गेमिंग डिसऔर्डर को रोकना है जरूरी

लेखक- शाहनवाज

यह तो साफ है कि गेमिंग का बढ़ता नशा भी बच्चों और युवाओं को बरबाद कर सकता है. लेकिन क्या भारत में सरकार ने इस से बचने के उपाय किए? विश्व स्तर पर बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने इंटरनैशनल स्टैटिस्टिकल क्लासिफिकेशन औफ डिजीज एंड रिलेटेड हैल्थ प्रौब्लम्स के 11वें संशोधन में वर्ल्ड हैल्थ असैंबली मई 2019 में गेमिंग डिसऔर्डर को अपनी लिस्ट में शामिल कर लिया था.

याद हो तो कनाडा के साइकोलौजिस्ट ब्रूस एलेग्जैंडर ने किसी भी एडिक्शन की जड़ को लोगों की खुशी से जोड़ कर देखा था. उन्होंने कहा था, ‘‘लोग यदि खुश हैं तो वे किसी भी तरह के एडिक्शन का शिकार नहीं बन पाएंगे और यदि वे दुखी हैं तो उन्हें खुद को रिलीफ पहुंचाने के लिए किसी भी एडिक्शन का सहारा लेना पड़ेगा.’’ पूरे भारत में जहां एक तरफ केवल समस्याओं का सागर बह रहा हो तो किसी से कोई उम्मीद कैसे लगाई जा सकती है कि वह खुद को उन समस्याओं से कुछ देर मुक्त करने के लिए किसी एडिक्शन का सहारा नहीं लेगा.

लोगों को काम नहीं मिल रहा, बेरोजगारी अपनी चरम पर है, जिन्हें काम मिल भी रहा है तो वे बेहद औनेपौने दामों में काम करने को तैयार हैं. घर की समस्या, रिलेशन की समस्या, दोस्तों की समस्या, पढ़नेलिखने की समस्या, भांतिभांति की समस्याओं का सागर यहांवहां हर समय और हर जगह बहता हुआ नजर आ जाएगा. ऐसे में गेमिंग का एडिक्शन होना युवाओं में बेहद आम बात है. और वैसे भी, भारत में तो मैंटल हैल्थ की समस्याओं को बड़ा माना ही नहीं जाता है. जब तक किसी की जान पर नहीं बन आती, कोई मर नहीं जाता तब तक उसे समस्या माना ही नहीं जाता है. जब तक भारत में मूलभूल सुविधाओं को लोगों के लिए आम नहीं बना दिया जाता, कम से कम तब तक गेमिंग एडिक्शन को समाज से उखाड़ फेंकना मुश्किल है. लेकिन हार मानने की जरूरत नहीं है. अगर आप किसी ऐसे को जानते हैं जो इस का शिकार है तो उसे साइकोलौजिस्ट के पास ले कर जाएं और उन के मैंटल हैल्थ का इलाज करवाएं. क्योंकि, सरकार से इन समस्याओं का निदान तो इस जन्म में नहीं मिलने वाला है और न ही उस से इस की उम्मीद की जा सकती है.

मोबाइल गेमिंग का बढ़ता नशा

लेखक- शाहनवाज

21वीं शताब्दी की शुरुआत को टैक्नोलौजी की आमजन तक पहुंच का समय माना जाता है. यह वही समय है जिस के बाद से मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटौप जैसी चीजें आमजन भी अफोर्ड कर पाया और अपने जीवन को मुख्यधारा से जोड़ पाया. शुरुआती समय में लोग मोबाइल का उपयोग सिर्फ एकदूसरे से कम्यूनिकेट करने के लिए किया करते थे लेकिन समय बीतने के साथसाथ मोबाइल की उपयोगिता बढ़ती ही चली गई. पहले साधारण फोन हुआ करते थे, लेकिन एक समय बाद ‘स्मार्टफोन’ की ईजाद हुई जिस ने लोगों के स्टेटस को बदल कर रख दिया.

स्मार्टफोन, नौर्मल फोन की तुलना में कहीं ज्यादा काम करने में सक्षम हैं. आजकल के समय में लोग मोबाइल सिर्फ एकदूसरे से संपर्क साधने के लिए नहीं खरीदते बल्कि कई तरह के काम करने के लिए खरीदते हैं, जैसे वीडियो देखने के लिए, गाने सुनने के लिए गेम्स खेलने के लिए आदि. वास्तव में आजकल तो स्मार्टफोन का निर्माण ही मोबाइल गेमिंग को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है.

गेम्स खेलना किसे पसंद नहीं होता. हर कोई हलकेफुलके मनोरंजन के लिए थोड़ाबहुत गेम खेल कर दिमाग में चल रही भागदौड़ से खुद को शांत महसूस करता है. जब तक व्यक्ति अपने स्मार्टफोन में गेम्स खेल रहा होता है उस समय तक वह अपनेआप को शेष दुनिया से काट लेता है. कुछ पल के लिए ही सही, लोग अपनी नजरें अपने स्मार्टफोन में गढ़ा कर गेम्स खेल कर मानो सारी चिंताओं से खुद को मुक्त कर लेते हैं. लेकिन गेमिंग तब समस्या बन कर उभरती है जब लोग इस के एडिक्ट हो जाते हैं. गेमिंग का एडिक्शन इतना खतरनाक और इस के परिणाम इतने भयानक हो सकते हैं कि ये इंसान को पागलपन की ओर ले जा सकता है.

ऐसे लगती है लत

दिल्ली के जनकपुरी में रहने वाला 15 वर्षीय हर्षित 10वीं क्लास में पढ़ाई करता है. लौकडाउन के चलते स्कूल बंद हो जाने के कारण वह पिछले साल मार्च से ही अपने घर में कैद हो गया. स्कूल की तरफ से औनलाइन क्लास का प्रबंध किया गया और हर्षित के पेरैंट्स ने उसे औनलाइन क्लास अटैंड करने के लिए एक हलकी रेंज का ठीकठाक स्मार्टफोन खरीद कर दिया. जब तक औनलाइन क्लास होती तब तक तो ठीक, लेकिन उस के बाद हर्षित अपने नए स्मार्टफोन में पबजी गेम खेलने लगता. हर्षित अपनी क्लास में एवरेज मार्क्स लाने वाले स्टूडैंट्स में था. हर्षित के पेरैंट्स भी उसे फोन में गेम्स खेलने से टोकते नहीं थे, सोचते थे कि बच्चा घर बैठे खुद को इसी तरह से ही एंटरटेन कर सकता है.

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शुरुआती दिनों में तो हर्षित गेम में अपना हाथ सैट करने के लिए एकाध घंटा ही गेम खेलता था. लेकिन जैसेजैसे वह गेम सीखता जा रहा था और अच्छा परफौर्म करता जा रहा था वैसेवैसे उस की पबजी गेम खेलने की ललक बढ़ती गई. गेम खेलने के दौरान उस के आसपास क्या घट रहा है, उसे किसी बात की सुध न होती. वह बस, अपने फोन में गेमिंग में व्यस्त रहता और मस्त रहता. समय बीता, तो हर्षित के पेरैंट्स उसे ले कर चिंता करने लगे. क्योंकि अब वह गेमिंग के लिए स्कूल की तरफ से चलने वाली अपनी औनलाइन क्लासेज भी मिस करने लगा था. जब कभी उस के मम्मीपापा इस बात पर उसे डांटफटकार लगाते तो वह उसे एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता. उसे किसी बात का मानो फर्क पड़ना बंद हो गया था.

समय बीतने के साथसाथ हर्षित का पबजी खेलने का समय भी बढ़ता जा रहा था. एक घंटे से शुरुआत करने वाला हर्षित अब एक जगह बैठ कर बिना कुछ खाएपिए 5-6 घंटे गेम में बिता देता था. जब यह सबकुछ ज्यादा होने लगा तो सजा के तौर पर उस के पापा ने उस से एक दिन के लिए उस का फोन छीन लिया. हर्षित की गेमिंग एडिक्शन इतनी खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी थी कि अपने पास फोन न होने पर उस का मन बेचैन होने लगा. वह छोटीछोटी बातों पर चिढ़ने लगा. फोन छीने जाने की वजह से उस का मन इतना विचलित हो गया था कि गुस्से में उस ने खाना ही छोड़ दिया. मजबूरन उस के पिता को उसे फोन लौटाना पड़ा.

यह स्थिति आगे और भी भयावह होने लगी जब हर्षित रात को डिनर करने के बाद सोते वक्त नींद में भी ‘इस को मार’, ‘उस को मार’ बड़बड़ाने लगा. सुबह आंख खुलती तो ब्रश करने से पहले गेम खेलता. जहां कहीं भी जाता, अपना फोन हमेशा अपने साथ रखता. घर में अपने पेरैंट्स से छिपछिपा कर गेम खेलने का समय निकालता. टीनएज की इस उम्र में उस की आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे बन गए थे जोकि पूरी नींद न ले पाने की निशानी थी. समय से न खानेपीने से वजन में लगातार गिरावट आने लगी थी. हर्षित का सोशल इंटरैक्शन तो जैसे खत्म ही हो गया था.

हर्षित जैसे कई ऐसे बच्चे और कई ऐसे युवा हैं जो हमारे आसपास दिखाई दे जाएंगे. हो सकता है आप भी किसी ऐसे ही व्यक्ति को जानते हों जो बिलकुल हर्षित जैसा तो नहीं लेकिन गेम्स खेलने को ले कर पागल रहता हो.

मोबाइल मार्केटिंग एसोसिएशन्स पावर की ‘मोबाइल गेमिंग इन इंडिया रिपोर्ट’ के अनुसार, भारत में हर 4 में से 3 गेमर्स हर दिन कम से कम 2 बार गेम खेलते हैं. रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘भारत 250 मिलियन (25 करोड़) मोबाइल गेमर्स के साथ दुनिया में शीर्ष 5 गेमिंग देशों में से एक है.’’ इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में नैटफ्लिक्स या अन्य स्ट्रीमिंग प्लेटफौर्म्स से बिंज वौचिंग (वैब सीरीज देखने की आदत) से भी ज्यादा लोग अपने स्मार्टफोन में गेमिंग करना पसंद करते हैं.

2014 की फ्लरी की मोबाइल एनालिटिक रिसर्च के अनुसार, 2014 तक भारत में एक एंड्रोयड गेमर रोजाना औसतन 33.4 मिनट अपने स्मार्टफोन या टेबलैट पर गेम खेलते हुए खर्च करता था. लेकिन 2020 की साइबर मीडिया रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, यह आंकड़ा बढ़ कर 7 घंटे प्रतिसप्ताह हो चुका है.

भले ही भारत में गेमर्स के आंकड़े आसमान छू रहे हों लेकिन यह चिंता का विषय है. इस में खुद को प्राउड फील करने की जरूरत नहीं है. बच्चों और युवाओं में बढ़ते हुए गेमिंग के इस आंकड़े से यह सम झने की जरूरत है कि लोग जानेअनजाने गेमिंग एडिक्शन के जाल में फंसते जा रहे हैं. आखिर क्या कारण है कि लोग गेमिंग एडिक्शन का शिकार हो रहे हैं? क्या सरकार या प्रशासन इस डिजिटल एडिक्शन को एडिक्शन मानता भी है? क्या इस से बचने के लिए सरकार ने कोई उपाय किया है?

क्या होता है एडिक्शन

गेमिंग एडिक्शन को सम झने से पहले यह बहुत जरूरी है कि हम पहले एडिक्शन क्या होता है, यह सम झें. एडिक्शन मस्तिष्क प्रणाली का एक पुराना रोग है जिस में इनाम, प्रेरणा और मैमोरीज शामिल होती हैं. सीधे शब्दों में इस को बयान करें तो एडिक्शन एक तरह से मस्तिष्क का डिसऔर्डर है जो किसी भी व्यक्ति को हो सकता है.

कनाडा के साइकोलौजिस्ट ब्रूस एलेग्जैंडर के अनुसार, ‘‘मनुष्य को सहज सामाजिक जुड़ाव की आवश्यकता होती है. जब हम खुश और स्वस्थ होते हैं तो हम अपने आसपास के लोगों के साथ सोशल कनैक्ट होते हैं. लेकिन जब हम खुश नहीं होते, हम अलगथलग हो जाते हैं और जीवन से हार जाते हैं तो हम उस चीज के साथ बंध जाते हैं जिस से हमें कुछ राहत मिलती है.’’

एडिक्शन इसी का ही प्रोडक्ट है. ब्रूस एलेग्जेंडर की परिभाषा के अनुसार, कोई भी व्यक्ति किसी भी पदार्थ या किसी खास व्यवहार का एडिक्ट तब तक नहीं होता जब तक वह खुश है. जब वह दुखी होता है और समाज के लोग उसे उपेक्षित कर देते हैं तो उस से उबरने के लिए वह कुछ पलों की राहत के लिए उन चीजों के साथ जुड़ जाता है जिन से उसे राहत मिलती है. राहत के इन्हीं पलों को एडिक्शन कहते हैं.

यह एडिक्शन सिर्फ नशे के साथ जुड़ने पर ही नहीं होता बल्कि यह किसी भी प्रकार का हो सकता है. उदाहरण के लिए अपने फोन को अनगिनत बार चैक करते रहना, पोर्नोग्राफी देखना, इंटरनैट पर यों ही घंटों बिता देना, शौपिंग का एडिक्शन, बिंज ईटिंग अर्थात फास्ट फूड ईटिंग का एडिक्शन, गैम्बलिंग करना, मास्टरबेशन करना, यहां तक कि रिस्क उठाने का एडिक्शन भी होता है.

दिमाग पर कैसे करता है असर?

जब हम कोई सुखद क्रिया करते हैं तो हमारा दिमाग खुद को पुरस्कृत करता है जिस से हमारे दिमाग को राहत का एहसास होता है. मानव मस्तिष्क में कोई सुखद क्रिया करने पर एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर रिलीज होता है जिसे डोपामिन कहते हैं. इस से न केवल हमें अच्छा महसूस होता है बल्कि यह हमें प्रोत्साहित करता है कि हम जो कर रहे हैं उसे करते रहें.

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दरअसल, डोपामिन मस्तिष्क का रिवौर्ड सिस्टम होता है. यह हमारे दिमाग को वही चीज बारबार दोहराना सिखाता है. कुछ समय बाद दिमाग में डोपामिन का इन्टेक बढ़ता जाता है. डोपामिन जितना ज्यादा बढ़ता है व्यक्ति उतना ही अधिक एडिक्शन के जाल में फंसता चला जाता है. एक बार जब कोई व्यक्ति किसी चीज का एडिक्ट हो जाता है तो वह अच्छा महसूस करने के लिए अपना एडिक्शन नहीं दोहराता बल्कि सामान्य महसूस करने के लिए एडिक्शन दोहराता है.

उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति दिनभर की भागदौड़ के बाद कुछ पलों के लिए खुद को तसल्ली पहुंचाने या राहत देने के लिए सिगरेट पीता है तो उस के इन्टेक से दिमाग में डोपामिन रिलीज होता है. जिस से व्यक्ति को राहत का एहसास होता है. दिमाग इन राहत के पलों को दोबारा से उपभोग करने के लिए इस व्यवहार को सीख जाता है और फिर दोबारा से सिगरेट पीने के लिए के्रविंग (लालसा) पैदा करता है. ज्यादा से ज्यादा रिवौर्ड (डोपामिन) प्राप्त करने की लालसा में मानव मस्तिष्क व्यक्ति को और अधिक सिगरेट पीने के लिए प्रोत्साहित करता है. जिसे मानव मस्तिष्क का रिवौर्ड सर्किट कहते हैं. जो अंत में एडिक्शन में बदल जाता है. जिस से बाहर निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है.

गंभीर बीमारियों को न्योता

गेमिंग एडिक्शन भी अन्य किसी दूसरे एडिक्शन जितना ही खतरनाक होता है और इस के भयानक परिणाम निकल सकते हैं. अपने स्मार्टफोन में तरहतरह के मल्टीप्लेयर गेम्स खेल कर लोग बेशक एकदूसरे के साथ कनैक्ट तो होते हैं लेकिन उन की यह रुचि कब एडिक्शन में बदल जाती है, उन्हें इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं होता. कोई यह जरूर कह सकता है कि कम से कम गेमिंग करने वाले नशेडि़यों और गंजेडि़यों की तरह नशाखोर तो नहीं होते. लेकिन सचाई यह है कि गेम एडिक्ट उन से कम भी नहीं होते हैं. किसी गेम एडिक्ट को कई तरह के कौम्प्लिकेशंस का सामना करना पड़ सकता है.

वीडियो गेमिंग में शामिल फिजिकल ऐक्सरसाइज के न होने की वजह से वजन बढ़ने या घटने और अमेरिका के बच्चों और युवाओं में टाइप-2 मधुमेह के जोखिम के बारे में सार्वजनिक स्वास्थ्य ने चिंताओं को जन्म दिया है. भारत में भी यह हो सकता है यदि स्टडी की जाए तो. चिड़चिड़ापन और शौर्टटैम्पर (तेजी से गुस्सा आना) भी इस में शामिल हैं. गेम्स खेलने में बहुत समय बिताने वाले किताबें पढ़ने में कम दिलचस्पी लेते हैं. सिर्फ किताबें नहीं, जिन कामों के लिए अधिक ध्यान केंद्रित करने या लंबे समय तक ध्यान देने की आवश्यकता होती है, उन कामों को वे नहीं कर पाते हैं. नींद की खासा कमी होने लगती है क्योंकि वे अच्छी नींद से ज्यादा प्राथमिकता गेम में अपने लैवल पार करने को देते हैं. एक जगह पर लंबे समय तक बैठे रहने की वजह से कार्डियक अरैस्ट, जिसे आमभाषा में हार्टअटैक के नाम से जाना जाता है, के खतरे बढ़ जाते हैं.

मई 2019 में मध्य प्रदेश में 16 वर्षीय फुरकान कुरैशी के 6 घंटे लगातार गेम खेलने के कारण हार्टअटैक आने से मृत्यु हो गई. इस लिस्ट में और भी कई कौम्प्लिकेशंस हैं जिन्हें किसी गेम एडिक्ट को  झेलना पड़ सकता है.

मल्टीप्लेयर गेम्स और भी खतरनाक

भारत में यदि आज के समय में सब से अधिक कोई गेम बच्चों और युवाओं द्वारा खेला जाता है तो वह पबजी है. यह गेम सभी तरह के स्मार्टफोन में नहीं खेला जा सकता बल्कि इसे खेले जाने के लिए खास स्पेसिफिकेशन का फोन लेना जरूरी है. भारत में सब से ज्यादा पौपुलर गेम पबजी ही है. इसी से मिलताजुलता दूसरा गेम ‘फ्री फायर’ और ‘कौल औफ ड्यूटी’ है.

भारत में पबजी गेम की लोकप्रियता को देखते हुए ‘कुआर्ट्स’ और ‘जाना’ नाम की कंपनी ने 2018 में एक सर्वे किया था, जिस की रिपोर्ट के अनुसार, 73.4 फीसदी लोग पबजी को अपने स्मार्टफोन में खेलते हैं. 24.3 फीसदी लोग सप्ताह में 8 घंटे से अधिक समय पबजी गेम खेलने में व्यर्थ कर देते हैं. 80 फीसदी से अधिक लोग पबजी गेम में चीजें खरीदने के लिए 350 रुपए तक पैसे खर्चते हैं और 10 फीसदी लोग 1,400 रुपए तक पैसे खर्च कर देते हैं. यह तो बात हुई पबजी गेम्स से जुड़े कुछ आंकड़ों की, लेकिन पबजी गेम जितना भारत में लोकप्रिय है, यह उतना ही लोगों के लिए खतरनाक भी है. सिर्फ एडिक्शन को मद्देनजर रखते हुए नहीं, बल्कि व्यावहारिक दृष्टि से भी पबजी जैसे गेम्स लोगों की मानसिकता पर बड़ा गहरा प्रभाव डालते हैं.

पबजी गेम में एक बार में 100 लोग औनलाइन गेम को खेलते हैं. यह मरजी प्लेयर की होती है कि वह इसे अकेला खेलना चाहता है या 4 लोगों की टीम के साथ. गेम में प्रवेश करने के बाद एकएक कर हर प्लेयर को मारना होता है. जब सब मर जाते हैं तो आखिरी प्लेयर को ‘चिकन डिनर’ के खिताब से नवाजा जाता है. यह एक गेम कम से कम 30-40 मिनट तक चलता है और प्लेयर को बिना अपनी पलकें  झपकाए व ध्यान भटकाए उसे पार करना होता है. हर किसी का एक ही टारगेट होता है चिकन डिनर हासिल करना. बस, इसी की जद्दोजेहद में लोग लगे रहते हैं.

लेकिन यह सिर्फ एक गेम नहीं है बल्कि इस को खेलने से खेलने वाले के दिमाग में एक तरह की मानसिकता का जन्म हो जाता है. गेम में हथियारों का इस्तेमाल बेहद आम है. बिना हथियारों के इस्तेमाल से इसे खेलना मुमकिन ही नहीं. खेलने वाला जब 30-40 मिनट तक एक गेम में हथियारों का इस्तेमाल करता है तो उस के लिए रियल लाइफ में भी हथियारों का इस्तेमाल आम लगने लगता है.

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पबजी जैसे गेम्स न केवल हमारे दिमाग के साथ खेल रहे हैं बल्कि हमारे लिए एक नया ऐसा माहौल भी स्थापित कर रहे हैं जहां हिंसक गतिविधियां या कृत्य सामान्य व प्रभावशाली हैं. यह हमारे माइंडसैट को बदल रहा है जो पूरी तरह से सोशल नौर्म्स (सामाजिक मानदंडों) के खिलाफ है. पबजी जैसे गेम्स आक्रामक व्यवहार, विचारों और भावनाओं को ट्रिगर करते हैं जो अंत में हिंसा और आत्महत्या जैसी घटनाओं को प्रोत्साहित करते हैं.

लगातार इस तरह की गेमिंग हमारे जीवन की परिस्थितियों में निर्णय लेने की क्षमताओं को भी प्रभावित करता है और हमारी एकाग्रशक्ति को प्रभावित करता है जिस के कारण लोग उन के काम और स्टडीज में दिलचस्पी नहीं ले पाते और नुकसान या विफलता को  झेलना पड़ता है. बल्कि, पबजी गेम में रीस्टार्ट करने का बटन लोगों के दिमाग में इतना प्रभाव डालता है कि लोग अपनी असली जिंदगी को भी किसी गेम की तरह ही सम झने लगते हैं. जब वे लाइफ में किसी विफलता का सामना करते हैं तो उन से उन की विफलता का बो झ सहन नहीं हो पाता जिस कारण बच्चों और युवाओं को डिप्रैशन का सामना करना पड़ता है.

पबजी जैसे गेम्स खेलने वाले गेम में इतना अधिक ध्यान केंद्रित कर देते हैं कि वे अपने दोस्तों व परिवारों की ओर ध्यान ही नहीं देते. लोग अपने करीबी लोगों से गेम खेलने के बहाने ढूंढ़ने लगते हैं, उन से  झूठ बोलने लगते हैं. गेम खेलने से टोकने वाले लोगों से वे खुद को आइसोलेट (अलगथलग) कर लेते हैं. न तो कहना मानते हैं और न ही किसी बात पर गौर करते हैं. इन सभी के साथसाथ फिजिकल प्रौब्लम्स होती हैं, वह अलग है.

कैरियर के लिए गेमिंग

लौकडाउन की वजह से जब लोग अपने घरों में कैद हो गए तो बहुसंख्य बच्चे और युवा अपने घरों में स्मार्टफोन्स के साथ चिपक गए. ऐसे में वे गेम खेलने के साथसाथ इस स्पोर्ट यानी गेम को अपने कैरियर के रूप में भी अपनाने के बारे में विचार कर रहे थे. कइयों ने तो गेम्स खेलने की अपनी वीडियोज को यूट्यूब पर डालना शुरू कर दिया था. कई अपनी गेम की लाइव स्ट्रीमिंग करने लगे. इन सब में कुछ मुट्ठीभर युवाओं को लोकप्रियता हासिल भी हो गई. कुछ गेमर्स कंप्यूटर कंपनियों के ब्रैंड एम्बेसडर बन गए. कुछ को यूट्यूब पर अपनी वीडियोज पर प्रचार आने शुरू हो गए. ऐसे में भारत में एक बड़ी संख्या में युवाओं को यह लगने लगा कि वे भी अपने पैशन को अपना कैरियर बना लेंगे.

लेकिन आखिर किस कीमत पर? अपने पैशन को अपना कैरियर बना लेने का सपना गलत नहीं है. यह भी सम झने की जरूरत है कि इस भेड़चाल में केवल कुछ गिनेचुने लोग ही सफल हो पाते हैं. इस के साथसाथ गेमिंग मनोरंजन का साधन जरूर हो सकता है पर समाज में यह अनप्रोडक्टिव कामों में से एक है. गेमिंग से किसी वस्तु का निर्माण नहीं किया जा सकता है.

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