Famous Hindi Stories : पापा जल्दी आ जाना

 Famous Hindi Stories : ‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

किसना : बेटी के लिए क्या था पिता का फैसला

झारखंड का एक बड़ा आदिवासी इलाका है अमानीपुर. जिले के नए कलक्टर ने ऐसे सभी मुलाजिमों की लिस्ट बनाई, जो आदिवासी लड़कियां रखे हुए थे. उन सब को मजबूर कर दिया गया कि वे उन से शादी करें और फिर एक बड़े शादी समारोह में उन सब का सामूहिक विवाह करा दिया गया. दरअसल, आदिवासी बहुल इलाकों के इन छोटेछोटे गांवों में यह रिवाज था कि वहां पर कोई भी सरकारी मुलाजिम जाता, तो किसी भी आदिवासी घर से एक लड़की उस की सेवा में लगा दी जाती. वह उस के घर के सारे काम करती और बदले में उसे खानाकपड़ा मिल जाता. बहुत से लोग तो उन में अपनी बेटी या बहन देखते, मगर उन्हीं में से कुछ अपने परिवार से दूर होने के चलते उन लड़कियों का हर तरह से शोषण भी करते थे.

वे आदिवासी लड़कियां मन और तन से उन की सेवा के लिए तैयार रहती थीं, क्योंकि वहां पर ज्यादातर कुंआरे ही रहते थे, जो इन्हें मौजमस्ती का सामान समझते और वापस आ कर शादी कर नई जिंदगी शुरू कर लेते. मगर शायद आधुनिक सोच को उन पर रहम आ गया था, तभी कलक्टर को वहां भेज दिया था. उन सब की जिंदगी मानो संवर गई थी. मगर यह सब इतना आसान नहीं था. मुखिया और कलक्टर का दबदबा होने के चलते कुछ लोग मान गए, पर कुछ लोग इस के विरोध में भी थे. आखिरकार कुछ लोग शादी के बंधन में बंध गए और लड़कियां दासी जीवन से मुक्त हो कर पत्नी का जीवन जीने लगीं. मगर 3 साल बाद जब कलक्टर का ट्रांसफर हो गया, तब शुरू हुआ उन लड़कियों की बदहाली का सिलसिला. उन सारे मुलाजिमों ने उन्हें फिर से छोड़ दिया और  शहर जा कर अपनी जाति की लड़कियों से शादी कर ली और वापस उसी गांव में आ कर शान से रहने लगे.

तथाकथित रूप से छोड़ी गई लड़कियों को उन के समाज में भी जगह नहीं मिली और लोगों ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया. ऐसी छोड़ी गई लड़कियों से एक महल्ला ही बस गया, जिस का नाम था ‘किस बिन पारा’ यानी आवारा औरतों का महल्ला. उसी महल्ले में एक ऐसी भी लड़की थी, जिस का नाम था किसना और उस से शादी करने वाला शहरी बाबू कोई मजबूर मुलाजिम न था. उस ने किसना से प्रेम विवाह किया था और उस की 3 साल की एक बेटी भी थी. पर समय के साथ वह भी उस से ऊब गया, तो वहां से ट्रांसफर करा कर चला गया. किसना को हमेशा लगता था कि उस की बेटी को आगे चल कर ऐसा काम न करना पड़े. वह कोशिश करती कि उसे इस माहौल से दूर रखा जाए.

लिहाजा, उस को किसना ने दूसरी जगह भेज दिया और खुद वहीं रुक गई, क्योंकि वहां रुकना उस की मजबूरी थी. आखिर बेटी को पढ़ाने के लिए पैसा जो चाहिए था. बदलाव बस इतना ही था कि पहले वह इन लोगों से कपड़ा और खाना लेती थी, पर अब पैसा लेने लगी थी. उस में से भी आधा पैसा उस गांव की मुखियाइन ले लेती थी. उस दिन मुखियाइन किसना को नई जगह ले जा रही थी, खूब सजा कर. वह मुखियाइन को काकी बोलती थी. वे दोनों बड़े से बंगले में दाखिल हुईं. ऐशोआराम से भरे उस घर को किसना आंखें फाड़ कर देखे जा रही थी.

तभी किसना ने देखा कि एक तगड़ा 50 साला आदमी वहां बैठा था, जिसे सब सरकार कहते थे. उस आदमी के सामने सभी सिर झुका कर नमस्ते कर रहे थे. उस आदमी ने किसना को ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर रूमाल से मोंगरे का गजरा निकाल कर उस के गले में डाल दिया. वह चुपचाप खड़ी थी. सरकार ने उस की आंखों में एक अजीब सा भाव देखा, फिर मुखियाइन को देख कर ‘हां’ में गरदन हिला दी. तभी एक बूढ़ा आदमी अंदर से आया और किसना से बोला, ‘‘चलो, हम तुम्हारा कमरा दिखा दें.’’

किसना चुपचाप उस के पीछे चल दी. बाहर बड़ा सा बगीचा था, जिस के बीचोंबीच हवेली थी और किनारे पर छोटे, पर नए कमरे बने थे. वह बूढ़ा नौकर किसना को उन्हीं बने कमरों में से एक में ले गया और बोला, ‘‘यहां तुम आराम से रहो. सरकार बहुत ही भले आदमी हैं. तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है…’’ किसना ने अपनी पोटली वहीं बिछे पलंग पर रख दी और कमरे का मुआयना करने लगी. दूसरे दिन सरकार खुद ही उसे बुलाने कमरे तक आए और सारा काम समझाने लगे. रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक उन की सेवा में रहना था. किसना ने भी जमाने भर की ठोकरें खाई थीं. वह तुरंत समझ गई कि यह बूढ़ा क्या चाहता है. उसे भी ऐसी सारी बातों की आदत हो गई थी.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘हम अपना काम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं सरकार, आप को शिकायत का मौका नहीं देंगे.’’

कुछ ही दिनों में किसना सरकार के रंग में रंग गई. उन के लिए खाना बनाती, कपड़े धोती, घर की साफसफाई करती और उन्हें कभी देर हो जाती, तो उन का इंतजार भी करती. सरकार भी उस पर बुरी तरह फिदा थे. वे दोनों हाथों से उस पर पैसा लुटाते. एक रात सरकार उसे प्यार कर रहे थे, पर किसना उदास थी. उन्होंने उदासी की वजह पूछी और मदद करने की बात कही.

‘‘नहीं सरकार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ किसना बोली.

‘‘देख, अगर तू बताएगी नहीं, तो मैं मदद कैसे करूंगा,’’ सरकार उसे प्यार से गले लगा कर बोले.

किसना को उन की बांहें किसी फांसी के फंदे से कम न लगीं. एक बार तो जी में आया कि धक्का दे कर बाहर चली जाए, पर वह वहां से हमेशा के लिए जाना  चाहती थी. उसे अच्छी तरह मालूम था कि यह बूढ़ा उस पर जान छिड़कता है. सो, उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘सरकार, मेरी बेटी बहुत बीमार है. इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत है. मैं पैसा कहां से लाऊं? आज फिर मेरी मां का फोन आया है.’’

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘नहीं सरकार, मुझे आप से पैसे नहीं चाहिए… मुखियाइन मुझे मार देगी. मैं पैसे नहीं ले सकती.’’

सरकार ने उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मुखियाइन को कौन बताएगा? मैं तो नहीं बताऊंगा.’’

‘‘एक लाख रुपए चाहिए.’’

‘‘एक… लाख…’’ बड़ी तेज आवाज में सरकार बोले और उसे दूर झटक दिया. किसना घबरा कर रोने लगी. ‘‘अरे… तुम चुप हो जाओ,’’ और सरकार ने अलमारी से एक लाख रुपए निकाल कर उस के हाथ पर रख दिए, फिर उस की कीमत वसूलने में लग गए. बेचारी किसना उस सारी रात क्याक्या सोचती रही और पूरी रात खुली आंखों में काट दी. शाम को जब सरकार ने किसना को बुलाने भेजा था, तो वह कमरे पर नहीं मिली. चिडि़या पिंजरे से उड़ चुकी थी. आखिरी बार उसे माली काका ने देखा था. सरकार ने भी अपने तरीके से ढूंढ़ने की कोशिश की, पर वह नहीं मिली. उधर किसना पैसा ले कर कुछ दिनों तक अपनी सहेली पारो के घर रही और कुछ समय बाद अपने गांव चली गई.

किसना की सहेली पारो बोली, ‘‘किसना, अब तू वापस मत आना. काश, मैं भी इसी तरह हिम्मत दिखा पाती. खैर छोड़ो…’’ किसना ने अपना चेहरा घूंघट से ढका और बस में बैठते ही भविष्य के उजियारे सपनों में खो गई. इन सपनों में खोए 12 घंटों का सफर उसे पता ही नहीं चला. बस कंडक्टर ने उसे हिला कर जगाया, ‘‘ऐ… नीचे उतर, तेरा गांव आ गया है.’’ किसना आंखें मलते हुए नीचे उतरी. उस ने अलसाई आंखों से इधरउधर देखा. आसमान में सूरज उग रहा था. ऐसा लगा कि जिंदगी में पहली बार सूरज देखा हो. आज 30 बसंत पार कर चुकी किसना को ऐसा लगा कि जैसे जिंदगी में ऐसी सुबह पहली बार देखी हो, जहां न मुखियाइन, न दलाल, न सरकार… वह उगते हुए सूरज की तरफ दोनों हाथ फैलाए एकटक आसमान की तरफ निहारे जा रही थी. आतेजाते लोग उसे हैरत से देख रहे थे, तभी अचानक वह सकुचा गई और अपना सामान समेट कर मुसकराते हुए आगे बढ़ गई. किसना को घर के लिए आटोरिकशा पकड़ना था. तभी सोचा कि मां और बेटी रोशनी के लिए कुछ ले ले, दोनों खुश हो जाएंगी. उस ने वहां पर ही एक मिठाई की दुकान में गरमागरम कचौड़ी खाई और मिठाई भी ली.

किसना पल्लू से 5 सौ का नोट निकाल कर बोली, ‘‘भैया, अपने पैसे काट लो.’’ दुकानदार भड़क गया, ‘‘बहनजी, मजाक मत करिए. इस नोट का मैं क्या करूंगा. मुझे 2 सौ रुपए दो.’’

‘‘क्यों भैया, इस में क्या बुराई है.’’

‘‘तुम को पता नहीं है कि 2 दिन पहले ही 5 सौ और एक हजार के नोट चलना बंद हो गए हैं.’’

किसना ने दुकानदार को बहुत समझाया, पर जब वह न माना तो आखिर में अपने पल्लू से सारे पैसे निकाल कर उसे फुटकर पैसे दिए और आगे बढ़ गई. अभी किसना ढंग से खुशियां भी न मना पाई थी कि जिंदगी में फिर स्याह अंधेरा फैलने लगा. अब क्या करेगी? उस के पास तो 5 सौ और एक हजार के ही नोट थे, क्योंकि इन्हें मुखियाइन से छिपा कर रखना जो आसान था. रास्ते में बैंक के आगे लगी भीड़ में जा कर पूछा तो पता लगा कि लोग नोट बदल रहे हैं. किसना को तो यह डूबते को तिनके का सहारा की तरह लगा. किसी तरह पैदल चल कर ही वह अपने घर पहुंची. बेटी रोशनी किसना को देखते ही लिपट गई और बोली, ‘‘मां, अब तुम यहां से कभी वापस मत जाना.’’

किसना उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘अब तेरी मां कहीं नहीं जाएगी.’’बेटी के सो जाने के बाद किसना ने अपनी मां को सारा हाल बताया. उस की मां ने पूछा, ‘‘अब आगे क्या करोगी?’’

किसना ने कहा, ‘‘यहीं सिलाईकढ़ाई की दुकान खोल लूंगी.’’

दूसरे दिन ही किसना अपने पैसे ले कर बैंक पहुंची, मगर मंजिल इतनी आसान न थी. सुबह से शाम हो गई, पर उस का नंबर नहीं आया और बैंक बंद हो गया. ऐसा 3-4 दिनों तक होता रहा और काफी जद्दोजेहद के बाद उस का नंबर आया, तो बैंक वालों ने उस से पहचानपत्र मांगा. वह चुपचाप खड़ी हो गई. बैंक के अफसर ने पूछा कि पैसा कहां से कमाया? वह समझाती रही कि यह उस की बचत का पैसा है. ‘‘तुम्हारे पास एक लाख रुपए हैं. तुम्हें अपनी आमदनी का जरीया बताना होगा.’’

बेचारी किसना रोते हुए बैंक से बाहर आ गई. किसना हर रोज बैंक के बाहर बैठ जाती कि शायद कोई मदद मिल जाए, मगर सब उसे देखते हुए निकल जाते. तभी एक दिन उसे एक नौजवान आता दिखाई पड़ा. जैसेजैसे वह किसना के नजदीक आया, किसना के चेहरे पर चमक बढ़ती चली गई. उस के जेहन में वे यादें गुलाब के फूल पर पड़ी ओस की बूंदों की तरह ताजा हो गईं. कैसे यह बाबू उस का प्यार पाने के लिए क्याक्या जतन करता था? जब वह सुबहसुबह उस के गैस्ट हाउस की सफाई करने जाती थी, तो बाबू अकसर नजरें बचा कर उसे देखता था.

वह बाबू किसना को अकसर घुमाने ले जाता और घंटों बाग में बैठ कर वादेकसमें निभाता. वह चाहता कि अब हम दोनों तन से भी एक हो जाएं. किसना अब उसे एक सच्चा प्रेमी समझने लगी और उस की कही हर बात पर भरोसा भी करती थी, मगर किसना बिना शादी के कोई बंधन तोड़ने को तैयार न थी, तो उस ने उस से शादी कर ली, मगर यह शादी उस ने उस का तन पाने के लिए की थी. किसना का नशा उस की रगरग में समाया था. उस ने सोचा कि अगर यह ऐसे मानती है तो यही सही, आखिर शादी करने में बुराई क्या है, बस माला ही तो पहनानी है. उस ने आदिवासी रीतिरिवाज से कलक्टर और मुखिया के सामने किसना से शादी कर ली, लेकिन उधर लड़के की मां ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया था. एक दिन बिना बताए किसना का बाबू कहीं चला गया. इस तरह वे दोनों यहां मिलेंगे, किसना ने सोचा न था.

जब वह किसना के बिलकुल नजदीक आया, तो किसना चिल्ला कर बोली, ‘‘अरे बाबू… आप यहां?’’

वह नौजवान छिटक कर दूर चला गया और बोला, ‘‘क्या बोल रही हो? कौन हो तुम?’’

‘‘मैं तुम्हारी किसना हूं? क्या तुम अब मुझे पहचानते भी नहीं हो? मुझे तुम्हारा घर नहीं चाहिए. बस, एक छोटी सी मदद…’’

‘‘अरे, तुम मेरे गले क्यों पड़ रही हो?’’ वह नौजवान यह कहते हुए आगे बढ़ गया और बैंक के अंदर चला गया. अब तो किसना रोज ही उस से दया की भीख मांगती और कहती कि बाबू, पैसे बदलवा दो, पर वह उसे पहचानने से मना करता रहा. ऐसा कहतेकहते कई दिन बीत गए, मगर बाबू टस से मस न हुआ. आखिरकार किसना ने ठान लिया कि अब जैसे भी हो, उसे पहचानना ही होगा. उस ने वापस आ कर सारा घर उलटपलट कर रख दिया और उसे अपनी पहचान का सुबूत मिल गया. सुबह उठ कर किसना तैयार हुई और मन ही मन सोचा कि रो कर नहीं अधिकार से मांगूंगी और बेटी को भी साथ ले कर बैंक गई. उस के तेवर देख कर बाबू थोड़ा सहम गया. उसे किनारे बुला कर किसना बोली, ‘‘यह रहा कलक्टर साहब द्वारा कराई गई हमारी शादी का फोटो. अब तो याद आ ही गया होगा?’’

‘‘हां… किसना… आखिर तुम चाहती क्या हो और क्यों मेरा बसाबसाया घर उजाड़ना चाहती हो?’’

किसना आंखों में आंसू लिए बोली, ‘‘जिस का घर तुम खुद उजाड़ कर चले आए थे, वह क्या किसी का घर उजाड़ेगी, रमेश बाबू… वह लड़की जो खेल रही है, उसे देखो.’’ रमेश पास खेल रही लड़की को देखने लगा. उस में उसे अपना ही चेहरा नजर आ रहा था. उसे लगा कि उसे गले लगा ले, मगर अपने जज्बातों को काबू कर के बोला, ‘‘हां…’’

किसना तकरीबन घूरते हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारी ही बेटी है, जिसे तुम छोड़ आए थे.’’

रमेश के चेहरे के भाव को देखे बिना ही बोली, ‘‘देखो रमेश बाबू, मुझे तुममें कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं एक नई जिंदगी जीना चाहती हूं. अगर इन पैसों का कुछ न हुआ, तो लौट कर फिर वहीं नरक में जाना पड़ेगा. ‘‘मैं अपनी बेटी को उस नरक से दूर रखना चाहती हूं, नहीं तो उसे भी कुछ सालों में वही कुछ करना पड़ेगा, जो उस की मां करती रही है. अपनी बेटी की खातिर ही रुपया बदलवा दो, नहीं तो लोग इसे वेश्या की बेटी कहेंगे. ‘‘अगर तुम्हारे अंदर जरा सी भी गैरत है, तो तुम बिना सवाल किए पैसा बदलवा लाओ, मैं यहीं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’ रमेश ने उस से पैसों का बैग ले लिया और खेलती हुई बेटी को देखते हुए बैंक के अंदर चला गया और कुछ घंटे बाद वापस आ कर रमेश ने नोट बदल कर किसना को दे दिए और कुछ खिलौने अपने बेटी को देते हुए गले लगा लिया. तभी किसना ने आ कर उसे रमेश के हाथों से छीन लिया और बेटी का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर बोली, ‘‘रमेश बाबू… चाहत की अलगनी पर धोखे के कपड़े नहीं सुखाए जाते…’’ और बेटी के साथ सड़क की भीड़ में अपने सपनों को संजोते हुए खो गई.

Top 10 Best Father’s Day Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फादर्स डे कहानियां हिंदी में

Father’s Day Stories in Hindi: एक परिवार की सबसे अहम कड़ी हमारे माता-पिता होते हैं. वहीं मां को हम जहां अपने दिल की बात बताते हैं तो वहीं पिता हमारे हर सपने को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं. हालांकि वह अपने दिल की बात कभी शेयर नहीं कर पाते. हालांकि हमारा बुरा हो या अच्छा, हर वक्त में हमारे साथ चट्टान बनकर खड़े होते हैं. इसीलिए इस फादर्स डे के मौके पर आज हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की  Best Father’s Day Story in Hindi, जिसमें पिता के प्यार और परिवार के लिए निभाए फर्ज की दिलचस्प कहानियां हैं, जो आपके दिल को छू लेगी. साथ ही आपको इन Father’s Day Stories से आपको कई तरह की सीख भी मिलेगी, जो आपके पिता से आपके रिश्तों को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौकिन हैं तो पढ़िए Grihshobha की Best Father’s Day Story in Hindi.

1. Father’s Day Story 2023: पिता का वादा

मुदित के पिता अकसर एक महिला से मिलने उस के घर जाया करते थे. कौन थी वह महिला और क्यों मुदित उस महिला के बारे में सबकुछ जानना चाहता था…

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2. Father’s Day Story 2023: अंतराल- क्या बेटी के लिए पिता का फैसला सही था?

चंद मुलाकातों के बाद ही सोफिया और पंकज ने शादी करने का निर्णय कर लिया. पर सोफिया के पिता द्वारा रखी गई शर्त सुनने पर पंकज ने शादी से इनकार कर दिया.

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3. Father’s Day Story 2023: अब तो जी लें

पिता के रिटायरमैंट के बाद उन के जीवन में आए अकेलेपन को दूर करने के लिए गौरव व शुभांगी ने ऐसा क्या किया कि उन के दोस्त भी मुरीद हो गए…

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4. Father’s day Story 2023: फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

नाजुक हालात कहें या वक्त का तकाजा पर फादर्स डे पर हुई उस एक घटना ने वरुण और मेरे बीच एक खामोश दीवार खड़ी कर दी थी. इस बार उस दीवार को ढहाने का काम हम दोनों में से किसी को तो करना ही था.

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5. Father’s Day Story : दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

पति के बिना पद्मा का जीवन सूखे कमल की भांति सूख चुका था. ऐसे में कमलकांत का मिलना उस के दिल में मीठी फुहार भर गया था. दोनों के गम एकदूसरे का सहारा बनने को आतुर हो उठे थे. परंतु …

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6. Father’s day Stories : कोरा कागज- घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?

बच्चे अपने मातापिता की सख्ती के चलते घर से भागने जैसी बेवकूफी तो कर देते हैं, लेकिन इस की उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ती है उस से अनजान रहते हैं. इस दर्द से राहुल भी अछूता नहीं था…

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7. Father’s Day 2023: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

गुंजन व रवि ने अपने मातापिता की खुशियों के लिए एक ऐसा प्लान बनाया कि उन के चेहरे की चमक एक बार फिर वापस लौट आई. आखिर क्या था उन दोनों का प्लान?

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 8. Father’s Day 2023: जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- पिता ने बेटे को कैसे रखा जिंदा

दानव की तरह मुंह फाड़े मौत के आगे सोनू की नन्ही सी जिंदगी ने घुटने तो टेके पर हार नहीं मानी. उस के मातापिता के एक फैसले ने मरणोपरांत भी उसे जीवित रखा क्योंकि जिंदगी का मकसद ही मुसकराना है.

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9. Father’s Day 2023: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

मानव और रत्ना को अपने बेटे चिन्मय पर गर्व था क्योंकि वह कक्षा में हमेशा अव्वल आता था, उन का सपना था कि चिन्मय 10वीं की परीक्षा में देश में सब से अधिक अंक ले कर उत्तीर्ण हो.

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10. Father’s Day Story 2023: बाप बड़ा न भैया- पिता की सीख ने बदली पुनदेव की जिंदगी

 

5 बार मैट्रिक में फेल हुए पुनदेव को उस के पिता ने ऐसी राह दिखाई कि उस ने फिर मुड़ कर देखा तक नहीं. आखिर ऐसी कौन सी राह सुझाई थी उस के पिता ने.

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Father’s day 2023: त्रिकोण का चौथा कोण

Father’s day 2023: मेरे पापा

दो शब्दों में सिमटी दुनिया मेरी क्या कहूं, क्या लिखूं समझ नहीं आ रहा. शुक्रिया शब्द तो बहुत छोटा है आपकी दी हुई परवरिश और संस्कार के सामने. पिता और बेटी का रिश्ता बड़ा अनोखा होता हैं. दोनों लड़ते भी बहुत है और प्यार भी असीमित होता है. मुझे याद है पापा जब मैं आपसे गुस्सा हो जाती थी तो खाना नहीं खाती थी और मम्मी कहती थी मत खाने दो, लेकिन आप जब तक मुझे कुछ खिला नहीं देते थे सोते नहीं थे. मम्मी कहती बहुत सिर चढ़ा रखा है इसको.

आपसे से सीखा खुद पर भरोसा करना…

आप से मैंने सीखा कैसे रिश्तों मे प्यार और अपनापन बना कर रखा जाये. आपसे सीखा विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे हंसकर जिया जा सकता है. हमारी जिदंगी में भी एक तूफान आया था ना पापा लेकिन आपने कभी भी भगवान के ऊपर से अपना विश्वास नहीं उठने दिया और शायद इसी भरोसे की वजह से आज हम उस तूफान से निकलकर किनारे पर आ गये. उन विपरीत परिस्थितियों में भी आप सकारात्मक रहे ये बहुत बडी बात थी. आपके जैसे ही मजबूत बनाना चाहती हूं मैं पापा.

पूरी की भाई की लव-स्टोरी…

आपने कभी भी हमें किसी तरह की कोई कमी नहीं रहने दी चाहे खुद कैसे भी रहे और हां एक बात और मुझे तो भाई की शादी के दस साल बाद पता चला की आपने भाभी की कुंडली भाई की कुंडली से मिलाने के लिए पंडित को मनाया था क्योंकि अगर कुंडली नहीं मिलती तो माताजी मना कर देती और उन दोनों की लव स्टोरी अधूरी रह जाती. पर अब तो मम्मी को भी पता है और इस बात पर मम्मी को भी बहुत हंसी आती हैं. पर वाकई भाभी है बहुत अच्छी सबको साथ लेकर चलने वाली. थैंक्स पापा हर एक कदम पर हम सभी का साथ देने के लिए. और मेरी प्यारी सी मम्मी का हमेशा ध्यान रखने के लिए.

हर कदम पर संभाला…

याद है पापा, जब मैं छोटी थी चलना, बोलना और बाक़ी सब कुछ देरी से सीखा मैंने पर आपने और मम्मी ने हिम्मत नहीं हारी. मुझे याद है मेरा एक तिपहिया लकड़ी वाला खिलौना था साइकिल जैसा जिस पर आप मुझे चलना सिखाते थे. कई बार गिरी साईकिल से, चोट लगी पर आपने हर बार संभाला जैसे आज संभाल लेते हो और जब पहली बार चलना सीखा तो आपकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था.

अक्सर बच्चे पहला शब्द “मां” बोलते हैं, पर मैंने जो पहला वर्ड सीखा वो “पा, पा और जाने कितनी बार बोला हुआ पा शब्द था शायद इसलिए आप मेरे बेहद क़रीब हो. जब भी आप स्कूल में बच्चों से कहते कि “आप सब मेरे लिए अपने बच्चों जैसे हो” तो मुझे लगता मेरे हिस्से का प्यार बंट रहा है पर जब बड़ी हुई तो अपने बचपन की बात सोच बहुत हंसी आती है.

जिम्मेदारी नहीं होती बेटियां…

मेरे बचपन से लेकर अब तक मेरी ज़िन्दगी के हर उतार-चढ़ाव में आपने और मम्मा ने मेरा साथ दिया हैं , और आप जब हमेशा कहते हो “तू, क्यों चिंता करती है, तेरा पापा है न तेरे लिए हमेशा “तो हमेशा सोचती हूं हर बेटी को आपके जैसे पेरेंट्स मिले ताकि बेटियां कभी उसके माता-पिता को परायी न लगे, न शादी से पहले न शादी के बाद. आप और मम्मी हर उन माता -पिता के लिए उदाहरण हो जो ये सोचते हैं कि बेटियों की जिम्मेदारी शादी के बाद पूरी हो जाती है. काश हर कोई आपकी तरह सोचे कि बेटियां जिम्मेदारी नहीं होती, उन्हें बुरे वक्त में जिम्मेदार बनाना माता-पिता का फर्ज होता हैं.

सबके लिए एक मिसाल हो आप…
आपके और मेरे कई बार मतभेद हुए, कई बातों में आज भी हैं पर प्यार हमेशा मतभेद और झगड़े के बाद बढ़ाता ही है. काश ऐसा हर रिश्ते में होता तो कोई रिश्ता टूटने के कगार पर नहीं आता कभी. वैसे तो कहते हैं कि बेटियां पिता के करीब होती हैं, दिल का टुकड़ा होती है एक पिता के लिए, पर जब कन्या भ्रूण हत्या की बात आती हैं तब एक पिता का अपनी अजन्मी बच्ची के लिए प्यार कहां चला जाता है. पापा आप हर उस शख्स के लिए उदहारण हो जो सोचता हैं कि “बेटियां बोझ होती हैं, बस पराया धन होती है”. बचपन से अब तक सबने मुझमे आपकी ही परछाई देखीं हैं, सब यही कहते “अंजलि, तू बिलकुल सर के जैसी है ” तो लगता इससे बेहतर कौम्पलिमेंट तो हो ही नहीं सकता और आज भी ये मेरी ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन कौम्पलिमेंट है. आप ही मेरे रोल मौडल, मेरे हीरो, सुपरमैन, वैलेंटाइन, बेस्टेस्ट फ्रेंड, मेरे सांता क्लौस, मेरे सब कुछ हो. मेरी पूरी दुनिया बस दो ही शब्दों में सिमटी है “पापा”. (शिक्षक) तो हो ही पर मेरी तो पहली पाठशाला भी आप ही हो. जब कभी जीवन में मेरे मुश्किल आई बस आपका और मम्मी का चेहरा ही हमेशा सामने दिखता ये कहते हुए कि “तू तो मेरी शेर बेटी है ना, बहादुर बेटी है न और यही शब्द मेरी डूबती नाव की खिवय्या बन जाते.

आपने कभी जताया नहीं पर मैं महसूस कर सकती हूं कि मेरे जीवन में जो उतार-चढ़ाव आप दोनों ने देखे उससे बहुत तकलीफ हुई है आपको ठीक वैसे जैसे बचपन में अगर बीमार पड़ जाती तो आंखों-आंखों में आप और मम्मी मेरे सिरहाने बैठे रहते पर मुझे महसूस नहीं होने देते कि मेरी बीमारी से आप बीमार महसूस कर रहे हो.

गर्व है आप पर पापा…

जब कभी साथ पढ़े हुए साथी मिल जाते या जब भी मुझे सब कहते कि “हमारा भविष्य बनाने में सर का बहुत बड़ा योगदान है” या जब कभी कोई आपका पढ़ाया हुआ विद्यार्थी पढ़-लिखकर ऊंचा ओहदा पाकर कहता कि “ये सब हमारे सर, हमारे गुरु की वजह से हैं” तो बहुत गर्व होता है आप पर पापा.

बच्चे के लिए तो हर मां-बाप करते हैं, पर आपने अपने शिक्षक होने का फ़र्ज बखूबी निभाया. देश के भविष्य में योगदान देने के लिए अपने विद्यार्थियों को भी कामयाब और क़ाबिल इंसान बनाया. आपके और मम्मी के रूप में भगवान ने मुझे सबसे बड़ा तोहफा दिया है, जिसे पाकर मैं गर्व महसूस करती हूं हमेशा. अपने पिता और शिक्षक के लिए जितना कहूं उतना कम है इसलिए यही कहूंगी की इन दो शब्दों में ही सिमटी हुई है मेरी ज़िंदगी.

हर गलती के लिए सौरी पापा…

जाने-अनजाने में बहुत सी गलतियां की होंगी, बहुत बार दिल दुखाया होगा आपका पर बाद में खुद पर ही गुस्सा हो जाती की भला क्यों दुखी किया, पर सब बेवकूफियों के लिए सौरी पापा जैसे हमेशा कान पकड़ कर कहती हूं “सौरी, पापा”

हमारे बच्चों के साथ आप भी बच्चे बन जाते हो, बच्चों को कैसे रखा जाता है कोई आपसे सीखें. आप एक अच्छे पिता, अच्छे जीवनसाथी, अच्छे दादा और नाना हो. हैप्पी फादर्स डे पापा.

Father’s day Special: पिता की भूमिका – तब और अब

20वीं शताब्दी में दुनिया में आये सामाजिक, आर्थिक और प्रौद्योगिक बदलावों ने परिवार के कार्य और संरचना में भी आधारभूत परिवर्तन ला दिये हैं- मुख्यतया पिता की परिवार के प्रति जिम्मेदारी और भूमिका के संदर्भ में. आज के पिता परिवार में केवल परम्परागत (परिवार का वह व्यक्ति जो परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये केवल पैसा कमाने का काम करता है) और अनुशासन के रूप में नजर नहीं आते है बल्कि बच्चों के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विकास की चुनौतियों के साथ उनकी देखभाल की जिम्मेदारी भी लेते है.

इस शताब्दी में महिलाओं के आर्थिक भूमिका में बदलाव ने पिता की भूमिका को और ज्यादा प्रभावित किया है. 1948 से 2001 के बीच कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 33 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गया है. ऐसे में पिता की बच्चों के प्रति जिम्मेदारी दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है. जहां पहले केवल मां को बच्चों के पालनकर्ता के रूप में देखा जाता था वहीं अब पिता की भी उनको संस्कार देने में बराबर की भूमिका निहित है. बच्चों की परवरिश में पिता की भूमिका पर जब हमारी आज की पीढ़ी के बच्चों और उनके पापा से बातचीत हुई तो सामने आया कि

पिछली शताब्दी में पापा

    • बच्चों के लिये आदर्श हुआ करते थे.
    • बच्चे उनका बहुत सम्मान करते थे.
    • बच्चों के मन में पापा का डर भी रहता था जिसके पीछे वो कोई भी गलत काम करने से पहले सोचने को मजबूर हो जाते थे.
    • पापा उनके शिक्षक के रूप में भी होते थे लेकिन दोस्त नहीं बन पाते थे.
    • पापा और बच्चों के बीच कुछ खास विषयों पर ही बातचीत हो पाती थी वो भी तब ही जब पापा चाहते थे. वो खुलकर हर बात पापा से शेयर नहीं कर पाते थे यानी उनके बीच संवाद की कमी हुआ करती थी.
    • पापा घर के मुखिया हुआ करते थे, सभी छोटे-बड़े फैसले उन्हीं के अनुसार लिये जाते थे.
    • इतना सब होने पर भी बच्चों पर बात-बात पर गुस्सा, झिड़कना, डांटना, मारना कभी भी बिना कारण के नहीं होता था.
    • पिता का व्यवहार बहुत ही संयमित और दायित्वपूर्ण हुआ करता था.

वर्तमान समय में पिता…

    • बच्चों के आदर्श उनके अनुसार निश्चित होते है. ये जरूरी नहीं कि वो पिता को ही अपना आदर्श माने.
    • बच्चे अपने फैसले खुद लेना पसंद करते है. उसमें पिता का व्यवधान उन्हें पसंद नहीं.
    • पिता बच्चों के अच्छे दोस्त होते है परन्तु वो सम्मान प्राप्त नहीं कर पाते जो उन्हें मिलना चाहिए.
    • पिता का डर बच्चों में लगभग नहीं के बराबर है.
    • काम के तनाव के बोझ तले पिता बहुत चिड़चिड़े हो जाते है जिसका सीधा असर बच्चों पर पड़ता है.
    • पिता और बच्चों के बीच आज भी खुलकर बातचीत नहीं हो पाती जिसका कारण समय का अभाव नहीं बल्कि आपसी सामंजस्य का अभाव रहा है.
    • पिता का होना उन्हें आर्थिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता है.
    • घर में फैसले लेने का अधिकार केवल पिता का ही नहीं है बल्कि बच्चे भी उसमें शामिल होना चाहते है.

अगर हम उपरोक्त अंतरों पर ध्यान दें तो यह सामने आता है कि पिछली शताब्दी में और इस शताब्दी में पिता की भूमिका में परिवर्तन केवल पिता की तरफ से ही नहीं बल्कि बच्चों की सोच से भी प्रभावित है. ऐसे में जरूरी है कि –

    • पिता अपने बच्चों के साथ भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सामीप्य विकसित करें. समय पर वक्त के अनुसार गले से लगाना, पीठ थपथपाना, प्यार करना भी बहुत जरूरी होता है. यह उनके मन में सुरक्षा की भावना विकसित करता है.
    • पिता को यह भी सुनना चाहिए कि बच्चा उनसे क्या कहना चाहता है. बच्चे को अपनी सभी गतिविधियों के बारे में बिना टोके खुलकर बोलने का मौका दिया जाना चाहिए.
    • उसके साथ खाना खाकर, टी.वी. देखकर, वीडियो गेम खेलकर या उसकी अन्य रूचियों में शामिल होकर बच्चे को अपने साथ बातचीत में कम्फर्ट महसूस कराया जा सकता है.
    • पिता बच्चे के साथ मां की अपेक्षा कम समय बिताते है, ऐसे में हमेशा शिक्षक बनकर ही न रहें बल्कि बच्चों से कुछ सीखते हुए उन्हें सिखाते जाना एक अच्छा तरीका है.
    • बच्चों के सामने हमेशा उनकी मां का सम्मान, बच्चों में स्थायित्व और सुरक्षा की भावना को विकसित करता है.

बच्चों के बचपन से लेकर बड़े होने तक यानि जब वे स्कूल में होते है, जौब पर जाते है या शादी होती है और फिर उनके बच्चे होते है, हर मौके पर पिता के साथ बिताये पल बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है क्योंकि पापा एक पंख की तरह होते हैं, जो उन्हें न केवल सुरक्षा प्रदान करते है बल्कि आकाश में उड़ने के लिए उड़ान भरने का साहस भी देते है.

Father’s day 2023: वह कौन थी- एक दुखी पिता की कहानी?

Father’s day Special: नवजात से ऐसे लगाव बढ़ाए पिता

नवजात के साथ मां जितना भावनात्मक लगाव बनाए रखती है, पिता भी इस के लिए उतना ही उत्सुक रहता है. दोनों के बीच एकमात्र यही अंतर रहता है कि पिता को इस तरह का लगाव रखने के लिए विशेष प्रयास करने पड़ते हैं, जबकि मां का अपने बच्चे से यह स्वाभाविक बन जाता है.

यदि आप भी पिता बनने का सुख पाने वाले हैं, तो हम आप को कुछ ऐसे टिप्स बता रहे हैं, जो इस दुनिया में कदम रखने वाले बच्चे के प्रति आप के गहरे लगाव को विकसित कर सकते हैं. हमारे समाज में लिंगभेद संबंधी दकियानूसी सोच के कारण पुरुष अधिक भावनात्मक रूप से पिता का सुख पाने से कतराते हैं. मां से ही बच्चे की हर तरह की देखभाल की उम्मीद की जाती है. मां को ही बच्चे का हर काम करना पड़ता है. लेकिन अपने बच्चे के साथ आप जितना जुड़ेंगे और उस की प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लेंगे, बच्चे के प्रति आप का लगाव उतना ही बढ़ता जाएगा. लिहाजा, बच्चे का हर काम करने की कोशिश करें. नैपकिन धोने, डाइपर बदलने, दूध पिलाने, सुलाने से ले कर जहां तक हो सके उस के काम कर उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने की कोशिश करें.

1. गर्भधारण काल से ही खुद को व्यस्त रखें

गर्भधारण की प्रक्रिया के साथ सक्रियता से जुड़ते हुए पिता भी बच्चे के समग्र विकास में अहम भूमिका निभा सकता है. हर बार पत्नी के साथ डाक्टर के पास जाए. डाक्टर के निर्देशों को सुने और पत्नी को प्रतिदिन उन पर अमल करने में मदद करे. पत्नी को क्या खाना चाहिए तथा प्रतिदिन वह क्या कर रही है, उस पर नजर रखे. इस के अलावा सोनोग्राफी सैशन का नियमित रूप से पालन करे. गर्भ में पल रहे बच्चे के समुचित विकास की प्रक्रिया के साथ घनिष्ठता से जुड़ते हुए पिता भी बच्चे के जन्म के पहले से ही उस के साथ गहरा लगाव कायम कर सकता है.

2. जहां तक संभव हो बच्चे को संभालें

जब कभी अपने नवजात को अपनी बांहों में लेने का मौका मिले, उसे गंवाएं नहीं. बच्चे को सुलाना, लोरी सुनाना या बच्चे के तकलीफ में रहने के दौरान उसे सीने से लगाए रखना सिर्फ मां की ही जिम्मेदारी नहीं होती है. ये सभी काम करने में खुद पहल करें. अपने बच्चे के साथ जल्दी लगाव विकसित करने के लिए स्पर्श एक अनिवार्य उपाय माना जाता है. अपने बच्चे को आप जितना स्पर्श करेंगे, उसे गले लगाएंगे, गोद में उठाएंगे, बच्चे से आप की और आप से बच्चे की नजदीकी उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी.

3. डकार के लिए बच्चे को थामना

यह बच्चे के साथ लगाव बढ़ाने में विशेष रूप से मदद करता है और मां को भी मदद मिलती है, क्योंकि भोजन के बाद मां और शिशु दोनों थक जाते हैं और थोड़ा आराम चाहते हैं. शिशु को कई बार डकार लेने में 10-15 मिनट का वक्त लग जाता है और मां को उस की डकार निकालने के लिए अपने कंधे पर रखना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि वह खुद दुग्धपान कराने के बाद थक जाती है. ऐसे में यदि पिता यह दायित्व संभाल ले और बच्चे को इस तरह से थामे रखे कि उसे डकार आ जाए, तो मां को भी थोड़ा आराम मिल जाता है और शिशु भी अपनी मुद्रा बदल कर आराम पा सकता है.

4. बच्चे को दिन में एक बार खिलाएं

पत्नी जब बच्चे को नियमितरूप से स्तनपान करा सकती है, तो आप भी उसे बांहों में रख कर बोतल का दूध क्यों नहीं पिला सकते? किसी मां या पिता के लिए अपने बच्चे को खिलाने और यह देख कर संतुष्ट होने से बड़ा कोई एहसास नहीं हो सकता कि भूख शांत होते ही वह निश्चिंत हो गया है. इस से आप को अपने बच्चे के और करीब आने में भी मदद मिलेगी.

5. बच्चे को नहलाएं

शुरुआती दौर में बच्चे को स्नान कराना महत्त्वपूर्ण होता है, जिस में बच्चा आनंद लेता है. अत: अपने बच्चे को किसी एक वक्त खुद नहलाना, उस के कपड़े धोना तय करें.

6. बच्चे से बातें करें

बच्चा जन्म लेने से पहले से ही आवाज पहचानने लगता है. बच्चे के जन्म लेने के बाद उस से बात करने का एक छोटा सा सत्र तय कर लें.

जब बच्चा अच्छे मूड में हो तो उस की आंखों में देखें और तब अपने दिल की बात उसे सुनाएं. कुछ लोगों में बच्चों से बातें करने की स्वाभाविक दक्षता होती है जबकि कुछ को इसे विकसित करने में वक्त लगता है. प्रतिदिन अपने बच्चे से बातें करें. धीरेधीरे वह आप की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया भी देने लगेगा.

7. बच्चे के रोजमर्रा के काम निबटाएं

बच्चे के पालनपोषण की प्रक्रिया में आप खुद को जितना व्यस्त रखेंगे, आप का बच्चा और आप का एकदूसरे से लगाव उतना ही गहरा होता जाएगा. कुछ लोगों को डर लगता है कि बच्चे का कोई काम निबटाने में उन के हाथों कुछ गलत न हो जाए, लेकिन इस में घबराने की कोई बात नहीं है, क्योंकि मां भी तो धीरेधीरे ही सब कुछ सीखती है. बच्चे का डाइपर बदलना, उस की उलटी साफ करना, उस के कपड़े, बदलना आदि काम सीखना सिर्फ मां की ही जिम्मेदारी नहीं है. बच्चे के साथ खुद को आप जितना अधिक जोड़ेंगे, उस के साथ आप का लगाव भी उतना ही गहरा होता जाएगा.

बुढ़ापे में आपके पिता को स्वस्थ रखने में मदद करेंगे ये 5 टिप्स

इस साल 20 जून को फादर्स डे मनाया गया और हरेक बच्चा, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपने पिता के आभार, प्रेम और सम्मान की भावना से भरा महसूस किया है. भले ही बच्चे हर दिन इसी तरह की भावना का अहसास कर सकते हैं, लेकिन फादर्स डे उन्हें अपनी उन भावनाओं को जाहिर करने का मौका देता है जो वे अपने पिता के बारे में अभिव्यक्त करना चाहते हैं और पितृत्व की भावना का जश्न मनाना चाहते हैं. पिता भी अपने बच्चों को उतना ही प्यार करते हैं जितना कि मां अपने बच्चों को पालन-पोषण में करती है और यही वजह है कि उन्हें कुछ भी मांगनने की जरूरत महसूस नहीं होती. वे मांगने से पहले ही अपने बच्चों की सभी इच्छाएं पूरी कर देते हैं. हालांकि हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि जिस तरह से हम बढ़ रहे हैं, उसी तरह हमारे माता-पिता भी बढ़ रहे और बूढ़े हो रहे होते हैं.

सामान्य तौर पर, पिता अपनी समस्याओं को लेकर इतने ज्यादा चिंतित नहीं होते हैं, चाहे वह अपने काम से जुड़ी हो या स्वास्थ्य से. अक्सर ऐसा होता है कि वे परिवार में किसी के सामने अपनी समस्याओं को नहीं उठाते हैं और चुपचाप समस्याओं का सामना करते रहते हैं. लेकिन जैसे ही उनकी उम्र बढ़ती है, उनके स्वास्थ्य का खास खयाल रखे जाने की भी जरूरत होती है. इसलिए, यह उनके बच्चों की जिम्मेदारी है कि वे अपने डैड को स्वस्थ और खुश बनाए रखने में मदद करें.

इन पांच तरीकों से अपने पिता का अच्छा स्वास्थ्य और खुशियां सुनिश्चित करेंः ये तरीके बता रहे हैं, स्टार इमेजिंग एंड पैथ लैब्स के निदेशक समीर भाटी.

1. नियमित आधार पर उनके टेस्ट कराएं

जब हमारी उम्र बढ़ती है तो शरीर में बदलाने आने लगते हैं. शरीर कमजोर होने लगता है और उम्र के साथ कार्य करने की क्षमता घट जाती है. इस उम्र में नियमित तौर पर टेस्ट कराना बेहद जरूरी है क्योंकि बुढ़ापे में काॅलेस्टेराॅल, मधुमेह, दिल के रोग, लिवर के रोग आदि बढ़ जाते हैं. नियमित टेस्ट से आपके पिता की सेहत सुनिश्चित होगी. इसके अलावा, यदि आप शुरुआती संकेत देखते हैं तो इन टेस्ट से आपको बीमारी बढ़ने से रोकने में मदद मिलेगी. कई पिता स्वयं इसकी जरूरत महसूस नहीं करते. इसलिए आपको समय समय पर उनके टेस्ट कराने चाहिए.

2. उन्हें अपने साथ रोजाना व्यायाम कराएं

नियमित व्यायाम हर किसी के लिए जरूरी है, इसमें यह मायने नहीं रखता कि आप जवान हैं या बुजुर्ग. व्यायाम से न सिर्फ अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद मिलती है बल्कि शरीर में कई बीमारियों को फैलने से रोकने में भी मदद मिलती है. इस पर ध्यान दें कि आपके पिता अपनी अच्छी सेहत सुनिश्चित करने के लिए आपके साथ कुछ व्यायाम अवश्य करें.

3. उनके आहार का ध्यान रखें

व्यायाम और आहार के अलावा अन्य बातों का भी ध्यान रखें. कई बार आपके पिता किराना खरीदारी के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करते हैं और वह खाते हैं जो भी घर पर उपलब्ध हो, चाहे वह उनके लिए अच्छा हो या नहीं. चूंकि संतुलित और हेल्दी आहार आपके पिता के लिए बेहद जरूरी है, इसलिए आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे वह सब खाएं जो उनके लिए हेल्दी हो.

4. उनके साथ समय बिताएं

जैसे बच्चे बढ़े होते हैं, वे अपनी जिंदगी के साथ व्यस्त होते जाते हैं जिससे वे अक्सर अपने परिवार के साथ समय बिताना भूल जाते हैं. हमारे पिता अक्सर इसके लिए नहीं कहते हैं, लेकिन वे कभी कभार अकेलापन महसूस करने लगते हैं. यह अकेलापन उनके मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. आपको कुछ समय अपने पिता के लिए निकालना चाहिए और उन्हें यह अहसास कराना चाहिए कि आपकी जिंदगी में हर कदम पर उनकी जरूरत है. आप उनके साथ छुट्टियां बिताने और उन्हें आनंददायक अनुभव मुहैया कराने की भी योजना बना सकते हैं.

5. उनकी सराहना करें और समर्थन करें

हमेशा अपने पिता का समर्थन करें. उन्हें सम्मान दें और उनके द्वारा किए गए कार्य की सराहना करें और उनका उत्साह बढ़ाएं. उन्होंने आपकी देखभाल में अपनी पूरी जिंदगी बिता दी, इसलिए उनके निर्णयों को सम्मान दें और उनकी सलाह पर हमेशा अमल करें. आपको अपने पिता के अलावा कोई भी बेहतर सलाह नहीं दे सकता, क्योंकि वे हमेशा आपकी भलाई चाहते हैं.

Father’s day Special: जिंदगी के सफर में मां जितने ही महत्वपूर्ण है पापा

आमतौर पर समाज में, साहित्य में या विभिन्न किस्म की संवेदनाओं के बीच यही मान्यता है कि संतान के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ‘मां’ की है. इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया में ‘मां’ की जगह कोई नहीं ले सकता. लेकिन इतना ही बड़ा सच यह भी है कि दुनिया में ‘पिता’ की भी कोई जगह नहीं ले सकता. भले मुहावरों में, कविताओं में पिता की भूमिका ने वह जगह न पायी हो, जो जगह मां की भूमिका को हासिल है लेकिन सच्चाई यही है कि जीवन में जितनी जरूरी मां की सीखें हैं, उतनी ही जरूरी पिता की मौन देखरेख है. भले पिता मां की तरह अपने बच्चों को दूध न पिलाए, उन्हें दुलराए न, उनके साथ बहुत देर तक मान मनौव्वल का खेल न खेले, लेकिन वह भी अपनी संतान से उतना ही प्यार करता है और जीवन में उसकी उतनी ही महत्ता भी है.

जिन बच्चों के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ जाता है, उन बच्चों में 90 फीसदी से ज्यादा बच्चे अंतर्मुखी हो जाते हैं. ऐसे बच्चे अकसर बहुत आत्मविश्वास के साथ समाज का और अपनी कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाते. दरअसल पिता उनमें दुनिया से टकराने का आत्मविश्वास देता है. मां अगर संयम सिखाती है तो पिता की मौजूदगी बच्चों में प्रतिरोध का जज्बा भरती है. अगर मां नहीं होती तो बच्चे जीवन जीने के तौर तरीके कायदे से नहीं सीख पाते. अगर पिता नहीं होते तो बच्चे जीवन का सामना ही बमुश्किल कर पाते हैं. मां की देखरेख में पले बच्चों में आत्मविश्वास की कमी तो होती ही है, वे तमाम बार अपनी बात को सार्वजनिक तौरपर व्यवस्थित ढंग से रख तक नहीं पाते.

कहने का मतलब यह है कि जिंदगी में मां और बाप दोनो की ही बराबर की जरूरत होती है. पर अगर गहराई से देखें तो पिता की जरूरत थोड़ी ज्यादा होती हैय क्योंकि पिता की बदौलत ही बच्चे दुनिया से दो चार होने, उससे मुकाबला करने की हिम्मत और हिकमत पाते हैं. अगर बचपन में ही सिर से पिता का साया उठ जाता है, तो बच्चों का बचपन खो जाता है. खेलन, कूदने की उम्र में बड़े बूढ़ों की तरह चिंताएं करनी पड़ती हैं, कई बार उन्हीं की तरह घर चलाने के लिए मां का हाथ बंटाना पड़ता है यानी खेलने, कूदने की उम्र में ही नौकरी या चाकरी करनी पड़ती है. ज्यादातर बार पिता के न रहने पर बच्चों की पढ़ाई या तो आधी अधूरी रह जाती है या जैसे सोचा होता है, वैसी नहीं हो पाती. हां, कई मांएं अपवाद भी होती हैं जो बच्चों को पिता की गैर मौजूदगी का एहसास नहीं होने देतीं.

पिता की मौजूदगी में बच्चों में एक अतिरिक्त किस्म का आत्मविश्वास रहता है. किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि पिता भोजन में नमक की तरह होते हैं, खाने में अगर नमक न हो तो खाना कितना ही बढ़िया, कितना ही कीमती क्यों न हो, बेस्वाद लगता है? लेकिन जब खाने में नमक की उपयुक्त मात्रा होती है तो कई बार हमें इसका एहसास तक नहीं होता. कई बार हम यह याद ही नहीं कर पाते कि हम जो कुछ खा रहे हैं उसमें नमक का भी कुछ महत्व है. पिता की मौजूदगी भी जीवन ऐसी ही होती है. जब होते हैं तो कभी यह ख्याल ही नहीं होता कि पिता के महत्व को समझें. मगर जब नहीं होते तो हर पल, हर कदम उनके न होने का दुख उठाना पड़ता है, परेशानी भोगनी पड़ती है. हर संतान को एक न एक दिन अपनी जिंदगी की जिम्मेदारी या अपने जीवन का भार खुद ही उठाना पड़ता है. मगर जब तक पिता होते हैं, वह भले कुछ न करते हों, संतानें तमाम तरह के दायित्व बोझों से मुक्त रहती हैं. उनमें एक बेफिक्री रहती है. पिता मनोवैज्ञानिक रूप से संतानों की जिम्मेदारी उठाते हैं.

अकसर माना जाता है और किसी हद तक यह सही भी होता है जिन बच्चों की सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ जाता है, उनमें एक खास किस्म की आवरगी, एक खास किस्म का बेफिक्रापन और एक खास किस्म की आपराधिक प्रवृत्ति पैदा हो जाती है. दरअसल ऐसे बच्चों की समाज के लोग ज्यादा परवाह नहीं करते, उन्हें बहुत प्यार और इज्जत नहीं देते, जिस कारण ऐसे बच्चे भी समाज की परवाह नहीं करते, उसकी ज्यादा इज्जत नहीं करते और धीरे धीरे उनके माथे पर किसी न किसी असामाजिक श्रेणी का ठप्पा लग जाता है. समृद्धि का एक आयाम मनोविज्ञान भी होता है, जब पिता होते हैं तो बच्चे खासकर लड़के मनोवैज्ञानिक रूप से खुद को जिंदगी के बोझ से लदा-फंदा नहीं पाते. उन्हें लगता है उनकी जिम्मेदारी उठाने के लिए पिता तो अभी मौजूद ही हैं. फिर चाहे भले पिता कुछ भी कर सकने की स्थिति में न हों लेकिन उनका होना ही बेटों के लिए एक बड़ा संबल होता है.

शास्त्रों में कहा गया है कि माता और पिता दोनो ही संतान के पहले गुरु होते हैं, यह सच भी है. लेकिन माता और पिता अपनी संतान को एक ही पाठ नहीं पढ़ाते, वे दोनो उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए एक ही समय में अलग अलग और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं. मां जहां बच्चों को पारिवारिक मूल्यों, मान मर्यादा, उठने बैठने, बोलने के तौर तरीके सिखाती है, वहीं पिता बच्चों को घर से बाहर जिंदगी से कैसे जूझें, कैसे टकराएं, कैसे उससे गले मिलें इस सबका पाठ पढ़ाते हैं. इसलिए माता पिता दोनो ही बच्चे के सबसे पहले गुरु होते हैं और दोनो ही उन्हें जिंदगी के दो अलग अलग और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं.

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