REVIEW: जानें कैसी है भूमि पेडनेकर और अरशद वारसी की फिल्म ‘दुर्गामती’

 रेटिंगः एक स्टार

 निर्माताः विक्रम मल्होत्रा, अक्षय कुमार, भूष् ाण कुमार, किशन कुमार

निर्देशकः अशोक

कलाकारः भूमि पेडनेकर, अरशद वारसी, माही गिल,  करण कपाड़िया, जीशू सेन गुप्ता, अमित बहल, अनंत महादेवन, धनराज, सोण्ब अली, चंदन विकी रॉय, प्रभाकर रघुनंदन,  ब्रजभूषण शुक्ला व अन्य.

अवधिः दो घंटे 36 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजन प्राइम वीडियो

दक्षिण भारत के चर्चित फिल्मकार जी. अशोक अपनी 2018 की सफलतम हॉरर व रोमांचक तमिल व तेलगू फिल्म ‘‘भागमती’’का हिंदी रीमेक ‘‘दुर्गामती’’लेकर आए हैं. राजनीतिक भ्रष्टाचार के इर्द गिर्द बनी गयी हॉरर रोमांचक फिल्म में किसी राज्य के आईएएस अफसर को किसी केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई की चाल में फंसाकर बदनाम करने,  बेइज्जत करने और फिर उसे एक बड़ी साजिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने की कहानी है फिल्म ‘दुर्गामती’. यह बात मूल फिल्म ‘भागमती’ में क्लायमेक्स में दर्शकों को पता चलती है, जबकि फिल्म ‘दुर्गामती’शुरू में ही सारा खेल दर्शकों के सामने रख देती है. फिल्म पूरी तरह से निराश करती है.

ये भी पढ़ें- कपिल शर्मा ने मनाया अपनी ‘लाडो’ अनायरा का पहला बर्थडे, Photos Viral

कहानीः

कहानी एक राज्य से शुरू होती है, जहां पर 12 प्राचीन मंदिरों की मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं. जहां राज्य के इमानदार माने जाने वाले जल संसाधन मंत्री ईश्वर प्रसाद (अरशद वारसी) एक सभा में लोगों से वादा करते हैं कि यदि मंदिर की मूर्तियां चुराने वालों को 15 दिनों में नहीं पकड़ा गया, तो वह अपने मंत्री पद से इस्तीफा देने के अलावा राजनीति से सन्यास लेकर अजय को अपना उत्तराधिकारी बना देंगे, जो कि लोगों की सेवा करना ही परमधर्म समझता है. ईश्वर प्रसाद को उनकी ईमानदारी की वजह से जनता भगवान मानती है. पर इससे मुख्यमंत्री व पार्टी के अन्य नेता डरे हुए हैं. राज्य के मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री सीबीआई की संयुक्त आयुक्त सताक्षी गांगुली (माही गिल) और एसीपी अभय सिंह (जीशु सेनगुप्ता) को ईश्वर प्रसाद के भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के लिए कहते हैं. योजना के तहत सताक्षी गांगुली और एसीपी अभय सिंह जेल में बंद ईश्वर प्रसाद की पूर्व निजी सचिव व आईएएस अफसर चंचल चैहान (भूमि पेडनेकर) को पूछताछ के लिए जेल से निकालकर जंगल में बनी एक ‘दुर्गामती’नामक भुतिया महल में ले जाती हैं. चंचल अपने मंगेतर व अभय सिंह के छोटे भाई शक्ति (करण कपाड़िया) की हत्या  के जुर्म में जेल में बंद है. लोगों की राय में महल में रानी दुर्गामती की आत्मा वास करती है. लेकिन सीबीआई अफसर शताक्षी, चंचल को वहीं पर हर किसी की नजर से बचकर रखते हुए ईश्वर प्रसाद के कारनामे के बारे में पूछताछ करती है. जहां कई चीजे बलती हैं. चंचल, दुर्गामती बनकर कई नाटक करती है. पुलिस व सीबीआई अफसर को अहसास हो जाता है  कि रात होते ही चंचल पर रानी दुर्गामती की आत्मा आ जाती है औैर वह पूरी तरह से बदल जाती है. वही बताती है कि रानी दुर्गामती कौन थी?अंततः मनोचिकित्सक (अनंत महादेवन)की सलाह पर चंचल को पागलखाना में भर्ती कर दिया जाता है. जहां ईश्वर प्रसाद उससे मिलने आते हैं. तो क्या सच में वहां आत्मा का वास है या चंचल की चाल? यही क्लार्यमैक्स है.

लेखन व निर्देशनः

एक तमिल व तेलगू की सफलतम  फिल्म का हिंदी रीमेक ‘दुर्गामती’’ घोर निराश करती है. नारीवाद व भ्रष्टाचार पर कहानी कही जानी चाहिए, लेकिन फिल्म ‘दुर्गामती’ इस कसौटी पर भी खरी नही उतरती. पटकथा में काफी गड़बड़िया हैं. राज्य का एक महल शापित क्यों हैं? इस महल को लेकर पुरातत्व विभाग ने कभी कुछ क्यों नहीं कहा? यहां कोई जाने से डरता क्यो है? आखिर क्यों एक जांच एजेंसी किसी आईएएस अफसर को जेल से निकालकर किसी सुनसान हवेली में पूछताछ के लिए कैसे ले जा सकती है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब फिल्म ‘दुर्गामती’ देने की कोशिश नहीं करती. फिल्म को हॉरर रोमांचक फिल्म बताया गया है, मगर इसमें न तो हॉरर है और न ही रोमांच है. हकीकत में इन दिनों सिनेमा के नाम पर दर्शकों के सामने कुछ भी परोस देने की जो परंपरा चल पड़ी है, उसी का निर्वाह यह फिल्म करती है. फिल्म में गल ढंग से लिखी गयी पटकथा के चलते कथा कथन की शैली ही दोषपूर्ण है. इतना ही नही इसके संवाद तो पटकथा से भी ज्यादा खराब हैं.

ये भी पढ़ें- REVIEW: निर्वाण इन में आदिल हुसेन का शानदार अभिनय

फिल्म देखकर अहसास करना मुश्किल हो जाता है कि इसी निर्देशक ने मूल सफलतम फिल्म का निर्देशन किया था. निर्देशन अति लचर है. फिल्म हिंदी में है मगर सीबीआई अफसर ज्यादातर बातचीत अंग्रेजी में करती है. भूमि पेडनेकर के होंठ इतने सूजे क्यों है? इसका जवाब फिल्मकार ने नहीं दिया. रानी दुर्गामती बनी भूमि पेडनेकर के संवादों के पीछे दिया गया पाश्र्वसंगीत और ‘ईको’ उबाउ देने वाला है. इसके लिए पूर्णतः निर्देशक ही दोषी हैं.

निर्देशक ने राजनीति में वंशवाद, हिंदुत्व का मुद्दा, मंदिर का मुद्दा यानी कि जितने भी मसाले हो सकते थे, वह सब घुसा दिए हैं.

अभिनयः

भूमि पेडनेकर एक बेहतरीन अदकारा हैं, मगर यह फिल्म उनके कैरियर की सर्वाधिक खराब फिल्म है. जो दर्शक भूमि पेडनेकर को इस फिल्म में देखेंगे, उनके लिए यह यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि यह वही भूमि पेडनेकर हैं, जो इससे पहले लगातार कई चुनौतीपूर्ण किरदार निभाकर अपनी प्रतिभा साबित करती रही हैं. जीशू सेनगुप्ता बहुत खराब अभिनय है. माही गिल भी प्रभावित नहीं करती. करण कपाड़िया के चेहरे पर तो भाव ही नहीं आते.  हर दृश्य में वही सपाट चेहरा, वैसे भी उनका किरदार काफी छोटा है. अरशद वारसी व अमित बहल की प्रतिभा को जाया किया गया है.

मूवी रिव्यू: नाम की तरह ही फिल्म भी है ‘ब्लैंक’

निर्देशकः बेहजाद खम्बाटा

कलाकारः सनी देओल, करण कापड़िया,करणवीर शर्मा, इषिता

दत्ता और स्पेशल अपीयरेंस अक्षय कुमार

अवधिः एक घंटा, 51 मिनट

रेटिंगः दो स्टार

कहानीः

फिल्म ‘‘ब्लैंक’’ की कहानी के केंद्र में आत्मघाती हमलावर/आतंकवादी हनीफ (करण कापड़िया) है, जो कि फोन पर कुछ लोगों को निर्देश दे रहा है. फिर वह एक दुकान से सिगरेट खरीदता है, सिगरेट जलाने के चक्कर में एक कार से उसका एक्सीडेंट हो जाता हे. उसे अस्पताल पहुंचाया जाता है. डाक्टरों को उसके सीने पर उसके हृदय के साथ जोड़ा गया आत्मघाती बम नजर आता है. एटीएस चीफ सिद्धू दीवान (सनी देओल) को खबर दी जाती है. पूरा पुलिस महकमा हरकत में आ जाता है. डाक्टर का कहना है कि हनीफ के मौत के साथ ही बम फटेगा. उधर एटीएस चीफ दीवान, हनीफ से कुछ भी कबूल करवाने में सफल नहीं होते हैं.तब पुलिस कमिश्नर अरूणा गुप्ता, शहर से दूर वीराने में ले जाकर हनीफ का इनकाउंटर करने का आदेश देती हैं. दीवान खुद इनकाउंटर करने के लिए जाता है. इधर हनीफ की तस्वीर के आधार पर इंस्पेक्टर रोहित (करणवीर शर्मा) और महिला इंस्पेक्टर हुस्ना (इशिता दत्ता) जांच में लगे हुए हैं. रोहित एक अपराधी फारूक को गिरफ्तार करता है, जिसके बैग में बम होता है, जबकि हुस्ना, हनीफ के अड्डे पर पहुंचती है. इधर दीवान, हनीफ के इनकाउंटर के गोली चलाने का आदेश देते हैं, तभी हुस्ना का फोन आता है और वह रूक जाता है, इस बीच हनीफ गैंग के लोग आकर हनीफ को वहां से ले जाते हैं. उधर हनीफ का सरदार आतंकवादी मकसूद (जमील खान) पाकिस्तान में बैठकर आदेश दे रहा होता है. हनीफ के पकड़े जाने की खबर पाते ही वह मुंबई में बशीर से बात करता है और खुद वह भारत आने की तैयारी करता है. पता चलता है कि हनीफ के सीने पर लगे बम के साथ मकसूद के चार स्लीपर सेल के बम भी जुड़े हुए हैं.मकसूद ने छोटे छोटे बच्चों को जन्नत पाने के नाम पर जेहाद के लिए तैयार कर रखा है.उधर मकसूद का मकसद एक साथ 25 बम धमाकों के साथ भारत को दहलाने की है.

कहानी अतीत में जाती है, जब हनीफ दस साल का बच्चा था और उसकी एक बड़ी बहन थी. उन दिनों मकसूद एक गुंडा था, जिसने उसकी बस्ती के सारे घर जला दिए थे और सभी की हत्या कर दी थी. हनीफ के पिता ने पुलिस को फोन किया, पर पुलिस नहीं पहुंची, हनीफ के पिता को यकीन था कि एक पुलिस इंस्पेक्टर जरुर पहुंचेगा, पर उस पुलिस इंस्पेक्टर ने अपना मोबाइल फोन ही नहीं उठाया और हनीफ के पिता मारे गए. उसी दिन हनीफ ने बदला लेने की ठान ली थी. इसके बाद की कहानी जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

कमियां…

बेसिर पैर की कहानी और घटिया पटकथा के चलते यह फिल्म सिर्फ बोर करती है. इंटरवल से पहले अति धीमी गति के बावजूद हनीफ की असलियत जानने को लेकर दर्शकों में उत्सुकता बनी रहती है, जबकि पूरी कहानी बहुत ही कन्फ्यूजन पैदा करती है. इतना ही नहीं एक भी सीन तर्क की कसौटी पर सही नहीं ठहरता. जब डाक्टर कहता है कि हृदय की धड़कन के साथ हनीफ के सीने पर बंधे बम को जोड़ा गया है और यह बम हनीफ के दिन की धड़कन बंद होते ही फटेगा, तो दर्शक को हंसी आती है. मगर इंटरवल के बाद जिस तरह से उसका सच सामने आता है और जिस तरह कहानी बेतरतीब ढंग से चलती है, उसे देखकर कर दर्शक कह उठता है- ‘कहां फंसायो नाथ.’ फिल्म आतंकवाद पर है, मगर अंत में व्यक्तिगत बदले की कहानी के रूप में उभरती है.

निर्देशनः

बतौर निर्देशक बेहजाद खम्बाटा प्रभावित नहीं करते हैं. लेखक व निर्देशक के तौर पर उन्होने कहानी को फैला दिया, पर उसे किस दिशा में ले जाना है और किस तरह समेटना है, यह सब भूल गए हैं. दीवान के बेटे रौनक के ड्रग्स लेने की कहानी गढ़ी, मगर उसका क्या हुआ, दीवान की पत्नी ने क्या किया, सब गायब.

अभिनयः

यूं तो यह फिल्म करण कापड़िया को लांच करने के लिए बनी है, मगर वह बुरी तरह से हताश करते हैं. उनके चेहरे पर एक्सप्रेशन आते ही नहीं है. करण के किरदार के गढ़ने में भी बेहजाद खम्बाटा और प्रणव प्रियदर्षी मात खा गए हैं. पूरी फिल्म अकेले एटीएस चीफ दीवान के कंधो पर ही आ जाती है. इस किरदार में सनी देओल ने जानदार परफार्मेंस दी है. हुश्ना के किरदार में इशिता दत्ता के लिए कुछ जगह खूबसूरत लगने के अलावा करने को कुछ नहीं है. रोहित के किरदार में करणवीर शर्मा ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

फिल्म के अंत में अक्षय कुमार का डांस नंबर ‘अली अली’ मजाक बनकर रह जाता है, दर्शक इस गाने को सुनने व डांस देखने के लिए रूकता ही नहीं है.

Edited By- Nisha Rai

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें