Short Stories in Hindi : नि:शुल्क मोटापा मुक्ति कैंप

Short Stories in Hindi : उस दिन औफिस से हारेथके हम घर पहुंचे ही थे कि श्रीमतीजी ने दरवाजा खोलते ही अपना अभिभाषण शुरू कर दिया, ‘‘आप ने सुना… आज बहुत बड़ी खुशी की बात. वह कहावत है न कि जिसे ढूंढ़ते थे हम गलीगली, अरे वह तो हमें घर के दरवाजे पर ही मिल गई. फ्लैट के सामने वह जो पार्क है न, उसी में मोटापा से मुक्ति का कैंप लग रहा है.’’

‘‘अरे तो इस में खुशी की क्या बात हो गई? नगर में जबतब मोटापा मुक्ति कैंप लगते रहते हैं,’’ हम ने इतना कहा ही था कि श्रीमतीजी फिर बिफर गईं, ‘‘आप तो रिटायरमैंट से पहले मस्तिष्क से पूरी तरह रिटायर्ड हो चुके हो. अरे, आप ही तो रोजरोज कहते हो, मैं बहुत मोटी हो रही हूं. पार्टियों में मुझे साथ ले जाते हुए आप को शर्म आती है. राजीव कपूर की पार्टी में आप मुझे साथ नहीं ले जा रहे थे. कह रहे थे, कपूर की बीवी रश्मि के सामने बेलन सी लगोगी. अरे, उसी मोटापे को खत्म करने के लिए मोटापा मुक्ति कैंप लग रहा है… संडे को कैंप का उद्घाटन होगा. आप को यह तो बताना ही भूल गई कि कैंप नि:शुल्क लग रहा है. है न मजेदार बात? मोटापा भी नष्ट होगा और कोई पैसा भी नहीं खर्च करना पड़ेगा.’’

‘‘नि:शुल्क मोटापा कैंप में चली जाना… पर कैंप के चक्कर में क्या आज कुछ चायनाश्ता नहीं कराओगी? औफिस से बहुत थकेहारे घर लौट रहे हैं हम,’’ श्रीमतीजी के भाषण के बीच हम ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘हां, हां, चायनाश्ते की याद है…

भुलक्कड़ तो आप हो ही. संडे तक का पता नहीं आप का… कितनी बार नि:शुल्क मोटापा मुक्ति कैंप की बात याद दिलानी पड़ेगी,’’ यह कहते हुए श्रीमतीजी पांव पटकती हुई किचन में चली गईं. किचन से बरतनों के आपस में टकराने की आवाज से श्रीमतीजी के गुस्से का पता चलता रहा.

एक दिन बाद ही संडे था. शानिवार की रात को फ्लैट के सामने बड़ेबड़े शामियाने लगा कर कैंप बना दिया गया था. सुबह से ही कैंप के प्रवेशद्वार पर मोटे स्त्रीपुरुषों की लाइनें लगने लगी थीं. कैंप के मुख्य दरवाजे पर 3 मेजों के पास कुरसियों पर 3 सुंदरी बालाएं बैठी थीं. उन बालाओं को कैंप में आने वालों के रजिस्ट्रेशन के लिए बैठाया गया था.

कैंप में मोटापा कम करने वालों के लिए 50 रजिस्ट्रेशन फीस थी. स्त्रीपुरुष 50-50 के नोट बरसा रहे थे. नि:शुल्क मोटापा कैंप में नोट बरसाने वालों की कोई कमी नहीं थी. आखिर श्रीमतीजी ने 50 दे कर रजिस्ट्रेशन करा लिया.

एक दिन मोटापा मुक्ति कैंप में संयासियों जैसे बड़ेबड़े कुरते पहने, लंबीलंबी दाढ़ी वाले कुछ लोगों ने भाषण दिए. मोटापे पर भाषण के दौरान उन्होंने चाटपकौड़ी नहीं खाने पर लंबेलंबे भाषण दिए. उसी कैंप की एक साइड में बहुत सी खानेपीने की दुकानें भी सजी थीं.

उन दुकानों के बीच कुछ रेस्तरां भी बने थे. उन रेस्तरां में पिज्जा, डोसा, इडली, समोसे, कचौड़ी के बैनर भी लगे थे. सभी रेस्तराओं के आगे स्त्रीपुरुषों की भीड़ लगी थी. कैंप के नुक्कड़ पर एक गोलगप्पे का स्टाल था. मोटापा मुक्ति कैंप में सब से ज्यादा उस स्टाल के आगे स्त्रियों की भीड़ थी. शायद उस दिन सभी स्त्रियां गोलगप्पे खा कर अपने मोटापे से मुक्ति पा लेना चाहती थीं.

मोटापे पर भाषण देने वाले संयासी कुरते पहने लोगों ने मोटापे से डायबिटीज, हार्ट अटैक, हाई ब्लडप्रैशर, किडनी फेल्योर, जोड़ों का दर्र्द होने की बात कहते हुए कैंसर भी मोटे स्त्रीपुरुषों को होने की बात कही. आजकल स्त्रीपुरुष किसी महानुभावक की बातें चाहे न मानें, लेकिन संन्यासी जैसे रंगीन कुरते पहने लोगों की बातें अवश्य मानते हैं. तभी तो देश में सभी साधुसंन्यासी प्रवचन करतेकरते बड़ेबड़े व्यापारी बन गए हैं. सभी साधुसंन्यासियों ने लोगों को मोटापा और दूसरी बीमारियों को नष्ट करने वाली दवाएं बेचना शुरू कर दिया है. एक बड़े संन्यासी बाबा तो प्रवचन करतेकरते, दवा बेचतेबेचते जेल चले गए. सुना है कि बाबा जेल में रहतेरहते भी खुद दवा बेच रहे हैं.

2-3 दिन मोटापे पर भाषण देने के बाद मंच से घोषणा की गई कि जो स्त्रीपुरुष डायबिटीज, हृदय रोग, हाई ब्लडप्रैशर आदि रोगों से पीडि़त हैं वे कैंप में लगे स्टालों से अपनीअपनी बीमारी की दवा खरीद लें. बीमारी नष्ट किए बिना मोटापा कम नहीं होता है. बस फिर क्या था, सभी स्त्रीपुरुष कैंप में लगे दवा के स्टालों की ओर दौड़ पड़े. दवा के स्टालों के आगे लंबीलंबी लाइनें लगने लगीं.

उस दिन हम श्रीमतीजी के साथ किसी दवा के स्टाल पर नहीं जा सके, क्योंकि उस दिन हमें औफिस से छुट्टी नहीं मिल सकी थी. मोटापा मुक्ति कैंप में श्रीमतीजी के साथ निपटने के लिए औफिस से 4 छुट्टियां ले चुके थे हम. उस दिन शाम को औफिस से घर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने मेज पर कई डब्बे और शीशियां सजा दी.

आज मोटापा मुक्ति कैंप में 500 की दवा खरीद कर लाई हूं. बाबाजी ने कहा था कि बीमारी के चलते मोटापा कम नहीं होता है.

‘‘लेकिन आप को तो कोई बीमारी नहीं थी? फिर इतनी मंहगी दवा क्यों खरीद लाईं?’’ हम ने पूछा तो श्रीमतीजी तुनक कर बोलीं,

‘‘आप को क्या पता है कि हमें क्या बीमारी है. अरे, कब्ज की बीमारी है बाबाजी ने बताया है कि कब्ज के कारण ही मोटापा हुआ है.

मोटापा कम करने के लिए पहले कब्ज को नष्ट करना होगा.’’

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‘‘कब्ज नष्ट करने के लिए 500 की दवा? अरे, कब्ज तो आधा किलो पपीता खाने से नष्ट हो जाती है.’’

‘‘आप तो 500 की बात सुन कर ही घबरा रहे हो, बाबाजी ने तो कहा है कि 500-600 की दवा कई बार खानी पड़ेगी तभी कब्ज नष्ट हो पाएगी. आप यह क्यों नहीं सोचते कि नि:शुल्क मोटापा मुक्ति कैंप लगा है. आखिर दवागोली पर कुछ तो खर्च करना पड़ेगा. बाबाजी मोटापे से मुक्ति दिलाने पर कुछ तो मांग नहीं रहे,’’ कह श्रीमती पांव पटकती हुई किचन में चली गईं तो हम अपना सिर पकड़ कर बैठ गए.

अगले दिन मोटापा मुक्ति कैंप में सभी स्त्रीपुरुषों को मोटापा कम करने के लिए योगासनों का अभ्यास कराया गया. उत्तानपादासन, भुजंगासन, धनुरासन, चक्रासन आदि का प्रदर्शन कर के एक संन्यासी वेशभूषा वाले बाबाजी ने घर पर जा कर सर्वांगासन करने के लिए बताया.

उस दिन रविवार होने के कारण देर तक सोने को मन कर रहा था. तभी दूसरे कमरे से श्रीमतीजी के जोरजोर से चिल्लाने की आवाजें सुन कर उन के कमरे में पहुंचे तो श्रीमतीजी फर्श पर बिखरी पड़ी जोरजोर से कराह रही थीं, ‘‘आह, मर गई… मेरी तो गरदन टूट गई.’’

हम ने पास जा कर पूछा, ‘‘सुबहसुबह क्यों चिल्ला रही हो? सुबहसुबह पास के फ्लैट वाले आप की आवाजें सुनेंगे तो सब हाल पूछने आ धमकेंगे और फिर सब को चायनाश्ता कराना पड़ेगा. आप की सहेलियां तो चायनाश्ता किए बिना सोफे से उठने का नाम नहीं लेगीं.’’

‘‘अरे, अब खड़ेखड़े भाषण ही देते रहोगे… मुझे उठा कर डाक्टर के पास ले चलने की तैयारी करो. सर्वांगासन करते हुए मेरी तो गरदन ही टूट गई. आह… बहुत दर्द हो रहा है… आह मैं मर गई.’’

श्रीमतीजी की चीखपुकार निरंतर बढ़ रही थी. पड़ोस के लोगों की सहायता से श्रीमतीजी को उठा कर पास के नर्सिंग होम में ले जाना पड़ा. उस दिन शाम तक उस नर्सिंग होम में रहना पड़ा. सर्वांगासन करने में श्रीमतीजी के कंधे में चोट लगी थी और डाक्टर ने प्लास्टर चढ़ा दिया था. शाम तक नर्सिंग होम में रहने और प्लास्टर कराने का 3 हजार से अधिक का बिल बन गया था.

मोटापा मुक्ति कैंप में जाने से श्रीमतीजी का मोटापा तो 1 इंच भी कम नहीं हो पाया, उलटे 5 हजार का बिल चुकाना पड़ा… अभी तो प्लास्टर चढ़ा है पता नहीं आगे नर्सिंग होम के कितने बिल चुकाने पड़ेंगे.

Interesting Hindi Stories : सिंदूरी मूर्ति – जाति का बंधन जब आया राघव और रम्या के प्यार के बीच

Interesting Hindi Stories : अभी लोकल ट्रेन आने में 15 मिनट बाकी थे. रम्या बारबार प्लेटफौर्म की दूसरी तरफ देख रही थी. ‘राघव अभी तक नहीं आया. अगर यह लोकल ट्रेन छूट गई तो फिर अगली के लिए आधे घंटे का इंतजार करना पड़ेगा’, रम्या सोच रही थी.

तभी रम्या को राघव आता दिखाई दिया. उस ने मुसकरा कर हाथ हिलाया. राघव ने भी उसे एक मुसकान उछाल दी. रम्या ने अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ाई. अभी सुबह के 7 बजे थे. लिहाजा स्टेशन पर अधिक भीड़ नहीं थी. एक कोने में कंधे से स्कूल बैग लटकाए 3-4 किशोर, एक अधेड़ उम्र का जोड़ा व कुछ दूरी पर खड़े लफंगे टाइप के 4-5 युवकों के अलावा स्टेशन एकदम खाली था.

रम्या प्लेफौर्म की बैंच से उठ कर प्लेटफौर्म के किनारे आ कर खड़ी हुई तो उस का मोबाइल बज उठा. उस ने अपने मोबाइल को औन किया ही था कि अचानक किसी ने पीछे से उस की पीठ में छुरा भोंक दिया. एक तेज धक्के से वह पेट के बल गिर पड़ी, जिस से उस का सिर भी फट गया और वह बेहोश हो गई.

राघव जब तक उस तक पहुंच पाता, हमलावर नौ दो ग्यारह हो चुका था. चारों तरफ चीखपुकार गूंज उठी. रेलवे पुलिस ने तत्काल उसे सरकारी अस्पताल पहुंचाने का इंतजाम किया. रम्या के मोबाइल फोन से उस के पापा को कौल की. संयोग से वे स्टेशन के बाहर ही खड़े हो अपने एक पुराने परिचित से बातचीत में मग्न हो गए थे. वे उस रोज रम्या के साथ ही घर से स्टेशन तक आए थे. उन्हें चेंग्ल्पप्त स्टेशन पर कुछ काम था. इसीलिए वे बाहर निकल गए जबकि रम्या परानुरू की लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर ही रुक गई. रम्या रोज 2 ट्रेनें बदल कर महिंद्रा सिटी अपने औफिस पहुंचती थी.

अचानक फोन पर यह खबर सुन कर रम्या के पिता की हालत बिगड़ने लगी. यह देख कर उन के परिचित उन्हें धैर्य बंधाते हुए साथ में अस्पताल चल पड़े.

रम्या को तुरंत आईसीयू में भरती कर लिया गया. घर से भी उस की मां, बड़ी बहन, जीजा सभी अस्पताल पहुंच गए. डाक्टर ने 24 घंटे का अल्टीमेटम देते हुए कह दिया कि यदि इतने घंटे सकुशल निकल गए तो बचने की उम्मीद है.

मां और बहन का रोरो कर बुरा हाल था. उन का दामाद, डाक्टर और मैडिकल स्टोर के बीच चक्करघिन्नी सा घूम रहा था.

राघव सिर पकड़े एक कोने की बैंच पर  बैठ गया. वह दूर से रम्या के मम्मीपापा और बड़ी बहन को देख रहा था. क्या बोले और कैसे, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. रम्या ने बताया था कि उस के परिवार के लोग गांव में रहते हैं. अत: वे तमिल के अलावा और कोई भाषा नहीं जानते थे जबकि वह शुरू से ही पढ़ाई में होशियार थी. इसीलिए गांव से निकल कर होस्टल में पढ़ने आ गई थी और फिर इंजीनियरिंग कर नौकरी कर रही थी वरना उस की दीदी का तो 12वीं कक्षा के बाद ही पास के गांव में एक संपन्न किसान परिवार में विवाह कर दिया गया था. सुबह से दोपहर हो गई वह अपनी जगह से हिला ही नहीं, अंदर जाने की किसी को अनुमति नहीं थी. उस ने रम्या की खबर उस के औफिस में दी तो कुछ सहकर्मियों ने शाम को हौस्पिटल आने का आश्वासन दिया. अब वह बैठा उन लोगों का इंतजार कर रहा था. वे आए तभी वह भी रम्या के मातापिता से अपनी भावनाएं व्यक्त कर सका.

पिछले 2 सालों से राघव और रम्या औफिस की एक ही बिल्डिंग में काम कर रहे थे. रम्या एक तमिल ब्राह्मण परिवार से थी, जो काफी संपन्न किसान परिवार था, जबकि राघव उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग के गरीब परिवार से था. उस का और रम्या का कोई तालमेल ही नहीं, मगर न जाने वह कौन सी अदृश्य डोर से उस की ओर खिंचा चला गया.

उस की पहली मुलाकात भी रम्या से इसी चेंग्ल्पप्त स्टेशन पर हुई थी, जहां से उसे परानुरू के लिए लोकल ट्रेन पकड़नी थी. उस दिन अपनी कंपनी का ही आईडी कार्ड लटकाए रम्या को देख कर वह हिम्मत कर उस के नजदीक पहुंच गया. जब रम्या को ज्ञात हुआ कि वह पहली बार लोकल ट्रेन पकड़ने आया है तो उस ने उस से कहा भी था कि जब उसे पीजी में ही रहना है तो परानुरू की महिंद्रा सिटी में शिफ्ट हो जाए. रोजरोज की परानुरू से चेंग्ल्पप्त की लोकल नहीं पकड़नी पड़ेगी.

खुद रम्या को तो रोज 2 ट्रेनें बदल कर अपने गांव से यहां आना पड़ता था. उन की बातों के दौरान ही ट्रेन आ गईं. जब तक वह कुछ समझता ट्रेन चल पड़ी. रम्या उस में सवार हो चुकी थी और वह प्लेटफौर्म पर ही रह गया. यह क्या अचानक रम्या प्लेटफौर्म पर कूद गई.

रम्या जब कूदी उस समय ट्रेन रफ्तार में नहीं थी. अत: वह कूदते ही थोड़ा सा लड़खड़ाई पर फिर संभल गई.

राघव हक्काबक्का सा उसे देखते रह गया. फिर सकुचा कर बोला, ‘‘तुम्हें इस तरह नहीं कूदना चाहिए था?’’

‘‘तुम अभी मुझ से ट्रेन के अप और डाउन के बारे में पूछ रहे थे… तुम यहां नए हो… मुझे लगा तुम किसी गलत ट्रेन में न बैठ जाओ सो उतर गई,’’ कह रम्या मुसकराई.

रम्या के सांवले मुखड़े को घेरे हुए उस के घुंघराले बाल हवा में उड़ रहे थे. चौड़े ललाट पर पसीने की बूंदों के बीच छोटी सी काली बिंदी, पतली नाक और पतले होंठों के बीच एक मधुर मुसकान खेल रही थी. राघव को लगा यह तो वही काली मिट्टी से बनी मूर्ति है जिसे उस के पिता बचपन में उसे रंग भरने को थमा देते थे.

‘‘क्या सोच रहे हो?’’ रम्या ने पूछा.

‘‘यही कि तुम्हें कुछ हो जाता तो, मैं पूरी जिंदगी अपनेआप को माफ न कर पाता… तुम्हें ऐसा हरगिज नहीं करना चाहिए था.’’

‘‘ब्लड… ब्लड…’’ यही शब्द उन वाक्यों के उसे समझ आए, जो डाक्टर रम्या की फैमिली से तमिल में बोल रहा था.

राघव तुरंत डाक्टर के पास पहुंच गया. बोला, ‘‘सर, माई ब्लड ग्रुप इज ओ पौजिटिव.’’

‘‘कम विद मी,’’ डाक्टर ने कहा तो राघव डाक्टर के साथ चल पड़ा. उन्हीं से राघव को पता चला कि शाम तक 5-6 यूनिट खून की जरूरत पड़ सकती है. राघव ने डाक्टर को बताया कि शाम तक अन्य सहकर्मी भी आ रहे हैं. अत: ब्लड की कमी नहीं पड़ेगी.

रक्तदान के बाद राघव अस्पताल के एहाते में बनी कैंटीन में कौफी पीने के लिए आ गया. अस्पताल आए 6 घंटे बीत चुके थे. उस ने एक बिस्कुट का पैकेट लिया और कौफी में डुबोडुबो कर खाने लगा.

तभी उस की नजर सामने बैठे व्यक्ति पर पड़ी, जो कौफी के छोटे से गिलास को साथ में दिए छोटे कटोरे (जिसे यहां सब डिग्री बोलते हैं) में पलट कर ठंडा कर उसे जल्दीजल्दी पीए जा रहा था. रम्या ने बताया था कि उस के अप्पा जब भी बाहर कौफी पीते हैं, तो इसी अंदाज में, क्योंकि वे दूसरे बरतन में अपना मुंह नहीं लगाना चाहते. अरे, हां ये तो रम्या के अप्पा ही हैं. मगर वह उन से कोई बात नहीं कर सकता. वही भाषा की मुसीबत.

तभी उस की नजर पुलिस पर पड़ी, जिस ने पास आ कर उस से स्टेटमैंट ली और उसे शहर छोड़ कर जाने से पहले थाने आ कर अनुमति लेने की हिदायत व पुलिस के साथ पूरा सहयोग करने की चेतावनी दे कर छोड़ दिया.

शाम के 6 बज चुके थे. जब उस के सहकर्मी आए तो राघव की सांस में सांस आई. वे

सभी रक्तदान करने के पश्चात रम्या के परिजनों से मिले और राघव का भी परिचय कराया.

तब उस की अम्मां ने कहा, ‘‘हां, मैं ने सुबह से ही इसे यहीं बैठे देखा था. मगर मैं नहीं जान पाई कि ये भी उस के सहकर्मी हैं,’’ और फिर वे राघव का हाथ थाम कर रो पड़ीं.

उन लोगों के साथ राघव भी लौट गया. वह रोज शाम 7 बजे अस्पताल पहुंच जाता और 9 बजे लौट आता. पूरे 15 दिन तक आईसीयू में रहने के बाद जब रम्या प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट हुई तब जा कर उसे रम्या की झलक मिल सकी. रम्या की पीठ का घाव तो भरने लगा था, मगर उस के शरीर का दायां भाग लकवे का शिकार हो गया था, जबकि बाएं भाग में गहरा घाव होने से उसे ज्यादा हिलनेडुलने को डाक्टर ने मना किया था. रम्या निर्जीव सी बिस्तर पर लेटी रहती. अपनी असमर्थता पर आंसू गिरा कर रह जाती.

दुर्घटना के पूरे 6 महीनों के बाद स्वास्थ्य लाभ कर उस दिन रम्या औफिस जौइन करने जा रही थी. सुबह से रम्या को कई फोन आ चुके थे कि वह आज जरूर आए. उस दिन राघव की विदाई पार्टी थी. वह कंपनी की चंडीगढ़ ब्रांच में ट्रांसफर ले चुका था. वह दिन उस का अंतिम कार्यदिवस था.

कंपनी के गेट तक रम्या अपने अप्पा के साथ आई थी. वे वहीं से लौट गए, क्योंकि औफिस में शनिवार के अतिरिक्त अन्य किसी भी दिन आगंतुक का अंदर प्रवेश प्रतिबंधित था. उस का स्वागत करने को कई मित्र गेट पर ही रुके थे. उस ने मुसकरा कर सब का धन्यवाद दिया. राघव एक गुलदस्ता लिए सब से पीछे खड़ा था.

रम्या ने खुद आगे बढ़ कर उस के हाथ से गुलदस्ता लेते हुए कहा, ‘‘शायद तुम इसे मुझे देने के लिए ही लाए हो.’’

एक सम्मिलित ठहाका गूंज उठा. ‘तुम्हारी यही जिंदादिली तो मिस कर रहे थे हम सब,’ राघव ने मन ही मन सोचा.

रम्या को औफिस आ कर ही पता चला कि आज की लंच पार्टी रम्या की स्वागतपार्टी और राघव की विदाई पार्टी है. दोनों ही सोच में डूबे हुए अपनेअपने कंप्यूटर की स्क्रीन से जूझने लगे.

राघव सोच रहा था कि रम्या की जिंदगी के इस दिन का उसे कितना इंतजार था कि स्वस्थ हो दोबारा औफिस जौइन कर ले. मगर वही दिन उसे रम्या की जिंदगी से दूर भी ले कर जा रहा था.

रम्या सोच रही थी कि जब मैं अस्पताल में थी तो राघव नियम से मुझ से मिलने आता था और कितनी बातें करता था. शुरूशुरू में तो मां को उसी पर शक हो गया था कि यह रोज क्यों आता है? कहीं इसी ने तो हमला नहीं करवाया और अब हीरो बन सेवा करने आता है? और अप्पा को तो मामा पर शक हो गया था, क्योंकि मैं ने मामा से शादी करने को मना कर दिया था और छोेटा मामा तो वैसे भी निकम्मा और बुरी संगत का था. अप्पा को लगा मामा ने ही मुझ से नाराज हो कर हमला करवाया है. जब राघव को मैं ने मामा की शादी के प्रोपोजल के बारे में बताया तो वह हैरान रह गया. उस का कहना था कि उन के यहां मामाभानजी का रिश्ता बहुत पवित्र माना जाता है. अगर गलती से भी पैर छू जाए तो भानजी के पैर छू कर माफी मांगते हैं. पर हमारी तरफ तो शादी होना आम बात है. मामा की उम्र अधिक होने पर उन के बेटे से भी शादी कर सकते हैं.

उन दिनों कितनी प्रौब्ल्म्स हो गई थीं घर में… हर किसी को शक की निगाह से देखने लगे थे हम. राघव, मामा, हमारे पड़ोसियों सभी को… अम्मां को भी अस्पताल के पास ही घर किराए पर ले कर रहना पड़ा. आखिर कब तक अस्पताल में रहतीं. 1 महीने बाद अस्पताल छोड़ना पड़ा. मगर लकवाग्रस्त हालत में गांव कैसे जाती? फिजियोथेरैपिस्ट कहां मिलते? राघव ने भी मुझ से ही पूछा था कि अगर वह शनिवार, रविवार को मुझ से मिलने घर आए तो मेरे मातापिता को कोई आपत्ति तो नहीं होगी. अम्मांअप्पा ने अनुमति दे दी. वे भी देखते थे कि दिन भर की मुरझाई मैं शाम को उस की बातों से कैसे खिल जाती हूं, हमारा अंगरेजी का वार्त्तालाप अम्मां की समझ से दूर रहता. मगर मेरे चेहरे की चमक उन्हें समझ आती थी.

मामा ने गुस्से में आना कम कर दिया तो अप्पा का शक और बढ़ गया. वह तो

2 महीने पहले ही पुलिस ने केस सुलझा लिया और हमलावर पकड़ा गया वरना राघव का भी अपने घर जाना मुश्किल हो गया था. मैं ने आखिरी कौल राघव को ही की थी कि मैं स्टेशन पहुंच गई हूं, तुम भी आ जाओ. उस के बाद उस अनजान कौल को रिसीव करने के बीच ही वह हमला हो गया.

राघव ने जब बताया था कि वह बाराबंकी के कुंभकार परिवार से है और उस का बचपन मूर्ति में रंग भरने में ही बीता है, तो मैं ने कहा था कि वह मूर्ति बना कर दिखाए. तब उस ने रंगीन क्ले ला कर बहुत सुंदर मूर्ति बनाई जो संभाल कर रख ली.

‘रम्या भी तो एक बेजान मूर्ति में परिवर्तित हो गई थी उन दिनों,’ राघव ने सोचा. वह हर शनिवाररविवार जब मिलने जाता तब उसे रम्या में वही स्वरूप दिखाई देता जैसा उस के बाबा दीवाली में लक्ष्मी का रूप बनाते थे. काली मिट्टी से बनी सौम्य मूर्ति. उस मूर्ति में जब वह लाल, गुलाबी, पीले और चमकीले रंगों में ब्रश डुबोडुबो कर रंग भरता, तो उस मूर्ति से बातें भी करता.

यही स्थिति अभी भी हो गई है. रम्या के बेजान मूर्तिवत स्वरूप से तो वह कितनी बातें करता था. लकवाग्रस्त होने के कारण शुरूशुरू में वह कुछ बोल भी नहीं पाती थी, केवल अपने होंठ फड़फड़ा कर या पलकें झपका कर रह जाती. बाद में तो वह भी कितनी बातें करने लगी थी. उस की जिंदगी में भी रंग भरने लगे थे. वह समझ ही नहीं पाया कि रंग भर कौन रहा है? वह रम्या की जिंदगी में या रम्या उस की जिंदगी में? अब रम्या जीवन के रंगों से भरपूर है. अपने अम्मांअप्पा के संरक्षण में गांव लौट गई है, उस की पहुंच से दूर. अब उस की सेवा की रम्या को क्या आवश्यकता? अब वह भी यहां से चला जाएगा. रम्या से फेसबुक और व्हाट्सऐप के माध्यम से जुड़ा रहेगा वैसे ही जैसे पंडाल में सजी मूर्तियों से मन ही मन जुड़ा रहता था.

‘‘चलो, सब आज सब का लंच साथ हैं याद है न?’’ रमन ने मेज थपथपाई.

सभी एकसाथ लंच करने बैठ गए तो रम्या ने कहा, ‘‘धन्यवाद तो मुझे तुम सब का देना चाहिए जो रक्तदान कर मेरे प्राण बचाए…’’

‘‘सौरी, मैं तुम्हें रोक रहा हूं. मगर सब से पहले तुम्हें राघव को धन्यवाद करना चाहिए. इस ने सर्वप्रथम खून दे कर तुम्हें जीवनदान दिया है,’’ मुरली मोहन बोला.

‘‘ठीक है, उसे मैं अलग से धन्यवाद दे दूंगी,’’ कह रम्या हंस रही थी. राघव ने देखा आज उस ने काले की जगह लाल रंग की बिंदी लगाई थी.

‘‘वैसे वह तेरा वनसाइड लवर भी बड़ा खतरनाक था… तुझे अपने इस पड़ोसी पर पहले कभी शक नहीं हुआ?’’ सुभ्रा ने पूछा.

‘‘अरे वह तो उम्र में भी 2 साल छोटा है मुझ से. कई बार कुछ न कुछ पूछने को किसी न किसी विषय की किताब ले कर घर आ धमकता था. मगर मैं नहीं जानती थी कि वह क्या सोचता है मेरे बारे में,’’ रम्या अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

लगभग सभी खापी कर उठ चुके थे. राघव अपने कौफी के कप को घूरने में लगा था मानो उस में उस का भविष्य दिख रहा हो.

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है उस लड़के के बारे में?’’ रम्या ने पास आ कर उस से पूछा.

‘‘प्यार मेरी नजर में कुछ पाने का नहीं, बल्कि दूसरे को खुशियां देने का नाम है. अगर हम प्रतिदान चाहते हैं, तो वह प्यार नहीं स्वार्थ है और मेरी नजर में प्यार स्वार्थ से बहुत ऊपर की भावना है.’’

‘‘इस के अलावा भी कुछ और कहना है तुम्हें?’’ रम्या ने शरारत से राघव से पूछा.

‘‘हां, तुम हमेशा इसी तरह हंसतीमुसकराती रहना और अपनी फ्रैंड लिस्ट में मुझे भी ऐड कर लेना. अब वही एक माध्यम रह जाएगा एकदूसरे की जानकारी लेने का.’’

‘‘ठीक है, मगर तुम ने मुझ से नहीं पूछा?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मुझे कुछ कहना है कि नहीं?’’ रम्या ने कहा तो राघव सोच में पड़ गया.

‘‘क्या सोचते रहते हो मन ही मन? राघव, अब मेरे मन की सुनो. अगले महीने अप्पा बाराबंकी जाएंगे तुम्हारे घर मेरे रिश्ते की बात करने.’’

‘‘उन्हें मेरी जाति के बारे में नहीं पता शायद,’’ राघव को अप्पा का कौफी पीना याद आ गया.

‘‘यह देखो इन रगों में तुम्हारे खून की

लाली ही तो दौड़ रही है और जो जिंदगी के पढ़ाए पाठ से भी सबक न सीख सके वह इनसान ही क्या… मेरे अप्पा इनसानियत का पाठ पढ़ चुके हैं. अब उन्हें किसी बाह्य आडंबर की जरूरत नहीं है,’’ रम्या ने अपना हाथ उस की हथेलियों में रख कर कहा, ‘‘अब अप्पा भी चाह कर मेरे और तुम्हारे खून को अलगअलग नहीं कर सकते.’’

‘‘तुम ने आज लाल बिंदी लगई है,’’ राघव अपने को कहने से न रोक सका.

‘‘नोटिस कर लिया तुम ने? यह तुम्हारा ही दिया रंग है, जो मेरी बिंदी में झलक आया है और जल्द ही सिंदूर बन मेरे वजूद में छा जाएगा,’’ रम्या बोली और फिर दोनों एकदूसरे का हाथ थामें जिंदगी के कैनवास में नए रंग भरने निकल पड़े.

Hindi Fiction Stories : भरोसेमंद- शर्माजी का कड़वा बोलना लोगों को क्यों पसंद नही आता था?

Hindi Fiction Stories : ‘‘बड़ी खुशी हुई आप से मिल कर. अच्छी बात है वरना अकसर लोग मुझे पसंद

नहीं करते.’’

‘‘अरे, ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं नहीं कह रहा, सिर्फ बता रहा हूं आप को वह सच जो मैं महसूस करता हूं. अकसर लोग मुझे पसंद नहीं करते. आप भी जल्द ही उन की भाषा बोलने लगेंगे. आइए, हमारे औफिस में आप का स्वागत है.’’

शर्माजी ने मेरा स्वागत करते हुए अपने बारे में भी शायद वह सब बता दिया जिसे वे महसूस करते होंगे या जैसा उन्हें महसूस कराया जाता होगा. मुझे तो पहली ही नजर में बहुत अच्छे लगे थे शर्माजी. उन के हावभाव, उन का मुसकराना, उन का अपनी ही दुनिया में मस्त रहना, किसी के मामले में ज्यादा दखल न देना और हर किसी को पूरापूरा स्पेस भी देना.

हुआ कुछ इस तरह कि मुझे अपनी चचेरी बहन को ले कर डाक्टर के पास जाना पड़ा. संयोग भी ऐसा कि हम लगातार 3 बार गए और तीनों बार ही शर्माजी का मुझ से मिलना हो गया. उन का घर वहीं पास में ही था. हर शाम वे सैर करने जाते हुए मुझ से मिल जाते और औपचारिक लहजे में घर आने को भी कहते. मगर उन्होंने कभी ज्यादा प्रश्न नहीं किए. मुसकरा कर ही निकल जाते. उन्हीं दिनों मुझे एक हफ्ते के लिए टूर पर जाना पड़ा. बहन का कोर्स अभी पूरा नहीं हुआ था. वह अकेली चली तो जाती पर वापसी पर अंधेरा हो जाएगा, यह सोच कर उसे घबराहट होती थी.

‘‘तुम शर्माजी के घर चली जाना. छोटा भाई अपनी ट्यूशन क्लास से वापस आते हुए तुम्हें लेता आएगा. मैं उन का पता ले लूंगा, पास ही में उन का घर है.’’

बहन को समझा दिया मैं ने. शर्माजी से इस बारे में बात भी कर ली. सारी स्थिति उन्हें समझा दी. शर्माजी तुरंत बोले, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, जरूर आइए. मेरी बहन घर पर होती है. पत्नी तो औफिस से देर से ही आती हैं लेकिन आप चिंता मत कीजिए. निसंकोच आइए.’’

मेरी समस्या सुलझा दी उन्होंने. हफ्ता बीता और उस के बाद उस की जिम्मेदारी फिर मुझ पर आ गई. पता चला, शर्माजी की बहन तो उसी के कालेज की निकली. इसलिए मेरी बहन का समय अच्छे से बीत गया. मैं ने शर्माजी को धन्यवाद दिया. वे हंसने लगे.

‘‘अरे, इस में धन्यवाद की क्या जरूरत है? यह दुनिया रैनबसेरा है विजय बाबू. न घर तेरा न घर मेरा. जो समय हंसतेखेलते बीत जाए बस, समझ लीजिए वही आप का रहा. मिनी बता रही थी कि आप की बहन तो उसी के कालेज में पढ़ती है.’’

‘‘हां, शर्माजी. अब क्या कहें? फुटबाल की मंझी हुई खिलाड़ी थी मेरी बहन. एक दिन खेलतेखेलते हाथ की हड्डी ऐसी खिसकी कि ठीक ही नहीं हो रही. उसी सिलसिले में तो आप के सैक्टर में जाना पड़ता है उसे डा. मेहता के पास. आप को तो सब बताया ही था.’’

‘‘मुझे कुछ याद नहीं. दरअसल, आप बुरा मत मानना, मैं किसी की व्यक्तिगत जिंदगी में जरा कम ही दिलचस्पी लेता हूं. मैं आप के काम आ सका उस के लिए मैं ही आप का आभारी हूं.’’

भौचक्का रह गया मैं. एक पल को रूखे से लगे मुझे शर्माजी. ऐसी भी क्या आदत जो किसी की समस्या का पता ही न हो.

‘‘सब के जीवन में कोई न कोई समस्या होती है जिसे मनुष्य को स्वयं ही ढोना पड़ता है. किसी को न आप से कुछ लेना है न ही देना है. अपना दिल खोल कर क्यों मजाक का विषय बना जाए. क्योंकि आज कोई भी इतना ईमानदार नहीं जो निष्पक्ष हो कर आप की पीड़ा सुन या समझ सके,’’ शर्माजी बोले.

सुनता रहा मैं. कुछ समझ में आया कुछ नहीं भी आया. अकसर गहरी बातें एक ही बार में समझ में भी तो नहीं आतीं.

‘‘मैं कोशिश करता हूं किसी के साथ ज्यादा घुलनेमिलने से बचूं. समाज में रह कर एकदूसरे के काम आना हमारा कर्तव्य भी है और इंसानियत भी. हम जिंदा हैं उस का प्रमाण तो हमें देना ही चाहिए. प्रकृति तो हर चीज का हिसाब मांगती है. एक हाथ लो तो दूसरे हाथ देना भी तो आना चाहिए,’’ शर्माजी ने कहा.

चश्मे के पार शर्माजी की आंखें डबडबा गई थीं. मेरा कंधा थपथपा कर चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया. मुझे लगा, शर्माजी बहुत रूखे स्वभाव के हैं. थोड़ा तो इंसान को मीठा भी होना चाहिए. याद आया पहली बार मिले तो उन्होंने ही बताया था कि लोग अकसर उन्हें पसंद नहीं करते. शायद यही वजह होगी. रूखा इंसान कैसे सब को पसंद आएगा? घर आ कर पत्नी से बात की. हंस पड़ी वह.

‘‘जरा से उसूली होंगे आप के शर्माजी. नियमों पर चलने वाला इंसान सहज ही सब के गले से नीचे नहीं उतरता. कुछ उन के नियम होंगे और कुछ उन्हें दुनिया ने सिखा दिए होंगे. धीरेधीरे इंसान अपने ही दायरे में सिमट जाता है. जहां तक हो सके किसी और की मदद करने से पीछे नहीं हटता मगर अपनी तरफ से नजदीकी कम से कम ही पसंद करता है. चारू बता रही थी कि हफ्ताभर उन की बहन ने उस का पूरापूरा खयाल रखा. 1 घंटा तो वहां बैठती ही थी वह, शर्माजी ने अपनी बहन को बताया होगा कि उन के सहयोगी की बहन है इसीलिए न. दिल के बहुत अच्छे होते हैं इस तरह के लोग. ज्यादा मीठे लोग तो मुझे वैसे ही अच्छे नहीं लगते,’’ मेरी पत्नी बोली.

फिर बुरा सा मुंह बना कर वह वहां से चली गई. मुझे शर्माजी को समझने का एक नया ही नजरिया मिला. याद आया, उस दिन सब हमारी एक सहयोगी की शादी के लिए तोहफा खरीद रहे थे. तय हुआ था कि सभी 500-500 रुपए एकत्र करें तो औफिस की तरफ से एक अच्छा तोहफा हो जाएगा. जातेजाते सब से पहले शर्माजी 500 रुपए का नोट मेरी मेज पर छोड़ गए थे. किसी के लिए कुछ देने में भी पीछे नहीं थे, मगर आगे आ कर सब की बहस में पड़ने में सब से पीछे थे.

‘‘जिस को जो करना है उसे करने दो, एक बार ठोकर लगेगी दोबारा नहीं करेगा और जिसे एक बार ठोकर लग कर भी समझ में नहीं आता उसे एक और धक्का लगने दो. जो चीज हम मांबाप हो कर अपनी औलाद को नहीं समझा सकते, उसी औलाद को दुनिया बड़ी अच्छी तरह समझा देती है. दुनिया थोड़े न माफ करती है.’’

‘‘बेटी मुंहजोर हो गई है, अपना कमा रही है. उसे लगने लगा है हमसब बेवकूफ हैं. छोटेबड़े का लिहाज ही नहीं रहा, आजाद रहना चाहती है. आज हमारा मान नहीं रखती, कल ससुराल में क्या करेगी? अच्छा रिश्ता हाथ में आया है. शरीफ, संस्कारी परिवार है मगर समझ नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘अपना सिक्का खोटा है तो मान लीजिए साहब, ऐसा न हो कि लड़के वालों का जीना ही हराम कर दे. अपने घर ही इस तरह की बहू चली आई तो बुढ़ापा गया न रसातल में. लड़के वालों पर दया कीजिए. आजकल तो वैसे भी सारे कानून लड़की के हक में हैं.’’

लंचबे्रक में शर्माजी की बातें कानों में पड़ीं. तिवारीजी अपनी परेशानी उन्हें बता रहे थे. बातें निजी थीं मगर सर्वव्यापी थीं. हर घर में बेटी है और बेटा भी. मांबाप हैं और नातेरिश्तेदार भी. उम्मीदें हैं और स्वार्थ भी. तिवारीजी अपना ही पेट नंगा कर के शर्माजी को दिखा रहे थे जबकि सत्य यह है कि अपने पेट की बुराई अकसर नजर नहीं आती. अपनी संतान सही नहीं है, यह किसी और के सामने मान लेना आसान नहीं होता.

‘‘बेटी को समय दीजिए, किसी और का घर न उजड़े, इसलिए समस्या को अपने ही घर तक रखिए. जब तक समझ न आए इंतजार कीजिए. शादी कोई दवा थोड़ी है कि लेते ही बीमारी चली जाएगी. शादी के बाद वापस आ गई तो क्या कर लेंगे आप? आज 25 की है तो क्या हो गया. पढ़नेलिखने वाले बच्चों की इतनी उम्र हो ही जाती है.’’

तर्कसंगत थीं शर्माजी की बातें. यह हर घर की कहानी है. नया क्या था इस में. पिछली मेज पर बैठेबैठे सब  मेरे कानों में पड़ा. तिवारीजी के स्वभाव पर हैरानी हुई. अत्यंत मीठा स्वभाव है उन का और शर्माजी के विषय में उन की राय ज्यादा अच्छी भी नहीं है और वही अपनी ही बच्ची की समस्या उन्हें बता रहे हैं जिन्हें वे ज्यादा अच्छा भी नहीं मानते.

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं, आप को ही कमाती बेटी सहन नहीं हो रही? आप को ही लग रहा हो कि बेटी पर काबू नहीं रहा क्योंकि अब वह आप के सामने हाथ नहीं फैलाती. अपनी तनख्वाह अपने ही तरीके से खर्च करती है. शायद आप चाहते हों, वह पूरी तनख्वाह जमा करती रहे और आप से पहले की तरह बस जरा सा मांग कर गुजारा करती रहे.’’

चुप रहे उत्तर में तिवारीजी. क्योंकि मौन पसर गया था. मेरे कान भी मानो समूल चेतना लिए खड़े हो गए.

‘‘मैं आप की बच्ची को जानता नहीं हूं मगर आप तो उसे जानते हैं न. बच्ची मेधावी होगी तभी तो पढ़लिख कर आज हर महीने 40 हजार रुपए कमाने लगी है. नालायक तो हो ही नहीं सकती और हम ने अपनी नौकरी में अब जा कर 40 हजार रुपए का मुंह देखा है. जो बच्ची रातरात भर जाग कर पढ़ती रही, उसे क्या अपनी कमाई खुद पर खर्च करने का अधिकार नहीं है? क्या खर्च कर लेती होगी भला? महंगे कपड़े खरीद लेती होगी या भाईबहनों पर लुटा देती होगी और कब तक कर लेगी? कल को जब अपनी गृहस्थी होगी तब वही चक्की होगी जिसे आज तक हम भी चला रहे हैं. आज उस के पिता को एतराज है, कल उस के पति को भी होगा. एक मध्यवर्ग की लड़की भला कितना ऊंचा उड़ लेगी? मुड़मुड़ कर नातेरिश्तों को ही पूरा करेगी. उस के पैर जमीन में ही होंगे, ऐसा मैं अनुमान लगा सकता हूं. बच्ची को जरा सा उस के तरीके से भी जी लेने दीजिए. जरा सोचिए तिवारीजी, क्या हम और आप नहीं चाहते,’’ कह कर शर्माजी चुप हो गए.

तिवारीजी उठ कर चले गए और मैं चुपचाप किसी किताब में लीन हो गए शर्माजी को देखने लगा. हैरान था मैं. उस दिन मुझ से कह रहे थे वे कि किसी के निजी मामले में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते और जो अभी सुना वह दिलचस्पी नहीं थी तो क्या था. ऐसी दिलचस्पी जिस में तिवारीजी को भी पूरीपूरी जगह दी गई थी और उन की बच्ची को भी.

‘शर्माजी रूखेरूखे हैं, कड़वा बोलते हैं’, ‘तिवारीजी बड़े मीठे हैं. किसी को नाराज नहीं करते,’ सब को ऐसा लगता है तो फिर अपनी समस्या ले कर तिवारीजी शर्माजी के पास ही क्यों आए? शर्माजी कड़वे हैं, लेकिन उन पर भरोसा किया न तिवारीजी ने. सत्य है, कड़वा इंसान स्पष्ट भी होता है और भरोसे लायक भी. तिवारीजी शर्माजी के बारे में क्या राय रखते हैं, सब को पता है. तिवारीजी सब के चहेते हैं तो अपनी समस्या स्वयं क्यों नहीं सुलझाई और क्यों किसी और से कह कर अपनी समस्या सांझी नहीं की? सब से छिप कर मात्र शर्माजी से ही कही. मैं एक कोने में जरा सी आड़ में बैठा था, तभी उन्हें नजर नहीं आया वरना मुझे कभी भी पता न चलता.

उस शाम जब घर आया तब देर तक शर्माजी के शब्दों को मानसपटल पर दोहराता रहा.  अपने ही तरीके से जरा सा जी लेने की चाहत भला किस में नहीं है. जरा सा अपना चाहा करना, जरा सी अपनी चाही जिंदगी की चाहत हर किसी को होती है.

तिवारीजी की बच्ची को मैं ने देखा नहीं है मगर यही सच होगा जो शर्माजी ने समझा होगा. क्या बच्ची को जरा सा अपने तरीके से खर्च करने का अधिकार नहीं है? क्या तिवारीजी इसी को मुंहजोरी कह रहे थे? सत्य है संस्कार सदा मध्यम वर्ग में ही पनपते हैं. हम बीच के स्तर वाले लोग ही हैं जो न नीचे गिर सकते हैं न हवा में  हमें उड़ना आता है. मध्यम वर्ग ही है जिसे समाज की रीढ़ माना जाता है और मध्यम वर्ग की बच्ची अपनी मेहनत की कमाई पर आत्मसंतोष महसूस करती होगी, गर्व मानती होगी. जहां तक मेरा सवाल है मेरी भी यही सोच है, तिवारीजी की बच्ची मुंहजोर नहीं होगी.

कुछ दिनों बाद तिवारीजी का चेहरा कुछ ज्यादा ही दमकता सा लगा मुझे.

‘‘आज बहुत खिल रहे हैं साहब, क्या बात है?’’

‘‘बेटी की लाई नई महंगी कमीज जो पहनी है आज. कल मेरा जन्मदिन था.’’

सच में तिवारीजी पर अच्छे ब्रांड की कमीज बहुत जंच रही थी. महंगा कपड़ा सौम्यता में चारचांद तो लगाता ही है. उन की बच्ची की पसंद भी बहुत अच्छी थी. शर्माजी मंदमंद मुसकरा रहे थे. मानो तिवारीजी के चेहरे के संतोष में, दमकती चमक में उन का भी योगदान हो क्योंकि तिवारीजी तो अपनी बच्ची को बदतमीज और आजाद मान ही चुके थे. मैं बारीबारी से दोनों का चेहरा पढ़ रहा था.

‘‘आप की बच्ची क्या करती है तिवारीजी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एमबीए है, एक बड़ी कंपनी में काम करती है. बड़ी होनहार है. खुशनसीब हूं मैं ऐसी औलाद पा कर.’’

बात पूरी तरह बदल चुकी थी. शर्माजी अपने काम में व्यस्त थे, मानो अब उन्हें इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं हो. तिवारीजी संतोष में डूबे अपनी बच्ची की प्रशंसा कर रहे थे, मानो उस दिन की उन की चिंता अब कहीं है ही नहीं.

‘‘अकसर लोग खुश होना भूल जाते हैं विजयजी. खुशी भीतर ही होती है. मगर उसे महसूस ही नहीं कर पाते. जैसे मृग होता है न, जिस की नाभि में कस्तूरी होती है और वह पागलों की तरह जंगलजंगल भटकता है.’’

सच में बहुत खुश थे तिवारीजी. और भी बहुत कुछ कहते रहे. मैं ने नजरें उठा कर शर्माजी को देखा. मुझे उन के पहले कहे शब्द याद आए, ‘अकसर लोगों को मैं पसंद नहीं आता.’

दोटूक बात जो करते हैं, चाशनी में घोल कर विषबाण जो नहीं चलाते, तभी तो भरोसा करते हैं उन पर तिवारीजी जैसे मीठे चापलूस लोग भी. पसंद का क्या है, वह तो बदलती रहती है. शर्माजी पहले दिन भी मुझे अच्छे लगे थे और आज तो और भी ज्यादा अच्छे लगे. एक सच्चा इंसान, जिस पर मैं वक्त आने पर और भी ज्यादा भरोसा कर सकता हूं, ऐसा भरोसा जो पसंद की तरह बदलता नहीं. प्रिय और पसंदीदा बनना आसान है, भरोसेमंद बनना बहुत कठिन है.

Interesting Hindi Stories : हिमशैल – क्या सगे भाई विजय और अजय के आपसी रिश्तों में मधुरता आ पाई?

Interesting Hindi Stories :  ‘‘अजय, अब केवल तुम्हारे लिए हम चाचाजी के परिवार को तो छोड़ नहीं सकते. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाएंगे ही.’’

बड़े भाई विजय के पिघलते शीशे से ये शब्द अजय के कानों से होते हुए सीधे दिलोदिमाग तक पहुंच कर सारी कोमल भावनाओं को पत्थर सा जमाते चले गए थे, जो आज कई महीने बाद भी उन के पारिवारिक सौहार्द को पुनर्जीवित करने के प्रयास में शिलाखंड से राह रोके पड़ेथे.

आपसी भावनाओं के सम्मान से ही रिश्तों को जीवित रखा जा सकता है पर जब दूसरे का मान नगण्य और अपना हित ही सर्वोपरि हो जाए तो रिश्तों को बिखरते देर नहीं लगती. अजय ने अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाने के बजाय संयुक्त परिवार से निर्वासन स्वीकार कर लिया था.

धीरेधीरे नेहा की गोदभराई की तिथि नजदीक आती जा रही थी पर दोनों भाइयों के बीच की स्थिति ज्यों की त्यों थी और जब आज सुबह से ही विजय के घर में लाउडस्पीकर पर ढोलक की थापों की आवाज रहरह कर कानों में गूंजने लगी तो अजय की पत्नी आरती न चाहते हुए भी पुरानी यादों में खो सी गई.

वक्त कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब वह अपने पूरे वजूद के साथ सामने आता है. कल तक छोटी सी नेहा उस के आगेपीछे चाचीचाची कह कर भागती रहती थी. उस का कोई काम चाची के बिना पूरा ही नहीं होता था और आज वह एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही है तो एक बार भी उसे अपनी चाची की याद नहीं आई. शायद अब भी उस की मां ने उसे रोक लिया हो पर एक फोन तो कर ही सकती थी…ऊंह, जब उन लोगों को ही उस की याद नहीं आती तो वह क्यों परेशान हो. उस ने सिर झटक कर पुरानी यादों को दूर करना चाहा, पर वे किसी हठी बालक की तरह आसपास ही मंडराती रहीं. उस ने ध्यान हटाने के लिए खुद को व्यस्त रखना चाहा पर वे शरारती बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर उसे फिर अतीत में खींच ले गईं.

तीनों भाइयों, विजय, अजय व कमल में कितना प्यार था. उस के ससुर रायबहादुर पत्नी के न होने की कमी महसूस करते हुए भी उन के द्वारा लगाई फुलवारी को फलताफूलता देख खुशी से भर उठते थे. उच्चपदासीन बेटे, आज्ञाकारी बहुएं व पोतेपोतियों से भरेपूरे परिवार के मुखिया अपने छोटे भाई के परिवार को भी कम मान व प्यार नहीं देते थे. जो उसी शहर में कुछ ही दूरी पर रहते थे.

हर तीजत्योहार पर दोनों परिवार जब एकसाथ मिल कर खुशियां मनाते तो घर की रौनक ही अलग होती थी. उन के खानदानी आपसी प्यार का शहर के लोग उदाहरण दिया करते थे पर न तो समय सदैव एक सा रहता है और न ही एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर होती हैं.

रायबहादुर के छोटे भाई भी उन्हीं की तरह सज्जन थे परंतु कलेक्टर पति के पद के मद में डूबी उन की पत्नी जानेअनजाने अपने बच्चों में भी अहंकार भर बैठी थीं. पिता के पद का दुरुपयोग उन्हें घर में विलासिता व कालिज में यूनियन का नेता तो बना गया पर न तो पढ़ाई में अव्वल बना सका और न ही मानवीय मूल्यों की इज्जत करने वाला संस्कारशील स्वभाव दे सका. जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, व्यर्थ के कामों में समय गंवा कर वे खुद ही अपना रास्ता अवरुद्ध करते गए. बीता समय तो लौट कर आता नहीं, आखिर मन मार कर उन्हें साधारण नौकरियों पर ही संतोष करना पड़ा.

संतान ही मांबाप का सिर गर्व से ऊंचा कराती है. जब कलेक्टर की बीवी अपने जेठ रायबहादुर के परिवार पर निगाह डालतीं तो अपने बच्चों के साधारण भविष्य का एहसास उन्हें मन ही मन कुंठित कर देता पर उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उन जैसे लोग अपने सुख से इतना सुखी नहीं होते जितना कि दूसरे के सुख से दुखी. उन के अंदर के ईर्ष्यालु भाव से अनजान रायबहादुर की दोनों बहुएं आरती व भारती, जो देवरानीजेठानी कम, बहनें ज्यादा लगती थीं, अपनी सास की कमी चचिया सास की निकटता पा कर भूल जाती थीं. यद्यपि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही आरती को चचिया सास का वैमनस्य से भरा व्यवहार उलझन में डालने लगा था. चाचीजी अकसर उस के कामों में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे शर्म्ंिदा करने का बहाना ढूंढ़ती रहती थीं और हर झिड़की के साथ वह यह जरूर कहती थीं, ‘अजय अपनी पसंद की लड़की ब्याह तो लाया है, देखते हैं कितना निभाती है. इतनी अच्छी लड़की बताई थी पर जरा कान नहीं दिया.’

अपनी बात न रखे जाने का मलाल वाणी से स्पष्ट झलकता था. शायद इसीलिए वह चाची की आंख में सदैव कांटा सी खटकती रही. चोट खाए अहं के कारण ही शायद चाची कभी किसी बात के लिए उस की प्रशंसा न कर सकीं. घर में शांति बनाए रखने के लिए व्यर्थ के वादविवाद में न पड़ कर, छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज कर के वह उन के मनमुताबिक ही कर देती.

आरती जितनी झुकती गई उतना ही वे अजय व आरती के खिलाफ जहर घोलते हुए एक कूटनीति के तहत विजय व भारती के प्रति प्रेमप्रदर्शन करती गईं. दूध चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, विष की एक बूंद ही उसे विषैला बनाने के लिए काफी होती है. शुरू में तो भारती व आरती एकदूसरे का सुखदुख बांट लेती थीं पर विजय व भारती का चाची के परिवार के प्रति बढ़ता झुकाव, साथ ही अपने सगे भाई अजय व पिता की उपेक्षा से उन के आपसी रिश्तों में दूरियां आने लगीं.

अच्छाई से अधिक बुराई अपना असर जल्दी दिखाती है. उन के इस पक्षपातपूर्ण रवैए का असर घर के निर्मल वातावरण को भी दूषित करने लगा था. आपसी प्यार का स्थान प्रतिस्पर्धा ने ले लिया. चचिया सास के प्रपंच से अनजान उन की आंखों का तारा बनी भारती को भी अब अजय व आरती की हर बात में स्वार्थ ही नजर आता. उन के भले के लिए कही गई सही बात भी गलत लगती.

कई कलाओं की जानकार आरती के पास जब जेठानी के बच्चे नेहा, नीतू व शिशिर अपने स्कूल की हस्तकला प्रतियोगिता के लिए वस्तुएं बनाना सीख रहे होते तो खुद को उपेक्षित समझ भारती इसे अपना अपमान समझती. अपने बच्चों का उन लोगों के प्रति स्नेह भी उसे आरती का षड्यंत्र ही लगता.

‘अब तो हर चीज बाजार में मिलती है, खरीद कर दे देना. समय क्यों खराब कर रहे हो तुम लोग, उठो यहां से और पढ़ने जाओ,’ कहती हुई भारती बच्चों को स्वयं कुछ करने या सीखने की प्रेरणा से विलग करती जा रही थी.

रायबहादुर घर में आए इस बदलाव को महसूस तो कर रहे थे पर कारण समझने में असमर्थ थे इसलिए केवल मूकदर्शक ही बन कर रह गए थे. इनसान बाहर के दुश्मनों से तो लड़ सकता है किंतु जब घर में ही कोई विभीषण हो तो कोई क्या करे. अपनों से धोखा खाना बेहद सरल है. कहते हैं कि औरत ही घर बनाती है और वही बिगाड़ती भी है. यदि परिवार में एक भी स्त्री गलत मंतव्य की आ जाए तो विनाश अवश्यंभावी है.

उम्र बढ़ने के साथसाथ आरती की चचिया सास के निरंकुश शासन का साम्राज्य भी बढ़ता रहा. इस बात का तकलीफदेह अनुभव तब हुआ जब चाचीजी के सौतेले भाई ने अपने बेटे के विवाह में बहन की नाराजगी के डर से अजय व रायबहादुर को विवाह का आमंत्रणपत्र ही नहीं भेजा. लोगों द्वारा उन के न आने का कारण पूछने पर उन का पैसों का अहंकार प्रचारित कर दिया गया. हालांकि चाचाजी ने इस का विरोध किया था किंतु तेजतर्रार चाची के सामने उन की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई थी.

मृतप्राय रिश्तों के ताबूत में आखिरी कील उन्होंने तब ठोंक दी जब अजय के बेटे अंशुल के जन्मदिन की पार्टी में रायबहादुर द्वारा सानुरोध सपरिवार आमंत्रित होेने के बाद भी केवल चाचाजी थोड़ी देर के लिए आ कर रस्म अदायगी कर गए. केवल लोकलाज के लिए रिश्तों को ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रह गया था. इसीलिए सगी भतीजी नेहा के विवाह आमंत्रण पर अजय ने साफ कह दिया कि यदि चाचाजी के परिवार को बुलाया गया तो हमारा परिवार नहीं जाएगा.

हमेशा की तरह बिना कारण पूछे विजय छूटते ही बोला, ‘अजय, तुम तो लड़ने का बहाना ढूंढ़ते रहते हो, इसीलिए सब तुम से दूर होते जा रहे हैं.’

‘अपने दूर क्यों हो रहे हैं, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि समझना ही नहीं चाहते. मैं न किसी से लड़ने जाता हूं और न अहंकारी हूं. हां, साफ कहने का माद्दा रखता हूं और गलत बात बरदाश्त नहीं करता. मुझे तो भाई आश्चर्य इस बात का है कि जब वे आप को गलत नहीं लगे तो मैं क्यों लग रहा हूं या तो आप को पूरी बातें पता ही नहीं हैं या मेरी इज्जत आप के लिए कोई माने नहीं रखती है. कोई हो या न हो पर पिताजी मेरे साथ हैं और यही मेरे लिए काफी है,’ अजय एक सांस में बोल गया.

‘तुम्हीं लोगों को शिकायतें रहती हैं. पिताजी तो मेरे यहां हर फंक्शन पर आते हैं और चाचाजी व अन्य सब से ठीक से बोलते भी हैं.’

‘संतान का मोह ही उन्हें खींच कर ले जाता है. संतान चाहे कितना भी दुख दे मांबाप का प्यार तो निस्वार्थ होता है. आप ने कभी उन का दर्द महसूस ही नहीं किया. रही बात चाचाजी से पिताजी के बोलने की, तो हम लोग उस स्तर तक असभ्य नहीं हो सकते कि कोई बात करे तो जवाब न दें या अपने घर फंक्शन पर बुला कर खाने तक के लिए न पूछें. क्या आप के लिए चाचाजी, सगे भाई व पिता की खुशी से भी ज्यादा बढ़ कर हैं?’

‘जो भी हो…पर अजय…अब केवल तुम्हारे लिए मैं चाचाजी के पूरे परिवार को तो नहीं छोड़ सकता. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाऊंगा ही,’ विजय जैसे कुछ सुननेसमझने को तैयार ही न था.

‘तो ठीक है, हमें ही छोड़ दीजिए,’ भारी मन से कह अजय सब के बीच से उठ कर चला गया था. पर इस एक पल में अंदर कितना कुछ टूट गया, कौन जान सका. एक क्षण को विजय अपने ही शब्दों की चुभन से आहत हो उठा था. किंतु बंदूक से निकली गोली और मुंह से निकली बोली तो वापस नहीं हो सकती.

उस दिन का व्याप्त सन्नाटा आज तक नहीं टूट पाया था. तभी महरी की आवाज से आरती की तंद्रा भंग हो गई.

‘‘बीबीजी, आप नहीं जाएंगी नेहा बिटिया की गोदभराई पर?’’ आंखों में कुटिल भाव लिए पल्लू से हाथ पोंछती महरी ने पूछा था.

‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब है…जाओ, अपना काम करो,’’ उस की चुगलखोरी की आदत से अच्छी तरह परिचित आरती ने उसे झिड़क दिया. वह मुंह बनाती हुई चली गई. आरती ने जा कर दरवाजा बंद कर लिया. मन की थकान से तन भी क्लांत हो उठा था. वह कुरसी पर अधलेटी सी आंखें बंद कर बैठ गई.

घर में फैले तनाव को भांप कर दोनों बच्चे अंशुल व आकांक्षा स्कूल से आ कर चुपचाप खाना खा कर अपने कमरे में पढ़ने का उपक्रम कर रहे थे. अजय के आने में देर थी. विजय का बेटा शिशिर जब बुलाने आया तो पिताजी न चाहते हुए भी उस के साथ नेहा की गोदभराई में चले गए थे. घर के एकांत में लाउडस्पीकर पर गानों की आवाज से ज्यादा पुरानी यादों की गूंज थीं.

आपसी रिश्तों में ख्ंिचाव व नया मकान बन जाने पर अजय अपने परिवार व पिता के साथ पुश्तैनी मकान, जिस में विजय का परिवार भी रहता था, छोड़ कर पास ही बने अपने नए बंगले में शिफ्ट हो गया था. दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार होते हुए भी न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति उन के संबंधों को पुन: मधुर बनने से रोकती रही. स्थान की दूरी तो इनसान तय कर सकता है पर दिलों के फासले दूर करना इतना आसान नहीं है.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. अन्यमनस्क सी आरती ने उठ कर द्वार खोला तो सगे देवर कमल व उस की पत्नी पूजा को आया देख सुखद आश्चर्य से भर उठीं.

‘‘आइए, अंदर आइए, कमल भैया. पूजा…कब आए लंदन से?’’ अपनों से मिलने की प्रसन्नता आंखें नम कर गई.

‘‘भाभी, बस, अभी 2 घंटे पहले ही पहुंचे हैं. पर यह सब हम क्या सुन रहे हैं. आप लोग सगाई में शरीक नहीं होंगे?’’

अंदर आ कर कमल और पूजा ने आरती को पेर छूते हुए पूछा तो अनायास ही उस की आंखें भर आईं. पूजा को उठा कर गले से लगाती हुई बोली, ‘‘लोग तो अपने देश में रह कर भी आपसी सभ्यता व संस्कार याद नहीं रखते. तुम लोग विदेश जा कर भी भूले नहीं हो.’’

‘‘हां, भाभी, विदेश में सबकुछ मिलता है. हर चीज पैसों से खरीदी जा सकती है पर बड़ों का आशीर्वाद और प्यार बाजार में नहीं बिकता. सच, आप सब की वहां बहुत याद आती है. चलिए, तैयार हो जाइए. ऐसा भी कहीं हो सकता है, घर में शादी है और आप लोग यहां अकेले बैठे हैं,’’ पूजा मनुहार करती सी बोली.

आरती के चेहरे पर कई रंग आ कर चले गए. तभी अजय भी आ गए. बरसों बाद मिले सब एकदूसरे का सुखदुख बांटते रहे. आखिर, कमल के बहुत पूछने पर अजय ने उन को अपने न जाने की वजह बता दी.

‘‘यहां इतना कुछ हो गया और आप लोगों ने हमें कुछ बताया ही नहीं. उन सब की ज्यादतियों का हिसाब तो हम लोग ले ही लेंगे पर अभी तो आप लोग चलिए वरना हम भी नहीं जाएंगे और आप खुद को अकेला न समझें भैया. मैं हूं न आप के साथ,’’ कमल उत्तेजित हो कर बोला.

‘‘जहां इज्जत न हो वहां न जाना ही बेहतर है. यह हमारा अहंकार या जिद नहीं स्वाभिमान है. हद तो यह है कि चाचीजी के भाई सौतेले हो कर भी उन की गलत बात मान लेते हैं और हम अपने सगे भाइयों से सही बात मानने की आशा न रखें. वे मुझे ही गलत समझते हैं. और तो और पिताजी की इच्छा का भी उन के लिए कोई महत्त्व नहीं है,’’ उदासी अजय की आवाज से साफ झलक उठी थी. एक नजर सब पर डाल वह फिर कहने लगे, ‘‘इस निर्णय तक मुझे पहुंचने में तकलीफ तो बहुत हुई पर अब कोई दुख नहीं है. इसी बहाने मुझे अपने और बेगानों की पहचान तो हो गई.’’

‘‘हम लोगों के जाने न जाने से वहां किसी को क्या फर्क पड़ रहा है? एक बार भी किसी को इस परिवार की याद आई?’’ आरती कह ही रही थी कि…उस के कानों में नेहा के ये शब्द पड़े, ‘‘चाचीजी मुझे तो आप की बहुत याद आ रही थी…आना तो मैं बहुत पहले ही चाहती थी पर…बस…सोचती ही रह गई…अब तो जल्द ही मैं यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी. मुझ से कैसी शिकायत?’’ नेहा की आवाज सुन कर सब चौंक कर दरवाजे की तरफदेखने लगे.

सितारों जड़ी गुलाबी साड़ी में सजी नेहा बेहद सुंदर लग रही थी. अचानक उसे यों अपनी छोटी बहन के साथ आया देख सब हतप्रभ रह गए थे.

‘‘पगली…तुझ से कैसी शिकायत. तुम तो हमारी बच्ची ही हो. पर तुम इस समय यहां…घर में तुम्हारी ससुराल वाले आते ही होंगे,’’ आरती ने प्यार से नेहा को अंदर ला कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, चाचीजी, उन को बता कर आई हूं, सब आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं. पापा अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकते तो मैं भी अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकती. जब तक आप लोग नहीं आएंगे, मैं भी गोदभराई पर नहीं बैठूंगी,’’ नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए पास ही खड़े छोटे चचेरे भाईबहन को गले से लगा लिया, ‘‘और तुम भी तैयार हो जाओ. फेरों पर जीजाजी के जूते नहीं चुराओगी?’’

आकांक्षा व अंशुल आशा भरी नजरों से अजय व आरती को देखने लगे जो असमंजस में थे. तभी कमल उत्साहित हो कर बोल उठा, ‘‘ये हुई न बात. अब तो भैया आप को चलना ही होगा.’’

नेहा के प्यार व अपनत्व ने सब के दिलों को झकझोर दिया था. एकाएक नेहा कितनी समझदार व बड़ी लगने लगी थी. उस के आत्मविश्वास व प्यार भरे अधिकार ने एकबारगी सब को अभिभूत कर दिया था, कोई भी नफरत की दीवार अपनों के रिश्तों के प्यार से ज्यादा मजबूत नहीं होती, ढह ही जाती है. जरूरत केवल समय पर एक ईमानदार प्रयास करने की होती है. वर्षों तक हिमाच्छादित हिमखंड के अंदर बहते निर्मल जल के सोते जैसे अचानक राह मिलते ही बह निकलते हैं, यत्नपूर्वक अब तक रोके गए बहते आंसू ही उन के प्यार की अभिव्यक्ति बन गए थे.

‘‘हां, तुम लोगों को आना ही

होगा,’’ तभी दरवाजे से अंदर आते चाचाजी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘जाने- अनजाने तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है. मुझे इस का दुख है. खैर, अब दिल में कुछ न रखो. यह सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है. याद रखो. बंद मुट्ठी ही सवा लाख की होती है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, बहू,’’ चचिया सास पश्चात्ताप भरे स्वर में कह रही थीं, ‘‘नेहा ने मेरी आंखें खोल दी हैं. ईर्ष्या ने मुझे विवेकहीन बना दिया था…कहो तो मैं तुम दोनों के पैर भी…’’

सकपका कर आरती पीछे हट गई, ‘‘अरे, अरे, आप यह क्या कर रही हैं. आप तो हमारी बड़ी हैं.’’

‘‘हां, बड़ी तो हैं पर इन्हें बड़ों के फर्ज नहीं केवल अधिकार ही याद रहे,’’ पहली बार सब ने चाचाजी को गरजते सुना, ‘‘बड़प्पन बनाए रखने के लिए आचरण भी तो मर्यादित होना चाहिए.’’

चाचाजी के और अधिक उग्र क्रोध का लक्ष्य बनने से चाचीजी को बचाते हुए अजय बोला, ‘‘अब छोडि़ए भी, चाचाजी. पश्चात्ताप का एक आंसू ही सारे गिलेशिकवे दूर कर देता है. अपनी गलती का एहसास कर के क्षमाप्रार्थी होना ही सब से बड़ा बड़प्पन है. आप लोगों ने मेरे लिए इतना सोच लिया यही पर्याप्त है.’’

शाम का अंधेरा घिर आया था. कुरसी से जल्दी उठ कर उस ने स्विच आन किया तो कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा. रात्रि के 9 बज रहे थे. बाहर शाम से चीख रहे लाउडस्पीकर शांत हो चुके थे. सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर आने में उसे कुछ ही पल लगे थे. तब तक टेलीविजन देख रहे बच्चों ने दरवाजा खोल दिया था. अजय अंदर आते हुए उसे उनींदा सा देख पूछ रहे थे, ‘‘क्या हुआ…सो रही थीं?’’

‘‘हां…शायद झपकी सी आ गई थी…पर अब जाग गई हूं. आइए, खाना लगाती हूं.’’

रसोई की तरफ बढ़ती आरती सोच रही थी कि अवचेतन ने स्वप्न में उन की आशाओं को मूर्तरूप तो दे दिया था पर यथार्थ कितने कठोर होते हैं…बिलकुल हिमशैल की तरह जिस का केवल एकचौथाई भाग ही नजर आता है, शेष जलमग्न रहता है. जिंदगी स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं जिसे पसंद न आने पर मिटा कर पुन: लिख दें. यह तो अमिट शिलालेख है, जिसे चाहते न चाहते हुए भी हमें पढ़ना ही है.

Hindi Stories Online : आसमान की ओर

Hindi Stories Online :  मेरी यात्रा लगातार जारी है. मैं शायद किसी बस में हूं. मुझे यों प्रतीत हो रहा है. बस के भीतर बैठने की सीटें नहीं हैं. सब लोग नीचे ही बस के तले पर बैठे हैं. कुछ लोग इसी तल पर लेटे हैं. बस से बाहर जाने का कोई भी मार्ग अभी तक मुझे दिखाई नहीं दिया है और न ही किसी और कोे.

बस की दीवारों में छोटेछोटे छेद हैं, जिन में से रोशनी कभीकभी छन कर भीतर आ जाती है. जब रोशनी उन छिद्रों से बस के भीतर आती है तो उस से रोशनी की लंबीलंबी लकीरें बन जाती हैं. मेरे सहित सब लोग उसे पकड़ने की भरसक कोशिश करते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं. कोईर् भी उन को पकड़ नहीं पाया है. बहुत देर से कई लोग इस तरह की कोशिश कर चुके हैं.

बस को कौन चला रहा है, इस बात का भी अभी तक किसी को पता नहीं है. मैं कभीकभार बस के भीतर घूम लेता हूं, लेकिन यह खत्म होने को ही नहीं आती है. शायद यह बहुत लंबी है. मैं थकहार कर फिर वहीं आ बैठता हूं जहां से मैं उठ कर गया था. मेरी तरह और भी बहुत सारे लोग इस बस में घूमघूम कर फिर से वहीं आ बैठते हैं जहां से वे उठ कर जाते हैं.

यह एक बस है और यह कई सदियों से ऐसे ही चल रही है. सच बताऊं तो, पता मुझे भी पूरी तरह से नहीं है. मैं कई बार यह समझने की कोशिश करता हूं कि यह बस है या फिर कुछ और. लेकिन सच का पता नहीं चल रहा है. अजीब किस्म का रहस्य है, जिस का पता नहीं चल रहा है.

कभीकभार कुछ लोग आते हैं और हमारा खून निकाल कर ले जाते हैं. पूछने पर कुछ नहीं बताते. जब कभी गुस्सा कर लें, तो फिर बहुत एहसान से बताते हैं कि वे लोग इस बस को चला रहे हैं. इस बस को चलाने के लिए उन को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इस का तो उन लोगों को ही पता है. पूछें तो कहते हैं कि यह बस उन के अपने खून से चल रही है.

‘‘लेकिन खून तो आप लोग हमारा ले रहे हो?’’ हम में से कोई बोलता है.

‘‘तुम्हारा खून तो हम कभीकभार लेते हैं, बस तो हम अपने खून से ही चलाते हैं.’’

फिर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम तो नुचेसिकुड़े से कमजोर से हैं और वे हट्टेकट्टे, हृष्टपुष्ट जवान. समझ कुछ भी नहीं आता है. हर समय हम लोग परेशान रहते हैं. उन की पूंछें सदैव ऊपर आसमान की तरफ तनी हुई रहती हैं और हमारी जमीन पर लटकी रहती हैं, जैसे कि इन में हड्डी ही न हो. खून लेने आने वाले लोग कुछ देर बाद बदल जाते हैं. बहुत ही एहसान से वे हमारा खून ले कर जाते हैं जैसे कि वे लोग हम पर बहुत दया कर रहे हों. हम भी इस डर से खून दे देते हैं कि कहीं हमारी बस रुक ही न जाए. पसोपेश वाली स्थिति है कि यह बस है या फिर कुछ और, और यह हमें कहां ले जा रही है.

बस चलाने वाले पूछने पर गुस्सा करते हैं, कहते हैं, ‘‘आप लोग चुप रहो, आराम से बैठो, आप को कुछ नहीं पता है. आप, बस, हमें अपना खून दो.’’

कुछ देर बाद खून लेने वाले फिर बदल जाते हैं. यह भी समझ नहीं आता कि पहले वाले लोग कहां गए. पूछने पर कोई जवाब नहीं देते हैं. बारबार पूछने पर कहते हैं, ‘‘वे पहले वाले लोग सारा का सारा खून खुद ही डकार गए हैं, खून वाली सारी टंकी खाली है. अब हम क्या करें, हमें खून चाहिए, वरना बस नहीं चलेगी.’’

हम फिर अपना हाथ खून देने के लिए उन के आगे कर देते हैं. फिर बस चलती रहती है. फिर बस की दीवारों के छेदों से रोशनी की लकीरें अंदर तक पहुंचती हैं. फिर से हम लोग उन को पकड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी के भी हाथ नहीं आतीं. सब थकहार कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. कुछ दिनों पहले उड़ती हुई एक अफवाह आईर् थी कि बस को चलाने वाले कुछ लोग हमारे से लिए खून में से ज्यादा खून तो खुद ही पी जाते हैं और बाकी जो बच जाता है उसे बस की टंकी में डाल देते हैं. और कई बार तो वे लोग बस के पुर्जे तक खा जाते हैं.

यह तो गनीमत है कि बस के जो पुर्जे कम हो जाते हैं, वे कुछ दिनों बाद खुदबखुद ही पनप उठते हैं. बस में सफर करने वाले सब लोग भोलेभाले, ईमानदार और साफ दिल के हैं. कभीकभी वे लोग इस तरह की बातें सुन कर निराश हो जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद वे लोग फिर अपनेआप ही ठीक हो जाते हैं. यही आम आदमी की विशेषता है. वैसे इस के अलावा उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. और फिर जब उन का खून ले लिया जाता है तो वे फिर अपनेआप शांत हो जाते हैं.

बस बहुत समय से ऐसे ही चल रही है. कहां जा रही है, क्यों जा रही है, यह रहस्य है जो किसी को पता नही है. कभीकभार खून लेने वाले ही कह जाते हैं कि –

‘‘बस स्वर्ग जा रही है’’

‘‘परंतु इतनी देर…’’ हम में से कोई कहता है.

‘‘धैर्य रखो, रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है, समय तो लगता ही है,’’ वे कहते हैं.

हम लोग फिर उन की बातें सुन कर चुप हो जाते हैं. हम यह सोचते हैं कि ये चालाक व समझदार लोग हैं, ठीक ही कहते होंगे. देखेंभालें तो न बस का चालक दिखता है, न ही कोई इंजन और न ही कोई टैंक. खून किस टंकी में पड़ता है, कहां जाता है, यह भी पता नहीं चलता है. सभी रहस्यमयी विचारों में उलझे रहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है. कुछ लोग हमारा खून लेने के लिए आए थे. वे लोग नएनए ही लग रहे थे. वे बहुत जोशीले थे. वे बहुत ही चालाकी से बातें कर रहे थे. वे पूरे वातावरण में एक अलग तरह का उत्साह भर रहे थे. वे बहुत प्यार से हमारा खून ले रहे थे. सब ने उन की बातें सुन कर उन को बहुत ही प्यार व सम्मान सहित अपना खून दिया.

वे लोग सब को यह भरोसा दिला रहे थे कि हम लोग बहुत जल्दी स्वर्ग पहुंच जाएंगे. सब उन की बातें सुनसुन कर बहुत खुश हो रहे थे. कितनी देर से दबेकुचले हम लोग भी आखिरकार स्वर्ग को जा रहे हैं, यह सोचसोच कर बहुत खुशी हो रही थी. सब लोग मारे खुशी के उन की जयजयकार कर रहे थे.

कुछ दिनों बाद फिर वे लोग हमारा खून लेने के लिए आए. ये पहले से कुछ जल्दी आ गए थे. उन्होंने फिर हमारे भीतर जोश भरा. हमें फिर सब्जबाग दिखाए. हमारी बांछें खिल उठीं. हम फिर मुसकराए. उन की बातों में बहुत उत्साह व जोश था. उन की बातें सुनसुन कर हमारे भीतर भी जोश आ गया. चारों ओर फिर उन की जयजयकार होने लगी. जोश ही जोश में उन्होंने हमारा खून निकालने वाले टीके निकाल लिए और हमारा खून निकालना शुरू कर दिया.

सब ने बहुत खुशीखुशी अपना खून दिया. परंतु इस बार हमारा खून निकालने वाले टीके पहले से कुछ बड़े थे. लेकिन हमारे भीतर जोश इतना भर गया था कि हमें सब पता होते हुए भी बुरा न लगा. कुछ अजीब तो लगा परंतु ज्यादा बुरा न लगा. थोड़ा सा बुरा लगा लेकिन यह तो होना ही है, ठीक है, अब बस को चलाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही है. सब की आस्था बस के ठीक रहने और उस के स्वर्ग तक पहुंचने की है. बस, इसी जोश और जज्बे के चलते हर कोई अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार बैठा है.

अजीब बात तब हुई जब वे लोग फिर हमारे पास आए और हम से हमारी थोड़ीथोड़ी टांगों की मांग करने लगे. मतलब कि उन को हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े चाहिए थे. सब ने उन की इस मांग पर आपत्ति की. कोई भी उन को अपनी टांगें देने को तैयार नहीं था. उन को हमारी टांगें क्यों चाहिए, इस बात का किसी के पास कोई जवाब न था.

आखिर उन में से एक ने बताया कि वे लोग हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े ले कर बस में लगाएंगे ताकि बस तेजी से स्वर्ग की ओर जा सके. मेरे साथसाथ सब को बहुत बुरा लगा. सब ने फिर विरोध किया. कोई अपनी टांगों के टुकड़े देने को तैयार न था. आखिर वे लोग जोरजबरदस्ती पर उतर आए और हमारी टांगों के छोटेछोट टुकड़े उतार कर ले गए. हमारे सब के कद छोटे हो गए. आहिस्ताआहिस्ता यह परंपरा बन गई.

अब जब वे लोग हमारा खून लेने के लिए आते हैं तो वे हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर ले जाते हैं. पूछने पर कहते कि बस को बहुत सारी टांगों की जरूरत है. उस में लगा रहे हैं. परंतु अजीब बात तो यह है कि हम बस में लगी अपनी टांगें देख नहीं पाते हैं क्योंकि बस में से बाहर जाने को हमारे लिए कोईर् रास्ता ही नहीं है. बस को चलाने वाले कैसे बाहर जाते हैं, हमें इस का भी कोई पता नहीं है.

हमें कभीकभी अपनी अवस्था गुलामों जैसी लगती है. लेकिन जब हम उन खून लेने वाले लोगों की बातें सुनते हैं तो हमें लगता है कि हम लोग ही सबकुछ हैं, लेकिन कई बार लगता है कि हम लोग कुछ भी नहीं है. यह भी बहुत अजीब तरह का एहसास है.

एक और अजीब बात है कि हमारे कद तो छोटे होते जा रहे हैं और हमारा खून लेने वालों के कद बड़े. हम लोग सूखते जा रहे हैं और वे लोग ताकतवर होते जा रहे हैं. हमारी पूंछें तो जमीन पर लटकती जा रही हैं और उन की तनती जा रही हैं.

अजीब बात है कि हम लोगों को लगता है कि हमारी पूंछ में कोई हड्डी ही नहीं. बस चलाने वाले अकसर यह कहते है कि वे लोग बस में हमारी टांगें लगा कर उस को रेलगाड़ी बना देंगे और अगर आप का ऐसा ही सहयोग रहा तो एक दिन रेलगाड़ी को हवाईजहाज बना देंगे. उन की बातों में बहुत ही जोश है और बहुत ही उत्साह. सब लोग उन की ऐसी बातें सुन कर बहुत ही उत्साह में आ जाते हैं. सब को उन की बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये लोग एक न एक दिन उन को स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. हमारी बस को रेलगाड़ी और रेलगाड़ी को एक न एक दिन हवाईजहाज जरूर बना देंगे.

इसी विश्वास के साथ हम लोग हर बार उन की मांग के अनुसार उन को खून देने के लिए अपनेआप को उन के सम्मुख कर देते हैं. अपनी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर दे देते हैं, चाहे आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वाले टीकों के आकार बढ़ते जा रहे हों. हमारे कद छोटे होते जा रहे हैं और उन के बड़े. उन की पूंछें आसमान की ओर तनी जा रही हैं और हमारी जमीन पर लटकती जा रही हैं. लेकिन हम तो यही सोच कर अपना सबकुछ समर्पित करते जा रहे हैं कि एक न एक दिन ये लोग हमें स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. लेकिन हमारे नौजवान उन की आसमान की ओर तनी पूछें देख कर अकसर दांत पीसते नजर आते हैं.   यह भी खूब रही राम अपने कंजूस दोस्त श्याम को कथा सुनाने ले गया. दोनों जब वहां पहुंचे तो देखा कि चारों तरफ पंडाल रंगबिरंगे कपड़ों से सजा हुआ था. फूलमाला पहने कथावाचक लोगों को दानपुण्य की महिमा बता रहे थे. कहने का मतलब पूरी कथा में दानपुण्य की महिमा बताई गई थी. वापस आने के बाद राम ने पूछा, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है दान देने के बारे में?’’

श्याम ने कहा, ‘‘भाई, मैं तो धन्य हो गया आज की कथा सुन कर. सोच रहा हूं, मैं भी दान मांगना शुरू कर दूं.’’ यह सुनते ही राम की बोलती बंद हो गई.

मेरा बेटा 9 महीने का था. दिसंबर का महीना होने की वजह से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. एक दिन रात को करीब 3 बजे मेरे बेटे ने सोते समय पोटी कर दी. दांत निकल रहे थे, इसलिए पोटी पतली होने की वजह से उस के पैर भी गंदे हो गए थे.

पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा होेने की वजह से मैं ने बराबर में दूसरे बिस्तर पर सो रहे अपने पति को उठाया कि थोड़ा पानी गरम कर दें. जिस से मैं बेटे की पोटी साफ कर सकूं और उसे ठंड न लगे. किंतु मेरी बहुत कोशिश के बावजूद मेरे पति उठने को तैयार नहीं हुए. करवट बदल कर दूसरी तरफ मुंह कर के लिहाफ में दुबक कर सो गए.

मजबूर हो कर मैं ने बर्फ जैसे पानी से ही अपने बेटे की पोटी को साफ किया. पानी इतना ठंडा था कि मेरा बेटा बुरी तरह रो रहा था. मेरी भी उंगलियां ठंडे पानी की वजह से गली जा रही थीं. किंतु मेरे पतिदेव अब भी लिहाफ से मुंह ढक कर सो रहे थे. मैं ने जैसेतैसे बेटे को कपड़े से पोंछ कर सुखाया और लिहाफ में गरम कर के सुला दिया.

किंतु मेरी आंखों में नींद बिलकुल नहीं थी. मुझे पति पर गुस्सा आ रहा था कि उन के पानी न गरम करने की वजह से मुझे अपने बेटे को ठंडे पानी से साफ करना पड़ा और उसे परेशानी हुई.

अचानक मैं उठी और वही बर्फ जैसा पानी बालटी में ले आई. फिर गहरी नींद में सो रहे अपने पति के ऊपर उलट दिया. अब गुस्सा होने की बारी उन की थी. उन्होंने उठ कर एक जोर का चांटा मेरे गाल पर जड़ दिया. किंतु, फिर भी मैं उन को गीला करने के बाद अपने लिहाफ में चैन से सो गई.

आज उस घटना को 18 वर्ष बीत चुके, किंतु अब भी उस घटना को याद कर के हम लोग हंस पड़ते हैं.

Interesting Hindi Stories : कुढ़न – औरत की इज्जत से खेलने पर आमादा समाज

Interesting Hindi Stories : हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं. तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई. जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं. कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है. कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं. अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी. तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली. ‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा. पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’ ‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई. मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी. मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे. कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई. लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’ लक्ष्मी की इस बात पर कमला

चुप थीं. लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें… ‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए. ‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी. कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’ कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’ अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

Hindi Fiction Stories : समन का चक्कर – थानेदार की समझाइशों का जगन्नाथ पर कैसा हुआ असर

Hindi Fiction Stories :  अजीब मुसीबत है भई, जब मैं जगन्नाथ हूं तो विश्वनाथ नाम का चोला क्यों गले में डालूं. थानेदार की समझाइशों का असर मुझ पर होने ही वाला था कि दिमाग की बत्ती जल गई वरना हम तो गए थे काम से.

घर पहुंचा तो माताश्री ने एक कागज मेरी ओर बढ़ाया, ‘‘2 पुलिस वाले आए थे, उन्होंने कहा, जब तुम घर पहुंचो तो तुम्हें यह दिखला दूं.’’

पुलिस की बात सुनते ही मेरे हाथपांव फूल गए. कागज फौरन मैं ने लपक लिया. यह एसडीएम कोर्ट से जारी किसी विश्वनाथ नामक व्यक्ति के लिए समन था. इसे पुलिस वाले बिना पूछताछ किए मेरी माताजी को थमा कर चले गए थे. गांव की निपट मेरी अशिक्षित माताश्री ने बिना सोचेसमझे इसे ले कर ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी स्थिति मेरे लिए कर दी थी.

मामला कोर्ट का था. इस आई बला को टालने मैं फौरन थाने जा पहुंचा. पुलिस वालों की गलती बताते हुए समन वापस करना चाहा तो थानेदार ने हवलदार को तलब किया.

‘‘महल्ले वालों ने ही इन के घर का पता बताया था,’’ मुझे टारगेट करते हुए हवलदार ने बयान दिया,  ‘‘घर के बाहर टंगी इन की नेमप्लेट और यहां तक कि घर का नंबर मिलान करने के बाद ही समन तामील किया था.’’

‘‘अब तुम इनकार कर ही नहीं सकते, तुम वे नहीं हो, जिसे समन तामील किया गया है. यह समन तुम्हारा ही है. संभाल कर इसे रखो. बड़े काम की चीज है यह तुम्हारे लिए. कोर्ट में हाजिरी के समय इसे दिखाना पड़ेगा,’’ थानेदार ने मुझे समन का हकदार बता दिया.

बहरहाल, समन तामीली के सिलसिले में हवलदार ने मेरे घर का नंबर और उस के बाहर टंगी नेमप्लेट का हवाला दिया तो आखिर माजरा क्या है, मेरी समझ में आ गया.

दरअसल, जिस घर में मैं रहने लगा हूं, 2 दिन ही हुए थे किराए पर लिए उसे. पहले के किराएदार को 2-3 दिन ही हुए थे इसे खाली किए. घर खाली उस ने कर तो दिया, अपनी नेमप्लेट ले जाना भूल गया. यह विश्वनाथ वही व्यक्ति था, समन जिसे जारी किया गया था. घर को ठीक करने की हड़बड़ी में उस की नेमप्लेट की ओर मैं ध्यान दे नहीं पाया. इसी को देख कर पुलिस वालों ने माना होगा कि विश्वनाथ रहता यहीं है. वे मेरी माताजी को विश्वनाथ की माता समझ कर समन सौंप कर चले गए होंगे.

इस पूरे घटनाक्रम का बयान कर थानेदार के सामने मैं ने अपनी बात रखी, ‘‘फिर भी समन देते समय पुलिस वालों को साफसाफ बतला देना था कि वह किस के नाम है?’’

‘‘कहना तो तुम्हें यह चाहिए कि तामील करते वक्त महल्ले वालों का पंचनामा बनवा क्यों नहीं लिया गया?’’ थानेदार पुलिस की गलती मानने को तैयार नहीं था, ‘‘चूक सरासर तुम्हारी है, घर किराए पर लेते समय देख तो लेना था. बिना देखे आपराधिक रिकौर्ड वाले किराएदार के बाद घर आंख मूंद कर ले लिया. ऊपर से घर के बाहर टंगी उस की नेमप्लेट का इस्तेमाल भी करते रहे. आप को इस का मोल कभी न कभी चुकाना ही था. जब चुकाने की बारी आई तो अपनी गलतियों का ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ने लगे.’’

‘‘आप की बातें अपनी जगह ठीक हैं, पर इस समन का मैं करूंगा क्या?’’ थानेदार को मैं ने मनाने की कोशिश की कि समन वापस ले कर वे मुझे बख्श दें.

‘‘समन की तामीली रिपोर्ट कोर्ट में पेश की जा चुकी है. अब करना जो भी है, वह कोर्ट तय करेगा. तुम्हारे हक में करने को बस यह है कि समय पर कोर्ट में हाजिर हो जाओ,’’ थानेदार ने एक तरह से मेरी बेचारगी की बात कही.

‘‘क्या मैं आप को बलि का बकरा नजर आता हूं, विश्वनाथ के बदले जिस की बलि दी जा सके. अजीब मुसीबत है. मैं जब विश्वनाथ हूं ही नहीं, कोर्ट में फिर पेश क्यों होऊं? मुझे नहीं होना कोर्ट में पेश.’’

‘‘गिरफ्तारी वारंट जब जारी होगा, फिर तो होओगे न कोर्ट में पेश?’’ मेरी जिद का खमियाजा भुगतने की वह चेतावनी देने लगा.

‘‘यह तो नाइंसाफी है,’’ मैं ने विरोध किया.

‘‘समन जिस के करकमलों में दिया जाता है, बाद में जब उस की गिरफ्तारी की नौबत आती है, तुम्हीं बताओ, पुलिस किसे करेगी गिरफ्तार?’’ थानेदार ने कानून की दुहाई दी, ‘‘नाइंसाफी तब होगी जब समन की तामीली किसी और को और गिरफ्तारी किसी और की की जाएगी.’’

‘‘कोईर् तोड़ तो होगा इस चक्रव्यूह को भेदने का?’’ मैं ने उपाय पूछा.

‘‘इतनी देर से मैं तुम को समझा क्या रहा हूं? तुम्हारी मुक्ति के सभी रास्ते बंद हैं सिवा एक के, वह जाता सीधे कोर्ट को है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर जैसे ही जाने को हुआ, थानेदार के मन में अचानक मेरे लिए सहानुभूति उमड़ पड़ी, ‘‘वैसे क्या नाम बताया था आप ने अपना?’’

‘‘यदि मैं अपने मौलिक नाम के साथ कोर्ट में हाजिर होऊं तो? जानबूझ कर दूसरे का अपराध अपने सिर लेने की इजाजत मेरा जमीर मुझे दे नहीं रहा है.’’

‘‘मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि इतना समझाने के बावजूद तुम्हारे अंदर की गलत सोच जा क्यों नहीं रही? ठीक है, अपनी असलियत साबित करने के लिए कोर्ट के जब चक्कर पे चक्कर लगाने पड़ेंगे, फिर यह भी याद नहीं रहेगा कि जमीर किस चिडि़या का नाम है? कान उलटा क्यों पकड़ना चाहते हो?’’ थानेदार ने कोर्ट की दुनियादारी से रूबरू करवाया.

‘‘आप के कहने का मतलब है कि मेरी भलाई इसी में है कि कोर्ट के लिए मैं विश्वनाथ बना रहूं.’’

‘‘लगता है, तुम्हारे भेजे में बात घुसती देर से है,’’ उस ने मुझे आश्वस्त करने का प्रयास किया, ‘‘अभी तक मैं तुम्हें समझा क्या रहा हूं?’’

‘‘इतना भर और समझा दीजिए कि कोर्ट के सामने मुझे कहना क्या होगा?’’

‘‘मेरी समझाइशों का असर तुम पर होने लगा है,’’ उत्साहित हो कर उस ने कार्यक्रम बताया, ‘‘एसडीएम साहब के सामने कान पकड़ कर तुम्हें कहना है कि भविष्य में तुम महल्ले वालों से लड़ाईझगड़ा करने से तोबा करते हो. एकदो पेशी के बाद व्यवहार ठीक रखने की शर्त पर कोर्ट मामला बंद कर देगा.’’

दूसरे दिन एसडीएम कोर्ट जा कर पेशकार से मिला. मामले की पूरी जानकारी उसे दी. साथ ही, इस के निबटारे की दिशा में थानेदार की सलाह पर उस की प्रतिक्रिया जाननी चाही. यह सोच कर कि कहीं पुलिस वालों की गलती पर परदा डालने के लिए दूसरे का अपराध अपने सिर लेने के लिए थानेदार मुझे प्रोत्साहित तो नहीं कर रहा?

‘‘ऐसी खास सलाह कोई सुलझा हुआ पुलिस वाला ही दे सकता है,’’ थानेदार की वह प्रशंसा करने लगा, ‘‘भावुकता में बह कर भूले से भी अपनी असलियत कोर्ट को जाहिर मत कर देना.’’

‘‘वरना?’’ नतीजा मैं ने जानना चाहा.

‘‘थानेदार ने बताया नहीं?’’

‘‘आप के श्रीमुख से भी सुनना चाहता हूं.’’

‘‘मालूम होता है कि कोर्ट से पाला कभी पड़ा नहीं आप का. आप के कहने भर से कोर्ट आप को जगन्नाथ नहीं मान लेगा, साबित करना पड़ेगा? खुद को खुद साबित करने आप को जाने कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे. मामले में पेशीदरपेशी से परेशान हो कर हो सकता है कि इस के लिए आप को किसी वकील की सेवा में जाना पड़े. इस चक्कर में गांठ से पैसा जाएगा, सो अलग.’’ उस ने भी वही बात कही, जो थानेदार ने मुझ से कही थी.

‘‘कोर्टकचहरी के चक्कर में कभी पड़े?’’ कुछ देर बाद उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं.’’

‘‘तो विश्वनाथ बन कर अब पड़ जाओ. लेकिन इस मौके को हाथ से जाने मत दो. असल मामले में अदालत से सामना जब होगा, इस का तजरबा आप के काम आएगा,’’ प्रेरित करतेकरते वह उपदेश देने लगा, ‘‘आप को तो विश्वनाथजी का एहसानमंद होना चाहिए जिस की बदौलत अदालती कार्यवाहियों से रूबरू होने का मौका जो आप को मिलने जा रहा है.’’

सलाह के लिए उस का शुक्रिया अदा कर जैसे ही जाने लगा, उस ने मुझ से पूछ लेना जरूरी समझा, ‘‘यह तो बताते जाओ कि पेशी में पालनहार के किस रूप में अवतरित होगे?’’ उस ने आगे खुलासा किया, ‘‘कहने का मतलब है कि विश्वनाथ बन कर या जगन्नाथ के नाम से? पूछ इसलिए रहा हूं, यदि जगन्नाथ के रूप में प्रकट होना है तो आप की सुविधा के लिए कोई वकील तय कर के रखूंगा.’’

‘‘थानेदार और आप की लाख समझाइशों के बावजूद क्या मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो जगन्नाथ का चोला पहन कर आऊं?’’ हालत के मद्देनजर आखिरकार मैं ने हथियार डाल दिया, ‘‘समझ लीजिए जगन्नाथ तब तक के लिए मर गया है जब तक कोर्ट के लिए विश्वनाथ जिंदा है,’’ मैं ने उसे यकीन दिलाया.

‘‘यह की न बुद्धिमानों वाली बात.’’ अपनी शहादत के लिए अनुकूल विकल्प चुनने पर मेरी तारीफ किए बिना वह रह नहीं सका.

घर पहुंचते ही फौरन उस को खाली करने में मैं ने अपनी खैरियत समझी. इस आशंका से कि मेरा पर्यायवाची ‘विश्वनाथ’ इस घर में रहते हुए जाने और क्याक्या गुल खिला कर गया हो? उस के दुष्कमों का अदृश्य साया इस घर पर मंडराते हुए मुझे महसूस होने लगा था.

लेखक- दौलतराम देवांगन

Hindi Moral Tales : मंदिर – क्या अपनी पत्नी और बच्चों का कष्ट दूर कर पाएगा परमहंस

Hindi Moral Tales : परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’ मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’ ‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’

यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले. परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी. मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी.

बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़. परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’ ‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया. ‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी. सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया.

परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए. काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती.

वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो. सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’ ‘‘कोई उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली. परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’ सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था. ‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं. ‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा. सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया. ‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’ ‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया. ‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली. ‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए.

अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया. ‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’ परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था. परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी. परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई.

2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार. सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था.

यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था. दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए. परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी.

पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’ धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है.

हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं. इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’ चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी.

उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता. परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’ मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया.

यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था. परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी.

पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.

Latest Hindi Stories : पीर साहब – मां बनने की क्या नफीसा की मुराद पुरी हुई

 Latest Hindi Stories : नफीसा को तो पता ही नहीं चला कि नदीम कब उस के पास आ कर खड़ा हो गया था. जब नदीम ने उस के कंधे पर हाथ रखा तो वह चौक पड़ी और पूछा, ‘‘आप यहां पर कब आए जनाब?’’

‘‘जब तुम ने देखा,’’ कहते हुए नदीम ने नफीसा को गौर से देखा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’ नफीसा ने शरारत भरे लहजे में पूछा.

‘‘तुम वाकई बहुत खूबसूरत हो. ऐसा लगता है जैसे कमरे में चांद उतर आया है,’’ नदीम ने नफीसा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘आप की दीवानगी भी निकाह के 7 साल बाद भी कम नहीं हुई है,’’ नफीसा हंसते हुए बोली.

‘‘क्या करूं, यह तुम्हारे हुस्न की ही करामात है,’’ नदीम उस की हंसी को गौर से देखे जा रहा था.

‘‘बस… बस, मेरी ज्यादा तारीफ मत कीजिए,’’ कह कर नफीसा उठ कर जाने लगी तो नदीम ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘क्या कर रहे हैं आप… कोई आ जाएगा,’’ नफीसा बोली तो नदीम ने उस का हाथ छोड़ दिया और वह मुसकराते हुए कमरे से चली गई.

रात घिर चुकी थी. न जाने क्यों रात होते ही नफीसा घबरा जाती. उसे डर सा लगने लगता. नदीम उस के बगल में सो रहा होता था, मगर उसे लगता जैसे वह उस के पास रह कर भी अकेली है.

नफीसा सोचने लगी, ‘कितने साल गुजर गए या गुजरते जा रहे हैं… बिन बादल और प्यास से भरी जिंदगी में पानी तलाशते हुए हवा के साथ मैं बहुत दूर निकल जाती हूं, मगर मुझे कोई सहारा नजर नहीं आता है. बारिश का एक कतरा सीप के अंदर मोती पैदा कर देता है… मगर मैं?’

रात का पहला पहर बीत चुका था, मगर नफीसा जाग रही थी. न जाने उस ने ऐसी ही कितनी रातें आंखों में काटी थीं और दिन की तपती धूप में समय गुजारा था.

नफीसा खुश रहने की भरसक कोशिश करती, लेकिन एक कसक थी जो उसे हमेशा तड़पाए रहती. शादी के 7 साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक मां नहीं बन सकी थी.

नफीसा को दिल के पास एक चुभन और घुटन सी महसूस होती. उस की आंखें आसमान से हट कर जमीन पर टिक जाती थीं.

यह जमीन भी न जाने कितनी ही चीजें पैदा करती है. अनाज से ले कर कोयला, पत्थर, सोना और लोहा भी, मगर उस की अपनी जमीन जैसे बंजर हो गई थी.

कभीकभी नफीसा पलंग पर निढाल हो कर सिसकने लगती. मगर कुसूर उस का नहीं था और न ही कमी नदीम में थी. फिर इस बात का इलजाम किस पर लगाया जाए.

नदीम नफीसा को हर तरह से खुश रखने की कोशिश करता, मगर नफीसा जब नदीम की अम्मां का चेहरा देखती तो कांप सी जाती. जबान से न कहते हुए भी आंखों और चेहरे से मां बहुतकुछ कह जातीं, ‘मुझे तो खानदान की फिक्र है. ऐसा लगता है, अब खानदान का यहीं पर खात्मा हो जाएगा. घर में कोई चिराग जलाने वाला भी न होगा. कोई फातिहा भी न पढ़ेगा.’

न जाने कितनी बातें, शिकायतें और ताने अम्मां के चेहरे से जाहिर थे, मगर बेटे की वजह से मानो उन की जबान गूंगी हो गई थी.

नफीसा बखूबी समझती भी थी कि अम्मां अंदर ही अंदर दुख से भरी हैं और यह लावा किसी दिन भी ज्वालामुखी बन कर बाहर आ सकता है. फिर शायद नदीम भी उस से अपनेआप को महफूज न रख पाए और अम्मां के कहने पर कोई ऐसा कदम उठा ले, जो उस के वजूद को तारतार कर दे… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस का नदीम ऐसा हरगिज नहीं कर सकता. वह उसे जुनून की हद तक मुहब्बत करता है.

नफीसा ने कई बार जानेमाने डाक्टरों को दिखाया. तावीज और मिन्नत का सहारा लिया लेकिन मायूसी के सिवा कुछ न मिला.

नदीम ने भी माहिर डाक्टर के पास जा कर अपना चैकअप कराने में कोई कसर न उठा रखी थी, फिर भी नफीसा का दामन खाली ही रहा.

नफीसा हर उस हसीन लमहे का इंतजार करती, जब उस की उम्मीद पूरी हो, उस की गोद भरे और वह खुशी से फूली न समाए, लेकिन जैसे खुशी उस से रूठ गई थी.

अम्मां चाहती थीं कि जल्द से जल्द उन का घर बच्चे की किलकारियों से गूंज उठे. 2 नन्हेनन्हे हाथ उन की तरफ बढ़ें. लड़खड़ाते कदमों से कोई उन की तरफ कदम बढ़ाए और वे दौड़ कर उसे गले लगा लें. उसे खूब चूमें और सारा प्यार उस पर न्योछावर कर दें.

इस के लिए नफीसा ने हर तरह की कोशिश की, दवा से ले कर दुआ तक. यहां तक कि अब उस ने मजारों की भी खाक छाननी शुरू कर दी थी कि शायद उस का घर रोशन हो जाए.

शहर में उन दिनों शाह सलमान शफीउद्दीन की काफी चर्चा थी. दूरदूर तक उन के मुरीद थे. एक जमाने में नदीम की अम्मां भी उन की मुरीद हो चुकी थीं. उस समय नदीम के पिता जिंदा थे. लेकिन फिर कभी उन के पास जाने का इत्तिफाक न हुआ था.

आज अचानक मां को उन की याद आ गई और वे पीर साहब के पास पहुंच गईं. उन्होंने अपना परिचय दिया तो पीर साहब फौरन पहचान गए और खैरियत पूछी, तो अम्मां रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘मेरे बेटे के निकाह को 7 साल हो गए हैं, लेकिन अब तक कोई औलाद नहीं हुई. हालांकि डाक्टर को भी दिखाया. दोनों में कोई कमी नहीं है, फिर भी न जाने क्या…’’

पीर साहब कुछ देर तक खामोश रहे, फिर बोले, ‘‘ऐसा करो, तुम सोमवार को अपनी बहू को दोपहर में मेरे पास ले कर आओ. मैं देखता हूं, शायद परेशानी का कोई हल निकल आए.’’

घर लौटते ही अम्मां ने बेटाबहू दोनों को सारी बातें बताईं. नदीम ने भी हामी भर दी, ताकि अम्मां को इतमीनान हो जाए.

नफीसा ने पीर साहब की  इतनी तारीफ सुनी कि वह भी उन की इज्जत करने लगी.

सोमवार को अम्मां जब नफीसा को ले कर घर से निकलीं तब तक नदीम दफ्तर जा चुका था.

जब अम्मां नफीसा को ले कर पीर साहब के पास पहुंचीं, उस समय वहां उन का कोई चेला मौजूद नहीं था.

दोनों ने जा कर पीर साहब को सलाम किया.

पीर साहब ने आंखें खोल कर दोनों को देखा. उन की निगाहें नफीसा पर टिक गईं.

कुछ देर तक पीर साहब नफीसा को गौर से देखते रहे, फिर दुआ की और एक कागज और कलम संभाली.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ उन्होंने गंभीर हो कर पूछा.

‘‘नफीसा.’’

‘‘शौहर का नाम?’’

‘‘नदीम,’’ इस बार अम्मां बोलीं.

‘‘और अब्बा का नाम?’’

‘‘जी, अब्दुल,’’ नफीसा ने कहा.

‘‘अम्मां का?’’

‘‘हाजरा.’’

‘‘तुम्हारा निकाह कब हुआ था? निकाह की तारीख याद है क्या?’’

‘‘24 नवंबर को.’’

तमाम ब्योरा लिख कर पीर साहब काफी देर तक हिसाबकिताब मिलाते रहे और वे दोनों पीर साहब को देखती रहीं.

कुछ सोच कर पीर साहब ने अम्मां से पूछा, ‘‘अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो मैं अकेले में इस से कुछ और पूछना चाहता हूं.’’

‘‘पीर साहब, आप कैसी बातें करते हैं, मुझे कोई एतराज नहीं,’’ अम्मां ने कहा.

पीर साहब उठे और नफीसा को इशारे से अंदर चलने को कहा.

नफीसा पलभर के लिए झिझकी. उस ने सास की तरफ देखा और उन का इशारा पा कर उठ खड़ी हुई.

दूसरी तरफ पीर साहब का कमरा था. जब दोनों उस कमरे में दाखिल हुए तो पीर साहब ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

नफीसा का दिल धक से रह गया. अकेले कमरे में दूसरे मर्द के साथ खुद को देख कर वह पसीनापसीना हो गई. मगर उसे इतमीनान भी हो गया कि वह पीर साहब के साथ है और बाहर सास भी बैठी हैं. यह सब उन्हीं के कहने के मुताबिक हो रहा?है.

‘‘सामने पलंग पर बैठ जाओ,’’

कह कर उन्होंने शैल्फ से एक किताब निकाली. पन्ने उलटपलट किए, फिर नफीसा को देखा.

नफीसा पलंग पर बैठी इधरउधर नजरें घुमा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि पीर साहब क्या करेंगे. पीर साहब जो कागज साथ लाए थे, उस पर निगाह डाली. कुछ बुदबुदाए.

उस के बाद पीर साहब ने किताब को शैल्फ में वापस रखा. कागज को देखते हुए वह नफीसा के बिलकुल पास आ कर बैठ गए.

नफीसा ने चाहा कि वह अलग हट जाए, मगर न जाने क्यों उस की हिम्मत जवाब दे चुकी थी. पता नहीं, पीर साहब बुरा मान जाएं और…

‘‘नफीसा, तुम्हें औलाद चाहिए?’’ कहते हुए पीर साहब ने नफीसा के सिर पर हाथ रख दिया. नफीसा का गला सूखने लगा था. कोई आवाज न निकली. उस ने आहिस्ता से ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘डाक्टर ने मुआयना करने के बाद बताया कि तुम दोनों में कोई खराबी नहीं है?’’ पीर साहब ने पूछा.

नफीसा इस बार भी मुश्किल से सिर हिला सकी.

‘‘फिर तो तुम्हें मेरी पनाह में आना होगा,’’ पीर साहब ने जोर दे कर कहा.

नफीसा ने सिर उठा कर पीर साहब को देखा. यह बात उस की समझ से बाहर थी.

‘‘मेरी आंखों में देखो,’’ कहते हुए पीर साहब और करीब आ गए.

नफीसा ने उन की आंखों में झांका. उन की आंखों में लाललाल डोरे तैर रहे थे. वह सहम सी गई.

तभी पीर साहब की आवाज ने उसे खौफ के अंधेरे कुएं की तरफ धकेल दिया, ‘‘अगर तुम ने औलाद पैदा न की, तो तुम्हारी जिंदगी दूभर हो जाएगी. तुम्हारी सास तुम्हें ताने देदे कर खुदकुशी करने पर मजबूर कर देगी और शौहर भी एक दिन मजबूर हो कर दूसरी शादी कर लेगा.’’

‘‘मगर… मगर, मैं कर भी क्या सकती हूं?’’

‘‘तुम बच्चा पैदा कर सकती हो.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘मेरे करीब आओ,’’ पीर साहब ने कहा, तो नफीसा थोड़ा झिझकते हुए जरा सरकी.

नफीसा पर किसी तरह का खुमार सा चढ़ रहा था या औलाद पाने की ख्वाहिश थी, जिस ने उस की शर्म की सारी जंजीरें एक झटके के साथ तोड़ दीं.

बाहर अम्मां उम्मीदों का गुलशन सजाए इंतजार कर रही थीं कि पीर साहब जरूर ऐसा काम करेंगे कि उस की बहू औलाद से महरूम नहीं रहेगी.

काफी देर बाद वे दोनों बाहर आए. नफीसा ने सिर पर आंचल डाल रखा था.

‘‘पीर साहब, मेरी बहू मां बनेगी न?’’ अम्मां ने बेकरारी से पूछा.

‘‘मैं ने इलाज कर दिया है. अगर ऊपर वाले ने चाहा तो यह जल्द ही मां बन जाएगी, लेकिन इस के लिए नफीसा को यहां 1-2 बार और आना पड़ेगा,’’ पीर साहब ने कहा.

‘‘क्यों नहीं, आप कहेंगे तो यह जरूर आएगी… अगर यह मां बन गई तो मैं हमेशा आप की शुक्रगुजार रहूंगी,’’ अम्मां ने खुश होते हुए कहा.

पीर साहब अम्मां की बात अनसुनी कर के नफीसा से बोले, ‘‘नफीसा, मैं ने जैसा तुम से कहा है, वैसा ही करना. अगर कोई परेशानी हो, तो फिर चली आना. मेरा दिल कहता है कि तुम जरूर मां बनोगी.’’

नफीसा ने सिर उठा कर कुछ देर तक पीर साहब को देखा और दोबारा सिर झुका लिया.

पीर साहब के आश्वासन के बाद अम्मां बेहद खुश थीं. वे नफीसा को ले कर घर की तरफ चल पड़ीं.

घर की दहलीज पर कदम रखते ही नफीसा की आंखों से आंसुओं की मोटीमोटी बूंदें छलक पड़ीं, जिन्हें जल्दी से उस ने अपने आंचल में छिपा लिया. पता नहीं, ये आंसू औलाद पाने की खुशी के थे या इज्जत लुटने के गम के…

लेखक- अहमद सगीर

Hindi Kahaniyan : काश – क्या मालती जीवन के आखिरी पड़ाव पर अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त कर सकी?

Hindi Kahaniyan :  ‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

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