जीत: रमेश अपने मां-बाप के सपने को पूरा करना चाहता था

लेखक- प्रदीप गुप्ता

रमेश चंद की पुलिस महकमे में पूरी धाक थी. आम लोग उसे बहुत इज्जत देते थे, पर थाने का मुंशी अमीर चंद मन ही मन उस से रंजिश रखता था, क्योंकि उस की ऊपरी कमाई के रास्ते जो बंद हो गए थे. वह रमेश चंद को सबक सिखाना चाहता था. 25 साला रमेश चंद गोरे, लंबे कद का जवान था. उस के पापा सोमनाथ कर्नल के पद से रिटायर हुए थे, जबकि मम्मी पार्वती एक सरकारी स्कूल में टीचर थीं. रमेश चंद के पापा चाहते थे कि उन का बेटा भी सेना में भरती हो कर लगन व मेहनत से अपना मुकाम हासिल करे. पर उस की मम्मी चाहती थीं कि वह उन की नजरों के सामने रह कर अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन पर खेतीबारी करे.

रमेश चंद ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपने मांबाप के सपनों को पूरा करने के लिए पुलिस में भरती होगा और जहां कहीं भी उसे भ्रष्टाचार की गंध मिलेगी, उस को मिटा देने के लिए जीजान लगा देगा. रमेश चंद की पुलिस महकमे में हवलदार के पद पर बेलापुर थाने में बहाली हो गई थी. जहां पर अमीर चंद सालों से मुंशी के पद पर तैनात था. रमेश चंद की पारखी नजरों ने भांप लिया था कि थाने में सब ठीक नहीं है. रमेश चंद जब भी अपनी मोटरसाइकिल पर शहर का चक्कर लगाता, तो सभी दुकानदारों से कहता कि वे लोग बेखौफ हो कर कामधंधा करें. वे न तो पुलिस के खौफ से डरें और न ही उन की सेवा करें.

एक दिन रमेश चंद मोटरसाइकिल से कहीं जा रहा था. उस ने देखा कि एक आदमी उस की मोटरसाइकिल देख कर अपनी कार को बेतहाशा दौड़ाने लगा था.

रमेश चंद ने उस कार का पीछा किया और कार को ओवरटेक कर के एक जगह पर उसे रोकने की कोशिश की. पर कार वाला रुकने के बजाय मोटरसाइकिल वाले को ही अपना निशाना बनाने लगा था. पर इसे रमेश चंद की होशियारी समझो कि कुछ दूरी पर जा कर कार रुक गई थी. रमेश चंद ने कार में बैठे 2 लोगों को धुन डाला था और एक लड़की को कार के अंदर से महफूज बाहर निकाल लिया.

दरअसल, दोनों लोग अजय और निशांत थे, जो कालेज में पढ़ने वाली शुभलता को उस समय अगवा कर के ले गए थे, जब वह बारिश से बचने के लिए बस स्टैंड पर खड़ी घर जाने वाली बस का इंतजार कर रही थी. निशांत शुभलता को जानता था और उस ने कहा था कि वह भी उस ओर ही जा रहा है, इसलिए वह उसे उस के घर छोड़ देगा. शुभलता की आंखें तब डर से बंद होने लगी थीं, जब उस ने देखा कि निशांत तो गाड़ी को जंगली रास्ते वाली सड़क पर ले जा रहा था. उस ने गुस्से से पूछा था कि वह गाड़ी कहां ले जा रहा है, तो उस के गाल पर अजय ने जोरदार तमाचा जड़ते हुए कहा था, ‘तू चुपचाप गाड़ी में बैठी रह, नहीं तो इस चाकू से तेरे जिस्म के टुकड़ेटुकड़े कर दूंगा.’

तब निशांत ने अजय से कहा था, ‘पहले हम बारीबारी से इसे भोगेंगे, फिर इस के जिस्म को इतने घाव देंगे कि कोई इसे पहचान भी नहीं सकेगा.’ पर रमेश चंद के अचानक पीछा करने से न केवल उन दोनों की धुनाई हुई थी, बल्कि एक कागज पर उन के दस्तखत भी करवा लिए थे, जिस पर लिखा था कि भविष्य में अगर शहर के बीच उन्होंने किसी की इज्जत पर हाथ डाला या कोई बखेड़ा खड़ा किया, तो दफा 376 का केस बना कर उन को सजा दिलाई जाए. शुभलता की दास्तान सुन कर रमेश चंद ने उसे दुनिया की ऊंचनीच समझाई और अपनी मोटरसाइकिल पर उसे उस के घर तक छोड़ आया. शुभलता के पापा विशंभर एक दबंग किस्म के नेता थे. उन के कई विरोधी भी थे, जो इस ताक में रहते थे कि कब कोई मुद्दा उन के हाथ आ जाए और वे उन के खिलाफ मोरचा खोलें.

विशंभर विधायक बने, फिर धीरेधीरे अपनी राजनीतिक इच्छाओं के बलबूते पर चंद ही सालों में मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ गए. सिर्फ मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता ही इस बात को जानती थीं कि उन की बेटी शुभलता को बलात्कारियों के चंगुल से रमेश चंद ने बचाया था. बेलापुर थाने में नया थानेदार रुलदू राम आ गया था. उस ने अपने सभी मातहत मुलाजिमों को निर्देश दिया था कि वे अपना काम बड़ी मुस्तैदी से करें, ताकि आम लोगों की शिकायतों की सही ढंग से जांच हो सके. थोड़ी देर के बाद मुंशी अमीर चंद ने थानेदार के केबिन में दाखिल होते ही उसे सैल्यूट किया, फिर प्लेट में काजू, बरफी व चाय सर्व की. थानेदार रुलदू राम चाय व बरफी देख कर खुश होते हुए कहने लगा, ‘‘वाह मुंशीजी, वाह, बड़े मौके पर चाय लाए हो. इस समय मुझे चाय की तलब लग रही थी…

‘‘मुंशीजी, इस थाने का रिकौर्ड अच्छा है न. कहीं गड़बड़ तो नहीं है,’’ थानेदार रुलदू राम ने चाय पीते हुए पूछा.

‘‘सर, वैसे तो इस थाने में सबकुछ अच्छा है, पर रमेश चंद हवलदार की वजह से यह थाना फलफूल नहीं रहा है,’’ मुंशी अमीर चंद ने नमकमिर्च लगाते हुए रमेश चंद के खिलाफ थानेदार को उकसाने की कोशिश की.

थानेदार रुलदू राम ने मुंशी से पूछा, ‘‘इस समय वह हवलदार कहां है?’’

‘‘जनाब, उस की ड्यूटी इन दिनों ट्रैफिक पुलिस में लगी हुई है.’’

‘‘इस का मतलब यह कि वह अच्छी कमाई करता होगा?’’ थानेदार ने मुंशी से पूछा.

‘‘नहीं सर, वह तो पुश्तैनी अमीर है और ईमानदारी तो उस की रगरग में बसी है. कानून तोड़ने वालों की तो वह खूब खबर लेता है. कोई कितनी भी तगड़ी सिफारिश वाला क्यों न हो, वह चालान करते हुए जरा भी नहीं डरता.’’

इतना सुन कर थानेदार रुलदू राम ने कहा, ‘‘यह आदमी तो बड़ा दिलचस्प लगता है.’’

‘‘नहीं जनाब, यह रमेश चंद अपने से ऊपर किसी को कुछ नहीं समझता है. कई बार तो ऐसा लगता है कि या तो इस का ट्रांसफर यहां से हो जाए या हम ही यहां से चले जाएं,’’ मुंशी अमीर चंद ने रोनी सूरत बनाते हुए थानेदार से कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. आज उस को यहां आने दो, फिर उसे बताऊंगा कि इस थाने की थानेदारी किस की है… उस की या मेरी?’’

तभी थाने के कंपाउंड में एक मोटरसाइकिल रुकी. मुंशी अमीर चंद दबे कदमों से थानेदार के केबिन में दाखिल होते हुए कहने लगा, ‘‘जनाब, हवलदार रमेश चंद आ गया है.’’

अर्दली ने आ कर रमेश चंद से कहा, ‘‘नए थानेदार साहब आप को इसी वक्त बुला रहे हैं.’’

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार रुलदू राम को सैल्यूट मारा.

‘‘आज कितना कमाया?’’ थानेदार रुलदू राम ने हवलदार रमेश चंद से पूछा.

‘‘सर, मैं अपने फर्ज को अंजाम देना जानता हूं. ऊपर की कमाई करना मेरे जमीर में शामिल नहीं है,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

थानेदार ने उसे झिड़कते हुए कहा, ‘‘यह थाना है. इस में ज्यादा ईमानदारी रख कर काम करोगे, तो कभी न कभी तुम्हारे गरीबान पर कोई हाथ डाल कर तुम्हें सलाखों तक पहुंचा देगा. अभी तुम जवान हो, संभल जाओ.’’

‘‘सर, फर्ज निभातेनिभाते अगर मेरी जान भी चली जाए, तो कोई परवाह नहीं,’’ हवलदार रमेश चंद थानेदार रुलदू राम से बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, तुम्हारे ये प्रवचन सुनने के लिए मैं ने तुम्हें यहां नहीं बुलाया था,’’ थानेदार रुलदू राम की आवाज में तल्खी उभर आई थी.

दरवाजे की ओट में मुंशी अमीर चंद खड़ा हो कर ये सब बातें सुन रहा था. वह मन ही मन खुश हो रहा था कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. हवलदार रमेश चंद के बाहर जाते ही मुंशी अमीर चंद थानेदार से कहने लगा, ‘‘साहब, छोटे लोगों को मुंह नहीं लगाना चाहिए. आप ने हवलदार को उस की औकात बता दी.’’

‘‘चलो जनाब, हम बाजार का एक चक्कर लगा लें. इसी बहाने आप की शहर के दुकानदारों से भी मुलाकात हो जाएगी और कुछ खरीदारी भी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मैं जरा क्वार्टर जा कर अपनी पत्नी से पूछ लूं कि बाजार से कुछ लाना तो नहीं है?’’ थानेदार ने मुंशी से कहा.

क्वार्टर पहुंच कर थानेदार रुलदू राम ने देखा कि उस की पत्नी सुरेखा व 2 महिला कांस्टेबलों ने क्वार्टर को सजा दिया था. उस ने सुरेखा से कहा, ‘‘मैं बाजार का मुआयना करने जा रहा हूं. वहां से कुछ लाना तो नहीं है?’’

‘‘बच्चों के लिए खिलौने व फलसब्जी वगैरह देख लेना,’’ सुरेखा ने कहा.

मुंशी अमीर चंद पहले की तरह आज भी जिस दुकान पर गया, वहां नए थानेदार का परिचय कराया, फिर उन से जरूरत का सामान ‘मुफ्त’ में लिया और आगे चल दिया. वापसी में आते वक्त सामान के 2 थैले भर गए थे. मुंशी अमीर चंद ने बड़े रोब के साथ एक आटोरिकशा वाले को बुलाया और उस से थाने तक चलने को कहा. थानेदार को मुंशी अमीर चंद का रसूख अच्छा लगा. उस ने एक कौड़ी भी खर्च किए बिना ढेर सारा सामान ले लिया था. अगले दिन थानेदार के जेहन में रहरह कर यह बात कौंध रही थी कि अगर समय रहते हवलदार रमेश चंद के पर नहीं कतरे गए, तो वह उन सब की राह में रोड़ा बन जाएगा. अभी थानेदार रुलदू राम अपने ही खयालों में डूबा था कि तभी एक औरत बसंती रोतीचिल्लाती वहां आई.

उस औरत ने थानेदार से कहा, ‘‘साहब, थाने से थोड़ी दूरी पर ही मेरा घर है, जहां पर बदमाशों ने रात को न केवल मेरे मर्द करमू को पीटा, बल्कि घर में जो गहनेकपड़े थे, उन पर भी हाथ साफ कर गए. जब मैं ने अपने पति का बचाव करना चाहा, तो उन्होंने मुझे धक्का दे दिया. इस से मुझे भी चोट लग गई.’’

थानेदार ने उस औरत को देखा, जो माथे पर उभर आई चोटों के निशान दिखाने की कोशिश कर रही थी. थानेदार ने उस औरत को ऐसे घूरा, मानो वह थाने में ही उसे दबोच लेगा. भले ही बसंती गरीब घर की थी, पर उस की जवानी की मादकता देख कर थानेदार की लार टपकने लगी थी. अचानक मुंशी अमीर चंद केबिन में घुसा. उस ने बसंती से कहा, ‘‘साहब ने अभी थाने में जौइन किया है. हम तुम्हें बदमाशों से भी बचाएंगे और जो कुछवे लूट कर ले गए हैं, उसे भी वापस दिलाएंगे. पर इस के बदले में तुम्हें हमारा एक छोटा सा काम करना होगा.’’

‘‘कौन सा काम, साहबजी?’’ बसंती ने हैरान हो कर मुंशी अमीर चंद से पूछा.

‘‘हम अभी तुम्हारे घर जांचपड़ताल करने आएंगे, वहीं पर तुम्हें सबकुछ बता देंगे.’’

‘‘जी साहब,’’ बसंती उठते हुए बोली.

थानेदार ने मुंशी से फुसफुसाते हुए पूछा, ‘‘बसंती से क्या बात करनी है?’’

मुंशी ने कहा, ‘‘हुजूर, पुलिस वालों के लिए मरे हुए को जिंदा करना और जिंदा को मरा हुआ साबित करना बाएं हाथ का खेल होता है. बस, अब आप आगे का तमाशा देखते जाओ.’’ आननफानन थानेदार व मुंशी मौका ए वारदात पर पहुंचे, फिर चुपके से बसंती व उस के मर्द को सारी प्लानिंग बताई. इस के बाद मुंशी अमीर चंद ने कुछ लोगों के बयान लिए और तुरंत थाने लौट आए. इधर हवलदार रमेश चंद को कानोंकान खबर तक नहीं थी कि उस के खिलाफ मुंशी कैसी साजिश रच रहा था.

थानेदार ने अर्दली भेज कर रमेश चंद को थाने बुलाया.

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार को सैल्यूट मारने के बाद पूछा, ‘‘सर, आप ने मुझे याद किया?’’

‘‘देखो रमेश, आज सुबह बसंती के घर में कोई हंगामा हो गया था. मुंशीजी अमीर चंद को इस बाबत वहां भेजना था, पर मैं चाहता हूं कि तुम वहां मौका ए वारदात पर पहुंच कर कार्यवाही करो. वैसे, हम भी थोड़ी देर में वहां पहुंचेंगे.’’

‘‘ठीक है सर,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

जैसे ही रमेश चंद बसंती के घर पहुंचा, तभी उस का पति करमू रोते हुए कहने लगा, ‘‘हुजूर, उन गुंडों ने मारमार कर मेरा हुलिया बिगाड़ दिया. मुझे ऐसा लगता है कि रात को आप भी उन गुंडों के साथ थे.’’ करमू के मुंह से यह बात सुन कर रमेश चंद आगबबूला हो गया और उस ने 3-4 थप्पड़ उसे जड़ दिए.

तभी बसंती बीचबचाव करते हुए कहने लगी, ‘‘हजूर, इसे शराब पीने के बाद होश नहीं रहता. इस की गुस्ताखी के लिए मैं आप के पैर पड़ कर माफी मांगती हूं. इस ने मुझे पूरी उम्र आंसू ही आंसू दिए हैं. कभीकभी तो ऐसा मन करता है कि इसे छोड़ कर भाग जाऊं, पर भाग कर जाऊंगी भी कहां. मुझे सहारा देने वाला भी कोई नहीं है…’’

‘‘आप मेरी खातिर गुस्सा थूक दीजिए और शांत हो जाइए. मैं अभी चायनाश्ते का बंदोबस्त करती हूं.’’

बसंती ने उस समय ऐसे कपड़े पहने हुए थे कि उस के उभार नजर आ रहे थे. शरबत पीते हुए रमेश की नजरें आज पहली दफा किसी औरत के जिस्म पर फिसली थीं और वह औरत बसंती ही थी. रमेश चंद बसंती से कह रहा था, ‘‘देख बसंती, तेरी वजह से मैं ने तेरे मर्द को छोड़ दिया, नहीं तो मैं इस की वह गत बनाता कि इसे चारों ओर मौत ही मौत नजर आती.’’ यह बोलते हुए रमेश चंद को नहीं मालूम था कि उस के शरबत में तो बसंती ने नशे की गोलियां मिलाई हुई थीं. उस की मदहोश आंखों में अब न जाने कितनी बसंतियां तैर रही थीं. ऐन मौके पर थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद वहां पहुंचे. बसंती ने अपने कपड़े फाड़े और जानबूझ कर रमेश चंद की बगल में लेट गई. उन दोनों ने उन के फोटो खींचे. वहां पर शराब की 2 बोतलें भी रख दी गई थीं. कुछ शराब रमेश चंद के मुंह में भी उड़ेल दी थी.

मुंशी अमीर चंद ने तुरंत हैडक्वार्टर में डीएसपी को इस सारे कांड के बारे में सूचित कर दिया था. डीएसपी साहब ने रिपोर्ट देखी कि मौका ए वारदात पर पहुंच कर हवलदार रमेश चंद ने रिपोर्ट लिखवाने वाली औरत के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. डीएसपी साहब ने तुरंत हवलदार रमेश चंद को नौकरी से सस्पैंड कर दिया. अब सारा माजरा उस की समझ में अच्छी तरह आ गया था, पर सारे सुबूत उस के खिलाफ थे. अगले दिन अखबारों में खबर छपी थी कि नए थानेदार ने थाने का कार्यभार संभालते ही एक बेशर्म हवलदार को अपने थाने से सस्पैंड करवा कर नई मिसाल कायम की. रमेश चंद हवालात में बंद था. उस पर बलात्कार करने का आरोप लगा था. इधर जब मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता को इस बारे में पता लगा कि रमेश चंद को बलात्कार के आरोप में हवालात में बंद कर दिया गया है, तो उस का खून खौल उठा. उस ने सुबह होते ही थाने का रुख किया और रमेश चंद की जमानत दे कर रिहा कराया. रमेश चंद ने कहा, ‘‘मैडम, आप ने मेरी नीयत पर शक नहीं किया है और मेरी जमानत करा दी. मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

चंद्रकांता बोली, ‘‘उस वक्त तुम ने मेरी बेटी को बचाया था, तब यह बात सिर्फ मुझे, मेरी बेटी व तुम्हें ही मालूम थी. अगर तुम मेरी बेटी को उन वहशी दरिंदों से न बचाते, तो न जाने क्या होता? और हमें कितनी बदनामी झेलनी पड़ती. आज हमारी बेटी शादी के बाद बड़ी खुशी से अपनी जिंदगी गुजार रही है.

‘‘जिन लोगों ने तुम्हारे खिलाफ साजिश रची है, उन के मनसूबों को नाकाम कर के तुम आगे बढ़ो,’’ चंद्रकांता ने रमेश चंद को धीरज बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं आज ही मुख्यमंत्रीजी से इस मामले में बात करूंगी, ताकि जिस सच के रास्ते पर चल कर अपना वजूद तुम ने कायम किया है, वह मिट्टी में न मिल जाए.’’ अगले दिन ही बेलापुर थाने की उस घटना की जांच शुरू हो गई थी. अब तो स्थानीय दुकानदारों ने भी अपनीअपनी शिकायतें लिखित रूप में दे दी थीं. थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद अब जेल की सलाखों में थे. रमेश चंद भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई जीत गया था.

विश्वास: अमित के सुखी वैवाहिक जीवन में क्यों जहर घोलना चाहती थी अंजलि?

करीब 3 साल बाद अंजलि और अमित की मुलाकात शौपिंग सैंटर में हुई तो दोनों एकदूसरे का हालचाल जानने के लिए एक रेस्तरां में जा कर बैठ गए.

यह जान कर कि अमित ने पिछले साल शादी कर ली है, अंजलि उसे छेड़ने से नहीं चूकी, ‘‘मैं बिना पूछे बता सकती हूं कि वह नौकरी नहीं करती है. मेरा अंदाजा ठीक है?’’

‘‘हां, वह घर में रह कर बहुत खुश है, अंजलि,’’ अमित ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘और वह तुम से लड़तीझगड़ती भी नहीं है न, अमित?’’

‘‘ऐसा अजीब सा सवाल क्यों पूछ रही हो?’’ अमित के होंठों पर फैली मुसकराहट अचानक गायब हो गई.

‘‘तुम्हारी विचारधारा औरत को सदा दबा कर रखने वाली है, यह मैं अच्छी तरह से जानती हूं, माई डियर अमित.

‘‘अतीत के हिसाब से तो तुम शायद ठीक कह रही हो, पर अब मैं बदल गया हूं,’’ अमित ने जवाब दिया.

‘‘तुम्हारी बात पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा है.’’

‘‘तब सही बात शिखा से पूछ लेना.’’

‘‘कब मिलवा रहे हो शिखा से?’’

‘‘जब चाहो हमारे घर आ जाओ. मेरा यह कार्ड रखो. इस में घर का पता भी लिखा हुआ है,’’ अमित ने अपने पर्स में से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे पकड़ा दिया.

‘‘मैं जल्दी आती हूं उस बेचारी से मिलने.’’

‘‘उस बेचारी की चिंता छोड़ो और अब अपनी सुनाओ. तुम्हारे पति तो पायलट हैं न?’’ अंजलि ने उस की टांग खींचना बंद नहीं किया तो अमित ने बातचीत का विषय बदल दिया.

‘‘हां, ऐसे पायलट हैं जिन्हें हवाईजहाज तो अच्छी तरह से उड़ाना आता है पर घरगृहस्थी चलाने के मामले में बिलकुल जीरो हैं,’’ अंजलि का स्वर कड़वा हो गया.

‘‘क्या तुम दोनों की ढंग से पटती नहीं है?’’ अमित की आवाज में सहानुभूति के भाव उभरे.

‘‘वे अजीब किस्म के इंसान हैं, अमित. मैं पास होती हूं तो मेरी कद्र नहीं करते. जब मैं नाराज हो कर मायके चली आती हूं तो मुझे वापस बुलाने के लिए खूब गिड़गिड़ाते हैं. तुम्हें अपने दिल की एक बात सचसच बताऊं?’’

‘‘हां, बताओ?’’

‘‘मुझे मनपसंद जीवनसाथी नहीं मिला है,’’ अंजलि ने गहरी सांस छोड़ी.

‘‘मैं तो हमेशा ही कहता था कि तुम्हें मुझ से अच्छा पति कभी नहीं मिलेगा पर तुम ने तब मेरी सुनी नहीं,’’ माहौल को हलका करने के इरादे से अमित ने मजाक किया.

‘‘मैं भी मानती हूं कि वह गलती तो मुझ से हो गई,’’ जवाब में अंजलि भी मुसकरा उठी.

‘‘पर तुम्हारी गलती के कारण मेरा तो बड़ा फायदा हो गया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘मुझे शिखा मिल गई. वह ऐसा हीरा है जिस ने मेरी जिंदगी को खुशहाल बना दिया है. तुम से शादी हो जाती तो आपस में लड़तेझगड़ते ही जिंदगी गुजरती,’’ अमित जोर से हंस पड़ा.

अमित की हंसी में अंजलि को अपना अपमान नजर आया. उसे लगा कि शिखा की यों तारीफ कर के वह उस की खिल्ली उड़ा रहा है.

उस ने मुंह बनाते हुए जवाब दिया, ‘‘मैं जब शिखा से मिलूंगी तभी इस बात का पता लगेगा कि वह कितनी खुश है तुम्हारे साथ. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना तो आसान होता है.’’

‘‘मैं इतना अच्छा पति हूं कि मेरी तारीफ करतेकरते उस का गला सूख जाएगा,’’ अमित ने ठहाका लगाया तो वह अंजलि को जहर लगने लगा.

जलन और अपमान की वजह से अंजलि ज्यादा देर उस के साथ नहीं बैठी. जरूरी काम का बहाना बना उस ने कौफी पीते ही विदा ले ली.

‘अमित जैसे गुस्सैल और शक्की इंसान के साथ कोई लड़की खुश रह ही नहीं सकती. उस से शादी न करने का मेरा फैसला गलत नहीं था,’ ऐसे विचारों में उलझी अंजलि से ज्यादा इंतजार नहीं हुआ और 2 दिन बाद ही उस ने शिखा से उस के घर फोन कर बात की.

उस ने शिखा से कहा, ‘‘तुम मुझे जानतीं नहीं हो शिखा, मैं अमित के कालेज की फ्रैंड अंजलि बोल रही हूं…’’

‘‘मुझे परसों ही बताया है अमित ने आप के बारे में. क्या आप आज हमारे यहां आ रही हो?’’ शिखा का उत्साहित स्वर अंजलि को अजीब सा लगा.

‘‘तुम्हारे घर तो मैं अपने पति के साथ किसी दिन आऊंगी. लेकिन आज अगर संभव हो तो तुम मेरे साथ कौफी पीने किसी पास के रेस्तरां में आ जाओ.’’

‘‘इस वक्त तो मेरा निकलना जरा…’’

अंजलि ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘मैं तुम से कुछ ऐसी बातें करना चाहती हूं, जो तुम्हारे फायदे की साबित होंगी.’’

‘‘तब हम मिल लेते हैं पर अभी नहीं बल्कि शाम को.’’

‘‘कितने बजे और कहां?’’

‘‘जिस मौल में तुम अमित से मिली थीं, उस की बगल में जो आकाश रैस्टोरैंट है, उसी में हम सवा 5 बजे मिलते हैं.’’

‘‘शिखा, अमित को तुम हमारी होने वाली मुलाकात के बारे में अभी कुछ नहीं बताना. बाद में बताना या न बताना तुम्हारा फैसला होगा.’’

‘‘ओके.’’

‘‘तो सवा 5 बजे मिलते हैं,’’ यह कह कर अंजलि ने फोन काट दिया.

शाम को रेस्तरां में मुलाकात होने पर पहले कुछ देर दोनों ने एकदूसरे के बारे में हलकीफुलकी जानकारी ली फिर अंजलि ने अपने मुद्दे पर बात शुरू कर दी.

‘‘क्या तुम्हें अमित ने बताया कि वह मुझ से प्यार करता था और हम शादी कर के साथ जिंदगी बिताने के सपने देखते थे?’’

‘‘नहीं, यह तो कभी नहीं बताया,’’ शिखा बड़े ध्यान से उस के चेहरे के हावभाव को पढ़ रही थी.

‘‘तब तो यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा कि हमारे अलगाव का क्या कारण था.’’

‘‘बताइए.’’

‘‘शिखा, कालेज में हम दोनों सदा साथसाथ रहते थे, इसलिए हमारे बीच प्यार का रिश्ता बहुत मजबूत बना रहा. फिर मैं ने औफिस जाना शुरू किया तो परिस्थितियां बदलीं और उन के साथ बदल गया अमित का व्यवहार.’’

‘‘किस तरह का बदलाव आया उन के व्यवहार में?’’

‘‘वह बहुत ज्यादा शक्की आदमी है, क्या तुम मेरे इस कथन से सहमत हो?’’

‘‘यह तो तुम ने बिलकुल ठीक कहा,’’ शिखा हौले से मुसकरा उठी.

‘‘तब तुम समझ सकती हो कि किसी भी युवक से जरा सा खुल कर हंसनेबोलने पर अमित मुझ से कितना झगड़ता होगा. तुम्हें भी उस की इस आदत के कारण मानसिक यातनाएं झेलनी पड़ी होंगी?’’

‘‘थोड़ी सी… शुरूशुरू में,’’ शिखा की मुसकराहट और गहरी हो गई.

‘‘और अब?’’

‘‘अब सब ठीक है.’’

‘‘यानी अपने स्वाभिमान को मार कर व रातदिन के झगड़ों से तंग आ कर तुम ने घुटघुट कर जीना सीख लिया है?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. हमारे बीच झगड़े नहीं होते हैं.’’

‘‘तुम मुझ से कुछ भी छिपाओ मत, क्योंकि मैं तुम्हें अमित के हाथों प्रताडि़त होने से बचने की तरकीब बता सकती हूं,’’ अपने 1-1 शब्द पर अंजलि ने बहुत जोर दिया.

‘‘तो जल्दी बताइए न,’’ शिखा किसी छोटी बच्ची की तरह खुश हो उठी.

शिखा की दिलचस्पी देख कर अंजलि ने जोशीले अंदाज में बोलना शुरू किया, ‘‘मुझे उस ने अपने शक्की स्वभाव के कारण जब बहुत ज्यादा तंग करना शुरू किया तो मैं चुप रहने के बजाय उस के साथ झगड़ा करने के साथसाथ बोलचाल भी बंद कर देती थी. तब वह एकदम से सही राह पर आ जाता था.

‘‘तुम भी उस के गुस्से से डर कर दबना बंद कर दो. वह ख्वाहमख्वाह शक करे तो अपने को अकारण अपराधबोध का शिकार मत बनाया करो. अमित को सही राह पर रखने का तरीका यही है कि जब वह तुम्हें नाजायज तरीके से दबाने की कोशिश करे तो तुम पूरी ताकत से उस के साथ भिड़ जाओ. देखना, वह एकदम से सही राह पर आ जाएगा.’’

कुछ देर खामोश रह कर शिखा सोचविचार में खोई रही और फिर पूछा, ‘‘तुम ने यही रास्ता अपनाया था और वे इस से सही राह पर आ भी जाते थे, तो फिर तुम ने उन के साथ शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मैं बारबार होने वाले झगड़ों से तंग आ गई थी. मुझे जब यह लगने लगा कि यह आदमी कभी नहीं सुधरेगा, तो मैं ने हमेशा के लिए अलग होने का फैसला कर लिया था.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ कि क्या तुम अपनी विवाहित जिंदगी में खुश और सुखी हो?’’

‘‘शादी के झंझटों में फंस कर कौन बहुत खुश और सुखी रह सकता है?’’

‘‘आप के पति पायलट हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन की पगार 2-3 लाख रुपए तो होगी?’’

‘‘यह सवाल क्यों पूछ रही हो?’’

‘‘अमित अभी हर महीने 40 हजार रुपए कमाने तक पहुंचे हैं. मेरे मन में यह विचार उठ रहा है कि कहीं आर्थिक कारणों ने तब तुम्हारा मन बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका तो नहीं निभाई थी?’’

‘‘मैं तुम्हारी सहायता करने आई हूं न कि अमित से शादी न करने के कारणों का खुलासा करने,’’ अंजलि एकदम से चिढ़ उठी.

‘‘लेकिन मुझे तुम्हारी किसी भी सहायता की जरूरत नहीं है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर अपने जीवनसाथी से झगड़ने का तुम्हारा सुझाव मुझे बिलकुल बचकाना लगा. अमित जैसे हैं, अच्छे हैं और मैं उन के साथ बहुत खुश हूं,’’ शिखा ने अपने ऊपर से नियंत्रण नहीं खोया और शांत बनी रही.

‘‘तुम इस झूठ के साथ जीना चाहती हो तो तुम्हारी मरजी,’’ अंजलि नाराज हो कर बोली. शिखा ने अपने मोबाइल में समय देखा और बोली, ‘‘करीब 10 मिनट बाद अमित मुझे लेने यहां आ जाएंगे. तब तक हम किसी और विषय पर बात करते हैं.’’

‘‘मेरे मना करने पर भी तुम ने हमारी इस मुलाकात के बारे में उसे क्यों बताया?’’

अंजलि की आंखों में अब गुस्से के भाव नजर आ रहे थे.

‘‘मैं उन से कुछ नहीं छिपाती हूं. आज शक्की स्वभाव वाले अमित को मुझ पर पूरा विश्वास है तो उस के पीछे मेरी उन्हें सब कुछ बता देने की इस आदत से ही.’’

‘‘क्या तुम उसे हमारे बीच हुई बातों की भी सारी जानकारी दोगी?’’

‘‘हां, पर इस ढंग से नहीं कि तुम्हारी छवि खराब हो और तुम उन की नजरों में गिर जाओ.’’

‘‘थैंक यू. मुझे लग रहा है कि मैं ने तुम्हारी सहायता करने की पहल कर के शायद समझदारी नहीं दिखाई है. मैं चलती हूं,’’ अंजलि जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘अमित से नहीं मिलोगी?’’

‘‘नहीं. गुडबाय.’’

‘‘पत्नी को पति का दिल व विश्वास जीतने के लिए अगर पति के सामने झुक कर भी जीना पड़े, तो इस में कोई बुराई नहीं है, अंजलि.’’

‘‘मुझे ये लैक्चर क्यों दे रही हो?’’

‘‘मैं लैक्चर नहीं दे रही हूं पर इंसान को अपनी समझ में आई कोई भी अच्छी बात दूसरों से बांट लेनी चाहिए. अपने पति के साथ तुम हमारे घर जरूर आना.’’

‘‘कोशिश करूंगी,’’ रुखाई से जवाब दे कर अंजलि तेज कदमों से चल पड़ी.

अपनी बातों का जो असर वह शिखा

पर देखना चाह रही थी, वह उसे नजर नहीं आया था. शक्की अमित को उस ने कभी

यही सोच कर रिजैक्ट कर दिया था कि वह अच्छा पति साबित नहीं होगा. शिखा उस के साथ शादी कर के सुखी और संतुष्ट है, यह बात उसे हजम नहीं हो रही थी. उस के साथ अपनी तुलना कर रही अंजलि के मन में खीज व गुस्से के भाव पलपल बढ़ते ही जा रहे थे.

तंत्र मंत्र का खेला: बाबा के जाल से निकल पाए सुजाता और शैलेश

‘‘यह क्या है शैलेश? तुम्हें मना किया था न कि अगली बार लेट होने पर क्लास में एंट्री नहीं मिलेगी,’’ प्रोफैसर महेंद्र सिंह गुस्से से चीख उठे.

‘‘सौरी सर, आज आखिरी दिन था मजार में हाजिरी लगाने का, आज 40 दिन पूरे हो गए हैं, कल से मैं समय से पहले ही हाजिरी दर्ज करा लूंगा.’’

‘‘यह क्या मजार का चक्कर लगाते रहते हो? इतना पढ़नेलिखने के बाद भी अंधविश्वासी बने हो,’’ प्रोफैसर ने व्यंग्य किया.

‘‘सर, ऐसा न कहिए,’’ एक छात्र बोल उठा. ‘‘सर, आप को रेलवे स्टेशन पर बनी मजार की ताकत का अंदाजा नहीं है,’’ दूसरे छात्र ने हां में हां मिलाई. ‘‘सर, आप ने देखा नहीं, मजार 2 प्लेटफौर्म्स के बीच में बनी है, तीसरे, चौथे, 5वें प्लेटफौर्म्स जगह छोड़ कर बनाए गए हैं,’’ एक कोने से आवाज आई.

‘‘सर, अंगरेजों के जमाने से ही इस मजार का बहुत नाम है, 40 दिनों की नियम से हाजिरी लगाने पर हर मनोकामना पूरी हो जाती है,’’ किसी छात्र ने ज्ञान बघारा.

आज भौतिकी की क्लास में मजार का पूरा इतिहासभूगोल ही चर्चा का विषय बना रहा. प्रोफैसर भी इस वार्त्तालाप को सुनते रहे.

महेंद्र सिंह का पूरा छात्रजीवन व नौकरी के शुरू के वर्ष भोपाल में बीते हैं. पिछले वर्ष उन्हें इस छोटे से जिले से प्रोफैसर का औफर आया तो वे अपनी पत्नी को ले कर इस कसबेनुमा जिले परसिया में चले आए, जहां सुविधा व स्वास्थ्य के मूलभूत साधन भी उपलब्ध नहीं हैं. इस कसबे को जिले में बदलने के 5 वर्ष ही हुए हैं, इसलिए विकास के नाम पर तहसील, जिला अस्पताल व सड़कों का विस्तार कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है.

सरकारी अस्पताल में जरूरी उपकरण और विशेषज्ञ डाक्टर्स की कमी बनी हुई है. बेतरतीब तरीकों से बने मकानों के बीच में, कहींकहीं सड़कें बन गई हैं तो सीवर और नाली का अभी कोईर् अतापता नहीं है.

आसपास के गांवों के समर्थ लोग इस शहर में मकान बना कर रहने तो लगे हैं पर मानसिकता और आचरण से वे

अभी भी गंवई विचारधारा से जुड़े हैं. केवल 3 से 4 किलोमीटर के दायरे में इस कसबेनुमा शहर की हद सिमट कर रह गई है. इस दायरे से बाहर नदी है, जंगल हैं और हैं शुद्ध प्राकृतिक हवा के संग हरेभरे खेतखलिहान के नजारे. जो भी बैंक, तहसील व दूसरे विभागों से ट्रांसफर हो कर, दूरदराज से यहां आते हैं, वे अच्छे बाजार, संचार साधनों की असुविधा, यातायात के साधनों की कमी से उकता कर जल्दी ही इस जगह से भाग जाना चाहते हैं.

नए खुले आईटीआई में महेंद्र सिंह को उन के अनुभव के आधार पर प्रोफैसर के पद का औफर मिला, तो वे मना न कर सके और भोपाल के अपने संयुक्त परिवार को छोड़ कर अपनी पत्नी को साथ लिए यहां चले आए. पत्नी सुजाता बेहद आधुनिक व उच्च शिक्षित है, इसीलिए कभीकभार वह भी कालेज में गैस्ट फैकल्टी बन क्लास लेने आ जाती.

सुजाता जब भी कालेज में आती, छात्रों की बांछें खिल जातीं. वैसे तो यह कोएड इंस्टिट्यूट है किंतु लड़कियों की संख्या उंगलियों में गिनी जा सकती है. लड़कियां साधारण ढंग से तैयार हो कर कालेज आती हैं. फैशन से उन का दूरदूर तक कोई नाता नहीं हैं. बस, बालों की खजूरी चोटी या पफ उठा बाल बना भर लेने से उन का शौक पूरा हो जाता है.

नीले कुरते और सफेद सलवारदुपट्टा डाले 18 से 20 वर्षीया सहपाठिनों के सामने 35 वर्षीया सुजाता भारी पड़ती. नाभि दिखने वाली साड़ी, खुले और करीने से कटे बाल, गहरी लिपस्टिक से सजे होंठ और आंखों में गहरा काजल सजाए वह जब भी क्लास लेने आती, लड़कों में मैम को प्रभावित करने की होड़ मच जाती. वे उसे फिल्मी हीरोइन से कम न समझते.

महेंद्र सिंह अपने साथी शिक्षकों के बीच गर्व से गरदन अकड़ा कर घूमते, मानो चुनौती सी देते हों कि मेरी बीवी से बढ़ कर तुम्हारी बीवियां हैं क्या. साथी शिक्षक पीठ पीछे सुजाता और महेंद्र का मजाक बनाते, मगर उन के सामने उन की जोड़ी की तारीफ में कसीदे काढ़ते.

उस दिन महेंद्र जब घर लौटे तो चाय पीते हुए, दिनभर की चर्चा में मजार का जिक्र करना न भूले. यह सुनते ही निसंतान सुजाता की आंखें एक आस से चमक उठीं कि हो सकता है कि इसीलिए ही समय उसे यहां परसिया खींच लाया है.

सुजाता जितनी वेशभूषा से  आधुनिक थी उतनी ही धार्मिक  थी. आएदिन घर में महिलाओं को बुला कर धार्मिक कार्यक्रम करवाना उस की दिनचर्या में शामिल था. इसी वजह से वह अपने महल्ले वालों में काफी लोकप्रिय हो गईर् थी.

आसपास के मकानों में ज्यादातर नजदीकी गांव से आ कर बसने वाले परिवार थे. वे दोचार सालों के भीतर ही परसिया में अपने छोटेबड़े बच्चों को पढ़ाने के लिए घर बना कर रहने आ गए थे. उन में से कुछ पंडित, कुछ पटेल तो एकदो राठौर परिवार थे.

कुछ परिवारों की महिलाएं अंगूठाछाप हैं तो कुछ 10वीं या 12वीं तक पढ़ी हैं किंतु इस के बाद विवाह हो जाने के कारण वे आगे न पढ़ सकीं. अभी तक यहां 16-17 वर्ष में शादी और 20-21 वर्ष में गौना कर देने का चलन रहा है.

ऐसे परिवारों के बीच सुजाता को कार्यक्रम करवाने के लिए इन महिलाओं से बढ़ कर कौन मिलता. ये महिलाएं, जो गांव में दिनभर किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहती थीं, यहां परसिया में घर से बाहर, कुरसियां डाले, दिनभर गाउन पहन कर बतियाती रहतीं. गाउन पहनना उन के लिए आधुनिकता की निशानी है. बस, इतना ही फैशन करना आता है इन को.

सुजाता का शुरू में तो यहां बिलकुल मन नहीं लगता था मगर धीरेधीरे उस ने अपनेआप को साथी महिलाओं के साथ सामूहिक कार्यक्रम में व्यस्त कर लिया. उसे रहरह कर भोपाल याद आता. वहां की चमचमाती सड़कों की लौंग ड्राइव, किट्टी पार्टी, बड़े ताल का नजारा, क्लब और अपनी आधुनिक सखियों का साथ.

शादी के 10 वर्षों बाद सारी शारीरिक जांचों के परिणामों से उसे मालूम हो गया था कि वह कभी मां नहीं बन सकती. वह अपने खाली समय को किसी न किसी तरह व्यस्त रखती ताकि खाली दिमाग में कोई खुराफात न पैदा हो जाए.

जहां भोपाल में वह किट्टी, क्लब और सोशल वर्क में बिजी थी वहीं यहां के माहौल में वह पूरी तरह रम गई थी. हां, मगर नियम से, वह यहां के एकलौते ब्यूटीपार्लर में जाना न भूलती. यहां की ब्यूटीशियन से ज्यादा तो उसे ब्यूटी नौलेज थी, इसीलिए उसे भी वह तरहतरह के ब्यूटी टिप्स देती रहती.

ब्यूटीशियन रमा जबलपुर में अपनी मौसी के घर रह कर,  6 महीने का कोर्स कर के परसिया में अपना पार्लर खोल कर बैठ गई थी. यहां युवतियां थ्रेडिंग और फेशियल खूब करवाती थीं. उस का पार्लर चल निकला. परंतु सुजाता के आने के बाद रमा को वैक्ंिसग, मैनीक्योर, पैडिक्योर, हेयर कटिंग के नए तरीके जानने को मिले. वह सुजाता को देखते ही खिल उठती और सोचती, कितनी उच्चशिक्षित है मगर स्वभाव उतना ही सरल है.

इधर, सुजाता का मन मजार के चक्कर लगाने को मचलने लगा. वह सोचती सारे वैज्ञानिक तरीके अपना कर देख ही लिए हैं, कोई परिणाम नहीं मिला. अब इस मजार के चक्कर लगा कर भी देख लेती हूं. जब इस विषय में महेंद्र की राय लेनी चाही तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उन्होंने भी सुजाता की आंखों में आशा की चमक को देख लिया था. महेंद्र से कोई भी जवाब न पा कर सुजाता सोच में पड़ गई. उस ने अपने पड़ोसियों से इस विषय में बात करने का मन बना लिया.

दूसरे दिन हमेशा की तरह दोपहर में जब सारी महिलाएं अपने चबूतरे पर या प्लास्टिक की कुरसियां डाल कर गपों में मशगूल हो गईं, सुजाता ने मजार का जिक्र छेड़ दिया. फिर क्या था, सभी के पास तर्क निकल आए कि मजार इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों है? सभी सवर्र्ण और पिछड़े वर्ग के परिवारों की महिलाओं में वैसे तो पूजापाठ के नियमों में बहुत अंतर था मगर मजार के विषय में वे सभी एकमत थीं.

लगेहाथ महिलाओं ने सुजाता की दुखती रग पर हाथ रखते हुए उसे भी संतान की मनौती मांगने के लिए 40 दिन मजार का फेरा लगाने का सुझाव दे ही दिया. कुछ का तो कहना था कि 40 दिन पूरे होने से पहले ही उस की गोद हरी हो जाएगी. जितने मुंह उतनी बातें सुन कर सुजाता ने तय कर लिया कि वह कल सुबह से ही मजार जाने लगेगी. महेंद्र उस के इस फैसले से खुश तो नहीं हुआ, किंतु उस ने उसे उस के विश्वास के साथ फैसला लेने को स्वतंत्र कर दिया.

मजार का रास्ता रेलवे स्टेशन के ओवरब्रिज से गुजर कर 2 प्लेटफौर्म्स के बाद है. छोटा सा  स्टेशन होने के कारण, बहुत ही कम यात्रीगाड़ी के फेरे लगते हैं. दिनभर पास के अंचल से कोयला खदानों का कोयला लाद कर गुजरने वाली मालगाडि़यों का ही तांता लगा रहता है, जो ज्यादातर तीसरे प्लेटफौर्म से गुजरती हैं.

दूसरे और तीसरे प्लेटफौर्म के बीच में ही मजार है, जिसे चारों तरफ से घेर कर ओवरब्रिज की सीडि़यों से जोड़ दिया गया है. जिस से लोगों की मजार में आवाजाही से रेलवे स्टेशन के सुरक्षा प्रबंधन पर कोई असर नहीं पड़ता. लोगों का आनाजाना एक ओर से लगा ही रहता.

जब से यह जगह जिले में परिवर्तित हुई है तब से भीड़ बढ़ने लगी और एक बाबा की मौजूदगी भी. वह हफ्ते में 3 दिन मजार में, शेष 4 दिन स्टेशन के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठा मिलता. कोई कहता कि बाबा मुसलिम है तो कोई उस के हिंदू होने का दावा करता. मगर बाबा से जाति पूछने की हिम्मत किसी में नहीं थी. बाबा से लोग अपनी परेशानियां जरूर बताते जिन्हें वह अपने तरीके से हल करने के उपाय बताता.

बाबा बड़ा होशियार था, वह शाकाहारियों को नारियल तोड़ने तो मांसाहारियों को काला मुरगा काट कर चढ़ाने का उपाय बताता. लोगों के बुलावे पर उन के घर जा कर भी झाड़फूंक करता. जो लोग उस के उपाय करवाने के बाद मनमांगी मुराद पा जाते, वे खुश हो उस के मुरीद हो जाते. लेकिन जो लोग सारे उपाय अपना कर भी खाली हाथ रह जाते, वे अपने को ही दोषी मान कर चुप रहते. इसीलिए, बाबा का धंधा अच्छा चल निकला.

सुजाता सुबह के समय जब घर से निकली उस समय जाड़े के मौसम के कारण कोहरा छाया हुआ था. वह तेज कदमों से स्टेशन की ओर निकल गई. उस के घर और स्टेशन के बीच एक किलोमीटर का ही फासला तो था.

अभी मजार में अगरबत्ती सुलगा कर पलटी ही थी कि बाबा से सामना हो गया. उस ने प्रणाम करने को झुकना चाहा पर उस की मंशा भांप कर बाबा दो कदम पीछे हट गया. मेरे नहीं, इस के पैर पकड़ो, वह जो इस में समाया है. उस ने उंगली से मजार की तरफ इशारा करते हुए कहा, जिस मंशा से यहां आई हो, वह जरूर पूरी होगी. बस, अपने मन में कोई शंका न रखना.

सुजाता गदगद हो गई. आज सुबह  इतनी सुहावनी होगी, उस ने  सोचा न था. उसे पड़ोसिनों ने बताया तो था यदि मजार वाले बाबा का आशीर्वाद भी मिल जाए तो फिर तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई ही समझो.

खुश मन से सुजाता ने जब घर में प्रवेश किया, तो उस का पति चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ने में तल्लीन था. सुजाता गुनगुनाते हुए घर के कार्यों में व्यस्त हो गई. महेंद्र सब समझ गया कि वह मजार का चक्कर लगा कर आई है, मगर कुछ न बोला.

वह सोचने लगा कितने सरल स्वभाव की है उस की पत्नी, सब की बातों में तुरंत आ जाती है, अब अगर मैं वहां जाने से रोकूंगा तो रुक तो जाएगी मगर उम्रभर मुझे दोषी भी समझती रहेगी कि मैं ने उस के मन के अनुसार कार्य न कर के, उसे संतान पाने के आखिरी अवसर से भी वंचित कर दिया. आज जा कर आई है तो कितनी खुश लग रही है वरना कितनी बुझीबुझी सी रहती है. चलो, कोई नहीं, 40 दिनों की ही तो बात है, फिर खुद ही शांत हो कर बैठ जाएगी. मेरे टोकने से इसे दुख ही पहुंचेगा.

दिन बीतते देर नहीं लगती, 40 दिन क्या 4 महीने बीत गए, मगर सुजाता का मजार जाना न रुका. अब वह गैस्ट फैकल्टी के कार्य में भी रुचि नहीं लेती, न ही आसपड़ोस की महिलाओं के संग कार्यक्रम में मन लगाती. अपने कमरे को अंदर से बंद कर, घंटों न जाने कैसे तंत्रमंत्र अपनाती. इन सब बातों से बेखबर एक दिन अचानक रमा उस महल्ले से गुजरी. उस ने सोचा, सुजाता भाभी की खबर भी लेती चलूं, अरसा हो गया उन्हें, वे पार्लर नहीं आईं.

दोपहर का समय, दरवाजे की घंटी सुन सुजाता को ताज्जुब हुआ कि इस समय कौन है? दरवाजा खोलते ही रमा को देख कर खुशी से चहक उठी. उसे लगभग खींचते हुए भीतर ले गई.

मगर रमा उसे देख कर हैरान थी कि क्या यह वही सुजाता है जो कितनी सजीसंवरी रहती थी. सामने मैलेकुचैले गाउन में, कालेसफेद बेतरतीब बालों की खिचड़ी के साथ, न मांग में सिंदूर, न मंगलसूत्र, न चूडि़यां, न बिंदी पहने सुजाता किसी सड़क पर घूमती पगली से कम नहीं लगी. ‘‘भाभी, आप को क्या हो गया है? तबीयत तो ठीक है न आप की? भाईसाहब ठीक तो हैं न?’’ रमा ने हैरानी से पूछा.

‘‘अब आई है, तो बैठ. तुझे सब बताती हूं. मेरी तबीयत को कुछ नहीं हुआ बल्कि मेरे चारों तरफ भूतों का डेरा हो गया है. कोई मेरी बात का विश्वास नहीं करता. यहां देख मैं इसे सोफे पर रातभर जाग कर टीवी देखती रहती हूं. अगर झपकी आई तो सो गई वरना पूरी रात यों ही कट जाती है. ये भूत दिनरात मेरे चारों तरफ मंडराते रहते हैं. दिन में भी कभी महल्ले के बच्चे के रूप में तो कभी पड़ोसिन के रूप में आ कर बैठ जाते हैं. फिर चाय बनाने या कुछ लेने भीतर जाओ, तो गायब हो जाते हैं.’’

‘‘भाभी, ऐसी बातें कर के मुझे मत डराओ?’’ रमा घबरा गई.

‘‘यह मेरी जिंदगी की सचाई बन गई है. ये देखो, मेरे हाथ में ये निशान. अगर मैं चूड़ी, बिंदी, कुछ भी पहनती हूं तो ऐसे निशान बन जाते हैं. सजनेसंवरने पर मुझे ये भूत बहुत परेशान करते हैं, इसीलिए मैं अब सादगी से रहती हूं, बाल भी नहीं रंगती, मेहंदी भी नहीं लगाती,’’ सुजाता बोली.

‘‘भाईसाहब, आप को कुछ समझाते नहीं हैं क्या?’’ रमा सुजाता की बातें सुन कर उलझन में पड़ गई.

‘‘मेरे पति के अंदर तो खुद ही आत्मा आती है. जब वह आत्मा आती है तो उन की आवाज भर्रा जाती है, चेहरा सर्द हो जाता है, उसी आत्मा ने मुझे सादगी से रहने का आदेश दिया है.’’

‘‘मैं चलती हूं भाभी, बेटे के स्कूल से लौटने का समय हो गया है,’’ कह कर रमा उठ खड़ी हुई. सुजाता की बातें सुन कर रमा के रोंगटे खड़े हो गए. उस ने वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी.

रमा अपनी स्कूटी स्टार्ट कर ही रही थी कि सामने से शैलेश आता दिखा. शैलेश उसी की गांवबिरादरी का है, रिश्ते में उस का चचेरा भाई लगता है. उसे देख कर वह रुक गई. उसी ने तो 2 महीने पहले उसे स्कूटी चलानी सिखाई थी. उस ने सुजाता के दरवाजे पर नजर डाली. सुजाता ने अपनेआप को फिर से घर में कैद कर लिया था. उस ने शैलेश को अपने पीछे बैठने का इशारा किया और वहां से सीधा अपने घर को चल पड़ी.

शैलेश ने जो बताया उसे सुन कर रमा हैरान रह गई. ‘‘सुजाता जब पहली बार मजार में गई थी तो उसी दिन बाबा ने उस के बारे में पूरी जानकारी उस से जुटा ली. सुजाता धीरेधीरे बाबा की कही बातों का आंख मूंद कर विश्वास करने लगी थी. किंतु 40 दिन बीतने के बाद भी जब कोई परिणाम न मिला तो बाबा ने उसे समझाया कि यह सब तुम्हारे पति की शंका करने की वजह से हो रहा है. जब तक वे भी सच्चे मन से इस ताकत को नमन नहीं करेंगे, तब तक तुम अपने लक्ष्य को नहीं पा सकतीं. यह सुन कर सुजाता ने अपने पति को भी मजार लाने का फैसला किया और रोधो कर, गिड़गिड़ा कर, उसे यहां तक लाने में सफल हो ही गई. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, शैलेश? रमा की उत्सुकता चरम पर थी.’’

‘‘लेकिन जब मैं ने महेंद्र सर से कहा तो वे गुस्से से लालपीले हो कर कहने लगे, ‘ये सारी बातें बकवास हैं, ये फेरे लगाने से कुछ नहीं होता बल्कि अब तो सुजाता घरेलू कार्य में भी रुचि नहीं लेती. बीमारों की तरह पूरे दिन वह लेटी रहती है. चलो, मैं भी वहां का नजारा देख कर आता हूं.

‘‘उस दिन बाबा स्टेशन से पहले पीपल के पेड़ के नीचे बैठे आसपास से आए आदिवासियों को घेर कर बैठे थे. उस दिन मजार का मेला भी था जो मजार पर न लग कर बाहर पास के मैदान में लगता है. उस दिन की भीड़ को देखते हुए किसी को भी स्टेशन की सुरक्षा के लिहाज से मजार तक जाने नहीं दिया जाता. इसलिए जो भी भक्त, चादर, अगरबत्ती, धूप जो भी चढ़ाना चाहे, वह बाबा को सौंप देता है. इसीलिए बाबा के चारों तरफ भीड़ जुटी थी. जिस में गरीब आदिवासी महिलाएं, उन की बेटियां बहुत श्रद्धा के साथ हाथ जोड़ लाइन से आगे बढ़ती जा रही थीं.’’

‘‘सर, उन सब को बड़े ध्यान से देख रहे थे. थोड़ी देर में जब बाबा की नजर मेरे साथ खड़े सर पर पड़ी तो वे समझ गए कि ये सुजाता मैम के पति होंगे. उन्होंने उन्हें दूसरे दिन आ कर बात करने को कहा. सर मेरे साथ वापस आ गए.

‘‘तब तक तो मैं भी नहीं जानता था कि मैं खुद बाबा के हाथों का मोहरा बन कर रह गया हूं. वह एकतरफ सुजाता मैम को बच्चे के ख्वाब दिखा कर बरगला रहा था तो दूसरी तरफ प्रोफैसर को दूसरी शादी के सब्जबाग दिखाने लगा. इन दोनों को अपनी बातों का विश्वास दिलाने को, बाबा जब न तब, मुझे और मेरे दोस्तों को बुला कर हमारी मनोकामनाओं के पूरी होने के उदाहरण देता. हम भी उस की बात में हां में हां मिलाते, क्योंकि हमें बाबा की ताकत पर भरोसा भी था और डर भी.’’

‘‘धीरेधीरे उस ने मैम के दिमाग में यह बात भर दी कि उस का रहनसहन, पहनावा आकर्षक होने के कारण, पीपल के पेड़ के भूत, उस पर आसक्त हो गए हैं. इसलिए उसे सब से पहले अपने आप को सादगी में रखना होगा. दूसरी तरफ, प्रोफैसर को दूसरी शादी के लिए रिश्ते दिखाने लगा. उन्हीं में से एक रिश्ते में 16 साल की एक गरीब की लड़की का रिश्ता भी था, जो प्रोफैसर को बहुत ही भा गया.

‘‘आजकल सर के बहुत चक्कर लग रहे हैं उस लड़की के गांव के. यहां से 15 किलोमीटर पर ही तो है वह गांव. वहां आदिवासी परिवार हैं. उन के वहां अभी भी बालविवाह, बहुविवाह का चलन है. अब क्या है, सर की पांचों उंगलियां घी में हैं. वे भी बस लगता है अपनी बीवी के पूरी पागल होने के इंतजार में हैं ताकि उसे पागलखाने भेज कर, उस की सहानुभूति भी बटोर लें और फिर उस कन्या से विवाह कर संतान भी पैदा कर लें.

‘‘मेरी गलती, बस, यही है कि मैं बाबा और सर की चालों को पहले समझ ही नहीं पाया वरना मैम की कुछ मदद कर देता. मगर अब उन की मानसिक स्थिति को केवल किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ से मिल कर ही संभाला जा सकता है.’’

लेकिन मानसिक रोग विशेषज्ञ इस शहर में मौजूद ही नहीं हैं और दूसरे बड़े शहर में ले जा कर इलाज कराने के मूड में प्रोफैसर हैं ही नहीं. शैलेश के मुख से यह सब सुन रमा घोर चिंता में आ गई.

बेचारी सुजाता भाभी, यह मक्कार बाबा जब प्रोफैसर को अपनी बातों में न उलझा पाया तो उस ने दूसरा जाल फेंका जिस में बड़ेबड़े ऋ षिमुनि न पार पा पाए. तो फिर उस जाल में यह प्रोफैसर कैसे बच पाता. वह दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी को भूल गया, मौकापरस्त आदम जात. यह सोच कर रमा अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

महक वापस लौटी: क्यों मनोज का गला दबाना चाहती थी सुमि

सुमि को रोज 1-2 किलोमीटर पैदल चलना बेहद पसंद था. वह आज भी बस न ले कर दफ्तर के बाद अपने ही अंदाज में मजेमजे से चहलकदमी करते हुए, तो कभी जरा सा तेज चलती हुई दफ्तर से लौट रही थी कि सामने से मनोज को देख कर एकदम चौंक पड़ी.

सुमि सकपका कर पूछना चाहती थी, ‘अरे, तुम यहां इस कसबे में कब वापस आए?’

पर यह सब सुमि के मन में ही कहीं  रह गया. उस से पहले मनोज ने जोश में आ कर उस का हाथ पकड़ा और फिर तुरंत खुद ही छोड़ भी दिया.

मनोज की छुअन पा कर सुमि के बदन में जैसे कोई जादू सा छा गया हो. सुमि को लगा कि उस के दिल में जरा सी झनझनाहट हुई है, कोई गुदगुदी मची है.

ऐसा लगा जैसे सुमि बिना कुछ  बोले ही मनोज से कह उठी, ‘और मनु, कैसे हो? बोलो मनु, कितने सालों के बाद मिले हो…’

मनोज भी जैसे सुमि के मन की बात को साफसाफ पढ़ रहा था. वह आंखों से बोला था, ‘हां सुमि, मेरी जान. बस अब  जहां था, जैसा था, वहां से लौट आया, अब तुम्हारे पास ही रहूंगा.’

अब सुमि भी मन ही मन मंदमंद मुसकराने लगी. दिल ने दिल से हालचाल पूछ लिए थे. आज तो यह गुफ्तगू भी बस कमाल की हो रही थी.

पर एक सच और भी था कि मनोज को देखने की खुशी सुमि के अंगअंग में छलक रही थी. उस के गाल तक लाल हो गए थे.

मनोज में कोई कमाल का आकर्षण था. उस के पास जो भी होता उस के चुंबकीय असर में मंत्रमुग्ध हो जाता था.

सुमि को मनोज की यह आदत कालेज के जमाने से पता थी. हर कोई उस का दीवाना हुआ करता था. वह कुछ भी कहां भूली थी.

अब सुमि भी मनोज के साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगी. दोनों चुपचाप चल रहे थे.

बस सौ कदम चले होंगे कि एक ढाबे जैसी जगह पर मनोज रुका, तो सुमि भी ठहर गई. दोनों बैंच पर आराम से बैठ गए और मनोज ने ‘2 कौफी लाना’ ऐसा  कह कर सुमि से बातचीत शुरू कर दी.

‘‘सुमि, अब मैं तुम से अलग नहीं रहना चाहता. तुम तो जानती ही हो, मेरे बौस की बरखा बेटी कैसे मुझे फंसा कर ले गई थी. मैं गरीब था और उस के जाल में ऐसा फंसा कि अब 3 साल बाद यह मान लो कि वह जाल काट कर आ गया हूं.’

यह सुन कर तो सुमि मन ही मन हंस पड़ी थी कि मनोज और किसी जाल में फंसने वाला. वह उस की नसनस से वाकिफ थी.

इसी मनोज ने कैसे अपने एक अजीज दोस्त को उस की झगड़ालू पत्नी से छुटकारा दिलाया था, वह पूरी दास्तान जानती थी. तब कितना प्रपंच किया था इस भोले से मनोज ने.

दोस्त की पत्नी बरखा बहुत खूबसूरत थी. उसे अपने मायके की दौलत और पिता के रुतबे पर ऐश करना पसंद था. वह हर समय पति को मायके के ठाठबाट और महान पिता की बातें बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करती थी.

मनोज का दोस्त 5 साल तक यह सहन करता रहा था, पर बरखा के इस जहर से उस के कान पक गए थे. फिर एक दिन उस ने रोरो कर मनोज को आपबीती सुनाई कि वह अपने ही घर में हर रोज ताने सुनता है. बरखा को बातबात पर पिता का ओहदा, उन की दौलत, उन के कारनामों में ही सारा बह्मांड नजर आता है.

तब मनोज ने उस को एक तरकीब बताई थी और कहा था, ‘यार, तू इस जिंदगी को ऐश कर के जीना सीख. पत्नी अगर रोज तुझे रोने पर मजबूर कर रही है, तो यह ले मेरा आइडिया…’

फिर मनोज के दोस्त ने वही किया. बरखा को मनोज के बताए हुए एक शिक्षा संस्थान में नौकरी करने का सुझाव दिया और पत्नी को उकसाया कि वह अपनी कमाई उड़ा कर जी सकती है. उस को यह प्रस्ताव भी दिया कि वह घर पर नौकर रख ले और बस आराम करे.

दोस्त की मनमौजी पत्नी बरखा यही चाहती थी. वह मगन हो कर घर की चारदीवारी से बाहर क्या निकली कि उस मस्ती में डूब ही गई.

वह दुष्ट अपने पति को ताने देना ही भूल गई. अब मनोज की साजिश एक महीने में ही काम कर गई. उस संस्थान का डायरैक्टर एक नंबर का चालू था. बरखा जैसी को उस ने आसानी से फुसला लिया. बस 4 महीने लगे और  मनोज की करामात काम कर गई.

दोस्त ने अपनी पत्नी को उस के बौस के साथ पकड़ लिया और उस के पिता को वीडियो बना कर भेज दिया.

कहां तो दोस्त को पत्नी से 3 साल अपने अमीर पिता के किस्सों के ताने सुनने पड़े और कहां अब वह बदनामी नहीं करने के नाम पर उन से लाखों रुपए महीना ले रहा था.

ऐसा था यह धमाली मनोज. सुमि मन ही मन यह अतीत याद कर के अपने होंठ काटने लगी. उस समय वह मनोज के साथ ही नौकरी कर रही थी. हर घटना उस को पता थी.

ऐसा महातिकड़मी मनोज किसी की चतुराई का शिकार बनेगा, सुमि मान नहीं पा रही थी.

मगर मनोज कहता रहा, ‘‘सुमि, पता है मुंबई मे ऐश की जिंदगी के नाम पर बौस ने नई कंपनी में मुझे रखा जरूर, मगर वे बापबेटी तो मुझे नौकर समझने लगे.’’

सुमि ने तो खुद ही उस बौस की  यहां कसबे की नौकरी को तिलांजलि दे दी थी. वह यों भी कुछ सुनना नहीं चाहती थी, मगर मजबूर हो कर सुनती रही. मनोज बोलता रहा, ‘‘सुमि, जानती हो मुझ से शादी तो कर ली, पद भी दिया, मगर मेरा हाथ हमेशा खाली ही रहता था. पर्स बेचारा शरमाता रहता था. खाना पकाने, बरतन मांजने वाले नौकरों के पास भी मुझ से ज्यादा रुपया होता था.

‘‘मुझे न तो कोई हक मिला, न कोई इज्जत. मेरे नाम पर करोड़ों रुपया जमा कर दिया, एक कंपनी खोल दी, पर मैं ठनठन गोपाल.

‘‘फिर तो एक दिन इन की दुश्मन कंपनी को इन के राज बता कर एक करोड़ रुपया इनाम में लिया और यहां आ गया.’’

‘‘पर, वे तुम को खोज ही लेंगे,’’ सुमि ने चिंता जाहिर की.

यह सुन कर मनोज हंसने लगा, ‘‘सुमि, दोनों बापबेटी लंदन भाग गए हैं. उन का धंधा खत्म हो गया है. अरबों रुपए का कर्ज है उन पर. अब तो वे मुझ को नहीं पुलिस उन को खोज रही है. शायद तुम ने अखबार नहीं पढ़ा.’’

मनोज ने ऐसा कहा, तो सुमि हक्कीबक्की रह गई. उस के बाद तो मनोज ने उस को उन बापबेटी के जोरजुल्म की ऐसीऐसी कहानियां सुनाईं कि सुमि को मनोज पर दया आ गई.

घर लौटने के बाद सुमि को उस रात नींद ही नहीं आई. बारबार मनोज ही खयालों में आ जाता. वह बेचैन हो जाती.

आजकल अपने भैयाभाभी के साथ रहने वाली सुमि यों भी मस्तमौला जिंदगी ही जी रही थी. कालेज के जमाने से मनोज उस का सब से प्यारा दोस्त था, जो सौम्य और संकोची सुमि के शांत मन में शरारत के कंकड़ गिरा कर उस को खुश कर देता था.

कालेज पूरा कर के दोनों ने साथसाथ नौकरी भी शुरू कर दी. अब तो सुमि के मातापिता और भाईभाभी सब यही मानने लगे थे कि दोनों जीवनसाथी बनने का फैसला ले चुके हैं.

मगर, एक दिन मनोज अपने उसी बौस के साथ मुंबई चला गया. सुमि को अंदेशा तो हो गया था, पर कहीं उस का मन कहता जरूर कि मनोज लौट आएगा. शायद उसी के लिए आया होगा.

अब सुमि खुश थी, वरना तो उस को यही लगने लगा था कि उस की जिंदगी जंगल में खिल रहे चमेली के फूल जैसी हो गई है, जो कब खिला, कैसा खिला, उस की खुशबू कहां गई, कोई नहीं जान पाएगा.

अगले दिन सुमि को अचानक बरखा दिख गई. वह उस की तरफ गई.

‘‘अरे बरखा… तुम यहां? पहचाना कि नहीं?’’

‘‘कैसी हो? पूरे 7 साल हो गए.’’ कहां बिजी रहती हो.

‘‘तुम बताओ सुमि, तुम भी तो नहीं मिलतीं,’’ बरखा ने सवाल का जवाब सवाल से दिया.

दोनों में बहुत सारी बातें हुईं. बरखा ने बताया कि मनोज आजकल मुंबई से यहां वापस लौट आया है और उस की सहेली की बहन से शादी करने वाला है.

‘‘क्या…? किस से…?’’ यह सुन कर सुमि की आवाज कांप गई. उस को लगा कि पैरों तले जमीन खिसक गई.

‘‘अरे, वह थी न रीमा… उस की बहन… याद आया?’’

‘‘मगर, मनोज तो…’’ कहतेकहते सुमि रुक गई.

‘‘हां सुमि, वह मनोज से तकरीबन 12 साल छोटी है. पर तुम जानती हो न मनोज का जादुई अंदाज. जो भी उस से मिला, उसी का हो गया.

‘‘मेरे स्कूल के मालिक, जो आज पूरा स्कूल मुझ पर ही छोड़ कर विदेश जा बसे हैं, वे तक मनोज के खास दोस्त हैं.’’

‘‘अच्छा?’’

‘‘हांहां… सुमि पता है, मैं अपने मालिक को पसंद करने लगी थी, मगर मनोज ने ही मुझे बचाया. हां, एक बार मेरी वीडियो क्लिप भी बना दी.

‘‘मनोज ने चुप रहने के लाखों रुपए लिए, लेकिन आज मैं बहुत ही खुश हूं. पति ने दूसरी शादी रचा ली है. मैं अब आजाद हूं.’’

‘‘अच्छा…’’ सुमि न जाने कैसे यह सब सुन पा रही थी. वह तो मनोज की शादी की बात पर हैरान थी. यह मनोज फिर उस के साथ कौन सा खेल खेल रहा था.

सुमि रीमा का घर जानती थी. पास में ही था. उस के पैर रुके नहीं. चलती गई. रीमा का घर आ गया.

वहां जा कर देखा, तो रीमा की मां मिलीं. बताया कि मनोज और खुशी तो कहीं घूमने चले गए हैं.

यह सुन कर सुमि को सदमा लगा. खैर, उस को पता तो लगाना ही था कि मनोज आखिर कर क्या रहा है.

सुमि ने बरखा से दोबारा मिल कर पूरी कहानी सुना दी. बरखा यह सुन कर खुद भौंचक सी रह गई.

सुमि की यह मजबूरी उस को करुणा से भर गई थी. वह अभी इस समय तो बिलकुल समझ नहीं पा रही थी कि कैसे होगा.

खैर, उस ने फिर भी सुमि से यह वादा किया कि वह 1-2 दिन में जरूर कोई ठोस सुबूत ला कर देगी.

बरखा ने 2 दिन बाद ही एक मोबाइल संदेश भेजा, जिस में दोनों की  बातचीत चल रही थी. यह आडियो था. आवाज साफसाफ समझ में आ रही थी.

मनोज अपनी प्रेमिका से कह रहा था कि उस को पागल करार देंगे. उस के घर पर रहेंगे.

सुमि यह सुन कर कांपने लगी. फिर भी सुमि दम साध कर सुन रही थी. वह छबीली लड़की कह रही थी कि ‘मगर, उस को पागल कैसे साबित करोगे?’

‘अरे, बहुत आसान है. डाक्टर का  सर्टिफिकेट ले कर?’

‘और डाक्टर आप को यह सर्टिफिकेट क्यों देंगे?’

‘अरे, बिलकुल देंगे.’ फिक्र मत करो.

‘महिला और वह भी 33 साल की, सोचो है, न आसान उस को उल्लू बनाना, बातबात पर चिड़चिड़ापन पैदा करना कोई मुहिम तो है नहीं, बस जरा माहौल बनाना पड़ेगा.

‘बारबार डाक्टर को दिखाना पड़ेगा. कुछ ऐसा करूंगा कि 2-4 पड़ोसियों के सामने शोर मचा देगी या बरतन तोड़ेगी पागलपन के लक्षण यही तो होते हैं. मेरे लिए बहुत आसान है. वह बेचारी पागलखाने मत भेजो कह कर रोज गिड़गिड़ा कर दासी बनी रहेगी और यहां तुम आराम से रहना.’

‘मगर ऐसा धोखा आखिर क्यों? उस को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर, इस प्रपंच के बगैर भी हम एक हो सकते  हैं न.’

‘हांहां बिलकुल, मगर कमाई के  साधन तो चाहिए न मेरी जान. उस के नाम पर मकान और दुकान है. यह मान लो कि 2-3 करोड़ का इंतजाम है.

‘सुमि ने खुद ही बताया है कि शादी करते ही यह सब और कुछ गहने उस के नाम पर हो जाएंगे. अब सोचो, यह इतनी आसानी से आज के जमाने में कहां मिल पाता है.

‘यह देखो, उस की 4 दिन पहले की तसवीर, कितनी भद्दी. अब सुमि तो बूढ़ी हो रही है. उस को सहारा चाहिए. मातापिता चल बसे हैं. भाईभाभी की  अपनी गृहस्थी है.

‘मैं ही तो हूं उस की दौलत का सच्चा रखवाला और उस का भरोसेमंद हमदर्द. मैं नहीं करूंगा तो वह कहीं और जाएगी, किसी न किसी को खोजेगी.

‘मैं तो उस को तब से जानता हूं, जब वह 17 साल की थी. सोचो, किसी और को पति बना लेगी तो मैं ही कौन सा खराब हूं.’

रिकौर्डिंग पूरी हो गई थी. सुमि को बहुत दुख हुआ, पर वह इतनी भी कमजोर नहीं थी कि फूटफूट कर रोने लगती.

सुमि का मन हुआ कि वह मनोज का  गला दबा दे, उस को पत्थर मार कर घायल कर दे. लेकिन कुछ पल बाद ही सुमि ने सोचा कि वह तो पहले से ही ऐसा था. अच्छा हुआ पहले ही पता लग गया.

कुछ देर में ही सुमि सामान्य हो गई. वह जानती थी कि उस को आगे क्या करना है. मनोज का नाम मिटा कर अपना हौसला समेट कर के एक स्वाभिमानी जिद का भरपूर मजा  उठाना है.

लाजवंती: दीपक को क्या मिली उसके गुनाहों की सजा

नींद में ही बड़बड़ाते हुए राधेश्याम ने फोन उठाया और कहा, ‘‘कौन बोल रहा है?’’

उधर से रोने की आवाज आने लगी. बहुत दर्दभरी व धीमी आवाज में कहा, ‘पापा, मैं लाजो बोल रही हूं… उदयपुर से.’

राधेश्याम घबराता हुआ बोला, ‘‘बेटी लाजो क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? तुम इतना धीरेधीरे क्यों बोल रही हो? सब ठीक है न?’’

लाजवंती ने रोते हुए कहा, ‘पापा, कुछ भी ठीक नहीं है. आप जल्दी से मु झे लेने आ जाओ. अगर आप नहीं आए, तो मैं मर जाऊंगी.’

राधेश्याम घबरा कर बोला, ‘‘बेटी लाजो, ऐसी बात क्यों कह रही है? दामाद ने कुछ कहा क्या?’’

लाजवंती बोली, ‘पापा, आप जल्दी आ जाना. अब मैं यहां रहना नहीं चाहती. मैं रेलवे स्टेशन पर आप का इंतजार करूंगी.’

फोन कट गया. दोनों पतिपत्नी बहुत परेशान हो गए.

तुलसी ने रोते हुए कहा, ‘‘मैं आप को हमेशा से कहती रही हूं कि एक बार लाजो से मिल कर आ जाते हैं, लेकिन आप को फुरसत कहां है.’’

राधेश्याम ने कहा, ‘‘मु झे लगता है, दामाद ने ही लाजो को बहुत परेशान किया होगा.’’

तुलसी ने रोते हुए कहा, ‘‘अब मैं कुछ सुनना नहीं चाहती हूं. आप जल्दी उदयपुर जा कर बेटी को ले आओ. न जाने वह किस हाल में होगी.’’

‘‘अरे लाजो की मां, अब रोना बंद कर. वह मेरी भी तो बेटी है. जितना दुख तु झे हो रहा है, उतना ही दुख मु झे भी है. तुम औरतें दुनिया के सामने अपना दुख दिखा देती हो, हम मर्द दुख को मन में दबा देते हैं, दुनिया के सामने नहीं कर रख पाते हैं.’’

राधेश्याम उसी समय उदयपुर के लिए रेल से निकल गया. उस के मन में बुरे विचार आने लगे थे. वह पुरानी यादों में खो गया.

लाजवंती राधेश्याम और तुलसी की एकलौती संतान थी. दोनों पतिपत्नी लाजवंती को प्यार से लाजो कह कर पुकारते थे. उन्होंने उस की हर ख्वाहिश पूरी की थी.

लाजवंती की उम्र शादी के लायक हो चुकी थी, इसीलिए राधेश्याम को थोड़ी चिंता हुई. वह दौड़भाग कर लाजवंती के लिए अच्छा वर तलाश करने लगा, पर जहां वर अच्छा मिलता और वहां खानदान अच्छा नहीं मिलता. जहां खानदान अच्छा मिलता, वहां वर अच्छा नहीं मिलता.

बहुत दौड़भाग के बाद राधेश्याम ने चित्तौड़गढ़ शहर में लाजवंती का रिश्ता तय कर दिया.

लाजवंती का ससुर भूरालाल वन विभाग से कुछ महीने पहले रिटायर हुआ था. उस के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा मनोज चित्तौड़गढ़ में ही बैंक में कैशियर के पद पर काम करता था, जबकि छोटा बेटा दीपक उदयपुर में एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. उसी से लाजवंती का रिश्ता तय हुआ था.

भूरालाल की पत्नी की मौत हो चुकी थी. वह दीपक की कुछ गलत आदतों से चिंतित था. जब लाजवंती जैसी होनहार व पढ़ीलिखी लड़की के साथ शादी

हो जाएगी तो दीपक सभी बुरी आदतों को भूल जाएगा, इसलिए भूरालाल चिंता से कुछ मुक्त हुआ.

राधेश्याम ने धूमधाम से लाजवंती की शादी की. दहेज भी खूब दिया. विदाई के बाद वे दोनों घर में अकेले रह गए.

जब लाजवंती पहली बार ससुराल आई तो उसे ससुराल में जितना प्यार मिलना चाहिए था, नहीं मिला. वह मायूस हो गई. लाजवंती की जेठानी का बरताव उस के प्रति अच्छा नहीं था, न ही उस के पति का बरताव अच्छा था.

शादी होते ही दीपक उदयपुर में नौकरी पर चला गया. वह लाजवंती को साथ में नहीं ले गया था.

जब लाजवंती दोबारा ससुराल आई, तो ससुर भूरालाल का विचार था कि बहू दीपक के साथ रहे, लेकिन दीपक उसे अपने साथ नहीं रखना चाहता था.

जब भूरालाल ने दीपक को सम झाया व उस को भलाबुरा कहा, तब जा कर मजबूरी में वह लाजवंती को अपने साथ ले गया.

उदयपुर में वे किराए के मकान में रहने लगे. दीपक की सब से बुरी आदत थी जुआ खेलना व शराब पीना, जिस से वह घर पर हमेशा देर रात तक पहुंचता था. इस बात से लाजवंती बहुत परेशान थी. दीपक की तनख्वाह भी जुए व शराब में खर्च होने लगी थी, इसलिए महीने के अंत में कुछ नहीं बच पाता था.

एक दिन ससुर भूरालाल अचानक उदयपुर दीपक के घर पहुंच गया. उस समय लाजवंती पेट से थी.

बहू लाजवंती की ऐसी दयनीय हालत देख कर भूरालाल ने रोते हुए कहा, ‘बेटी, मैं तेरा गुनाहगार हूं. मेरी वजह से तेरी यह हालत हुई है. मु झे माफ कर देना.’

लाजवंती ने अपने ससुर को सम झाते हुए कहा, ‘इस में आप का कोई कुसूर नहीं है, आप मत रोइए. मैं आप के बेटे को सुधार नहीं सकी. मैं ने पूरी कोशिश की, लेकिन नाकाम रही.’

भूरालाल बेमन से चित्तौड़गढ़ लौट गया. लाजवंती की ऐसी हालत देख वह दुखी था. इसी गहरी चिंता की वजह से एक दिन भूरालाल को अचानक हार्टअटैक आ गया और उस की मौत हो गई.पर भूरालाल की मौत से दीपक की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. लाजवंती के एक बेटा हो गया, जो अब 5 साल का हो गया था. लाजवंती सिलाई कर के अपना घरखर्च चला रही थी.

कुछ महीने बाद दीपक की नौकरी छूट गई, क्योंकि वह हमेशा शराब पी कर औफिस जाने लगा था, इसलिए कंपनी वालों ने उसे नौकरी से निकाल दिया. उस को घर बैठे एक महीना बीत गया.

एक दिन दीपक ने लाजवंती के सोने के कंगन चुरा कर बाजार में बेच दिए. जब लाजवंती को पता चला तो दोनों के बीच लड़ाई झगड़ा हुआ. उस ने लाजवंती को मारापीटा.

एक दिन दीपक घर देरी से पहुंचा. उस समय लाजवंती दीपक के आने का इंतजार कर रही थी. दीपक ने बहुत ज्यादा शराब पी रखी थी. आज वह जुए में 10,000 रुपए हार गया था. आज उस का लाजवंती से कुछ और चीज छीनने का इरादा था.

दीपक के आते ही लाजवंती ने थाली में खाना रख दिया. इस के बाद वह सोने के लिए जाने लगी कि तभी दीपक ने लाजवंती का हाथ पकड़ कर कहा, ‘लाजवंती, रुको. मुझे तुम से एक बात कहनी है.’

लाजवंती सम झ गई कि आज इस का नया नाटक है, फिर भी उस ने पूछा, ‘क्या बात है?’

दीपक ने कहा, ‘तुम मेरे पास तो आओ.’

लाजवंती उस के पास आ कर बोली, ‘मु झे बहुत नींद आ रही है. क्या बात करनी है, जल्दी कहो.’

दीपक ने लाजवंती का हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से कहा, ‘मैं जो तुम से मांगना चाहता हूं, वह मु झे दोगी क्या?’

लाजवंती ने कहा, ‘क्या चाहिए आप को? मेरे पास देने लायक ऐसा कुछ भी नहीं है.’

दीपक ने लाजवंती को सम झाते हुए कहा, ‘मैं आज 10,000 रुपए जुए में हार गया हूं. वे रुपए मैं दोबारा जीतना चाहता हूं इसलिए मु झे तुम्हारी खास चीज की जरूरत है.’

लाजवंती ने कहा, ‘इस में मैं क्या कर सकती हूं? आप ने तो जुए व शराब में सबकुछ बेच दिया है. अब क्या बचा है? मु झे बेचना चाहते हो क्या?’

दीपक ने बड़े प्यार से कहा, ‘तुम भी कैसी बातें करती हो? मैं तुम्हें कैसे बेच सकता हूं, तुम तो मेरी धर्मपत्नी हो. मु झे तो तुम्हारा मंगलसूत्र चाहिए.’

लाजवंती ने गुस्सा जताते हुए कहा, ‘आप को कुछ शर्म आती है कि नहीं. यह मंगलसूत्र सुहाग की निशानी है. कुछ दिन पहले आप ने मेरे सोने के कंगन बेच दिए, मैं ने कुछ नहीं कहा, अब मंगलसूत्र बेच रहे हो, कुछ तो शर्म करो, आप कुछ भी कर लो, मैं मंगलसूत्र नहीं दूंगी.’

जब लाजवंती ने मंगलसूत्र देने से साफ मना कर दिया, तो दीपक को बहुत गुस्सा आया. वह बोला, ‘मैं तेरी फालतू बकवास नहीं सुनना चाहता हूं, इस समय मु झे केवल तुम्हारा मंगलसूत्र चाहिए. मु झे मंगलसूत्र दे दे.’

लाजवंती ने कहा, ‘मैं नहीं दूंगी मंगलसूत्र, यह मेरी आखिरी निशानी बची है.’

दीपक ने लाजवंती का हाथ पकड़ कर अपने पास खींचा और जलती हुई सिगरेट से उस के हाथ को दाग दिया. लाजवंती को बहुत दर्द हुआ.

लाजवंती ने दर्द से कराहते हुए कहा, ‘आप चाहे मु झे मार डालो, लेकिन मैं मंगलसूत्र नहीं दूंगी.’

इस के बाद दीपक ने लाजवंती का हाथ पकड़ कर उस के बदन को जलती हुई सिगरेट से जगहजगह दाग दिया. लाजवंती जोरजोर से चिल्लाने लगी.

लाजवंती के चिल्लाने से महल्ले वाले वहां इकट्ठा हो गए तो दीपक उन सब के सामने लाजवंती पर बदचलन होने का आरोप लगाने लगा.

लाजवंती ने रोते हुए कहा, ‘आप को  झूठ बोलते हुए शर्म नहीं आती. मेरे बदन को आप ने छलनी कर दिया. मु झे जलती हुई सिगरेट से दागा. मेरा कुसूर इतना सा था कि मैं ने अपना मंगलसूत्र आप को नहीं दिया और मैं यह मंगलसूत्र आप को नहीं दूंगी क्योंकि यह मेरी आखिरी निशानी है.’

लाजवंती की ऐसी हालत देख कर महल्ले वालों की आंखों में आंसू आ गए. सभी दीपक को भलाबुरा कहने लगे. दीपक ने उन्हें गालियां देते हुए दरवाजा बंद कर लिया और दोबारा लाजवंती को पीटने लगा.

लाजवंती ने अपने पापा को फोन लगाया, तो दीपक ने उस के हाथ से मोबाइल छीन कर फर्श पर फेंक दिया जिस से मोबाइल फोन टूट गया.

दीपक ने लाजवंती को फिर बुरी तरह से मारा, जिस से वह बेहोश हो गई. दीपक उस के गले से मंगलसूत्र खींच कर रात को ही घर से गायब हो गया.

जब अचानक रात को लाजवंती के बच्चे की नींद खुली तो मां को अपने पास न पा कर वह रोने लगा और बरामदे में चला आया और उस के पास बैठ गया. जब लाजवंती को होश आया तो उस ने अपने बेटे को गले से लगा लिया.

लाजवंती ने पाया कि उस के गले से मंगलसूत्र गायब था. वह सम झ गई थी कि दीपक ले गया है. उस ने घड़ी की तरफ देखा. सुबह के 5 बज चुके थे.

लाजवंती ने कुछ सोचते हुए अपने बेटे को साथ लिया और घर से निकल गई. पड़ोस की एक औरत से मोबाइल मांग कर अपने पापा को फोन लगा दिया.

पापा से बात कर के लाजो सीधी रेलवे स्टेशन की तरफ भागी. वह प्लेटफार्म के फ्लाईओवर की सीढि़यों पर अपने पापा का इंतजार करने लगी.

लाजवंती अपने खयालों में खोई थी कि उस के बेटे ने देखा कि कई छोटेछोटे बच्चे हाथ में कटोरा ले कर भीख मांग रहे थे. वह भी अपने छोटेछोटे हाथ आगे कर के भीख मांगने लगा.

इधर जब राधेश्याम की नींद खुली, तो वह उदयपुर पहुंच गया था.

उदयपुर स्टेशन पर उतर कर राधेश्याम जाने लगा, तभी अचानक कोई पीछे से उस की धोती पकड़ कर खींचने लगा.

राधेश्याम ने पीछे मुड़ कर देखा कि एक नन्हा बच्चा उन की धोती पकड़ कर हाथ आगे कर के भीख मांग रहा था.

राधेश्याम ने उस बच्चे को दुत्कारते हुए धक्का दिया, तो बच्चा दूर जा गिरा और रोने लगा.

बच्चे के रोने की आवाज सुन कर लाजवंती वहां आई. वह अपने बच्चे के पास जा कर उसे उठाने लगी.

राधेश्याम की नजर बेटी लाजो पर पड़ी. वह बोला, ‘‘लाजो, तुम यहां… ऐसी हालत में… तुम्हारी यह हालत किस ने बनाई?’’

लाजवंती ने देखा कि इस अनजान शहर में कौन लाजो कह कर पुकार रहा है. जब उस ने नजर उठा कर देखा तो सामने पापा खड़े हैं. वह जल्दी से दौड़ते हुए अपने पापा के गले लग कर रोने लगी.

राधेश्याम ने हिम्मत से काम लेते हुए अपने आंसुओं पर काबू पाते हुए कहा, ‘‘बेटी लाजो, आंसू मत बहा. मैं तु झे लेने ही आया हूं. चल, घर चलते हैं.’’

उस समय प्लेफार्म पर दूसरे मुसाफिरों ने पिता व बेटी को इस तरह आंसू बहाते हुए अनमोल मिलन व अनोखा प्यार देखा तो सभी भावुक हो गए.

राधेश्याम अपनी बेटी व नाती को ले कर गांव आ गया.

लाजवंती के साथ दीपक ने जो जोरजुल्म किए थे, लाजवंती ने अपनी मां व पिता को साफसाफ बता दिया.

लाजवंती ने कुछ महीनों बाद ही दीपक से तलाक ले लिया और नई जिंदगी की शुरुआत की.

परी हूं मैं: आखिर क्या किया था तरुण ने

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अनोखा बदला : राधिका ने कैसे लिया बदला?

निर्मला से सट कर बैठा संतोष अपनी उंगली से उस की नंगी बांह पर रेखाएं खींचने लगा, तो वह कसमसा उठी. जिंदगी में पहली बार उस ने किसी मर्द की इतनी प्यार भरी छुअन महसूस की थी.

निर्मला की इच्छा हुई कि संतोष उसे अपनी बांहों में भर कर इतनी जोर से भींचे कि…

निर्मला के मन की बात समझ कर संतोष की आंखों में चमक आ गई. उस के हाथ निर्मला की नंगी बांहों पर फिसलते हुए गले तक पहुंच गए, फिर ब्लाउज से झांकती गोलाइयों तक.

तभी बाहर से आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘दीदी, चाय बन गई है…’’

संतोष हड़बड़ा कर निर्मला से अलग हो गया, जिस का चेहरा एकदम तमतमा उठा था, लेकिन मजबूरी में वह होंठ काट कर रह गई.

नीचे वाले कमरे में छोटी बहन उषा ने नाश्ता लगा रखा था. चायनाश्ता करने के बाद संतोष ने उठते हुए कहा, ‘‘अब चलूं… इजाजत है? कल आऊंगा, तब खाना खाऊंगा… कोई बढि़या सी चीज बनाना. आज बहुत जरूरी काम है, इसलिए जाना पड़ेगा…’’

‘‘अच्छा, 5 मिनट तो रुको…’’ उषा ने बरतन समेटते हुए कहा, ‘‘मुझे अपनी एक सहेली से नोट्स लेने हैं. रास्ते में छोड़ देना. मैं बस 5 मिनट में तैयार हो कर आती हूं.’’

उषा थोड़ी देर में कपड़े बदल कर आ गई. संतोष उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर चला गया.

उधर निर्मला कमरे में बिस्तर पर गिर पड़ी और प्यास अधूरी रह जाने से तड़पने लगी.

निर्मला की आंखों के आगे एक बार फिर संतोष का चेहरा तैर उठा. उस ने झपट कर दरवाजा बंद कर दिया और बिस्तर पर गिर कर मछली की तरह छटपटाने लगी.

निर्मला को पहली बार अपनी बहन उषा और मां पर गुस्सा आया. मां चायनाश्ता बनाने में थोड़ी देर और लगा देतीं, तो उन का क्या बिगड़ जाता. उषा कुछ देर उसे और न बुलाती, तो निर्मला को वह सबकुछ जरूर मिल जाता, जिस के लिए वह कब से तरस रही थी.

जब पिता की मौत हुई थी, तब निर्मला 22 साल की थी. उस से बड़ी कोई और औलाद न होने के चलते बीमार मां और छोटी बहन उषा को पालने की जिम्मेदारी बिना कहे ही उस के कंधे पर आ पड़ी थी.

निर्मला को एक प्राइवेट फर्म में अच्छी सी नौकरी भी मिल गई थी. उस समय उषा 10वीं जमात के इम्तिहान दे चुकी थी, लेकिन उस ने धीरेधीरे आगे पढ़ कर बीए में दाखिला लेते समय निर्मला से कहा था, ‘‘दीदी, मां की दवा में बड़ा पैसा खर्च हो रहा है. तुम अकेले कितना बोझ उठाओगी…

‘‘मैं सोच रही हूं कि 2-4 ट्यूशन कर लूं, तो 2-3 हजार रुपए बड़े आराम से निकल जाएंगे, जिस से मेरी पढ़ाई के खर्च में मदद हो जाएगी.’’

‘‘तुझे पढ़ाई के खर्च की चिंता क्यों हो रही है? मैं कमा रही हूं न… बस, तू पढ़ती जा,’’ निर्मला बोली थी.

अब निर्मला 30 साल की होने वाली है. 1-2 साल में उषा भी पढ़लिख कर ससुराल चली जाएगी, तो अकेलापन पहाड़ बन जाएगा.

लेकिन एक दिन अचानक मौका हाथ आ लगा था, तो निर्मला की सोई इच्छाएं अंगड़ाई ले कर जाग उठी थीं.

उस दिन दफ्तर में काम निबटाने के बाद सब चले गए थे. निर्मला देर तक बैठी कागजों को चैक करती रही थी. संतोष उस की मदद कर रहा था. आखिरकार रात के 10 बजे फाइल समेट कर वह उठी, तो संतोष ने हंस कर कहा था, ‘‘इस समय तो आटोरिकशा या टैक्सी भी नहीं मिलेगी, इसलिए मैं आप को मोटरसाइकिल से घर तक छोड़ देता हूं.’’

निर्मला ने कहा था, ‘‘ओह… एडवांस में शुक्रिया?’’

निर्मला को उस के घर के सामने उतार कर संतोष फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट करने लगा, तो उस ने हाथ बढ़ा कर हैंडल थाम लिया और कहने लगी, ‘‘ऐसे कैसे जाएंगे… घर तक आए हैं, तो कम से कम एक कप चाय…’’

‘‘हां, चाय चलेगी, वरना घर जा कर भूखे पेट ही सोना पड़ेगा. रात भी काफी हो गई है. मैं जिस होटल में खाना खाता हूं, अब तो वह भी बंद हो चुका होगा.’’

‘‘आप होटल में खाते हैं?’’

‘‘और कहां खाऊंगा?’’

‘‘क्यों? आप के घर वाले?’’

‘‘मेरा कोई नहीं है. मैं मांबाप की एकलौती औलाद था. वे दोनों भी बहुत कम उम्र में ही मेरा साथ छोड़ गए, तब से मैं अकेला जिंदगी काट रहा हूं.’’

संतोष ने बहुत मना किया, लेकिन निर्मला नहीं मानी थी. उस ने जबरदस्ती संतोष को घर पर ही खाना खिलाया था.

अगले दिन शाम के 5 बजे निर्मला को देख कर मोटरसाइकिल का इंजन स्टार्ट करते हुए संतोष ने कहा था, ‘‘आइए… बैठिए.’’

निर्मला ने बिना कुछ बोले ही पीछे की सीट पर बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रख दिया था. घर पहुंच कर उस ने फिर चाय पीने की गुजारिश की, तो संतोष ने 1-2 बार मना किया, लेकिन निर्मला उसे घर के अंदर खींच कर ले गई थी.

इस के बाद रोज का यही सिलसिला हो गया. संतोष को निर्मला के घर आने या रुकने के लिए कहने की जरूरत नहीं पड़ती थी, खासतौर से छुट्टी वाले दिन तो वह निर्मला के घर पड़ा रहता था. सब ने उसे भी जैसे परिवार का एक सदस्य मान लिया था.

एक दिन अचानक निर्मला का सपना टूट गया. उस दिन उषा अपनी सहेली के यहां गई थी. दूसरे दिन उस का इम्तिहान था, इसलिए वह घर पर बोल गई थी कि रातभर सहेली के साथ ही पढ़ेगी, फिर सवेरे उधर से ही इम्तिहान देने यूनिवर्सिटी चली जाएगी.

उस दिन भी संतोष निर्मला के साथ ही उस के घर आया था और खाना खा कर रात के तकरीबन 10 बजे वापस चला गया था.

उस के जाने के बाद निर्मला बाहर वाला दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में लौट रही थी, तभी मां ने टोक दिया, ‘‘बेटी, तुझ से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

निर्मला का मन धड़क उठा. मां के पास बैठ कर आंखें चुराते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है मां?’’

‘‘बेटी, संतोष कैसा लड़का है. वह तेरे ही दफ्तर में काम करता है… तू तो उसे अच्छी तरह जानती होगी.’’

निर्मला एकाएक कोई जवाब नहीं दे सकी.

मां ने कांपते हाथों से निर्मला का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं तेरे मन का दुख समझती हूं बेटी, लेकिन इज्जत से बढ़ कर कुछ नहीं होता, अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है, इसलिए…’’

निर्मला एकदम तिलमिला उठी. वह घबरा कर बोली, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो मां? क्या तुम ने कभी कुछ देखा है?’’

‘‘हां बेटी, देखा है, तभी तो कह रही हूं. कल जब तू बाजार गई थी, तब दो घड़ी के लिए संतोष आया था. वह उषा के साथ कमरे में था.

‘‘मैं भी उन के साथ बातचीत करने के लिए वहां पहुंची, लेकिन दरवाजे पर पहुंचते ही मैं ने उन दोनों को जिस हालत में देखा…’’

निर्मला चिल्ला पड़ी, ‘‘मां…’’ और वह उठ कर अपने कमरे की ओर भाग गई.

निर्मला के कानों में मां की बातें गूंज रही थीं. उसे विश्वास नहीं हुआ. मां को जरूर धोखा हो गया है. ऐसा कभी नहीं हो सकता. लेकिन यही हो रहा था.

अगले दिन निर्मला दफ्तर गई जरूर, लेकिन उस का किसी काम में मन नहीं लगा. थोड़ी देर बाद ही वह सीट से उठी. उसे जाते देख संतोष ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

निर्मला ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मेरी एक खास सहेली बीमार है. मैं उसे ही देखने जा रही हूं.’’

‘‘कितनी देर में लौटोगी?’’

‘‘मैं उधर से ही घर चली जाऊंगी.’’

बहाना बना कर निर्मला जल्दी से बाहर निकल आई. आटोरिकशा कर के वह सीधे घर पहुंची. मां दवा खा कर सो रही थीं. उषा शायद अपने कमरे में पढ़ाई कर रही थी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. इस लापरवाही पर उसे गुस्सा तो आया, लेकिन बिना कुछ बोले चुपचाप दरवाजा बंद कर के वह ऊपर अपने कमरे में चली गई.

इस के आधे घंटे बाद ही बाहर मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज सुनाई पड़ी. निर्मला को समझते देर नहीं लगी कि जरूर संतोष आया होगा.

निर्मला कब तक अपने को रोकती. आखिर नहीं रहा गया, तो वह दबे पैर सीढि़यां उतर कर नीचे पहुंची. मां सो रही थीं.

वह बिना आहट किए उषा के कमरे के सामने जा कर खड़ी हो गई और दरवाजे की एक दरार से आंख सटा कर झांकने लगी. भीतर संतोष और उषा दोनों एकदूसरे में डूबे हुए थे.

उषा ने इठलाते हुए कहा, ‘‘छोड़ो मुझे… कभी तो इतना प्यार दिखाते हो और कभी ऐसे बन जाते हो, जैसे मुझे पहचानते नहीं.’’

संतोष ने उषा को प्यार जताते हुए कहा, ‘‘वह तो तुम्हारी दीदी के सामने मुझे दिखावा करना पड़ता है.’’

उषा ने हंस कर कहा, ‘‘बेचारी दीदी, कितनी सीधी हैं… सोचती होंगी कि तुम उन के पीछे दीवाने हो.’’

संतोष उषा को प्यार करता हुआ बोला, ‘‘दीवाना तो हूं, लेकिन उन का नहीं तुम्हारा…’’

कुछ पल के बाद वे दोनों वासना के सागर में डूबनेउतराने लगे. निर्मला होंठों पर दांत गड़ाए अंदर का नजारा देखती रही… फिर एकाएक उस की आंखों में बदले की भावना कौंध उठी. उस ने दरवाजा थपथपाते हुए पूछा, ‘‘संतोष आए हैं क्या? चाय बनाने जा रही हूं…’’

संतोष उठने को हुआ, तो उषा ने उसे भींच लिया, ‘‘रुको संतोष… तुम्हें मेरी कसम…’’

‘‘पागल हो गई हो. दरवाजे पर तुम्हारी दीदी खड़ी हैं…’’ और संतोष जबरदस्ती उठ कर कपड़े पहनने लगा.

उस समय उषा की आंखों में प्यार का एहसास देख कर एक पल के लिए निर्मला को अपना सारा दुख याद आया.

मां के कमरे के सामने नींद की गोलियां रखी थीं. उन्हें समेट कर निर्मला रसोईघर में चली गई. चाय छानने के बाद वह एक कप में ढेर सारी नींद की गोलियां डाल कर चम्मच से हिलाती रही, फिर ट्रे में उठाए हुए बाहर निकल आई.

संतोष ने चाय पी कर उठते हुए आंखें चुरा कर कहा, ‘‘मुझे बहुत तेज नींद आ रही है. अब चलता हूं, फिर मुलाकात होगी.’’

इतना कह कर संतोष बाहर निकला और मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के घर के लिए चला गया.

दूसरे दिन अखबारों में एक खबर छपी थी, ‘कल मोटरसाइकिल पेड़ से टकरा जाने से एक नौजवान की दर्दनाक मौत हो गई. उस की जेब में मिले पहचानपत्रों से पता चला कि संतोष नाम का वह नौजवान एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था’.

जैसे को तैसा: भावना लड़को को अपने जाल में क्यों फंसाती थी

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परी हूं मैं: भाग 3- आखिर क्या किया था तरुण ने

तरुण फुरती से दौड़ा उस के पीछे, तब तक तो खबर फैल चुकी थी. मैं कुछ देर तो चौके में बैठी रह गई. जब छत पर पहुंची तो औरतों की नजरों में स्पष्ट हिकारत भाव देखा और तो और, उस रोज से नानी की नजरें बदली सी लगीं. मैं सावधान हो गई. ज्योंज्यों शादी की तिथि नजदीक आ रही थी, मेरा जी धकधक कर रहा था. तरुण का सहज उत्साहित होना मुझे अखर रहा था. इसीलिए तरुण को मेहंदी लगाती बहनों के पास जा बैठी. मगर तरुण अपने में ही मगन बहन से बात कर रहा था, ‘पुष्पा, पंजे और चेहरे के जले दागों पर भी हलके से हाथ फेर दे मेहंदी का, छिप जाएंगे.’  सुन कर मैं रोक न पाई खुद को, ‘‘तरुण, ये दाग न छिपेंगे, न इन पर कोई दूसरा रंग चढ़ेगा. आग के दाग हैं ये.’’ सन्नाटा छा गया हौल में. मुझे राजीव आज बेहद याद आए. कैसी निरापदता होती है उन के साथ, तरुण को देखो…तो वह दूर बड़ी दूर नजर आता है और राजीव, हर पल उस के संग. आज मैं सचमुच उन्हें याद करने लगी.

आखिरकार बरात प्रस्थान का दिन आ गया, मेरे लिए कयामत की घड़ी थी. जैसे ही तरुण के सेहरा बंधा, वह अपने नातेरिश्तेदारों से घिर गया. उसे छूना तो दूर, उस के करीब तक मैं नहीं पहुंच पाई. मुझे अपनी औकात समझ में आने लगी. असल औकात अन्य औरतों ने बरात के वापस आते ही समझा दी. उन बहन-बुआ के एकएक शब्द में व्यंग्य छिपा था-‘‘भाभीजी, आज से आप को हम लोगों के साथ हौल में ही सोना पड़ेगा. तरुण के कमरे का सारा पुराना सामान हटा कर विराज के साथ आया नया पलंग सजाना होगा, ताजे फूलों से.’’ छुरियां सी चलीं दिल पर. लेकिन दिखावे के लिए बड़ी हिम्मत दिखाई मैं ने भी. बराबरी से हंसीठिठोली करते हुए तरुण और विराज का कमरा सजवाया. लेकिन आधीरात के बाद जब कमरे का दरवाजा खट से बंद हुआ. मेरी जान निकल गई, लगा, मेरा पूरा शरीर कान बन गया है. कैसे देखती रहूं मैं अपनी सब से कीमती चीज की चोरी होते हुए. चीख पड़ी, ‘चोर, चोर,चोर.’ गुल हुई सारी बत्तियां जल पड़ीं. रंग में भंग डालने का मेरा उपक्रम पूर्ण हुआ. शादी वाला घर, दानदहेज के संग घर की हर औरत आभूषणों से लदी हुई. ऐसे मालदार घरों में ही तो चोरलुटेरे घात लगाए बैठे रहते हैं.

नींद से उठे, डरे बच्चों के रोने का शोर, आदमियों का टौर्च ले कर भागदौड़ का कोलाहल…ऐसे में तरुण के कमरे का दरवाजा खुलना ही था. उस के पीछेपीछे सजीसजाई विराज भी चली आई हौल में. चैन की सांस ली मैं ने. बाकी सभी भयभीत थे लुट जाने के भय से. सब की आंखों से नींद गायब थी. इस बीच, मसजिद से सुबह की आजान की आवाज आते ही मैं मन ही मन बुदबुदाई, ‘हो गई सुहागरात.’ लेकिन कब तक? वह तो सावित्री थी जिस ने सूर्य को अस्त नहीं होने दिया था. सुबह से ही मेहमानों की विदाई शुरू हो गई थी. छुट्टियां किस के पास थीं? मुझे भी लौटना था तरुण के साथ. मगर मेरे गले में बड़े प्यार से विराज को भी टांग दिया गया. जाने किस घड़ी में बेटियों से कहा था कि चाची ले कर आऊंगी. विराज को देख कर मुझे अपना सिर पीट लेने का मन होता. मगर उस ने रिद्धि व सिद्धि का तो जाते ही मन जीत लिया. 10 दिनों बाद विराज का भाई उसे लेने आ गया और मैं फिर तरुण की परी बन गई. गिनगिन कर बदले लिए मैं ने तरुण से. अब मुझे उस से सबकुछ वैसा ही चाहिए था जैसे वह विराज के लिए करता था…प्यार, व्यवहार, संभाल, परवा सब.

चूक यहीं हुई कि मैं अपनी तुलना विराज से करते हुए सोच ही नहीं पाई कि तरुण भी मेरी तुलना विराज से कर रहा होगा. वक्त भाग रहा था. मैं मुठ्ठी में पकड़ नहीं पा रही थी. ऐसा लगा जैसे हर कोई मेरे ही खिलाफ षड्यंत्र रच रहा है. तरुण ने भी बताया ही नहीं कि विराज ट्रांसफर के लिए ऐप्लीकेशन दे चुकी है. इधर राजीव का एग्रीमैंट पूरा हो चुका था. उन्होंने आते ही तरुण को व्यस्त तो कर ही दिया, साथ ही शहर की पौश कालोनी में फ्लैट का इंतजाम कर दिया यह कहते हुए, ‘‘शादीशुदा है अब, यहां बहू के साथ जमेगा नहीं.’’ मैं चुप रह गई मगर तरुण ने अब भी मुंह मारना छोड़ा नहीं था. तरुण मेरी मुट्ठी में है, यह एहसास विराज को कराने का कोई मौका मैं छोड़ती नहीं थी. जब भी विराज से मिलना होता, वह मुझे पहले से ज्यादा भद्दी, मोटी और सांवली नजर आती. संतुष्ट हो कर मैं घर लौट कर अपने बनावशृंगार पर और ज्यादा ध्यान देती. फिर मैं ने नोट किया, तरुण का रुख उस के बजाय मेरे प्रति ज्यादा नरम और प्यारभरा होता, फिर भी विराज सहजभाव से नौकरी, ट्यूशन के साथसाथ तरुण की सुविधा का पूरा खयाल रखती. न तरुण से कोई शिकायत, न मांगी कोई सुविधा या भेंट.

‘परी थोड़ी है जो छू लो तो पिघल जाए,’ तरुण ने भावों में बह कर एक बार कहा था तो मैं सचमुच अपने को परी ही समझ बैठी थी. तब तक तरुण की थीसिस पूरी हो चुकी थी मगर अभी डिसकशन बाकी था. और फिर वह दिन आ ही गया. तरुण को डौक्टरेट की डिगरी के ही साथ आटोनौमस कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर पद पर नियुक्ति भी मिल गई. धीरेधीरे उस का मेरे पास आना कम हो रहा था, फिर भी मैं कभी अकेली, कभी बेटियों के साथ उस के घर जा ही धमकती. विराज अकसर शाम को भी सूती साड़ी में बगैर मेकअप के मिडिल स्कूल के बच्चों को पढ़ाती मिलती. ऐसे में हमारी आवभगत तरुण को ही करनी पड़ती. वह एकएक चीज का वर्णन चाव से करता…विराज ने गैलरी में ही बोनसाई पौधों के संग गुलाब के गमले सजाए हैं, साथ ही गमले में हरीमिर्च, हरा धनिया भी उगाया है. विराज…विराज… विराज…विराज…विराज ने मेरा ये स्वेटर क्रोशिए से बनाया है. विराज ने घर को घर बना दिया है. विराज के हाथ की मखाने की खीर, विराज के गाए गीत… विराज के हाथ, पैर, चेहरा, आंखे…

मैं गौर से देखने लगती तरुण को, मगर वह सकपकाने की जगह ढिठाई से मुसकराता रहता और मैं अपमान की ज्वाला में जल उठती. मेरे मन में बदले की आग सुलगने लगी. मैं विराज से अकेले में मिलने का प्रयास करती और अकसर बड़े सहजसरल भाव से तरुण का जिक्र ही करती. तरुण ने मेरा कितना ध्यान रखा, तरुण ने यह कहा वह किया, तरुण की पसंदनापसंद. तरुण की आदतों और मजाकों का वर्णन करने के साथसाथ कभीकभी कोई ऐसा जिक्र भी कर देती थी कि विराज का मुंह रोने जैसा हो जाता और मैं भोलेपन से कहती, ‘देवर है वह मेरा, हिंदी की मास्टरनी हो तुम, देवर का मतलब नहीं समझतीं?’  विराज सब समझ कर भी पूर्ण समर्पण भाव से तरुण और अपनी शादी को संभाल रही थी. मेरे सीने पर सांप लोट गया जब मालूम पड़ा कि विराज उम्मीद से है, और सब से चुभने वाली बात यह कि यह खबर मुझे राजीव ने दी.

‘‘आप को कैसे मालूम?’’ मैं भड़क गई.

‘‘तरुण ने बताया.’’

‘‘मुझे नहीं बता सकता था? मैं इतनी दुश्मन हो गई?’’

विराज, राजीव से सगे जेठ का रिश्ता निभाती है. राजीव की मौजूदगी में कभी अपने सिर से पल्लू नीचे नहीं गिरने देती है, जोर से बोलना हंसना तो दूर, चलती ही इतने कायदे से है…धीमेधीमे, मुझे नहीं लगता कि राजीव से इस बारे में उस की कभी कोई बात भी हुई होगी. लेकिन आज राजीव ने जिस ढंग से विराज के बारे में बात की , स्पष्टतया उन के अंदाज में विराज के लिए स्नेह के साथसाथ सम्मान भी था. चर्चा की केंद्रबिंदु अब विराज थी. तरुण ने विराज को डिलीवरी के लिए घर भेजने के बजाय अपनी मां एवं नानी को ही बुला लिया था. वे लोग विराज को हथेलियों पर रख रही थीं. मेरी हालत सचमुच विचित्र हो गई थी. राजीव अब भी किताबों में ही आंखें गड़ाए रहते हैं. और विराज ने बेटे को जन्म दिया. तरुण पिता बन गया. विराज मां बन गई पर मैं बड़ी मां नहीं बन पाई. तरुण की मां ने बच्चे को मेरी गोद में देते हुए एकएक शब्द पर जोर दिया था, ‘लल्ला, ये आ गईं तुम्हारी ताईजी, आशीष देने.’

बच्चे के नामकरण की रस्म में भी मुझे जाना पड़ा. तरुण की बहनें, बूआओं सहित काफी मेहमानों को निमंत्रित किया गया. कार्यक्रम काफी बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था. इस पीढ़ी का पहला बेटा जो पैदा हुआ है. राजीव अपने पुराने नातेरिश्ते से बंधे फंक्शन में बराबरी से दिलचस्पी ले रहे थे. तरुण विराज और बच्चे के साथ बैठ चुका तो औरतों में नाम रखने की होड़ मच गई. बहनें अपने चुने नाम रखवाने पर अड़ी थीं तो बूआएं अपने नामों पर. बड़ा खुशनुमा माहौल था. तभी मेरी निगाहें विराज से मिलीं. उन आंखों में जीत की ताब थी. सह न सकी मैं. बोल पड़ी, ‘‘नाम रखने का पहला हक उसी का होता है जिस का बच्चा हो. देखो, लल्ला की शक्ल हूबहू राजीव से मिल रही है. वे ही रखेंगे नाम.’’ सन्नाटा छा गया. औरतों की उंगलियां होंठों पर आ गईं. विराज की प्रतिक्रिया जान न सकी मैं. वह तो सलमासितारे जड़ी सिंदूरी साड़ी का लंबा घूंघट लिए गोद में शिशु संभाले सिर झुकाए बैठी थी.

मैं ने चारोें ओर दृष्टि दौड़ाई, शायद राजीव यूनिवर्सिटी के लिए निकल चुके थे. मेरा वार खाली गया. तरुण ने तुरंत बड़ी सादगी से मेरी बात को नकार दिया, ‘‘भाभी, आप इस फैक्ट से वाकिफ नहीं हैं शायद. बच्चे की शक्ल तय करने में मां के विचार, सोच का 90 प्रतिशत हाथ होता है और मैं जानता हूं कि विराज जब से शादी हो कर आई, सिर्फ आप के ही सान्निध्य में रही है, 24 घंटे आप ही तो रहीं उस के दिलोदिमाग में. इस लिहाज से बच्चे की शक्ल तो आप से मिलनी चाहिए थी. परिवार के अलावा किसी और पर या राजीव सर पर शक्लसूरत जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह तो आप भी जानती हैं कि विराज ने आज तक किसी दूसरे की ओर देखा तक नहीं है. वह ठहरी एक सीधीसादी घरेलू औरत.’’

औरत…लगा तरुण ने मेरे पंख ही काट दिए और मैं धड़ाम से जमीन पर गिर गई हूं. मुझे बातबात पर परी का दरजा देने वाले ने मुझे अपनी औकात दिखा दी. मुझे अपने कंधों में पहली बार भयंकर दर्द महसूस होने लगा, जिन्हें तरुण ने सीढ़ी बनाया था, उन कंधों पर आज न तरुण की बांहें थीं और न ही पंख.

भेडि़या: मीना और सीमा की खूबसूरती पर किसकी नजर थी

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