लिहाज कर कुछ भी न बोल पाई.

तभी पंडितजी ने कहा, “यह अपने पिता की इकलौती संतान है, इसी से इस के हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि भविष्य में इसे अपने पिता से और भी बड़ी रकम मिलने की उम्मीद है.”

पंडितजी की बात सुन कर उस की सास के चेहरे पर मुसकान तैर गई और वह खुश होते हुए बोली, “यह तो बड़ी अच्छी बात बताई पंडितजी आप ने, लेकिन अब मैं ने जो समस्या आप से कही थी उस का समाधान भी तो बताइए.”

“समाधान तो एक ही है. उन पैसों को मिला कर जो घर आप का बेटा ले रहा है वह आप के बेटे की राशि और ग्रहों को देखते हुए आप के नाम ही होना चाहिए. अगर वह घर आप के बेटे के नाम हुआ तो उसे भविष्य में बहुत ज्यादा ही आर्थिक नुकसान होगा. यह सब साफसाफ मैं आप की बहू के हाथ की लकीरों में देख पा रहा हूं.”

पंडितजी की कही यह बात उस के लिए असहनीय थी. वह नहीं चाहती थी कि घर के निजी मामलों में बाहर का कोई भी इंसान दखलंदाजी करे. उस ने पंडितजी की बात सुन कर एक झटके से अपनी हथेली उन की पकड़ से छुड़ाई और गुस्से से बोली, “यह हमारे घर का निजी मामला है और इस में आप को कोई भी सलाहसूचन करने का कोई अधिकार नहीं है. मैं बिलकुल भी नहीं विश्वास करती हाथ की लकीरों पर.”

अपनी बहू का यह रवैया देख कर सास गुस्से से लाल हो गई और उस ने उसे डांटते हुए कहा, “बहू, माफी मांग पंडितजी से. मेरे कहने पर राकेश ने ही इन को घर आने का निमंत्रण दिया था.”

“मैं माफी चाहती हूं पंडितजी आप से. आप से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मेरे पिता से मिली संपत्ति पर सिर्फ मेरा अधिकार है और उस के बारे में कोई भी फैसला लेने का हक़ सिर्फ मेरा ही है. आप तो क्या, घर के किसी भी सदस्य को इस बारे में बहस करने का कोई अधिकार नहीं है,” उस ने बड़े ही तीखे मिजाज से पंडितजी की तरफ देखते हुए कहा और फिर गुस्से से अंदर रसोई में आ कर वापस अपना काम करने लग गई.

उस की सास को अपनी बहू का इस तरह पंडितजी का अपमान करना और उन्हें पंडितजी की निगाहों में नीचा दिखाना बिलकुल भी पसंद न आया. पंडितजी के सामने तो वह उसे कुछ न बोल पाई लेकिन कुछ देर पंडितजी से बातें कर उन्हें तगड़ी फीस दे कर विदा करने के बाद वह खुद रसोई में आ गई.

“यह तूने ठीक नहीं किया बहू. पैसों की गरमी से अपनी धाक जमाना बंद कर दे, वरना बहुत पछताना पड़ेगा.”

अपनी सास की धमकीभरी आवाज सुन कर उस ने अपनी आंखों से बह रहे आंसुओं को पोंछते हुए जवाब दिया, “अपने हक की बात ही तो कर रही हूं. क्या बुरा कह दिया मैं ने जो नया मकान अपने नाम पर करवाने की बात कह दी तो? पैसा भी तो मेरा ही ज्यादा लग रहा है उसे खरीदने में. राकेश तो केवल 10 लाख ही दे रहे है और वह भी लोन ले कर.”

“हमारे खानदान में जमीनजायदाद पति के जीतेजी औरत के नाम नहीं की जाती है. जिस पैसे की तू बात कर रही है उस पर तेरा पति होने के नाते राकेश का भी बराबर का हक है तो एक तरह से वह पैसा भी राकेश का ही हुआ,” सास ने सख्ताई से जवाब देते हुए उस से कहा.

“यह तो किसी कानून में नहीं लिखा है कि पत्नी की संपत्ति पर पति का हक बिना कोई कानूनी कार्यवाही के होता है. पर फिर भी मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि मेरे पापा के दिए पैसों पर राकेश का कोई हक नहीं है. मैं, बस, नया मकान अपने नाम करवाना चाहती हूं क्योंकि इस में ज्यादा पैसा मेरा लग रहा है. शादी से पहले नौकरी का जो पैसा जमा किया था वह भी तो राकेश ने निकलवा कर नया मकान लेने में डलवा दिया. इस तरह तो मेरे नाम कोई आर्थिक संबल रहेगा ही नहीं,” उस ने अपनी बातों से सास को समझाने का यत्न किया.

उस की बात सुन कर सास ने मुंह बिगाड़ते हुए कहा, “उस रमा सहाय ने जाने क्या पट्टी पढ़ा दी तुझे जो मुझे कानूनी धौंस देने चली है. तेरी वकील चाहे जो कुछ कहे पर नया मकान तो तेरे नाम न ही होगा बहू.”

“ठीक है, आप अपने मन की कीजिए. मुझे जो ठीक लगेगा मैं वही करूंगी,” उस ने जवाब दिया और ज्यादा बहस में न पड़ते हुए चुपचाप सब्जी काटने लगी.

शाम को राकेश के औफिस से आने तक सासबहू के बीच कोई भी बातचीत न हुई लेकिन उस ने अपनी वकील रमा सहाय से फोन पर बात कर इस मामले में कानूनी सलाह ले कर मन ही मन एक फैसला ले लिया था.

शाम को राकेश के आने पर चायनाश्ता करते हुए नया मकान अपने नाम लेने के मुद्दे पर फिर उन तीनों के बीच बहस शुरू हो गई.

“आखिर तुम्हें मकान मेरे नाम पर लेने में परेशानी क्या है राकेश?” उस ने झुंझलाते हुए चाय का खाली कप टेबल पर रखते हुए राकेश से पूछा.

“बात परेशानी की नहीं है नेहा. आज तक हमारे खानदान में कभी भी पुरुष के रहते औरत के नाम पर जमीनजायदाद नहीं हुई है. यह परंपरा रही है हमारे खानदान की. पति के रहते पत्नी के नाम जमीनजायदाद करना शुभ नहीं माना जाता,” राकेश ने साफ शब्दों में न कहते हुए उसे जवाब दिया.

“शुभअशुभ कुछ नहीं होता राकेश. समय की नजाकत को समझते हुए गलत परंपराएं और जिद छोड़ी जा सकती है राकेश. तुम्हारे और मम्मीजी के कहने पर शादी के बाद मैं ने अपनी जिद छोड़ कर नौकरी छोड़ दी थी न, तो कम से कम अब तुम भी तो थोड़ा झुको,” पिछली बातें याद कर जवाब देते हुए उस की आंखें गीली हो रही थीं.

“बहू, खानदानी परंपरा तोड़ी नहीं जाती. बात अगर जिद छोड़ने की ही है तो झुकना तो तुझे ही चाहिए. पुरुष कभी औरत के आगे नहीं झुकता,” उस की बात सुन कर सास ने अपना मन्तव्य रखा.

“देखो नेहा, तुम पिछले 10 दिनों से इस बात को ले कर घर का माहौल तंग बनाए हुए हो. कल रात से तो हद ही कर दी है तुम ने. मेरे पूछे बिना तुम ने उस वकील …क्या नाम था… हां … विभा सहाय को अपने घर के मामले में डाला तब मैं ने कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो पानी सिर से ऊपर जा रहा है. मम्मी कह रही थीं तुम ने आज सुबह पंडितजी को भी भलाबुरा कह कर उन की हाजिरी में मम्मी की इन्सल्ट की. अपनी औकात में रहना सीखो वरना मुझे भी अपनी उंगली टेढ़ी करना आती है,” राकेश ने जला देने वाली नजर उस की तरफ डाली तो एक पल को वह सहम गई लेकिन फिर अगले ही क्षण विभा सहाय की दी गई सलाह उस के जेहन में तैर गई और वह पूरे आत्मविश्वास से बोलने लगी, “ठीक है, मैं अपनी औकात में ही रहूंगी लेकिन मेरी औकात क्या है, यह मैं खुद तय करूंगी.”

“तुम्हारे कहने का मतलब क्या है? धमकी दे रही हो या समझौता कर रही हो?” राकेश ने उस का जवाब सुन कर शंकाभरी नजर उस पर डाली.

उस ने अब एक ठंडी आह भरी और आगे कहा, “जिंदगी में पैसा झगड़ा करवाता है. यह बात सुन रखी थी लेकिन अब अनुभव भी कर ली है. पापा के मुझे दिए गए पैसों को ले कर हमारे घर की सुखशांति भंग हो रही है, तो सोच रही हूं उन का दिया सारा पैसा उन्हें वापस कर दूं. इस से घर में शांति तो बनी रहेगी. नया मकान आज नहीं तो दसपन्द्रह साल बाद तुम खुद अपनी कमाई से ले ही लोगे.”

जैसे ही उस ने अपनी बात पूरी की, राकेश का चेहरा सफेद पड़ गया. वह हड़बड़ाता हुआ बोला, “तुम ऐसा हरगिज नहीं कर सकतीं.”

“क्यों नहीं कर सकती? मैं यह फैसला ले सकूं, इतनी तो औकात है मेरी राकेश,” जवाब देते हुए उस ने राकेश को घूरा तो उस के तेवर और आत्मविश्वास देख कर राकेश तुरंत कुछ नहीं बोल पाया. उस ने अपनी मम्मी की तरफ देखा और उन की आंखों से एक इशारा पा कर वह बिगड़ी हुई बात संभालते हुए उसे समझाने लगा, “यह समय आवेश में आ कर इस तरह का फैसला लेने का नहीं है. इस वक्त तुम गुस्से में हो, अपने परिवार का हित ध्यान में रख कर फिर से सोचो और हम फिर किसी दिन इस बारे में बात करेंगे.”

“वह दिन कभी नहीं आएगा राकेश. मैं अच्छी तरह से समझ गई हूं. मेरे नाम से संपत्ति कर देने से तुम खुद को इनसिक्योर या छोटा फील करोगे, इसी से तुम यह फैसला नहीं ले पा रहे हो लेकिन मैं अपने फैसले पर अडिग हूं या तो मकान मेरे नाम से होगा या फिर मैं अपने पापा का सारा पैसा उन्हें लौटा दूंगी.”

“तुम गलत समझ रही हो नेहा. बात खुद को छोटा फील करने वाली नहीं है. जब तक मैं हूं तब तक संपत्ति वगैरह जैसे लफड़ो में तुम्हें नहीं पड़ना चाहिए,” राकेश ने उस की बात का जवाब दिया तो नेहा ने अब विस्तार से कहा, “अगर तुम्हारा सोचना ऐसा ही है तो तुम गलत हो राकेश. अपने जीवनसाथी को जीवन की आवश्यक चीजों से दूर रख कर तुम उसे केवल औरत होने के नाम पर कमजोर बना रहे हो. याद करो वह दिन जब पापाजी के जाने के बाद गांव वाली जमीन को ले कर कितनी दिक्कतें हुई थीं. मम्मीजी को उस बारे में थोड़ा भी पता होता तो वह जमीन तुम्हारे ताऊजी हड़प न कर पाते.”

उस की बात सुनकर कुछ देर के लिए कोई कुछ नहीं बोला. वह अपनी जगह से उठ कर चायनाश्ते की खाली प्लेट्स ले कर रसोई में जाने लगी. तभी पीछे से उसे उस की सास की आवाज सुनाई दी, “राकेश, बहू की बात कुछ हद तक सही तो है. तेरे पापा ने मकान-संपत्ति के मामले में मुझे बिलकुल अनजान रखा था, इसी से आज जो कुछ हमारा होना था वह हमारे पास नहीं है. बहू को कम से कम अपने अधिकारों के बारे में तो पता है और अपने अधिकार को ले कर अगर वह अपनों से भी लड़ रही है तो कुछ गलत नहीं कर रही है.”

“लेकिन मम्मी…मकान उस के नाम…” राकेश ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने उसे टोकते हुए आगे कहा, “तुम दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए हो. क्या फर्क पड़ता है अगर घर बहू के नाम भी हुआ तो… आखिर मकान को घर तो उसे ही बनाना है.”

अपनी मम्मी के फैसले पर सहमति जताते हुए राकेश आगे कुछ नहीं बोला. नेहा ने पीछे पलट कर उसे देखा तो उस की तरफ देख कर वह मुसकरा दिया.

नीलोफर: क्या दोबारा जिंदगी जी पाई नीलू

लेखिका- शर्मिला चौहान

खिड़कीके सामने अशोक की झांकती टहनी पर छोटा सा आशियाना बना रखा था उस ने. जितनी छोटी वह खुद थी, उस के अनुपात से बित्ते भर का उस का घर. मालती जबजब शुद्ध हवा के लिए खिड़की पर आती, उसे देखे बिना वापस न जाती. वह थी ही इतनी खूबसूरत चिकनीचमकती, पीठ जहां खत्म होती वहीं से पूंछ शुरू. भूरे छोटे परों पर 2-4 नीले परों का आवरण चढ़ा था, यही नीला आवरण उसे दूसरी चिडि़यों से अलग करता था. उस छोटी सी मादा को भी अपनी सब से खूबसूरज चीज पर अभिमान तो जरूर ही था.

खाली समय में चोंच से नीले परों को साफ करती, अपनी हलकी पीलापन लिए भूरी आंखों से चारों ओर का जायजा लेती कि उस के सुंदर रूप को कोई निहार भी रहा है या नहीं. उस छोटी, नन्ही चिडि़या के परों के कारण मालती ने उस का नाम ‘नीलोफर’ रख दिया था.

‘‘मम्मी, नीलोफर ने शायद अंडे दिए हैं… वह उस घोंसले से हट ही नहीं रही,’’ मालती की 24 साल की बेटी नीलू ने उसी खिड़की के पास से मालती को आवाज दी.

‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है, इसलिए इतनी मेहनत कर के घर बनाया उस ने,’’ कहती हुई मालती भी खिड़की के  बाहर झांकने लगी.

नीलू को बाहर टकटकी बांधे देख कर मालती नीलू के बालों पर उंगलियों से कंघी

करने लगी.

‘‘आप ने इस चिडि़या का नाम नीलोफर क्यों रखा मम्मी?’’ नीलू अभी भी उस छोटी चिडि़या में गुम थी.

‘‘उस के नीले पर कितने प्यारे हैं, बस इसीलिए वह नीलोफर हो गई,’’ मालती ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मेरा नाम नीलू क्यों रखा?’’ नीले ने अगला सवाल किया.

‘‘इसलिए कि तुम्हारी नीली आंखें झील सी पारदर्शी हैं. तुम्हारे मन की बात आंखें कह देती

हैं तो तुम नीलू हो,’’ मालती ने कहा और फिर नीलू की ह्वीलचेयर को धकेल कर बैठक की ओर ले गई.

नीलू ने रिमोट से टैलीविजन चालू किया और कुछ पजांबी डांस वाले गानों का मजा लेने लगी. किसी त्योहार का दृश्य था और रंगबिरंगी पोशाकें पहने लड़कियां ढोल की थाप पर झूमझूम कर नाच रही थीं. मालती ने कनखियों से नीलू को देखा, वह तन्मय हो कर गाना गा रही थी और कमर के ऊपर के शरीर को नाचने की मुद्रा में ढालने में लगी थी.

उसे गाने के बोल और नत्ृय की मुद्राओं

में तल्लीन देख कर मालती उस के बचपन में

खो गई…

‘‘मम्मी, मुझे क्लासिकल डांस नहीं

सीखना है, मुझे तो डांस वाले फिल्मी गाने पसंद हैं,’’ 7 साल की नीलू ने जिद कर के बौलीवुड गानों पर नाचना शुरू किया था.

‘‘क्या है मम्मी, यह दिनभर बंदरिया की तरह उछलकूद मचाती रहती है… आईने के

सामने मटकती रहती है और कोई काम नहीं

है क्या इसे?’’ नीलू से 4 साल बड़ा शुभम झल्लाता रहता.

‘‘आप भी नाचो न, आप को तो आता ही नहीं,’’ कहती नीलू उसे और चिढ़ाती.

समय पंख लगा कर उड़ता गया और नीलू

9 साल की हो गई.

‘‘कल सबुह बस से शुभम की स्कूल पिकनिक जा रही है. हम उसे स्कूल बस तक छोड़ आएंगे,’’ मालती ने अपने पति से कहा.

‘‘मैं भी जाऊंगी भैया को छोड़ने,’’ नीलू ने रात को ही कह दिया था.

सुबह सब कार से शुभम को स्कूल बस

तक छोड़ कर वापस आ रहे थे.

‘‘पापा, रुको न, हम वहां रुक कर कुछ खाते हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं कि सुबह यहां वड़ा पाव, इडलीडोसा और सैंडविच बहुत अच्छे मिलते हैं,’’ स्कूल के रास्ते पर एक छोटे से रैस्टोरैंट के आगे नीलू ने कहा.

सब अभी उतर ही रहे थे कि नीलू दौड़ कर सड़क पार करने लगी.

‘‘नीलू… बेटा रुको…’’ मालती की आवाज बाजू से गुजरती कार के ब्रेक मारने में दब गई.

मिनटों में पासा पलट गया था. लहूलुहान नीलू अस्पताल में बेहोश पड़ी थी. तब से आज तक कभी खड़ी नहीं हो पाई. खेलताकूदता, दौड़ता, नाचता बचपन कमर के नीचे से शांत हो गया. ह्वीलचेयर में उस की दुनिया समा गई थी.

‘‘मम्मी, भैया को आज वीडियोकौल करेंगे तो मुझे उन से एक बैग मंगवाना है,’’ नीलू की आवाज से चौंक कर मालती वर्तमान में आ गई.

‘‘हां, आज करते हैं शुभम को कौल,’’ अमेरिका में जौब कर रहे बेटे शुभम के बारे में बात हो रही थी.

दूसरे दिन सुबहसुबह भाई से बात कर के अपने लिए एक मल्टीपर्पज बैग लाने को कह कर नीलू ह्वीलचेयर ले कर खिड़की पर आ गई.

पापा और भाई की सलाह से नीलू ने अपनी पढ़ाई तो चालू रखी ही, साथ ही हस्तकला की सुंदर चीजें भी बनाती रही. कुदरत ने उस के पैरों की सारी शक्ति मानो हाथों को दे दी. बारीक धागों, सीपियों, मोतियों, जूट से खूबसूरत बैग और वाल हैगिंग बनाती थी.

उस के काम में मदद करने के लिए मालती तो थी ही, साथ ही एक और लड़की को रखा था जो सामान उठाने, रखने में मदद करती थी. बड़ेबड़े बुटीक से और्डर आते थे और सब मिल कर उन्हें समय पर पूरा करते. धीरेधीरे जिंदगी अपनी गति फिर पकड़ने लगी थी.

‘‘मम्मी, आप को मेरी बहुत चिंता होती रहती है न?’’ एक चिरपरिचित से अंदाज में नीलू कहा करती थी.

‘‘नहीं तो, मैं क्यों करूंगी चिंता? तू

तो खुद समझदार है, अपने काम कर लेती है. बुटीक के और्डर भी संभालती है और पढ़ाई

भी कर रही है,’’ मालती हमेशा उसे प्रोत्साहित करती.

‘‘चेहरे पर इतनी झुर्रियां आ गई, आंखों के नीचे काले निशान हो गए. अब भी कहोगी कि कोई चिंता नहीं,’’ नीलू की गहरी नीली आंखें अंदर तक भेद जातीं.

नीलू की कमर से निचले अंगों की स्वच्छता, कपड़े पहनाने का काम मालती खुद करती थी. एक जवान लड़की को किसी दूसरे के हाथों से ये सब काम करवाने की स्थिति का सामना रोज ही दोनों करते थे.

अचानक, चींचीं, चींचीं की आवाज के साथ कांवकांव का शोर होने लगा.

‘‘मम्मी देखो. नीलोफर के घोंसले में एकसाथ 3-4 कौए आ गए. उसे परेशान कर रहे हैं. बचाओ मम्मी, नीलोफर को, उस के अंडों को,’’ नीलू की आवाज दर्दनाक थी जैसे कोई उस पर घात कर रहा हो.

मालती रसोई से भाग कर कमरे की खिड़की पर आ गई. नीलू की ओर देखा, वह पसीने से तरबतर हो रही थी.

‘‘मम्मी, प्लीज नीलोफर को बचा लो. ये कौए उसे मार डालेंगे. आप ने जैसे मुझे बचा लिया, इस को भी बचा लो मम्मा…’’ नीलू की आवाज कुएं से बाहर आने का प्रयास कर रही थी. एक अंधकार जिस में वह खुद जी रही थी, एक सन्नाटा जिस को वह झेल रही थी. दूरदूर तक आशाओं का क्षितिज था, जो हमेशा मुट्ठी से फिसलने को लालायित रहता.

‘‘बेटा, हरेक को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है. कोई दूसरा कुछ मदद तो कर सकता है पर जीवनभर साथ नहीं दे सकता,’’ मालती ने नीलू का हाथ थाम लिया, ‘‘नीलोफर की लड़ाई उस की अपनी है. हम सिर्फ कुदरत से प्रार्थना कर सकते हैं कि उसे शक्ति दे.’’

‘‘आप तो उन कौओं को भगा सकती हो न, मैं तो उठ कर उन्हें नहीं मार सकती,’’ नीलू की आवाज कंपकंपा रही थी.

‘‘अपने अंडों की चिंता हम से ज्यादा नीलोफर को खुद है. तुम देखो, वह कैसे अपनी लड़ाई लड़ेगी,’’ मालती ने बेटी को दिलासा तो दे दिया परंतु एक नन्ही सी चिडि़या की शक्ति पर उस को विश्वास नहीं था. अत: अंदर से एक बड़ी लकड़ी ले आई.

‘‘सामने देख कर हत्प्रभ रह गई कि

4 कौओं से अकेली नीलोफर पूरे विश्वास से

जूझ रही थी. अपनी छोटी परंतु नुकीली चोंच से, कौए की आंखों पर वार करकर के 2 कौओं को भगा दिया उस ने. एक नजर अपने अंडों पर डाली, पंख फड़फड़ा शक्ति का संचार किया,

परंतु यह क्या.. उस के नीले चमकीले पंखों में से 2 गिर गए.

एक भरपूर निगाह गिरे पंखों पर डाल कर वह तेजी से चींचीं, चींचीं करती हुई बचे दोनों कौओं पर वार करने लगी.

सांस थाम कर खिड़की से मालती और

नीलू उस नन्ही सी चिडिंया का हौसला

बढ़ा रहे थे. पक्षी मन की बात समझ लेते हैं

जिसे जुबान के रहते मनुष्य नहीं समझ पाते. संबल देती 4 आंखों ने नीलोफर को बिजली सी गति दे दी.

उड़उड़ कर वह अपनी चोंच से लगातार

वार करती रही. कौओं की बड़ी, मोटी चोंच से खुद को बचाना छोड़ दिया उस ने और आक्रामक हो गई.

आखिर एक मां के आगे वे दोनों हार गए और भाग खड़े हुए. लंबी सांस भर कर नीलोफर ने अपने घोंसले में सुरक्षित अंडों को प्रेम से जीभर देखा. उस की नजर खिड़की पर रुक गई, जहां दोनों मादा तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रही थीं.

नीलोफर अपने क्षतिग्रस्त शरीर का मुआयना करने लगी. जगहजगह कौओं की चोंच से घाव हो गए थे.

उस के चमकीले, नीले पंख अब शरीर छोड़ कर नीचे गिर गए थे. उस की आखों में एक बंदू सी चमकने लगी.

‘‘नीलोफर, तुम दुनिया की सब से

खूबसूरत चिडि़या हो, तुम्हें नीले पंखों की जरूरत ही नहीं है. आज तुम्हारी खूबसूरती को मैं ने महसूस किया है,’’ नीलू की बात, उस छोटे से पंछी ने कितनी समझी पता नहीं पर खुशी से चिचियाने लगी.

नीलू ने घूम कर मालती की ओर देखा. मम्मी के दमकते चेहरे पर आज कोई झर्री आंखों के नीचे कोई कालापन नहीं दिखाई दिया.

भटकाव के बाद: परिवार को चुनने की क्या थी मुकेश की वजह

संजीव का फोन आया था कि वह दिल्ली आया हुआ है और उस से मिलना चाहता है. मुकेश तब औफिस में था और उस ने कहा था कि वह औफिस ही आ जाए. साथसाथ चाय पीते हुए गप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे. संजीव और मुकेश बचपन के दोस्त थे, साथसाथ पढ़े थे. विश्वविद्यालय से निकलने के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए थे. मुकेश ने प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से केंद्र सरकार की नौकरी जौइन कर ली थी. प्रथम पदस्थापना दिल्ली में हुई थी और तब से वह दिल्ली के पथरीले जंगल में एक भटके हुए जानवर की तरह अपने परिवार के साथ जीवनयापन और 2 छोटे बच्चों को उचित शिक्षा दिलाने की जद्दोजहद से जूझ रहा था. संजीव के पिता मुंबई में रहते थे. शिक्षा पूरी कर के वह वहीं चला गया था और उन के कारोबार को संभाल लिया. आज वह करोड़ों में नहीं तो लाखों में अवश्य खेल रहा था. शादी संजीव ने भी कर ली थी, परंतु उस के जीवन में स्वच्छंदता थी, उच्छृंखलता थी और अब तो पता चला कि वह शराब का सेवन भी करने लगा था. इधरउधर मुंह मारने की आदत पहले से थी.

अब तो खुलेआम वह लड़कियों के साथ होटलों में जाता था. कारोबार के सिलसिले में वह अकसर दिल्ली आया करता था. जब भी आता, मुकेश को फोन अवश्य करता था और कभीकभार मौका निकाल कर उस से मिल भी लेता था, परंतु आज तक दोनों की मुलाकात मुकेश के औफिस में ही हुई थी. मुकेश की जिंदगी कोल्हू के बैल की तरह थी, बस एक चक्कर में घूमते रहना था, सुबह से शाम तक, दिन से ले कर सप्ताह तक और इसी तरह सप्ताह-दर-सप्ताह, महीने और फिर साल निकलते जाते, परंतु उस के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन होता दिखाई नहीं पड़ रहा था. नौकरी के बाद उस के जीवन में बस इतना परिवर्तन हुआ था कि दिल्ली में पहले अकेला रहता था, शादी के बाद घर में पत्नी आ गई थी और उस के बाद 2 बच्चे हो गए थे परंतु जीवन जैसे एक ही धुरी पर अटका हुआ था. निम्नमध्यवर्गीय जीवन की वही रेलमपेल, वही समस्याएं, वही कठिनाइयां और रातदिन उन से जूझते रहने की बेचैनी, कशमकश और निष्प्राण सक्रियता, क्योंकि कहीं न कहीं उसे यह लगता था कि उस के पारिवारिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होने वाला है, सो जीवन के प्रति ललक, जोश और उत्तेजना दिनोंदिन क्षीण होती जा रही थी.

उधर से संजीव ने कहा था, ‘‘अरे यार, इस बार मैं तेरे औफिस नहीं आने वाला हूं. आज 31 दिसंबर है और तू मेरे यहां आएगा, मेरे होटल में. आज हम दोनों मिल कर नए साल का जश्न मनाएंगे. मेरे साथ मेरे 2 दोस्त भी हैं, तुझे मिला कर 4 हो जाएंगे. सारी रात मजा करेंगे. बस, तू तो इतना बता कि मैं तेरे लिए गाड़ी भेजूं या तू खुद आ जाएगा?’’ मुकेश सोच में पड़ गया. सुबह घर से निकलते समय उस के बच्चों ने शाम को जल्दी घर आने के लिए कहा था. वह दोनों शाम को बाहर घूमने जाना चाहते थे. घूमफिर कर किसी रेस्तरां में उन सब का खाना खाने का प्रोग्राम था. वह जल्दी से कोई जवाब नहीं दे पाया, तो उधर से संजीव ने अधीरता से कहा, ‘‘क्या सोच रहा है यार. मैं इतनी दूर से आया हूं और तू होटल आने में घबरा रहा है.’’

उस ने बहाना बनाया, ‘‘यार, आज बच्चों से कुछ कमिटमैंट कर रखा है और तू तो जानता है, मैं कुछ खातापीता नहीं हूं. तुम लोगों के रंग में भंग हो जाएगा.’’ ‘‘कुछ नहीं होगा, तू भाभी और बच्चों को फोन कर दे. बता दे कि मैं आया हुआ हूं. और सुन, एक बार आ, तू भी क्या याद करेगा. तेरे लिए स्पैशल इंतजाम कर रखा है.’’ उस की समझ में नहीं आया कि संजीव ने उस के लिए क्या स्पैशल इंतजाम कर रखा है. स्पैशल इंतजाम के रहस्य ने उस की निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता की सोच के ऊपर परदा डाल दिया और वह ‘स्पैशल इंतजाम’ के रहस्य को जानने के लिए बेताब हो उठा. उस ने संजीव से कहा कि वह आ रहा है परंतु उस से वादा ले लिया कि उसे 10 बजे तक फ्री कर देगा. फिर पूछा, ‘‘कहां आना है?’’ संजीव ने हंसते हुए कहा, ‘‘तू एक बार आ तो सही, फिर देखते हैं. पहाड़गंज में होटल न्यू…में आना है. मेन रोड पर ही है.’’ मुकेश ने कहा कि वह मैट्रो से आ जाएगा और फिर फोन कर के पत्नी से कहा कि घर आने में उसे थोड़ी देर हो जाएगी. वह घर में ही खाना बना कर बच्चों को खिलापिला दे. आते समय वह उन के लिए चौकलेट और मिठाई लेता आएगा. उस की बात पर पत्नी ने कोई एतराज नहीं किया. वह जानती थी कि उस का पति एक सीधासादा इंसान है और बेवजह कभी घर से बाहर नहीं रहता. उसे अपनी पत्नी और बच्चों की बड़ी परवा रहती है.

मुकेश होटल पहुंचा तो संजीव उसे लौबी में ही मिल गया. बड़ी गर्मजोशी से मिला. हालचाल पूछे और कमरे की तरफ जाते हुए होटल के मैनेजर से परिचय कराया. मैनेजर बड़ी गर्मजोशी से मिला जैसे मुकेश बहुत बड़ा आदमी था. कमरे में उस के 2 दोस्त बैठे बातें कर रहे थे. संजीव ने उन से मुकेश का परिचय कराया. वे दोनों दिल्ली के ही रहने वाले थे. मुकेश से बड़ी खुशदिली से मिले, परंतु मुकेश शर्म और संकोच के जाल में फंसा हुआ था. होटल के बंद माहौल में वह अपने को सहज नहीं महसूस कर पा रहा था. इस तरह के होटलों में आना उस के लिए बिलकुल नया था. ऐसा कभी कोई संयोग उस के जीवन में नहीं आया था. कभीकभार पत्नी और बच्चों के साथ छोटेमोटे रेस्तराओं में जा कर हलकाफुलका खानापीना अलग बात थी. संजीव अपने दोस्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोला, ‘‘चलो, कुछ इंतजाम करो, मेरा बचपन का दोस्त आया है. आज इस की तमन्नाएं पूरी कर दो. बेचारा, कुएं का मेढक है. इस को पता तो चले कि दुनिया में परिवार के अतिरिक्त भी बहुतकुछ है, जिन से खुशियों के रंगबिरंगे महल खड़े किए जा सकते हैं.’’ फिर उस ने मुकेश की पीठ में धौल जमाते हुए कहा, ‘‘चल यार बता, तेरी क्याक्या इच्छाएं हैं, तमन्नाएं और कामनाएं हैं, आज सब पूरी करवा देंगे. यह मेरे मित्र का होटल है और फिर आज तो साल का अंतिम दिन है. कुछ घंटों के बाद नया साल आने वाला है. आज सारे बंधन तोड़ कर खुशियों को गले लगा ले.’’

संजीव कहता जा रहा था. ‘पहले तो कभी इतना अधिक नहीं बोलता था,’ मुकेश मन ही मन सोच रहा था. पहले वह भी मुकेश की तरह शर्मीला और संकोची हुआ करता था. दोनों एक कसबेनुमां गांव के रहने वाले थे. उन के संस्कारों में नैतिकता और मर्यादा का अंश अत्यधिक था. मुकेश दिल्ली आ कर भी अपने पंख नहीं फैला सका था. पिंजरे में कैद पंछी की तरह परिवार के साथ बंध कर रह गया था, जबकि संजीव ने मुंबई जा कर जीवन को खुल कर जीने के सभी दांवपेंच सीख लिए थे. सच कहा गया है, संपन्नता मनुष्य में बहुत सारे गुणअवगुण भर देती है, परंतु उस के अवगुण भी दूसरों को सद्गुण लगते हैं. जबकि गरीबी मनुष्य से उस के सद्गुणों को भी छीन लेती है. उस के सद्गुण भी दूसरों को अवगुण की तरह दिखाई पड़ते हैं. संजीव के एक दोस्त अमरजीत ने कहा, ‘‘आप के मित्र तो बड़े संकोची लगते हैं, लगता है, कभी घर से बाहर नहीं निकले.’’

मुकेश वाकई संकोच में डूबा जा रहा था. जिस तरह की बातें संजीव कर रहा था, उस तरह के माहौल से आज तक वह रूबरू नहीं हुआ था. वह किसी तरह के झमेले में पड़ने के लिए यहां नहीं आया था. वह तो केवल संजीव के जोर देने पर उस से मिलने के लिए आ गया था. उस ने सोचा था, कुछ देर बैठेगा, चायवाय पिएगा, गपशप मारेगा, और फिर घर लौट आएगा. रास्ते में बच्चों के लिए केक खरीद लेगा, वह भी खुश हो जाएंगे. दिसंबर की बेहद सर्द रात में भी मौसम इतना गरम था कि उसे अपना कोट उतारने की इच्छा हो रही थी. पर मन मार कर रह गया. सभी सोचते कि वह भी मौजमस्ती के मूड में है. उस ने संजीव के मुंह की तरफ देखा. वह उसे देख कर मुसकरा रहा था, जैसे उस के मन की बात समझ गया था. बोला, ‘‘सोच क्या रहा है? कपड़े वगैरह उतार कर रिलैक्स हो जा. अभी तो मजमस्ती के लिए पूरी रात बाकी है.’’ संजीव का एक दोस्त मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था और दूसरा दोस्त इंटरकौम पर खानेपीने का और्डर कर रहा था. संजीव स्वयं मुकेश से बात करने के अतिरिक्त मोबाइल पर बीचबीच में बातें करता जा रहा था. गोया, उस कमरे में मुकेश को छोड़ कर सभी व्यस्त थे. उन की व्यस्तता में कोई चिंता, परेशानी या उलझन नहीं दिखाई दे रही थी. मुकेश व्यस्त न होते हुए भी व्यस्त था, उस के दिमाग में चिंता, उलझन और परेशानियों का लंबा जाल फैला हुआ था, जिस में वह फंस कर रह गया था. उस के जाल में उस की पत्नी फंसी हुई थी, उस के मासूम बच्चे फंसे हुए थे. उस के बच्चों की आंखों में एक कातर भाव था, जैसे मूकदृष्टि से पूछ रहे हों, ‘पापा, हम ने आप से कोई बहुत कीमती और महंगी चीज तो नहीं मांगी थी. बस, एक छोटा सा केक लाने के लिए ही तो कहा था. वह भी आप ले कर नहीं आए. पापा, आप घर कब तक आएंगे? हम आप का इंतजार कर रहे हैं.’

मुकेश के मन में एक तरह की अजीब सी बेचैनी और दिल में ऐसी घबराहट छा गई. जैसे वह अपने ही हाथों अपने बच्चों का गला घोंट रहा था, उन के अरमानों को चकनाचूर कर रहा था. पत्नी के साथ छल कर रहा था. वह उठ कर खड़ा हो गया और संजीव से बोला, ‘‘यार, मुझे घर जाना है, आप लोग एंजौय करो. वैसे भी मैं आप लोगों का साथ नहीं दे पाऊंगा.’’ ‘‘तो क्या हो गया? जूस तो ले सकता है, चिकन, मटन, फिश तो ले सकता है.’’

‘‘क्या 10 बजे तक फ्री हो जाऊंगा?’’ मुकेश ने जैसे हथियार डालते हुए कहा. ‘‘क्या यार, तुम भी बड़े घोंचू हो. बच्चों की तरह घर जाने की रट लगा रखी है. पत्नी और बच्चे तो रोज के हैं, परंतु यारदोस्त कभीकभार मिलते हैं. नए साल का जश्न मनाने का मौका फिर पता नहीं कब मिले,’’ संजीव थोड़ा चिढ़ते हुए बोला. थोड़ी देर में चिकनमटन की तमाम सारी तलीभुनी सामग्री मेज पर लग गई. मुकेश मन मार कर बैठा था, मजबूरी थी. अजीब स्थिति में फंस गया था. न आगे जाने का रास्ता उस के सामने था, न पीछे हट सकता था. संजीव उस की मनोस्थिति नहीं समझ सकता था. अपनी समझ में वह अपने दोस्त को जीवन की खुशियों से रूबरू होने का मौका भी प्रदान कर रहा था. परंतु मुकेश की स्थिति गले में फंसी हड्डी की तरह थी, जो उसे तकलीफ दे रही थी.

मुकेश के हाथ में जूस का गिलास था, परंतु जब भी वह गिलास को होंठों से लगाता, जूस का पीला रंग बिलकुल लाल हो जाता. खून जैसा लाल और गाढ़ा रंग देख कर उसे उबकाई आने लगती और बड़ी मुश्किल से वह घूंट को गले से नीचे उतार पाता. संजीव और उस के दोस्त बारबार उसे कुछ न कुछ खाने के लिए कहते और वह ‘हां, खाता हूं’ कह कर रह जाता, चिकनमटन के लजीज व्यंजनों की तरफ वह हाथ न बढ़ाता. उस के कानों में सिसकियों की आवाज गूंजने लगती, अपने बच्चों के सिसकने की आवाज… कितने छोटे और मासूम बच्चे हैं, अभी 7 और 5 वर्ष के ही तो हैं. इस उम्र में बच्चे मांबाप से बहुत ज्यादा लगाव रखते हैं. उन की उम्मीदें बहुत छोटी होती हैं, परंतु उन के पूरा होने पर मिलने वाली खुशी उन के लिए हजार नियामतों से बढ़ कर होती है.

तभी एक सुंदर, छरहरे बदन की युवती ने वहां कदम रखा. उस ने हंसते हुए संजीव के बाकी दोनों दोस्तों से हाथ मिलाया, फिर प्रश्नात्मक दृष्टि से मुकेश की तरफ देखने लगी. संजीव ने कहा, ‘‘मेरा यार है, बचपन का, थोड़ा संकोची है.’’ बीना ने अपना हाथ मुकेश की तरफ बढ़ाया. उस ने भी हौले से बीना की हथेली को अपनी दाईं हथेली से पकड़ा. बीना का हाथ बेहद ठंडा था. उस ने बीना की आंखों में देखा, वह मुसकरा रही थी. उस का चेहरा ही नहीं आंखें भी बेहद खूबसूरत थीं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था, होंठों पर लिपस्टिक नहीं थी, बावजूद इस के वह बहुत सुंदर लग रही थी. मुकेश अपनी भावनाओं को छिपाते हुए बोला, ‘‘संजीव, अगर बुरा न मानो तो मुझे जाने दो. तुम लोग एंजौय करो. मैं कल तुम से मिलूंगा,’’ कह कर उठने का उपक्रम करने लगा. हालांकि यह एक दिखावा था, अंदर से उस का मन रुकने के लिए कर रहा था, परंतु मध्यवर्गीय व्यक्ति मानमर्यादा का आवरण ओढ़ कर मौजमस्ती करना पसंद करता है. बदनामी का भय उसे सब से अधिक सताता है, इसीलिए वह जीवन की बहुत सारी खुशियों से वंचित रहता है.

संजीव ने उस की बांह पकड़ कर फिर से कुरसी पर बिठा दिया, ‘‘बेकार की बातें मत करो.’’ संजीव की बात सुन कर मुकेश का हृदय धाड़धाड़ बजने लगा, जैसे किसी कमजोर पुल के ऊपर से रेलगाड़ी तेज गति से गुजर रही हो. वह समझ नहीं पाया कि यह खुशी के आवेग की धड़कन है या अनजाने, आशंकित घटनाक्रम की वजह से उस का हृदय तीव्रता के साथ धड़क रहा है? बीना ने मुकेश की तरफ देख कर आंख मार दी. वह झेंप कर रह गया.

संजीव बाहर निकलते हुए बोला, ‘‘चलो, जल्दी करो. मुकेश को घर जाना है.’’ संजीव बगल वाले कमरे में चला गया. मुकेश कमरे में अकेला रह गया, विचारों से गुत्थमगुत्था. उस ने अपने दिमाग को बीना के सुंदर चेहरे, पुष्ट अंगों और गदराए बदन पर केंद्रित करना चाहा, परंतु बीचबीच में उस की पत्नी का सौम्य चेहरा बीना के चंचल चेहरे के ऊपर आ कर बैठ जाता. उस के मन को बेचैनी घेरने लगती, परंतु यह बेचैनी अधिक देर तक नहीं रही. मुकेश चाहता था, वह बीना के शरीर की ढेर सारी खुशबू अपने नथुनों में भर ले, ताकि फिर जीवन में किसी दूसरी स्त्री के बदन की खुशबू की उसे जरूरत न पड़े. परंतु यहां खुशबू थी कहां? कमरे में एक अजीब सी घुटन थी. उस घुटन में मुकेश तेजतेज सांसें लेता हुआ अपने फेफड़ों को फुला रहा था और एकटक बीना के शरीर को ताक रहा था, जैसे बाज गौरैया को ताकता है. परंतु यहां बाज कौन था और गौरैया कौन, यह न मुकेश को पता था, न बीना को.

बीना तंदरुस्त लड़की थी और उस के हावभाव से लग रहा था कि वह किसी भले घर की नहीं थी. उस ने हाथ पकड़ कर मुकेश को खड़ा किया और बोली, ‘‘क्या खूंटे की तरह गड़े बैठे हो? कुछ डांसवांस नहीं करोगे? जल्दी करो. आज सारी रात जश्न मनेगा,’’ उस ने मुकेश के सामने खड़े हो कर अपने बाल संवारते हुए कुछ तल्खी से कहा. वह चुप बैठा रहा तो बीना ने बेताब हो कर अपने हाथों से उसे उठाते हुए कहा,  ‘‘आओ, अब डांस करो.’’ वह अचानक उठ खड़ा हुआ, जैसे उस के शरीर में कोई करंट लगा हो.

बीना बोली, ‘‘यह क्या? तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं, वैसे के वैसे खड़े हो, खंभे की तरह…’’ परंतु मुकेश ने उस की तरफ दोबारा नहीं देखा. लपक कर वह बाहर आ गया. संजीव से भी मिलने की उस ने आवश्यकता नहीं समझी. गैलरी में आ कर उस ने इधरउधर देखा. इक्कादुक्का वेटर कमरों में आजा रहे थे. बाहर का वातावरण शांत था और हवा में हलकीहलकी सर्दी का एहसास था. वह होटल के बाहर आ गया. होटल के बाहर आ कर उसे चहलपहल का एहसास हुआ. उस ने समय देखा, 10 बजने में कुछ ही मिनट शेष थे. गोल मार्केट की दुकानें खुली होंगी, यह सोच कर वह गोल मार्केट की ओर चल दिया. साढ़े 10 बजे के लगभग जब हाथ में केक और मिठाई का डब्बा ले कर वह घर पहुंचा तो उस के मन में अपराधबोध था. आत्मग्लानि के गहरे समुद्र में वह डुबकी लगा रहा था. पत्नी ने जब दरवाजा खोला तो वह उस से नजरें चुरा रहा था. पत्नी को सामान पकड़ा कर वह अंदर आया. दोनों बच्चे उसे जगते हुए मिले. वे टीवी पर नए साल का कार्यक्रम देख रहे थे. उसे देख कर एकदम से चिल्लाए, ‘‘पापा आ गए, पापा आ गए. क्या लाए पापा हमारे लिए?’’

उस ने पत्नी की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे मम्मी की तरफ देखने लगे तो उस ने लपक कर बारीबारी से दोनों बच्चों को चूम लिया. तब तक उस की पत्नी ने सामान ला कर मेज पर रख दिया, ‘‘वाउ, मिठाई और केक…अब मजा आएगा.’’ मुकेश के मन में एक बहुत बड़ी शंका घर कर गई थी. और वह शंका धीरेधीरे बढ़ती जा रही थी. उसे तत्काल दूर करना आवश्यक था. वह इंतजार नहीं कर सकता था. मुकेश दोनों बच्चों को नाचतागाता छोड़ कर पत्नी के पीछेपीछे किचन में आ गया. पत्नी ने उसे ऐसे आते देख कर कहा, ‘‘आप जूतेकपड़े उतार कर फ्रैश हो लीजिए. मैं पानी ले कर आती हूं.’’ ‘‘वह बाद मे कर लेंगे,’’ कह कर उस ने पत्नी को पीछे से पकड़ कर अपनी बांहों में भर लिया. पत्नी के हाथ से गिलास छूट गया. फुसफुसा कर बोली, ‘यह क्या कर रहे हैं आप?  ऐसा तो पहले कभी नहीं किया, बिना जूतेकपड़े उतारे और वह भी किचन में…’

‘‘पहले कभी नहीं किया, इसीलिए तो कर रहा हूं,’’ उस ने पूरी ताकत के साथ पत्नी के शरीर को भींच लिया. उस के शरीर में जैसे बिजली प्रवाहित होने लगी थी.

‘बच्चे देख लेंगे?’ पत्नी फिर फुसफुसाई. मुकेश के मन में हजार रंगों के फूल खिल कर मुसकराने लगे. उस के मन का भटकाव खत्म हो चुका था. अब उस के मन में कोई शंका नहीं थी, परंतु मुकेश को एक बात समझ में नहीं आ रही थी. कहते हैं कि आदमी को पराई औरत और पराया धन बहुत आकर्षित करता है. इन दोनों को प्राप्त करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है. मुकेश को पराई नारी वह भी इतनी सुंदर, बिना किसी प्रयत्न के सहजता से उपलब्ध हुई थी, फिर वह उसे क्यों नहीं भोग पाया? यह रहस्य कोई मनोवैज्ञानिक ही सुलझा सकता था. मुकेश के लिए यह रहस्य एक बड़ा आश्चर्य था.

टकराती जिंदगी: क्या कसूरवार थी शकीला

लेखक- एच. भीष्मपाल

जिंदगी कई बार ऐसे दौर से गुजर जाती है कि अपने को संभालना भी मुश्किल हो जाता है. रहरह कर शकीला की आंखों से आंसू बह रहे थे. वह सोच भी नहीं पा रही थी कि अब उस को क्या करना चाहिए. सोफे पर निढाल सी पड़ी थी. अपने गम को भुलाने के लिए सिगरेट के धुएं को उड़ाती हुई भविष्य की कल्पनाओं में खो जाती. आज वह जिस स्थिति में थी, इस के लिए वह 2 व्यक्तियों पर दोष डाल रही थी. एक थी उस की छोटी बहन बानो और दूसरा था उस का पति याकूब.

‘मैं क्या करती? मुझे उन्होंने पागल बना दिया था. यह वही व्यक्ति था जो शादी से पहले मुझ से कहा करता था कि अगर मैं ने उस से शादी नहीं की तो वह खुदकुशी कर लेगा. आज उस ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि मैं अपना शौहर, घर और छोटी बच्ची को छोड़ने को मजबूर हो गई हूं. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि मैं अब क्या करूं,’ शकीला मन ही मन बोली.

‘मैं ने याकूब को क्या नहीं दिया. वह आज भूल गया कि शादी से पहले वह तपेदिक से पीडि़त था. मैं ने उस की हर खुशी को पूरा करने की कोशिश की. मैं ने उस के लिए हर चीज निछावर कर दी. अपना धन, अपनी भावनाएं, हर चीज मैं ने उस को अर्पण कर दी. सड़कों पर घूमने वाले बेरोजगार याकूब को मैं ने सब सुख दिए. उस ने गाड़ी की इच्छा व्यक्त की और मैं ने कहीं से भी धन जुटा कर उस की इच्छा पूरी कर दी. मुझे अफसोस इस बात का है कि उस ने मेरे साथ यह क्यों किया. मुझे इस तरह जलील करने की उसे क्या जरूरत थी? अगर वह एक बार भी कह देता कि वह मेरे से ऊब गया है तो मैं खुद ही उस के रास्ते से हट जाती. जब मेरे पास अच्छी नौकरी और घर है ही तो मैं उस के बिना भी तो जिंदगी काट सकती हूं.

‘बानो मेरी छोटी बहन है. मैं ने उसे अपनी बेटी की तरह पाला है, पर उसे मैं कभी माफ नहीं कर सकती. उस ने सांप की तरह मुझे डंस लिया. पता नहीं मेरा घर उजाड़ कर उसे क्या मिला? मुझे उस के कुकर्मों का ध्यान आते ही उस पर क्रोध आता है.’ बुदबुदाते हुए शकीला सोफे से उठी और बाहर अपने बंगले के बाग में घूमने लगी.

20 साल पहले की बात है. शकीला एक सरकारी कार्यालय में अधिकारी थी. गोरा रंग, गोल चेहरा, मोटीमोटी आंखें और छरहरा बदन. खूबसूरती उस के अंगअंग से टपकती थी. कार्यालय के साथी अधिकारी उस के संपर्क को तरसते थे. गाने और शायरी का उसे बेहद शौक था. महफिलों में उस की तारीफ के पुल बांधे जाते थे.

याकूब उत्तर प्रदेश की एक छोटी सी रियासत के नवाब का बिगड़ा शहजादा था. नवाब साहब अपने समय के माने हुए विद्वान और खिलाड़ी थे. याकूब को पहले फिल्म में हीरो बनने का शौक हुआ. वह मुंबई गया पर वहां सफल न हो सका. फिर पेंटिंग का शौक हुआ परंतु इस में भी सफलता नहीं मिली. उस के पिता ने काफी समझाया पर वह कुछ समझ न सका. गुस्से में उस ने घर छोड़ दिया. दिल्ली में रेडियो स्टेशन पर छोटी सी नौकरी कर ली. कुछ दिन के बाद वह भी छोड़ दी. फिर शायरी और पत्रकारिता के चक्कर में पड़ गया. न कोई खाने का ठिकाना न कोई रहने का बंदोबस्त. यारदोस्तों के सहारे किसी तरह से अपना जीवन निर्वाह कर रहा था. शरीर, डीलडौल अवश्य आकर्षक था. खानदानी तहजीब और बोलने का लहजा हर किसी को मोह लेता था.

और फिर एक दिन इत्तेफाक से उसे शकीला से मिलने का मौका मिला. एक इंटरव्यू लेने के सिलसिले में वह शकीला के कार्यालय में गया. उस के कमरे में घुसते ही उस ने ज्यों ही शकीला को देखा, उस के तनबदन में सनसनी सी फैल गई. कुछ देर के लिए वह उसे खड़ाखड़ा देखता रहा. इस से पहले कि वह कुछ कहे, शकीला ने उस से सामने वाली कुरसी पर बैठने का अनुरोध किया. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. शकीला भी उस की तहजीब और बोलने के अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. इंटरव्यू का कार्य खत्म हुआ और उस से फिर मिलने की इजाजत ले कर याकूब वहां से चला गया.

याकूब के वहां से चले जाने के बाद शकीला काफी देर तक कुछ सोच में पड़ गई. यह पहला मौका था

जब किसी के व्यक्तित्व ने उसे

प्रभावित किया था. कल्पनाओं के समुद्र में वह थोड़ी देर के लिए डूब गई. और फिर उस ने अपनेआप को झटक दिया और अपने काम में लग गई. ज्यादा देर तक उस का काम में मन नहीं लगा. आधे दिन की छुट्टी ले कर वह घर चली गई.

शकीला उत्तर प्रदेश के जौनपुर कसबे के मध्य-वर्गीय मुसलिम परिवार की कन्या थी. उस की 3 बहनें और 2 भाई थे. पिता का साया उस पर से उठ गया था. 2 भाइयों और 2 बहनों का विवाह हो चुका था और वे अपने परिवार में मस्त थे. विधवा मां और 7 वर्षीय छोटी बहन बानो के जीवननिर्वाह की जिम्मेदारी उस ने अपने ऊपर ले रखी थी. उस की मां को अपने घर से विशेष लगाव था. वह किसी भी शर्त पर जौनपुर छोड़ना नहीं चाहती थी. उस की गुजर के लिए उस का पिता काफी रुपयापैसा छोड़ गया था. घरों का किराया आता था व थोड़ी सी कृषि भूमि की आय भी थी.

शकीला के सामने समस्या बानो की पढ़ाई की थी. शकीला की इच्छा थी कि वह अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करे. वह उसे पब्लिक स्कूल में डालना चाहती थी जो जौनपुर में नहीं था. आखिरकार बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी मां को रजामंद कर लिया और वह बानो को दिल्ली ले आई. शकीला बानो से बेहद प्यार करती थी. बानो को भी अपनी बड़ी बहन से बहुत प्यार था.

याकूब और शकीला के परस्पर मिलने का सिलसिला जारी रहा. कुछ दिन कार्यालय में औपचारिक मिलन के बाद गेलार्ड में कौफी के कार्यक्रम बनने लगे. शकीला ने न चाह कर भी हां कर दी. बानो के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हुए भी वह याकूब से मिलने के लिए और उस से बातचीत करने के लिए लालायित रहने लगी. उन दोनों को इस प्रकार मिलते हुए एक साल हो गया. प्यार की पवित्रता और मनों की भावनाओं पर दोनों का ही नियंत्रण था. परस्पर वे एकदूसरे के व्यवहार, आदतों और इच्छाओं को पहचानने लगे थे.

एक दिन याकूब ने उस के सामने हिचकतेहिचकते विवाह का प्रस्ताव रखा. यह सुन कर शकीला एकदम बौखला उठी. वह परस्पर मिलन से आगे नहीं बढ़ना चाहती थी. यह सुन कर वह उठी और ‘ना’ कह कर गेलार्ड से चली गई. घर जा कर वह अपने लिहाफ में काफी देर तक रोती रही. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह जिंदगी के किस दौर से गुजर रही है. वह क्या करे, क्या न करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी.

इस घटना का याकूब पर बहुत बुरा असर पड़ा. वह शकीला की ‘ना’ को सुन कर तिलमिला उठा. इस गम को भुलाने के लिए उस ने शराब का सहारा लिया. अब वह रोज शराब पीता और गुमसुम रहने लगा. खाने का उसे कोई होश न रहा. उस ने शकीला से मिलना बिलकुल बंद कर दिया. शकीला के इस व्यवहार ने उस के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंचाई.

उधर शकीला की हालत भी ठीक न थी. बानो के प्रति अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वह याकूब को ‘ना’ तो कह बैठी, परंतु वह अपनी जिंदगी में कुछ कमी महसूस करने लगी. याकूब के संपर्क ने थोडे़ समय के लिए जो खुशी ला दी थी वह लगभग खत्म हो गई थी. वह खोईखोई सी रहने लगी. रात को करवटें बदलती और अंगड़ाइयां लेती परंतु नींद न आती. शकीला ने सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा लेना शुरू किया. चेहरे की रौनक और शरीर की स्फूर्ति पर असर पड़ने लगा. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. वह इसी सोच में डूबी रहती कि बानो की परवरिश कैसे हो. यदि वह शादी कर लेगी तो बानो का क्या होगा?

अत्यधिक शराब पीने से याकूब की सेहत पर असर पड़ने लगा. उस का जिगर ठीक से काम नहीं करता था. खाने की लापरवाही से उस के शरीर में और कई बीमारियां पैदा होने लगीं. याकूब इस मानसिक आघात को चुपचाप सहे जा रहा था. धीरेधीरे शकीला को याकूब की इस हालत का पता चला तो वह घबरा गई. उसे डर था कि कहीं कोई अप्रिय घटना न घट जाए. वह याकूब से मिलने के लिए तड़पने लगी. एक दिन हिम्मत कर के वह उस के घर गई. याकूब की हालत देख कर उस की आंखों से आंसू बहने लगे. याकूब ने फीकी हंसी से उस का स्वागत किया. कुछ शिकवेशिकायतों के बाद फिर से मिलनाजुलना शुरू हो गया. अब जब याकूब ने उस से प्रार्थना की तो शकीला से न रहा गया और उस ने हां कर दी.

शादी हो गई. शकीला और याकूब दोनों ही मजे से रहने लगे. हर दम, हर पल वे साथ रहते, आनंद उठाते. 3 वर्ष देखते ही देखते बीत गए. बानो भी अब जवान हो गई थी. उस ने एम.ए. कर लिया था और एक अच्छी फर्म में नौकरी करने लगी थी.

शकीला ने बानो को हमेशा अपनी बेटी ही समझा था. शादी से पहले शकीला और याकूब ने आपस में फैसला किया था कि जब तक बानो की शादी नहीं हो जाती वह उन के साथ ही रहेगी. याकूब ने उसे बेटी के समान मानने का वचन शकीला को दिया था. शकीला ने कभी अपनी संतान के बारे में सोचा भी नहीं था. वह तो बानो को ही अपनी आशा और अपने जीवन का लक्ष्य समझती थी.

याकूब कुछ दिनों के बाद उदास रहने लगा. यद्यपि बानो से वह बेहद प्यार करता था परंतु उसे अपनी संतान की लालसा होने लगी. वह शकीला से केवल एक बच्चे के लिए प्रार्थना करने लगा. न जाने क्यों शकीला मां बनने से बचना चाहती थी परंतु याकूब के इकरार ने उसे मां बनने पर मजबूर कर दिया. फिर साल भर बाद शकीला की कोख से एक सुंदर बेटी ने जन्म लिया. प्यार से उन्होंने उस का नाम जाहिरा रखा.

शकीला और याकूब अपनी जिंदगी से बेहद खुश थे. जाहिरा ने उन की खुशियों को और भी बढ़ा दिया था. जाहिरा जब 3 वर्ष की हुई तो याकूब के पिता नवाब साहब आए और उसे अपने साथ ले गए. जाहिरा को उन्होंने लखनऊ के प्रसिद्ध कानवेंट में भरती कर दिया. याकूब और शकीला दोनों ही इस व्यवस्था से प्रसन्न थे.

कार्यालय की ओर से शकीला को अमेरिका में अध्ययन के लिए भेजने का प्रस्ताव था. वह बहुत प्रसन्न हुई परंतु बारबार उसे यही चिंता सताती कि बानो के रहने की व्यवस्था क्या की जाए. उस ने याकूब केसामने इस समस्या को रखा. उस ने आश्वासन दिया कि वह बानो की चिंता न करे. वह उस का पूरा ध्यान रखेगा. इन शब्दों से आश्वस्त हो कर शकीला अमेरिका के लिए रवाना हो गई.

शकीला एक साल तक अमेरिका में रही और जब वापस दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतरी तो याकूब और बानो ने उस का स्वागत किया. कुछ दिन बाद शकीला ने महसूस किया कि याकूब कुछ बदलाबदला सा नजर आता है. वह अब पहले की तरह खुले दिल से बात नहीं करता था. उस के व्यवहार में उसे रूखापन नजर आने लगा. उधर बानो भी अब शकीला से आंख मिलाने में कतराने लगी थी. शकीला को काफी दिन तक इस का कोई भान नहीं हुआ परंतु इन हरकतों से वह कुछ असमंजस में पड़ गई. याकूब को अब छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था. अब वह शकीला के साथ बाहर पार्टियों में भी न जाने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेता. वह ज्यादा से ज्यादा समय तक बानो के साथ बातें करता.

एक दिन शकीला को कार्यालय में देर तक रुकना पड़ा. जब वह रात को अपने बंगले में पहुंची तो दरवाजा खुला था. वह बिना खटखटाए ही अंदर चली आई. वहां उस ने जो कुछ देखा तो एकदम सकपका गई. बानो का सिर याकूब की गोदी में और याकूब के होंठ बानो के होंठों से सटे हुए थे. शकीला को अचानक अपने सामने देख कर वे एकदम हड़बड़ा कर उठ गए. उन्हें तब ध्यान आया कि वे अपनी प्रेम क्रीड़ाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्हें दरवाजा बंद करना भी याद न रहा.

शकीला पर इस हादसे का बहुत बुरा असर पड़ा. वह एकदम गुमसुम और चुप रहने लगी. याकूब और बानो भी शकीला से बात नहीं करते थे. शकीला को बुखार रहने लगा. उस का स्वास्थ्य खराब होना शुरू हो गया. उधर याकूब और बानो खुल कर मिलने लगे. नौबत यहां तक पहुंची कि अब बानो ने शकीला के कमरे में सोना बंद कर दिया. वह अब याकूब के कमरे में सोने लगी. दफ्तर से याकूब और बानो अब देर से साथसाथ आते. कभीकभी इकट्ठे पार्टियों में जाते और रात को बहुत देर से लौटते. शकीला को उन्होंने बिलकुल अलगथलग कर दिया था. शकीला उन की रंगरेलियों को देखती और चुपचाप अंदर ही अंदर घुटती रहती. 1-2 बार उस ने बानो को टोका भी परंतु बानो ने उस की परवा नहीं की.

शकीला की सहनशक्ति खत्म होती जा रही थी. रहरह कर उस को अपनी मां की बातें याद आ रही थीं. उस ने कहा था, ‘बानो अब बड़ी हो गई है. वह उसे अपने पास न रखे. कहीं ऐसा न हो कि वह उस की सौत बन जाए. मर्द जात का कोई भरोसा नहीं. वह कब, कहां फिसल जाए, कोई नहीं कह सकता.’

इस बात पर शकीला ने अपनी मां को भी फटकार दिया था, पर वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी कि याकूब इस तरह की हरकत कर सकता है. वह तो उसे बेटी के समान समझता था. शकीला को बड़ा मानसिक कष्ट  था, पर समाज में अपनी इज्जत की खातिर वह चुप रहती और मन मसोस कर सब कुछ सहे जा रही थी.

बानो के विवाह के लिए कई रिश्तों के प्रस्ताव आए. शकीला की दिली इच्छा थी कि बानो के हाथ पीले कर दे परंतु जब भी लड़के वाले आते, याकूब कोई न कोई कमी निकाल देता और बानो उस प्रस्ताव को ठुकरा देती. आखिर शकीला ने एक दिन याकूब से साफसाफ पूछ लिया. यह उन की पहली टकराहट थी. तूतू मैंमैं हुई. याकूब को भी गुस्सा आ गया. गुस्से के आवेश में याकूब ने शकीला को बीते दिनों की याद दिलाते हुए कहा, ‘‘शकीला, मैं यह जानता था कि तुम ने पहले रिजवी से निकाह किया था. जब वह तुम्हारे नाजनखरे और खर्चे बरदाश्त नहीं कर सका तो वह बेचारा बदनामी के डर से कई साल तक इस गम को सहता रहा. तुम ने मुझे कभी यह नहीं बताया कि तुम्हारे एक लड़के को वह पालता रहा. आज वह लड़का जवान हो गया है. तुम ने उस के साथ जैसा क्रूर व्यवहार किया उस को वह बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ अरसे बाद सदा के लिए उस ने आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हें याद है जब मैं ने तुम्हें उस की मौत की खबर सुनाई थी तो तुम केवल मुसकरा दी थीं और कहा था कि यह अच्छा ही हुआ कि वह अपनी मौत खुद ही मर गया, नहीं तो शायद मुझे ही उसे मारना पड़ता.’’

शकीला की आंखों से आंसू बहने लगे. फिर वह तमतमा कर बोली, ‘‘यह झूठ है, बिलकुल झूठ है. उस ने मुझे कभी प्यार नहीं किया. वह निकाह मांबाप द्वारा किया गया एक बंधन मात्र था. वह हैवान था, इनसान नहीं, इसीलिए आज तक मैं ने किसी से इस का जिक्र तक नहीं किया. फिर इस की तुम्हें जरूरत भी क्या थी? तुम ने मुझ से, मेरे शरीर से प्यार किया था न कि मेरे अतीत से.’’

‘‘शकीला, जब से मैं ने तुम्हें देखा, तुम से प्यार किया और इसीलिए विवाह भी किया. तुम्हारे अतीत को जानते हुए भी मैं ने कभी उस की छाया अपने और तुम्हारे बीच नहीं आने दी. आज तुम मेरे ऊपर लांछन लगा रही हो पर यह कहां तक ठीक है? तुम एक दोस्त हो सकती हो परंतु बीवी बनने के बिलकुल काबिल नहीं. मैं तुम्हारे व्यवहार और तानों से तंग आ चुका हूं. तुम्हारे साथ एक पल भी गुजारना अब मेरे बस का नहीं.’’

याकूब और शकीला में यह चखचख हो ही रही थी कि बानो भी वहां आ गई. बानो को देखते ही शकीला बिफर गई और रोतेरोते बोली, ‘‘मुझे क्या मालूम था कि जिसे मैं ने बच्ची के समान पाला, आज वही मेरी सौत की जगह ले लेगी. मां ने ठीक ही कहा था कि मैं जिसे इतनी आजादी दे रही हूं वह कहीं मेरा घर ही न उजाड़ दे. आज वही सबकुछ हो रहा है. अब इस घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं.’’

बानो से चुप नहीं रहा गया. वह भी बोल पड़ी, ‘‘आपा, मैं तुम्हारी इज्जत करती हूं. तुम ने मुझे पालापोसा है पर अब मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. छोटी बहन होने के नाते मैं तुम्हारे भूत और वर्तमान से अच्छी तरह वाकिफ हूं. तुम्हारे पास समय ही कहां है कि तुम याकूब की जिंदगी को खुशियों से भर सको. तुम ने तो कभी अपनी कोख से जन्मी बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं दिया. आराम और ऐयाशी की जिंदगी हर एक गुजारना चाहता है परंतु तुम्हारी तरह खुदगर्जी की जिंदगी नहीं. याकूब परेशान और बीमार रहते हैं. उन्हें मेरे सहारे की जरूरत है.’’

बानो के इस उत्तर को सुन कर शकीला सकपका गई. अब तक वह याकूब को ही दोषी समझती थी परंतु आज तो उस की बेटी समान छोटी बहन भी बेशर्मी से जबान चला रही थी. अगले दिन ही उस ने उन के जीवन से निकल जाने का निर्णय कर लिया.

शकीला जब अगले दिन अपने कार्यालय में पहुंची तो उस की मेज पर एक कार्ड पड़ा था. लिखा  था, ‘शकीला, हम साथ नहीं रह सकते.

उसे किस ने मारा: क्या हुआ था आकाश के साथ

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दाग का सच : क्या था ललिया के कपड़ों में दाग का सच

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’ ‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली. पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है. चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे. माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’ ‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’ ‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई. खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’ ‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया. ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा. ‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा. ‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 7 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी. ‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा. ‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था. ‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के. सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया. जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’ ‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं. ‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी. ‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’ मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था. सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली. ‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा. ‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया. रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा. ‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’ रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा. ‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली. सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला. ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ. एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’ सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था. ‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा. इस के बाद सुनील ने जो कुछ देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’ ‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे. सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’ सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’ ‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

विश्वासघात: जूही ने कैसे छीना नीता का पति

नीला आसमान अचानक ही स्याह हो चला था. बारिश की छोटीछोटी बूंदें अंबर से टपकने लगी थीं. तूफान जोरों पर था. दरवाजों के टकराने की आवाज सुन कर जूही बाहर आई. अंधेरा देख कर अतीत की स्मृतियां ताजा हो गईं…

कुछ ऐसा ही तूफानी मंजर था आज से 1 साल पहले का. उस दिन उस ने जीन्स पर टौप पहना था. अपने रेशमी केशों की पोनीटेल बनाई थी. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस ने आंखों पर सनग्लासेज चढ़ाए और ड्राइविंग सीट पर बैठ गई.

कुछ ही देर में वह बैंक में थी. मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ते हुए उसे कुछ संशय सा था कि उस का लोन स्वीकृत होगा भी या नहीं, पर मैनेजर की मधुर मुसकान ने उस के संदेह को विराम दे दिया. उस का लोन स्वीकृत हो गया था और अब वह अपना बुटीक खोल सकती थी. आननफानन उस ने मिठाई मंगवा कर बैंक स्टाफ को खिलाई और प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आई.

शुरू से ही वह काफी महत्त्वाकांक्षी रही थी. फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करते ही उस ने लोन के लिए आवेदन कर दिया था. पड़ोस के कसबे में रहने वाली जूही इस शहर में किराए पर अकेली रहती थी और अपना कैरियर गारमैंट्स के व्यापार से शुरू करना चाहती थी.

अगले दिन उस ने सोचा कि मैनेजर को धन्यवाद दे आए. आखिर उसी की सक्रियता से लोन इतनी जल्दी मिलना संभव हुआ था. मैनेजर बेहद स्मार्ट, हंसमुख और प्रतिभावान था. जूही उस से बेहद प्रभावित हुई और उस की मंगाई कौफी के लिए मना नहीं कर पाई. बातोंबातों में उसे पता चला कि वह शहर में नया आया है. उस का नाम नीरज है और शहर से दूर बने अपार्टमैंट्स में उस का निवास है.

धीरेधीरे मुलाकातें बढ़ीं तो जूही ने पाया कि दोनों की रुचियां काफी मिलती है. दोनों को एकदूसरे का साथ काफी अच्छा लगने लगा. लगातार मुलाकातों में जूही कब नीरज से प्यार कर बैठी, पता ही न चला. नीरज भी जूही की सुंदरता का कायल था.

बिजली तो उस दिन गिरी जब बुटीक की ओपनिंग सेरेमनी पर नीरज ने अपनी पत्नी नीता से जूही को मिलवाया. नीरज के विवाहित होने का जूही को इतना दुख नहीं हुआ, जितना नीता को उस की पत्नी के रूप में पा कर. नीता जूही की सहपाठी रही थी और हर बात में जूही से उन्नीस थी. उस के अनुसार नीता जैसी साधारण स्त्री नीरज जैसे पति को डिजर्व ही नहीं करती थी.

सहेली पर विजय की भावना जूही को नीरज की तरफ खींचती गई और नीता से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के चक्कर में जूही का नीरज से मिलनाजुलना बढ़ता गया. नीता खुश थी. अकेले शहर में जूही का साथ उसे बहुत अच्छा लगता था. वह हमेशा उस से कुछ सीखने की कोशिश करती, पर इन लगातार मुलाकातों से जूही और नीरज को कई बार एकांत मिलने लगा.

दोनों बहक गए और अब एकदूसरे के साथ रहने के बहाने खोजने लगे. नीता को अपनी सहेली पर रंच मात्र भी शक न था और नीरज पर तो वह आंख मूंद कर विश्वास करती थी. विश्वास का प्याला तो उस दिन छलका, जब पिताजी की बीमारी के चलते नीता को महीने भर के लिए पीहर जाना पड़ा.

सरप्राइज देने की सोच में जब वह अचानक घर आई, तो उस ने नीरज और जूही को आपत्तिजनक हालत में पाया. इस सदमे से आहत नीता बिना कुछ बोले नीरज को छोड़ कर चली गई.

जूही अब नीरज के साथ आ कर रहने लगी. कहते हैं न कि प्यार अंधा होता है, पर जब ‘एवरीथिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार’ का इरादा हो तो शायद वह विवेकरहित भी हो जाता है.

समय अपनी गति से चलता रहा. जूही और नीरज मानो एकदूसरे के लिए ही बने थे. जीवन मस्ती में कट रहा था. कुछ समय बाद जूही को सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी खलने लगी.

आंगन में नन्ही किलकारी खेले, वह चाहती थी, पर नीरज इस के लिए तैयार नहीं था. उस का कहना था कि ‘लिव इन रिलेशन’ की कानूनी मान्यता विवादास्पद है, इसलिए वह बच्चे का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहता. जूही इस तर्क के आगे निरुत्तर थी.

जूही का बुटीक अच्छा चल रहा था. नाम व  कमाई दोनों ही थे. एक दिन अचानक ही एक आमंत्रणपत्र देख कर वह सकते में आ गई. पत्र नीरज की पर्सनल फाइल में था. आमंत्रणपत्र महक रहा था. वह था तो किसी पार्लर के उद्घाटन का, पर शब्दावली शायराना व व्यक्तिगत सी थी. मुख्य अतिथि नीरज ही थे.

जूही ने नीरज को मोबाइल लगाना चाहा पर वह लगातार ‘आउट औफ रीच’ आता रहा. दिन भर जूही का मन काम में नहीं लगा. बुटीक छोड़ कर वह जा नहीं सकती थी. रात को नीरज के आते ही उस ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

कुछ देर तो नीरज बात संभालने की कोशिश करता रहा पर तर्कविहीन उत्तरों से जब जूही संतुष्ट नहीं हुई, तो दोनों का झगड़ा हो गया. नीरज पुन: किसी अन्य स्त्री की ओर आकृष्ट था. संभवत: पत्नी के रहते जूही के साथ संबंध बनाने ने उसे इतनी हिम्मत दे दी थी.

मौजूदा दौर में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ने उस के वजूद को बल दिया है. इतना कि कई बार वह समाज के विरुद्ध जा कर अपनी पसंद के कार्य करने लगती है. नीरज जैसे पुरुष इसी बात का फायदा उठाते हैं.

उन्होंने पढ़ीलिखी, बराबर कमाने वाली स्त्री को अपने समान नहीं माना, बल्कि उपभोग की वस्तु समझ कर उस का उपयोग किया. अपने स्वार्थ के लिए जब चाहा उन्हें समान दरजा दे दिया और जब चाहा तब सामाजिक रूढि़यों के बंधन तोड़ दिए. विवाह उन के लिए सुविधा का खेल हो गया.

इस आकस्मिक घटनाक्रम के लिए जूही तैयार नहीं थी. उस ने तो नीरज को संपूर्ण रूप से चाहा व अपनाया था. नीरज को अपनी नई महिला मित्र ताजा हवा के झोंके जैसी दिख रही थी. उस के तन व मन दोनों ही बदलाव के लिए आतुर थे.

जूही को अपनी भलाई व स्वाभिमान नीरज का घर छोड़ने में ही लगे. कुछ महीनों का मधुमास इतनी जल्दी व इतनी बेकद्री से खत्म हो जाएगा, उस ने सोचा न था. नीरज ने उस को रोकने का थोड़ा सा भी प्रयास नहीं किया.

शायद जूही ने इस कटु सत्य को जान लिया था कि पुरुष के लिए स्त्री कभी हमकदम नहीं बनती. वह या तो उसे देवी बना कर उसे नैसर्गिक अधिकारों से दूर कर देता है या दासी बना कर उस के अधिकारों को छीन लेता है. उसे पुरुषों से चिढ़ सी हो गई थी.

नीरज के बारे में फिर कभी जानने की उस ने कोशिश नहीं की, न ही नीरज ने उस से संपर्क साधा.

आज बादलों के इस झुरमुट में पिछली यादों के जख्मों को सहलाते हुए वह यही सोच रही थी कि विश्वासघात किस ने किस के साथ किया था?

 

लकीर मत पीटो: क्या बहु बेटी बन पाई

मेरी जांच करने आए डाक्टर अमन ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘अनु, बेहोश हो जाने से पहले तुम ने जो भी महसूस किया था, उसे अपने शब्दों में मुझए बताओ.’’

डाक्टर अमन के अलावा मेरे पलंग के इर्दगिर्द मेरे सासससुर, ननद नेहा और मेरे पति नीरज खड़े थे. इन सभी के चेहरों पर जबरदस्त टैंशन के भाव पढ़ कर मेरे लिए गंभीरता का मुखौटा ओढ़े रखना आसान हो गया.

‘‘सर, मम्मीजी मुझे किचन में कुछ समझ रही थीं. बस, अचानक मेरा मन घबराने लगा. मैं ने खुद को संभालने की बहुत कोशिश करी पर तबीयत खराब होती चली गई. फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाया. इस के बाद मुझे अपने और हाथ में पकड़ी ट्रे के गिरने तक की बात ही याद है,’’ मरियल सी आवाज में मैं ने डाक्टर को जानकारी दी.

‘‘तुम ने सुबह से कुछ खाया था?’’

‘‘जी, नाश्ता किया था.’’

‘‘पहले कभी इस तरह से चक्कर आया है.’’

‘‘जी, नहीं.’’

उन्होंने कई सवाल पूछे पर मेरे चक्कर खा कर गिरने का कोई उचित कारण नहीं समझ सके. मेरे ससुर से बस उन्हें यह काम की बात जरूर पता चली कि मेरी सास उस वक्त मुझे कुछ समझने  के बजाय बहुत जोर से डांट रही थीं.

‘‘इसे गरम दूध पिलाइए. कुछ देर आराम करने से इस की तबीयत बेहतर हो जाएगी. ब्लड प्रैशर कुछ बढ़ा हुआ है. अब ऐसी कोई बात न करें जिस से इस का मन दुखी या परेशान हो,’’  ऐसी हिदायते दे कर डाक्टर साहब चले गए.

उन्हें बाहर तक छोड़ कर आने के बाद मेरे ससुरजी कमरे मे लौटे और मेरी सास से नाराजगीभरे अंदाज में बोले, ‘‘बहू के साथ डांटडपट जरा कम किया करो. उस के पीछे पड़ना नहीं छोड़ोगी तो यह बिस्तर से लग जाएगी. कुछ ऊंचनीच हो गई तो देख लेना सब कहीं के नहीं रहेगे.’’

‘‘इन से फालतू बात करने की जरूरत नहीं है, जी. घर में गलत काम होते देख कर मैं तो चुप नहीं रह सकती हूं और मैं ने ऐसा कुछ कहा भी नहीं था इसे जो यह गश खा कर गिर पड़े. इसे किसी दूसरे डाक्टर को दिखाओ,’’ मेरी सास ससुर पर गुर्रा पड़ीं.

ससुरजी के कमरे से जाने के बाद नीरज मेरा सिर दबाने लगे. साथ ही साथ मुझे टैंशन न लेने के लिए समझते भी जा रहे थे.

मन ही मन उन के हाथों के स्पर्श का आनंद लेती हुई मैं कुछ देर पहले घटी घटना के बारे में सोचने लगी…

मुझे इस घर में बहू बन कर आए हुए अभी दूसरा महीना भी पूरा नहीं हुआ है. शादी से पहले ही मुझे बहुत से लोगों ने बता दिया था कि मेरी सास स्वभाव की बहुत तेज हैं. तभी मेरी जेठानी उन से तंग आ कर अपनी शादी के 6 महीने बाद ही घर से अलग हो कर किराए के मकान में रहने चली गई थी.

मैं ने सोच लिया था कि सासससुर को छोड़ कर नहीं जाऊंगी क्योंकि हम दोनोें के प्रेमविवाह में बहुत सी अड़चनें आई थीं. पंडितों ने मेरी कुंडली में हजार दोष निकाल दिए थे और मातापिता फालतू में पैसे दे कर दोष निवारण करते रहे थे.

मेरी सास ने तो एक ही वाक्य बोला था, ‘‘नीरज को पसंद है तो और क्या देखना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

तब तो मुझे बाकी में संभाल लूंगी का मतलब समझ नहीं आया था पर अब समझ आने लगा था.

मेरी सास ने पहले दिन से ही मुझ पर अपना रोब जमाने का अभियान छेड़ दिया था. मेरे पहननेओढ़ने, उठनेबैठने और हंसनेबोलने के ढंग में उन्हें कोई न कोई कमी जरूर नजर आ जाती थी.

उन की अब तक की टोकाटाकी को मैं किसी तरह बरदाश्त करती रही पर आज तो अति हो गई.

‘‘इस की मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया. हमारे पल्ले कैसी फूहड़ बहू पड़ी है. इस की सुंदर शक्लसूरत को अब क्या हम चाटें. यह नीरज भी न जाने कैसे इसे पसंद कर बैठा,’’ मेरी सास मुझे और मेरे मायके वालों को लगातार बेइज्जत किए जा रही थीं और नीरज को भी कोसती जा रही थीं.

मेरी गलती बहुत बड़ी नहीं थी. आलूगोभी की सब्जी आंच पर रख कर मैं नहाने चली गई थी. मुझे ध्यान नहीं रहा और नहा कर आने के बाद में मोबाइल पर लग गई. तब तब सब्जी जल गई.

सासूजी ने वौक से लौटते ही मौके का फायदा उठाया और मुझे व मेरे मातापिता को जम कर कहना शुरू कर दिया.

मैं डाइनिंगटेबल से टे्र में कपप्लेट रख कर ला रही थी जब मेरे सब्र का बांध टूटा तो मारे गुस्से से मेरे हाथपैर कांपने लगे. क्रोध से उबलता खून हाथ में पकड़ी ट्रे को दीवार पर दे मारने के लिए मेरे मन को उकसा रहा था.

अपने गुस्से को काबू में रखने के लिए मुझे पूरी ताकत लगानी पड़ रही थी. मेरे अंदर चल रहे तूफान से अनजान सासूजी लगातार बोले जा रही थीं.

मैं ने अपनी नजरों को फर्श पर गड़ा लिया. अगर मैं उन की तरफ देखने लगती तो फिर कुछ भी अनहोनी घट सकती थी.

यह मेरी मजबूरी थी कि मैं अपनी सास को उलट कर जवाब नहीं दे सकती थी. उन के कड़वे, तीखे शब्द सुनते हुए अचानक मेरा सिर बुरी तरह से भन्नाया और मैं ने ट्रे जानबूझ कर हाथों से छोड़ दी.

कपप्लेट टूटने की आवाज ने मेरे मन में उठ रहे हिंसा के तूफान को कुछ कम किया. अगर मैं ऐसा न करती तो मुझे लग रहा था कि तेज गुस्से को दबाने के चक्कर में मेरे दिमाग की कोई नस जरूर फट जाएगी.

‘‘क्या हुआ. क्या हुआ?’’ ऐसा शोर मचाते मेरे ससुर, नेहा और नीरज भागते हुए रसोई में पहुंच गए.

मेरी सास की समझ में कुछ नहीं आया. वे हक्कीबक्की सी मेरी तरफ देख रही थीं. टूटे कपप्लेट देख कर मुझे भी अब घबराहट हो रही थी. इस कठिन समय में कालेज के दिनों में एक नाटक में किया अभिनय मेरे काम आया.

उस नाटक के एक दृश्य में मुझे बेहोश होने का अभिनय करना था. मैं ने उसी सीन को याद किया और आंखें मूंदने के बाद फर्श पर गिर पड़ी. सासूजी के जहरीले शब्दों की मार से बचने का मुझे उस वक्त यही रास्ता सूझ था.

मेरे घर वालों, रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच मेरी छवि ऐसी तेजतर्रार लड़की की है जो गलत और अन्यायपूर्ण बात को बिलकुल बरदाश्त नहीं करती. मुझे नाजायज दबाने की कोशिश इन सब को बड़ी महंगी पड़ती थी. फिर मैं अपनी सास के अन्याय को चुपचाप सहने को क्यों मजबूर हूं, इस के पीछे भी एक कहानी है.

गुस्से में किसी से भी भिड़ जाने की मेरी आदत से परेशान मेरी मां मुझे हमेशा समझती थीं, ‘‘अनु, दफ्तर में जा कर शांत रहियो. तेरी नई बौस खड़ूस है. तेरी सहेली ही कह रही थी. तू उस से बिलकुल मत उलझना. वह कुछ भी कहे पर तू पलट कर जवाब देना ही मत.’’

जब शादी की बात हुई और मैं नीरज को बुला कर लाई तो मां ने कदम हां कर दी और फिर सब हमारे घर आए थे. वहीं मां को पता चला कि नीरज के मांबाप पहले उसी बिल्डिंग में रहते थे जहां मेरी मौसी रहती हैं. मां ने मौसी से पता किया तो पता चला कि नीरज की मां जरूर थोड़ी तेजतर्रार हैं पर न उन्हें रीतिरिवाजों के ढकोसलों से मतलब है, न दहेज से.

मां ने कहां भी था, ‘‘तेरी सास भी तेरी बौस की तरह गुस्से वाली है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां क्या मेरी बौस से कोई लड़ाई हुई है? यहां भी संभाल लूंगी.

‘‘मां, तुम मेरी इतनी फिक्र मत करो. मैं सब संभाल लूंगी. अगर मेरी सास सेर हैं तो मैं सवा सेर हूं. नाजायज दबाया जाना मैं न यहां बरदाश्त करती हूं, न वहां करूंगी,’’ मैं निडर, लापरवाह अंदाज में ऐसा जवाब देती तो मां की आंखों में गहरी चिंता के भाव उभर आते.

मगर मेरी शादी से महीनाभर पहले उन्हें दिल के हलके से दौरे का शिकार बना दिया. इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए मां ने आईसीयू में पलंग पर लेटे हुए मुझ से एक बचन ले लिया था, ‘‘अनु, तेरी मुझे बहुत चिंता है. मैं चाहती हूं कि शादी के बाद तू अपनी ससुराल मेें बहुत सुखी रहे. बेटी, मेरे मन की शांति के लिए मुझे बचन दे कि तू अपनी सास को कभी पलट कर जवाब नहीं देगी. उन के सामने कभी अपनी आवाज ऊंची नहीं करेगी.’’

मां के स्वास्थ्य को ले कर उस वक्त मैं बहुत भावुक हो रही थी. बिना सोचेसमझे मैं ने मां को अपनी भावी सास के साथ कभी सीधे न टकराने का वचन दे दिया.

इंसान गलत बात का विरोध न कर सके तो ज्यादा परेशान रहता है. सासूजी की सहीगलत डांटफटकार को मां को दिए बचन के कारण मजबूरन खामोश रह कर सहना मुझे भी बहुत परेशान और दुखी कर रहा था.

यह बात गलत है कि चुप रहने से टेढ़ी सास का उस के साथ दुर्व्यवहार कम हो जाता है पर मेरी खामोशी ने मेरी सास को मुझे और मेरे मातापिता का अपमान करने की खुली छूट दे दी.

आज की घटना हम सब के लिए नई थी. मैं मानसिक तनाव के कारण बेहोश हो गई, इस गलत सोच के चलते सारा दिन सब ने मेरा बहुत ध्यान रखा. सासूजी ने मुझ पूरा दिन पलंग से उतरने नहीं दिया. ससुरजी मेरी कमजोरी दूर करने के लिए बाजार से 2 डब्बे जूस ले कर आए. नीरज लगातार मेरे पास बैठे मुझे प्यार से निहारते रहे थे.

कोई इंसान आसानी से अपना मूलभूत स्वभाव बदल नहीं सकता है. कोई 3-4 दिन सब ठीकठाक चला पर फिर मेरी सास ने अपने पुराने रंग में लौटना शुरू कर दिया.

कुछ दिन तक उन्होंने हिचकिचाते से अंदाज में मेरे साथ पुराने अंदाज में टोकाटाकी शुरू कर दी. जब उन्होंने देखा कि मैं सहीसलामत हूं तो उन्होंने गियर बदला और मेरे साथ उन का व्यवहार फिर पहले जैसा खराब और गलत होने लगा.

मुझे खासकर तब बहुत गुस्सा आता जब वे मौका मिलते ही मेरी पुरानी गलतियों का रोना शुरू कर देतीं. पता नहीं मुझे बातबेबात शर्मिंदा और बेइज्जत करने में उन्हें क्या मजा आता था.

मां को दिए वचन ने एक तरफ मेरा मुंह सिला हुआ था और दूसरी तरफ सासूजी के जहरीले शब्दों ने मेरी सुखशांति नष्ट कर रखी थी. तब बहुत तंग हो कर मैं ने एक रात अपनेआप से कहा कि अनु, ऐसे काम नहीं चलेगा. चींटी को दबाओ तो वह भी काट लेती है. तूने अपना बचाव नहीं किया तो पागल हो जाएगी.

अगले दिन ड्राइंगरूम और रसोई की साफसफाई को ले कर सासूजी ने मुझे शाम को डांटना शुरू किया. कुछ देर तक मैं चुपचाप सब सुनती रही, फिर चाय की ट्रे पकड़े हुए मैं ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया और अचानक झटके से रुक पत्थर की मूर्ति की तरह अपनी जगह खड़ी की खड़ी रह गई.

मेरी नजरें फर्श की तरफ झुकी थीं पूरे बदन में हलका सा कंपन होता दिख रहा था. इस कारण ट्रे में रखे कपप्लेट आपस में टकरा कर आवाज करने लगे.

उस वक्त वहां घर के सारे सदस्य मौजूद थे. मेरी अजीब सी मुद्रा देख कर उन सभी को मेरे अचानक बेहोश हो जाने वाली घटना जरूर याद आ गई होगी. तभी नेहा ने भाग कर मेरे हाथ से ट्रे ले ली और ससुरजी ने जोर से डांट कर मेरी सास को चुप करा दिया.

नीरज ने मुझे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. मैं सिर ?ाकाए गुमसुम सी बैठी रही.

‘‘कैसा महसूस कर रही हो?’’ मेरी सास को छोड़ कर हर व्यक्ति मुझ से बारबार यही सवाल पूछे जा रहा था.

मेरे ससुरजी ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रख कर पूछा, ‘‘बहू चक्कर तो नहीं आ रहा है? क्या डाक्टर को बुलाएं?’’

मैं ने इनकार में सिर हिलाया और बड़े दुखी और अफसोस भरे लहजे में बोली, ‘‘पापा, मैं मम्मी को बहुत दुख देती हूं. मैं बहुत फूहड़ हूं. मुझे कुछ नहीं आता है.’’

‘‘नहींनहीं, तुम बिलकुल फूहड़ नहीं हो. अरे, धीरेधीरे तुम सब सीख जाओगी. अपने मन में किसी तरह की टैंशन मत रखो,’’ ससुरजी ने मुझे कोमल स्वर में सम?ाया.

मैं ने सासूजी की तरफ देखते हुए भावुक अंदाज में डायलौग बोलने चालू रखे, ‘‘मैं आप से

सबकुछ सीखना चाहती हूं मम्मीजी, पर मैं जब गलत काम कर रही होती हूं, जब मेरा काम आप को अधूरा लगता है, तब उसी वक्त आप मेरा मार्गदर्शन क्यों नहीं करती हैं?

‘‘सांप के निकल जाने के बाद आप जब लकीर पीटते हुए मुझ पर गुस्सा होती हैं तो मुझ बहुत दुख और अफसोस होता है. अपनेआप से नफरत सी होने लगती है.

‘‘फिर मुझ अपना सिर घूमता लगता है. जोर से चक्कर आने शुरू हो जाते हैं. आप मुझे तब कितना भी डांट लो जब मैं काम गलत ढंग से कर रही होती हूं पर बाद में डांट खाना…’’ रोआंसी सी हो कर मैं झटके से चुप हो गई. फिर मैं ने अपने हाथ फैलाए तो मेरी सासूजी को आगे बढ़ कर मुझे अपने बदन से लिपटाना पड़ा.

‘‘बहू बिलकुल ठीक कह रही है,’’ मेरे ससुरजी एकदम जोश से भर उठे, ‘‘सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटना बेवकूफी है. आगे से इस घर में कोईर् भी अगर किसी को कुछ समझाए या डांटे तो यह काम उसी वक्त हो जब काम चल रहा हो. बाद में गड़े मुरदे उखाड़ते हुए घर का माहौल खराब करने की किसी को कोई जरूरत नहीं है.’’

ससूरजी के विरोध में आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. मेरी आंखों में नजर आ रहे आंसुओं को देख कर मेरी सास का मन भी पसीजा और वे मुझे देर तक प्यार करती रहीं.

‘सांप के निकल जाने के बाद लकीर मत पीटो’ उस दिन के बाद से घर के अंदर यह वाक्य बहुत ज्यादा बोला जाने लगा.

कोई भी पुरानी बात उठा कर किसी से उलझने की कोशिश करता तो उसे फौरन यही वाक्य सुना कर चुप करा दिया जाता. मुझे इन शब्दों को बोलने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मेरा तो पत्थर की मूर्ति वाली मुद्रा बना लेना ही काफी रहता और मेरी सास फौरन नारजगी भरे अंदाज में खामोश हो जाती थीं.

एक शाम उन्होंने मुझे सुबह देर से उठ कर आने के लिए डांटना चालू ही रखा तो उन्हें ससुरजी से जोरदार डांट पड़ गई.

‘‘मेरी इस घर में जो कोई इज्जत नहीं रह गई है उस के लिए सिर्फ आप जिम्मेदार हो,’’ सासूजी ने अपने पति से नाराजगी जाहिर करते हुए अचानक रोना शुरू कर दिया, ‘‘जिंदगीभर मुझ से यह इंसान कभी ढंग से नहीं बोला. कभी मुझे प्यार नहीं दिया.’’

‘‘यह शिकायत तब करना जब प्यार लेनेदेने का मौका सामने हो. मैं ने तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर न कर दिए तो कहना. अरे, सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने की यह आदत तू न जाने कब छोड़ेगी.’’

ससुरजी के इस मजाक पर जब हम सब ठहाका मार कर हंसे तो मैं ने अपनी सासूजी का चेहरा पहली बार लाजशर्म से गुलाबी होते देखा.

‘‘बहू आ गई है घर में पर इन से ये घटिया मजाक नहीं छूटे,’’ सासूजी ने बुरा सा मुंह बनाया और फिर मेरे पीछे मुंह छिपा कर खूब हंसीं.

उस दिन के बाद से मेरी सास मेरी सहेली भी बन गई हैं. इस में कोई शक नहीं कि लकीर न पीटने के फौर्मूले ने हम सब के आपसी रिश्तों को मधुर बना कर घर के अंदर सुखशांति और हंसीखुशी को बढ़ा दिया है.

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