शिक्षा पर भारी अमीरी

तमिलनाडु के सेलम शहर की रहने वाली 46 साल की पप्पाथी इसलिए चलती बस के सामने आ गई क्योंकि उसे किसी ने बताया था कि दुर्घटना में मौत पर मुआवजा मिलता है. उसे अपने बेटे के कालेज की फीस भरने के लिए पैसे चाहिए थे जिस के लिए उस ने इतना बड़ा कदम उठाया. यह वायरल वीडियो बहुत ही हृदयविदारक था कि अपने बेटे की फीस भरने के लिए एक मां बस के नीचे आ गई ताकि उस की मौत के बाद जो मुआवजा मिलेगा उन पैसों से उस के बेटे का कालेज में एडमिशन हो सकेगा.

यह महिला स्थानीय कलैक्टर औफिस में अस्थाई सफाई मजदूर व सिंगल पेरैंट थी. वह महीने के 10 हजार रुपए कमाती थी, जिन से उसे अपने दोनों बच्चों बेटाबेटी की पढ़ाई का खर्चा उठाने में बहुत मुश्किल हो रही थी. वह अपने बेटे के कालेज की 45 हजार रुपए की फीस के लिए पैसे नहीं जुटा पा रही थी तो उसे लगा कि उस की मौत के मुआवजे से बेटे की फीस के पैसों का जुगाड़ हो जाएगा. इस महिला ने अपने बेटे को पढ़ाने के लिए अपनी जान दे दी.

यह सिर्फ एक मां के त्याग की दिल दहलाने वाली कहानी भर नहीं है बल्कि यह देश में लगातार महंगी होती शिक्षा से आम गरीबों और वर्किंग क्लास परिवारों की कड़वी सचाई है.

महंगी होती शिक्षा

आज देश में लोगों के लिए खाना, पीना, रहना और स्वास्थ्य सेवाएं ही महंगी नहीं होती जा रही हैं बल्कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास की चाबी शिक्षा भी लगातार महंगी होती जा रही है. हर वर्ष शिक्षा करीब 10 से 12 फीसदी महंगी होती जा रही है. शिक्षा संस्थान हर वर्ष अपनी फीस में बढ़ोतरी कर रहे हैं. जिदगी की बाकी खर्चों के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में महंगाई दोगुनीतिगुनी गति से बढ़ रही है.

सिर्फ बड़ेबड़े संस्थाओं में पढ़ाई पर ही नहीं बल्कि स्कूलकालेज और कोचिंग की शिक्षा के खर्चों में भी गुणात्मक बढ़ोतरी हो रही है. इंजीनियरिंग, मैडिकल, एमबीए, आईआईटी, एनआईआईटी, आईएमएम का पढ़ाई का खर्च आम मध्यवर्गीय परिवारों की हैसियत से बाहर चला गया है. चाहे पढ़ाई सरकारी स्कूलकालेजों में हो या प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूलों में यह उन करोड़ों गरीब और मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी है, जो अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाने के लिए अपना पेट काट कर, जमीन और घर गिरवी रख कर, लोगों से कर्ज ले कर बच्चों की कालेज की फीस चुकाते हैं. यहां तक कि उस महिला की तरह अपनी जान देने तक को तैयार हो जाते हैं ताकि उन के बच्चों की पढ़ाई न रुके और उन के बच्चे भी काबिल इंसान बन पाएं. लेकिन देश में महंगी होती शिक्षा व्यवस्था बच्चों के साथसाथ उन के अभिभावकों के सपनों को भी कुचल रही है.

इंजीनियरिंग, मैडिकल, आईआईटी जैसे प्रोफैशनल कोर्सेज की फीस दिनप्रतिदिन आसमान छू रही है. ऐसे में महंगी होती शिक्षा आम परिवारों की पहुंच से दूर होती जा रही है. सिर्फ आईआईएम (अहमदाबाद) की फीस 2007 से 2023 के बीच 4 लाख रुपए सालाना से बढ़ कर 27 लाख रुपए सालाना पहुंच गई जोकि 575त्न की बढ़ोतरी है. यही नहीं अशोका, जिंदल, मणिपाल जैसी प्राइवेट यूनिवर्सिटियां, ग्रैजुएशन कोर्स के लिए सालाना 5 से 11 लाख रुपए तक की फीस लेती हैं. हर शिक्षण संस्थान प्रत्येक वर्ष अपनी फीस बढ़ाता जा रहा है.

सरकारी आंकड़े के 75वें चक्र के सर्वेक्षण ‘हाउसहोल्ड सोशल कंजंप्शन औफ ऐजुकेशन इन इंडिया’ (2017-18) की तरफ देखें तो साफ पता चलता है कि आम भारतीय परिवारों के लिए महंगी होती शिक्षा उन की पहुंच से दूर होती जा रही है. यहां तक कि एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठाना भी गरीब व मध्यवर्गीय परिवारों के लिए मुश्किल होता जा रहा है. ऐसे में वे और बच्चों को कैसे और कहां से पढ़ा पाएंगे क्योंकि एक तो कोचिंग की भारीभरकम फीस और उस पर स्कूलकालेज की महंगी पढ़ाई, मातापिता की पहुंच से बाहर होती जा रही है.

लाभ अमीर छात्रों को ही क्यों

यूनिसेफ ने वैश्विक शैक्षिक असमानता को उजागर करते हुए एक रिपोर्ट में कहा है कि सार्वजनिक शिक्षा का केवल 16 फीसदी पन सब से गरीब 20 फीसदी को जाता है, जबकि 28 फीसदी सब से अमीर 20 फीसदी को जाता है. सब से गरीब परिवारों के बच्चों को राष्ट्रीय सार्वजनिक शिक्षा निधि से कम से कम लाभ मिलता है.

एक सचाई है कि अच्छी शिक्षा बेहतर भविष्य का आधार होती है. शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिस से इंसान केवल खुद को ही नहीं बल्कि देशदुनिया को बदलने की भी ताकत रखता है. लेकिन चिंता की बात यह है कि इस सकारात्मक सोच के बावजूद हमारी शिक्षा प्रणाली विपरीत संकेत दे रही है. तमाम प्रयासों के बाद भी देश में अब भी 20 फीसदी से अधिक आबादी निरक्षर है.

सब से चौंकाने वाली बात यह है कि आज भारत में बड़ी संख्या में छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ रहे हैं या आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं. 2019 से ले कर अभी तक 32 हजार छात्र उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई छोड़ चुके हैं, वहीं 5 वर्षों में 98 छात्रों ने खुदकुशी कर ली जहां उन्होंने मेहनत से एडमिशन लिया था. 2023 में ही अब तक आत्महत्या की 24 घटनाएं हो चुकी हैं.

बड़े शिक्षण संस्थाओं से पढ़ाई छोड़ने वाले छात्र ज्यादातर दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के हैं. ये शिक्षण संस्थान कोई सामान्य सरकारी कालेज नहीं बल्कि आईआईटी, एनआईटी और आईआईएसईआर, आईआईएम व केंद्रीय विश्वविद्यालय और उन के जैसे स्तर के हैं. केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए इन आंकड़ों से पता चलता है कि शिक्षण संस्थान छात्रों में उम्मीदों की उड़ान पैदा करने के बजाय निराशा और अवसाद का माहौल रच रहे हैं.

पढ़ाई छूटने की वजह

इस सवाल को कोई सीधा जवाब नहीं है. लेकिन शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि आदर्श के रूप में अन्य छात्रों को नामांकन लेने के बाद असफलता का सामना करना पड़ता है. इस से वे हीनभावना के शिकार हो जाते हैं. इस के अलावा कई छात्र अपने साथ भेदभाव और पक्षपात की भी शिकायत करते हैं.

21वीं सदी को ज्ञान की सदी कहा गया है. ज्ञान परंपरा और मातृभाषा में शिक्षा देने की बात खूब जोरशोर से उठी. शिक्षा की पूंजी से गरीब और वंचित छात्रों के लिए उच्च पद, बड़ा उद्योगपति और विश्वस्तरीय तकनीशियन बनने के रास्ते भी खुले, बावजूद इस के शिक्षण संस्थाओं से छात्रों का पलायन और आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं तो यह चिंता का विषय है.

आज सुविधाएं हमारी मुट्ठी में हैं और लक्ष्य अंतरिक्ष में इंसान को बसाने की संभावनाएं तलाश रहा है. ऐसे में शिक्षा से छात्रों का मुंह मोड़ना, मौत को गले लगाना समूची शिक्षा व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है.

कुछ साल पहले केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के छात्र रोहित वेमुला और फिर तमिलनाडु के प्राकृतिक शिक्षा एवं योग विद्यालय की 3 छात्राओं द्वारा एकसाथ आत्महत्या किए जाने का मामला सामने आया था. कोटा और इंदौर से कोचिंग ले रहे छात्रों की खुदकुशी के मामले निरंतर सामने आते रहते हैं.

कोचिंग हब बनता शहर

कोचिंग हब बनते जा रहे शहरों में यह अलग तरह की समस्या सामने आ रही है, जिस में सकारात्मक माहौल बनाने के तमाम प्रयासों के बावजूद कोचिंग छात्रों को निराशा के ऐसे भंवर से निकाल पाना बड़ी चुनौती बनी हुई है. राजस्थान के कोटा शहर में भी अवसाद में आए बच्चों के मौत को गले लगाने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं.

देश की युवाओं के मरने की ये घटनाएं संभावनाओं की मौत हैं. लेकिन फिर भी इन्हें राजनीति के चश्मे से देखा जा रहा है. सरकार ने बताया कि बीच में पढ़ाई छोड़ने का कारण विषय का गलत चुनाव, व्यक्तिगत परफौर्मैंस और स्वास्थ्य समस्या रही है. लेकिन बच्चों के पढ़ाई छोड़ने को जो कारण सरकार ने बताए हैं क्या उन का निदान संभव नहीं है? आमतौर पर दोष मांबाप पर मढ़ दिया जाता है कि वे अपने सपने पूरे कराने के लिए गलत कोर्स कराते हैं.

पूरी दुनिया जानती है कि भारत के इन संस्थानों की प्रवेश परीक्षा दुनिया की सब से कठिन परीक्षाओं में मानी जाती है. हर साल लगभग 15 लाख बच्चे रातदिन मेहनत कर बड़ीबड़ी फीस दे कर सफलता के इस दरवाजे तक पहुंचते हैं. निश्चित ही वे पढ़ना चाहते होंगे, इतनी मेहनत कर के बीच में ही पढ़ाई छोड़ने के लिए तो यहां एडमिशन नहीं लिया होगा न? बच्चों के पढ़ाई छोड़ने की वजह पैसा या फिर पारिवारिक जिम्मेदारी भी एक वजह हो सकती है, पर यही पूरा सच नहीं है.

2014 में रुड़की आईआईटी में प्रथम वर्ष के लगभग 70 छात्र फेल हुए थे. मामला कोर्ट तक भी पहुंचा और जो मुख्य कारण सामने आया वह था संस्थान, पाठ्यक्रम का अंगरेजी माहौल, विशेषकर गरीब बच्चे जो अपनीअपनी मातृभाषा में पढ़ कर आते हैं वे इन संस्थाओं के अंगरेजी कुलीन माहौल में आसानी से फिट नहीं बैठ पाते हैं, ऊपर से पाठ्यक्रम का दबाव. हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था का ढांचा ही ऐसा बनाया गया है कि  यदि आप उस के अनुसार खुद को नहीं ढाल पाते हैं तो पढ़ाई छोड़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है.

2012 में अनिल मीणा नाम के एक छात्र ने दिल्ली एम्स में आत्महत्या कर ली थी. उस ने मरने से पहले एक पत्र लिखा था जिस में लिखा था कि यहां का पाठ्यक्रम जो अंगरेजी में है वह मेरी सम?ा में नहीं आता. शिक्षक और सहपाठियों से भी मु?ो कोई सहयोग नहीं मिल पा रहा है.

अंगरेजी का दबाव

लगभग ऐसा ही पत्र 2015 में इंदौर इंजीनियरिंग कालेज के एक छात्र ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि हमारे संस्थानों में अंगरेजी का दबाव इतना भयानक है कि छात्र न केवल इन उच्च संस्थानों से बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था से ही बाहर हो जाते हैं.

जानेमाने वैज्ञानिक प्रोफैसर यशपाल, जयंत नारलीकर बारबार इन संस्थाओं में भाषा और पद्धति की निर्दयता पर सवाल उठाते रहे हैं पर कोई फायदा नहीं हुआ. विदेशी विश्वविद्यालयों की तरफ रुख करने वाले ज्यादातर छात्रों का कहना है कि हमारे संस्थान पाठ्यक्रम अपडेट के मामले में बहुत पीछे हैं और फकल्टी भी ज्यादातर मामलों में छात्रों को रचनात्मकता की तरफ मोड़ने में बहुत सक्षम नहीं है. ज्यादातर स्टडी भी विदेशी पाठ्यक्रम से ली हुई होती है जिस का भारत की समस्याओं से बहुत कम लेनादेना होता है. ये सब मिल कर एक ऐसी दुनिया का निर्माण करते हैं जिस में अपनी मातृभाषा में पढ़ेलिखे गरीब आदिवासी मेधावी छात्र अपनेआप को अलगथलग पाते हैं.

दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की जातियों के बच्चे बड़ेबड़े सपने ले कर देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में यह सोच कर दाखिला लेते हैं कि समानता और वैचारिक गहराई की मजबूत नींव रखने वाली संस्थाएं उन्हें ऊंचा उड़ना सिखाएंगी. लेकिन होता इस के विपरीत है. कहा तो यह जाता है कि पिछड़ी जातियां ही हिंदू समाज की रीढ़ हैं लेकिन जमीनी स्तर पर ऊंची जातियां उन के ही पैर खींचने में सब से आगे हैं. भारत में स्वर्ण लोग स्वयं को देश का धर्मरक्षक मानते हैं. शुरू से शिक्षित बनने की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने से परिवर्तन की प्रक्रिया को रोका जा सकता है.

जाति आधारित भेदभाव

‘टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज,’ ‘इंडियन इंस्टिट्यूट औफ साइंस बिट्स पिलानी’ और ‘क्राइस्ट यूनिवर्सिटी बैंगलुरु’ के शोधकर्ताओं के एक समूह द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कई विश्वविद्यालयों ने अभी तक यूजीसी द्वारा जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए दिए गए निर्देशों को लागू नहीं किया है.

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि किस तरह से उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित और आदिवासी छात्रों के ऊपर ऊंची जातियों के छात्रों व शिक्षकों द्वारा मानसिक दबाव डाला जाता है जबकि यूजीसी द्वारा जाति आधारित भेदभाव के मद्देनजर जारी निर्देशों के अनुसार हर संस्थान द्वारा इस के लिए प्रावधान किया जाना अनिवार्य है ताकि कोई छात्र जातिगत भेदभाव का शिकार न होने पाए. वहीं संस्थानों को स्टूडैंट वैलनैस सैंटर भी स्थापित करने का निर्देश है ताकि कोई छात्र मानसिक दबाव महसूस करे तो उस की मदद की जा सके.

विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ जनवरी, 2023 के अंक में अंकुर पालीवाल के आलेख के अनुसार, भारत के विज्ञान क्षेत्र में ऊंची जातियों का वर्चस्व है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे उच्च संस्थानों में आदिवासी और दलित समुदायों के छात्रों और शिक्षकों का प्रतिनिधित्व कम है. इस आलेख में दिए गए आंकड़े के अनुसार, सरकारी अनुसंधान और शिक्षा संस्थानों में पीएचडी शोधार्थियों में उच्च जाति के 66.34त्न, दलित 8.9त्न व अन्य 24.76त्न के शोधार्थी शामिल हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

सहायक प्रोफैसरों में सवर्णों की हिस्सेदारी 89.69त्न है वहीं दलित व अन्य केवल 3.51त्न और 6.8त्न हैं. यह समानता की एक बड़ी खाई है. 2016 और 2020 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के ‘इंपायर फैक्ल्टी फैलोशिप के डेटा से पता चलता है कि 80त्न लाभार्थी उच्च जातियों से थे, जबकि केवल 16त्न अनुसूचित जाति और 1त्न से कम अनुसूचित जनजाति से थे.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भी देश भर के आईआईटी संस्थानों में केवल 2.81त्न एससी और एसटी शिक्षक हैं.

ये आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षण संस्थानों में किस तरह का जातिवाद है. दुखद है कि शिक्षण संस्थानों में भी दलित, आदिवासी और पिछड़े छात्रों को अपमान और बदनामी जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ता है. आईआईटी, मुंबई में ही दर्शन सोलंकी द्वारा खुदकुशी से पहले अनिकेत अंभोरे नामक छात्र ने 2014 में खुदकुशी कर ली थी. दोनों के मातापिता ने उन्हें प्रताडि़त किए जाने की शिकायत दर्र्ज कराईर् थी. लेकिन उन की शिकायतें बस शिकायतें ही रहीं. कोई ठोस काररवाई नहीं की गई.

ऐसे ही मुंबई के नायर हौस्पिटल में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही डा. पायल तड़वी ने 22 मई, 2019 को प्रताड़ना से तंग आ कर अपनी जान दे दी थी, जिस से पूरे देश में विवाद पैदा हो गया था लेकिन दोषियों पर कोई काररवाई नहीं हुई. भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 26 फरवरी, 2023 को कहा था कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित या आदिवासी छात्रों के उत्पीड़न की समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उन की आत्महत्या की प्रवृत्ति पर सवाल उठाया जाना चाहिए. लेकिन जब सत्ता खामोश है तो असमानता की इस व्यवस्था को कौन सुधारेगा, यह मुख्य प्रश्न है.

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