कमाऊ बीवी: आखिर क्यों वसंत ने की बीवी की तारीफ?

व्यंग्य- वसंतकुमार भट्ट

प्राय: कमाऊ बीवी का पति होना बड़ी अच्छी बात समझी जाती है. हम भी इसी गलतफहमी में रहते अगर अपने पड़ोसी प्रदीप की पत्नी को एक दफ्तर में नौकरी न मिली होती. हमारे तथा प्रदीप के घर के बीच केवल पतली लकड़ी की दीवार है. वह भी न होने के बराबर है. इधर बजने वाला अलार्म उन्हें जगा देता है और उन के मुन्ने की चीखपुकार हमारी नींद हराम कर देती है.

हमें याद है, जिस दिन प्रदीप की पत्नी सुनीता के नाम नियुक्तिपत्र आया था प्रदीप और उन के तीनों बच्चे महल्ले के हर घर में यह शुभ समाचार देने दौड़ पड़े थे. यह भी अच्छी तरह याद है कि मिठाई का स्वाद महल्ले भर की ईर्ष्या के कसैलेपन को दबा नहीं पाया था.

सुनीता का दफ्तर घर से काफी दूर पड़ता था. इसलिए उसे समय से दफ्तर पहुंचने के लिए 9 बजते ही घर से निकलना पड़ता था. जिस दिन पहली बार वह दफ्तर के लिए बनठन कर घर से निकली तो पूरे महल्ले की छाती पर सांप लोट गए थे. रसोई में उलझी हुई अपनी पत्नी को जब हम ने सुनीता

के दफ्तरगमन का यह दृश्य दिखलाया तो अनजाने ही हमारी मुद्रा में यह भाव तैर आया कि ‘कितने खुशनसीब हैं आप के पड़ोसी जिन्हें इतनी सुघड़, सुंदर और कमाऊ पत्नी मिली है.’ हमारी पत्नी ने शायद हमारी मुद्रा पढ़ ली थी. एक फीकी मुसकान हम पर डाल कर वह फिर से अपने काम में जुट गई.

नईनई नौकरी के उत्साह में कुछ दिन सब ठीकठाक चलता रहा और पूरे महल्ले के पेट में दर्द होता रहा कि दोनों की नौकरी के साथसाथ आखिर गृहस्थी के काम कैसे ठीकठाक चल रहे हैं? हम खुद यह रहस्य जानने के लिए बेताब थे कि सुबह का खाना निबटा कर और तीनों बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के दोनों किस तरह समय से दफ्तर रवाना हो जाते हैं.

पर अभी एक महीना भी न बीता था कि लकड़ी की दीवार के दूसरी ओर का तनाव अनायास ही प्रकट होने लगा.

सुबह के 9 बजे थे. अचानक प्रदीप का तेज स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘सुनीता, देखो बबली ने अपना फ्राक गंदा कर डाला है. जरा इस का फ्राक बदलती जाना.’’

‘‘मुझे आज वैसे ही देर हो रही है. आप ही बदल लीजिएगा,’’ सुनीता का स्वर सुनाई पड़ा.

‘‘भई, अच्छी मुसीबत है. मुझे भी तो समय से दफ्तर पहुंचना होता है. बरतनों की सफाई और बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेजने के चक्कर में हर दिन दफ्तर देर से पहुंच रहा हूं. दिन चढ़ते ही सजनेसंवरने लग जाती हो, इस के बजाय, तुम्हें घर के काम निबटाने की फिक्र करनी चाहिए,’’ प्रदीप का स्वर आक्रोश और व्यंग्य में डूबा हुआ था.

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं घर के ही कपड़ों में बिना हाथमुंह धोए दफ्तर निकल जाऊं? घर के काम के लिए तो आप को महरी लगानी ही पड़ेगी. और फिर मैं क्या अपने शौक या शान के लिए नौकरी कर रही हूं? यह सबकुछ तो आप को मुझे नौकरी के लिए भेजने से पहले सोचना चाहिए था,’’ सुनीता शायद रोआंसी हो उठी थी.

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इस के बाद के संवाद स्पष्ट नहीं सुने जा सके, पर हम ने देखा कि अगले ही दिन से प्रदीप के घर सुबह ही सुबह एक महरी आने लगी थी.

प्रदीप के परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दृढ़ हो गई हो पर कुछ समय पूर्व सुनाई पड़ने वाले कहकहे अब बंद हो चले थे. बच्चे अब डांट ज्यादा खाने लगे थे और खाली समय में इधरउधर डोलते दिखाई पड़ने लगे थे.

प्रदीप की तबीयत खराब हुई. वह दफ्तर से 3-4 दिन की छुट्टी ले कर घर पर आराम करने लगे. मिजाजपुर्सी के लिए हम ने उन के घर के भीतर कदम रखा तो घर की अव्यवस्था देख कर हैरान हो गए. बच्चों के फाड़े हुए कागज सारे घर में बिखरे हुए थे. एक ओर मैले कपड़ों का ढेर लगा हुआ था. हर कोने में जूठे बरतन बिखरे हुए थे. प्रदीप लिहाफ ओढ़े हुए थे. उस लिहाफ का गिलाफ शायद पिछले कई महीनों से धुला नहीं था.

हमारे सूक्ष्म निरीक्षण को ताड़ कर प्रदीप कुछ शर्मिंदगी के साथ बोला, ‘‘इधर 2-1 दिन से महरी भी बीमार है. सबकुछ अस्तव्यस्त पड़ा है और फिर आप जानते ही हैं कि सुनीता भी…’’

‘‘जी हां, जी हां, जहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हों वहां घर की देखभाल में कमी आ जाती है,’’ हम ने कह तो दिया पर लगा कि ऐसा नहीं कहना चाहिए था. इसलिए तुरंत हम ने जोड़ा, ‘‘फिर भी ऐसी कोई खास अस्तव्यस्तता तो दिखाई नहीं देती. बच्चे तो हर घर में ऐसा ही किया करते हैं.’’

प्रदीप के मुंह पर एक फीकी मुसकान आ गई. तकिया पीठ के पीछे लगा कर, पलंग पर बैठते हुए बोला, ‘‘आप को भले ही न दिखाई देता हो पर सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया है, मेरे भाई. जब से सुनीता ने नौकरी शुरू की है, यह घर घर न रह कर सराय बन गया है. सराय की भी अपनी एक व्यवस्था होती है. अब यही देखिए, आप मेरा हाल पूछने आए हैं, पर मैं आप को एक कप चाय भी नहीं पिलवा सकता.’’

हमें लगा कि शायद प्रदीप अस्वस्थता के कारण भावुक हुए जा रहे हैं. क्या पता चाय पीने का ही मन हो. हम कह बैठे, ‘‘इतनी सी बात के लिए आप परेशान न हों. अभी चाय ले कर आता हूं. कुछ खिचड़ी या दलिया वगैरह लेना चाहें तो बनवा लाऊं?’’

पर प्रदीप ने हमारा हाथ पकड़ कर हमें उठ कर जाने से रोक लिया. वह खुद किन्हीं विचारों में खो गए. कुछ देर की चुप्पी के बाद करुण स्वर में वह अपनी बीमारी का रहस्य हमें बताने लगे, ‘‘मैं बीमारवीमार कुछ नहीं हूं. हलका  सा जुकाम था. मैं 3 दिन की छुट्टी ले कर लेट गया.’’

वह चुप हो गए और हम प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगे.

उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो महज यही देखना चाहता था कि सुनीता मेरी बीमारी और अपनी नौकरी में से किसे अधिक महत्त्वपूर्ण समझती है? पर उस के लिए नौकरी ही सबकुछ बन गई है. मेरी कोई परवा ही नहीं.’’

प्रदीप का मर्ज हमारी पकड़ में आ चुका था. पुरुष होने का खोखला अहंकार उन्हें पीडि़त किए हुए था. वह पत्नी की नौकरी का आर्थिक लाभ भी उठाना चाहते थे और उस की नौकरी को शौक से ज्यादा महत्त्व देने को भी तैयार नहीं थे.

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‘‘तो क्या आप चाहते थे कि आप की पत्नी अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर घर पर आप की तीमारदारी करे?’’ हम ने सवाल कर डाला.

‘‘हां, इतनी सी तो बात थी. आखिर, इस में उस की नौकरी तो न चली जाती. मुझे भी संतोष हो जाता कि…’’ प्रदीप ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया.

‘‘कि सुनीता को अपनी नौकरी से ज्यादा फिक्र आप की है,’’ हम ने वाक्य पूरा करते हुए एक सवाल और पूछ लिया, ‘‘अच्छा प्रदीप, एक बात का ईमानदारी से जवाब देना. आप की जगह सुनीता घर पर लेटी होती तो क्या आप दफ्तर से छुट्टी ले कर बैठ गए होते?’’

‘‘जी हां, जी, मैं शायद…’’ प्रदीप को शायद जवाब नहीं सूझ रहा था.

‘‘हां, हां, कहिए. आप शायद…’’ हम मुसकरा रहे थे.

‘‘मैं शायद…’’ कहतेकहते  ही प्रदीप भी मुसकरा उठे और लिहाफ छोड़ पलंग से उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों, अब आप कहां चल दिए?’’ उन्हें रसोईघर की तरफ बढ़ते देख हम ने पूछा.

‘‘भई, 5 बज चुके हैं न. दफ्तर से थकी हुई सुनीता आती ही होगी. गैस पर चाय का पानी रख दूं. तीनों इकट्ठे चाय पीएंगे,’’ कहते हुए वह रसोईघर में घुस गए.

अचानक हमारा मन बड़ी जोर से ठहाका लगाने को हुआ, पर दरवाजे पर नजर पड़ते ही हम ने खुद को रोक लिया. दरवाजे पर सुनीता अपने थके हुए चेहरे पर मुसकान लाने की कोशिश में क्षणभर के लिए ठिठक गई थी.

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