संस्कार : आखिर मां संस्कारी बहू से क्या चाहती थी

लेखक- आशा जैन

नई मारुति दरवाजे के सामने आ कर खड़ी हो गई थी. शायद भैया के ससुराल वाले आए थे. बाबूजी चुपचाप दरवाजे की ओट में हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और मां, जो पीछे आंगन में झाडू दे रही थीं, भाभी के आवाज लगाते ही हड़बड़ी में अस्तव्यस्त साड़ी में ही बाहर दौड़ी आईं.

आते ही भैया की छोटी साली ने रिंकू को गोद में भर लिया और अपने साथ लाए हुए कई कीमती खिलौने दे कर उसे बहलाने लगी. ड्राइंगरूम में भैया के सासससुर तथा भाभीभैया की गपशप आरंभ हो गई. भाभी ने मां को झटपट नाश्ता और चाय बनाने को कह दिया. मां ने मुझ से पूछ कर अपनी मैली साड़ी बदल डाली और रसोई में व्यस्त हो गईं. मां और बाबूजी के साथ ही ऐसा समय मुझे भी बड़ा कष्टकर प्रतीत होता था. इधर भैयाभाभी के हंसीठट्टे और उधर मां के ऊपर बढ़ता बोझ. यह वही मां थीं जो भैया की शादी से पूर्व कहा करती थीं, ‘‘इस घर में जल्दी से बहू आ जाए फिर तो मैं पलंग पर ही पानी मंगा कर पिऊंगी,’’ और बहू आने के बाद…कई बार पानी का गिलास भी बहू के हाथ में थमाना पड़ता था. जिस दिन भैया के ससुराल वाले आते थे, मां कपप्लेट धोने और बरतन मांजने का काम और भी फुरती से करने लगती थीं. घर के छोटेबड़े काम से ले कर बाजार से खरीदारी करने तक का सारा भार बाबूजी पर एकमुश्त टूट पड़ता था. कई बार यह सब देख कर मन भर आता था, क्योंकि उन लोगों के आते ही मांबाबूजी बहुत छोटे पड़ जाते थे. दरवाजे के बाहर बच्चों का शोरगुल सुन कर मैं ने बाहर झांक कर देखा.

कई मैलेकुचैले बच्चे चमचमाती कार के पास एकत्र हो गए थे. भैया थोड़ीथोड़ी देर बाद कमरे से बाहर निकल कर देख लेते थे और बच्चों को इस तरह डांटते खदेड़ते थे, मानो वे कोई आवारा पशु हों. भैया के सासससुर के मध्य रिंकू की पढ़ाई तथा संस्कारों के बारे में वाक्युद्ध छिड़ा हुआ था. रिंकू बाबूजी द्वारा स्थापित महल्ले के ही ‘शिशु विहार’ में पढ़ता था. किंतु भाभी और उन के पिताजी का इरादा रिंकू को किसी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवाने का था. भाभी के पिताजी बोले, ‘‘इंगलिश स्कूल में पढ़ेगा तो संस्कार भी बदलेंगे, वरना यहां रह कर तो बच्चा खराब हो जाएगा.’’ इस से पहले भी रिंकू को पब्लिक स्कूल में भेजने की बात को ले कर कई बार भैयाभाभी आपस में उलझ पड़े थे. भैया खर्च के बोझ की बात करते थे तो भाभी घर के खर्चों में कटौती करने की बात कह देती थीं. वह हर बार तमक कर एक ही बात कहती थीं, ‘‘लोग पागल नहीं हैं जो अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाते हैं. इन स्कूलों के बच्चे ही अच्छे पदों पर पहुंचते हैं.’’ भैया निरुत्तर रह जाते थे. बड़े उत्साह से भाभी ने स्कूल से फार्म मंगवाया था. रिंकू को किस प्रकार तैयारी करानी थी इस विषय में मुझे भी कई हिदायतें दी थीं. वह स्वयं सुबह जल्दी उठ रिंकू को पढ़ाने बैठ जाती थीं. उन्होंने कई बातें रिंकू को तोते की तरह रटा दी थीं. वह उठतेबैठते, सोतेजागते उस छोटे से बच्चे के मस्तिष्क में कई तरह की सामान्य ज्ञान की बातें भरती रहती थीं. अब मां और बाबूजी के साथ रिंकू का खेलना, घूमना, बातें करना, चहकना काफी कम हो गया था.

एक दिन वह मांबाबूजी के सामने ही महल्ले के बच्चों के साथ खेलने लगा. भाभी उबलती हुई आईं और तमक कर बाबूजी को भलाबुरा कहने लगीं, ‘‘आप रिंकू की जिंदगी को बरबाद कर के छोड़ेंगे. असभ्य, गंदे और निरक्षर बच्चों के साथ खेलेगा तो क्या सीखेगा.’’ और बाबूजी ने उसी समय दुलारते हुए रिंकू को अपनी गोद में भर लिया था. भाभी की बात सुन कर मेरे दिल में हलचल सी मच गई थी. ये अमीर लोग क्यों इतने भावनाशून्य होते हैं? भला बच्चों के बीच असमानता की खाई कैसी? बच्चा तो बच्चों के साथ ही खेलता है. एक मुरझाए हुए फूल से हम खुशबू की आशा कैसे कर सकते हैं. क्यों नहीं सोचतीं भाभी यह सबकुछ? एक बार उबलता दूध रिंकू के हाथ पर गिर गया था. वह दर्द से तड़प रहा था. सारा महल्ला परेशान हो कर एकत्र हो गया था, तरहतरह की दवाइयां, तरहतरह के सुझाव. बच्चे तो रिंकू को छोड़ कर जाने को ही तैयार नहीं थे. आश्चर्य तो तब हुआ जब भाभी के मुंह से उन बच्चों के प्रति वात्सल्य के दो बोल भी नहीं फूटे. वह उन की भावनाओं के साथ, उमड़ते हुए प्यार के साथ तालमेल ही नहीं बैठा पाई थीं. भाभी भी क्या करतीं? उन के स्वयं के संस्कार ही ऐसे बने थे. वह एक अमीर खानदान से ताल्लुक रखती थीं. पिता और भाइयों का लंबाचौड़ा व्यवसाय है. कालिज के जमाने से ही वह भैया पर लट्टू थीं. उन का प्यार दिनोंदिन बढ़ता गया. मध्यवर्गीय भैया ने कई बार अपनी परिस्थिति की यथार्थता का बोध कराया, लेकिन वह तो उन के प्यार में दीवानी हुई जा रही थीं.

समविषम, ऊंचनीच का विचार न कर के उन्होंने भैया को अपना जीवनसाथी स्वीकार ही लिया. जब इस घर में आने के बाद एक के बाद एक अभावों का खाता खुलने लगा तो वह एकाएक जैसे ढहने सी लगी थीं. उन्होंने ही ड्राइंगरूम की सजावट और संगीत की धुनों को पहचाना था. इनसानों के साथ जज्बाती रिश्तों को वह क्या जानें? वह अभावों की परिभाषा से बेखबर रिंकू को अपने भाइयों के बच्चों की तरह ढालना चाहती थीं. भैया की औकात, भैया की मजबूरी, भैया की हैसियत का अंदाजा क्योंकर उन्हें होता? कभीकभी ग्लानि तो भैया पर भी होती थी. वह कैसे भाभी के ही सांचे में ढल गए थे. क्या वह भाभी को अपने अनुरूप नहीं ढाल सकते थे? रिंकू टेस्ट में पास हो गया था. भाभी की खुशी का ठिकाना न रहा था. मानो उन की कोई मनमांगी मुराद पूरी हो गई थी. अब वह बड़ी खुशखुश नजर आने लगी थीं. जुलाई से रिंकू को स्कूल में भेजे जाने की तैयारी होने लगी थी. नए कपड़े बनवाए गए थे. जूते, टाई तथा अन्य कई जरूरत की वस्तुएं खरीदी गई थीं. अब तो भाभी रिंकू के साथ टूटीफूटी अंगरेजी में बातें भी करने लगी थीं. उसे शिष्टाचार सिखाने लगी थीं. भाभी रिंकू को जल्दी उठा देती थीं, ‘‘बेटा, देखा नहीं, तुम्हारे मामा के ऋतु, पिंकी कैसे अपने हाथ से काम करते हैं. तुम्हें भी काम स्वयं करना चाहिए. थोड़ा चुस्त बनो.’’ भाभी उस नन्ही जान को चुस्त बनना सिखा रही थीं, जिसे खुद चुस्त का अर्थ मालूम नहीं था.

मां और बाबूजी रिंकू से अलग होने की बात सोच कर अंदर ही अंदर विचलित हो रहे थे. आखिर रिंकू के जाने का निश्चित दिन आ गया था. स्कूल ड्रेस में रिंकू सचमुच बदल गया था. वह जाते समय मुझ से लिपट गया. मैं ने उसे बड़े प्यार से पुचकार कर समझाया, ‘‘तुम वहां रहने नहीं, पढ़ने जा रहे हो, वहां तुम्हारे जैसे बहुत से बच्चे होंगे. उन में से कई तुम्हारे दोस्त बन जाएंगे. उन के साथ पढ़ना, उन के साथ खेलना. तुम हर छुट्टी में घर आ जाओगे. फिर मांबाबूजी भी तुम से मिलने आते रहेंगे.’’ भाभी भी उसे समझाती रहीं, तरहतरह के प्रलोभन दे कर. मां और बाबूजी के कंठ से आवाज ही नहीं निकल रही थी. बस, वे बारबार रिंकू को चूम रहे थे.

रिंकू की विदाई का क्षण मुझे भी रुला गया. बोगनबेलिया के फूलों से ढके दरवाजे के पास से विदाई के समय हाथ हिलाता हुआ रिंकू…मां और बाबूजी के उठे हाथ तथा आंसुओं से भीगा चेहरा… उस खामोश वातावरण में एक आवाज उभरती रही थी. बोगनबेलिया के फूलों की पुरानी पंखडि़यां हवा के तेज झोंके से खरखर नीचे गिरने लगी थीं. उस के बाद उस में संस्कार के नए फूल खिलेंगे और अपनी महक बिखेरेंगे. द्य

नन्हा सा मन: कैसे बदल गई पिंकी की हंसतीखेलती दुनिया

लेखिका- डा. अनिता श्रीवास्तव

पिंकी के स्कूल की छुट्टी है पर उस की मम्मी को अपने औफिस जाना है. पिंकी उदास है. वह घर में अकेली शारदा के साथ नहीं रहना चाहती और न ही वह मम्मी के औफिस जाना चाहती है. वहां औफिस में मम्मी उसे एक कुरसी पर बिठा देती हैं और कहती हैं, ‘तू ड्राइंग का कुछ काम कर ले या अपनी किताबें पढ़ ले, शैतानी मत करना.’ फिर उस की मम्मी औफिस के काम में लग जाती हैं और वह बोर होती है.

अपनी छुट्टी वाले दिन पिंकी अपने मम्मीपापा के साथ पूरा समय बिताना चाहती है. पर दोनों अपनाअपना लंचबौक्स उठा कर औफिस चल देते हैं. हां, इतवार के दिन या कोईर् ऐसी छुट्टी जिस में उस के मम्मी व पापा का भी औफिस बंद होता है, तब जरूर उसे अच्छा लगता है. इधर 3 वर्षों से वह देख रही है कि मम्मी और पापा रोज किसी न किसी बात को ले कर ?ागड़ते हैं.

3 साल पहले छुट्टी वाले दिन पिंकी मम्मीपापा के साथ बाहर घूमने जाती थी, कभी पार्क, कभी पिक्चर, कभी रैस्टोरैंट, कभी बाजार. इस तरह उन दोनों के साथ वह खूब खुश रहती थी. तब वह जैसे पंख लगा कर उड़ती थी. वह स्कूल में अपनी सहेलियों को बताती थी कि उस के मम्मीपापा दुनिया के सब से अच्छे मम्मीपापा हैं. वह स्कूल में खूब इतराइतरा कर चलती थी.

अब वह मम्मीपापा के झगड़े देख कर मन ही मन घुटती रहती है. पता नहीं दोनों को हो क्या गया है. पहली बार जब उस ने उन दोनों को तेजतेज झगड़ते देखा था तो वह सहम गईर् थी, भयभीत हो उठी थी. उस का नन्हा सा मन चीखचीख कर रोने को करता था.

‘आज तुम्हारी छुट्टी है पिंकी, घर पर ठीक से रहना. शारदा आंटी को तंग मत करना,’ उस की मम्मी उसे हिदायत दे कर औफिस के लिए चली जाती हैं. बाद में पापा भी जल्दीजल्दी आते हैं और उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसे ‘बाय’ कहते हुए वे भी चले जाते हैं. घर में वह और शारदा आंटी रह जाती हैं. शारदा आंटी घर के काम में लग जाती हैं. काम करने के बाद वे टीवी खोल कर बैठ जाती हैं. पिंकी के नाश्ते व खाने का पूरा खयाल रखती हैं शारदा आंटी. जब वह बहुत छोटी थी तब से ही शारदा आंटी उस की देखभाल के लिए आती थीं. पिंकी को नाश्ते में तथा खाने में क्या पसंद है, क्या नहीं, यह शारदा आंटी अच्छी तरह जानती थीं, इसीलिए पिंकी शारदा आंटी से खुश रहती थी. अब रोजरोज मम्मीपापा को झगड़ते देख वह अब खुश रहना ही भूल गई है.

स्कूल में पहले वह अपनी सहेलियों के साथ खेलती थी, अब अलग अकेले बैठना उसे ज्यादा अच्छा लगता है. एक दिन अपनी फ्रैंड निशा से उस ने पूछा था, ‘निशा, अलादीन के चिराग वाली बात तूने सुनी है?’

‘हां कुछकुछ,’ निशा बोली थी.

‘क्या वह चिराग मुझे मिल सकता है?’

‘क्यों, तू उस का क्या करेगी?’ निशा ने पूछा था.

‘उस चिराग को घिसूंगी, फिर उस में से जिन्न निकलेगा. फिर मैं उस से जो चाहूंगी, मांग लूंगी,’ पिंकी बोली.

‘अब वह चिराग तो पता नहीं कहां होगा, तुझे जो चाहिए, मम्मी पापा से मांग ले. मैं तो यही करती हूं.’

पिंकी चुप रही. वह उसे कैसे बताए कि अपने लिए नहीं, मम्मीपापा के लिए कुछ मांगना चाहती है. मम्मीपापा का यह रोज का ? झगड़ा उसे पागल बना देगा. एक बार उस की इंग्लिश की टीचर ने भी उसे खूब डांटा था, ‘मैं देख रही हूं तुम पहले जैसी होशियार पिंकी नहीं रही, तुम्हारा तो पढ़ाई में मन ही नहीं लगता.’

पिछले साल का रिजल्ट देख कर टीचर पापामम्मी पर नाराज हुए थे, ‘तुम पिंकी पर जरा भी ध्यान नहीं देतीं, देखो, इस बार इस के कितने कम नंबर आए हैं.’

‘हां, अगर अच्छे नंबर आए तो सेहरा आप के सिर कि बेटी किस की है. अगर कम नंबर आए तो मैं ध्यान नहीं देती. मैं पूछती हूं आप का क्या फर्ज है? पर पहले आप को फुरसत तो मिले अपनी सैक्रेटरी खुशबू से.’

‘पिंकी की पढ़ाई में यह खुशबू कहां से आ गई?’ पापा चिल्लाए.

बस, पिंकी के मम्मीपापा में लड़ाई शुरू हो गई. उस दिन उस ने जाना था कि खुशबू आंटी को ले कर दोनों झगड़ते हैं. वह समझ नहीं पाई थी कि खुशबू आंटी से मम्मी क्यों चिढ़ती हैं. एक दो बार वे घर आ चुकी हैं. खुशबू आंटी तो उसे बहुत सुंदर, बहुत अच्छी लगी थीं, गोरी चिट्टी, कटे हुए बाल, खूब अच्छी हाइट. और पहली बार जब वे आई थीं तो उस के लिए खूब बड़ी चौकलेट ले कर आई थीं. मम्मी पता नहीं खुशबू आंटी को ले कर पापा से क्यों झगड़ा करती हैं.

पिंकी के पापा औफिस से देर से आने लगे थे. जब मम्मी ने पूछा तो कहा, ‘ओवरटाइम कर रहा हूं, औफिस में काम बहुत है.’ एक दिन पिंकी की मम्मी ने खूब शोर मचाया. वे चिल्लाचिल्ला कर कह रही थीं, ‘कार में खुशबू को बिठा कर घुमाते हो, उस के साथ शौपिंग करते हो और यहां कहते हो कि ओवरटाइम कर रहा हूं.’

‘हांहां, मैं ओवरटाइम ही कर रहा हूं. घर के लिए सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह काम करता हूं और तुम ने खुशबू को ले कर मेरा जीना हराम कर दिया है. अरे, एक ही औफिस में हैं, तो क्या आपस में बात भी नहीं करेंगे,’ पिंकी के पापा ने हल्ला कर कहा था.

‘उसे कार में घुमाना, शौपिंग कराना, रैस्टोरैंट में चाय पीना ये भी औफिस के काम हैं?’

उन दोनों में से कोई चुप होने का नाम नहीं ले रहा था. दोनों का झगड़ा चरमसीमा पर पहुंच गया था और गुस्से में पापा ने मम्मी पर हाथ उठा दिया था. मम्मी खूब रोई थीं और पिंकी सहमीसहमी एक कोने में दुबकी पड़ी थी. उस का मन कर रहा था वह जोरजोर से चीखे, चिल्लाए, सारा सामान उठा कर इधरउधर फेंके, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकी थी. आखिर इस झगड़े का अंत क्या होगा, क्या मम्मीपापा एकदूसरे से अलग हो जाएंगे, फिर उस का क्या होगा. वह खुद को बेहद असहाय और असुरक्षित महसूस करने लगी थी.

उस दिन वह आधी रात एक बुरा सपना देख कर अचानक उठ गई और जोरजोर से रोने लगी थी. उस के मम्मीपापा घबरा उठे. दोनों उसे चुप कराने में लग गए थे. उस की मम्मी पिंकी की यह हालत देख कर खुद भी रोने लगी थीं, ‘चुप हो जा मेरी बच्ची. तू बता तो, क्या हुआ? क्या कोई सपना देख रही थी?’ पिंकी की रोतेरोते घिग्घी बंध गई थी. मम्मी ने उसे अपने सीने से कस कर चिपटा लिया था. पापा खामोश थे, उस की पीठ सहला रहे थे.

पिंकी को पापा का इस तरह सहलाना अच्छा लग रहा था. चूंकि मम्मी ने उसे छाती से चिपका लिया था, इसलिए पिंकी थोड़ा आश्वस्त हो गई थी. इस घटना के बाद पिंकी के मम्मीपापा पिंकी पर विशेष ध्यान देने लगे थे. पर पिंकी जानती थी कि ये दुलार कुछ दिनों का है, फिर तो वही रोज की खिचखिच. उस का नन्हा मन जाने क्या सोचा करता. वह सोचती कि माना खुशबू आंटी बहुत सुंदर हैं, लेकिन उस की मम्मी से सुंदर तो पूरी दुनिया में कोई नहीं है. उस को अपने पापा भी बहुत अच्छे लगते हैं. इसीलिए जब दोनों झगड़ते समय अलग हो जाने की बात करते हैं तो उस का दिल धक हो जाता है. वह किस के पास रहेगी? उसे तो दोनों चाहिए, मम्मी भी, पापा भी.

पिंकी ने मम्मी को अकसर चुपकेचुपके रोते देखा है. वह मम्मी को चुप कराना चाहती है, वह मम्मी को दिलासा देना चाहती है, ‘मम्मी, रो मत, मैं थोड़ी बड़ी हो जाऊं, फिर पापा को डांट लगाऊंगी और पापा से साफसाफ कह दूंगी कि खुशबू आंटी भले ही देखने में सुंदर हों पर उसे एक आंख नहीं सुहातीं. अब वह खुशबू आंटी से कभी चौकलेट भी नहीं लेगी. और हां, यदि पापा उन से बोले तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी.’ पर वह अपनी मम्मी से कुछ नहीं कह पाती. जब उस की मम्मी रोती हैं तो उस का मन मम्मी से लिपट कर खुद भी रोने का करता है. वह अपने नन्हे हाथों से मम्मी के बहते आंसुओं को पोंछना चाहती है, वह मम्मी के लिए वह सबकुछ करना चाहती है जिस से मम्मी खुश रहें. पर वह अपने पापा को नहीं छोड़ सकती, उसे पापा भी अच्छे लगते हैं.

थोड़े दिनों तक सब ठीक रहा. फिर वही झगड़ा शुरू हो गया. पिंकी सोचती, ‘उफ, ये मम्मीपापा तो कभी नहीं सुधरेंगे, हमेशा झगड़ा करते रहेंगे. वह इस घर को छोड़ कर कहीं दूर चली जाएगी. तब पता चलेगा दोनों को कि पिंकी भी कुछ है. अभी तो उस की कोई कद्र ही नहीं है.’

वह सामने के घर में रहने वाला भोलू घर छोड़ कर चला गया था तब उस के मम्मीपापा जगहजगह ढूंढ़ते फिर रहे थे. वह भी ऐसा करेगी, पर वह जाएगी कहां? जब वह छोटी थी तो शारदा आंटी बताती थीं कि बच्चों को कभी एकदम अकेले घर से बाहर नहीं जाना चाहिए. बाहर बच्चों को पकड़ने वाले बाबा घूमते रहते हैं जो बच्चों को झोले में डाल कर ले जाते हैं, उन के हाथपांव काट कर भीख मंगवाते हैं. ना बाबा ना, वह घर छोड़ कर नहीं जाएगी. फिर वह क्या करे?

पिंकी अब गुमसुम रहने लगी थी. वह किसी से बात नहीं करती थी. अब वह मम्मी व पापा से किसी खिलौने की भी मांग नहीं करती. हां, कभीकभी उस का मन करता है तो वह अकेली बैठी खूब रोती है. वह अब सामान्य बच्चों की तरह व्यवहार नहीं करती. स्कूल में किसी की कौपी फाड़ देती, किसी का बस्ता पटक देती. उस की क्लासटीचर ने उस की मम्मी को फोन कर के उस की शिकायत की थी.

एक दिन उस ने अपने सारे खिलौने तोड़ दिए थे. तब मम्मी ने उसे खूब डांटा था, ‘न पढ़ने में मन लगता है तेरा और न ही खेलने में. शारदा बता रही थी कि तुम उस का कहना भी नहीं मानतीं. स्कूल में  भी उत्पात मचा रखा है. मैं पूछती हूं, आखिर तुम्हें हो क्या गया है?’

वह कुछ नहीं बोली. बस, एकटक नीचे जमीन की ओर देख रही थी. उसे अब सपने भी ऐसे आते कि मम्मीपापा आपस में लड़ रहे हैं. वह किसी गहरी खाई में गिर गई है और बचाओबचाओ चिल्ला रही है. पर मम्मीपापा में से कोईर् उसे बचाने नहीं आता और वह सपने में भी खुद को बेहद उदास, मजबूर पाती. वह किसी को समझ नहीं सकती, न मम्मी को, न पापा को.

वह अपनी मम्मी से यह नहीं कह सकती कि खुशबू आंटी को ले कर पापा से मत झगड़ा किया करो. क्या हुआ अगर पापा ने उन्हें कार में बिठा लिया या उन्हें शौपिंग करा दी. और न ही वह पापा से कह सकती है कि जब मम्मी को बुरा लगता है तो खुशबू आंटी को घुमाने क्यों ले जाते हो. वह जानती है कि वह कुछ भी कहेगी तो उस की बात कोई नहीं सुनेगा. उलटे, उस को दोचार थप्पड़ जरूर पड़ जाएंगे. मम्मी अकसर कहती हैं कि बड़ों की बातों में अपनी टांग मत अड़ाया करो.

पिंकी के मन में भय बैठता जा रहा था. वह भयावह यंत्रणा झेल रही थी. धीरेधीरे पिंकी का स्वास्थ्य गिरने लगा. वह अकसर बीमार रहने लगी. मम्मी और पापा दोनों उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने खूब सारे टैस्ट किए जिन की रिपोर्ट नौर्मल निकली. डाक्टर ने उस से कई सवाल पूछे, पर पिंकी एकदम चुप रही. उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं, फिर पापा से बोले, ‘लगता है इसे किसी बात की टैंशन है या किसी बात से डरी हुई है. आप इसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाएं जिस से इस की परेशानी का पता चल सके.’

पिंकी को उस के मम्मीपापा दूसरे डाक्टर के पास ले गए. करीब एक सप्ताह तक वे पिंकी को मनोचिकित्सक के पास ले जाते रहे. वे डाक्टर आंटी बहुत अच्छी थीं, उस से खूब बातें करती थीं. शुरूशुरू में तो पिंकी ने गुस्से में उन का हाथ झटक दिया था, उन की मेज पर रखा गिलास भी तोड़ दिया था. पर वे कुछ नहीं बोलीं, जरा भी नाराज नहीं हुईं. वे डाक्टर आंटी उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरतीं, उसे दुलार करतीं और उस के गालों पर किस्सी दे कर उसे चौकलेट देतीं. फिर कहतीं, ‘बेटा, अपने मन की बात बताओ. तुम बताओगी नहीं, तो मैं कैसे तुम्हारी परेशानी दूर कर पाऊंगी?’ उन्होंने पिंकी को आश्वासन दिया कि वे उस की परेशानी दूर कर देंगी. नन्हा सा मन आश्वस्त हो कर सबकुछ बोल उठा. रोतेरोते पिंकी ने डाक्टर आंटी को बता दिया कि वह मम्मीपापा दोनों के बिना नहीं रह सकती. जब मम्मीपापा लड़ते हैं तो वह बहुत भयभीत हो उठती है, एक डर उस के दिल में घर कर लेता है जिस से वह उबर नहीं पाती. उस का दिल मम्मीपापा दोनों के लिए धड़कता है. दोनों के बिना वह जी नहीं सकती. उस दिन वह खूब रोई थी और डाक्टर आंटी ने उसे अपने सीने से चिपका कर खूब प्यार किया था.

बाहर आ कर उन्होंने पिंकी के मम्मीपापा को खूब फटकारा था. आप दोनों के झगड़ों ने बच्ची को असामान्य बना दिया है. अगर बच्ची को खुश देखना चाहते हैं तो आपस के झगड़े बंद करें, उसे अच्छा माहौल दें, वरना बच्ची मानसिक रूप से अस्वस्थ होती चली जाएगी और आप अपनी बच्ची की बीमारी के जिम्मेदार खुद होंगे.

उस दिन पिंकी ने सोचा था कि आज उस ने डाक्टर आंटी को जो कुछ बताया है, उस बात को ले कर घर जा कर उसे मम्मी और पापा दोनों खूब डांटेंगे, खूब चिल्लाएंगे. वह डरी हुई थी, सहमी हुई थी. पर उस के मम्मीपापा ने उसे एक शब्द नहीं कहा. डाक्टर आंटी के फटकारने का एक फायदा तो हुआ कि उस के मम्मी और पापा दोनों बिलकुल नहीं झगड़े, लेकिन आपस में बोलते भी नहीं थे.

उस ने जो सारे खिलौने तोड़ दिए थे, उन की जगह उस के पापा नए खिलौने ले आए थे. मम्मी उस का बहुत ध्यान रखने लगी थीं. रोज रात उसे अपने से चिपका कर थपकी दे कर सुलातीं. पापा भी उस पर जबतब अपना दुलार बरसाते. पर पिंकी भयभीत और सहमीसहमी रहती. वह कभीकभी खूब रोती. तब उस के मम्मीपापा दोनों उसे चुप कराने की हर कोशिश करते.

एक रात पिंकी को हलकी सी नींद आईर् थी कि पापा की आवाज सुनाई दी. वे मम्मी से भर्राए स्वर में कह रहे थे, ‘तुम मुझे माफ कर दो. मैं भटक गया था. भूल गया था कि मेरा घर, मेरी गृहस्थी है और एक प्यारी सी बच्ची भी है. पिंकी की यह हालत मुझ से देखी नहीं जाती. इस का जिम्मेदार मैं हूं, सिर्फ मैं.’ पापा यह कह कर रोने लगे थे. उस ने पहली बार अपने पापा को रोते हुए देखा था. उस की मम्मी एकदम पिघल गईं, ‘आप रोइए मत, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. पिंकी भी हम दोनों के प्यार से ठीक हो जाएगी. अपने ?ागड़े में हम ने इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया.’

थोड़ी देर वातावरण में गहरी चुप्पी छाई रही. फिर मम्मी बोलीं, ‘अपनी नौकरी के चक्कर में मैं ने आप पर भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया. औफिस का काम भी घर ले आती थी. आप एकदम अकेले पड़ गए थे, इसीलिए खुशबू…’ इस  से आगे उन के शब्द गले में ही अटक कर रह गए थे.

‘नहींनहीं, मैं ही गलत था. अब मैं पिंकी की कसम खा कर कहता हूं कि मैं खुशबू से कोई संबंध नहीं रखूंगा. मेरी पिंकी एकदम अच्छी हो जाए और तुम खुश रहो, इस के अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए.’ पापा धीरेधीरे मम्मी के बालों में उंगलियां फेर रहे थे और मम्मी की सिसकियां वातावरण में गूंज रही थीं.

पिंकी मन ही मन कह रही थी, ‘मम्मी मत रो, देखो न, पापा अपनी गलती मान रहे हैं. पापा, आप दुनिया के सब से अच्छे पापा हो, आई लव यू पापा. और मम्मी आप भी बहुत अच्छी हैं. मैं आप को भी बहुत प्यार करती हूं, आई लव यू मौम.’

पिंकी की आंखें भर आई थीं पर ये खुशी के आंसू थे. अब उसे किसी अलादीन के चिराग की जरूरत नहीं थी. उस के नन्हे से मन में दुनिया की सारी खुशियां सिमट कर समाहित हो गई थीं. आज उस का मन खेलना चाहता है. दौड़ना चाहता है, और इन सब से बढ़ कर दूर बहुत दूर आकाश में उड़ना चाहता है.

गठबंधन : क्यों छिन गया कावेरी से ससुराल का प्यार

‘‘बसइस घर के सामने ही,’’ कावेरी के निर्देश पर ड्राइवर ने कैब रोक दी. टैक्सी से उतर कर बैग कंधे पर लटकाए लंबेलंबे डग भरती हुई वह गेट खोल कर दरवाजे के सामने जा खड़ी हुई, ‘कुछ दिन पापा के साथ बिता लूं, फिर सब दुखदर्द भूल जाने की नई सी उमंग ले कर ही वापस लौटूंगी,’ सोचते हुए कावेरी ने एक नकली मुसकान चेहरे पर चिपका डोरबैल बजा दी.

‘‘अरे वाह कावेरी, आओआओ,’’ अचानक बेटी को आया देख सुधांशु का चेहरा खिल उठा.

‘‘पापा, कैसा लगा मेरा सरप्राइज?’’ सुधांशु से मिलते ही कावेरी की कृत्रिम मुसकान खनकती हंसी में बदल गई. कमरे में पैर फैला कर सोफे पर पीठ टिका कर वह आराम से बैठ गई.

‘‘थक गई शायद? मैं अभी तुम्हारी पसंदीदा दालचीनी वाली चाय बना कर लाता हूं,’’ कह सुधांशु किचन में चले गए.

‘‘आप क्यों? निर्मला नहीं आई क्या आज काम पर?’’ कावेरी सुधांशु के पास जा कर खड़ी हो गई.

‘‘बेटा, एक जरूरी काम के सिलसिले में आज जयपुर के लिए निकलना था मु झे. निर्मला तो इसलिए जल्दी काम निबटा कर चली गई. वैसे मैं सोच रहा हूं कि फ्लाइट की टिकट कैंसिल करवा दूं अब.’’

‘‘पापा, आप चले जाइए. जल्दी वापस आ जाएंगे न? मैं तो अभी कुछ दिन यहीं रहूंगी,’’ कावेरी प्रसन्न दिखने का पूरा प्रयास कर रही थी.

‘‘मैं 2 दिन में लौट आऊंगा. इस बार उदित नाराज नहीं हुआ तुम्हारे कुछ दिन यहां बिताने पर? दिल्ली में हो तो भी बस सुबह आ कर शाम को चली जाती हो वापस. एक दिन भी कहां रहने देता है वह तुम्हें मायके में,’’ सुधांशु के मन में अपने दामाद के प्रति छिपी शिकायत शब्दों में छलक रही थी.

‘‘औफिस के काम से आज ही उदित सिडनी गए हैं, इसलिए आप के साथ कुछ दिन रहने का प्रोग्राम बना लिया मैं ने.’’

‘‘गुड,’’ सुधांशु के चेहरे पर एक लंबी रेखा खिंच गई.

कावेरी भी मुसकरा दी और फिर ड्राइंगरूम में रखे बैग को अपने कमरे में ले जा कर सामान निकाल अलमारी में लगाने लगी.

सुधांशु के साथ बातचीत कर कावेरी का मन हलका हो गया, लेकिन अपने पापा के जाते ही उसे उदासी ने घेर लिया. मस्तिष्क में विचारों की उल झन निराशा को और भी बढ़ा रही थी. शून्य में ताकती वह अपनेआप से ही बातें करने लगी, ‘कितना अपनापन है यहां. दीवारें भी जैसे अनुराग बसाए हैं अपने भीतर. घर के एकमात्र सदस्य पापा तो जैसे स्नेह का पर्याय ही हैं.

‘मम्मी के दुनिया छोड़ कर चले जाने के बाद सालों से मम्मी की भूमिका निभाते हुए अपनी ममता की छांव तले धूप सदृश्य चिंताओं से बचाते आए हैं वे. मैं अकेली संतान हूं तो क्या? सभी नाते मिल कर भी जितना प्रेम नहीं बरसा पाते, जितना पापा ने अकेले ही मु झ पर बरसा दिया. और वहां… कैसे कह दूं कि ससुराल ही अब घर है मेरा? सासूमां के रूप में खोई हुई मां मिल जाएंगी, यही आशा थी मेरी. ससुरजी से पापा जैसा स्नेह चाहा था. लेकिन चाहने मात्र से ही तो सब संभव नहीं होता, फिर और किसी को क्या दोष दूं जब जीवनसाथी ही अनमना सा रहता है मु झ से.

‘विवाह के 3 वर्ष बीत जाने पर भी प्यार और अपनेपन को तरस रही हूं मैं. आशा थी कि कोई नन्ही जान आएगी तो नए रंग भर देगी जीवन में. क्या मैं कम दुखी हूं मां न बन पाने पर कि सभी मु झे किसी अपराधी सा सिद्ध करने में लगे हैं.’

कावेरी एक बार फिर सब याद कर खिन्न हो उठी. विवाह होते ही उसे नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा था. सारा दिन अकेले घर के काम में पिसती हुई वह 2 बोल प्रेम के सुनने को तरस जाती थी. पति उदित अपनी ही दुनिया में खोया रहता. रात में कुछ हसीन लमहों की चाह में वह उदित के करीब जाती तो उस का रवैया ऐसा होता जैसे एहसान कर रहा हो उस पर.

कावेरी को किसी नन्ही आहट की प्रतीक्षा करते हुए 3 वर्ष बीत गए, लेकिन उस की गोद सूनी ही थी. उदित का मनुहार कर एक दिन उसे साथ ले कर वह क्लीनिक चली गईं. वहां डाक्टर ने कावेरी व उदित दोनों के लिए कुछ टैस्ट लिख दिए.

उस रात उदित औनलाइन हुई रिपोर्ट्स देख रहा था और वह बिस्तर पर लेटे हुए उदित की आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी. लैपटौप शटडाउन कर लटका हुआ चेहरा लिए वह आ कर बोला, ‘‘रिपोर्ट्स देख ली हैं. कहा था तुम्हें पहले ही, पर तुम ही जिद पकड़े बैठी थीं कि टैस्ट करवाना है. अब साफ हो चुका है कि तुम्हारे सिस्टम में कुछ कमी है, इसलिए मां नहीं बन पाओगी कभी.’’

कावेरी की रुलाई फूट पड़ी थी. अपने को संयत कर हिम्मत जुटा बोली, ‘‘आप कल प्रिंट निकलवा लेना रिपोर्ट का. ऐसी समस्याओं से कई औरतें 2-4 होती हैं. इलाज तो होता ही होगा कोई न कोई. हम कल ही डाक्टर के पास चलेंगे.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं तुम्हें अब अपनी इस कमी का तमाशा बनवाने की. कोई पूछेगा तो कह देंगे कि अभी नहीं चाहते परिवार बढ़ाना. आज के बाद इस बारे में कोई बात नहीं होगी’’ किसी तानाशाह सा आदेश दे उदित मुंह फेर कर लेट गया.

तिरस्कृत हो कावेरी बस आंसू बहा कर रह गई थी. उदित ने अगले दिन अपनी मां को रिपोर्ट के बारे बताया. बस फिर क्या था? आतेजाते ताने कसने देने शुरू कर दिए उन्होंने. ससुरजी उदित को बारबार याद दिलाना नहीं भूलते थे कि उन के रिश्ते के एक भाई ने अपनी बहू के मां न बन पाने की स्थिति में अपने इकलौते बेटे को तलाक दिलवा कर उस का दूसरा विवाह करवा दिया था.

उपेक्षा और प्रताड़ना के अंधेरे से घिरी एक तंग सी गली में स्वयं को पा कर कावेरी बिलकुल अकेली हो गई थी. उदित अकसर डपट देता कि मुंह फुला कर क्यों रहती हो हमेशा? कम से कम मेरे सामने तो मनहूस सा चेहरा लिए न आया करो.

पिछले दिन के अपमान का दंश भी अब तक मर्माहत कर रहा था कावेरी  को. मेरठ से उदित की बूआजी मिलने आई थीं. कावेरी ने हमेशा की तरह अभिवादन कर आदर व्यक्त किया.

उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज में कावेरी को गोद भर जाने का आशीर्वाद दिया तो पास खड़ी कावेरी की सासूमां तपाक से बोल उठीं, ‘‘सपने देखने बंद कर दो जीजी अब. यह सुख हमारे हिस्से में कहां? बस अब तो हमारा आंगन बच्चे की किलकारियों के लिए तरसता ही रहेगा सदा.’’

यह सुन बूआजी आंखें फाड़ मुंह बिचकाते हुए बोलीं, ‘‘अरेअरे, यह क्या कह रही हो? कावेरी की सूरत देख कर तो नहीं लगता कि इसे कोई अफसोस है अपने इस अधूरेपन पर. औरत का सारा बनावसिंगार बेकार है अगर एक संतान भी न दे सके परिवार को.’’

‘‘क्या करें अब? यह बां झ लिखी थी लड़के की हिस्से में. जी जलता रहेगा अब तो सदा यों ही हमारा.’’

जहर बु झे तीर से शब्दों का वार असहनीय हो गया और कावेरी चुपचाप वहां से चली गई. अपमान और दुख से विचलित हो रात में उस ने उदित को ये सब बताया तो उदित उलटा उस पर बरसने लगा, ‘‘किसकिस का मुंह बंद करोगी? कुछ गलत तो नहीं कहा मां या बूआजी ने. जानती हो न कि कल 8 बजे की फ्लाइट से मु झे सिडनी जाना है. सोचा था जाने से पहले तुम्हें खुश कर दूंगा, लेकिन सारा मूड औफ कर दिया तुम ने. लाइट बंद कर सो जाओ अब.’’

‘‘मैं भी कल पापा के पास जाना चाहती हूं. उन की तबीयत ठीक नहीं है, आज ही फोन पर बताया था उन्होंने,’’ पहली बार कावेरी ने उदित से  झूठ बोला था.

पापा के फोन का बहाना बना कर आज वह मायके आ गई थी. बचपन में जब कोई बात उसे विचलित करती थी तो पापा के थपकी दे कर सुलाते ही सारा तनाव छूमंतर हो जाता था. उसी थपकी की चाह में कुछ दिन पापा के साथ बिताने आई थी वह.

एअरपोर्ट पहुंच सुधांशु ने मैसेज भेजा तो नोटिफिकेशन टोन सुन  कावेरी की सोच पर विराम लग गया. मैसेज पढ़ने के बाद किचन में जा कर वह अपने लिए नूडल्स बना लाई और वापस कमरे में आ टीवी औन कर बैठ गई. किसी फिल्म में विवाह का दृश्य चल रहा था. गठबंधन की रीत दर्शाए जाने के उपक्रम में वर के कंधे पर लटके पटुका में सिक्का, दूर्वा, चावल, हलदी व फूल रख एक गांठ लगा कर उसे वधू के दुपट्टे से बांधा जा रहा था.

कावेरी के 7 फेरों से पहले भी सुखमय भविष्य और मन को बांधने के प्रतीक के रूप में गठबंधन की रस्म अदा की गई थी. लेकिन हुआ क्या? उदित के कंधे पर लटके दुपट्टे में बंधा गोल सिक्का कैसे तिरस्कार की टेढ़ीमेढ़ी आकृति में बदल गया, वह जान ही नहीं सकी.

दूर्वा उसे हराभरा खुशहाल जीवन कहां दे सकी? वह तो कंटीली  झाडि़यां ही चुभा रही है. हलदी का सुनहरा रंग जीवन में चढ़ने की आशा पूरी होती, उस से पहले ही विषाद ने अपने रंग बिखेर दिए थे उस पर. फूल सा उस का चेहरा जैसे खिलने से पहले ही मुर झाया सा लगने लगा था. अक्षत चावल के धवल दाने पति के अटूट प्रेम और सुखशांति देने के स्थान पर एक बो झ सा औपचारिक रिश्ता ही तो दे पाए थे उसे.

मानसिक शांति तो अब एक सपना सी लगने लगी है. गठबंधन ने दोनों के मन को तो नहीं बांधा. हां, कावेरी के पांवों में जंजीर जरूर बंध गई थी, जिसे न तो वह तोड़ पा रही थी और न ही अपने अस्तित्व को यों कैद में देख पा रही थी.

डोरबैल बजने से कावेरी सोच के दलदल से बाहर आ गई. दरवाजा खोला तो सामने नमन को देख मुर झाया मन खिल सा गया.

नमन उस के पड़ोस में ही रहता था. दोनों की दोस्ती पुरानी थी. वे एक ही स्कूल में पढ़े थे. बाद में उच्च शिक्षा के लिए नमन बैंगलुरु चला गया था. एमबीए करने के बाद नोएडा स्थित एक विदेशी कंपनी में बतौर मैनेजर वह कार्य कर रहा था. नमन का एक पैर पोलियो के कारण बेहद कमजोर था. उस पैर में वह कैलीपर पहन कर रखता था, तभी उस का चलनाफिरना संभव हो पाता था.

नमन के मन में कावेरी के लिए विशेष स्थान था, लेकिन इस का कारण कावेरी का अप्रतिम सौंदर्य या उस का पढ़ाई में अव्वल होना नहीं था. इस का कारण तो कावेरी का मन के प्रति सम्मान और स्नेही व्यवहार था, जो सहानुभूति से नहीं, मित्रता की सुगंध से सुवासित था.

विवाह के बाद कावेरी का मायके में आना कम होने लगा तो नमन से मिलनाजुलना बंद सा हो गया, लेकिन कावेरी की मित्रता जैसे ऊर्जा बनी हमेशा नमन का हाथ पकड़े साथसाथ चला करती थी.

नमन आया तो कावेरी पहले के रंग में रंग गई. बातों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. पुराने दोस्त, स्कूल व कालेज के टीचर्स और मौसम का मिजाज सबकुछ समा गया था उन की बातचीत के मध्य.

कावेरी अपना दर्द मन में ही रख नमन का दिल नहीं दुखाना चाहती थी, लेकिन वह भूल गई थी कि नमन जैसा अंतरंग मित्र उस की मुसकान देख कर ही अनुमान लगा लेगा कि वह दिल से निकली खुशनुमा मुसकराहट है या हंसी का जामा पहने हुए गहन पीड़ा.

कुछ देर की बातचीत के बाद नमन अचानक पूछ बैठा, ‘‘कावेरी, हम क्या अपने पुराने दिनों को ही याद करते रहेंगे या अपनी नई जिंदगी के किस्से भी शेयर करेंगे?’’

कावेरी को लगा जैसे चोरी पकड़ी गई हो. बोली, ‘‘मेरी जिंदगी तो वही, किसी भी शादीशुदा स्त्री की जिंदगी जैसी ही… सासससुर, पति, जिम्मेदारियां बस और क्या? तुम ही कुछ बताओ न,’’ कह कर उस ने पलकें  झुका लीं.

‘एक खूबसूरत जिंदादिल औरत पति से दूर बैठी हो और एक बात भी उस के बारे में न करे… अजीब लग रहा है मु झे. मैं गलत नहीं हूं तो तुम बहुत कुछ दबाए बैठी हो अपने अंदर. कावेरी, मन की गिरह खोल दो प्लीज.’

नमन की स्नेहभरी गुहार कावेरी के दिल से आंखों तक पहुंच आंसू बन कर  झर झर बहने लगी. अपनी सभी आहत अनुभूतियों को उस ने 1-1 कर नमन के समक्ष खोल कर रख दिया. नमन की सहानुभूति घावों पर मरहम का काम कर रही थी.

कावेरी की आपबीती सुन कुछ सोचता हुआ सा नमन बोला, ‘‘कावेरी, क्या तुम्हें पूरा विश्वास है कि उदित ने तुम दोनों की रिपोर्ट्स को ले कर सच बोला है तुम से?’’

‘‘मतलब? उदित ने औनलाइन देखी थीं रिपोर्ट्स. अपनी मरजी से थोड़े ही कहा था.’’

‘‘लेकिन तुम ने तो नहीं देखीं, फिर प्रिंट्स भी नहीं निकलवाए उस ने. कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम नहीं वह…’’

नमन की बात बीच में ही काट कर कावेरी बोल उठी, ‘‘विश्वास तो नहीं हो रहा कि उदित इतना बड़ा  झूठ बोल सकता है. वह गुस्सैल जरूर है, लेकिन धोखेबाज भी…?’’ बेचैन हो वह सोच में डूब गई.

उसे चिंतित देख नमन ने उस का ध्यान दूसरी ओर लगाने के उद्देश्य से चुटकुले सुनाने शुरू कर दिए. एक बार फिर हंसीमजाक का दौर चल पड़ा. इस बीच सुधांशु का जयपुर पहुंच कर फोन आ गया. नमन वहां आया हुआ है यह जान कर कावेरी के लिए चिंतित सुधांशु को राहत सी मिली. नमन से उन्होंने रात में कावेरी के पास ही रुकने का अनुरोध कर किया.

रात के 1 बजे दोनों की उनींदी आंखों ने बातचीत की गति पर थोड़ा विराम लगा  ही दिया. सोने से पहले नमन हौले से मुसकरा कर बोला, ‘‘कावेरी, एक बात कहना चाहता हूं. हम कितने वक्त बाद मिले हैं. इस के बाद न जाने कब मिल पाएं. तुम्हें कोई तकलीफ न हो तो 1-1 कौफी हो जाए. हां, लेकिन कौफी मैं बनाऊंगा. तुम रुको न यहीं, मैं बस यों गया और यों आया.’’

कावेरी मित्र के आग्रह को टाल नहीं सकी.  अपने पिता के कमरे में जा कर कावेरी नमन के सोने का प्रबंध करने लगी. नमन कौफी ले कर आया तो पहला घूंट भरते ही बोली, ‘‘कमाल की कौफी बनाते हो नमन, तुम्हारी होने वाली वाइफ से रश्क सा हो रहा है मु झे,’’ कहते हुए कावेरी खिलखिला कर हंस पड़ी और फिर वहीं बैड पर पैर फैला कर चैन से बैठ कौफी का आनंद लेने लगी.

नमन ने उसे अपने मोबाइल में उन लड़कियों के फोटो दिखाए, जहां उस के रिश्ते की बात चल रही थी. कावेरी से उस की पसंद की लड़की चुनने को कह कर वह वाशरूम चला गया.

थकी हुई कावेरी वहीं बैड पर लेटी तो पता ही नहीं चला कि कब आंख लग गई.

सुबह अलार्म बजने पर ही कावेरी की नींद खुली. हड़बड़ा कर बिस्तर से उठ वह कमरे से बाहर निकली. नमन बालकनी में खड़ा गुलाबी आसमान पर बिखरी छटा निहार रहा था. इस से पहले कि वह रात के विषय में कोई सवाल करती, नमन स्वयं ही बोल उठा, ‘‘रात को जब मैं चेंज कर अंकल के कमरे में वापस आया तो तुम गहरी नींद में थीं. तुम्हें उठाना मैं ने ठीक नहीं सम झा और तुम्हारे कमरे में जा कर सो गया.’’

चाय पी कर नमन वापस चला गया. जब तक सुधांशु लौटे नहीं नमन प्रतिदिन कावेरी से मिलने आता रहा. सुधांशु लौटे तो कावेरी जैसे नन्ही सी बच्ची बन गई. वह यह देख कर बहुत प्रसन्न थी कि इतने कम समय के लिए जयपुर जाने पर भी पापा यह नहीं भूले थे कि लाख की चूडि़यां कावेरी को बहुत पसंद हैं.

ंगबिरंगी चूडि़यों और कंगनों के साथ ही पापा गुलाबी और पीले रंग में रंगा, गोटापत्ती के काम वाला एक सुंदर लहंगा भी लाए थे. कितना खुश देखना चाहते थे वे कावेरी को, चाह कर भी कावेरी सुधांशु को अपना दुख नहीं बता पाई.

वह जानती थी कि उस के मां न बन पाने पर ससुराल वालों का उसे दोष देना पापा को बहुत कष्ट पहुंचाएगा. अपनी पीड़ा भीतर ही दबा पापा के स्नेह को पलपल महसूस करती कावेरी के 10 दिन बातें करते और हंसतेहंसाते कब बीत गए, पता ही नहीं चला उसे.

वापसी के दिन नाश्ता करने वह टेबल पर बैठी ही थी कि उबकाई आने  लगी. उबकाई के साथ ही चक्कर भी आ रहा था. सुधांशु उसे घर के पास ही डाक्टर सुजाता के क्लीनिक पर ले गए.

डाक्टर सुजाता ने जांच कर दवा के साथ कुछ टैस्ट भी लिख दिए. टैस्ट के लिए सैंपल्स दे कावेरी घर आ कर दवा खा आराम करने लेट गई. दोपहर को नमन कावेरी से मिलने आया तो साथ में उस की पसंद का ढोकला भी लाया.

कावेरी की पसंदीदा दुकान का ढोकला उस पर पापा और नमन का साथ, कावेरी भूल ही गई कि वह बीमार है. तीनों की बातों और ठहाकों से घर गूंज उठा.

शाम होतेहोते कावेरी की तबीयत बिलकुल ठीक हो गई. सुधांशु चाहते थे कि वह अगले दिन तक रुक जाए, लेकिन कावेरी ने जाना ही उचित सम झा, क्योंकि उदित सुबह ही सिडनी से अपने घर लौट चुका था.

डाक्टर सुजाता के क्लीनिक पर रिपोर्ट्स औनलाइन देखने की सुविधा नहीं थी और स्वास्थ्य में सुधार के कारण कावेरी को रिपोर्ट लेना आवश्यक भी नहीं लग रहा था, इसलिए वह कैब बुक करवाने लगी.

नमन और सुधांशु का मानना था कि रिपोर्ट एक बार देखनी जरूर चाहिए. कावेरी को लौटने में देर न हो जाए, इसलिए नमन ने कहा कि वह क्लीनिक से रिपोर्ट ले कर उस का फोटो खींच कावेरी को व्हाट्सऐप पर भेज देगा. कैब बुला कर पापा और नमन से विदा ले वह टैक्सी में बैठ कर चली गई.

 

कावेरी ससुराल पहुंचने ही वाली थी कि उसे नमन का भेजा हुआ रिपोर्ट का फोटो मिल गया. जब कावेरी ने फोटो डाउनलोड कर देखा तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रिपोर्ट बता रही थी कि वह गर्भवती है. कावेरी का मन बल्लियों उछलने लगा. वह जल्द ही उदित से मिल कर यह सुखद समाचार उसे सुनाना चाहती थी.

उत्साह से भरी कावेरी दौड़ती हुई उदित के पास जा पहुंची. उदित से आंखें बंद करने को कह कर उस ने पर्स से मोबाइल निकाला और रिपोर्ट का फोटो उदित के सामने कर दिया.

उदित ने आंखें खोलीं तो नजरें मोबाइल स्क्रीन पर ठहर गईं. रिपोर्ट में ‘प्रैगनैंसीपौजिटिव’ देखते ही उस के चेहरे का रंग उड़ गया. माथे पर त्योरियां चढ़ाते हुए बोला, ‘‘क्या मजाक है यह?’’

‘‘मजाक नहीं, यह सच है उदित,’’ कावेरी खुशी से चहक उठी.

‘‘लेकिन यह कैसे हो सकता है?’’ उदित आशंका से घिरा था.

‘‘हो गया बस, कैसे? यह तो मु झे भी नहीं पता,’’ अदा से कंधे उचकाती हुई कावेरी उदित से लिपट गई.

कावेरी को अपने से अलग कर उदित आक्रोशित हो लगभग चीख उठा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता… कभी नहीं. हुआ तो हुआ कैसे?’’

‘‘क्या हो गया है आप को?’’ इस बार कावेरी तुनक कर बोली, ‘‘यह क्या अनापशनाप बोले जा रहे हैं आप इतनी देर से? मैं ने तो सोचा था कि आप यह खुशखबरी सुन खुशी से  झूम उठेंगे. लेकिन…’’

‘‘कैसी खुशखबरी? कैसी खुशी? सुन लो तुम आज कि… मैं पिता नहीं बन सकता,’’ उत्तेजना और क्रोध में उदित के मुंह से सच निकल गया.

कावेरी सिर पकड़ कर बैठ गई. उसे लग रहा था कि वह चक्कर खा कर गिर जाएगी.

अपनी रोबीली आवाज में उदित फिर चिल्लाया, ‘‘क्या मैं जान सकता हूं कि यह बच्चा किस का है? शायद उस नमन का ही, जिस ने तुम्हें यह रिपोर्ट भेजी है.’’

कावेरी यह सहन न कर सकी. तैश में आ कर बोली, ‘‘अब सम झी कि आप ने मु झे हमारे टैस्ट की रिपोर्ट्स क्यों नहीं दिखाई थीं. क्यों नहीं जाना चाहते थे डाक्टर के पास. कितना बड़ा धोखा…’’

बौखलाया सा उदित कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था. बेचैन हो कर वह कमरे में इधरउधर चक्कर लगाने लगा. असमंजस में पड़ी कावेरी भी आंखों पर हाथ रख बैड पर लेट गई.

कुछ देर बाद कमरे की चुप्पी कावेरी का मोबाइल बजने से टूट गई. कौल नमन का था, ‘‘उखड़ी सी आवाज में हैलो बोल मोबाइल पर बात करते हुए वह कमरे से सटी बालकनी में जा खड़ी हुई.’’

नमन बोला, ‘‘उदित का सिडनी टूर कैसा रहा? तुम्हारी तबीयत कैसी है अब? वैसे मैं ने एक जरूरी बात बताने के लिए किया है फोन. अरे, मैं ने जिस रिपोर्ट का फोटो भेजा था वह तुम्हारी नहीं है. पहले किसी और कावेरी की रिपोर्ट दे दी थी मु झे उन लोगों ने. कुछ देर पहले क्लीनिक से फोन आया तो मैं दोबारा जा कर सही वाली रिपोर्ट लाया हूं. अभी व्हाट्सऐप पर तुम्हारी असली रिपोर्ट भेज रहा हूं. कोई बड़ी बीमारी नहीं बस थोड़ा इन्फैक्शन हो गया था.

‘‘ओह, मैं भी कुछ सम झ नहीं पा रही थी कि आखिर यह हुआ क्या? हां, लेकिन उस गलत रिपोर्ट ने उदित को बेनकाब कर दिया है,’’ कहते हुए कावेरी ने पूरी घटना संक्षेप में बता दी.

अब उदित को बता दो रिपोर्ट का सच, ‘‘सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर नमन ने फोन काट दिया और असली रिपोर्ट कावेरी को भेज दी.

फोन पर कावेरी की हताशा में डूबी आवाज सुनने के बाद नमन चिंतित था, लेकिन उसे इस बात की प्रसन्नता भी थी कि उदित को ले कर उस का अनुमान सही निकला और एक छोटी सी युक्ति लगा कर उस  झूठ से परदा उठाने में वह सफल भी हो गया.

हुआ यों कि शाम को जब नमन कावेरी की रिपोर्ट लेने पहुंचा तो जो रिपोर्ट उसे  मिली उस पर ‘प्रैगनैंसी पौजिटिव’ देख कर वह चौंक गया. फिर रिपोर्ट पर मोबाइल नंबर व घर का पता देखा तो वह कावेरी का नहीं था. नमन सम झ गया कि यह रिपोर्ट किसी और कावेरी की है.

इस से पहले कि वह काउंटर पर जा कर सही रिपोर्ट लेता, उस ने अपने मोबाइल से उस रिपोर्ट की एक फोटो इस तरह खींच कर रख लिया, जिस में एड्रैस और मोबाइल नंबर दिखाई न दे. इस के बाद नमन ने कावेरी की असली रिपोर्ट ले कर अपने पास रख ली. रिपोर्ट नौर्मल थी, इसलिए उसे कावेरी तक पहुंचाने की जल्दी भी महसूस नहीं हुई नमन को.

गलत रिपोर्ट वाला फोटो कावेरी को भेजने के कुछ देर बाद भेजी नमन ने असली रिपोर्ट ताकि कावेरी उदित को गलत रिपोर्ट दिखा सके और इस बारे में कावेरी और उदित की बातचीत भी हो पाए. गलत रिपोर्ट देखने के बाद उदित की प्रतिक्रिया द्वारा सच झूठ की तह तक पहुंचना चाहता था नमन.

सही रिपोर्ट भेजने के बाद नमन आशा कर रहा था कि उदित अब शर्मिंदा हो कर सच छिपाने के लिए कावेरी से क्षमा मांग लेगा और दोनों का वैवाहिक जीवन एक सुखद मोड़ ले लेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

उदित को जब कावेरी ने बताया कि प्रैगनैंसी वाली रिपोर्ट गलत थी तो निर्लज्जता और दोगुने वेग से वह कावेरी पर चिल्ला उठा, ‘‘तो अब अपने दोस्तों के साथ मिल कर मेरा मजाक भी उड़ाना शुरू कर दिया तुम ने. न जाने क्या सम झती हो अपनेआप को… सिडनी में ही खुश था मैं. सोच रहा हूं सब छोड़छाड़ कर वहीं चला जाऊं.’’

कावेरी का मन वितृष्णा से भर उठा. मन के चूरचूर होने की पीड़ा मुख पर साफ  झलक रही थी. मन किया कि जोर से चीख उठे. मुंह से जैसे बोल अपनेआप ही निकल पड़े, ‘‘अपने किए पर शर्मिंदा होने की जगह आप मु झे, मेरे दोस्तों पर कीचड़ उछाल रहे हैं? अब तक आप के व्यवहार को मैं आप का स्वभाव सम झ सहन करती आ रही थी, लेकिन आप तो पहले दिन से ही मु झे नीचा दिखाने के मौके तलाश रहे थे.

‘‘क्या हो गया अगर पतिपत्नी में से कोई भी संतान को जन्म देने में असमर्थ है? वह आप भी हो सकते थे या मैं भी. रिश्तों का घटाजोड़ नहीं जानती मैं, लेकिन इतना सम झती हूं कि प्यार दिमाग से नहीं दिल से होता है. पतिपत्नी का रिश्ता प्रेम पर टिका होता है… दिमाग का खेल नहीं चलता यहां. आप क्या छोड़ेंगे मु झे? मैं आज ही, अभी पतिपत्नी के नाम पर कलंक बन चुके इस रिश्ते से अपने को अलग करती हूं.’’

उदित हक्काबक्का सा देखता रह गया और बैग लिए कावेरी उलटे पांव मायके लौट आई.

सुधांशु भी क्या कहते सब जानने के बाद? कुछ दिनों की जद्दोजहद के बाद तलाक हो गया.

अपनी योग्यता के बल पर स्कूल में टीचर बन कावेरी पूरी हिम्मत से स्वयं को  संभाले थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं एक रिक्तता निरंतर अनुभव कर रही थी. धीरेधीरे उस के वजूद पर छा रही वह उदासी उस की उमंगों और खुशियों को लील ही जाती यदि उस दिन नमन अपना दिल उस के सामने खोल न देता.

‘‘कावेरी, तुम्हें कभी कहने का साहस न जुटा सका. हमेशा एक जुड़ाव सा महसूस होता रहा है तुम संग. कुछ कहना भी चाहा कभी तो अपाहिज पांव ने जैसे मेरी सारी हिम्मत छीन ली. तुम्हारी शादी हुई तो सब्र कर लिया और हमेशा तुम्हें खुश देखना चाहा.

‘‘अब भी तुम्हें उदास देखता हूं तो लगता है कहीं से खुशियों की गठरी बांध लाऊं और सब तुम पर निछावर कर दूं,’’ नमन बोला.

‘‘अपाहिज? क्या कह रहे हो नमन? अपाहिज तो उदित था जिस की सोच ही पंगु थी. काश, तुम ने कुछ साल पहले ही बता दी होती मु झे अपने मन की बात,’’ कावेरी का गला रुंध गया.

‘‘तो अब भी क्या बिगड़ा है? कावेरी, क्या तुम मेरी जीवनसंगिनी बन कर खुश रह सकोगी?’’

कावेरी की आंखें ही नहीं मन भी भीग गया. लगा जैसे नमन ने चाहत के दुपट्टे में सम्मान का सिक्का, उमंग सी हलदी, दूर्वा जैसी खुशी, चावल के दानों सा विश्वास तथा आशा के पुष्प रख कस कर गांठ लगा दी हो और उसे कावेरी की कोमल भावनाओं की चूनर से बांध दिया हो.

‘‘गठबंधन तो आज हो गया हमारा,’’ कह कर कावेरी नमन के गले लग गई.

तूफान: क्या हुआ था कुसुम के साथ

एक तूफान था जो जिंदगी में अचानक ही चला आया था. मन में कैसी बेचैनी, छटपटाहट और हैरानी थी. क्या करें कुसुमजी? ऐसा तो कभी नहीं हुआ, कभी नहीं सुना. संसार में आदमी की इज्जत ही तो हर चीज से बढ़ कर होती है. वह कैसे अपनी इज्जत जाने दे? कुसुमजी हैरान और दुखी हैं. इस के अलावा ऐसे में कोई कर भी क्या सकता है? बात शुरू से बताती हूं.

दरअसल, कुसुमजी एक संपन्न और सुखी घराने की बहू हैं. घर में सासससुर हैं. पति हैं. 3 प्यारेप्यारे बच्चे हैं. उन के घर में न रुपएपैसे का अभाव है न सुखशांति का. दूसरे घरों में आएदिन झगड़ेफसाद होते रहते हैं मगर कुसुमजी की छोटी सी गृहस्थी इस सब से बची हुई है. कुसुमजी के पति क्रोधी नहीं हैं. सास भी झगड़ालू नहीं हैं. सब प्रेमभाव से रहते हैं. घर में कोई मेहमान आ जाए तो भारी नहीं पड़ता. दो वक्त का भोजन उसे भी कराया जा सकता है. कोई नातेरिश्तेदार हो तो चलते समय छोटामोटा उपहार यानी कोई अच्छा कपड़ा या 11-21 रुपए देने में भी घर का बजट नहीं गड़बड़ होता. अतिथि बोझ न हो, सिर पर कर्ज न हो, घर में सुखशांति हो, इस से ज्यादा और क्या चाहिए? कुसुमजी छमछम करती अपने आंगन में घूमतीफिरती हैं और रसोई, दालान, बैठक आदि सब जगह की व्यवस्था स्वयं देखती रहती हैं. रसोई के लिए महाराजिन है और बरतन साफ करने के लिए महरी. बाजार का काम देखने को घर में कई नौकरचाकर भी हैं. सास सुशील, सुंदर बहू पा कर घर की जिम्मेदारी उसे सौंप चुकी हैं और आराम से जिंदगी के बाकी दिन गुजार रही हैं. ऐसे में क्या तूफान खड़ा हो सकता है?

क्या पति इधरउधर ताकझांक करता है? अजी नहीं, वह तो रहट का बैल है. बेचारा कंधे पर गृहस्थी का जुआ ले कर उसी धुरी के इर्दगिर्द घूमता रहता है. उस गरीब को तो घर की दालरोटी के अलावा कभी बाजार की चाटपकौड़ी की चाहत तक नहीं हुई. हुआ यह कि कुसुमजी के घर मेहमान आए. वह अकसर आते ही रहते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. वह ठाट से 2-3 दिन रहे. जिस काम से आए थे वह निबटाया और फिर शहर भी घूम आए. उस दिन वह सुबहसवेरे चलने को तैयार हुए. अटैची बंद की. बिस्तर बांधने लगे, आधा बिस्तर बिस्तरबंद में जमा चुके तो मालूम पड़ा कि उन का कंबल नहीं है. उन्होंने फिर से देखाजांचा. वह मेहमानों के जिस कमरे में टिके हुए थे उस में उन के अलावा और कोई नहीं ठहरा था. अपनी चारपाई देखी. नीचे झांक कर देखा कि शायद चारपाई के नीचे गिर गया हो, लेकिन कंबल वहां भी नहीं था. वह अपने सब कपड़े सहेज कर पहले ही अटैची में बंद कर चुके थे. कोई और जगह ऐसी नहीं थी जहां कंबल के पड़े होने की संभावना होती. मेहमान को घर के मालिक से कहने में संकोच हो आया.

क्या एक तुच्छ कंबल की बात इतने बड़े और इज्जत वाले आदमी से कहना उचित होगा? वैसे कंबल पुराना नहीं था. यात्रा के लिए ही खरीदा गया था. रुपए भी पूरे 300 खर्च हो गए थे. ऐसे में उस नए कंबल को संकोच के मारे छोड़ जाने के लिए भी दिल नहीं मानता था. मेहमान ने झिझकते हुए कुसुमजी के बच्चे शरद से पूछ लिया, ‘‘बेटा, यहां हमारा कंबल पड़ा था. अब मिल नहीं रहा है.’’ शरद ने इधरउधर नजर दौड़ाई. कंबल कहीं न पाया तो जा कर मां से कहा. उस वक्त कुसुमजी रसोई में महाराजिन को निर्देश दे रही थीं. शरद की बात सुन कर तुरंत मेहमान के पास दौड़ी आईं. उन्होंने देखा कंबल नहीं था. घर का कोई भी सदस्य मेहमान के कमरे में नहीं आता था. इसलिए किसी का वहां आ कर मेहमान का कंबल ले जाना समझ में नहीं आ रहा था. कुसुमजी ने यों ही दिल की तसल्ली के लिए घर के बिस्तर उलटपुलट डाले. हालांकि उन्हें यकीन तो पहले से ही था कि घर का कोई भी सदस्य कंबल नहीं उठा सकता, पर मेहमान और अपनी तसल्ली के लिए उसे ढूंढ़ना तो था ही. कुसुमजी मन ही मन बड़ी झेंप महसूस कर रही थीं.

मेहमान के सामने हेठी हो गई. क्या सोचेगा भला आदमी? कैसे लोग हैं? बिस्तर में से कंबल ही गायब कर दिया. कौन कर सकता है ऐसा गलत काम? सासससुर को ऐसी बातों से कोई मतलब नहीं. वह तो लाखों का व्यापार और घरबार सब बेटेबहू को सौंपे हुए बैठे हैं. भला वह कैसे मेहमान का एक कंबल ले लेंगे? ऐसा सोचा ही नहीं जा सकता. और बच्चे? वे स्वयं अपना तो कोई काम करते नहीं, फिर मेहमान के कमरे में जा कर उस का बिस्तर क्यों ठीक करेंगे? और फिर जहां तक कंबल का सवाल है वे उस का क्या करेंगे? उन्हें किसी चीज की कमी है जो वे चोरी करेंगे? रही किसी के मजाक करने की बात तो उन के बड़ों से मजाक करने का सवाल ही नहीं उठता. कुसुमजी दिल ही दिल में सवाल करती रहीं. सारी संभावनाओं पर विचार करती रहीं पर उस से कुछ हासिल न हुआ. कंबल तो न मिलना था न मिला.

कुसुमजी का मन जैसे कोई भंवर बन गया था जिस में सबकुछ गोलगोल घूम रहा था. महाराजिन? वह तो चौके के अलावा कभी किसी के कमरे में भी नहीं जाती. उस के अलगथलग बने मेहमानों के कमरे में जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था. महरी? वह बरतन मांज कर चौके से ही आंगन में हो कर पिछवाड़े के दरवाजे से निकल जाती है. गरीब आदमी के ईमान पर शक नहीं करना चाहिए. फिर कंबल गया तो गया कहां? अब मेहमान से भी क्या कहें? कुसुमजी की परेशानी सुलझने का नाम ही नहीं ले रही थी. तभी मेहमान ने अपना सामान ला कर आंगन में रख दिया. वह कुसुमजी को नमस्कार करने के लिए उद्यत हुआ. वह बिना कंबल के जा रहा है या कंबल मिल गया है यह जानने के लिए जैसे ही उन्होंने पूछा तो मेहमान ने झिझकते हुए कहा, ‘‘नहीं, भाभीजी, मिला तो नहीं. पर छोडि़ए इस बात को.’’ ‘‘नहींनहीं, अभी और देख लेते हैं. आप रुकिए तो.’’ कुसुमजी ने पति को बुलवा लिया. इत्तला की कि मेहमान का कंबल नहीं मिल रहा है. वह भी सुन कर सन्न रह गए. इस का सीधा सा अर्थ था कि कंबल खो गया है.

उन के घर में ही किसी ने चुरा लिया है. कुसुमजी ने बड़े अनुनय से मेहमान को रोका, ‘‘अभी रुकिए आप. कंबल जाएगा कहां? ढूंढ़ते हैं सब मिल कर.’’ कुसुमजी, उन के पति, बच्चे, सासससुर सब मिल कर घर को उलटपलट करने लगे. सारी अलमारियां, घर के बिस्तर, ऊपर परछत्ती, टांड, कोई ऐसी जगह नहीं छोड़ी जहां कंबल को न ढूंढ़ा गया हो. कुसुमजी ने पहली बार गृहस्वामी को ऊंची आवाज में बोलते सुना, ‘‘घर की कैसी देखभाल करती हो? घर में मेहमान का कंबल खो गया, इस से बड़ी शर्म की क्या बात होगी?’’ कुसुमजी तो पहले ही हैरानपरेशान थीं, पति की डांट खा कर उन का जी और छोटा हो गया. उन की आंखों से आंसू टपटप टपकने लगे. साथ ही वह सब जगह कंबल की तलाश करती रहीं. ऐसा लगता था जैसे घर में कोई भूचाल आ गया हो. दालान में बैठा मेहमान मन में पछताने लगा कि अच्छा होता कंबल खोने की बात बताए बिना ही वह चला जाता. क्यों शांत घर में सुबहसवेरे तूफान खड़ा कर दिया. इस दौरान गृहस्वामी का उग्र स्वर भी टुकड़ोंटुकड़ों में सुनने को मिल रहा था.

मेहमान सोचने लगा, 300 रुपए अपने लिए तो बड़ी रकम है पर इन लोगों के लिए वह कौन सी बड़ी रकम है, जो इस कंबल के लिए जमीनआसमान एक किए हुए हैं. मेहमान ने उठ कर फिर गृहस्वामी को आवाज दी, ‘‘भाई साहब, आप कंबल के लिए परेशान न हों. अब मैं चलता हूं.’’ ‘‘नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? आप बस 10 मिनट और रुकिए,’’ मेहमान को जबरदस्ती रोक कर गृहस्वामी बाहरी दरवाजे की तरफ लपक लिए. वह आधे घंटे बाद लौटे, हाथ में एक बड़ा सा कागज का पैकेट लिए. उन्होंने मेहमान के सामान पर पैकेट ला कर रखा और बोले, ‘‘भाई साहब, इनकार न कीजिएगा. आप का कंबल हमारे यहां खोया है. इस की शर्मिंदगी ही हमारे लिए काफी है.’’ मेहमान भी कनखियों से देख कर जान चुके थे कि पैकेट में नया कंबल है, जिसे गृहस्वामी अभीअभी बाजार से खरीद कर लाए हैं. थोड़ीबहुत नानुकर करने के बाद मेहमान कंबल सहित विदा हो लिए. मेहमान तो चले गए, पर कुसुमजी के लिए वह अपने पीछे एक तूफान छोड़ गए. मुसीबत तो टल गई थी, लेकिन कंबल के खोने का सवाल अब भी ज्यों का त्यों मुंहबाए खड़ा था.

कोई आदमी ऐसा नहीं था जिस पर कुसुमजी शक कर सकें. फिर कंबल गया तो कहां गया? बिना सचाई जाने छोड़ भी कैसे दें? इसी उधेड़बुन में कुसुमजी उस रात सो नहीं सकीं. सुबह उठीं तो सिर भारी और आंखें लाल थीं. इतना दुख कंबल खरीद कर देने का नहीं था जितना इस बात का था कि चोर घर में था. चोरी घर में हुई थी. कुसुमजी यह समझती थीं कि घर में उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता, पर अचानक उन का यह विश्वास हिल गया था. किस से कहें कि ठीक उन की नाक के नीचे एक चोर भी मौजूद है जो आज कंबल चुरा सकता है तो कल घर की कोई भी चीज चुरा सकता है. घर में कुछ भी सुरक्षित नहीं है. कुसुमजी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए. इसी परेशानी के आलम में उन की सहेली सविता ने परामर्श दिया कि पास में ही एक पहुंचे हुए ज्योतिषी बाबा हैं. वह बड़े तांत्रिक और सिद्ध पुरुष हैं. कैसा भी राज हो, बाबा को सब मालूम हो जाता है.

कुसुमजी का कभी किसी ज्योतिषी या तांत्रिक से वास्ता नहीं पड़ा था, इसलिए उन के मन में उन के प्रति अविश्वास की कोई भावना नहीं थी. दरअसल, उन के जीवन में ऐसा कोई टेढ़ामेढ़ा मोड़ ही नहीं आया था जिस में से निकलने की कोई उम्मीद ले कर उन्हें किसी बाबा आदि की शरण में जाना पड़ता. सविता का परामर्श मान कर कुसुमजी तैयार हो गईं. उन्हें यह जानने की उत्सुकता अवश्य थी कि अगर सचमुच ज्योतिष नाम की कोई विद्या है तो बाबा से जा कर पूछा जाए कि उन के अपने घर में आखिर कौन चोर हो गया है. जाने कितने गलीकूचों से हो कर कुसुमजी बाबा के पास पहुंचीं. भगवा वस्त्र, माथे पर त्रिपुंड, गले में रुद्राक्ष की माला, बंद आंखें और तेजस्वी मूर्ति. सविता ने उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया और चोर का नाम जानने की इच्छा प्रकट करते हुए बाबा के सामने फलों की टोकरी भेंटस्वरूप रख दी. बाबा ने उस की ओर ध्यान भी नहीं दिया, किंतु उन के शिष्य ने टोकरी उठा कर अंदर पहुंचा दी. बाबा ध्यानावस्थित हुए. कुसुमजी ने बड़ी आशा से उन की ओर देखा, यह सोच कर कि वह पिछले दिनों जिस सवाल का उत्तर खोजतेखोजते थक गई हैं शायद उस का कोई उत्तर बाबा दे सकें.

बाबा की पलकें धीरेधीरे खुलीं, उन्होंने सर्वज्ञ की भांति कुसुमजी पर एक दृष्टि डाली और गंभीर स्वर में घोषणा की, ‘‘चोर घर में ही है.’’ चोर तो घर में ही था. बाहर का कोई आदमी घर में आया ही नहीं था. पर सवाल यह था कि उन के अपने ही घर में चोर था कौन. बाबा ने कहा, ‘‘यह तो घर में आ कर ही बता सकेंगे कि चोर कौन है. हम चोर के मस्तक की लिखावट पढ़ सकते हैं. वारदात के मौके पर होंगे तो चोर से कंबल भी वहीं बरामद करा देंगे.’’ कुसुमजी ने बाबा की बात मान ली. बाबा ने 2 दिन बाद आने का समय दिया. 2 दिन बाद बाबा को लेने के लिए कार भेजी गई. बाबा पधारे. उन के सामने घर के सब लोग चोर की तरह उपस्थित हुए. बड़े आडंबर और दलबल के संग आने वाले बाबा के स्वागतसत्कार के बाद चोर की पहचान का काम शुरू हुआ. बाबा ने घर के हर सदस्य को ‘मैटल डिटेक्टर’ की तरह पैनी निगाहों से देखा.

फिर सिर हिलाया, ‘‘इन में से कोई नहीं है. इन के अलावा घर में कोई नौकरचाकर नहीं है क्या?’’ ‘‘महाराजिन और महरी हैं.’’ ‘‘दोनों को बुलाओ.’’ उन्हें बुलाया गया. वे दोनों गरीब और ईमानदार औरतें थीं. घर में बरसों से काम कर रही थीं. आज तक कभी कोई ऐसीवैसी बात नहीं हुई थी. लेकिन आज उन की चोरों की तरह पेशी हो रही थी. अपमान के कारण उन के मुंह से कोई बात नहीं निकल रही थी. उन्हें डर लग रहा था कि बाबा का क्या, चाहे जो कह दें. बाबा को कौन पकड़ता फिरेगा? सब में अपनी किरकिरी होगी. कही बात और लुटी इज्जत किस काम की? बाबा ने दोनों नौकरानियों की ओर देखा. महरी की ओर उन की रौद्र दृष्टि पड़ी. उंगली से इंगित किया, ‘‘यही है.’’ बेचारी महरी के सिर पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. जिस पर घर के मालिक तक भरोसा करते आए थे, उस पर एक बाबा के कहने पर बिना सुबूत चोर होने का इलजाम लगाया जा रहा था. उस ने बड़ी हसरत से मालिकों की ओर देखा.

यह सोच कर कि शायद वे अभी कहेंगे कि नहीं, यह चोर नहीं हो सकती. यह तो बड़े भरोसे की औरत है. गरीब की तो इज्जत ही सब कुछ होती है. लेकिन नहीं. न मालिक बोले, न कोई और ही कुछ बोला. कुसुमजी ने कहा कि पुलिस को बुला लो. बाबा के अधरों पर विजय की मंदमंद मुसकान नाच रही थी. मालिक ने अगले क्षण झपट कर महरी की चोटी पकड़ ली. हमेशा के मितभाषी, मृदुभाषी पति के मुंह से झड़ती फूहड़ गालियों की बौछार से कुसुमजी भी अवाक् रह गईं. उन को भी महरी से कोई सहानुभूति नहीं थी. जिस पर भरोसा किया, वही चोर निकली. जाने कितनी देर तक महरी पिटती रही. मालिक का हाथ चाहे जहां पड़ता रहा. भरेपूरे घर के आंगन में निरीह औरत की पिटाई होती रही.

बाबा की आवाज गूंजी, ‘‘कंबल निकाल.’’ महरी ने महसूस किया कि पीटने वाले का हाथ रुक गया है. कमजोर, थकाटूटा सिसकतासिहरता स्वर निकला, ‘‘कंबल तो नहीं है मेरे पास.’’ ‘‘कहां गया. कहां छिपा दिया?’’ महरी चुप. ‘‘बेच दिया?’’ ‘‘हां,’’ पिटाई से अधमरी हो चुकी महरी के मुंह से एकाएक निकला. घर के सभी लोग सुन कर हैरत से बाबा की तरफ देखने लगे. कैसे त्रिकाल- दर्शी हैं बाबा. जिसे घर में इतने वर्षों काम करते देख कर हम नहीं पहचान सके उस की असलियत इतनी दूर बसे अनजान बाबा की नजरों में कैसे आई? कुसुमजी को ध्यान है कि उस के बाद सब ने मिल कर फैसला किया था कि महरी कंबल के 300 रुपए दे दे. 300 रुपए नकद न होने की हालत में महरी के कान की सोने की बालियां उतरवा ली गई थीं. नौकरी से तो उस की छुट्टी हो ही गई थी. कुसुमजी के सीने से एक बोझ तो हट गया था. चलो, चोर तो पहचाना गया. घर में रहती तो न जाने और कितना नुकसान करती. पहले भी न जाने कितना नुकसान होता रहा है. वह तो विश्वास में मारी गई. खैर, जब जागे, तभी सवेरा. इस परेशानी से निकलने के लिए बाबा की सेवा और भेंट आदि में 500 रुपए खर्च होने का कुसुमजी को कोई अफसोस नहीं था. अफसोस अपने विश्वास के छले जाने का था. आश्चर्य था तो बाबा के सर्वज्ञ होने का, वह कैसे जान गए कि असल चोर कौन था? कंबल की चोरी से घर में उठा यह तूफान थम गया था. पर आज हाथ में पकड़े पोस्टकार्ड को ले कर कुसुमजी फिर उसी तूफान से घिरी हुई थीं. अभी कुछ देर पहले डाकिया जो डाक दे गया है उसी में यह पोस्टकार्ड भी था. उस में लिखा है : ‘‘घर पहुंचा तो मालूम हुआ कि कंबल तो मैं यहीं छोड़ गया था.

आप को जो परेशानी हुई उस के लिए हृदय से क्षमा चाहता हूं. आप का कंबल या तो किसी के हाथ भिजवा दूंगा और नहीं तो आने पर स्वयं लेता आऊंगा.’’ कुसुमजी की आंखों के सामने यह पोस्टकार्ड, कान की वे बालियां, बाबा का गंभीर चेहरा और महरी की कातर दृष्टि सब गड्डमड्ड हो रहे थे. मन- मस्तिष्क में एक तूफान आया जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. एक पाखंडी बाबा के चक्कर में पड़ कर उन के हाथों से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था.

एक से बढ़कर एक: दामाद सुदेश ने कैसे बदली ससुरजी की सोच

लेखिका- कल्पना घाणेकर

दरवाजेकी बैल बजाने के बजाय दरवाजा खटखटाने की आवाज सुन कर और आने वाली की पुकार सुन कर मैं सम झ गया कि कौन आया है. मैं ने कहा, ‘‘अरे भई जरा ठहरो… मैं आ रहा हूं,’’ बैठेबैठे ही मैं ने आने वाले से कहा.

यह सुन कर मेरी पत्नी बोली, ‘‘लगता है भाई साहब आए हैं,’’ कहते हुए उस ने ही दरवाजा खोल दिया.

‘‘आइए भाई साहब, बहुत दिनों बाद आज हमारी याद आई है.’’

‘‘भाभीजी, मैं आज एक खास काम से आप के पास आया हूं. लेकिन पहले चाय पिलाइए.’’

नंदा से चाय की फरमाइश की है तो मैं सम झ गया कि आज जरूर उस का कोई काम है. मैं ने अपने सामने रखे सारे कागजात उठा कर रख दिए, क्योंकि उस के आने की मु झे भी बड़ी खुशी हुई थी.

‘‘हां. बोलो क्या काम है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘देखो राजाभाई, मैं चित्रा की शादी पक्की करने जा रहा हूं. लड़का अच्छा है और घरबार भी ठीकठाक है… मु झे रुपयों की कोई कमी नहीं है. मेरी सिर्फ 2 बेटियां हैं. मेरा सबकुछ उन्हीं का तो है. मैं उन्हें बहुत कुछ दूंगा. सच है कि नहीं? फिर भी लड़के की ज्यादा जानकारी तो मालूम करनी ही पड़ेगी और वही काम ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूं.’’

दादाजी की बेटी चित्रा सचमुच बहुत सुंदर और भली लड़की थी. अमीरी में पल कर भी बहुत सीधीसादी थी. हम दोनों को हमेशा यही सवाल सताता कि चित्रा की मां बड़े घर की बेटी. मायके से खूब धनदौलत ले कर आई थी और हमेशा अपना बड़प्पन जताने वाली. उस की पढ़ाईलिखाई ज्यादा नहीं हुई थी और उसे न कोई शौक था, न किसी कला का ज्ञान. वह अपनी अमीरी के सपनों में खोने वाली और इसीलिए उस की मेरी पत्नी से जमी नहीं.

‘‘देख, राजाभाई, मेरे पास दौलत की कोई कमी नहीं है और मेरी बेटी भी अच्छी है. तो हमें अच्छा दामाद तो मिलना ही चाहिए.’’

‘‘हां भई हां. तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो. तुम्हारा देखा हुआ लड़का जरूर अच्छा ही होगा.’’

मैं उस के शब्द सुन कर चौंक पड़ा. बार रे बाप. क्या मैं फिर से ऐसे ही फंसूंगा? मेरे मन में विचार आया.

‘‘राजाभाई, लड़का तुम्हारी जानकारी में है. तुम्हारी चचेरी साली का बेटा, जो सदाशिव पेठ में रहता है.’’

इस पर मैं ने और नंदा ने एकदूसरे की तरफ देखा. हाल ही में हम ने एक शादी तय करने में योगदान दिया था. अब इस दोस्त से क्या कहूं? मैं वैसे ही उठ खड़ा हुआ और सुदेश का खत अलमारी से निकाल कर उसे दे दिया.

‘‘दादाजी, तुम्हारी चित्रा की शादी तय हो रही है, यह सुन कर हम दोनों को बहुत खुशी हो रही है. चित्रा बड़ी गुणी लड़की है. अत: उसे अच्छी ससुराल मिलनी चाहिए यही हमारी भी तमन्ना है. लेकिन अब पहले जैसी परिस्थितियां नहीं रही है. आजकल हर घर में 1-2 बच्चे… अपनी बच्चियों को मांबाप खूब धनदौलत देते हैं. तुम्हारे जैसे धनवान सिर्फ देते ही नहीं, बल्कि उस का बोलबोला भी करते हैं.

‘‘बारबार कह कर दिखाते हैं कि हम ने बेटी को इतना दिया, उतना दिया. यह बात किसी को पसंद आती है तो किसी को नहीं और लगता है कि उस का अपमान किया जा रहा है. इस पर वे क्या करते हैं, वह अब तुम्हीं इस खत में पढ़ लो. मैं क्या कहना चाहता हूं वह तुम सम झ जाओगे-

‘‘माननीय काकाजी को नमस्कार. मैं यह पत्र जानबू झ कर लिख रहा हूं, क्योंकि आज या कल कुछ बातें आप को मालूम होंगी, तो उस के कारण आप को पहले ही ज्ञात कराना चाहूंगा. पिछले कुछ दिनों से मैं बहुत परेशान हूं. फिर आप कहेंगे कि पहले क्यों नहीं बताया. जो कुछ घटित हुआ है उस समस्या का हल मु झे ही निकालना था.

‘‘हो सकता है मेरा निकाला हुआ हल आप को पसंद न आए. आप को कोई दोष न दे, यही मेरी इच्छा है. आप ने हमारी शादी तय करने में बड़ा योगदान दिया है. वैसे शादियां तय कराना आप का सामाजिक कार्य है. लेकिन कभीकभी ऐसा भी हो सकता है यह बतलाने के लिए ही यह पत्र लिख रहा हूं.

‘‘शादी के बाद मैं अपनी पत्नी के साथ उस के मायके जाया करता था. लेकिन हर बार किसी न किसी कारण वहां से नाराज हो कर ही लौटता था.

‘‘सासूमां अकसर कहतीं कि आप ने जो पैंट पहनी है, वह हम ने दी थी. वही है न? हां, क्या कभी अपनी पत्नी को कोई साड़ी दिलाई या जो हम ने दी थी उसी से काम चलाते हो?

‘‘फिर अपनी बेटी से पूछतीं कि बेटी क्या कोई नया गहना बनवाया या नहीं या गहने भी हमारे दिए हुए ही हैं. गले में अभी तक मामूली मंगलसूत्र ही है. क्या मैं दूं अपने गले का निकाल कर? मैं देख रही थी कि तेरे ससुराल वाले कुछ करते भी हैं या नहीं.

‘‘मेरी सास हमारे घर में आती तब भी वही ढाक के तीन पात. यह थाली हमारी दी हुई है न. यह सैट इतनी जल्दी क्यों निकाला है.

‘‘वह दूरदूर के रिश्तेदारों को हमारा घर दिखाने लातीं और बतातीं कि बेटी की गृहस्थी के लिए हम ने सबकुछ दिया है.

‘‘सुबह होते ही सास का फोन आता कि क्या तुम अभी तक उठी नहीं हो. आज खाने में क्या बना रही हो? खाना बनाने के लिए नौकरानी क्यों नहीं रख लेती. तुम अपनी सास से कह दो कि मैं ने कभी खाना बनाया नहीं है और मेरी मां को भी इस की आदत नहीं है. अगर तुम नौकरानी नहीं रख सकती तो मु झे बताओ, मैं एक नौकरानी तुम्हारे लिए भेज दूंगी, जो तुम्हारे सारे काम कर लेगी?

‘‘हमारी नईनई शादी हुई थी. सो अकसर फिल्म देखने जाते, तो फिर बाहर होटल में ही खाना खा लेते. तो कभी शौपिंग के लिए निकल पड़ते. शुरूशुरू में यह बात मु झे चुभी नहीं. मेरे मातापिता, भैयाभाभी कौन हमें सम झाता? मां तो मेरी बिलकुल सीधीसादी. उस ने देखा कि उस का बेटा यानी मैं तो हूं पूरा गोबर गणेश, फिर अपनी बीवी को क्या सम झाऊंगा. घर में होने वाली कलह से बचने के लिए उस ने मेरी अलग गृहस्थी बसाई. हम दोनों को उस पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन इस से मेरी आंखें पूरी तरह खुल गईं.

‘‘सिर्फ मीठीमीठी बातें और अच्छे शानदार कपड़े पहनने से पेट तो नहीं भरता. मेरी पत्नी को तो दालचावल भी बनाना नहीं आता था. पहले जब मैं ससुराल जाता तो मेरी सास बतातीं कि यह पूरनपूरी नीतू ने ही बनाई है. आज का सारा खाना उसी ने बनाया है. आप को गुलाबजामुन पसंद हैं न, वे भी उसी ने बनाए हैं.

‘‘मेरे घर में मां और भाभी होने के कारण मेरी पत्नी को क्याक्या बनाना आता है, इस का पता ही नहीं चला. उसे पूरनपूरी तो क्या सादी चपाती भी बनाना नहीं आता था. अगर अपनी मां से पूछ कर कुछ बनाना है तो पूछे कैसे? हमारे घर में फोन ही नहीं था. सबकुछ मुश्किल.

‘‘हमारे यहां फोन नहीं था तो उस के मांबाप हमेशा घर में आते कहते कि हमेशा बाहर की चीजें ला कर खाते रहते. मेरी नाराजगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. जब तक हमारी गृहस्थी अलग नहीं थी, तब सारा खर्च पिताजी और भाईसाहब उठाते थे.

‘‘इसलिए यह बो झ मेरे सिर पर कभी नहीं आया. पैसा कैसे खर्च किया जाए, मितव्ययित कैसे की जाए, मु झे इस का बिलकुल ज्ञान नहीं था. होटल में खाना, घूमना, मौजमस्ती तथा शौपिंग में ही मेरी सारी कमाई खर्च हो जाती थी. पिताजी से पैसा मांगना भी मु झे अच्छा नहीं लगता था. मां मेरी इस मजबूरी को सम झती थीं, इसलिए वे अपने साथसाथ मेरे घर के लिए भी राशन का इंतजाम कर देती थीं.

‘‘अब मु झे जीवन की असलियत का पता चलने लगा था. नईनई शादी की मौजमस्ती अब खत्म हो चली थी. इस से उबरने के लिए अब हमें अपना रास्ता खोज निकालना था और यही सोच कर मैं ने नीतू को सब बातें ठीक से सम झाने का फैसला कर लिया.

‘‘उसी समय शहर से जरा दूर पिताजी का एक प्लाट था. वे उसे मु झे देने वाले हैं यह बात उन्होंने मेरे ससुर को बताई तो उन्होंने घर बनाने के लिए रुपया दिया. हम सब से जरा दूर रहने के लिए गए, इसलिए बहुत से सवाल अपनेआप हल हो जाएंगे. अत: बंगला बनने तक मैं खामोश रहा.

‘‘नए घर में रहने के लिए जाने के बाद मैं ने अपनी पत्नी को सम झाया कि अब मेरी कमाई में ही घर का सारा खर्च चलाना है. उस ने मितव्ययिता शुरू कर दी. हमारा बाहर घूमनाफिरना बंद हो गया. शुरुआत में उसे घर के काम करने में बड़ी दिक्कत आती. इसलिए मैं भी उसे सहायता करता था. धीरेधीरे उस ने खाना बनाना सीख लिया. शहर से जरा दूर होने से अब मेरे सासससुर का आनाजाना जरा कम हो गया था. लेकिन सास जब कभी हमारे घर आतीं, तो फिर शुरू हो जाती कि नीतू तुम कैसे अपनी गृहस्थी चलाती हो. तुम्हारे घर में यह चीज नहीं है, वह चीज नहीं है.

‘‘इस पर नीतू अपनी मां को जवाब देती कि मां तुम्हारी गृहस्थी को कितने साल हो गए? मैं तुम्हारी उम्र की हो जाऊंगी तो मेरे पास भी वे सारी चीजें हो जाएंगी.

‘‘मु झे न बता कर मेरी सास हमारे लिए कोई चीज ले कर आती और कहतीं कि सुदेश बेटा, देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाई हूं. तुम्हारे पास यह चीज नहीं थी, इसलिए ले आई हूं. यह इंपौर्टेड माल है. मु झे तो इंडियन चीजें जरा भी पसंद नहीं आतीं.

‘‘मैं भी नहले पर दहला मारता कि हां, लेकिन मु झे भी दूसरों की दी हुई चीजें पसंद नहीं आती.

‘‘मेरी पत्नी नीता न मु झ से कुछ कह पाती और न अपनी मां से. लेकिन मेरी नाराजगी की वजह अब वह सम झने लगी थी. वह अब घर के सारे काम खुद करने लगी और मेरे प्यार के कारण अब उस में आत्मविश्वास जागने लगा था. अत: अब उस में धीरेधीरे परिवर्तन होने लगा. अब वह अपनी मां से सीधे कह देती कि मां, अब तुम मेरे लिए कुछ न लाया करो. सुदेश को भी तुम्हारा बरताव पसंद नहीं आता और इस से हम दोनों के बीच मनमुटाव होता है और  झगड़ा होने लगता है.

‘‘दूसरों की भावनाओं को सम झना मेरी सास ने कभी सीखा ही नहीं था और शान दिखाने की आदत कैसे छूटती? अब मु झे अपनी आमदनी बढ़ा कर इन सब से छुटकारा पाना था.

‘‘संयोग से मेरी कामना पूरी होने लगी. मैं ने एक लघु उद्योग शुरू किया और वह फूलनेफलने लगा. अब कमाई बढ़ने लगी, लेकिन यह बात मैं ने नीतू से छिपाये रखी.‘‘इसी बीच मेरे ससुर ने अपनी उम्र के 59 साल पूरे किए. इस अवसर का मैं ने लाभ उठाने का फैसला किया और अपने मातापिता से कहा कि मैं अपने ससुर की 60वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा हूं.

‘‘मेरे यह प्रस्ताव सुन कर मातापिता खुश हो गए. मां बोली कि दामाद भी तो बेटा ही होता है रे अच्छा कर रहे हो बेटा.

‘‘लेकिन मां को मेरी तिरछी चाल जरा भी सम झ में नहीं आईं.

‘‘मेरे सासससुर को जब यह बात पता चली तो वे बहुत खुश हो गए. इस पर मेरी पत्नी जरा छटपटाई, क्योंकि उस के मातापिता के लिए मेरे प्यार से अच्छी तरह वाकिफ थी, अत: मेरे आयोजन के बारे में उस के मन में शंका थी, यह बात उस के चेहरे पर साफ  झलकती थी.

‘‘समारोह के दिन सुबह होमहवन और पूजा के बाद सारे पुरोहितों को ससुर के हाथों किसी को चांदी का बरतन, किसी को चांदी की कटोरी तो किसी को चांदी की थाली आदि मेरे घर की महंगी चीजें दान करवाईं. उपस्थित ब्राह्मण और मेरे रिश्तेदार यह देख कर चकित रह गए. छोटीमोटी वस्तुओं को मैं ने घर के कोने में सजा रखा था, अत: मैं उन्हें अांगन में ले आया हूं.

‘‘मैं ने मेरे नौकर से सुबह ही कह दिया था कि वह  झोंपड़पट्टी में रहने वाले गरीबों को वहां ले कर आए. उन्हें अंदर बुलाया गया और सास के हाथों से 1-1 चीज का बंटवारा होने लगा. 1-1 चीज देते समय सास का चेहरा उतर गया था. आखिर उन्होंने मु झ से पूछ ही लिया कि अरे सुदेश, यह तुम क्या कर रहे हो. मेरी दी हुए सारी चीजें गरीबों में क्यों बांट रहे हो?

‘‘लेकिन सारी चीजों का बंटवारा होने तक मैं खामोश रहा. फिर बोला कि हां, वे सारी चीजें आप ने हमें दी थीं, अब अपने ही हाथों से आप ने उन्हें गरीबों में बांट दिया है. वैसे आप का हमें कुछ देना मु झे जरा भी नहीं भाया. अब आप किसी के सामने मु झ से नहीं पूछ सकेंगी कि सुदेश यह चीज हमारी दी हुई है. इन चीजों का दान करने से अब इन गरीबों की दुआएं आप को मिलेंगी. मैं तो आप के उपकारों से अब मुक्त हो गया हूं.

‘‘सब लोगों के सामने मैं ने अपने ससुर के हाथ में बंगला बनाने की लागत का चैक रख दिया और उन्हें नमस्कार करते हुए बोला कि यह रकम आप ने मु झे बंगला बनाने के लिए दी थी. यह राशि मैं आप को लौटा रहा हूं. बहुत सी संस्थाए गरीबों के लिए काम करती हैं. आप ये रुपए उन्हें दान करेंगे तो उन के लिए यह बड़ी सहायता होगी. इस पर वे बोले कि लेकिन यह राशि मैं ने तुम से वापस कहां मांगी थी?

‘‘वापस नहीं मांगी थी, लेकिन कईर् लोगों के सामने आप ने बारबार कहा कि मैं ने बंगला बना कर दिया है. मेरे मातापिता के आशीर्वाद से मैं यह रकम आप को वापस करने के काबिल हो गया हूं. आप ने बंगला बनाने के लिए रुपए दिए, लेकिन जिस जमीन पर यह बंगला बनाया गया वह तो मेरे पिताजी का दी हुई थी, यह बात आप भूल गए? आप अपने बेटी से पूछिए कि क्या मेरे पिताजी ने कभी उस से कहा कि यह जमीन मेरा दी हुई है.

‘‘सासूमां, वैसे आप के मु झ पर बड़े उपकार है आप ने जो कुछ दिया, उस का बारबार बखान न करतीं, तो मैं जिद कर के इस हालत में कभी नहीं पहुंचता कि आप के उपकारों का बो झ उतार सकूं. मु झे तो आप के सिर्फ आशीर्वाद की जरूरत है. कहते हैं कि दान देते वक्त एक हाथ की खबर दूसरे हाथ को नहीं होनी चाहिए और आप तो अपनी ही बेटी को दी हुई चीजों का लोगों के सामने ढिंढोरा पीटते थे.

‘‘मेरा यह व्यवहार मेरे मातापिता को बिलकुल अच्छा नहीं लगा. मेरे पत्नी को तो इस बात का गहरा सदमा लगा. वह अपनी मां से बोली कि मैं ने हजार बार कहा था, लेकिन तुम ने सुना नहीं. तुम्हें ऐसा ही जवाब मिलना था.

‘‘मेरे ससुर गुस्से से आगबबूला हो गए तो मेरे पिताजी ने उन्हें सम झाया कि साहब, जाने भी दीजिए. मेरा बेटा नादान है और उस से गलती हुई है. उस की गलती के लिए मैं आप से क्षमायाचना करता हूं. उसे ऐसा बरताव नहीं करना चाहिए था.

‘‘मेरे पिताजी की बात सुन कर मेरे ससुर को पश्चात्ताप हुआ. वे बोले कि सुदेश मु झे तुम पर बहुत गुस्सा आया था, लेकिन मैं ने तुम्हारे बरताव पर सोचा था तो पाया कि तुम ही ठीक हो. कांटे से कांटा निकालने की कहावत को तुम ने चरितार्थ किया है. पैसे से आया घमंड अब खत्म हो गया है. अब तुम हमें माफ कर दो. हमारे कारण तुम्हें काफी सहना पड़ा.

‘‘काकाजी, अब मैं उन का असली दामाद बन गया हूं. इस पर आप प्रतिक्रिया जरूर लिखिएगा.

‘‘आप का सुदेश’’

दादाजी ने पत्र वापस करते हुए कहा, ‘‘वह बिलकुल ठीक कह रहा है. देने वाले को भी चाहिए कि वह सुख प्राप्त करने के लिए दें. छोटीछोटी चीजें इकट्ठा करतेकरते हम ने दुख सहे, अब अपने बच्चों को ये सब न सहना पड़े, इसलिए वे अपनी बेटी को देते हैं. लेकिन उस में घमंड की भावना नहीं होनी चाहिए वरना लेने वाले की भावनाओं को ठेस पहुंचना स्वाभाविक है, यह ध्यान में रखना आवश्यक है.

‘‘अब मेरे हाथ से भी यह ऐसी गलती होने जा रही थी. तुम ने यह पत्र पढ़ने का मौका दे कर मु झे जगा दिया है. हमारे कारण हमारी बेटी की गृहस्थी में तूफान नहीं उठना चाहिए. तुम मेरी तरफ से सुदेश को धन्यवाद कहना कि उस के कारण और एक ससुर जाग गया है.

‘‘कहते हैं कि दान देते वक्त एक हाथ की खबर दूसरे हाथ को नहीं होनी चाहिए  और आप तो अपनी ही बेटी को दी हुई चीजों का लोगों के सामने ढिंढोरा पीटते थे…’’

नींव: क्या थी रितू की जेठानी की असलियत

विवेकवेक ने लंच ब्रेक के दौरान मोबाइल पर मुझे जो जानकारी दी उस ने मुझे चिंता से भर दिया.

‘‘विनोद भैया ने किराए का मकान ढूंढ़ लिया है. मुझे उन के दोस्त ने बताया है कि

2 हफ्ते बाद वे शिफ्ट कर जाएंगे,’’ विवेक की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.

‘‘हमें उन्हें जाने से रोकना होगा,’’ मैं एकदम बेचैन हो उठी.

‘‘बिलकुल रोकना होगा, रितु. अब रिश्तेदार और महल्ले वाले हम पर कितना हंसेंगे. तुम आज शाम ही भाभी को समझना. मैं भी बड़े भैया को अभी फोन करता हूं.’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने उन्हें फौरन टोका, ‘‘अभी आप किसी से इस विषय पर कोई बात न करना प्लीज. यह मामला समझनेबुझने से नहीं सुधरेगा.’’

‘‘फिर कैसे बात बनेगी?’’

‘‘पहले शाम को हम आपस में विचारविमर्श करेंगे फिर कोई कदम उठाएंगे.’’

‘‘ओ. के.’’

इधरउधर की कुछ और बातें करने के बाद मैं ने फोन काट दिया. खाना खाने का मन नहीं कर रहा था. मैं ने आंखें मूंद लीं और वर्तमान समस्या के बारे में सोचविचार करने लगी…

संयुक्त परिवार की बहू बन कर सुसराल आए मुझे अभी सालभर भी नहीं हुआ है. अब मेरे जेठजेठानी अलग होने की सोच रहे हैं. इस कारण मैं परेशान तो हूं, पर मेरी परेशानी का कारण जगहंसाई का डर नहीं है.

संयुक्त परिवार से जुड़े रहने के फायदों को, उस की सुरक्षा को मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर जानती हूं.

मेरे पापा का दिल के दौरे से जब अचानक देहांत हुआ, तब मैं बी.कौम. के अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी. साथ रह रहे मेरे दोनों चाचाओं का पूरा सहयोग हमारे परिवार को न मिला होता, तो मेरी कालेज की पढ़ाई बड़ी कठिनाई से पूरी होती. फिर बाद में जो मैं ने एमबीए भी किया, उस डिगरी को प्राप्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.

एमबीए करने के बाद मुझे अच्छी नौकरी मिली, तो मैं अपने संयुक्त परिवार का मजबूत स्तंभ बन गई. अपने छोटे भाई को इंजीनियर व बड़े चाचा के बेटे को डाक्टर बनाने में मेरी पगार का पूरा योगदान रहा. अपनी शादी का लगभग पूरा खर्चा मैं ने ही उठाया. मेरे मायके में संयुक्त परिवार की नींव आज भी मजबूत है.

अपनी ससुराल में भी मैं संयुक्त परिवार की जड़ों को उखड़ने नहीं देना चाहती हूं. काफी सोचविचार के बाद मैं अपने बौस अमन साहब से मिलने उठ खड़ी हुई. वे मुझे बहुत मानते हैं और इस समस्या के समाधान के लिए मैं उन की सहायता व सहयोग पाने की इच्छुक थी.

शाम को घर में घुसते समय मेरे पास सब को सुनाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण खबर

थी. उसे मैं शानदार अभिनय करते हुए सुनाना चाहती थी, पर वैसा कुछ हो नहीं सका क्योंकि मेरी सासूमां संध्या भाभी पर बु%B

कभी नहीं: क्या गायत्री को समझ आई मां की अहमियत

‘‘पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों पर विश्वास है तुम्हें?’’ सूखे पत्तों को पैरों के नीचे कुचलते हुए रवि ने पूछा.

कड़ककड़क कर पत्तों का टूटना देर तक विचित्र सा लगता रहा गायत्री को. बड़ीबड़ी नीली आंखें उठा कर उस ने भावी पति को देखा, ‘‘क्या तुम्हें विश्वास है?’’

गायत्री ने सोचा, उस के प्रेम में आकंठ डूब चुका युवा प्रेमी कहेगा, ‘है क्यों नहीं, तभी तो संसार की इतनी लंबीचौड़ी भीड़ में बस तुम मिलते ही इतनी अच्छी लगीं कि तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना ही शून्य हो गई.’ चेहरे पर गुलाबी रंगत लिए वह कितना कुछ सोचती रही उत्तर की प्रतीक्षा में, परंतु जवाब न मिला.तनिक चौंकी गायत्री, चुप रवि असामान्य सा लगा उसे. सारी चुहलबाजी कहीं खो सी गई थी जैसे. हमेशा मस्त बना रहने वाला ऐसा चिंतित सा लगने लगा मानो पूरे संसार की पीड़ा उसी के मन में आ समाई हो.

उसे अपलक निहारने लगा. एकबारगी तो गायत्री शरमा गई. मन था, जो बारबार वही शब्द सुनना चाह रहा था. सोचने लगी, ‘इतनी मीठीमीठी बातों के लिए क्या रवि का तनाव उपयुक्त है? कहीं कुछ और बात तो नहीं?’ वह जानती थी रवि अपनी मां से बेहद प्यार करता है. उसी के शब्दों में, ‘उस की मां ही आज तक उस का आदर्श और सब से घनिष्ठ मित्र रही हैं. उस के उजले चरित्र के निर्माण की एकएक सीढ़ी में उस की मां का साथ रहा है.’एकाएक उस का हाथ पकड़ लिया गायत्री ने रोक कर वहीं बैठने का आग्रह किया. फिर बोली, ‘‘क्या मां अभी तक वापस नहीं आईं जो मुझ से ऐसा प्रश्न पूछ रहे हो? क्या बात है?’’

रवि उस का कहना मान वहीं सूखी घास पर बैठ गया. ऐसा लगा मानो अभी रो पड़ेगा. अपनी मां के वियोग में वह अकसर इसी तरह अवश हो जाया करता है, वह इस सत्य से अपरिचित नहीं थी.

‘‘क्या मां वापस नहीं आईं?’’ उस ने फिर पूछा.

रवि चुप रहा.‘‘कब तक मां की गोद से ही चिपके रहोगे? अच्छीखासी नौकरी करने लगे हो. कल को किसी और शहर में स्थानांतरण हो गया तब क्या करोगे? क्या मां को भी साथसाथ घसीटते फिरोगे? तुम्हारे छोटे भाईबहन दोनों की जिम्मेदारी है उन पर. तुम क्या चाहते हो, पूरी की पूरी मां बस तुम्हारी ही हों? तुम्हारे पिता और उन दोनों का भी तो अधिकार है उन पर. रवि, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘ऐसा लगता है, मेरा कुछ खो गया है. जी ही नहीं लगता गायत्री.  पता नहीं, मन में क्याक्या होता रहता है.’’

‘‘तो जा कर मां को ले आओ न. उन्हें भी तो पता है, तुम उन के बिना बीमार हो जाते हो. इतने दिन फिर वे क्यों रुक गईं?’’ अनायास हंस पड़ी गायत्री. धीरे से रवि का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगी, ‘‘शादी के बाद क्या करोगे? तब मेरे हिस्से का प्यार क्या मुझे मिल पाएगा? अगर मुझे ही तुम्हारी मां से जलन होने लगी तो? हर चीज की एक सीमा होती है. अधिक मीठा भी कड़वा लगने लगता है, पता है तुम्हें?’’

रवि गायत्री की बड़ीबड़ी नीली आंखों को एकटक निहारने लगा.

‘‘मां तो वे तुम्हारी हैं ही, उन से तुम्हारा स्नेह भी स्वाभाविक ही है लेकिन वक्त के साथसाथ उस स्नेह में परिपक्वता आनी चाहिए. बच्चों की तरह मां का आंचल अभी तक पकड़े रहना अच्छा नहीं लगता. अपनेआप को बदलो.’’

‘‘मैं अब चलूं?’’ एकाएक वह उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘कल मिलोगी न?’’

‘‘आज की तरह गरदन लटकाए ही मिलना है तो रहने दो. जब सचमुच मिलना चाहो, तभी मिलना वरना इस तरह मिलने का क्या अर्थ?’’ एकाएक गायत्री खीज उठी. वह कड़वा कुछ भी कहना तो नहीं चाहती थी पर व्याकुल प्रेमी की जगह उसे व्याकुल पुत्र तो नहीं चाहिए था न. हर नाते, हर रिश्ते की अपनीअपनी सीमा, अपनीअपनी मांग होती है.

‘‘नाराज क्यों हो रही हो, गायत्री? मेरी परेशानी तुम क्या समझो, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’

‘‘क्या समझाना है मुझे, जरा बताओ? मेरी तो समझ से भी बाहर है तुम्हारा यह बचपना. सुनो, अब तभी मिलना जब मां आ जाएं. इस तरह 2 हिस्सों में बंट कर मेरे पास मत आना.’’गायत्री ने विदा ले ली. वह सोचने लगी, ‘रवि कैसा विचित्र सा हो गया है कुछ ही दिनों में. कहां उस से मिलने को हर पल व्याकुल रहता था. उस की आंखों में खो सा जाता था.’   भविष्य के सलोने सपनों में खोए भावी पति की जगह एक नादान बालक को वह कैसे सह सकती थी भला. उस की खीज और आक्रोश स्वाभाविक ही था. 2 दिन वह जानबूझ कर रवि से बचती रही. बारबार उस का फोन आता पर किसी न किसी तरह टालती रही. चाहती थी, इतना व्याकुल हो जाए कि स्वयं उस के घर चल कर आ जाए. तीसरे दिन सुबहसुबह द्वार पर रवि की मां को देख कर गायत्री हैरान रह गई. पूरा परिवार समधिन की आवभगत में जुट गया.

‘‘तुम से अकेले में कुछ बात करनी है,’’ उस के कमरे में आ कर धीरे से मां बोलीं तो कुछ संशय सा हुआ गायत्री को.

‘‘इतने दिन से रवि घर ही नहीं आया बेटी. मैं कल रात लौटी तो पता चला. क्या वह तुम से मिला था?’’ ‘‘जी?’’ वह अवाक् रह गई, ‘‘2 दिन पहले मिले थे. तब उदास थे आप की वजह से.’’

‘‘मेरी वजह से उसे क्या उदासी थी? अगर उसे पता चल गया कि मैं उस की सौतेली मां हूं तो इस में मेरा क्या कुसूर है. लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है?

‘‘वह मेरा बच्चा है. इस में संशय कैसा? मैं ने उसे अपने बच्चों से बढ़ कर समझा है. मैं उस की मां नहीं तो क्या हुआ, पाला तो मां बन कर है न?’’ ऐसा लगा, जैसे बहुत विशाल भवन भरभरा कर गिर गया हो. न जाने मां कितना कुछ कहती रहीं और रोती रहीं, सारी कथा गायत्री ने समझ ली. कांच की तरह सारी कहानी कानों में चुभने लगी. इस का मतलब है कि इसी वजह से परेशान था रवि और वह कुछ और ही समझ कर भाषणबाजी करती रही.

‘‘उसे समझा कर घर ले आ, बेटी. सूना घर उस के बिना काटने को दौड़ता है मुझे. उसे समझाना,’’ मां आंसू पोंछते हुए बोलीं.

‘‘जी,’’ रो पड़ी गायत्री स्वयं भी, सोचने लगी, कहां खोजेगी उसे अब? बेचारा बारबार बुलाता रहा. शायद इस सत्य की पीड़ा को उसे सुना कर कम करना चाहता होगा और वह अपनी ही जिद में उसे अनसुना करती रही.

मां आगे बोलीं, ‘‘मैं ने उसे जन्म नहीं दिया तो क्या मैं उस की मां नहीं हूं? 2 महीने का था तब, रातों को जागजाग कर उसे सुलाती रही हूं. कम मेहनत तो नहीं की. अब क्या वह घर ही छोड़ देगा? मैं इतनी बुरी हो गई?’’

‘‘वे आप से बहुत प्यार करते हैं मांजी. उन्हें यह बताया ही किस ने? क्या जरूरत थी यह सच कहने की?’’

‘‘पुरानी तसवीरें सामने पड़ गईं बेटी. पिता के साथ अपनी मां की तसवीरें दिखीं तो उस ने पिता से पूछ लिया, ‘आप के साथ यह औरत कौन है?’ वे बात संभाल नहीं पाए, झट से बोल पड़े, ‘तुम्हारी मां हैं.’

‘‘बहुत रोया तब. ये बता रहे थे. बारबार यही कहता रहा, ‘आप ने बताया क्यों? यही कह देते कि आप की पहली पत्नी थी. यह क्यों कहा कि मेरी मां भी थी.’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया बेटी, इस तरह घर क्यों छोड़ दिया उस ने? जरा सोचो, पूछो उस से?’’

किसी तरह भावी सास को विदा तो कर दिया गायत्री ने परंतु मन में भीतर कहीं दूर तक अपराधबोध सालने लगा, कैसी पागल है वह और स्वार्थी भी, जो अपना प्रेमी तलाशती रही उस इंसान में जो अपना विश्वास टूट जाने पर उस के पास आया था.उसे महसूस हो रहा होगा कि उस की मां कहीं खो गई है. तभी तो पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों में विश्वास का विषय शुरू किया होगा. कुछ राहत चाही होगी उस से और उस ने उलटा जलीकटी सुना कर भेज दिया. मातापिता और दोनों छोटे भाई समीप सिमट आए. चंद शब्दों में गायत्री ने उन्हें सारी कहानी सुना दी.

‘‘तो इस में घर छोड़ देने वाली क्या बात है? अभी फोन आएगा तो उसे घर ही बुला लेना. हम सब मिल कर समझाएंगे उसे. यही तो दोष है आज की पीढ़ी में. जोश से काम लेंगे और होश का पता ही नहीं,’’ पिताजी गायत्री को समझाने लगे.

फिर आगे बोले, ‘‘कैसा कठोर है यह लड़का. अरे, जब मां ही बन कर पाला है तो नाराजगी कैसी? उसे भूखाप्यासा नहीं रखा न. उसे पढ़ायालिखाया है, अपने बच्चों जैसा ही प्यार दिया है. और देखो न, कैसे उसे ढूंढ़ती हुई यहां भी चली आईं. अरे भई, अपनी मां क्या करती है, यही सब न. अब और क्या करें वे बेचारी?

‘‘यह तो सरासर नाइंसाफी है रवि की. अरे भई, उस के कार्यालय का फोन नंबर है क्या? उस से बात करनी होगी,’’ पिता दफ्तर जाने तक बड़बड़ाते रहे.

छोटा भाई कालेज जाने से पहले धीरे से पूछने लगा, ‘‘क्या मैं रवि भैया के दफ्तर से होता जाऊं? रास्ते में ही तो पड़ता है. उन को घर आने को कह दूंगा.’’

गायत्री की चुप का भाई ने पता नहीं क्या अर्थ लिया होगा, वह दोपहर तक सोचती रही. क्या कहती वह भाई से? इतना आसान होगा क्या अब रवि को मनाना. कितनी बार तो वह उस से मिलने के लिए फोन करता रहा था और वह फोन पटकती रही थी. शाम को पता चला रवि इतने दिनों से अपने कार्यालय भी नहीं गया.

‘क्या हो गया उसे?’ गायत्री का सर्वांग कांप उठा.

मां और पिताजी भी रवि के घर चले गए पूरा हालचाल जानने. भावी दामाद गायब था, चिंता स्वाभाविक थी. बाद में भाई बोला, ‘‘वे अपने किसी दोस्त के पास रहते हैं आजकल, यहीं पास ही गांधीनगर में. तुम कहो तो पता करूं. मैं ने पहले बताया नहीं. मुझे शक है, तुम उन से नाराज हो. अगर तुम उन्हें पसंद नहीं करतीं तो मैं क्यों ढूंढ़ने जाऊं. मैं ने तुम्हें कई बार फोन पटकते देखा है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, अजय,’’ हठात निकल गया होंठों से, ‘‘तुम उन्हें घर ले आओ, जाओ.’’

बहन के शब्दों पर भाई हैरान रह गया. फिर हंस पड़ा, ‘‘3-4 दिन से मैं तुम्हारा फोन पटकना देख रहा हूं. वह सब क्या था? अब उन की इतनी चिंता क्यों होने लगी? पहले समझाओ मुझे. देखो गायत्री, मैं तुम्हें समझौता नहीं करने दूंगा. ऐसा क्या था जिस वजह से तुम दोनों में अबोला हो गया?’’

‘‘नहीं अजय, उन में कोई दोष नहीं है.’’

‘‘तो फिर वह सब?’’

‘‘वह सब मेरी ही भूल थी. मुझे ही ऐसा नहीं करना चाहिए था. तुम पता कर के उन्हें घर ले आओ,’’ रो पड़ी गायत्री भाई के सामने अनुनयविनय करते हुए.

‘‘मगर बात क्या हुई थी, यह तो बताओ?’’

‘‘मैं ने कहा न, कुछ भी बात नहीं थी.’’ अजय भौचक्का रह गया.

‘‘अच्छा, तो मैं पता कर के आता हूं,’’ बहन को उस ने बहला दिया.

मगर लौटा खाली हाथ ही क्योंकि उसे रवि वहां भी नहीं मिला था. बोला, ‘‘पता चला कि सुबह ही वहां से चले गए रवि भैया. उन के पिता उन्हें आ कर साथ ले गए.’’

‘‘अच्छा,’’ गायत्री को तनिक संतोष हो गया.

‘‘उन की मां की तबीयत अच्छी नहीं थी, इसीलिए चले गए. पता चला, वे अस्पताल में हैं.’’चुप रही गायत्री. मां और पिताजी का इंतजार करने लगी. घर में इतनी आजादी और आधुनिकता नहीं थी कि खुल कर भावी पति के विषय में बातें करती रहे. और छोटे भाई से तो कदापि नहीं. जानती थी, भाई उस की परेशानी से अवगत होगा और सचमुच वह बारबार उस से कह भी रहा था, ‘‘उन के घर फोन कर के देखूं? तुम्हारी सास का हालचाल…’’

‘‘रहने दो. अभी मां आएंगी तो पता चल जाएगा.’’

‘‘तुम भी तो रवि भैया के विषय में पूछ लो न.’’

भाई ने छेड़ा या गंभीरता से कहा, वह समझ नहीं पाई. चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. काफी रात गए मां और पिताजी घर लौटे. उस समय कुछ बात न हुई. परंतु सुबहसुबह मां ने जगा दिया, ‘‘कल रात ही रवि की माताजी को घर लाए, इसीलिए देर हो गई. उन की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. खानापीना सब छोड़ रखा था उन्होंने. रवि मां के सामने आ ही नहीं रहा था. पता नहीं क्या हो गया इस लड़के को. बड़ी मुश्किल से सामने आया.‘‘क्या बताऊं, कैसे बुत बना टुकुरटुकुर देखता रहा. मां को घर तो ले गया है, परंतु कुछ बात नहीं करता. तुम्हें बुलाया है उस की मां ने. आज अजय के साथ चली जाना.’’

‘‘मैं?’’ हैरान रह गई गायत्री.

‘‘कोई बात नहीं. शादी से पहले पति के घर जाने का रिवाज हमारी बिरादरी में नहीं है, पर अब क्या किया जाए. उस घर का सुखदुख अब इस घर का भी तो है न.’’

गायत्री ने गरदन झुका ली. कालेज जाते हुए भाई उसे उस की ससुराल छोड़ता गया. पहली बार ससुराल की चौखट पर पैर रखा. ससुर सामने पड़ गए. बड़े स्नेह से भीतर ले गए. फिर ननद और देवर ने घेर लिया. रवि की मां तो उस के गले से लग जोरजोर से रोने लगीं. ‘‘बेटी, मैं सोचती थी मैं ने अपना परिवार एक गांठ में बांध कर रखा है. रवि को सगी मां से भी ज्यादा प्यार दिया है. मैं कभी सौतेली नहीं बनी. अब वह क्यों सौतेला हो गया? तुम पूछ कर बताओ. क्या पता तुम से बात करे. हम सब के साथ वह बात नहीं करता. मैं ने उस का क्या बिगाड़ दिया जो मेरे पास नहीं आता. उस से पूछ कर बताओ गायत्री.’’ विचित्र सी व्यथा उभरी हुई थी पूरे परिवार के चेहरे पर. जरा सा सच ऐसी पीड़ादायक अवस्था में ले आएगा, किस ने सोचा होगा.

‘‘भैया अपने कमरे में हैं, भाभी. आइए,’’ ननद ने पुकारा. फिर दौड़ कर कुछ फल ले आई, ‘‘ये उन्हें खिला देना, वे भूखे हैं.’’

गायत्री की आंखें भर आईं. जिस परिवार की जिम्मेदारी शादी के बाद संभालनी थी, उस ने समय से पूर्व ही उसे पुकार लिया था. कमरे का द्वार खोला तो हैरान रह गई. अस्तव्यस्त, बढ़ी दाढ़ी में कैसा लग रहा था रवि. आंखें मींचे चुपचाप पड़ा था. ऐसा प्रतीत हुआ मानो महीनों से बीमार हो. क्या कहे वह उस से? कैसे बात शुरू करे? नाराज हो कर उस का भी अपमान कर दिया तो क्या होगा? बड़ी मुश्किल से समीप बैठी और माथे पर हाथ रखा, ‘‘रवि.’’

आंखें सुर्ख हो गई थीं रवि की. गायत्री ने सोचा, क्या रोता रहता है अकेले में? मां ने कहा था वह पत्थर सा हो गया है.

‘‘रवि यह, यह क्या हो गया है तुम्हें?’’ अपनी भूल का आभास था उसे. बलात होंठों से निकल गया, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझे तुम्हारी बात सुननी चाहिए थी. मुझ से ऐसा क्या हो गया, यह नहीं होना चाहिए था,’’ सहसा स्वर घुट गया गायत्री का. वह रवि, जिस ने कभी उस का हाथ भी नहीं पकड़ा था, अचानक उस की गोद में सिर छिपा कर जोरजोर से रोने लगा. उसे दोनों बांहों में कस के बांध लिया. उसे इस व्यवहार की आशा कहां थी. पुरुष भी कभी इस तरह रोते हैं. गायत्री को बलिष्ठ बांहों का अधिकार निष्प्राण करने लगा. यह क्या हो गया रवि को? स्वयं को छुड़ाए भी तो कैसे? बालक के समान रोता ही जा रहा था.

‘‘रवि, रवि, बस…’’ हिम्मत कर के उस का चेहरा सामने किया.

‘‘ऐसा लगता है मैं अनाथ हो गया हूं. मेरी मां मर गई हैं गायत्री, मेरी मां मर गई हैं. उन के बिना कैसे जिंदा रहूं, कहां जाऊं, बताओ?’’

उस के शब्द सुन कर गायत्री भी रो पड़ी. स्वयं को छुड़ा नहीं पाई बल्कि धीरे से अपने हाथों से उस का चेहरा थपथपा दिया.

‘‘ऐसा लगता है, आज तक जितना जिया सब झूठ था. किसी ने मेरी छाती में से दिल ही खींच लिया है.’’

‘‘ऐसा मत सोचो, रवि. तुम्हारी मां जिंदा हैं. वे बीमार हैं. तुम कुछ नहीं खाते तो उन्होंने भी खानापीना छोड़ रखा है. उन के पास क्यों नहीं जाते? उन में तो तुम्हारे प्राण अटके हैं न? फिर क्यों उन्हें इस तरह सता रहे हो?’’

‘‘वे मेरी मां नहीं हैं, पिताजी ने बताया.’’

‘‘बताया, तो क्या जुर्म हो गया? एक सच बता देने से सारा जीवन मिथ्या कैसे हो गया?’’

‘‘क्या?’’ रवि टुकुरटुकुर उस का मुंह देखने लगा. क्षणभर को हाथों का दबाव गायत्री के शरीर पर कम हो गया.

‘‘वे मुझ बिन मां के बच्चे पर दया करती रहीं, अपने बचों के मुंह से छीन मुझे खिलाती रहीं, इतने साल मेरी परछाईं बनी रहीं. क्यों? दयावश ही न. वे मेरी सौतेली मां हैं.’’

‘‘दया इतने वर्षों तक नहीं निभाई जाती रवि, 2-4 दिन उन के साथ रहे हो क्या, जो ऐसा सोच रहे हो? वे बहुत प्यार करती हैं तुम से. अपने बच्चों से बढ़ कर हमेशा तुम्हें प्यार करती रहीं. क्या उस का मोल इस तरह सौतेला शब्द कह कर चुकाओगे? कैसे इंसान हो तुम?’’ एकाएक उसे परे हटा दिया गायत्री ने. बोली, ‘‘उन्हें सौतेला जान जो पीड़ा पहुंची थी, उस का इलाज उन्हीं की गोद में है रवि, जिन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया. मेरी गोद में नहीं जिस से तुम्हारी जानपहचान कुछ ही महीनों की है. तुम अपनी मां के नहीं हो पाए तो मेरे क्या होगे, कैसे निभाओगे मेरे साथ?’’

लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया रवि ने, ‘‘मैं अपनी मां का नहीं हूं, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’

‘‘तो उन से बात क्यों नहीं करते? क्यों इतना रुला रहे हो उन्हें?’’

‘‘हिम्मत नहीं होती. उन्हें या भाईबहन को देखते ही कानों में सौतेला शब्द गूंजने लगता है. ऐसा लगता है मैं दया का पात्र हूं.’’

‘‘दया के पात्र तो वे सब बने पड़े हैं तुम्हारी वजह से. मन से यह वहम निकालो और मां के पास चलो. आओ मेरे साथ.’’

‘‘न,’’ रवि ने गरदन हिला दी इनकार में, ‘‘मां के पास नहीं जाऊंगा. मां के पास तो कभी नहीं…’’

‘‘इस की वजह क्या है, मुझे समझाओ? क्यों नहीं जाओगे उन के पास? क्या महसूस होता है उन के पास जाने से?’’ एकाएक स्वयं ही उस की बांह सहला दी गायत्री ने. निरीह, असहाय बालक सा वह अवरुद्ध कंठ और डबडबाए नेत्रों से उसे निहारने लगा.

‘‘तुम्हें 2 महीने का छोड़ा था तुम्हारी मां ने. उस के बाद इन्होंने ही पाला है न. तुम तो इन्हें अपना सर्वस्व मानते रहे हो. तुम ही कहते थे न, तुम्हारी मां जैसी मां किसी की भी नहीं हैं. जब वह सच सामने आ ही गया तो उस से मुंह छिपाने का क्या अर्थ? वर्तमान को भूत में क्यों मिला रहे हो? ‘‘अब तुम्हारा कर्तव्य शुरू होता है रवि, उन्हें अपनी सेवा से अभिभूत करना होगा. कल उन्होंने तुम्हें तनमन से चाहा, आज तुम चाहो. जब तुम निसहाय थे, उन्होंने तुम्हें गोद में ले लिया था. आज तुम यह प्रमाणित करो कि सौतेला शब्द गाली नहीं है. यह सदा गाली जैसा नहीं होता. बीमार मां को अपना सहारा दो रवि. सच को उस के स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना सीखो, उस से मुंह मत छिपाओ.’’

‘‘मां मुझे इतना अधिक क्यों चाहती रहीं, गायत्री? मेरे मन में सदा यही भाव जागता रहा कि वे सिर्फ मेरी हैं. छोटे भाईबहन को भी उन के समीप नहीं फटकने दिया. मां ने कभी विरोध नहीं किया, ऐसा क्यों, गायत्री? कभी तो मुझे परे धकेलतीं, कभी तो कहतीं कुछ,’’ रवि फिर भावुक होने लगा.

‘‘हो सकता है वे स्वाभाविक रूप में ही तुम्हें ज्यादा स्नेह देती रही हों. तुम सदा से शांत रहने वाले इंसान रहे हो. उद्दंड होते तो जरूर डांटतीं किंतु बिना वजह तुम्हें परे क्यों धकेल देतीं.’’

‘‘गायत्री, मैं इतना बड़ा सच सह नहीं पा रहा हूं. मैं सोच भी नहीं सकता. ऐ लगता है, पैरों के नीचे से जमीन ही सरक गई हो.’’

‘‘क्या हो गया है तुम्हें, इतने कमजोर क्यों होते जा रहे हो?’’कुछ ऐसी स्थिति चली आई. शायद उस का यही इलाज भी था. स्नेह से गायत्री ने स्वयं ही अपने समीप खींच लिया रवि को. कोमल बाहुपाश में बांध लिया.भर्राए स्वर में गिला भी किया रवि ने, यही सब सुनाने तुम्हारे पास भी तो गया था. सोचा था, तुम से अच्छी कोई और मित्र कहां होगी, तुम ने सुना नहीं. मैं कितने दिन इधरउधर भटकता रहा. मैं कहां जाऊं, कुछ समझ नहीं पाता?’’

‘‘मां के पास चलो, आओ मेरे साथ. मैं जानती हूं, उन्हीं के पास जाने को छटपटा रहे हो. चलो, उठो.’’

रवि चुप रहा. भावी पत्नी की आंखों में कुछ ढूंढ़ने लगा.

गायत्री तनिक गुस्से से बोली, ‘‘जीवन में बहुतकुछ सहना पड़ता है. यह जरा सा सच नहीं सह पा रहे तो बड़ेबड़े सच कैसे सहोगे? आओ, मेरे साथ चलो?’’ रवि खामोशी से उसे घूरता रहा.

‘‘देखो, आज तुम्हारी मां इतनी मजबूर हो गई हैं कि मेरे सामने हाथ जोड़े हैं उन्होंने. तुम्हें समझाने के लिए मुझे बुला भेजा है. तुम तो जानते हो, हम लोगों में शादी से पहले एकदूसरे के घर नहीं जाते. परंतु मुझे बुलाया है उन्होंने, तुम्हें समझाने के लिए. अपनी मां का और मेरा मान रखना होगा तुम्हें. मेरे साथ अपनी मां और भाईबहन से मिलना होगा और बड़ा भाई बन कर उन से बात करनी होगी. उठो रवि, चलो, चलो न.’’ अपने अस्तित्व में समाए बालक समान सुबकते भावी पति को कितनी देर सहलाती रही गायत्री. आंचल से कई बार चेहरा भी पोंछा.

रवि उधेड़बुन में था, बोला, ‘‘मां मेरे पास क्यों नहीं आतीं, क्यों नहीं मुझे बुलातीं?’’

‘‘वे तुम्हारी मां हैं. तुम उन के बेटे हो. वे क्यों आएं तुम्हारे पास. तुम स्वयं ही रूठे हो, स्वयं ही मानना होगा तुम्हें.’’

‘‘पिताजी मां को मेरे कमरे में नहीं आने देना चाहते, मुझे पता है. मैं ने उन्हें मां को रोकते सुना है.’’

‘‘ठीक ही तो कर रहे हैं. उन की भी पत्नी के मानसम्मान का प्रश्न है. तुम उन के बच्चे हो तो बच्चे ही क्यों नहीं बनते. क्या यह जरूरी है कि सदा तुम ही अपना अधिकार प्रमाणित करते रहो? क्या उन्हें हक नहीं है?’’

बड़ी मुश्किल से गायत्री ने उसे अपने शरीर से अलग किया. प्रथम स्पर्श की मधुर अनुभूतियां एक अलग ही वातावरण और उलझे हुए वार्त्तालाप की भेंट चढ़ चुकी थीं. ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार उसे छुआ है. साधिकार उस का मस्तक चूम लिया गायत्री ने. गायत्री पर पूरी तरह आश्रित हो वह धीरे से उठा, ‘‘तुम भी साथ चलोगी न?’’

‘‘हां,’’ वह तनिक मुसकरा दी.

फिर उस का हाथ पकड़ सचमुच वह बीमार मां के समीप चला आया. अस्वस्थ और कमजोर मां को बांहों में बांध जोरजोर से रोने लगा.

‘‘मैं ने तुम से कितनी बार कहा है, तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाया करो,’’ उसे गोद में ले कर चूमते हुए मां रोने लगीं. छोटी बहन और भाई शायद इस नई कहानी से पूरी तरह टूट से गए थे. परंतु अब फिर जुड़ गए थे. बडे़ भाई ने मां पर सदा से ही ज्यादा अधिकार रखा था, इस की उन्हें आदत थी. अब सभी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे.

‘‘तुम कहीं खो सी गई थीं, मां. कहां चली गई थीं, बोलो?’’

पुत्र के प्रश्न पर मां धीरे से समझाने लगीं, ‘‘देखो रवि, सामने गायत्री खड़ी है, क्या सोचेगी? अब तुम बड़े हो गए हो.’’

‘‘तुम्हारे लिए भी बड़ा हो गया हूं क्या?’’

‘‘नहीं रे,’’ स्नेह से मां उस का माथा चूमने लगीं.

‘‘आजा बेटी, मेरे पास आजा,’’ मां ने गायत्री को पास बुलाया और स्नेह से गले लगा लिया. छोटा बेटा और बेटी भी मां की गोद में सिमट आए. पिताजी चश्मा उतार कर आंखें पोंछने लगे.गायत्री बारीबारी से सब का मुंह देखने लगी. वह सोच रही थी, ‘क्या शादी के बाद वह इस मां के स्नेह के प्रति कभी उदासीन हो पाएगी? क्या पति का स्नेह बंटते देख ईर्ष्या का भाव मन में लाएगी? शायद नहीं, कभी नहीं.’

अपनी ही दुश्मन: कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी. लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी.

बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

भाभी का मुंह खुला का खुला रह गया. बोली, ‘‘कहीं और चक्कर तो नहीं चल रहा?’’

‘‘वह बौड़म क्या चक्कर चलाएगा भाभी, फैक्ट्री से आते ही बेदम हो कर पड़ जाता है. बिलकुल बेकार नौकरी है उस की.’’ कविता रोष में बोली, ‘‘2 दिन सुबह की शिफ्ट, फिर 2 दिन शाम की और 2 दिन रात की शिफ्ट.’’

‘‘तो तुझे क्या परेशानी है.’’ भाभी ने कविता को समझाया, ‘‘दामादजी की नईनई नौकरी है. मेहनत कर रहे हैं तो आगे जा कर लाभ मिलेगा.’’

‘‘भाभी, तुम नहीं समझोगी. एक तो वैसे ही फैक्ट्री के उलटेसीधे टाइमटेबल हैं, ऊपर से मोनू को संभालने के लिए इतना वक्त देना पड़ता है. इस सब से ऊब गई हूं मैं. बिलकुल नीरस जिंदगी है, किस से कहूं. क्या कहूं?’’

भाभी आश्चर्य से देखती रह गईं. वह समझ कर भी कुछ नहीं समझ पा रही थीं. 5 फुट 5 इंच लंबी, इकहरे बदन और तीखे नैननक्श वाली उस की ननद कविता में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उस के मोहपाश में कोई भी बंध सकता था. सुरेश के साथ भी यही हुआ था.

उस ने छत पर कई बार कविता और सुरेश को नैनों के दांवपेंच लड़ाते देखा था. इस के बाद उस ने ही दादी को समझाबुझा कर सुरेश और कविता की शादी करा दी थी. सुरेश था तो उस के पति का सहपाठी, पर कविता के चक्कर में उन्हीं के घर में घुसा रहता था.

काफी भागदौड़ के बाद सुरेश को एक कंपनी में नौकरी मिली थी. कंपनी की तरफ से ही रहने का भी इंतजाम हो गया था. कविता की नाजायज मांगों के लिए वह अपनी नौकरी खतरे में कैसे डाल सकता था. भाभी कविता की मांग सुन कर हैरत में रह गईं. सुरेश भला उस की चांदतारों की मांग के लिए रोजीरोटी की फिक्र कैसे छोड़ सकता था.

‘‘क्या सोच रही हो भाभी, बडे़ भैया तो अभी भी तुम्हारे आगेपीछे घूमते हैं.’’ भाभी को चुप देख कर कविता ने हल्के व्यंग्य में कहा, ‘‘अच्छा हुआ जो तुम ने अभी बच्चे का बवाल नहीं पाला. अभी तो खूब मौजमजे की उम्र है.’’

कविता की बात का कोई जवाब दिए बिना भाभी सोचने लगी, ‘जब तक दादी जिंदा हैं, पूरा परिवार एक डोर में बंधा है, बाद में तो सब को अलगअलग ही हो जाना है. कविता अपना घर छोड़ कर आ गई तो सब के लिए मुसीबत बन जाएगी. अपनी आधी पढ़ाई छोड़ कर शादी के मंडप में बैठ गई थी और अब बच्चे को उठा कर चली आई, वह भी यह सोच कर कि अब वापस नहीं जाएगी. जरूर इस का कुछ न कुछ इलाज करना पड़ेगा.’

‘‘कहां खो गईं भाभी,’’ कविता ने भाभी की आंखों के सामने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘बड़के भैया की रोमांटिक यादों में खो गईं क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में सोच रही थी. तुम मोनू की वजह से परेशान हो न, ऐसा करो उसे यहीं छोड़ जाओ, हम पाल लेंगे. बस आगे से सावधानी रखना कि कहीं मोनू का भैया न आ जाए. रही बात सुरेश की तो उन की ड्यूटी दिन की हो या रात की, बाकी वक्त तुम्हारे साथ ही रहेंगे, तुम्हारे पास. समय बचे तो अपना ग्रैजुएशन पूरा कर लेना. तुम भी व्यस्त हो जाओगी.’’

भाभी की राय कविता को जंच गई. बात चली तो यह सुझाव घर में भी सब को पसंद आया. बहरहाल 2 दिनों बाद कविता मोनू को मायके में छोड़ कर सुरेश के पास चली गई. उस के जाने से सभी ने राहत की सांस ली.

देखतेदेखते 5 साल गुजर गए. इस बीच कविता कानपुर छोड़ कर लखनऊ आ गई. वहां उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी. मोनू को भी उस ने अपने पास बुला लिया था. सुरेश शनिवार को उस के पास आता और रविवार को उस के साथ रह कर सोमवार सुबह वापस लौट जाता.

बड़े लोगों से संपर्क बने तो वह पार्टियों में भी जाने लगी. मोनू की वजह से उसे नाइट पार्टियों में जाने में परेशानी होती थी, इसलिए उसे संभालने के लिए उस ने एक नौकर रख लिया.

कविता का सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उस की जिंदगी में खलल तब पड़ा, जब सुरेश एक दिन दोपहर में आ गया. दरअसल उस दिन मंगलवार था और लखनऊ में उसे एक दोस्त की शादी में शामिल होना था. वैसे भी उस दिन कोई छुट्टी नहीं थी. उस ने सोचा था कि अचानक पहुंच कर कविता को सरप्राइज देगा. लेकिन दांव उलटा पड़ गया. ड्राइंगरूम में खुलने वाला दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में खिलौने बिखरे पड़े थे. उन्हें देख कर लग रहा था कि मोनू खेल से बोर हो कर कहीं बाहर चला गया है. यह भी संभव हो कि वह मां के पास अंदर हो.

अंदर बैडरूम का दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था. अंदर से हंसनेखिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. सुरेश ने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. भीतर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गया. बेशर्मी, बेहयाई और बेवफाई की मूरत बनी नग्न कविता परपुरुष की बांहों में अमरबेल की तरह लिपटी हुई पड़ी थी. पत्नी को इस हाल में देख कर सुरेश की आंखों में खून उतर आया. उस का मन कर रहा था कि वहीं पड़ा बैट उठा कर दोनों के सिर फोड़ दे.

‘‘पापा, पापा आ गए.’’ बाहर से आती मोनू की आवाज उस के कानों में पड़ी. कुछ नहीं सूझा तो उस ने झट से बैडरूम का दरवाजा बंद कर दिया. उसी वक्त अंदर से कुंडी लगाने की आवाज आई. यह काम शायद कविता ने किया होगा. सुरेश धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘कमबख्त को बच्चे का भी लिहाज नहीं.’’

‘‘पापा, खेलने चलें.’’ मोनू ने सुरेश के पैर पकड़ कर इस तरह खींचते हुए कहा, जैसे उसे मम्मी से कोई मतलब ही न हो.

अब सुरेश की समझ में आ रहा था कि कविता उसे बौड़म क्यों कहती थी. सब कुछ उस की नाक के नीचे चलता रहा और वह उस पर विश्वास किए बैठा रहा. सचमुच बौड़म ही था वह. किराए का ही सही, महंगा घर, शानदार परदे, उच्च क्वालिटी की क्रौकरी, ब्रांडेड कपड़े, मोनू का महंगा स्कूल. सब कुछ कैसे मैनेज करती होगी कविता, उस ने कभी सोचा ही नहीं. यहां तक कि अभी अंदर आते वक्त उस ने दीवार के साथ खड़ी लाल रंग की आलीशान कार देखी थी, उस पर भी ध्यान नहीं दिया था उस ने. सुरेश सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘पापा, पापा खेलने चलें.’’ कहते हुए मोनू ने उस की टांगें हिलाईं. लेकिन वह जड़वत बैठा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे. अब तो उस के मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह मोनू का पिता है या नहीं?

‘‘तुम खेलने जाओ, मैं अभी आता हूं.’’ दुखी मन से कहते हुए उस ने मोनू को बाहर भेज दिया.

सुरेश ने घड़ी देखी तो शाम के 4 बज रहे थे. सोचविचार कर उस ने कविता को उस के हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. उस ने 4 लाइनों का पत्र लिखा, ‘मैं ने तुम्हारा असली चेहरा देख लिया है. तुम्हारे खून से हाथ रंग कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे यह भी नहीं पता कि मोनू मेरा बेटा है या किसी और का? लेकिन तुम्हें अब कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल कर खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं’

सुरेश ने अपना बैग उठाया और वापस लौट गया. कभी वापस न लौटने के लिए. उस दिन से सुरेश कविता की जिंदगी से निकल गया और उस की जगह दरजनों मर्द आ गए. कविता को सुरेश के जाने का कोई गम नहीं हुआ. उस ने चैन की सांस ली. अब वह आजाद पंछी की तरह थी.

आजकल वह जिस आखिलेंद्र से पेंच लड़ा रही थी, वह व्यवसायी था और उस का पूरा परिवार लंदन में रहता था. वहां भी उन का बड़ा बिजनैस था. परिवार के कुछ लोग जरूर लखनऊ में पुश्तैनी घर में रहते थे. अखिलेंद्र उन से चोरीछिपे कविता के पास जाता था. उस के रहते उसे सुरेश की कोई चिंता नहीं थी.

धीरेधीरे कविता ने गोमतीनगर जैसे महंगे इलाके में घर ले लिया और कार भी. उस ने ड्राइविंग भी सीख ली. अखिलेंद्र चूंकि कभीकभी ही आता था और उस का लंदन आनाजाना भी लगा रहता था, इसलिए कविता ने कुछ और चाहने वाले ढूंढ लिए थे. स्कूल में वह प्रधानाध्यापक नवलकिशोर के सामने अपने सिंगल पैरेंट्स होने का रोना रोती रहती थी. कितनी ही बार वह आधे दिन की छुट्टी ले कर स्कूल से निकल जाती थी. तब तक मोनू 10 साल का हो गया था.

उस दिन कविता ने बेटे की बीमारी का रोना रो कर नवलकिशोर को 2 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की अरजी दी थी. लेकिन अचानक ही उन्होंने उस के बेटे को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए उस के घर चलने की इच्छा जाहिर कर दी. कविता किस मुंह से मना करती. उस ने हां कर दी. नवलकिशोर की नजर काफी दिनों से कविता पर जमी थी. वह उन्मुक्त पक्षी जैसी लगती थी, इसीलिए वह उस की हकीकत जानने को उत्सुक थे.

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

नानू का बेटा: क्यों नानू को गोद लेने के लिए भीड़ लग गई

सुधा की बिटिया ने बेटे को जन्म दिया तो मानुषी भी बहुत खुश थी क्यों न हो तीनों बहनों के बच्चों परिवार में तीसरी पीढ़ी का अगुआ जो था और फिर सुधा और मानुषी के बीच प्रेम और स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ था जो शादी के बाद भी बना हुआ था .दोनों अपनी अपनी दुनिया में खुश थी लेकिन जीवन के सुख दुःख एक दूसरे से साझा कर लेती थीं. मानुषी सुधा से दो साल बड़ी थी ,पिता के शांत हो जाने के बाद वह अब सचमुच बड़ी बहिन की तरह सुधा का ख्याल रखती थी. कोरोना जब सामाजिक ताने बाने को तार- तार कर रहा था तब दोनों बहनें अपने अपने शहर के हालत के बारे में बात करती बल्कि देश दुनिया की चिंता भी उनकी बातों में उभर आती .दोनों कोरोना से बचने के उपाय एक दूसरे से साझा करती. मानुषी का पति वरिष्ठ नागरिक की देहरी छू चूका था और दिल का मरीज होने के नाते उसे उनकी ज्यादा फिक्र रहती थी और फिर खुद भी डायबिटिक थी अतः बहुत सावधानी बरत रही थी.

सुधा तो अब अपने नवासे गोलू की तीमारदारी में लगी रहती. नवजात शिशु  और जच्चा के अपने बहुत काम होते हैं लेकिन वह ख़ुशी की उस नाव पर सवार थी जिसके आगे किसी लहर से परेशानी नहीं अनुभव हो रही थी .उस नन्हे मेहमान ने घर में नई ऊर्जा का संचार कर दिया था परंतु यह डर मन में बना रहता था कि बच्चा और उसकी बिटिया रक्षिता दोनों कोरोना से ग्रसित न हो जाएँ.

बच्चे की अठखेलियों के वीडियो दोनों बहनों के घरों में देखे जाने लगे. अब सामान्य कॉलकी जगह वीडियोकॉल ने ले ली थी क्योंकि बच्चे की हरकतें देखना सब को भा रहा था .बच्चे ने तो अभी बोलना शुरू भी नहीं किया था लेकिन सारा घर तुतलाने लगा था.

अचानक एक दिन सुबह छः बजे मानुषी के फोन की घंटी बजी तो मानुषी परेशान हो उठी ,उठ कर देखा तो सुधा का फोन था. वह भीतर से किसी अनहोनी से बहुत डर गई . इतनी सुबह तो सुधा कभी फोन नहीं करती,कहीं बच्चा बीमार तो नहीं हो गया जिसे सब अब प्यार से नानू का बेटा कहने लगे थे.खैर उसने फोन उठा कर बात की तो सुधा भी घबराई हुई थी और उसने छूटते ही कहा कि–“ मैं रक्षिता को टैक्सी से तेरे पास भेज रही हूँ. परसों सब का कोरोनाटेस्टकराया था तो मुकुल(सुधा का पति) और मैं दोनों पॉजिटिव आये हैं. मुकुल तो अस्पताल में भरती है ,मेरे पास भी एस.डी.एम् ऑफिस से फोन आ चुका है, सुबह एम्बुलेंस लेने आएगी ,रक्षिता के टेस्ट का रिजल्ट अभी नहीं आया है ,मेरे जाने के बाद उसकी देख भाल कौन करेगा इसलिए उसे तेरे पास भेज रही हूँ ,वो शाम तक तेरे पास पहुँच जाएगी”

मानुषी के मुंह से सिर्फ ठीक है भेज दे निकला, और फोन कट गया. इस अप्रत्याशित स्थिति की उसने कल्पना भी नहीं की थी. उसे समझ नहीं आ रहा था एक और बहन और बहनोई की चिंता ऊपर से रक्षिता अपने के साथ उसके पास आ रही थी. ऐसा कैसे हो सकता है कि जब सब बच्चे को खिला रहे हों और साथ रहे हों ,तब रक्षिता संक्रमित होने से कैसे बच  सकती है ? एक ओर  उसके मन में जच्चा (रक्षिता) और उसके के बच्चे की देख भाल का द्वन्द चल रहा था तो दूसरी और अपने पति अनिल के संक्रमित होने के खतरे की चिंता थी. लेकिन सुधा ने तो उसे कुछ भी कहने का मौका ही कहाँ दिया था.

शाम को टैक्सी से रक्षिता अपने बीस दिन के प्यारे से बेटे को लेकर मानुषी के पास पहुँच गई. मानुषी ने उसे गेस्ट रूम में ठहरा कर अगले चौदह दिन के आइसोलेशन की हिदायत यह समझाते हुए दे दी कि अभी टेस्ट रिपोर्ट नहीं आई है अतः दूसरे बच्चे की सेहत के लिए अलग रहना जरूरी है. रक्षिता ने सब ध्यान से सुना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी,यधपि उसे मौसी का व्यवहार बड़ा अटपटा सा लग रहा था. यहाँ तक कि उसकी कजिन नम्रता भी दूरी बनाये हुए थी.

उधर सुधा ने फोन करके बता दिया कि उसे भी अस्पताल में आइसोलेशन में रख कर इलाज़ शुरू कर दिया है. उसने मानुषी से रक्षिता के बारे में पूछा तो उसने कह दिया –“ तू उसकी चिंतामत कर अपना ख्याल रख “ तीन प्राणी और तीन जगह ,न कोई एक दूसरे से मिल सकता था ,न कहीं आ जा सकता था. कोरोना ने मानवीय रिश्तों के बीच संक्रमण के भय से जो सामाजिक दूरी बना थी ऐसी जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी.

रक्षिता को दो दिन में हीगेस्ट रूम जेल लगाने लगा था. न तो वह बाहर आ सकती थी न ही कोई उसके कमरे में आता था. यहाँ तक कि खाने पीने का सामान या अन्य किसी चीज की जरूरत होती तो मानुषी कमरे के बाहर रख कर फोन कर देती और रक्षिता उसे कलेक्ट कर लेती. अभी उसकी डिलीवरी को बाईस दिन ही तो हुए थे. बच्चे की देख भाल ,उसके शू- शूपोट्टी के कपडे धोना ,उसकी मालिश करना ,दवाई देना ,सब जंजाल लग रहा था.  रात भर बच्चा सोने नहीं देता था अतः वह जल्दी दुखी हो गई. आगरा में तो मम्मी यानि सुधा कर रही थी. वह मन ही मन माँ के मौसी घर भेजने के निर्णय को गलत मान रही थी. सुधा भी मानुषी के व्यवहार से ज्यादा खुश नहीं थी ,उसे लगता था कि वैसे तो वीडियोकॉल पर दूर से सब बच्चे से लाड लड़ा रहे थे लेकिन जब बच्चा पास आ गया तो उसे अछूत करार दे रखा है और वह भी उसकी सगी बहन ने उधर अनिल भी मानुषी के प्रोटोकॉल से बहनों के रिश्ते में खटास आने के डर से रहा था. वह जब भी छोटे बच्चे की रोने की आवाज़ सुनता गेस्ट रूम की सीडियां चढ़ने को होता लेकिन मानुषी के डर से मन मसोस कर रह जाता. नम्रता तो मानुषी से निगाह बचा कर नानू के बेटे को देख आती.

तीसरे दिन आखिर सुधा ने मानुषी से कह दिया कि रक्षिता का जयपुर में मन नहीं लग रहा. मानुषी ने साफ़ कह दिया –“ बच्चे और अनिल की सेहत को देखते हुए यह सब एक हफ्ते तक चलेगा ,तू और मुकुल कब अस्पताल से डिस्चार्ग होंगे ?” सुधा की बात को नज़रअंदाज़ करते हुएमानुषी ने सवाल दागा  सुधा ने बताया की अभी चार दिन तो कम से कम अस्पताल में रहना होगा. बच्चे की आवाज़ का जादू धीरे धीरे घर में फैलने लगा था. मानुषी ने चौथे दिन से बच्चे की बाहर धूप में लिटा कर मालिश करने के लिए कह दिया. खुद मानुषी बच्चे और रक्षिता के खान- पान और दवाइयों आदि की व्यवस्था में मशगूल रहती . रिश्तों में दरार से ज्यादा वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाह पर ध्यान दे रही थी | उसे मालूम था कि प्रसव के बाद माँ और बच्चे की देख भाल कैसे की जाती है ,आखिर उसने भी तो दो बच्चे पाल पोस कर बड़े किये थे.

अब अनिल सीढ़ियां चढ़ कर दूर से बच्चे को निहारने लगा था. नानू का बेटा नाम उसी ने तो दिया था. पूरे घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार नानू के बेटे ने कर दिया था. अब नम्रता भी बच्चे को खिलाने लगी थी. नानू के बेटे की अठखेलियों से रिश्तों की कड़वाहट फीकी पड़ने लगी थी.

दस दिन के बाद सुधा और मुकुल को अस्पताल से छुट्टी मिली ,अब वह घर आ गई थी लेकिन इन दस दिनों में जो देख भाल उसकी बेटी रक्षिता और उसके बच्चे की मानुषी ने की थी उसने शुरुआत की कडवाहट को दूर कर दिया था. उसे समझ आ गया था कि भावुकता में वह मानुषी को कोस रही थी जबकि मानुषी ने वह सब बच्चे की सेहत के लिया किया था.

वह दिन भी आ गया जब मानुषी के घर में नानू के बेटे को गोद में लेने की होड़ होने लगी.  पंद्रह दिन बाद जब रक्षिता वापस आगरा लौट रही थी तो मौसी से जेठ भर कर मिली. नानू का बेटा मौसी की गोद में खुश था. गाड़ी में बिठाते हुए मानुषी ने इतना ही कहा –“ ठीक से जाना , पहुँच कर फोन जरूर करना, बेटियां घर की रौनक भी होती हैं और जिम्मेवारी भी ” रक्षिता के मुंह से सिर्फ इतना ही निकला -मौसी …. और दो आंसू उसके गाल पर ढुलक आये |मानुषी ने महसूस किया कि उसका कंधा रक्षिता के आंसुओं से नम हो रहा था. अनिल यह सोच कर खुश था कि आखिर नानू के बेटे और मानुषी ने रिश्तों की डोर में गाँठ पड़ने से बचा ली .

एक रात की उजास : क्या उस रात बदल गई उन की जिंदगी

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

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