Interesting Hindi Stories : बेस्ट बहू औफ द हाउस

Interesting Hindi Stories : अमन ने श्रद्धा को सब से पहले एक बसस्टौप पर देखा था. सिंपल मगर आकर्षक गुलाबी रंग के टौप और डैनिम में दोस्तों साथ खड़ी थी. दूसरों से बहुत अलग दिख रही थी. उस के चेहरे पर शालीनता थी. खूबसूरत इतनी कि नजरें न हटें. अमन एकटक उसे देखता रहा जब तक कि वह बस में चढ़ नहीं गई. अगले दिन जानबूझ कर अमन उसी समय बसस्टौप के पास कार खड़ी कर रुक गया. उस की नजरें श्रद्धा को तलाश रही थीं. थोड़ी दूर पर उसे श्रद्धा नजर आ गई. आज उस ने स्काई ब्लू रंग की ड्रैस पहनी थी, जिस में वह बहुत जंच रही थी.

ऐसा दोतीन दिनों तक लगातार होता रहा. अमन समय पर उसी बसस्टौप पर पहुंचता. एक दिन बस आई और जब श्रद्धा उस में चढ़ने लगी तो अचानक अमन  ने भी अपनी कार पार्क की और तेजी से बस में चढ़ गया. श्रद्धा बाराखंबा मैट्रो स्टेशन की बगल वाले बसस्टैंड पर उतरी और वहां से वाक करते हुए सूर्यकिरण बिल्डिंग में घुस गई. पीछेपीछे अमन भी उसी बिल्डिंग में घुसा. वह लड़की सीढ़ियां चढ़ती हुई तीसरेफ्लोर पर जा कर रुकी. वहां एक एडवरटाइजिंग कंपनी का बड़ा सा औफिस था. लड़की उस औफिस में दाखिल हो गई.

अमन कुछ देर बाहर टहलता रहा. फिर उस ने बाहर खड़े गार्ड से पूछा, “भैया, अभी जो मैडम अंदर गई हैं, वे यहां की मैनेजर हैं क्या?””जी, वे यहां डिजिटल मार्केटिंग मैनेजर और कौपी एडिटर हैं. आप को क्या काम है? क्या आप श्रद्धा मैडम से मिलना चाहते हैं?”

“जी हां, मैं मिलना चाहता हूं,” अमन ने कहा.”ठीक है. मैं उन्हें खबर दे कर आता हूं,”  कह कर गार्ड अंदर चला गया और कुछ ही देर में निकल आया.

उस ने अमन को अंदर जाने का इशारा किया. अमन अंदर पहुंचा तो चपरासी उसे श्रद्धा के केबिन तक ले गया. केबिन बहुत आकर्षक था. सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं. एक कोने में छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे भी थे. अमन को बैठने का इशारा करते हुए श्रद्धा उस की तरफ मुखातिब हुई. अमन उसे देखता रह गया. दिल का प्यार आंखों में उभर आया. श्रद्धा अमन से पहली बार मिल रही थी.

उस ने सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा, “जी हां, बताइए मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?” “ऐक्चुअली मेरी एक कंपनी है. हम स्नैक्स आइटम्स बनाते हैं. मैं आप से अपने प्रोडक्ट्स की ब्रैंडिंग और ऐड कैंपेन के सिलसिले में बात करना चाहता था. आप कौपी एडिटर भी हैं, सो, आप से  ऐड भी लिखवाना था.”

“मगर मैं ही क्यों?” श्रद्धा ने कहा, तो अमन को कोई जवाब नहीं सूझा.फिर कुछ सोचता हुआ बोला, “दरअसल, मेरे एक दोस्त ने आप का नाम रेफर किया था. इस कंपनी के बारे में भी बताया था. काफी तारीफ़ की थी.”

“चलिए ठीक है. हम इस सिलसिले में विस्तार से बात करेंगे. अपने कुछ सहयोगियों के साथ मैं आप के मैनेजर की एक मीटिंग फिक्स कर देती हूं. आप या आप के मैनेजर मीटिंग अटेंड कर सकते हैं.”जी, मीटिंग में मैनेजर नहीं, बल्कि मैं खुद ही आना चाहता हूं. मैं इस तरह के कामों को खुद ही हैंडल करता हूं. मैं तो चाहूंगा कि आप भी उस मीटिंग में जरूर रहें, प्लीज.”

“ग्रेट. तो ठीक है. अगले मंडे हम मीटिंग कर लेते हैं.”अमन ने खुश हो कर हामी में सिर हिलाया और वापस लौट आया. मगर अपना दिल श्रद्धा के पास ही छोड़ आया. उस की आंखों के आगे श्रद्धा का ही शालीन और खूबसूरत चेहरा घूमता रहा. वह बेसब्री से अगले मंडे का इंतजार करने लगा.

अगले मंडे समय से पहले ही वह मीटिंग के लिए पहुंच गया. श्रद्धा को देख कर उस के चेहरे पर मीठी मुसकान खिल गई थी. श्रद्धा के साथ 2 और लोग थे. ऐड कैंपेन के बारे में डिटेल में बातें हुईं. मीटिंग के बाद श्रद्धा के दोनों सहयोगी चले गए. अमन अभी श्रद्धा के पास ही बैठा रहा. कोई न कोई बात निकालता रहा.

2 दिनों बाद वह फिर काम की प्रोग्रैस के बारे में जानने के बहाने श्रद्धा के पास पहुंच गया. अब तक अमन के व्यवहार और बातचीत के लहजे से श्रद्धा को महसूस होने लगा था कि अमन के मन में क्या चल रहा है. अमन के लिए भी अपनी फीलिंग अब और अधिक छिपाना कठिन हो रहा था.

अगली दफा वह श्रद्धा के पास एक कार्ड ले कर पहुंचा. कार्ड देते हुए अमन ने हौले से कहा, “इस कार्ड में लिखी एकएक बात मेरे दिल की आवाज है. प्लीज, एक बार पूरा पढ़ लो, फिर जवाब देना.”

श्रद्धा ने कार्ड खोला और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, “मैं लव ऐट फर्स्ट साइट पर विश्वास नहीं करता था. मगर बसस्टैंड पर तुम्हें पहली नजर देखते ही दिल दे बैठा हूं. तुम्हारे लिए जो महसूस कर रहा हूं वह आज तक जिंदगी में किसी के लिए भी महसूस नहीं किया. रियली, आई लव यू. क्या तुम्हें हमेशा के लिए मेरा बनना स्वीकार होगा?”

श्रद्धा ने पलकें उठाईं और अमन की तरफ मुसकरा कर देखती हुई बोली, “बसस्टैंड से मेरे औफिस तक का आप का सफर कमाल का रहा. मुझे भी इतने प्यार से कभी किसी ने अपना बनने की इल्तिजा नहीं की. मैं आप का प्रपोजल स्वीकार करती हूं,” कहते हुए श्रद्धा की आंखें शर्म से झुक गईं और अमन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

अमन ने अपने घर में श्रद्धा के बारे में बताया, तो सब दंग रह गए कि अमन जैसा शर्मीला लड़का लव मैरिज की बात कर रहा है. यानी, लड़की में कुछ तो खास बात जरूर होगी. अमन के घर में मांबाप के अलावा 2 बड़े भाई, भाभियां और एक बहन तुषिता थे. भाइयों के 2 छोटेछोटे बच्चे भी थे. उन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईसों में होती थी. जबकि, श्रद्धा एक गरीब परिवार की लड़की थी. उस ने अपनी काबिलीयत और लगन के बल पर ऊंची पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे तक पहुंची. उस के अंदर स्वाभिमान कूटकूट कर भरा था. वह मेहनती होने के साथ ही जिंदगी बहुत व्यवस्थित ढंग से जीना पसंद करती थी

जल्द ही दोनों के परिवार वालों की रजामंदी मिल गई और अमन ने श्रद्धा से शादी कर ली.शादी के बाद पहले दिन जब वह किचन की तरफ बढ़ी तो सास ने उस से कहा, “बेटा, रिवाज है कि नई बहू कुछ मीठा बनाती है. जा तू हलवा बना ले. उस के बाद तुझे किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बहुत सारे कुक हैं हमारे पास.”

इस पर श्रद्धा ने बड़े प्रेम व आदर के साथ सास की बात का विरोध करते हुए कहा था, “मम्मी जी, मैं कुक के बनाए तरहतरह के व्यंजनों के बजाय अपना बनाया हुआ साधारण मगर हैल्दी खाना पसंद करती हूं. प्लीज, मुझ से किचन में काम करने का मेरा अधिकार मत छीनिएगा.’

उस की बात सुन कर सास को कुछ अटपटा सा लगा और भाभियों ने भी भवें चढ़ा लीं. छोटी भाभी ने व्यंग्य से कहा, “श्रद्धा, यह तुम्हारा छोटा सा घर नहीं है जहां खुद ही खाना बनाना पड़े. हमारे यहां बहुत सारे नौकरचाकर और रसोइए दिनरात काम में लगे रहते हैं.”

श्रद्धा मुसकरा कर किचन में चली गई. उस ने अपने हाथों से पूरा खाना तैयार किया. हलवा भी बनाया. जब श्रद्धा ने खाना परोसा, तो खाना खा कर सब उंगलियां चाटते रह गए. सबों को खाना बहुत पसंद आया. अमन तो उस के खाने की तारीफ करते नहीं थक रहा था. सासससुर ने खुश हो कर उसे नेग भी दिया.

बाद में भी घर में भले ही कुक तरहतरह के व्यंजन तैयार करते रहते मगर वह अपने हाथों का बना साधारण खाना ही खाती और अमन भी उस के हाथ का खाना ही पसंद करने लगा था. अमन को श्रद्धा के खाने की तारीफें करता देख दोनों भाभियों ने भी अपने हाथों से कुछ आइटम्स बना कर अपनेअपने पति को रिझाने का प्रयास किया. फिर तो अकसर ही दोनों भाभियां किचन में दिखने लगी थीं.

श्रद्धा भले ही अपना छोटा सा घर छोड़ कर बड़े बंगले में रहने आ गई थी मगर उस के रहने के तरीकों में कोई परिवर्तन नहीं आया था. उस ने अपने कमरे के बाहर वाले बरामदे में एक टेबलकुरसी डाल कर उसे स्टडीरूम बना लिया था. कंप्यूटर, प्रिंटर, टेबललैंप आदि अपने टेबल पर सजा लिए. अमन के कहने पर एक छोटा सा फ्रिज भी उस ने साइड में रखवा लिया. बरामदा बड़ा था और शीशे की खिड़कियां लगी हुई थीं. वह बाहर का नजारा देखते हुए बहुत आराम से अपना काम करती. जब दिल करता, खिड़कियां खोल कर ताजी हवा का आनंद लेती. बरामदे के कोने में 3 -4 छोटे गमलों में पौधे भी लगवा दिए.

भले ही उस की अलमारियां लेटेस्ट स्टाइल के कपड़ों व गहनों से भरी हुई थीं मगर वह अपनी पसंद के साधारण मगर कंफर्टेबल कपड़ों में ही रहना पसंद करती थी.

शानदार बाथटब होने के बावजूद वह शावर के नीचे खड़ी हो कर नहाती. तरहतरह के शैंपू होने के बावजूद वह मुल्तानी मिट्टी से बाल धोती. कभी भी हेयर ड्रायर या ऐसी चीजों का इस्तेमाल वह न करती.

घर में कई सारी कीमती गाड़ियों के होते हुए भी वह पहले की तरह बस से औफिस आतीजाती रही. बसस्टैंड पर उतर कर 10 मिनट वाक कर के औफिस पहुंचने की आदत बरकरार रखी.

शादी के बाद पहले दिन जब वह बस से औफिस जा रही थी तो तुषिता ने टोका था, “भाभी, हमारे घर में इतनी गाड़ियां हैं. कोई क्या कहेगा कि इतने बड़े खानदान की नईनवेली बहू बस से औफिस जा रही है.”

“तुषि, मैं बस से औफिस मजबूरी में नहीं जा रही हूं बल्कि इसलिए जा रही हूं ताकि मेरी दौड़नेभागने और वाक करने की आदत बनी रहे. बचपन से ही मुझे शरीर को जरूरत से ज्यादा आराम देने की आदत नहीं रही है. वैसे भी, बस में आप 10 लोगों से इंटरैक्ट करते हो. आप की प्रैक्टिकल नौलेज बढ़ती है. इस में गलत क्या है?”

“जी, गलत तो कुछ नहीं,” मुंह बना कर तुषिता ने कहा और अंदर चली गई.श्रद्धा ने अपने कमरे में से तमाम ऐसी चीजें निकाल कर बाहर कर दीं जो केवल शोऔफ के लिए थीं या लग्जरियस लाइफ के लिए थीं. जब श्रद्धा अपने कमरे से कुछ सामान बाहर करवा रही थी तो सास ने सवाल किया था, “यह क्या कर रही हो बहू?”

“मम्मी जी, मुझे कमरा खुलाखुला सा अच्छा लगता है. जिन चीजों की जरूरत नहीं, उन्हें हटा रही हूं. आप ही बताइए, नकली फूलों से सजे इस कीमती फ्लौवर पौट के बजाय क्या मिट्टी का यह गमला और इस में मनीप्लांट का पौधा अच्छा नहीं लग रहा? बाजार से खरीदे गए इन शोपीसेज के बजाय मैं ने अपने हाथ की बनाई कुछ कलात्मक चीजें दीवार पर लगा दी हैं. आप कहें तो हटा दूं. वैसे, मुझे तो अच्छी लग रही हैं.

“नहींनहीं, रहने दो. दूसरों को भी तो पता चले कि हमारी छोटी बहू में कितने हुनर हैं,” कह कर सास ने चुप्पी लगा ली.

श्रद्धा ने खुद को अपनी मिट्टी से भी जोड़े रखा था. सुबह उठ कर ऐक्सरसाइज करना, घास पर नंगे पांव चलना, गार्डनिंग करना, कुकिंग करना, वाक करना आदि उस की पसंदीदा गतिविधियां थीं. अमन के कहने पर उस ने स्विमिंग करना और कार चलाना जरूर सीख लिया था मगर दैनिक जीवन में इन से दूर ही रहती. शाम को समय मिलने पर डांस करती तो सुबहसुबह साइकिल ले कर निकल पड़ती. पैसे भले ही कितने भी आ जाएं मगर फालतू पैसे खर्च नहीं करती.

उस की ये हरकतें देख कर अमन के दोनों भाईभाभियां, बहन और मांबाप कसमसा कर रह जाते, पर कुछ कह नहीं पाते क्योंकि श्रद्धा शिकायत के लायक कुछ भी गलत नहीं करती थी.

इधर एक दिन जब दोनों भाभियां सास के साथ किटी पार्टी में जाने के लिए सजधज रही थीं तो सास ने श्रद्धा से भी चलने को कहा. इस पर श्रद्धा ने जवाब दिया, “मम्मी जी, आज तो मैं एक लैक्चर अटैंड करने जा रही हूं. संदीप माहेश्वरी के मोटिवेशनल स्पीच का प्रोग्राम है. सौरी, मैं आप के साथ किटी पार्टी में नहीं आ पाऊंगी.”

श्रद्धा को प्यार और आश्चर्य से देखते हुए सास ने कहा, “दूसरों से बहुत अलग है तू. पर, सही है. मुझे तेरी बातें कभीकभी अच्छी लगती हैं. एक दिन मैं भी चलूंगी तेरे साथ लेक्चर सुनने. पर आज किटी पार्टी का ही प्लान है. मेरी सहेली ने अरेंज किया है न.”

“जी मम्मी, जरूर,”  कह कर श्रद्धा मुसकरा पड़ी.अगले संडे सास भी श्रद्धा के साथ लेक्चर सुनने गई और आ कर बहुत तारीफें कीं.

इसी तरह वक्त गुजरता गया. शुरू में श्रद्धा की आदतों और हरकतों से चिढ़ने और पसंद न करने वाली श्रद्धा की सास, ननद और भाभियां धीरेधीरे उसी के रंग में रंगती चली गईं. अब वे भी अकसर कार अवौयड कर देतीं.

घर की पार्किंग में महंगी व आलीशान कारों के साथ अब छोटी कारें भी खड़ी हो गईं. सास और भाभियां कई बार उस के साथ लेक्चर अटेंड करने पहुंचने लगीं. उन्हें भी समझ आ रहा था कि किटी पार्टीज में गहनेकपड़ों का शोऔफ़ करने या बिचिंग करने में समय बरबाद करने के बजाय बहुत अच्छा है नई बातें जानना और जीवन को दिशा देने वाले लेक्चर व सैमिनार अटेंड करना, ज्ञान बढ़ाना, किताबें पढ़ना और कला दीर्घा जैसी जगहों में जाना.

श्रद्धा ने कुछ किताबें और पत्रिकाएं खरीदी थीं और उन्हें अपने कमरे की एक छोटी सी अलमारी में करीने से लगा दिया था. पर धीरेधीरे जब किताबों और पत्रिकाओं की संख्या बढ़ने लगी तो अमन के कहने पर उस ने घर के एक कमरे को छोटी सी लाइब्रेरी का रूप दे दिया और सारी किताबें व पत्रिकाएं वहां सजा दीं. अब तो परिवार के दूसरे सदस्य भी आ कर वहां बैठते और शांति व सुकून के साथ पत्रिकाएं, किताबें पढ़ते.

श्रद्धा से प्रभावित हो कर घर धीरेधीरे घर का माहौल बदलने लगा था. दोनों भाभियों ने कुक को हटा कर खुद ही किचन का काम संभाल लिया, तो सास ने भी घर के माली का हिसाब कर दिया. अब सासबहू मिल कर गार्डनिंग करतीं. श्रद्धा की देखादेखी भाभियां खुद कपड़े धोने,  प्रैस करने और घर को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारियां निभाने लगी थीं. तुषिता भी अपने छोटेमोटे सारे काम खुद निबटा लेती.

इस तरह के परिवर्तनों का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि परिवार के सदस्य अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकदूसरे के साथ बिताने लगे. खाना बनाते समय जहां दोनों भाभियों, सास और श्रद्धा को आपस में अच्छा समय बिताने का मौका मिलता, वहीँ घर के सभी सदस्य प्यार से एक ही डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाना खाने लगे. खाने की तारीफें होने लगीं. घर की बहुओं को और अच्छा करने का प्रोत्साहन मिलने लगा. वहीं, गार्डनिंग के शौक ने सास के साथ श्रद्धा की बौन्डिंग बेहतर कर दी. अब तुषिता भी गार्डनिंग में रुचि लेने लगी थी. ननद और सास के साथ श्रद्धा इन पलों का खूब आनंद लेती.

इसी तरह शौपिंग के लिए नौकरों को भेजने के बजाय श्रद्धा खुद अमन को ले कर पैदल बाजार तक जाती. मौल के बजाय वह लोकल मार्केट से सामान लेना पसंद करती. फलसब्जियां भी खुद ही ले कर आती. श्रद्धा को देख कर बाकी दोनों भाभियां भी संडे शाम को अकसर अपने पति को ले कर शौपिंग के लिए निकलने लगीं. उन्हें अपने पति के साथ समय बिताने का अच्छा मौका मिल जाता था.

समय के साथ परिवार के सभी सदस्यों को नौकरों पर निर्भर रहने के बजाय खुद अपना काम करने की आदत लग चुकी थी. घर में प्यार और शांति का माहौल था. व्यापार पर भी इस का बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा. उन का व्यापार चमचमाने लगा था. बड़े बड़े और्डर्स मिलने लगे. दूरदूर तक उन के आउटलेट्स खुलने लगे थे. हर तरह के पारिवारिक, व्यावसायिक और सामाजिक विवाद समाप्त हो चले थे.

श्रद्धाके अच्छे व्यवहार का नतीजा था कि रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ उन के संबंध और भी ज्यादा सुधरने लगे थे. किसी रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ घर के किसी सदस्य का विवाद होता, तो श्रद्धा उसे समझाती. उस की ग़लतियों की तरफ ध्यान दिलाती. वह समझाती कि पड़ोसियों और रिश्तेदारों से अच्छे रिश्ते के लिए थोड़ा सब्र कर लेना और एकदूसरे को माफ कर देना भी जरूरी होता है. इस से रिश्ते गहरे हो जाते हैं. श्रद्धा की सोच और उस के व्यवहार का तरीका घर के सभी सदस्यों पर असर डाल रहा था. उन की जिंदगी बदल रही थी.

इसी दौरान एक दिन शाम के समय सास का फ़ोन आया. वह काफी घबराई हुई आवाज में बोली, “श्रद्धा, बेटा तू जल्दी से सिटी हौस्पिटल आ जा. तेरी अलका भाभी का एक्सिडैंट हो गया है. वह तुषिता के साथ स्कूटी पर जा रही थी, तभी किसी ने टक्कर मार दी. अलका को बहुत गहरी चोट लगी है. मैं और तुषिता हौस्पिटल में हैं. तेरे दोनों जेठ आज बिज़नैस के सिलसिले में ग्रेटर नोएडा गए हुए हैं. उन को आने में देर हो जाएगी. अमन भी लगता है मीटिंग में है, फोन नहीं उठा रहा.”

“कोई नहीं मां, आप घबराओ नहीं. मैं तुरंत आती हूं.”श्रद्धा ने तुरंत कैब किया और सिटी हौस्पिटल पहुंच गई. अलका के सिर में गहरी चोट लगी थी. उस का खून काफी बह गया था. उसे तुरंत औपरेट करना था, खून भी चढ़ाना था. श्रद्धा ने डाक्टर से अपना खून देने की बात की क्योंकि उस का ब्लड ग्रुप भी ‘ओ पौजिटिव’ था.

फटाफट सारे काम हो गए. आते समय श्रद्धा अपनी चैकबुक साथ लाई थी. डाक्टर ने 2 लाख रुपए जमा करने को कहा. उस ने तुरंत जमा कर दिए.

शाम तक घर के बाकी लोग भी हौस्पिटल पहुंच गए थे. अलका अभी आईसीयू में ही थी. उसे होश नहीं आया था. अगले दिन डाक्टर्स ने कहा कि अलका अब खतरे से बाहर है, मगर अभी उस के एक पैर की सर्जरी भी होनी है क्योंकि इस दुर्घटना में उस के एक पैर के घुटने से नीचे वाली हड्डी डैमेज हो गई थी. सो, उसे भी औपरेट करना था. आननफानन यह काम भी हो गया. एक सप्ताह हौस्पिटल में रह कर अलका घर आ गई.  मगर अभी भी उसे करीब 2 महीने बैडरैस्ट पर रहना था.

ऐसे समय में श्रद्धा ने अलका की सारी जिम्मेदारियां उठा लीं. उस ने औफिस से 15 दिनों की छुट्टी ले ली. अलका के सारे काम वह अपने हाथों से करती. यहां तक कि उस के बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना, स्कूल से लाना, पढ़ाना, खिलानापिलाना यह सब श्रद्धा करने लगी. औफिस जौइन करने के बाद भी वह सारी जिम्मेदारियां बखूबी उठाती रही. हालांकि, अब तुषिता भी यथासंभव उस की मदद करती.

धीरेधीरे यह कठिन समय भी गुजर गया. अलका अब ठीक हो गई थी. सारा परिवार श्रद्धा के व्यवहार की तारीफ़ करते नहीं थकता था. उस ने अपने प्यारभरे व्यवहार से सब को अपना मुरीद बना लिया था. सुख और दुख दोनों में ही श्रद्धा ने जिस तरह अपने जीवन में संतुलन बना कर रखा और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाया था, उस से हर कोई प्रभावित था.

कई महीनों बाद जब अलका पूर तरह ठीक हो गई तो सासससुर ने घर में ग्रैंड पार्टी रखी और उस में अपनी बहू श्रद्धा को ‘बेस्ट बहू औफ द हाउस’ का अवार्ड दे कर सम्मानित किया. घर का हर सदस्य आज मिल कर श्रद्धा के लिए तालियां बजा रहा था.

Hindi Fiction Stories : झटका – दादी की क्या थी तरकीब

Hindi Fiction Stories : स्कूलके प्रिंसिपल अमनजी के सामने प्रिया और संदीप आंखों में चिंता और तनाव के भाव लिए बैठ गए.

‘‘आप के बेटे समीर को इस वक्त स्कूल में होना चाहिए पर वह यहां नहीं है. पिछले 2 हफ्तों में उस ने यह 5वीं छुट्टी करी है,’’ अमनजी ने बिना कोई भूमिका बांधे यह सूचना दे कर उन दोनों को जोरदार झटका दिया.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? वह तो रोज सुबह तैयार हो कर स्कूल जाने को घर से निकलता है,’’ प्रिया की आंखों में फौरन हैरानी और उलझन के भाव उभरे.

‘‘क्या वह रोज स्कूल बस में आप की आंखों के सामने बैठता है?’’

‘‘आजकल वह बस से नहीं बल्कि अपने दोस्त रवि के साथ कार से स्कूल आता है.’’

‘‘आप दोनों रवि के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि उस के मातापिता दोनों आईटी कंपनी में अच्छी पोस्टों पर हैं. कुछ दिन पहले समीर से मैं ने उस के पिछले टैस्टों में आए नंबर पूछे थे. मेरा अंदाजा है कि वह पढ़ने में ज्यादा अच्छा नहीं है,’’ इस बार जवाब संदीप ने दिया.

अमनजी ने कुछ पलों की खामोशी के बाद गंभीर लहजे में उन्हें बताया, ‘‘रवि के मातापिता बहुत दौलतमंद हैं, संदीपजी मेरी नजरों में वह एक बिगड़ा हुआ रईसजादा है. ट्यूशनों के बल पर वह 12वीं कक्षा तक अपनी गाड़ी खींच ले जाएगा पर उस के कभी अच्छे नंबर नहीं आएंगे. उसे अच्छे नंबर लाने की चिंता भी नहीं है क्योंकि अपने मातापिता की गांव की जमीन के बल पर वह कोई डिगरी विदेश में जा कर ले लेगा. क्या समीर के लिए भी आप दोनों ने ऐसा ही कुछ सोच रखा है?’’

‘‘उसे विदेश में पढ़ाने की हमारी औकात नहीं है, सर. हमारी तो बड़े बाजार में गारमैंट की छोटी शौप है.’’

‘‘समीर के 10वीं कक्षा के बोर्ड में 88% आए थे, लेकिन इस साल वह पढ़ने में पिछड़ता जा रहा है. मुझे यह बताते हुए बहुत अफसोस हो रहा है कि वह आजकल गलत दोस्तों के साथ घूमने लगा है.’’

‘‘क्या उस के ये नए, गलत दोस्त भी स्कूल से गायब रहते हैं?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘सर, क्या आप को मामूल है कि ये सब इस वक्त कहां हैं?’’

‘‘रवि के घर. जिस दिन भी क्रिकेट का वन डे मैच होता है ये 4-5 लड़के स्कूल नहीं आते हैं. मुझे इन की गलत आदतों की रिपोर्ट कल ही इन के एक साथी से मिली है. क्या आप दोनों ने समीर के अंदर ऐसा कोई बदलाव महसूस नहीं किया जो उस के यों बिगड़ने की तरफ इशारा करता हो?’’

प्रिया ने फौरन अपने बेटे की उन से शिकायत करी, ‘‘आजकल वह काफी जिद्दी, बदतमीज और झगड़ालू हो गया है. जरा सा डांटो तो फट पलट कर जवाब देता है. अपने दोस्तों की तारीफ करता है और उसे हर चीज बढि़या और ब्रैंडेड चाहिए… यूनिट टैस्ट में तो उस के नंबर कम आ ही रहे हैं.’’

‘‘किसी भी किशोर के बिगड़ने के ये सब शुरुआती लक्षण हैं. औफिस के बाहर उस के दोस्त मोहित और कपिल के मातापिता बैठे हुए हैं. आप सब एकसाथ रवि के घर जाइए और देखिए कि वहां क्या हो रहा है. कल सुबह आप दोनों समीर के साथ मुझ से मिलने आएं,’’ संदीप से मिलाने को हाथ बढ़ा कर प्रिंसिपल साहब ने मुलाकात समाप्त होने का इशारा कर दिया.

आधे घंटे बाद सब लड़कों के मातापिता रवि के पिता के नए फ्लैट के अंदर थे. घर के नौकर ने उन्हें ड्राइंगरूम में बैठा कर के भीतर जाने से रोकना चाहा, पर वे जबरदस्ती रवि के बैडरूम तक जा पहुंचे.

रवि के कमरे में सिगरेट के धुएं की गंध भरी हुई थी. मेज पर बीयर की बोतलें और

गिलास रखे थे. एक लड़की रवि की बगल में उस के साथ सट कर बैठी हुई थी. उस ने किसी और स्कूल की वरदी पहनी हुई थी. टीवी पर आईपीएल मैच चल रहा था.

उन्हें अचानक सामने देख वे सब घबराए से चौंक कर उठ खड़े हुए. मोहित और कपिल के पेरैंट्स की तरह संदीप ने वहीं समीर को डांटना शुरू नहीं किया और उस का हाथ पकड़ उसे कमरे से बाहर ड्राइंगहौल में ले आया.

‘‘आप दोनों को यहां नहीं आना चाहिए था,’’ समीर शर्मिंदा होने के बजाय उलटा उन पर नाराज हो उठा.

‘‘यहां नहीं आते तो तुम्हारी करतूतों का कैसे पता लगता? तुम सिगरेट और शराब पीने लगे हो. शर्म आनी चाहिए तुम्हें,’’ उस के बोलने का गलत ढंग देख संदीप को तेज गुस्सा आ गया.

‘‘थोड़ी सी बीयर पी लेने में शर्म आने की क्या बात है? आप भी तो रोज शाम को पीते हो?’’ समीर ने अपना हाथ झटके से छुड़ाया और मेज पर रखा बैग उठा कर बाहर की तरफ चल पड़ा.

‘‘मेरे साथ तमीज से पेश नहीं आओगे तो मैं थप्पड़ मारमार कर तुम्हारे दांत तोड़ डालूंगा.’’

‘‘शोर कैसे न मचाऊं? क्या तुम हमारी नाक कटाने वाले काम नहीं कर रहे? कल को तुम्हारी यही गंदी आदतें तुम्हारे फेफड़ों और जिगर को खराब कर डालेंगी, बेवकूफ  लड़के.’’

समीर ने इस बार उलट कर कोई जवाब नहीं दिया और हौल से बाहर निकल गया.

सारे रास्ते संदीप और प्रिया उसे डांटतेसमझते हुए आए, पर मुंह सुजा कर बैठे समीर ने एक शब्द भी अपने मुंह से नहीं निकाला. जब घर के सामने कार रुकी तो वह झटके से दरवाजा खोल कर उतरा और पैर पटकता अंदर चला गया.

अंदर आने के बाद संदीप ने उसे गुस्से से भरी आवाज में कई बार पुकारा तो ही वह अपने कमरे से निकल कर ड्राइंगरूम में आया. अब तक समीर की दादी भी अपने कमरे से निकल कर वहीं आ गई थीं.

समीर के तेवर ऐसा दर्शा रहे थे मानो वह अपने मातापिता से उलझने के लिए पूरी तरह से तैयार था और हुआ भी ऐसा ही. संदीप ने अपने बेटे को डांटना शुरू किया तो उस ने पलट कर उलटे जवाब देने शुरू कर दिए.

कुछ देर तक दादी ने चुप रह कर सारे मामले को समझ और फिर ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘अब सब शांत हो कर आपस में बात करो. समीर अभी हम सब से प्रौमिस करेगा कि वह सिगरेट और शराब से दूर रहेगा और ज्यादा मेहनत से पढ़ाई भी करेगा.’’

अपनी मां की सलाह को नजरअंदाज करते हुए संदीप ने समीर पर गुस्सा करना जारी रखा, ‘‘तुम्हारे तेवर देख कर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा है कि तुम रत्ती भर भी बदलोगे. आज तुम्हारी कलई खुली है. तुम शराब, सिगरेट और गलत कंपनी के शिकार बन चुके हो. स्कूल न जा कर बदमाश दोस्तों के साथ आवारागर्दी करते हो.’’

इस बार समीर ने जोर से चिल्ला कर जवाब दिया, ‘‘गलत कंपनी में घूमना मेरी मजबूरी है, डैड. अरे, मैं उन्हीं लड़कों के साथ घूमूंगा न जो मुझे अपना दोस्त बना कर मेरे साथ घूमने को तैयार होंगे. जो लड़के मुझ पर हंसें, जो मेरा मजाक उड़ाएं और मुझ से कटें मैं क्यों उन के साथ घूमूंगा?’’

‘‘लड़के तुम पर क्यों हंसते हैं?’’

‘‘आप दोनों के रोजरोज के लड़ाईझगड़ों ने मुझे तमाशा बनवा दिया है.’’

‘‘ज्यादा बकवास मत करो. हम पहले मातापिता नहीं हैं जिन के बीच लड़ाईझगड़ा होता है. तुम्हारे पढ़ाई में पिछड़ने और बिगड़ने का असली कारण यही है कि तुम गलत सोहबत में पड़ चुके हो. फिर कोई अच्छा सहपाठी तुम्हारे साथ क्यों घूमेगा?’’

‘‘सारा दोष मेरे सिर मढ़ने की कोशिश मत करो, पापा,’’ समीर उन के सामने तन कर खड़ा हो गया, ‘‘असली कारण तो यह है कि हमारे घर में आप दोनों के कारण 24 घंटे मची रहने वाली हायतोबा और गालीगलौज के कारण मैं ढंग से पढ़ नहीं पाता हूं. इसी कारण मैं गलत कंपनी में भी पड़ा हूं. मैं महीने में 10 दिन नानाजी के घर से स्कूल जाता हूं, 20 दिन यहां से. लोग मुझ से इस का कारण पूछते हैं तो मैं शर्म से जमीन में गड़ जाता हूं. मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मेरी मां आए दिन लड़ कर मायके भाग आती है? साल में 8 बार तो आप पापा की बिना मरजी के इस तीर्थ और उस आश्रम में रहने चली जाती हैं और पापा अपने काम के बदले राजनीति करने चले जाते हैं. दादी ही घर में रह जाती हैं. क्या मैं पूछ सकता हूं कि अपने व्यवहार के कारण आप दोनों ने मेरी जिंदगी में इतनी टैंशन क्यों भर रखी है? मुझे अपने सहपाठियों के बीच हंसी का पात्र क्यों बनवा रखा है?’’

‘‘इस वक्त बात हमारी नहीं बल्कि तुम्हारी हो रही है.’’

‘‘अपनेआप को कठघरे में खड़ा देखना किसी को अच्छा नहीं लगता डैड. आप दोनों को मेरी फिक्र होती तो रातदिन क्लेश न करते रहते. आप दोनों को तो आपस में मारपीट करने से भी परहेज नहीं है. अगर मुझे आप की नाक कटाने वाला काम नहीं करना चाहिए तो क्या यही बात आप दोनों पर नहीं लागू होती है? पापा, आप बचपन से न जाने कौन सा इतिहास पढ़पढ़ कर ऊंचनीच, भेदभाव, इतिहास का बदला लेने जुलूसों में जा कर पथराव करते रहे हैं और अब मां से झगड़ते हैं. पड़ोस के खान अंकल को तो आप पीठ पीछे न जाने क्याक्या कहते रहते हैं.’’

‘‘इन बातों को छोड़ और यह सोच कि अपनी पढ़ाई का नुकसान कर के तुम

अपना कितना ज्यादा नुकसान कर रहे हो,’’ इस बार संदीप सुर नीचा कर के बोले.

‘‘मुझे पता है कि मैं फेल नहीं होऊंगा. वैसे भी मुझे बिजनैस करना है, कोई डाक्टर, इंजीनियर नहीं बनना है,’’ समीर ने लापरवाही से जवाब दिया.

‘‘बेकार की बात मत कर. तुझे पता तो है कि हमारे पास तेरे दोस्त के पिता जितनी दौलत नहीं है जो 40-50 लाख लगा कर बिजनैस करा सकें. तू हवा में उड़ना बंद कर और पढ़ाई में मन लगा.’’

‘‘आप जितना लगा सको, उतना पैसा लगा देना. बाकी का फाइनैंस मेरे दोस्त संभाल लेंगे.’’ इन में से कुछ की रिश्वत की मोटी कमाई है और कुछ ने गांव में करोड़ों की जमीन बेची हैं.

‘‘तेरे ये दोस्त तेरा साथ देंगे, ऐसी गलतफहमी का शिकार मत बनो.’’

‘‘आप दोनों अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हो तो वैसा ही मुझे भी करने दो,’’ समीर ने रुखाई से जवाब दिया.

‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? तिल बराबर अक्ल नहीं है तेरे पास और चला है खुद अपनी जिंदगी के फैसले करने. पहले मुझे यह बताओ कि शराब और सिगरेट खरीदने को तुम्हारे पास पैसे कहां से आते हैं?’’ संदीप ने प्रिया की तरफ नाराजगी से देखते हुए सवाल किया.

‘‘मेरी तरफ गुस्से से देखने की जरूरत नहीं है. मैं इसे जेबखर्च से ज्यादा पैसे नहीं देती हूं,’’ प्रिया एकदम से गुस्सा उठीं.

‘‘आप दोनों आपस में झगड़ना शुरू करो, उस से पहले मैं ही बता देता हूं कि मैं पैसे कहां से पाता हूं,’’ समीर ने उन का मजाक उड़ाने वाले लहजे में बोलना शुरू किया.

‘‘रात को पीने के बाद क्या सुबह तक आप को याद रहता है कि आप के पर्स में

कितने रुपए थे? क्या किसी को याद है कि मुझे इस महीने की स्कूल फीस किस ने दी  थी?’’

‘‘तुम को फीस मैं ने दी थी,’’ प्रिया ने जवाब दिया.

‘‘नहीं, मैं ने दी थी,’’ संदीप ने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘आप दोनों के अलावा दादी ने भी मुझे फीस दी थी,’’ समीर के होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान झलक उठी.

‘‘इस ने आ कर बताया था कि फीस के पैसे खो गए थे…यह बोला कि तुम पीटोगे, तो मैं ने भी फीस दी थी. अरे शैतान, तू मुझ से भी झठ बोलने लगा है,’’ दादी ने पोते को गुस्से से घूरा.

‘‘सौरी दादी, आप से तो मैं ने रुपए अपने एक दोस्त की फीस भरने को लिए थे,’’ समीर ने दादी से माफी मांगी और फिर अपने मातापिता से शिकायती स्वर में बोला, ‘‘आप दोनों मेरे बारे में या किसी भी और विषय पर आपस में बात ही कहां करते हो. मैं पहले भी ऐसा घोटाला कर चुका हूं. तब क्या आप मुझे पकड़ पाए थे?’’

‘‘शर्म नहीं आ रही है तुझे अपने गलत कामों की तारीफ करते हुए?’’ संदीप गुस्से से फट पड़े.

‘‘मेरे लिए यहां आप दोनों के सामने शर्मिंदा होना कोई बड़ी बात नहीं है, पर मैं अपने दोस्तों के सामने शर्मिंदा नहीं हो सकता हूं. वे 4 दफा मुझ पर पैसे खर्च करेंगे तो 1 बार मुझे भी करने पड़ेंगे या नहीं? मेरी पौकेट मनी बहुत कम है और तभी मुझे हेराफेरी और चोरी करनी पड़ती है.’’

‘‘मेरा दिल कर रहा है कि हंटर मारमार कर तेरी चमड़ी उधेड़ दूं,’’ संदीप उस की तरफ आक्रामक लहजे में बढ़े.

‘‘आप ने अगर मुझ पर हाथ उठाया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा. आप भी जुलूसों में कितना मारने की बातें करते हैं. कितनी बार दुकान बंद कर के हल्ला मचाने भीड़ में जाते रहते हैं. आप मारने की धमकियां देते हैं, मैं खुद मर जाऊंगा.’’

समीर की इस धमकी को सुन संदीप का मुंह हैरानी के मारे खुला का खुला रह गया.

प्रिया ने उसे खींच कर समीर से दूर किया और अपने मन की चिंता व्यक्त करी, ‘‘अब ये बातें छोडि़ए और कल अमनजी से होने वाली मुलाकात के बारे में सोचिए. वहां भी अगर इस ने ऐसी ही बदतमीजी दिखाई तो वे इसे स्कूल से निकाल देंगे.’’

‘‘मौम, डौंट वरी अबाउट हिम. वो रवि को स्कूल से निकालने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं क्योंकि रवि के पापा स्कूल के चेयरमैन के गांव के हैं और फिर उन का पैसा भी स्कूल में लगा हैं. अगर रवि स्कूल से नहीं निकलेगा तो हम में से कोई भी नहीं निकलेगा,’’ समीर फिर से लापरवाह नजर आने लगा.

‘‘तुम्हें रवि का साथ छोड़ अपने को सुधारना होगा,’’ प्रिया ने भावुक हो कर उसे सलाह दी.

‘‘अगर तुम ने अपने को फौरन नहीं बदला तो एक दिन बहुत पछताओगे,’’ संदीप अब दुखी और परेशान दिख रहे थे.

‘‘सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि घर में हरेक को बदलना और सुधरना होगा, अब भी आप ऐसा क्यों नहीं कह रहे हो?’’ समीर ने चुभते लहजे में पूछा.

प्रिया और संदीप दोनों से फौरन ही उसे कोई जवाब देते नहीं बना. उन्हें चुप करा कर समीर निडर, विद्रोही भाव से अपने कमरे की तरफ चल पड़ा. दोनों उसे रोकने की हिम्मत नहीं कर सके.

दोनों थकेहारे और टूटे से नजर आ रहे थे. दोनों को आपस में लड़ने या एकदूसरे पर आरोप लगाने की ताकत भी अपने अंदर महसूस नहीं हो रही थी. वे समीर को कैसे डांटते या समझते क्योंकि वह तो उन्हीं को कठघरे में खड़ा कर

गया था.

कुछ देर की खामोशी के बाद प्रिया ने रोनी सूरत बना कर कहा, ‘‘हमारे स्वार्थी

और नासमझ भरे व्यवहार से समीर को गुमराह होने का मौका मिला. पता नहीं वह अब कभी ठीक रास्ते पर लौट भी पाएगा या नहीं? न जाने क्यों हम घर और दुकान का काम छोड़ कर राजनीति के पचड़े में पड़ गए.’’

‘‘हम उसे किसी अच्छे मनोवैज्ञानिक को दिखाएंगे,’’ संदीप ने उस का हाथ पकड़ कर धैर्य बंधाने की कोशिश करी.

दादी ने दोनों को समझते हुए सलाह दी, ‘‘कुछ महीने पहले तक समीर पढ़ाई में पूरी दिलचस्पी लेता था. उस के व्यवहार से भी हमें कोई शिकायत नहीं थी. अब तेज झटका खाने के बाद अगर आगे हम सब समझदारी और प्यार से काम लेंगे तो वह निश्चित रूप से सही राह पर लौट आएगा. गलत व्यवहार की जड़ें अभी उस के मन में ज्यादा गहरी नहीं गई हैं.’’

‘‘हम दोनों आपसी संबंधों का सुधारेंगे क्योंकि समीर के भविष्य से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हमारे लिए कुछ भी नहीं है,’’ प्रिया की आंखों से आंसू बहने लगे थे.

समीर ने उस का हाथ पकड़ कर प्यार से चूमा और फिर भावुक हो कर कहा, ‘‘मुझे विश्वास है कि हमारे बदलते ही सबकुछ ठीक

हो जाएगा. हमारी अगर उसे कमियों ने गलत

राह पर धकेला है तो हमारे अंदर आने वाला अच्छा बदलाव उसे सही रात पर आने की प्रेरणा भी देगा.’’

अतीत के सारे गिलेशिकवे भुला कर दोनों लंबे समय के बाद अपनेआप को दूसरे के बहुत करीब महसूस कर रहे थे. समीर की दादी ने सदा सुखी और खुश रहने का आशीर्वाद देते हुए दोनों को अपने गले से लगा लिया था.

Hindi Story Collection : देर से ही सही – क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

Hindi Story Collection : सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

Hindi Fiction Stories : मैं हूं न – ननद की भाभी ने कैसे की मदद

Hindi Fiction Stories : लड़के वाले मेरी ननद को देख कर जा चुके थे. उन के चेहरों से हमेशा की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देखने को मिली थी. कोई कमी नहीं थी उन में. पढ़ी लिखी, कमाऊ, अच्छी कदकाठी की. नैननक्श भी अच्छे ही कहे जाएंगे. रंग ही तो सांवला है. नकारात्मक उत्तर मिलने पर सब यही सोच कर संतोष कर लेते कि जब कुदरत चाहेगी तभी रिश्ता तय होगा. लेकिन दीदी बेचारी बुझ सी जाती थीं. उम्र भी तो कोई चीज होती है.

‘इस मई को दीदी पूरी 30 की हो चुकी हैं. ज्योंज्यों उम्र बढ़ेगी त्योंत्यों रिश्ता मिलना और कठिन हो जाएगा,’ सोचसोच कर मेरे सासससुर को रातरात भर नींद नहीं आती थी. लेकिन जिसतिस से भी तो संबंध नहीं जोड़ा जा सकता न. कम से कम मानसिक स्तर तो मिलना ही चाहिए. एक सांवले रंग के कारण उसे विवाह कर के कुएं में तो नहीं धकेल सकते, सोच कर सासससुर अपने मन को समझाते रहते.

मेरे पति रवि, दीदी से साल भर छोटे थे. लेकिन जब दीदी का रिश्ता किसी तरह भी होने में नहीं आ रहा था, तो मेरे सासससुर को बेटे रवि का विवाह करना पड़ा. था भी तो हमारा प्रेमविवाह. मेरे परिवार वाले भी मेरे विवाह को ले कर अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी जोर दिया तो उन्हें मानना पड़ा. आखिर कब तक इंतजार करते.

मेरे पति रवि अपनी दीदी को बहुत प्यार करते थे. आखिर क्यों नहीं करते, थीं भी तो बहुत अच्छी, पढ़ीलिखी और इतनी ऊंची पोस्ट पर कि घर में सभी उन का बहुत सम्मान करते थे. रवि ने मुझे विवाह के तुरंत बाद ही समझा दिया था उन्हें कभी यह महसूस न होने दूं कि वे इस घर पर बोझ हैं. उन के सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, इसलिए कोई भी निर्णय लेते समय सब से पहले उन से सलाह ली जाती थी. वे भी हमारा बहुत खयाल रखती थीं. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी थी, इसलिए उन को पा कर मुझे लगा जैसे मुझे बड़ी बहन मिल गई हैं.

एक बार रवि औफिस टूअर पर गए थे. रात काफी हो चुकी थी. सासससुर भी गहरी नींद में सो गए थे. लेकिन दीदी अभी औफिस से नहीं लौटी थीं. चिंता के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. तभी कार के हौर्न की आवाज सुनाई दी. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा, दीदी कार से उतर रही थीं. उन की बगल में कोई पुरुष बैठा था. कुछ अजीब सा लगा कि हमेशा तो औफिस की कैब उन्हें छोड़ने आती थी, आज कैब के स्थान पर कार में उन्हें कौन छोड़ने आया है.

मुझे जागता देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘सोई नहीं अभी तक?’’

‘‘आप का इंतजार कर रही थी. आप के घर लौटने से पहले मुझे नींद कैसे आ सकती है, मेरी अच्छी दीदी?’’ मैं ने उन के गले में बांहें डालते हुए उन के चेहरे पर खोजी नजर डालते हुए कहा, ‘‘आप के लिए खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज औफिस में ही खा लिया था. अब तू जा कर सो.’’

‘‘गुड नाइट दीदी,’’ मैं ने कहा और सोने चली गई. लेकिन आंखों में नींद कहां?

दिमाग में विचार आने लगे कि कोई तो बात है. पिछले कुछ दिनों से दीदी कुछ परेशान और खोईखोई सी रहती हैं. औफिस की समस्या होती तो वे घर में अवश्य बतातीं. कुछ तो ऐसा है, जो अपने भाई, जो भाई कम और मित्र अधिक है से साझा नहीं करती और आज इतनी रात को देर से आना, वह भी किसी पुरुष के साथ, जरूर कुछ दाल में काला है. इसी पुरुष से विवाह करना चाहतीं तो पूरा परिवार जान कर बहुत खुश होता. सब उन के सुख के लिए, उन की पसंद के किसी भी पुरुष को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे, इतना तो मैं अपने विवाह के बाद जान गई हूं. लेकिन बात कुछ और ही है जिसे वे बता नहीं रही हैं, लेकिन मैं इस की तह में जा कर ही रहूंगी, मैं ने मन ही मन तय किया और फिर गहरी नींद की गोद में चली गई.

सुबह 6 बजे आंख खुली तो देखा दीदी औफिस के लिए तैयार हो रही थीं. मैं ने कहा, ‘‘क्या बात है दीदी, आज जल्दी…’’

मेरी बात पूरी होने हो पहले से वे बोलीं,  ‘‘हां, आज जरूरी मीटिंग है, इसलिए जल्दी जाना है. नाश्ता भी औफिस में कर लूंगी…देर हो रही है बाय…’’

मेरे कुछ बोलने से पहले ही वे तीर की तरह घर से निकल गईं. बाहर जा कर देखा वही गाड़ी थी. इस से पहले कि ड्राइवर को पहचानूं वह फुर्र से निकल गईं. अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अवश्य दीदी किसी गलत पुरुष के चंगुल में फंस गई हैं. हो न हो वह विवाहित है. मुझे कुछ जल्दी करना होगा, लेकिन घर में बिना किसी को बताए, वरना वे अपने को बहुत अपमानित महसूस करेंगी.

रात को वही व्यक्ति दीदी को छोड़ने आया. आज उस की शक्ल की थोड़ी सी झलक

देखने को मिली थी, क्योंकि मैं पहले से ही घात लगाए बैठी थी. सासससुर ने जब देर से आने का कारण पूछा तो बिना रुके अपने कमरे की ओर जाते हुए थके स्वर में बोलीं, ‘‘औफिस में मीटिंग थी, थक गई हूं, सोने जा रही हूं.’’

‘‘आजकल क्या हो गया है इस लड़की को, बिना खाए सो जाती है. छोड़ दे ऐसी नौकरी, हमें नहीं चाहिए. न खाने का ठिकाना न सोने का,’’ मां बड़बड़ाने लगीं, तो मैं ने उन्हें शांत कराया कि चिंता न करें. मैं उन का खाना उन के कमरे में पहुंचा दूंगी. वे निश्चिंत हो कर सो जाएं.

मैं खाना ले कर उन के कमरे में गई तो देखा वे फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. मुझे देखते ही फोन काट दिया. मेरे अनुरोध करने पर उन्होंने थोड़ा सा खाया. खाना खाते हुए मैं ने पाया कि पहले के विपरीत वे अपनी आंखें चुराते हुए खाने को जैसे निगल रही थीं. कुछ भी पूछना उचित नहीं लगा. उन के बरतन उन के लाख मना करने पर भी उठा कर लौट आई.

2 दिन बाद रवि लौटने वाले थे. मैं अपनी सास से शौपिंग का बहाना कर के घर से सीधी दीदी के औफिस पहुंच गई. मुझे अचानक आया देख कर एक बार तो वे घबरा गईं कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि मुझे औफिस आना पड़ा.

मैं ने उन के चेहरे के भाव भांपते हुए कहा, ‘‘अरे दीदी, कोई खास बात नहीं. यहां मैं कुछ काम से आई थी. सोचा आप से मिलती चलूं. आजकल आप घर देर से आती हैं, इसलिए आप से मिलना ही कहां हो पाता है…चलो न दीदी आज औफिस से छुट्टि ले लो. घर चलते हैं.’’

‘‘नहीं बहुत काम है, बौस छुट्टी नहीं देगा…’’

‘‘पूछ कर तो देखो, शायद मिल जाए.’’

‘‘अच्छा कोशिश करती हूं,’’ कह उन्होंने जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश की. फिर बौस के कमरे में चली गईं.

बौस के औफिस से निकलीं तो वह भी उन के साथ था, ‘‘अरे यह तो वही आदमी

है, जो दीदी को छोड़ने आता है,’’ मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला. मैं ने चारों ओर नजर डाली. अच्छा हुआ आसपास कोई नहीं था. दीदी को इजाजत मिल गई थी. उन का बौस उन्हें बाहर तक छोड़ने आया. इस का मुझे कोई औचित्य नहीं लगा. मैं ने उन को कुरेदने के लिए कहा, ‘‘वाह दीदी, बड़ी शान है आप की. आप का बौस आप को बाहर तक छोड़ने आया. औफिस के सभी लोगों को आप से ईर्ष्या होती होगी.’’

दीदी फीकी सी हंसी हंस दीं, कुछ बोलीं नहीं. सास भी दीदी को जल्दी आया देख कर बहुत खुश हुईं.

रात को सभी गहरी नींद सो रहे थे कि अचानक दीदी के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आने लगीं. मैं उन के कमरे की तरफ लपकी. वे कुरसी पर निढाल पड़ी थीं. मैं ने उन के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या बात है दीदी? ऐसा तो हम ने कुछ खाया नहीं कि आप को नुकसान करे फिर बदहजमी कैसे हो गई आप को?’’

फिर अचानक मेरा माथा ठकना कि कहीं दीदी…मैं ने उन के दोनों कंधे हिलाते हुए कहा, ‘‘दीदी कहीं आप का बौस… सच बताओ दीदी…इसीलिए आप इतनी सुस्त…बताओ न दीदी, मुझ से कुछ मत छिपाइए. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. मेरा विश्वास करो.’’

मेरा प्यार भरा स्पर्श पा कर और सांत्वना भरे शब्द सुन कर वे मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगीं और सकारात्मकता में सिर हिलाने लगीं. मैं सकते में आ गई कि कहीं ऐसी स्थिति न हो गई हो कि अबौर्शन भी न करवाया जा सके. मैं ने कहा, ‘‘दीदी, आप बिलकुल न घबराएं, मैं आप की पूरी मदद करूंगी. बस आप सारी बात मुझे सुना दीजिए…जरूर उस ने आप को धोखा दिया है.’’

दीदी ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘ये बौस नए नए ट्रांसफर हो कर मेरे औफिस में आए थे. आते ही उन्होंने मेरे में रुचि लेनी शुरू कर दी और एक दिन बोले कि उन की पत्नी की मृत्यु 2 साल पहले ही हुई है. घर उन को खाने को दौड़ता है, अकेलेपन से घबरा गए हैं, क्या मैं उन के जीवन के खालीपन को भरना चाहूंगी? मैं ने सोचा शादी तो मुझे करनी ही है, इसलिए मैं ने उन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. मैं ने उन से कहा कि वे मेरे मम्मी पापा से मिल लें. उन्होंने कहा कि ठीक हूं, वे जल्दी घर आएंगे. मैं बहुत खुश थी कि चलो मेरी शादी को ले कर घर में सब बहुत परेशान हैं, सब उन से मिल कर बहुत खुश होंगे. एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि शादी से पहले मैं उन का घर तो देख लूं, जिस में मुझे भविष्य में रहना है. मैं उन की बातों में आ गई और उन के साथ उन के घर चली

गई. वहां उन के चेहरे से उन का बनावटी मुखौटा उतर गया. उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और धमकी दी कि यदि मैं ने किसी को बताया तो उन के कैमरे में मेरे ऐसे फोटो हैं, जिन्हें देख कर मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी. होश में आने के बाद जब मैं ने पूरे कमरे में नजर दौड़ाई तो मुझे पल भर की भी देर यह समझने में न लगी कि वह शादीशुदा है. उस समय उस की पत्नी कहीं गई होगी. मैं क्या करती, बदनामी के डर से मुंह बंद कर रखा था. मैं लुट गई, अब क्या करूं?’’ कह कर फिर फूटफूट कर रोने लगीं.

तब मैं ने उन को अपने से लिपटाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें दीदी. अब देखती हूं वह कैसे आप को ब्लैकमेल करता है. सब से पहले मेरी फ्रैंड डाक्टर के पास जा कर अबौर्शन की बात करते हैं. उस के बाद आप के बौस से निबटेंगे. आप की तो कोई गलती ही नहीं है.

आप डर रही थीं, इसी का फायदा तो वह उठा रहा था. अब आप निश्चिंत हो कर सो जाइए. मैं हूं न. आज मैं आप के कमरे में ही सोती हूं,’’ और फिर मैं ने मन ही मन सोचा कि अच्छा है, पति बाहर गए हैं और सासससुर का कमरा

दूर होने के कारण आवाज से उन की नींद नहीं खुली. थोड़ी ही देर में दोनों को गहरी नींद ने आ घेरा.

अगले दिन दोनों ननदभाभी किसी फ्रैंड के घर जाने का बहाना कर के डाक्टर

के पास जाने के लिए निकलीं. डाक्टर चैकअप कर बोलीं, ‘‘यदि 1 हफ्ता और निकल जाता तो अबौर्शन करवाना खतरनाक हो जाता. आप सही समय पर आ गई हैं.’’

मैं ने भावातिरेक में अपनी डाक्टर फ्रैंड को गले से लगा लिया.

वे बोलीं, ‘‘सरिता, तुम्हें पता है ऐसे कई केस रोज मेरे पास आते हैं. भोलीभाली लड़कियों को ये दरिंदे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वे बदनामी के डर से सब सहती रहती हैं. लेकिन तुम तो स्कूल के जमाने से ही बड़ी हिम्मत वाली रही हो. याद है वह अमित जिस ने तुम्हें तंग करने की कोशिश की थी. तब तुम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर के उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लिया था.’’

‘‘अरे विनीता, तुझे अभी तक याद है. सच, वे भी क्या दिन थे,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

पारुल के चेहरे पर भी आज बहुत दिनों बाद मुसकराहट दिखाई दी थी. अबौर्शन हो गया.

घर आ कर मैं अपनी सास से बोली, ‘‘दीदी को फ्रैंड के घर में चक्कर आ गया था, इसलिए डाक्टर के पास हो कर आई हैं. उन्होंने बताया

है कि खून की कमी है, खाने का ध्यान रखें और 1 हफ्ते की बैडरैस्ट लें. चिंता की कोई बात नहीं है.’’

सास ने दुखी मन से कहा, ‘‘मैं तो कब से कह रही हूं, खाने का ध्यान रखा करो, लेकिन मेरी कोई सुने तब न.’’

1 हफ्ते में ही दीदी भलीचंगी हो गईं. उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो भाभी. मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला दिया. तुम ने मां से भी बढ़ कर मेरा ध्यान रखा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है…ऐसी भाभी सब को मिले.’’

‘‘अरे दीदी, पिक्चर अभी बाकी है. अभी तो उस दरिंदे से निबटना है.’’

1 हफ्ते बाद हम योजनानुसार बौस की पत्नी से मिलने के लिए गए. उन को उन के पति का सारा कच्चाचिट्ठा बयान किया, तो वे हैरान होते हुए बोलीं, ‘‘इन्होंने यहां भी नाटक शुरू कर दिया…लखनऊ से तो किसी तरह ट्रांसफर करवा कर यहां आए हैं कि शायद शहर बदलने से ये कुछ सुधर जाएं, लेकिन कोई…’’ कहते हुए वे रोआंसी हो गईं.

हम उन की बात सुन कर अवाक रह गए. सोचने लगे कि इस से पहले न जाने

कितनी लड़कियों को उस ने बरबाद किया होगा. उस की पत्नी ने फिर कहना शुरू

किया, ‘‘अब मैं इन्हें माफ नहीं करूंगी. सजा दिलवा कर ही रहूंगी. चलो पुलिस

स्टेशन चलते हैं. इन को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप जैसी पत्नियां हों तो अपराध को बढ़ावा मिले ही नहीं. हमें आप पर गर्व है,’’ और फिर हम दोनों ननदभाभी उस की पत्नी के साथ पुलिस को ले कर बौस के पास उन के औफिस पहुंच गए.

पुलिस को और हम सब को देख कर वह हक्काबक्का रह गया. औफिस के सहकर्मी भी सकते में आ गए. उन में से एक लड़की भी आ कर हमारे साथ खड़ी हो गई. उस ने भी कहा कि उन्होंने उस के साथ भी दुर्व्यवहार किया है. पुलिस ने उन्हें अरैस्ट कर लिया. दीदी भावातिरेक में मेरे गले लग कर सिसकने लगीं. उन के आंसुओं ने सब कुछ कह डाला.

घर आ कर मैं ने सासससुर को कुछ नहीं बताया. पति से भी अबौर्शन वाली बात तो छिपा ली, मगर यह बता दिया कि वह दीदी को बहुत परेशान करता था.

सुनते ही उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और बोले, ‘‘वाह, मुझे तुम पर गर्व है. तुम ने मेरी बहन को किसी के चंगुल में फंसने से बचा लिया. बीवी हो तो ऐसी.,’’

उन की बात सुन कर हम ननदभाभी दोनों एकदूसरे को देख मुसकरा दीं.

Hindi Moral Tales : घुटघुट कर क्यों जीना

Hindi Moral Tales :  मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझ जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूडि़यां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

4 दिन बाद ही अचानक पवन ने काम पर जाना छोड़ दिया. कहने लगे कि मालिक ड्राइविंग के नाम पर सामान उठवाता है तो मैं काम नहीं करूंगा. एक हफ्ते अपने मांबाप के आगे गिड़गिड़ा कर पैसे मांगे और जब पैसे खत्म हो गए तो शुरू हुई हमारी लड़ाइयां.

‘मेरे पास पैसे नहीं हैं,’ पवन ने मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘अब तो मालकिन के दिए पैसे भी नहीं हैं मेरे पास,’ मैं ने जवाब दिया.

‘मैं खुद को बेच सकता तो बेच  देता, क्या करूं मैं…’ पवन की आंखों में आंसू थे.

‘घर खर्च के लिए पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ, मम्मीपापा दे देंगे हमें.’

‘बात वह नहीं है,’ पवन ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘फिर क्या बात है?’ मैं ने हैरानी  से पूछा.

‘वह… वह… मैं ने जुआ खेला है.’

‘जुआ…’ मैं तकरीबन चीख पड़ी.

‘हां, 10,000 रुपए हार गया मैं… कर्जदार आते ही होंगे. मुझे माफ कर दे पुष्पा, मुझे माफ कर दे. आज के बाद न मैं शराब पीऊंगा, न जुआ खेलूंगा, तेरी कसम.’

‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ मैं ने बेबस हो कर कहा.

‘तुम्हारे कुंडल और अंगूठी तो हैं.’

एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, लेकिन हैं तो वे मेरे पति ही, उन का कहा मैं कैसे झुठला सकती हूं. आखिर अब सिर पर परेशानी आई है तो बोझ भी तो दोनों को उठाना है. साथ भी तो दोनों को ही निभाना है.

मैं ने जिस खुशी से अपने कानों में वे कुंडल और उंगलियों में वे अंगूठियां पहनी थीं, उतने ही दुख से उन्हें उतार कर पवन के सामने रख दिया.

वे सुबह के घर से निकले थे, शाम को आए तो हाथ में मिठाई के 2 डब्बे थे. चाल डगमगाई हुई थी और मुंह से शराब की बू आ रही थी…

उस दिन पवन से जो मेरा विश्वास टूटा, वह शायद फिर कभी जुड़ नहीं पाया. मैं उन से कहती भी तो क्या… करती भी तो क्या… मेरी सुनने वाला था ही कौन.

शादी को 11 साल ही हुए थे और नमन और मीनू 10 और 8 साल के हो गए थे. पवन ने एक बार फिर काम करना शुरू तो कर दिया था, पर जो कमाते शराब और जुए में लुटा आते. मेरे हाथ में पैसों के नाम पर चंद रुपए आते जो बच्चों के लिए दूध लाने में निकल जाते.

मेरी सास कोठियों में बरतन मांजने का काम करती ही थीं, तो मैं ने सोचा कि मैं भी फिर यही काम करने लग जाती हूं. दोनों बच्चे स्कूल जाते और मैं काम पर. जिंदगी पवन के साथ कैसे बीत रही थी, यह तो नहीं पता, पर कैसे कट रही थी, यह अच्छी तरह पता था.

पवन के पिता ने अपनी गांव की जमीन बेच कर हमें दिल्ली में एक घर दिला दिया था. मैं ने काम करना भी छोड़ दिया. पवन ने पीना तो नहीं छोड़ा, पर कम जरूर कर दिया था. बच्चे भी नई जगह और नए माहौल में ढल गए थे.

हमारा गली के कोने में ही एक घर था. उस घर में रहने वाले मर्द कब पवन के दोस्त बन गए, पता नहीं चला. वे पवन के दोस्त बने तो उन की पत्नी मेरी दोस्त और उन के व हमारे बच्चे आपस में दोस्त बन गए.

वे लोग कुछ समय पहले तक बड़े गरीब थे. पर हाल के 2 सालों में उन के घर अच्छा खानापीना होने लगा. झुग्गी जैसा दिखने वाला घर अब मकान बन चुका था. वहीं दूसरी ओर पता नहीं क्यों, पर मेरे घर के हालात बिगड़ने लगे थे. पवन घर के खर्च में कटौती करने लगे थे. उन के और मेरे संबंध तो सामान्य थे, पर कुछ तो था जो अटपटा था.

एक दिन मैं गली की ही अपनी एक सहेली कमल की मम्मी के साथ बैठ कर मटर छील रही थी. हम दोनों यों ही अपनी बातों में लगी हुई थीं.

‘नमन की मम्मी, एक बात थी जो मैं कई दिनों से तुम्हें बताने के बारे में सोच रही हूं,’ कमल की मम्मी ने झिझकते हुए कहा.

‘हांहां, बोलो न, क्या हुआ?’

‘वह… मैं ने नमन के पापा को …वे उन के दोस्त हैं न जो कोने वाले घर में रहते हैं, वहां एक दिन पीछे से रात में जाते हुए देखा था.’

‘हां, तो किसी काम से गए होंगे.’

‘वह तो पता नहीं, पर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा. तुम अपनी हो तो सोचा बता दूं.’

मैं ने कमल की मम्मी की बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर वह बात मेरे दिमाग से निकल भी नहीं रही थी.

एक हफ्ता बीत गया, पर मुझे कुछ गड़बड़ नहीं लगी और पवन से सामने से कुछ भी पूछना मुझे सही नहीं लगा. आखिर पवन जैसे भी थे, बेवफा नहीं थे, धोखेबाज नहीं थे. वे मुझे इतना प्यार करते थे, मैं सपने में भी ऐसा कुछ नहीं सोच सकती थी.

अगली सुबह घर से निकलते वक्त पवन ने कहा कि वे रात को घर नहीं आएंगे, काम ज्यादा है औफिस में ही रुकेंगे.

रात के 2 बज रहे थे. बच्चे पलंग पर मेरे साथ ही सो रहे थे. मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैं उठी और मेरे पैर अपनेआप ही उस घर की तरफ मुड़ गए, जहां हमारे वे पड़ोसी रहते थे.

मैं घबराई, डर लग रहा था, पर मन में बारबार यही था कि जो मेरे दिमाग में है, वह बस सच न हो.

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,

पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया? मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझ से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

Latest Hindi Stories : ताजपोशी

Latest Hindi Stories : मम्मी की मृत्यु के बाद पिताजी बहुत अकेले हो गए थे, रचिता के साथ राहुल मेरठ पहुंचा, तेरहवीं के बाद बच्चों का स्कूल और अपने बैंक आदि की बात कह कर जाने की जुगत भिड़ाने लगा.

‘‘पापा, आप भी हमारे साथ इंदौर चलें,’’ रचिता ने कह तो दिया किंतु उस का दिल आधा था, इंदौर में उन का 3 कमरों का फ्लैट था, उस में पापा को भी रखना एक समस्या थी.

‘‘मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा,’’ पापा ने जब अपना अंतिम फैसला सुनाया तो उन की जान में जान आई.

‘‘लेकिन पापा तो अस्वस्थ हैं, वे अकेले कैसे रहेंगे?’’ रचिता के प्रश्न ने राहुल को कुछ सोचने पर विवश कर दिया. उसे ननिहाल की रजनी मौसी की याद आई जो विधवा थीं, उन की एक लड़की थी किंतु ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, भाईभावज ने भी खोजखबर न ली तो अपने परिश्रम से मजदूरी कर के अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने लगी.

राहुल ने ननिहाल में एक फोन किया और 2 दिन के अंदर रजनी मौसी मय पुत्री मेरठ हाजिर हो गईं, कृशकाय, अंदर को धंसी आंखों वाली रजनी मौसी के चेहरे पर नौकरी मिल जाने का नूर चमक रहा था, वे लगभग 40 वर्ष की मेहनतकश स्त्री थीं, बोलीं, ‘‘मैं आप की मां को दीदी कहा करती थी, रिश्ते में आप की मौसी हूं, इस घर को अपना मानूंगी और जीजाजी की सेवा में आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘आप चायनाश्ता बनाएंगी, खाना, दवा, देखभाल आप करेंगी, महरी बाकी झाड़ूपोछा, बरतन कर ही लेगी, पगार कितनी लेंगी?’’ रचिता ने पूछा.

‘‘मौसी भी कह रही हैं और पगार पूछ कर शर्मिंदा भी कर रही हैं. हम मांबेटी को खानेरहने का ठौर मिल गया और क्या चाहिए. जो आप की इच्छा हो दे दीजिएगा.’’

रचिता चुप हो गई, बात जितने कम में तय हो उतना अच्छा, राहुल के चेहरे पर भी संतोष था. उस का कर्तव्य था पापा की सेवा करना किंतु वह असमर्थ था, अब कोई मामूली रकम में उस कर्तव्य की भरपाई कर रहा था. पापा गमगीन थे. एक तो पत्नी का शोक, ऊपर से बेटाबहू, बच्चे सब जा रहे थे.

रचिता ने धीरे से राहुल के कान में कहा, ‘‘मम्मी की अलमारी में साडि़यां, जेवर व दूसरे कीमती सामान रखें हैं, पापा अब अकेले हैं. घर में बाहर के लोग भी रहेंगे. सो हमें उस की चाबी ले लेनी चाहिए.’’

‘‘पापा, अलमारी की चाबी कभी नहीं देंगे. अचानक तुम्हें जेवर, कपड़ों की चिंता क्यों होने लगी, धैर्य रखो, सब तुम्हें ही मिलेगा,’’ राहुल मुसकरा कर बोला.

बीचबीच में आने की बात कह कर राहुल, रचिता इंदौर रवाना हो गए, इंदौर में भी वे पापा, घर, अलमारी, बैंक के रुपयों, प्रौपर्टी की बातें करते रहते, उन्हें चिंता होती. चिंताग्रस्त हो कर वे फिर मेरठ रवाना हो गए, लगभग डेढ़ महीने में यह उन की दूसरी यात्रा थी.

घर के बाहर लौन साफसुथरा था, सारे पौधों में पानी डाला गया था, कई नए पौधे भी लगाए गए थे, दरवाजा खुलने पर रजनी मौसी ने मुसकराते हुए स्वागत किया, ‘‘आइए, आप का, फोन मिला था.’’

कुछ ही देर में मिठाई, पानी लिए फिर हाजिर हुईं, पूरा घर साफसुथरा सुव्यवस्थित था, उस की लड़की ने चाय बनाने से पहले सूचित किया, ‘‘बड़े साहब सो रहे हैं.’’

रचिता ने मांबेटी का निरीक्षण किया. दोनों ने बढि़या कपड़े पहने थे, बाल भी सुंदर तरीके से सेट थे, रजनी ने चूडि़यों, टौप्स के साथ बिंदी वगैरह भी लगाई हुई थी.

‘‘तुम्हारी मौसी का तो कायाकल्प हो गया,’’ रचिता फुसफुसाई.

‘‘भूखे, नंगे को सबकुछ मिलने लगेगा तो कायाकल्प तो होगा ही,’’ राहुल ने मुंह बना कर कहा.

दोनों असंतुष्टों की तरह चाय पीते पापा के जगने का इंतजार करते रहे. पापा को देख कर उन्हें और आश्चर्य हुआ. वे पहले से अधिक स्वस्थ और ताजादम लग रहे थे. पहले के झुकेझुके से पापा अब सीधे तन कर चल रहे थे. मम्मी के जाने के बाद हंसना भूल गए पापा ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी मिलने चले आए?’’

‘‘अब आप अकेले हो गए हैं तो हम ने सोचा…’’

‘‘अकेले कहां, रजनी है, उस की लड़की सरला है, उस को यहीं इंटर कालेज में डाल दिया है, शाम को एक घंटा पढ़ा दिया करता हूं, तेज है.’’

पापा सरला का गुणगान करते रहे फिर उसे पढ़ाने बैठ गए. रजनी मौसी सब के चाय, नाश्ते के बाद रात के खाने में जुट गईं. सबकुछ ठीक चल रहा था किंतु राहुल, रचिता असंतुष्ट मुखमुद्रा में बैठे थे. वे पापा के किसी काम नहीं आ पा रहे थे और अब उन को इन की कोई जरूरत भी नहीं रही.

रात को पापा सीरियल्स देखते हुए रजनी से उस के बारे में पूछताछ करते खूब हंसते रहे. सरला से पढ़ाई संबंधी बातें भी करते रहे, जीवन से निराश पापा को जीने की वजह मिल गई थी. रात में खाना खाते समय सब चुपचाप थे. खाना स्वादिष्ठ और मिर्चमसालेरहित था. रजनी मौसी एकएक गरम रोटी इसरार से खिलाती रहीं, अंत में खीर परोसी गई. पापा संतुष्ट एवं खुश थे. राहुल, रचिता संदेहास्पद दृष्टि से रजनी को घूर रहे थे. रात में टीवी कार्यक्रम की चर्चा रजनी और सरला से करते पापा कई बार बेटेबहू की उपस्थिति ही भूल गए, नातीपोतों का हालचाल भी नहीं पूछा. रात में सोते समय राहुल बोला, ‘‘यदि हम उसी समय अपने साथ पापा को ले चलते तो आज वे इस तरह मांबेटी में इनवौल्व न होते.’’

‘‘अरे, यहां क्या बुरा है, स्वस्थ हट्टेकट्टे हैं, खुश हैं, वहां 3 कमरों के डब्बे में कहां एडजस्ट करते इन्हें,’’ रचिता बोली.

‘‘तुम मूर्ख हो. तुम से बहस करना बेकार है. अब मामला हमारे हाथ से निकल रहा है. मुझे ही बात आगे बढ़ानी होगी.’’

‘‘बात क्या बढ़ाओगे?’’

‘‘अरे, तुम ही न कहती थीं इस बंगले को बेच कर इंदौर में अपने फ्लैट के ऊपर एक शानदार फ्लैट बनाओगी और बाकी रुपया बच्चों के नाम फिक्स कर दोगी?’’

‘‘हां, हां, लेकिन अब यह कहां संभव है?’’

‘‘अब पापा दिनप्रतिदिन स्वस्थ होते जा रहे हैं, उन की मृत्यु की प्रतीक्षा में तो हमारी उम्र बीत जाएगी, उन्हें इंदौर ले चलते हैं.’’

‘‘जैसा तुम उचित समझो, मैं एडजस्ट कर लूंगी,’’ रचिता बोली. उसे सास की अलमारी की भी चिंता थी जिस में कीमती गहने और अन्य महंगे सामान थे. उसे उन्हें देखनेभालने की प्रचुर इच्छा थी किंतु सासूमां के रहते इच्छा पूरी नहीं हुई और अब भी स्थितियां प्रतिकूल हो रही थीं.

अगले दिन दोनों ने रजनी मौसी का सेवाभाव देखा, नाश्ता, खाना, पापा के सारे कपड़े, बैडशीट, तौलिया आदि धोना, पापा के पूरे शरीर और सिर की जैतून की तेल से घंटेभर मालिश करना. उस दौरान पापा के चेहरे पर अपरिमित सुखशांति छाई रहती थी. तुरंत गुनगुने पानी से स्नान जिस में मौसी पूरी मदद करतीं. फिर उन का हलका नाश्ता करना यानी चपाती, सब्जी, ताजा मट्ठा आदि. किंतु रजनी मौसी ने राहुलरचिता के लिए अलग से देशी घी का हलवा और पोहा बनाया था, सब ने मजे ले कर खाया.

राहुल समझ गया था कि पापा के स्वास्थ्य में निरंतर सुधार का कारण क्या है, वह उन की इतनी सेवा कभी कर ही नहीं सकता था तब भी हिम्मत जुटा कर उस ने शब्दों द्वारा पापा को बांधने का प्रयास किया, ‘‘पापा, आप यहां कब तक दूसरों की दया पर निर्भर रहेंगे, हमारे साथ इंदौर चलिए, वहां नातीपोतों का साथ मिलेगा, सब साथ रहेंगे.’’

‘‘मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं हूं. रजनी काम करती है, उस का पैसा देता हूं. वहां तुम्हारा घर छोटा है, तुम लोग मुश्किल में पड़ जाओगे.’’

‘‘इसीलिए तो अपने फ्लैट के ऊपर एक और वैसा ही फ्लैट बनवाना चाहता हूं,’’ राहुल ने कहा.

‘‘बिलकुल बनवाओ,’’ पापा ने कहा.

‘‘इस बंगले को बेच कर जो रकम मिलती उसी से फ्लैट बनवाता यदि आप हम लोगों के साथ चल कर रहते.’’

‘‘मैं अपने जीतेजी यह बंगला नहीं बेचूंगा. तुम लोन ले कर अपने बलबूते पर फ्लैट बनवाओ. आखिर बैंक औफिसर हो, अच्छा कमाते हो?’’

‘‘लेकिन 2 घरों की देखभाल…’’

‘‘उस की चिंता तुम मत करो?’’

एक आशा खत्म होने पर राहुल व्यग्र हो गया, ‘‘कम से कम अलमारी की चाबी ही दे दीजिए, रचिता अपने साथ मम्मी के गहने और जेवर ले जाना चाहती है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी के पास कपड़ों, गहनों का अभाव तो नहीं है, कम से कम मेरे मरने की प्रतीक्षा करो.’’

राहुल, रचिता मायूस हो कर इंदौर लौट आए. रास्ते में रचिता बोली, ‘‘पापा कहीं रजनी मौसी से प्रेम का चक्कर तो नहीं चला रहे?’’

राहुल को रचिता की बातें स्तरहीन लगीं किंतु वह चुप रहा, अगली बार वे बच्चों सहित जल्दी ही मेरठ पहुंचे. वहां रजनी को मां की साड़ी और गले में सोने की जंजीर पहने देख उन्हें शक हुआ. अच्छे खानपान से शरीर भर गया था. वे सुंदर लग रही थीं, उन की लड़की अच्छी शिक्षादीक्षा के कारण संभ्रांत और सुरुचिपूर्ण लग रही थी.

‘‘आप में बड़ा परिवर्तन आया है रजनी मौसी?’’ राहुल बोला. उस वक्त पापा वहां न थे.

‘‘कैसा परिवर्तन, वैसी ही तो हूं,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा.

‘‘आप कामवाली कम, घरवाली ज्यादा लग रही हैं.’’

‘‘ऐसा कह कर पाप का भागी न बनाएं, हम तो मालिक की सेवा में प्राणपण एक किए रहते हैं. सो, कभीकभी इनाम मिल जाता है,’’ रजनी मौसी ने उन के घृणास्पद आक्षेप को भी अपनी विनम्रता से ढकने का प्रयास किया,

राहुलरचिता के ईर्ष्या, संदेह से दग्ध हृदय को तनिक राहत मिली, किंतु पापा राहुल की स्वार्थपूर्ण योजनाओं, प्रौपर्टी, धन, संपत्ति की बातों से चिढ़ गए. बोले, ‘‘बेटा, बाप की मृत्यु के बाद ही तो बेटे की ताजपोशी होती है. तू तो मेरे जीतेजी ही व्यग्र हुआ जा रहा है.’’

राहुल कैसे कहता जीर्णशीर्ण, कुम्हलाए पापा को रजनी मौसी अपने परिश्रम से दिनोंदिन स्वस्थ, प्रसन्न करती जा रही हैं. सो, दूरदूर तक उन की मृत्यु के आसार नजर नहीं आ रहे थे और उस के गाड़ीवाड़ी, बैंक बैलेंस आदि के सपने धराशायी हो गए थे. पापा के जीवित रहते ही उन्हें हथियाना चाह रहा था तो पापा के अडि़यल रवैये से वह सब संभव नहीं लग रहा था. रात के खाने के बाद साधारण बातचीत ने झगड़े का रूप ले लिया. राहुल अपनी असलियत पर उतर आया, बोला, ‘‘पापा, कहीं आप दूसरी शादी के चक्कर में तो नहीं हैं? यदि ऐसा है तो इस से शर्मनाक कुछ हो ही नहीं सकता.’’

पापा की बोलती बंद हो गई. वे हक्केबक्के इकलौते पुत्र का मुंह देखते रह गए लेकिन फिर जल्दी ही संभल गए, बोले, ‘‘आज तुझे अपना पुत्र कहते लज्जा का अनुभव होता है. एक निस्वार्थ स्त्री, जिस ने तेरे मरते हुए बाप को आराम और सुख के दो पल दिए, उसे तू ने गाली दी. साथ ही, अपने जन्मदाता को शर्मसार किया. मैं तुझे एक पल यहां बरदाश्त नहीं कर सकता. सुबह होते ही अपने परिवार सहित यहां से कूच कर जाओ. ऐसे पुत्र से तो निसंतान होना बेहतर है.’’

पापा के रुख को देख कर राहुल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. अगले ही दिन वे इंदौर लौट गए. फिर 1 वर्ष तक उस ने मेरठ का रुख नहीं किया. रजनी मौसी स्वयं फोन कर के पापा की खबर देती रहती थीं.

एक दिन पता चला, पापा बाथरूम में गिर गए हैं और उन के कूल्हे की हड्डी टूट गई है. राहुल एक दिन के लिए आया अवश्य किंतु कूल्हे की हड्डी के औपरेशन के कारण उन्हें हाई डोज एनीस्थीसिया दी गई थी, सो पापा से भेंट नहीं हुई. औपरेशन के बाद राहुल अगले ही दिन लौट आया, उस का एक वकील मित्र था मनमोहन, उस ने और रजनी मौसी ने बढ़चढ़ कर पापा की सेवा की इसलिए राहुल निश्ंिचत भी था. चूंकि मनमोहन पापा की प्रौपर्टी और धन की देखभाल करता था इसलिए राहुल उस से संपर्क बनाए रखता था.

पापा फिर बिस्तर से उठ नहीं पाए. वे बिस्तर के हो कर रह गए थे. रजनी, मनमोहन ने राहुल, रचिता को आने के लिए कहा किंतु उन्होंने बच्चों की परीक्षा और अन्य व्यस्तताओं का बहाना बनाया. अंत में उन्हें पापा की मृत्यु का समाचार मिला और राहुल, पत्नी व बच्चों सहित तुरंत मेरठ पहुंच गया.

वहां पिता के निस्पंद शरीर को देख कर उस की आंखों में आंसू नहीं आए. लोग रजनी मौसी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे कि उस ने जितनी पापा की सेवा की वह घर का सदस्य नहीं कर सकता था. किंतु राहुल कुछ सुन नहीं रहा था. एक अजीब सा भाव उस के मनमस्तिष्क और शरीर में छाया था, गुरुत्तर भाव, सबकुछ मेरा. मैं इस घर, खेतखलिहान, बैंकबैलेंस सब का मालिक. मेरे ऊपर कोई नहीं, जो इच्छा हो, करो. कोई डांटडपट, आदेश, अवज्ञा नहीं. राहुल को लगा कि वह सिंहासन पर बैठा है और उस की ताजपोशी हो रही है. यह एहसास नया नहीं था, एक पीढ़ी के गुजर जाने के बाद दूसरी पीढ़ी के ‘बड़े’ को यह ‘सत्तासुख’ हमेशा ही ऐसा आनंदित करता है. तब बच्चे बुजुर्गों की मृत्यु से दुख नहीं वरन संतोष का अनुभव करते हैं. अचानक उस की वक्रदृष्टि रजनी मौसी पर पड़ी, उस ने धीरे किंतु विषपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘तेरहवीं के बाद तुम मांबेटी को मैं एक क्षण यहां नहीं देखना चाहता.’’

इस तरह पिता की मृत देह की उपस्थिति में उस ने रजनी मौसी, जिस ने उस के और रचिता के कर्तव्यों का बखूबी निर्वाह किया था, का पत्ता काट दिया. मनमोहन ने कुछ बोलने का प्रयास किया किंतु उस ने इशारों से उसे चुप करा दिया. वह अंतिम संस्कार के पूर्व किसी प्रकार का ‘तमाशा’ नहीं चाहता था, रजनी चुपचाप रोती रहीं.

अंतिम संस्कार के बाद राहुल की महत्ता जैसे और बढ़ गई. पिता को मुखाग्नि दे कर वह समाज के संभ्रांत लोगों के बीच बैठा दीनदुनिया की बातें करता रहा. उन के जाते ही उस के भीतर शांत बैठा परिवार का मुखिया फिर जाग गया. वह मनमोहन से पिता की संपत्ति का ब्यौरा लेने लगा और रजनी मौसी को अगले ही दिन जाने का आदेश सुना दिया. मनमोहन ने उसे समझाया, ‘‘राहुल, रुक जाओ, तेरहवीं तो हो जाने दो.’’

‘‘बिलकुल नहीं, तुम्हें नहीं पता इस स्त्री के कारण ही मेरे पिता मुझ से दूर हो गए, मुझे अंतिम समय कुछ न कर पाने का पितृकर्ज चढ़ गया.’’

‘‘किंतु रजनी मौसी ने अथक परिश्रम तो किया. तो कम से कम तेरहवीं की रस्म…’’

‘‘कैसी तेरहवीं? उस के लिए हम फिर आएंगे, इतनी लंबी छुट्टी न मुझे मिलेगी न बच्चों को स्कूल से, पर उस के पूर्व मैं घर लौक कर के जाऊंगा, लौकर से गहने निकलवा लूंगा, रुपए अपने खाते में ट्रांसफर करवा लूंगा, घर, अलमारी के कीमती सामान ठिकाने लगा दूंगा.’’

‘‘किंतु तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

‘‘अच्छा, भला कौन रोकेगा मुझे?’’

‘‘तुम्हारे पिता की वसीयत. उन्होंने तेरहवीं के दिन मुझ से वसीयत पढ़ने को कहा था. किंतु तुम्हारी जल्दबाजी के कारण आज ही मुझे तुम को बताना है कि यह घर वे रजनी मौसी के नाम कर गए हैं, बैंक के रुपयों का 50 प्रतिशत वे किसी अनाथाश्रम को दे कर गए हैं और बाकी 50 प्रतिशत तुम्हारे बच्चों के नाम कर गए हैं जो उन्हें बालिग होने पर मिलेगा. अलमारी और लौकर के जेवर वे तुम्हारी पत्नी को दे कर गए हैं.’’

राहुल के पैरों तले जमीन खिसक गई, वह विस्मय से मुंह खोले मनमोहन को ताकता रहा.

‘‘स्त्रीपुरुष का केवल एक ही रिश्ता नहीं होता, तुम ने उन पर, एक वृद्ध व्यक्ति पर चरित्रहीनता का आक्षेप लगा कर अंतिम समय में उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया जिस का तुम्हें पश्चात्ताप करना होगा,’’ मनमोहन ने अपनी वाणी को विराम दिया और उसे हिकारत से देखते हुए चला गया, सिसकसिसक कर रोती रजनी के सामने आंखें उठाने की हिम्मत नहीं रह गई थी राहुल में, वह वैसे ही सिर झुकाए बैठा रह गया.

Hindi Kahaniyan : किराएदार

Hindi Kahaniyan : ‘‘बस, यों समझो कि मकान जो खाली पड़ा था, तुम ने किराए पर उठा दिया है,’’ डाक्टर उसे समझा रही थी, लेकिन उस की समझ से कहीं ऊपर की थीं डाक्टर की बातें, सो वह हैरानी से डाक्टर का चेहरा देखने लगी थी.

‘‘और तुम्हें मिल जाएगा 3 या 4 लाख रुपया. क्यों, ठीक है न इतनी रकम?’’

वह टकटकी लगाए देखती रही, कुछ कहना चाहती थी पर कह न सकी, केवल होंठ फड़फड़ा कर रह गए.

‘‘हां, बोलो, कम लगता है? चलो, पूरे 5 लाख रुपए दिलवा दूंगी, बस. आओ, अब जरा तुम्हारा चैकअप कर लूं.’’

खिलाखिला चेहरा और कसी देहयष्टि. और क्या चाहिए था डा. रेणु को. उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता दिखाई देने लगी.

अस्पताल से घर तक का रास्ता तकरीबन 1 घंटे का रहा होगा. पर यह फासला उस के कदमों ने कब और कैसे नाप लिया, पता ही न चला. वह तो रास्तेभर सपने ही देखती आई. सपना, कि पक्का घर हो जहां आंधीतूफानवर्षा में घोंसले में दुबके चूजों की तरह उस का दिल कांपे न. सपना, कि जब बेटी सयानी हो तो अच्छे घरवर के अनुरूप उस का हाथ तंग न रहे. सपना, कि उस के मर्द का भी कोई स्थायी रोजगार हो, दिहाड़ी का क्या ठिकाना? कभी हां, कभी ना के बीच दिखाई देते कमानेखाने के लाले न पड़ें.

भीतर कदम रखते ही देसी शराब का भभका बसंती के नथुनों से टकराया तो दिमाग चकरा गया, ‘‘आज फिर चढ़ा ली है क्या? तुम्हें तो बहाना मिलना चाहिए, कभी काम मिलने की खुशी तो कभी काम न मिलने का गम.’’

‘‘कहां से आ रही है छम्मकछल्लो, हुंह? और तेरी ये…तेरी मुट्ठी में क्या भिंचा है, री?’’

एकबारगी उस ने मुट्ठी कसी और फिर ढीली छोड़ दी. नोट जमीन पर फैल गए. चंदू ऐसे लपका जैसे भूखा भेडि़या.

‘‘हजारहजार के नोट? 1,2,3,4 और यह 5…यानी 5 हजार रुपए? कहां से ले आई? कहां टांका फिट करा के आ रही है?’’

उस ने गहरी नजरों से बसंती को नीचे से ऊपर तक निहारा. फिर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल. तू बताती है कि मैं बताऊं, कहां से आई इतनी रकम?’’

‘‘डाक्टरनी मैडम ने दिए हैं.’’

‘‘क्या, क्या? पगला समझा है क्या? डाक्टर लोग तो रुपए लेते हैं, देने कब से लगे, री? तू मुझे बना रही है…मुझे? ये झूठी कहानी कोई और सुन सकता है, मैं नहीं. मुझे तो पहले ही शक था कि कोई न कोई चक्कर जरूर चला रखा है तू ने. कहीं वह लंबू ठेकेदार तो नहीं?’’

उस ने एक ही सांस में पूरी बोतल गटक ली, ‘‘मैं नहीं छोड़ूंगा. तुझे भी और उसे भी. किसी को नहीं,’’ कहते- कहते वह लड़खड़ा कर सुधबुध खो बैठा.

पूरी रात उधेड़बुन में बीती. बसंती सोचती रही कि वह किस दोराहे पर आ खड़ी हुई है. एक तरफ उस का देहधर्म है तो दूसरी ओर पूरे परिवार का सुनहरा भविष्य. और इन दोनों के बीच उस का दिल रहरह कर धड़क उठता कि आखिर कैसे वह किसी अनजान चीज को अपने भीतर प्रवेश होने देगी? पराए बीज को अपनी धरती में सिंचित करना. और फिर फसल बेगानों को सौंप देना. समय आने पर घर कर चुके किराएदार को अपने हाड़मांस से विलग कर सकेगी? अपने और पराए का फर्क क्या उस की कोख को स्वीकार्य होगा? अनुत्तरित प्रश्नों से लड़तीझगड़ती बसंती ने अपने और चंदू के बीच दीवार बना दी. सुरूर में जबजब चंदू ने कोशिश की तो तकिया ही हाथ आया. बसंती भावनाओं में बह कर सुनहरे सपनों को चकनाचूर नहीं होने देना चाहती थी. अलगाव की उम्र भी बरसभर से कम कहां होगी?

अपने मर्द के साथ बसंती ने डा. रेणु के क्लीनिक में प्रवेश किया तो डा. रेणु का चेहरा खिल उठा. डाक्टर ने परिचय कराया, ‘‘दिस इज बसंती…योर बेबीज सेरोगेट,’’ और फिर बसंती से मुखातिब हो कहने लगी, ‘‘ये ही वे ब्राउन दंपती हैं जिन्हें तुम दोगी हंसताखेलता बच्चा. तुम्हारी कोख से पैदा होने वाले बच्चे के कानूनी तौर पर मातापिता ये ही होंगे.’’

डाक्टर, बसंती के आगे सारी बातें खोल देना चाहती थी, ‘‘बच्चे से तुम्हारा रिश्ता जन्म देने तक रहेगा. बच्चा पैदा होने से अगले 3 महीने तक यानी अब से पूरे 1 साल तक का बाकायदा ऐग्रीमैंट होगा. जिस में ये सभी शर्तें दर्ज होंगीं. तुम्हारी हर जरूरत का खयाल ये रखेंगे और इन की जरूरत की हिफाजत तुम्हें करनी होगी. अपने से ज्यादा बच्चे की हिफाजत. समझ गईं न? कोई लापरवाही नहीं. सोनेजागने से खानेपीने तक मेरे परामर्श में अब तुम्हें रहना है और समयसमय पर चैकअप के लिए आना होगा. जरूरत पड़ी तो अस्पताल में ही रहना होगा.’’

डाक्टर की हर बात पर बसंती का सिर हिलाना चंदू को कुछ जंचा नहीं. वह बुदबुदाया, ‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल,’ और वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘ये सब नहीं होगा, कहे देते हैं. इतने में तो बिलकुल नहीं, हां. यह तो सरासर गिरवी रखना हुआ न. तिस पर वो क्या कहा आप ने, हां किराएदार. पूरे एक बरस दीवार बन कर नहीं खड़ा रहेगा हम दोनों के बीच? आखिर कितना नुकसान होगा हमें, हमारे प्यार को, सोचा आप ने? इतने में नहीं, बिलकुल भी नहीं. डबल लगेगा, डबल. हम कहे देते हैं, मंजूर हो तो बोलो. नहीं तो ये चले, उठ बसंती, उठ.’’

‘‘हो, हो, ह्वाट ही से, ह्वाट? टेल मी?’’ ब्राउन ने जानने की उत्कंठा जाहिर की. डाक्टर को खेल बिगड़ता सा लगा तो वह ब्राउन की ओर लपकी, ‘‘मनी, मनी, मोर मनी, दे वांटेड.’’

‘‘हाऊमच?’’

‘‘डबल, डबल मनी वांटेड.’’

‘‘ओके, ओके. टैन लैख, आई एग्री. नथिंग मोर फौर अ बेबी. यू नो डाक्टर, इट इज मच चीपर दैन अदर कंट्रीज. टैन, आई एग्री,’’ ब्राउन ने दोनों हाथों की दसों उंगलियां दिखाते हुए चंदू को समझाने की कोशिश की और कोट की जेब से 50 हजार रुपए की गड्डी निकाल कर मेज पर पटक दी.

शुरूशुरू में तो बसंती को जाने  कैसाकैसा लगता रहा. एक लिजलिजा एहसास हर समय बना रहता. मानो, कुछ ऐसा आ चिपका है भीतर, जिसे नोच फेंकने की इच्छा हर पल होती. लेकिन बिरवे ने जाने कब जड़ें जमानी शुरू कर दीं कि उसे पता ही नहीं चला. अब पराएपन का एहसास मानो जाता रहा. सबकुछ अपनाअपना सा लगने लगा. डाक्टर ने पुष्टि कर दी कि उस के बेटा ही होगा तब से उसे अपनेआप पर अधिक प्यार आने लगा था.

लेकिन कभीकभी रातें उसे डराने लगी थीं. वह सपनों से चौंकचौंक जाती कि दूर कहीं जो बच्चा रो रहा है, वह उस का अपना बच्चा है. बिलखते बच्चे को खोजती वह जंगल में निकल जाती, फिर पहाड़ और नदीनालों को लांघती सात समुंदर पार निकल जाती. फिर भी उसे बच्चा दिखाई नहीं देता. लेकिन बच्चे का रुदन उस का पीछा नहीं छोड़ता और अचानक उस की नींद खुल जाती. तब अपनेआप जैसे वह निर्णय कर बैठती कि नहीं, वह बच्चा किसी को नहीं देगी, किसी भी कीमत पर नहीं.

सचाई यही है कि वह बच्चे की मां है. बच्चे को जन्म उसी ने दिया है, बच्चे का बाप चाहे कोई हो. उस का मन उसे दलीलें देता है कि एक बच्चे को अपनी मां से कोई छीन ले, अलग कर दे, ऐसा कानून धरती के किसी देश और अदालत का नहीं हो सकता. लिहाजा, बच्चा उसी के पास रहेगा. यदि फिर भी कुछ ऐसावैसा हुआ तो वह बच्चे को ले कर छिप जाएगी. ऐसेवैसे जाने कैसेकैसे सच्चेझूठे विचार उस का पीछा नहीं छोड़ते. और वह पैंडुलम की तरह कभी बच्चा देने और कभी न देने के निर्णय के बीच झूलती रहती.

आज और कल करतेकरते आखिर वह उन घडि़यों से गुजरने लगी जब कोई औरत जिंदगी और मौत की देहरी पर होती है. तब जब कोई मां अपने होने वाले बच्चे के जीवन की अरदास करती है, दुआ मांगती है कि या तो उस का बच्चा उस से दूर न होने पाए या फिर बच्चा मरा हुआ ही पैदा हो ताकि उस के शरीर का अंश उसी के देश और धरती में रहे, दफन हो कर भी. उस के न होने का विलाप वह कर लेगी…लेकिन…लेकिन देशदुनिया की इतनी दूरी वह कदापि नहीं सह सकेगी कि उम्रभर उस का मुंह भी न देख सके.

बेहोश होतेहोते उस के कान इतना सुनने में समर्थ थे कि ‘केस सीरियस हो रहा है. मां और बच्चे में से किसी एक को ही बचाया जा सकेगा. औपरेशन करना होगा, अभी और तुरंत.’

उस की आंख खुली तो नर्स ने गुडमौर्निंग कहते हुए बताया कि 10 दिन की लंबी बेहोशी के बाद आज वह जागी है. नर्स ने ही बताया कि उस ने बहुत सुंदरसलोने बेटे को जन्म दिया है. चूंकि उस का सीजेरियन हुआ है इसलिए उसे अभी कई दिन और करवट नहीं लेनी है.

‘‘बच्चा कैसा दिखता है?’’ उस ने पूछा तो नर्स उसे इंजैक्शन देती हुई कहने लगी, ‘‘नीली आंखों और गोल चेहरे वाला वह बच्चा सब के लिए अजूबा बना रहा. डाक्टर कह रही थी कि बच्चे की आंखें बाप पर और चेहरा मां पर गया है.

इंजैक्शन का असर था कि उस की आंखें फिर मुंदने लगी थीं. उस ने पास पड़े पालने में अपने बच्चे को टटोलना चाहा तो उसे लगा कि पालना खाली है. पालने में पड़े कागज को उठा कर उस ने अपनी धुंधलाती आंखों के सामने किया. चैक पर 9 लाख 45 हजार रुपए की रकम दर्ज थी.

शिथिल होते उस के हाथ से फिसल कर चैक जमीन पर आ गिरा और निद्रा में डूबती उस की पलकों से दो आंसू ढलक गए.

Famous Hindi Stories : आप कौन हैं सलाह देने वाले

Famous Hindi Stories :  अभी उस दिन एक बहुत पुरानी मित्र बाजार में मिल गई. हम दोनों अंबाला में साथसाथ रहे थे. पता चला, पिछले दिनों उन का तबादला भी इसी शहर में हो गया है.

उस दिन बाजार में भीड़भाड़ कुछ कम थी. मुझे देखते ही मीना सड़क के किनारे खींच ले गई और न जाने कितना सब याद करती रही. हम दोनों कुछ बच्चों की, कुछ घर की और कुछ अपनी कहतेसुनते रहे.

‘‘आप की बहुत याद आती थी मुझे,’’ मीना बोली, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखा था मैं ने…याद है जब एक रात मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी तब आप ने कैसे संभाला था मुझे.’’

‘‘मैं बीमार पड़ जाती तो क्या तुम न संभालतीं मुझे. जीवन तो इसी का नाम है. इतना तो होना ही चाहिए कि मरने के बाद कोई हमें याद करे…आज तुम किसी का करो कल कोई तुम्हारा भी करेगा.’’

मेरा हाथ कस कर पकड़े थी मीना. उम्र में मुझ से छोटी थी इसलिए मैं सदा उस का नाम लेती थी. वास्तव में कुछ बहुत ज्यादा खट्टा था मीना के जीवन में जिस में मैं उस के साथ थी.

‘‘याद है दीदी, वह लड़की नीता, जिस ने बुटीक खोला था. अरे, जिस ने आप से सिलाई सीखी थी. बड़ी दुआएं देती है आप को. कहती है, आप ने उस की जिंदगी बना दी.’’

याद आया मुझे. उस के पति का काम कुछ अच्छा नहीं था इसलिए मेरी एक क्लब मेंबर ने उसे मेरे पास भेजा था. लगभग 2 महीने उस ने मुझ से सिलाई सीखी थी. उस का काम चला या नहीं मुझे पता नहीं, क्योंकि उसी दौरान पति का तबादला हो गया था. वह औरत जब आखिरी बार मेरे पास आई थी तो हाथों में कुछ रुपए थे. बड़े संकोच से उस ने मेरी तरफ यह कहते हुए बढ़ाए थे:

‘दीदी, मैं ने आप का बहुत समय लिया है. यह कुछ रुपए रख लीजिए.’

‘बस, तुम्हारा काम चल जाए तो मुझे मेरे समय का मोल मिल जाएगा,’ यह कहते हुए मैं ने उस का हाथ हटा दिया था.

सहसा कितना सब याद आने लगा. मीना कितना सब सुनाती रही. समय भी तो काफी बीत चुका न अंबाला छोड़े. 6 साल कम थोड़े ही होते हैं.

‘‘तुम अपना पता और फोन नंबर दो न,’’ कह कर मीना झट से उस दुकान में चली गई जिस के आगे हम दोनों घंटे भर से खड़ी थीं.

‘‘भैया, जरा कलमकागज देना.’’

दुकानदार हंस कर बोला, ‘‘लगता है, बहनजी कई साल बाद आपस में मिली हैं. घंटे भर से मैं आप की बातें सुन रहा हूं. आप दोनों यहां अंदर बेंच पर बैठ जाइए न.’’

क्षण भर को हम दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं. क्या हम इतना ऊंचाऊंचा बोल रही थीं. क्या बुढ़ापा आतेआते हमें असभ्य भी बना गया है? मन में उठे इन विचारों को दबाते हुए मैं बोली, ‘‘क्याक्या सुना आप ने, भैयाजी. हम तो पता नहीं क्याक्या बकती रहीं.’’

‘‘बकती नहीं रहीं बल्कि आप की बातों से समझ में आता है कि जीवन का अच्छाखासा निचोड़ निकाल रखा है आप ने.’’

‘‘क्या निचोड़ नजर आया आप को, भाई साहब,’’ सहसा मैं भी मीना के पीछेपीछे दुकान के अंदर चली गई तो वह अपने स्टूल पर से उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘आइए, बहनजी. अरे, छोटू…जा, जा कर 2 चाय ला.’’

पल भर में लगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं. अब इस उम्र तक पहुंचतेपहुंचते नजर पढ़ना तो आ ही गया है मुझे. सहसा मेरी नजर उस स्टूल पर पड़ी जिस पर वह दुकानदार बैठा था. एक सवा फुट के आकार वाले स्टूल पर वह भारीभरकम शरीर का आदमी कैसे बैठ पाता होगा यही सोचने लगी. इतनी बड़ी दुकान है, क्या आरामदायक कोई कुरसी नहीं रख सकता यह दुकानदार? तभी एक लंबेचौड़े लड़के ने दुकान में प्रवेश किया. मीना कागज पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखती रही और मैं उस ऊंचे और कमचौड़े स्टूल को ही देखती रही जिस पर अब उस का बेटा बैठने जा रहा था.

‘‘नहीं भैयाजी, चाय मत मंगाना,’’ मीना मना करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी हम बहुत देर से आप के कान पका रहे हैं.’’

‘‘बेटा, तुम इस इतने ऊंचे स्टूल पर क्या आराम से बैठ पाते हो? कम से कम 12 घंटे तो तुम्हारी दुकान खुलती ही होगी?’’ मेरे होंठों से सहसा यह निकल गया और इस के उत्तर में वह दुकानदार और उस का बेटा एकदूसरे का चेहरा पढ़ने लगे.

‘‘तुम्हारी तो कदकाठी भी अच्छी- खासी है. एक 6 फुट का आदमी अगर इस ऊंचे और छोटे से स्टूल पर बैठ कर काम करेगा तो रीढ़ की हड्डी का सत्यानाश हो जाएगा…शरीर से बड़ी कोई दौलत नहीं होती. इसे सहेजसंभाल कर इस्तेमाल करोगे तो वर्षों तुम्हारा साथ देगा.’’

बेटे ने तो नजरें झुका लीं पर बाप बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगा.

‘‘मेरे पिताजी भी इसी स्टूल पर पूरे 50 साल बैठे थे उन की पीठ तो नहीं दुखी थी.’’

‘‘उन की नहीं दुखी होगी क्योंकि वह समय और था, खानापीना शुद्ध हुआ करता था. आज हम हवा तक ताजा नहीं ले पाते. खाने की तो बात ही छोडि़ए. हमारे जीने का तरीका वह कहां है जो आप के पिताजी का था. मुझे डर है आप का बेटा ज्यादा दिन इस ऊंचे स्टूल पर बैठ कर काम नहीं कर पाएगा. इसलिए आप इस स्टूल की जगह पर कोई आरामदायक कुरसी रखिए.’’

मैं और मीना उस दुकान पर से उतर आए और जल्दी ही पूरा प्रसंग भूल भी गए. पता नहीं क्यों जब भी कहीं कुछ असंगत नजर आता है मैं स्वयं को रोक नहीं पाती और अकसर मेरे पति मेरी इस आदत पर नाराज हो जाते हैं.

‘‘तुम दादीअम्मां हो क्या सब की. जहां कुछ गलत नजर आता है समझाने लगती हो. सामने वाला चाहे बुरा ही मान जाए.’’

‘‘मान जाए बुरा, मेरा क्या जाता है. अगर समझदार होगा तो अपना भला ही करेगा और अगर नहीं तो उस का नुकसान वही भोगेगा. मैं तो आंखें रहते अंधी नहीं न बन सकती.’’

अकसर ऐसा होता है न कि हमारी नजर वह नहीं देख पाती जो सामने वाली आंख देख लेती है और कभीकभी हम वह भांप लेते हैं जिसे सामने वाला नहीं समझ पाता. क्या अपना अहं आहत होने से बचा लूं और सामने वाला मुसीबत में चला जाए? प्रकृति ने बुद्धि दी है तो उसे झूठे अहं की बलि चढ़ जाने दूं?

‘‘क्या प्रकृति ने सिर्फ तुम्हें ही बुद्धि दी है?’’

‘‘मैं आप से भी बहस नहीं करना चाहती. मैं किसी का नुकसान होता देख चुप नहीं रह सकती, बस. प्रकृति ने बुद्धि  तो आप को भी दी है जिस से आप बहस करना तो पसंद करते हैं लेकिन मेरी बात समझना नहीं चाहते.’’

मैं अकसर खीज उठती हूं. कभीकभी लगने भी लगता है कि शायद मैं गलत हूं. कभी किसी को कुछ समझाऊंगी नहीं मगर जब समय आता है मैं खुद को रोक नहीं पाती हूं.

अभी उस दिन प्रेस वाली कपड़े लेने आई तो एक बड़ी सी गठरी सिर पर रखे थी. अपने कपड़ों की गठरी उसे थमाते हुए सहसा उस के पेट पर नजर पड़ी. लगा, कुछ है. खुद को रोक ही नहीं पाई मैं. बोली, ‘‘क्यों भई, कौन सा महीना चल रहा है?’’

‘‘नहीं तो, बीबीजी…’’

‘‘अरे, बीबीजी से क्यों छिपा रही है? पेट में बच्चा और शरीर पर इतना बोझ लिए घूम रही है. अपनी सुध ले, अपने आदमी से कहना, तुझ से इतना काम न कराए.’’

टुकुरटुकुर देखती रही वह मुझे. फिर फीकी सी हंसी हंस पड़ी.

‘‘पूरी कालोनी घूमती हूं, किसी ने इतना नहीं समझाया और न ही किसी को मेरा पेट नजर आया तो आप को कैसे नजर आ गया?’’

पता नहीं लोग देख कर भी क्यों अंधे बन जाते हैं या हमारी संवेदनाएं ही मर गई हैं कि हमें किसी की पीड़ा, किसी का दर्द दिखाई नहीं देता. ऐसी हालत में तो लोग गायभैंस पर भी तरस खा लेते हैं यह तो फिर भी जीतीजागती औरत है. कुछ दिन बाद ही पता चला, उस के घर बेटी ने जन्म लिया. धन्य हो देवी. 9 महीने का गर्भ कितनी सहजता से छिपा रही थी वह प्रेस वाली.

मैं ने हैरानी व्यक्त की तो पति हंसते हुए बोले, ‘‘अब क्या जच्चाबच्चा को देखने जाने का भी इरादा है?’’

‘‘वह तो है ही. सुना है पीछे किसी खाली पड़ी कोठी में रहती है. आज शाम जाऊंगी और कुछ गरम कपड़े पड़े हैं, उन्हें दे आऊंगी. सर्दी बढ़ रही है न, उस के काम आ जाएंगे.’’

‘‘नमस्कार हो देवी,’’ दोनों हाथ जोड़ मेरे पति ने अपने कार्यालय की राह पकड़ी.

मुझे समझ में नहीं आया, मैं कहां गलत थी. मैं क्या करूं कि मेरे पति भी मुझे समझने का प्रयास करें.

कुछ दिन बाद एक और समस्या मेरे सामने चली आई. इन के एक सहयोगी हैं जो अकसर परिवार सहित हमारे घर आते हैं. 1-2 मुलाकातों में तो मुझे पता नहीं चला लेकिन अब पता चल रहा है कि जब भी वह हमारे घर आते हैं, 1 घंटे में लगभग 4-5 बार बाथरूम जाते हैं. बारबार चाय भी मांगते हैं.

बाथरूम जाना या चाय मांगना मेरी समस्या नहीं है, समस्या यह है कि उन के जाने के बाद हमारा बाथरूम चींटियों से भर जाता है. सफेद बरतन एकदम काला हो जाता है. हो न हो इन्हें शुगर हो. पति से अपने मन की बात बता कर पूछ लिया कि क्या उन से इस बारे में बात करूं?

‘‘खबरदार, हर बात की एक सीमा होती है. किसी के फटे में टांग मत डाला करो. मैं ने कह दिया न.’’

‘‘एक बार तो पूछ लो,’’ मन नहीं माना तो पति से जोर दे कर बोली, ‘‘शुगर के मरीज को अकसर पता नहीं चलता कि उसे शुगर है और बहुत ज्यादा शुगर बढ़ जाए तभी पेशाब में आती है. क्या पता उन्हें पता ही न हो कि उन्हें शुगर हो चुकी है.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है और तुम ज्यादा डाक्टरी मत झाड़ो. दुनिया में एक तुम ही समझदार नहीं हो.’’

‘‘उन्हें कुछ हो गया तो… देखो उन के छोटेछोटे बच्चे हैं और कुछ हो गया तो क्या होगा? क्या उम्र भर हम खुद को क्षमा कर पाएंगे?’’

अपने पति से जिद कर मैं एक दिन जबरदस्ती उन के घर चली गई. बातोंबातों में मैं ने उन के बाथरूम में जाने की इच्छा व्यक्त की.

‘‘क्या बताऊं, दीदी, हमारा बाथरूम साफ होता ही नहीं. इतनी चींटी हैं कि क्या कहूं इतना फिनाइल डालती हूं कि पूछो मत.’’

‘‘आप के घर में किसी को शुगर तो नहीं है न?’’

‘‘नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?’’

अवाक् रह गई थी वह. धीरे से अपनी बात कह दी मैं ने. रो पड़ी वह. मैं ने कहा तो मानो उसे भी लगने लगा कि शायद घर में किसी को शुगर है.

‘‘हां, तभी रातरात भर सो नहीं पाते हैं. हर समय टांगें दबाने को कहते हैं. बारबार पानी पीते हैं… और कमजोर भी हो रहे हैं. दीदी, कभी खयाल ही नहीं आया मुझे. हमारे तो खानदान में कहीं किसी को शुगर नहीं है.’’

उसी पल मेरे पति उन को साथ ले कर डाक्टर के पास गए. रक्त और पेशाब की जांच की. डाक्टर मुंहबाए उसे देखने लगा.

‘‘इतनी ज्यादा शुगर…आप जिंदा हैं मैं तो इसी पर हैरान हूं.’’

वही हो गया न जिस का मुझे डर था. उसी क्षण से उन का इलाज शुरू हो गया. मेरे पति उस दिन के बाद से मुझ से नजरें चुराने से लगे.

‘‘आप न बतातीं तो शायद मैं सोयासोया ही सो जाता…आप ने मुझे बचा लिया, दीदी,’’ लगभग मेरे पैर ही छूने लगे वह.

‘‘बस…बस…अब दीदी कहा है तो तुम्हारा नाम ही लूंगी…देखो, अपना पूरापूरा खयाल रखना. सदा सुखी रहो,’’ मैं उसे आशीर्वाद के रूप में बोली और अपने पति का चेहरा देखा तो हंसने लगे.

‘‘जय हो देवी, अब प्रसन्न हो न भई, तुम्हारा इलाज हफ्ता भर पहले भी शुरू हो सकता था अगर मैं देवीजी की बात मान लेता. आज भी यह जिद कर के लाई थीं. मेरा ही दोष रहा जो इन का कहा नहीं माना.’’

उस रात मैं चैन की नींद सोई थी. एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि उन पर मैं कोई कृपा, कोई एहसान कर के लौटी हूं. बस, इतना ही लग रहा था कि अपने भीतर बैठे अपने चेतन को चिंतामुक्त कर आई हूं. कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा आई हूं.

अगले दिन सुबहसुबह दरवाजे पर एक व्यक्ति को खड़ा देखा तो समझ नहीं पाई कि इन्हें कहां देखा है. शायद पति के जानकार होंगे. उन्हें भीतर बिठाया. पता चला, पति से नहीं मुझ से मिलने आए हैं.

‘‘कौन हैं यह? मैं तो इन्हें नहीं जानती,’’ पति से पूछा.

‘‘कह रहे हैं कि वह तुम्हें अच्छी तरह पहचानते हैं और तुम्हारा धन्यवाद करने आए हैं.’’

‘‘मेरा धन्यवाद कैसा?’’ मैं कुछ याद करते हुए पति से बोली, ‘‘हां, कहीं देखा तो लग रहा है लेकिन याद नहीं आ रहा,’’ रसोई का काम छोड़ मैं हाथ पोंछती हुई ड्राइंगरूम में चली आई. प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखा.

‘‘बहनजी, आप ने पहचाना नहीं. चौक पर मेरी दुकान है. कुछ समय पहले आप और आप की एक सखी मेरी दुकान के बाहर…’’

‘‘अरे हां, याद आया. मैं और मीना मिले थे न,’’ पति को बताया मैं ने.

‘‘कहिए, मेरा कैसा धन्यवाद?’’

‘‘उस दिन आप ने मेरे बेटे से कहा था न कि वह ऊंचे स्टूल पर न बैठे. दरअसल, उसी सुबह वह पीठ दर्द की वजह से 7 दिन अस्पताल रह कर ही लौटा था. डाक्टरों ने भी मुझे समझाया था कि उस स्टूल की वजह से ही सारी समस्या है.’’

‘‘हां तो समस्या क्या है? आप कुरसी नहीं खरीद सकते क्या?’’

‘‘कुरसी तो लड़का 6 महीने पहले ही ले आया था, जो गोदाम में पड़ी सड़ रही है. मैं ही जिद पर अड़ा था कि वह स्टूल वहां से न हटाया जाए. वह मेरे पिताजी का स्टूल है और मुझे वहम ही नहीं विश्वास भी है कि जब तक वह स्टूल वहां है तब तक ही मेरी दुकान सुरक्षित है. जिस दिन स्टूल हट गया लक्ष्मी भी हम से रूठ जाएगी.’’

हम दोनों अवाक् से उस आदमी का मुंह देखते रहे.

‘‘मेरा बच्चा रोतापीटता रहा, मेरी बहू मेरे आगे हाथपैर जोड़ती रही लेकिन मैं नहीं माना. साफसाफ कह दिया कि चाहो तो घर छोड़ कर चले आओ, दुकान छोड़ दो पर वह स्टूल तो वहीं रहेगा.

‘‘मैं तो सोचता रहा कि लड़का बहाना कर रहा होगा. अकसर बच्चे पुरानी चीज पसंद नहीं न करते. सोचा डाक्टर भी जानपहचान के हैं, उन से कहलवाना चाहता होगा लेकिन आप तो जानपहचान की न थीं. और उस दिन जब आप ने कहा तो लगा मेरा बच्चा सच ही रोता होगा.

‘‘एक दिन मेरा बच्चा ही किसी काम का न रहा तो मैं लक्ष्मी का भी क्या करूंगा? पिताजी की निशानी को छाती से लगाए बैठा हूं और उसी का सर्वनाश कर रहा हूं जिस का मैं भी पिता हूं. मेरा बच्चा अपने बुढ़ापे में मेरी जिद याद कर के मुझे याद करना भी पसंद नहीं करेगा. क्या मैं अपने बेटे को पीठदर्द विरासत में दे कर मरूंगा.

‘‘उसी शाम मैं ने वह स्टूल उठवा कर कुरसी वहां पर रखवा दी. मेरे बेटे का पीठदर्द लगभग ठीक है और घर में भी शांति है वरना बहू भी हर पल चिढ़ीचिढ़ी सी रहती थी. आप की वजह से मेरा घर बच गया वरना उस स्टूल की जिद से तो मैं अपना घर ही तोड़ बैठता.’’

मिठाई का एक डब्बा सामने मेज पर रखा था. उस पर एक कार्ड था. धन्यवाद का संदेश उन महाशय के बेटे ने मुझे भेजा था. क्या कहती मैं? भला मैं ने क्या किया था जो उन का धन्यवाद लेती?

‘‘आप की वह सहेली एक दिन बाजार से गुजरी तो मैं ने रोक कर आप का पता ले लिया. फोन कर के भी आप का धन्यवाद कर सकता था. फिर सोचा मैं स्वयं ही जाऊंगा. अपने बेटे के सामने तो मैं ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन आप के सामने स्वीकार करना चाहता हूं, अन्याय किया है मैं ने अपनी संतान के साथ… पता नहीं हम बड़े सदा बच्चों को ही दोष क्यों देते रहते हैं? कहीं हम भी गलत हैं, मानते ही नहीं. हमारे चरित्र में पता नहीं क्यों इतनी सख्ती आ जाती है कि टूट जाना तो पसंद करते हैं पर झुकना नहीं चाहते. मैं स्वीकार करना चाहता हूं, विशेषकर जब बुढ़ापा आ जाए, मनुष्य को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना चाहिए. क्यों, है न बहनजी?’’

‘‘जी, आप ठीक कह रहे हैं. मैं भी 2 बेटों की मां हूं. शायद बुढ़ापा गहरातेगहराते आप जैसी हो जाऊं. इसलिए आज से ही प्रयास करना शुरू कर दूंगी,’’ और हंस पड़ी थी मैं. पुन: धन्यवाद कर के वह महाशय चले गए.

पति मेरा चेहरा देखते हुए कहने लगे, ‘‘ठीक कहती हो तुम, जहां कुछ कहने की जरूरत हो वहां अवश्य कह देना चाहिए. सामने वाला मान ले उस की इच्छा न माने तो भी उस की इच्छा… कम से कम हम तो एक नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं न, जो हमारी अपनी चेतना के प्रति होती है. लेकिन सोचने का प्रश्न एक यह भी है कि आज कौन है जो किसी की सुनना पसंद करता है. और आज कौन इतना संवेदनशील है जो दूसरे की तकलीफ पर रात भर जागता है और अपने पति से झगड़ा भी करता है.’’

पति का इशारा मेरी ओर है, मैं समझ रही थी. सच ही तो कह रहे हैं वह, आज कौन है जो किसी की सुनना या किसी को कुछ समझाना पसंद करता है?

Latest Hindi Stories : उसी दहलीज पर बारबार – क्या था रोहित का असली चेहरा

Latest Hindi Stories : घड़ी की तरफ देख कर ममता ने कहा, ‘‘शकुन, और कोई बैठा हो तो जल्दी से अंदर भेज दो. मुझे अभी जाना है.’’

और जो व्यक्ति अंदर आया उसे देख कर प्रधानाचार्या ममता चौहान अपनी कुरसी से उठ खड़ी हुईं.

‘‘रोहित, तुम और यहां?’’

‘‘अरे, ममता, तुम? मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां इस तरह तुम से मुलाकात होगी. यह मेरी बेटी रिया है. 6 महीने पहले इस की मां की मृत्यु हो गई. तब से बहुत परेशान था कि इसे कैसे पालूंगा. सोचा, किसी आवासीय स्कूल में दाखिला करा दूं. किसी ने इस स्कूल की बहुत तारीफ की थी सो चला आया.’’

‘‘बेटे, आप का नाम क्या है?’’

‘‘रिया.’’

बच्ची को देख कर ममता का हृदय पिघल गया. वह सोचने लगी कि इतना कुछ खोने के बाद रोहित ने कैसे अपनेआप को संभाला होगा.

‘‘ममता, मैं अपनी बेटी का एडमिशन कराने की बहुत उम्मीद ले कर यहां आया हूं,’’ इतना कह कर रोहित न जाने किस संशय से घिर गया.

‘‘कमाल करते हो, रोहित,’’ ममता बोली, ‘‘अपनी ही बेटी को स्कूल में दाखिला नहीं दूंगी? यह फार्म भर दो. कल आफिस में फीस जमा कर देना और 7 दिन बाद जब स्कूल खुलेगा तो इसे ले कर आ जाना. तब तक होस्टल में सभी बच्चे आ जाएंगे.’’

‘‘7 दिन बाद? नहीं ममता, मैं दोबारा नहीं आ पाऊंगा, तुम इसे अभी यहां रख लो और जो भी डे्रस वगैरह खरीदनी हो आज ही चल कर खरीद लेते हैं.’’

‘‘चल कर, मतलब?’’

‘‘यही कि तुम साथ चलो, मैं इस नई जगह में कहां भटकूंगा.’’

‘‘रोहित, मेरा जाना कठिन है,’’ फिर उस ने बच्ची की ओर देखा जो उसे ही देखे जा रही थी तो वह हंस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा चलेंगे, क्यों रियाजी?’’

शकुन आश्चर्य से अपनी मैडम को देखे जा रही थी. इतने सालों में उस ने ऐसा कभी नहीं देखा कि प्रधानाचार्या स्कूल का जरूरी काम टाल कर किसी के साथ जाने को तैयार हुई हों. उस के लिए तो सचमुच यह आश्चर्य की ही बात थी.

‘‘मैडम, खाना?’’ शकुन ने डरतेडरते पूछा.

‘‘ओह हां,’’ कुछ याद करती हुई ममता चौहान बोलीं, ‘‘देखो शकुन, कोई फोन आए तो कह देना, मैं बाहर गई हूं. और खाना भी लौट कर ही खाएंगे. हां, खाना थोड़ा ज्यादा ही बना लेना.’’

मेज पर फैली फाइलों को रख देने का शकुन को इशारा कर ममता चौहान उठ गईं और रोहित व रिया को साथ ले कर गेट से बाहर निकल गईं.

‘‘रुको, रोहित, जीप बुलवा लेते हैं,’’ नर्वस ममता ने कहा, ‘‘पर जीप भी बाजार के अंदर तक नहीं जाएगी. पैदल तो चलना ही पड़ेगा.’’

यद्यपि रिया उन के साथ चल रही थी पर कोई भी बाल सुलभ चंचलता उस के चेहरे पर नहीं थी. ममता ने ध्यान दिया कि रोहित का चेहरा ही नहीं बदन  भी कुछ भर गया है. पूरे 8 साल के बाद वह रोहित को देख रही थी. अतीत में उस के द्वारा की गई बेवफाई के बाद भी ममता का दिल रोहित के लिए मानो प्रेम से लबालब भरा हुआ था.

ममता को विश्वविद्यालय के वे दिन याद आए जब सुनसान जगह ढूंढ़ कर किसी पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे रहते थे. कभीकभी वह भयभीत सी रोहित के सीने में मुंह छिपा लेती थी कि कहीं उस के प्यार को किसी की नजर न लग जाए.

जीप अपनी गति से चल रही थी. अतीत के खयालों में खोई हुई ममता रोहित को प्यार से देखे जा रही थी. उसे 8 साल बाद भी रोहित उसी तरह प्यारा लग रहा था जैसे वह कालिज के दिनों में लगताथा.

ममता ने रोहित को भी अपनी ओर देखते पाया तो वह झेंप गई.

‘‘तुम आज भी वैसी ही हो, ममता, जैसी कालिज के दिनों में थीं,’’ रोहित ने बेझिझक कहा, ‘‘उम्र तो मानो तुम्हें छू भी नहीं सकी है.’’

तभी जीप रुक गई और दोनों नीचे उतर कर एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान की ओर चल दिए. ममता ने रिया को स्कूल डे्रस दिलवाई. वह जिस उत्साह से रिया के लिए कपड़ों की नापजोख कर रही थी उसे देख कर कोई भी यह अनुमान लगा सकता था कि मानो वह उसी की बेटी हो.

दूसरी जरूरत की चीजें, खानेपीने की चीजें ममता ने स्वयं रिया के लिए खरीदीं. यह देख कर रोहित आश्वस्त हो गया कि रिया यहां सुखपूर्वक, उचित देखरेख में रहेगी.

ममता बाजार से वापस लौटी तो उस का तनमन उत्साह से लबालब भरा था. उस के इस नए अंदाज को शकुन ने पहली बार देखा तो दंग रह गई कि जो मैडमजी मुसकराती भी हैं तो लगता है उन के अंदर एक खामोशी सी है, वह आज कितना चहक रही हैं लेकिन उन का व्यक्तित्व ऐसा है कि कोई भी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता.

कौन है यह व्यक्ति और उस की छोटी बच्ची… क्यों मैडम इतनी खुश हैं, शकुन समझ नहीं पा रही थी.

ममता ने चाहा था कि कम से कम 2 दिन तो रोहित उस के पास रुके, लेकिन वह रुका नहीं… रोती हुई रिया को गोद में ले कर ममता ने ही संभाला था.

‘‘मैडमजी, इस बच्ची को होस्टल में छोड़ दें क्या?’’

‘‘अरी, पागल हो गई है क्या जो खाली पड़े होस्टल में बच्ची को छोड़ने की बात कह रही है. बच्चों को होस्टल में आने तक रिया मेरे पास ही रहेगी.’’

शकुन सोच रही थी कि सोमी मैडम भी घर गई हैं वरना वह ही कुछ बतातीं. जाने क्यों उस के दिल में उस अजनबी पुरुष और उस के बच्चे को ले कर कुछ खटक रहा था. उसे लग रहा था कि कहीं कुछ ऐसा है जो मैडमजी के अतीत से जुड़ा है. वह इतना तो जानती थी कि ममता मैडम और सोमी मैडम एकसाथ पढ़ी हैं. दोनों कभी सहेली रही थीं, तभी तो सोमी मैडम बगैर इजाजत लिए ही प्रिंसिपल मैडम के कमरे में चली जाती हैं जबकि दूसरी मैडमों को कितनी ही देर खड़े रहना पड़ता है.

दूसरे दिन सुबह शकुन उठी तो देखा मैडम हाथ में दूध का गिलास लिए रिया के पास जा रही थीं. प्यार से रिया को दूध पिलाने के बाद उस के बाल संवारने लगीं. तभी शकुन पास आ कर बोली, ‘‘लाओ, मैडम, बिटिया की चोटी मैं गूंथे दे रही हूं. आप चाय पी लें.’’

‘‘नहीं, तुम जाओ, शकुन… नाश्ता बनाओ…चोटी मैं ही बनाऊंगी.’’

चोटी बनाते समय ममता ने रिया से पूछा, ‘‘क्यों बेटे, तुम्हारी मम्मी को क्या बीमारी थी?’’

‘‘मालूम नहीं, आंटी,’’ रिया बोली, ‘‘मम्मी 4-5 महीने अस्पताल में रही थीं, फिर घर ही नहीं लौटीं.’’

एक हफ्ता ऐसे ही बीत गया. रिया भी ममता से बहुत घुलमिल गई थी. लड़कियां होस्टल में आनी शुरू हो गई थीं. सोमी भी सपरिवार लौट आई थी. शकुन ने ही जा कर सोमी को सारी कहानी सुनाई.

सोमी ने शकुन को यह कह कर भेज दिया कि ठीक है, शाम को देखेंगे.

शाम को सोमी ममता से मिलने उस के घर आई तो ममता ने बिना किसी भूमिका के बता दिया कि रिया रोहित की बेटी है और उस की मां का पिछले साल निधन हो गया है. रोहित हमारे स्कूल में अपनी बच्ची का दाखिला करवाने आया था.

‘‘रोहित को कैसे पता चला कि तुम यहां हो?’’ सोमी ने पूछा.

‘‘नहीं, उस को पहले पता नहीं था. वह भी मुझे देख कर आश्चर्य कर रहा था.’’

थोड़ी देर बैठ कर सोमी अपने घर लौट गई. उसे कुछ अच्छा नहीं लगा था यह ममता ने साफ महसूस किया था. वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत के बारे में सोचने लगी. ममता और रोहित एक- साथ पढ़ते थे और वह उन से एक साल जूनियर थी. इन तीनों के ग्रुप में योगेश भी था जो उस की क्लास में था. योगेश की दोस्ती रोहित के साथ भी थी, उधर रोहित और ममता भी एक ही क्लास में पढ़ने के कारण दोस्त थे. फिर चारों मिले और उन की एकदूसरे से दोस्ती हो गई.

ममता का रंग गोरा और बाल काले व घुंघराले थे जो उस के खूबसूरत चेहरे पर छाए रहते थे.

रोहित भी बेहद खूबसूरत नौजवान था. जाने कब रोहित और ममता में प्यार पनपा और फिर तो मानो 2-3 साल तक दोनों ने किसी की परवा भी नहीं की. दोनों के प्यार को एक मुकाम हासिल हो इस प्रयास में सोमी व योगेश ने उन का भरपूर साथ दिया था.

ममता और रोहित ने एम.एससी. कर लिया था. सोमी बी.एड. करने चली गई और योगेश सरकारी नौकरी में चला गया. यह वह समय था जब चारों बिछड़ रहे थे.

रोहित ने ममता के घर जा कर उस के मातापिता को आश्वस्त किया था कि बढि़या नौकरी मिलते ही वे विवाह करेंगे और उस के बूढ़े मातापिता अपनी बेटी की ओर से ऐसा दामाद पा कर आश्वस्त हो चुके थे.

ममता की मां तो रोहित को देख कर निहाल हो रही थीं वरना उन के घर की जैसी दशा थी उस में उन्होंने अच्छा दामाद पा लेने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. पति रिटायर थे. बेटा इतना स्वार्थी निकला कि शादी करते ही अलग घर बसा लिया. पति के रिटायर होने पर जो पैसा मिला उस में से कुछ उन की बीमारी पर और कुछ बेटे की शादी पर खर्च हो गया.

एक दिन रोहित को उदास देख कर ममता ने उस की उदासी का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस के पापा उस की शादी कहीं और करना चाहते हैं. तब ममता बहुत रोई थी. सोमी और योगेश ने भी रोहित को बहुत समझाया लेकिन वह लगातार मजबूर होता जा रहा था.

आखिर रोहित ने शिखा से शादी कर ली. इस शादी से जितनी ममता टूटी उस से कहीं ज्यादा उस के मातापिता टूटे थे. एक टूटे परिवार को ममता कहां तक संभालती. घोर हताशा और निराशा में उस के दिन बीत रहे थे. वह कहीं चली जाना चाहती थी जहां उस को जानने वाला कोई न हो. और फिर ममता का इस स्कूल में आने का कठोर निर्णय रोहित की बेवफाई थी या कोई मजबूरी यह वह आज तक समझ ही नहीं पाई.

इस अनजाने शहर में ममता का सोमी से मिलना भी महज एक संयोग ही था. सोमी भी अपने पति व दोनों बच्चों के साथ इसी शहर में रह रही थी. दोनों गले मिल कर खूब रोई थीं. सोमी यह जान कर अवाक्  थी… कोई किसी को कितना चाह सकता है कि बस, उसी की यादों के सहारे पूरी जिंदगी बिताने का फैसला ले ले.

सोमी को भी ममता ने स्कूल में नौकरी दिलवा दी तो एक बार फिर दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ हो गई.

स्कूल ट्रस्टियों ने ममता की काबिलीयत और काम के प्रति समर्पण भाव को देखते हुए उसे प्रिंसिपल बना दिया. उस ने भी प्रिंसिपल बनते ही स्कूल की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उस की देखरेख में स्कूल अनुशासित हो प्रगति करने लगा.

अतीत की इन यादों में खोई सोमी कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब उठी तो देखा दफ्तर से आ कर पति उसे जगा रहे हैं.

‘‘ममता, तुम जानती हो, रिया रोहित की लड़की है. इतना रिस्पांस देने की क्या जरूरत है?’’ एक दिन चिढ़ कर सोमी ने कहा.

‘‘जानती हूं, तभी तो रिस्पांस दे रही हूं. क्या तुम नहीं जानतीं कि अतीत के रिश्ते से रिया मेरी बेटी ही है?’’

अब क्या कहती सोमी? न जाने किस रिश्ते से आज तक ममता रोहित से बंधी हुई है. सोमी जानती है कि उस ने अपनी अलमारी में रोहित की बड़ी सी तसवीर लगा रखी है. तसवीर की उस चौखट में वह रोहित के अलावा किसी और को बैठा ही नहीं पाई थी.

ममता को लगता जैसे बीच के सालों में उस ने कोई लंबा दर्दनाक सपना देखा हो. अब वह रोहित के प्यार में पहले जैसी ही पागल हो उठी थी.

पापा की मौत हो चुकी थी और मां को भाई अपने साथ ले गया था. जब उम्र का वह दौर गुजर जाए तो विवाह में रुपयों की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती जितना जीवनसाथी के रूप में किसी को पाना.

विधुर कर्नल मेहरोत्रा का प्रस्ताव आया था और ममता ने सख्ती से मां को मना कर दिया था. स्कूल के वार्षिकोत्सव में एम.पी. सुरेश आए थे, उन की उम्र ज्यादा नहीं थी, उन्होंने भी ममता के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा था. इस प्रस्ताव के लिए सोमी और उस के पति ने ममता को बहुत समझाया था. तब उस ने इतना भर कहा था, ‘‘सोमी, प्यार सिर्फ एक बार किया जाता है. मुझे प्यारहीन रिश्तों में कोई विश्वास नहीं है.’’

प्यार और विश्वास ने ममता के भीतर फिर अंगड़ाई ली थी. रोहित आया तो उस ने आग्रह कर के उसे 3-4 दिन रोक लिया. पहले दिन रोहित, ममता और सोमी तीनों मिल कर घूमने गए. बाहर ही खाना खाया.

सोमी कुछ ज्यादा रोहित से बोल नहीं पाई… क्या पता रोहित ही सही हो… वह ममता की कोमल भावनाएं कुचलना नहीं चाहती थी. अगर ममता की जिंदगी संवर जाए तो उसे खुशी ही होगी.

अगले दिन ममता रोहित के साथ घूमने निकली. थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई थी. अत: ठंड बढ़ गई थी.

‘‘कौफी पी ली जाए, क्यों ममता?’’ उसे रोहित का स्वर फिर कालिज के दिनों जैसा लगा.

‘‘हां, जरूर.’’

रेस्तरां में लकड़ी के बने लैंप धीमी रोशनी देते लटक रहे थे. रोहित गहरी नजरों से ममता को देखे जा रहा था और वह शर्म के मारे लाल हुई  जा रही थी. उस को कालिज के दिनों का वह रेस्तरां याद आया जहां दोनों एकदूसरे में खोए घंटों बैठे रहते थे.

‘‘कहां खो गईं, ममता?’’ इस आवाज से उस ने हड़बड़ा कर देखा तो रोहित का हाथ उस के हाथ के ऊपर था. सालों बाद पुरुष के हाथ की गरमाई से वह मोम की तरह पिघल गई.

‘‘रोहित, क्या तुम ने कभी मुझे मिस नहीं किया?’’

‘‘ममता, मैं ने तुम्हें मिस किया है. शिखा के साथ रहते हुए भी मैं सदा तुम्हारे साथ ही था.’’

रोहित की बातें सुन कर ममता भीतर तक भीग उठी.

पहाड़ खामोश थे… बस्ती खामोश थी… हर तरफ पसरी खामोशी को देख कर ममता को नहीं लगता कि जिंदगी कहीं है ही नहीं… फिर वह क्यों जिंदगी के लिए इतनी लालायित रहती है. वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जब इनसान व्यवस्थित हो चुका होता है. वह क्यों इतनी अव्यवस्थित सी है और उस के मन में क्यों यह इच्छा होती है कि यह जो पुरुष साथ चल रहा है, फिर पुराने दिन वापस लौटा दे?

ममता ने महसूस किया कि वह अंदर से कांप रही है और उस ने शाल को सिर से ओढ़ लिया, फिर भी ठंड गई नहीं. उस पर रोहित ने जब उस  का हाथ पकड़ा तो वह और भी थरथरा उठी. गरमाई का एक प्रवाह उस के अंदर तिरोहित होने लगा तो वह रोहित से और भी सट गई. रोहित उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे अपनी ओर खींच कर बोला, ‘‘कांप रही हो तुम तो,’’ और फिर रोहित ने उसे समूचा भींच लिया था.

ममता को लगा कि बस, ये क्षण… यहीं ठहर जाएं. आखिर इसी लमहे व रोहित को पाने की चाहत में तो उस ने इतने साल अकेले बिताए हैं.

शकुन इंतजार कर के लौट गई थी. मेज पर खाना रखा था. उस ने ढीलीढाली नाइटी पहन ली और खाना लगाने लगी. फायरप्लेस में बुझती लकडि़यों में उस ने और लकडि़यां डाल दीं.

दोनों चुपचाप खाना खाते रहे. अचानक ममता ने पूछा, ‘‘अब क्या रुचि है तुम्हारी, रोहित? कुछ पढ़ते हो या… बस, गृहस्थी में ही रमे रहते हो?’’

‘‘अरे, अब कुछ भी पढ़ना कहां संभव हो पाता है, अब तो जिंदगी का यथार्थ सामने है. बस, काम और काम, फिर थक कर सो जाना.’’

बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे. फायरप्लेस में लकडि़यां डालने के बाद ममता अलमारी खोल कर वह नोटबुक निकाल लाई जिस में कालिज के दिनों की ढेरों यादें लिखी थीं. रोहित को यह देख कर आश्चर्य हुआ, ममता की अलमारी में उस की तसवीर रखी है.

नोटबुक के पन्ने फड़फड़ा रहे थे. अनमनी सी बैठी ममता का चेहरा रोहित ने अपने हाथों में ले कर अधरों का एक दीर्घ चुंबन लिया. ममता ने आंखें बंद कर लीं. उस के बदन में हलचल हुई तो उस ने रोहित को खींच कर लिपटा लिया. बरसों का बांध कब टूट गया, पता ही नहीं चला.

‘‘क्या आज ही जाना जरूरी है, रोहित?’’ सुबह सो कर उठने के बाद रात की खामोशी को ममता ने ही तोड़ा था.

‘‘हां, ममता, अब और नहीं रुक सकता. वहां मुझे बहुत जरूरी काम है,’’ अटैची में कपड़े भरते हुए रोहित ने कहा.

ममता ने रिया को बुलवा लिया था. जाने का क्षण निकट था. रिया रो रही थी. ममता की आंखें भी भीगी हुई थीं. उस के मन में विचार कौंधा कि क्या अब भी रोहित से कहना पड़ेगा कि मुझे अपनालो… अकेले अब मुझ से नहीं रहा जाता. तुम्हारी चाहत में कितने साल मैं ने अकेले गुजारे हैं. क्या तुम इस सच को नहीं जानते?

सबकुछ अनकहा ही रह गया. रोहित लगातार खामोश था. उस को गए 5 महीने बीत गए. फोन पर वह रिया का हालचाल पूछ लेता. ममता यह सुनने को तरस गई कि ममता, अब बहुत हुआ. तुम्हें मेरे साथ चलना होगा.

वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई थी. सभी बच्चे घर वापस जा रहे थे. रोहित का फोन उस आखिरी दिन आया था जब होस्टल बंद हो रहा था.

‘‘रिया की मौसी आ रही हैं. उन के साथ उसे भेज देना.’’

‘‘तुम नहीं आओगे, रोहित?’’

‘‘नहीं, मेरा आना संभव नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’ और उस के साथ फोन कट गया था. कानों में सीटी बजती रही और ममता रिसीवर पकड़े हतप्रभ रह गई.

दूसरे दिन रिया की मौसी आ गईं. होस्टल से रिया उस के घर ही आ गई थी क्योंकि होस्टल खाली हो चुका था.

‘‘रोहित को ऐसा क्या काम आ पड़ा जो अपनी बेटी को लेने वह नहीं आ सका?’’ ममता ने रिया की मौसी से पूछा.

‘‘सच तो यह है ममताजी कि शिखा दीदी की मौत के बाद रोहित जीजाजी के सामने रिया की ही समस्या है क्योंकि वह अब जिस से शादी करने जा रहे हैं, वह उन की फैक्टरी के मालिक की बेटी है. लेकिन वह रिया को रखना नहीं चाहती और मेरी भी पारिवारिक समस्याएं हैं, क्या करूं… शायद मेरी मां ही अब रिया को रखेंगी. एक बात और बताऊं, ममताजी कि रोहित जीजाजी हमेशा से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं. शिखा दीदी के सामने ही उन का प्रेम इस युवती से हो गया था… मुझे तो लगता है कि शिखा दीदी की बीमारी का कारण भी यही रहा हो, क्योंकि दीदी ने बीच में एक बार नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

इतना सबकुछ बतातेबताते रिया की मौसी की आवाज तल्ख हो गई थी और उन के चुप हो जाने तक ममता पत्थर सी बनी बिना हिलेडुले अवाक् बैठी रह गई. याद नहीं उसे आगे क्या हुआ. हां, आखिरी शब्द वह सुन पाई थी कि रोहित जीजाजी ने जहां कालिज जीवन में प्यार किया था, वहां विवाह न करने का कारण कोई मजबूरी नहीं थी बल्कि वहां भी उन का कैरियर और भारी दहेज ही कारण था.

तपते तेज बुखार में जब ममता ने आंखें खोलीं तो देखा रिया उस के पास बैठी उस का हाथ सहला रही है और शकुन माथे पर पानी की पट्टियां रख रहीहै.

ममता ने सोमी की तरफ हाथ बढ़ा दिए और फिर दोनों लिपट कर रोने लगीं तो शकुन रिया को ले कर बाहर के कमरे में चली गई.

‘‘सोमी, मैं ने अपनी संपूर्ण जिंदगी दांव पर लगा दी, और वह राक्षस की भांति मुझे दबोच कर समूचा निगल गया.’’

सोमी ने उस का माथा सहलाया और कहा, ‘‘कुछ मत बोलो, ममता, डाक्टर ने बोलने के लिए मना किया है. हां, इस सदमे से उबरने के लिए तुम्हें खुद अपनी मदद करनी होगी.’’

ममता को लगा कि जिन हाथों की गरमी से वह आज तक उद्दीप्त थी वही स्पर्श अब हजारहजार कांटों की तरह उस के शरीर में चुभ रहे हैं. काश, वह भी सांप के केंचुल की तरह अपने शरीर से उस केंचुल को उतार फेंकती जिसे रोहित ने दूषित किया था… कितना वीभत्स अर्थ था प्यार का रोहित के पास.

‘‘सोमी,’’ वह टूटी हुई आवाज में बोली, ‘‘मैं रिया के बगैर कैसे रहूंगी,’’ और उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. एक भयावह स्वप्न देख घबरा कर ममता ने आंखें खोलीं तो देखा सोमी फोन पर बात कर रही थी, ‘‘रोहित, तुम ने जो भी किया उस के बारे में मैं तुम से कुछ नहीं कहूंगी, लेकिन क्या तुम रिया को ममता के पास रहने दोगे? शायद ममता से बढ़ कर उसे मां नहीं मिल सकती…’’

रिया की मौसी ने रिया को ला कर ममता की गोद में डाल दिया और बोली, ‘‘मैं सब सुन चुकी हूं. सोमीजी… रिया अब ममता के पास ही रहेगी, इन की बेटी की तरह, इसे स्वीकार कीजिए.’’

Hindi Moral Tales : आंधी से बवंडर की ओर

Hindi Moral Tales :  फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

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