Mother’s Day Special: बच्चों की परवरिश बनाएं आसान इन 7 टिप्स से

अकसर कामकाजी महिलाएं अपराधबोध से ग्रस्त रहती हैं. यह अपराधबोध उन्हें इस बात को ले कर होता है कि पता नहीं वे अपने कैरियर की वजह से घर की जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वाह कर पाएंगी या नहीं. उस पर यह अपराधबोध तब और बढ़ जाता है जब वे अपने दुधमुंहे बच्चे के हाथ से अपना आंचल छुड़ा कर काम पर जाती हैं. तब उन्हें हर पल अपने बच्चे की चिंता सताती है. एकल परिवारों में जहां पारिवारिक सहयोग की कतई गुंजाइश नहीं होती है, वहां तो नौबत यहां तक आ जाती है कि उन्हें अपने बच्चे या कैरियर में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है और फिर हमारे समाज में बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी मां पर ही होती है इसलिए मां चाहे कितने भी बड़े पद पर आसीन क्यों न हो, चाहे उस की तनख्वाह कितनी भी ज्यादा क्यों न हो समझौता उसे ही करना पड़ता है. ऐसे में होता यह है कि यदि वह अपने बच्चे की परवरिश के बारे में सोच कर अपने कैरियर पर विराम लगाती है, तो उसे अपराधबोध होता है कि उस ने अपने कैरियर के लिए कुछ नहीं किया. यदि वह बच्चे के पालनपोषण के लिए बेबीसिटर (दाई) पर भरोसा करती है, तो इस एहसास से उबरना मुश्किल होता है कि उस ने अपने कैरियर और भविष्य के लिए अपने बच्चे की परवरिश पर ध्यान नहीं दिया. ऐसे में एक कामकाजी महिला करे तो करे क्या?

इस का कोई तयशुदा जवाब नहीं हो सकता ह. इस मामले में हरेक की अपने हालात, इच्छाओं और प्राथमिकताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. यों भी मां बनना किसी भी लड़की की जिंदगी का बड़ा बदलाव होता है. कुछ लड़कियां ऐसी भी होती हैं जो किसी भी तरह मैनेज कर अपनी जौब करना चाहती हैं तो कुछ ऐसी भी होती हैं जो किसी भी कीमत पर अपने बच्चे पर ध्यान देना चाहती हैं. वनस्थली विद्यापीठ में ऐसोसिएट प्रोफैसर डा. सुधा मोरवाल कहती हैं, ‘‘मां बनने के बाद मैं ने अपना काम फिर से शुरू किया. चूंकि मुझे पारिवारिक सहयोग मिला था, इसलिए मेरे कैरियर ने फिर से गति पकड़ ली. हालांकि शुरुआती दौर में मुझे थोड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था और बच्चे को अपना पूरा समय न दे पाने का अपराधबोध होता था. पर हां, घर के कामकाज का बोझ मुझ पर कभी भी ज्यादा नहीं पड़ा.’’

डा. सुधा के उलट मीना मिलिंद को अपनी जौब छोड़नी पड़ी, क्योंकि उस के बच्चे को संभालने वाला कोई नहीं था और वह यह भी नहीं चाहती थी कि उसे बच्चे को ले कर कोई गिल्ट हो. मगर काम छोड़ने की कसक भी कम नहीं थी. बच्चे के छोटे होने की वजह से वे अभी तक जौब शुरू नहीं कर पाईं, क्योंकि वे एकल परिवार में रह

बच्चों का खेल नहीं पेरैंटिंग

चाहे वर्किंग पेरैंट्स हों, हाउसवाइफ या फिर वर्किंग हसबैंड, आप को अपने बच्चों की चिंता सताती रहती है. इस कारण आप उन पर कई ऐसी पाबंदियां लगा देते हैं कि बच्चे घुटन महसूस करने लगते हैं. आज के समय में बच्चों पर कोचिंग क्लास अटैंड करने का बोझ भी बढ़ जाता है. दूसरे बच्चों के साथ कंपीटिशिन का दबाव भी होता है. पेरैंट्स के तौर पर क्या आप ने यह जानने की कोशिश की है कि वे आप के लाइफस्टाइल से खुश हैं या निराश?

बच्चों पर पाबंदियां लगाने के बजाय उन्हें अपने ढंग से आजादी दे कर तो देखें. आप को स्वयं इन बातों के जादुई परिणाम दिखाई देने लगेंगे. आप इन मुख्य बातों पर ध्यान दें:

बच्चे को हीनभावना से बचाएं

बच्चे की योग्यता और प्रतिभा अपने प्रयास के साथसाथ जीन्स पर भी निर्भर करती है. इसलिए इन के लिए दुखी होना या मन में हीनभावना लाना सही नहीं है. पेरैंट्स का फर्ज है कि अपने बच्चों के मन में किसी प्रकार की हीनभावना न आने दें. बच्चों को सिखाएं कि उन्हें अपने गुणों और प्रतिभा के विकास का प्रयत्न खुद करना चाहिए. जो चीजें उन के वश में नहीं हैं उन के लिए उन्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है और वे किसी प्रकार की हीनभावना न रखें.

इस के साथसाथ इस बात पर भी गौर करें कि कहीं आप अपने बच्चे से उस की क्षमता से ज्यादा अपेक्षा तो नहीं कर रहे. ऐसा करना आप के बच्चे को डिप्रैशन का शिकार भी बना सकता है. दूसरे बच्चों के साथ योग्यता के आधार पर अपने बच्चे की तुलना करने से भी बचें.

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घर की पाठशाला

बच्चों को स्कूल के बजाय घर की पाठशाला में सीखने का अवसर मिलता है. शिशु मनोवैज्ञानिकों का मत है कि पेरैंट्स को अपने बच्चों को बड़ी समझदारी और मनोवैज्ञानिक तरीके से हैंडल करना चाहिए. इसलिए जरूरी है कि पेरैंट्स उन के सामने वादविवाद, लड़ाईझगड़ा न करें. झगड़े के समय जैसी भाषा का इस्तेमाल मातापिता करते हैं उसे बच्चे बहुत जल्दी अपना लेते हैं. फिर चाहे वह सही हो या गलत, बच्चे जल्दी ही उस भाषा का अनुकरण भी करने लगते हैं. घर में और घर के बाहर बच्चे के व्यवहार को नजरअंदाज मत करें.

अनुशासन का मतलब बच्चों को सजा देना नहीं है, बल्कि उन्हें सहीगलत की पहचान कराना है. उन्हें अपना निर्णय खुद लेने में सक्षम बनाना है. नियमित दिनचर्या से बच्चों में अनुशासन, आत्मविश्वास व सुरक्षा का भाव उत्पन्न होता है.

बच्चों की भावनाओं का खयाल रखें

अकसर अभिभावक गुस्से या झुंझलाहट के कारण ऐसी आलोचना और टिप्पणी कर जाते हैं, जो बच्चे के मन को गहरे में व्यथित कर जाती है. जिस बात के लिए आप बच्चे की आलोचना करते हैं वह उम्र व अनुभव की कमी के कारण होती है. उन के भविष्य को संवारने में मातापिता की अहम भूमिका होती है. अगर बच्चे की कमियों को देखते हैं, तो समझदारी से उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें.

बचपन की अवस्था ऐसी अवस्था है जब बड़ों की तरह बच्चे की अपने दोस्तों और स्कूल में अपनी पहचान बनाने की रुचि होती है. पेरैंट्स को चाहिए कि वे अपनी पहचान बनाने में उस की मदद करें. उस के ईगो और आत्मसम्मान के विरुद्ध कोई बात न करें.

बच्चे की जरूरत का ध्यान रखें

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैस्लो के अनुसार, मनुष्य की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, जिन के पूरा होने पर उसे आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता है. बच्चे की शारीरिक और खानपान की जरूरत के अतिरिक्त उसे प्यार, सुरक्षा और सम्मान की भावना से ओतप्रोत रखने से उस का शारीरिक और मानसिक विकास सही तरीके से हो पाता है. जैसे पौधे को सिंचाई, रोशनी, हवा आदि की उस के विकास के लिए जरूरत होती है वैसे ही बच्चों के विकास के लिए उचित माहौल, प्यार, सुरक्षा और सम्मान जरूरी है.

बच्चों को एकांत भी चाहिए

बड़ों की जिम्मेदारी होती है वे अपने छोटों की देखभाल करें, उन का ध्यान रखें. कई बार हमें लगता है हम पतिपत्नी अकेले रहें. ऐसा मन बच्चे का भी हो सकता है. उस के हावभाव और बोलचाल से यह अनुमान लगाएं कि कब वह अकेला रहना चाहता है. ऐसी स्थिति में उसे अकेला छोड़ दें फिर चाहे वह अपने दोस्तों के साथ हो या अपना गृहकार्य, स्कूल का होमवर्क अकेले रह कर करना चाहता हो. हर समय उस के इर्दगिर्द रह कर अपनी उपस्थिति से उसे बोर न करें. उस के विकास के लिए उस का आत्मनिर्भर होना आवश्यक है.

एक शोध में यह बात सामने आई है कि जिन बच्चों को मातापिता की देखरेख में अपना मनचाहा काम करने के लिए एकांत मिला, वे अन्य बच्चों की तुलना में ज्यादा क्रिएटिव बन कर उभरे.

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याद रखें

– बच्चों की पेरैंटिंग को किसी भी स्थिति में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. उन की सही पेरैंटिंग पर समाज और देश का विकास निर्भर करता है. आज का बच्चा भविष्य का जिम्मेदार और योग्य नागरिक बनने की क्षमता रखता है. अगर आप परिवार की समृद्धि और बेहतरी चाहते हैं तो पेरैंटिंग गंभीरता और समझदारी के साथ करें. पतिपत्नी और अन्य रिश्तेदारों का योगदान ही इसे संभव कर सकता है. यह साधारण काम नहीं है.

– जब आप अभिभावक की भूमिका निभा रहे होते हैं तो आप बच्चे के 3 पहलुओं पर काम कर रहे होते हैं- बच्चे के स्वभाव (टैंपरामैंट) का विकास, बच्चे का व्यवहार (बिहेवियर), बच्चे का चरित्र (करैक्टर).

इसलिए यह आप की जिम्मेदारी है कि बच्चे की पेरैंटिंग पूरी समझदारी, लगन, उत्साह और उस की मनोवैज्ञानिक जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य के साथ करें. बच्चा कुम्हार की कच्ची मिट्टी की तरह है, जिसे आप मनचाहा आकार दे कर सुंदर बना सकते हैं.

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