परामर्शदाता : काला अक्षर भैंस बराबर

परामर्शदाता बनना या परामर्शमंडल का सदस्य होना गजब की बला है. बलाएं बता कर नहीं आतीं. यह बला भी बिन बुलाए मेहमान की तरह चली आती है. लेकिन यह फार्मूला हर जगह लागू नहीं होता. कहींकहीं तो परामर्शदाता बनने की भारी फीस भी वसूली जाती है. इस के लिए आप का कद ऊंचा होना चाहिए और नाम स्वीकारने लायक.

कई बार ऐसा भी होता है कि आप किसी पत्रिका के परामर्शदाता बने या फिर परामर्शमंडल के सदस्य बनाए गए लेकिन आप को पता ही नहीं है कि आप बने हुए हैं. आप के परामर्श से पत्रिका का प्रवेशांक प्रकाशित हो गया और आप बेखबर. संपादक व प्रकाशक भी क्या करें, अनेक किस्म की जल्दबाजी में आप को सूचित नहीं कर सका. उस की व्यस्तता इतनी कि वह आप को फोनिया भी नहीं सका. ये तो भला हो आप की मित्रमंडली का कि उन्होंने नाम देख कर आप को बधाई दे दी वरना आप अनभिज्ञ ही बने रहते.

वैसे देरसवेर संपादक आप को सूचित जरूर करता. चूक भी जाता तो पत्रिका आप के हाथ लगते ही अपने परामर्श से निकली पत्रिका निहार रहे होते. भले ही पत्रिका के प्रकाशन में फिलहाल आप का योगदान शून्य के बराबर है लेकिन आप का विशाल पाठकवर्ग तो यही सोचेगा कि पत्रिका आप के परामर्श से निकल रही है. यह एक अलग किस्म का सुख है, जो पत्रिका में बड़े नामों के साथ नत्थी है. अतेपते से क्या बनता- बिगड़ता है. असल बात तो यह है कि आप परामर्शदाता की हैसियत रखने लगे हैं.

परामर्शदाता बनने के खतरे भी बहुत हैं. धूमधड़ाके के साथ प्रवेशांक निकलता है. पत्रपत्रिकाओं में बड़ेबड़े विज्ञापन देख कर साहित्य में युग परिवर्तन का अंदेशा होने लगता है. नामीगिरामी लेखक छपते हैं. हैसियतदार व पानीदार साहित्यकारों का परामर्श मिलता है. राजधानी में विमोचन समारोह के तो कहने ही क्या? प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया का भरपूर उपयोग, लेकिन प्रवेशांक के बाद मुश्किल से 2-3 अंक निकल कर पत्रिका धराशायी. बैसाखी का सहारा पा कर भी उठने की हिम्मत नहीं. परामर्शदाताओं का नाम भी डूब गया.

अभी तो ठीक से जश्न भी नहीं मना पाए थे कि कहने वाले कहते पाए गए कि और रख परामर्शदाता. एक दिल्ली का दूसरा कोलकाता का और तीसरा चेन्नई का. ऐसा बेमेल त्रिभुज बना तो पत्रिका चतुर्भुज हो कर डूब गई.

परामर्शदाता पहले भी हुआ करते थे, लेकिन इस का चलन इधर तेजी से बढ़ा है. हर छोटीबड़ी पत्रिका के साथ परामर्शदाता का पुछल्ला जरूरी हो गया है. वे पत्रिका के साथ लटके रहते हैं. 21वीं सदी परामर्शदाताओं की हो जाए तो आश्चर्य नहीं. साहित्य के अलावा और भी रास्ते हैं. समाचारपत्रों के परामर्शदाता. उद्योग जगत के परामर्शदाता. साहित्य अकादमी में भी इन की घुसपैठ है. सरकार की सांस्कृतिक नीति के सलाहकार. विश्वविद्यालयों के सलाहकार. शासन- प्रशासन के परामर्शदाता. ये सब हवाहवाई और पांचसितारा होते हैं.

साहित्य के मैदान में ऐसे भी कर्मवीर परामर्शदाता दिखलाई देते हैं जिन का साहित्य से दूरदूर तक कोई रिश्ता नहीं लेकिन रिश्तेदार बने हुए हैं. ऐसा जुगाड़ जमा कर बैठे हैं कि परामर्शदाता के ओहदे को सालों से संभाले हैं. हालांकि साहित्य की समझ के मामले में उसी मुहावरे के आसपास हैं जिसे हम ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ कहते हैं. कुछेक भैंस बराबर ऐसे भी परामर्शदाता सामने आए हैं जो कालांतर में पत्रिका के मालिक बन गए. अब संपादक को अपने इशारे पर नचा रहे हैं.

मेरे एक परिचित मेरी उम्र के हैं. रिटायर होने के बाद भक्तिकाल में पहुंच गए. पैसा बहुत कमाया. अब दानपुण्य दोनों हाथों से हो रहा है. हाथों को फुर्सत नहीं. बैनरपोस्टर में छाए हुए हैं.

गरजते बादलों की तरह जो पानीदार नहीं होते वे ही आजकल शहर की रौनक हैं. शहर उन्हें पहचानने लगा है. हर धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजनों में उन की उपस्थिति जरूरी है. संत, महात्मा आतिथ्य स्वीकार कर उन का ओहदा बढ़ाते हैं. आयोजनों में अकेले नहीं अर्धांगिनी सहित पहुंचते हैं ताकि वे भी बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूकें. अर्धांगिनी का जीवन भी सफलता के सोपान पर है. इस उम्र में आ कर और क्या चाहिए. लोक और परलोक दोनों एकसाथ सुधर रहा है. वे पूरे शहर के परामर्शदाता बने हुए हैं. ऐसे आयोजनों से दबा हुआ शहर रात भर कराहता है लेकिन शोरशराबे के बीच शहर की कराह कोई नहीं सुन पाता.

भक्तिकाल में पहुंचे परिचित श्यामसुंदर बगीचा के सुपुत्र हैं, मदनमोहन बगीचा. उभरते उद्योगपति हैं. सरकार की उन पर बड़ी मेहरबानी है. बगीचा न उन की जाति है न सरनेम. दरअसल, उन का परिवार बगीचा गांव से ताल्लुक रखता है. अत: उन का पूरा परिवार बगीचा हो गया है. गांव से आ कर शहर को धन्य कर रहे हैं. जब तक गांव में रहे गन्ना समझ चूसते रहे. गांव में झगड़ाफसाद की जड़ बने. पूरा गांव कोर्टकचहरी के चक्कर में है. हर दल के झंडे, हर बल के बंदे गांव में हैं.

अब शहर में गांव का नाम पीठ पर लाद कर लाए हैं. शहर नाम से ही चौंकता है. बाबू मदनमोहन साहित्य की समझ, दाल में नमक के बराबर भी नहीं रखते लेकिन प्रदेश की एक पत्रिका के दमदार परामर्शदाता हैं. पत्रिका के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि की बगल में ही विराजमान थे. कदकाठी से भरेपूरे हैं. चेहरा रोबदार. कपड़े लकदक. होशियारी और मक्कारी विरासत में मिली है. विरासत को संभालने में माहिर हैं. ऐसे अवसरों पर और क्या चाहिए? बोलते ज्यादा नहीं. दो शब्द बोल कर काम चला लेते हैं. रामायण की एक चौपाई और गीता के श्लोक बोल कर वाहवाही के हकदार बन जाते हैं.

विनम्रता की मिसाल मदनमोहनजी झुकने की कला में माहिर हैं. हर माह परामर्शदाता का एक चिंतन छपना शुरू हो गया है. वे चिंतक बन बैठे हैं. आजकल जहां कहीं उन का परिचय होता है उन्हें चिंतक बता कर इस शालीन शब्द का मखौल उड़ाया जाता है. चिंतन छापना संपादक की मजबूरी है. वे आर्थिक मददगार हैं. विज्ञापन दिलवाने में उन की अहम भूमिका है. बदले में बेचारे चिंतन ही तो छपवाते हैं. वे जो भी आड़ातिरछा लिख कर देते हैं उसे बनासंवार कर छापना पत्रिका के भारीभरकम संपादक मंडल का पतित पावन कर्तव्य है. पिताश्री धर्मकर्म में लीन हो कर हर शाम मंदिर की सीढि़यों में गुजारते हैं. बेटा साहित्य को कंधा देते, शाल ओढ़ने लगा है.

श्रीमतीजी का अविश्वास प्रस्ताव

‘‘ऐजी आप पहले जैसे नहीं रह गए,’’ एक वाक्य में श्रीमतीजी ने प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया.

हम सरकार के गिरने की उम्मीद लगा बैठे.

‘‘पगली तुम्हें आज 40 साल बाद यह महसूस क्यों हुआ?’’

‘‘देखो हम ने विकास के कितने सारे काम किए हैं. तुम ने सब चूल्हे में झोंक दिया?’’

‘‘बताओ क्या कमी देखती हो अपने सरकार में?’’

‘‘फिर हम भी अपनी सरकार की सुनाएंगे तो समझो चलती गाड़ी का पहिया बिलकुल रुक जाएगा?’’

हमारी चेतावनी पर ध्यान वे अकसर नहीं देतीं. इस बार भी वे इसे इग्नोर कर जातीं, मगर हम जज्बाती हो कर जरा तलखी में बोल गए थे. लिहाजा मामले ने दांपत्य जीवन की शांति भंग की सीमा लांघ दी थी. कुछ नर्म पड़ीं.

हम जानते थे कि दिलासे का जरा सा भी हाथ फेरा तो श्रीमती सुबक पड़ेंगी.

उन्हें नौर्मल करने के अंदाज में हम ने पूछा, देखो आप का बैल जैसा पति औफिस से सीधे घर आता है. ढेरो बालाएंबलाएं औफिस से घर के बीच टकराती घूमती हैं. उन से बच कर निकलता रहता है. फिर बताओ.

यह क्या बात हुई कि आप पहले जैसे नहीं रह गए?’’

‘‘चलो पहले वाली खूबियां गिनवा दो, खामियां बाद में सुन कर देखेंगे क्या बात है? आज शादी के 40 साल बाद आप ने विपक्ष की तरह लंबा मुंह खोला है.’’

‘‘जब हनीमून में गए थे तब आप कैसे आगेआगे हर काम कर रहे थे. स्टेशन से बैग लादना, हर रैस्टोरैंट में और्डर देने के पहले बाकायदा पसंद का पूछना, हर शौपिंग मौल में कितना एतराज कि हमारी ली हुई चीजों की तारीफ करना, उस पर यह कहना कि वेणु आप की पसंद लाजवाब है. मैं विभोर हो जाती थी. आप यह भी कहते तुम्हारा टेस्ट अच्छा है वेणु.’’

‘‘इस चक्कर में हम भी पसंद आ गए न?’’

‘‘सभी मर्द शादी की शुरुआत यों ही करते हैं क्या?’’

हम ने कहा वेणु ‘‘अरसा पहले कहीं पढ़ा था. जब आदमी नई कर लेता है और बीवी बैठने को आती है तो पति दरवाजा खुद खोलता है. इसे देख कर लोग 2 अनुमान लगाते हैं या तो कार नई है या फिर शायद बीवी.’’

हमारे इस जोक की पौलिश श्रीमती को कुछ उतरी हुई लगी. वे तर्क के दूसरे सिरे को पकड़ने को हुईं. ‘‘जनाब, शादी के शुरुआती दिनों में आप की हालत अपने स्टेट जैसी जर्जर थी. न सलीके का पहनना आता था न कोई खानेपीने का टेस्ट था. मैं सिर्फ खाने की कह रही हूं, पीने का शुरुआती टेस्ट तो आप ने दोस्तों की संगत में आजमाना चालू कर दिया था. मैं आप की डैटिंगपैंटिंग क्लास सख्ती से न लेती तो आप ढोलक माफिक फूल गए होते.’’

उलाहना दर उलाहना हमें झुकाने, नीचे पटकने का यह अर्धवार्षिक कार्यक्रम पिछले कुछ दिनों से तिमाही के स्तर पर सैंसैक्स की भांति लुढ़क गया है. हमें अपनी टीआरपी सुधारने का नुसखा तब हासिल होता है, जब कोई धांसू चीज लिख कर उम्दा मैगजीन में छपवा लें. जवाब में हम फक्र से श्रीमती को दिखाकर कहते, ‘‘यह छपी है देख लो.’’

इस प्रदर्शन नुमाइश में वे आर्थिक पहलू पर नजर रखते हुए पूछतीं, ‘‘इस छपे पर कितना मिलेगा?’’

‘‘वे आजकल कुछ देतेवेते नहीं, उलट ईमल से भेजो तो नखरे दिखाते हैं कि हम ईमेल की रचना स्वीकार नहीं करते. भाई लोग हार्ड कौपी मांगते हैं. रचनाओं के स्पीड पोस्ट से… भेजते किसी गरीब लेखक का क्या होता होगा पता नहीं.’’

‘‘मैं देखती हूं, जब भी अपने गुस्से का व्यावहारिक इजहार करती हूं तो आप अपनी साहित्य यात्रा में निकल पड़ते हैं या इसे बीच में ढाल बना खड़े हो जाते हैं. साहित्य भाव मुझ में भी मौजूद हैं, मगर आप के चूल्हेचकले के झंझट में वही रोटी माफिक गोल हो जाते हैं. हां, तो मैं कह रही थी.’’

‘‘आप आजकल बदल गए हैं.’’

हम ने बात को फिर मरोड़ा, ‘‘हां 60 साल की उम्र बदलने की ही होती है.’’ रिटायरमैंट के फक्त 6 महीनों में यह हाल है, हमें घर बैठे देख ऊब जाने का, तो आगे अल्ला जाने क्या होगा, मौला जाने क्या होगा?’’

‘‘देखो घर में दिनभर, कोटटाई में, हिंदुस्तान का कोई भी माई का लाल नहीं रहता. देशी स्टाइल, यानी लुंगीपाजामाकुरता, बनियान यही लपेटे रहता है. हम से जरा नीचे लेबल वाले लोग तो धारीदार चड्डियों में ही पाए जाते हैं. अब इसे बदलना कहते हैं तो बेशक हम बदल गए हैं.’’

श्रीमतीजी को बेकार की बातों पर कान धरने की फुरसत नहीं थी. अत: झल्लाते हुए अंतिम हथियार की सौगात ब्रह्मास्त्र के रूप में दी. गुस्से से पूछा. ‘‘आज तारीख क्या है?’’

हम ने सहजता से कहा, ‘‘6 अगस्त. कल ही तो बैंक से निकाल कर के घर खर्चे वाली रकम दी थी या नहीं, हम ने याददास्त पर जोर दे कर बताया.’’

उधर से दांत पीसने की प्रतिक्रिया नजर आई, ‘‘बस 6 अगस्त…फिर कल?’’

हम ने उसी सहजता से फिर कहा ‘‘एक दिन पहले तो 5 अगस्त हुआ न…न…न…?’’

5 अगस्त याद करते ही हमारी जीभ लड़खड़ा गईं, ‘‘सौरी वेणु डार्लिंग. हमें आप का बर्थडे परसों तक बामुकम्मल याद था. हम ने आराधना ज्वैलर्स को पहली तारीख को बाकायदा और्डर दिया है नई डिजाइन के नैकलैस का.

यह वही नैकलैस है जिसे आप हसरत से रिटायरमैंट के पहले उस ज्वैलर्स की शौप में देख रही थीं. तब हम ने खुद से वादा किया था कि रिटायरमैंट के बाद के पहले बर्थडे पर यह तोहफा तुम्हें दूंगा.’’

श्रीमती जी के मुरझाए चेहरे पर तनिक विश्वास लौटा. वे हमारे चरण छूने को झुकीं

तो हम ने बांहों में थाम लिया. फिर कहा ‘‘हर बर्थडे पर आप पैर छूती थीं, कल क्या हुआ जो…?’’

‘‘अगर छू लेतीं तो हमें याद नहीं आ जाता क्या…’’

‘‘मैं यह देखना चाहती थी कि मेरे भुलक्कड़ राम क्याक्या भूल सकते हैं? मैं ने मौन व्रत ले रखा था अपनी तरफ से… कई बहाने किए आप को याद आ जाए, मगर आप जब अलग दुनिया में खोए रहते हैं.’’

‘‘चलो ज्वैलर्स के पास चलें वरना…’’ हम ने चलने की तैयारी करते पूछ लिया, ‘‘बच्चो ने विश किया?’’

श्रीमतीजी फिर उदासी की लंबी गुफा में समाने लगीं. फिर उदास स्वर में बोलीं.

‘‘आजकल सब अपनी लाइफ जीते हैं… पता नहीं उन्हें याद भी हो या नहीं?’’

हम ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं छोड़ो, मेरी तरह भूल गए होंगे… आप आज अपनी मरजी की पूरी शौपिंग कर लो… हम ने एटीएम कार्ड को चैक कर पर्स में रखा है… बाहर ही खा कर लौटेंगे.’’

श्रीमती चुपचाप साथ हो लीं.

हमें लगा कि अविश्वास प्रस्ताव ने आखिर दम तोड़ दिया.

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