बेटियां भी संपत्ति में बराबर की हकदार

बीते साल,11 अगस्त 2020 को सुप्रीम कोर्ट ( Supreme Court ) ने हिन्दू उत्तराधिकारी (संशोधन ) अधिनियम 2005 की पुनवर्याख्या करते हुए बेटियों के हक में एक बड़ा फैसला दिया था कि  बेटियों का संयुक्त हिन्दू परिवार की पैतृक संपत्ति पर उतना ही हक होगा, जितना बेटों का.सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार, एक हिन्दू महिला जन्म के साथ ही पिता की संपत्ति में बराबर की हकदार हो जाती है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि उसका पिता जीवित है या नहीं.  सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय में हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम में वर्ष 2005में किए गए संशोधन का विस्तार किया और इस संशोधन के माध्यम से बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार देकर हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम, 1956 की धारा 6 में निहित भेदभाव को दूर किया गया.

पुनवर्याख्या की जरूरत क्यों पड़ी ?

ये एक ऐसा सवाल है जिससे ज़्यादातर महिलाएं जूझ रही हैं.  क्योंकि भारत में महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार की मांग करने के लिए कानून से पहले एक लंबी सामाजिक जंग को जितना पड़ता है.  महिलाएं जब सामाजिक रिश्तों को ताक पर रखकर अपने पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी की मांग करती थीं तो हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन कानून 2005 कई महिलाओं के सामने अड़चन पैदा किया करता था. वजह ये थी कि कानून पास होने के बाद कई स्तर पर ये सवाल खड़ा हुआ कि क्या ये कानून रेट्रोस्पेक्टिव्ली यानि बीते हुए समय में लागू होगा ? यानि क्या इस कानून के तहत वो महिलाएं भी पैतृक संपत्ति की मांग कर सकती है जिनके पिता कानून संशोधन के वक़्त जिंदा नहीं थे.  इस वजह से महिलाएं कोर्ट तक पहुंची लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी.  वहीं,2015 में दन्नमा बनाम अमर मामले में कोर्ट ने महिलाओं के हक में फैसला किया. अब यह स्पष्ट है कि भले ही पिता की मृत्यु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन ) कानून, 2005 लागू होने से पहले हो गई हो, फिर भी बेटियों का माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होगा.सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि बेटी को वही उत्तराधिकारिता हासिल होगी जितनी उसे उस स्थिति में होती अगर वह एक पुत्र के रूप में जन्म लेती.  अर्थात बेटी को भी अब बेटे के बराबर संपत्ति में अधिकार मिलेगा, चाहे उसके पिता की मृत्यु कभी भी हुई हो. ये फैसला संयुक्त हिन्दू परिवारों के साथ-साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज से संबन्धित समुदायों पर भी लागू होगा.

इस फैसले के तहत अब वे महिलाएं भी अपने पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार की मांग कर सकती हैं जिनके पिता का 9 सितंबर 2005 के पहले निधन हो चुका है.

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अब तक क्या होता था ?

साल 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार कानून में संशोधन करके ये व्यवस्था की गई थी कि महिलाओं को पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलना चाहिए.  लेकिन जब महिलाओं की ओर से अधिकारों की मांग की गई तो ये मामले कोर्ट पहुंचे और कोर्ट पहुँचकर भी महिलाओं के हक में फैसले नहीं हुए.  साल 2015 में प्रकाश बनाम फूलवती केस में दो जजों की एक बेंच ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि अगर पिता की मौत हिन्दू अधिकार संशोधन कानून के 9 सितंबर, 2005 को पास होने से पहले हो गई है तो बेटी को पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलेगा.  लेकिन इसके बाद साल 2018 में फिर एक फैसला आया कि भले ही पिता की मौत कानून लागू होने के बाद हुई हो तब भी बेटी को पिता की संपत्ति में बराबर का हक मिलना चाहिए.  लेकिन कोर्ट ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि बेटियों को भी उतनी ही हिस्सेदारी मिलेगी जीतने बेटों को.  क्योंकि संपत्ति में दोनों बराबर के हकदार हैं.

  • अगर बेटी विवाहित हो 

2005 से पहले हिन्दू उत्तराधिकार कानून में बेटियाँ सिर्फ हिन्दू अविभाजित परिवार (HUF) की सदस्य मानी जाती थी, हमवारिस यानि समान उत्तराधिकारी नहीं. हमवारिस या समान उत्तराधिकारी वे होते थे जिनका अपने से पहले चार पीढ़ियाँ की अविभाजित सम्पत्तियों पर हक होता था. हालांकि, बेटी का विवाह हो जाने पर उसे हिन्दू अविभाजित परिवार (HUF) का भी हिस्सा नहीं माना जाता था. लेकिन 2005 के संशोधन के बाद बेटी को हमवारिस यानि समान उत्तराधिकारी माना जाने लगा. बेटी के विवाह से पिता की संपत्ति पर उसके अधिकार में कोई बदलाव नहीं आयेगा. यानि, विवाह के बाद भी बेटियाँ पिता की संपत्ति की अधिकार मानी जाएगी.

मौखिक बंटवारा मान्य नहीं 

कानून में संशोधन से यानि 2005 से पहले मौखिक तौर पर बंटवारा मान्य था. लेकिन अब शीर्ष कोर्ट ने साफ कह दिया कि यह मान्य नहीं होगा, क्योंकि इसमें धोखाधड़ी और बेटी को उसके अधिकार से वंचित रखे जाने की गुंजाइश हो सकती है. यह वैधानिक नहीं है. हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि अपवाद के तौर पर किसी पब्लिक दस्तावेज़ से गुंजाइश निकलने पर इसे मान्य किया जा सकेगा. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा थाकि बेटे सिर्फ शादी तक बेटे रहते हैं. लेकिन बेटी हमेशा बेटी ही रहती है. विवाह के बाद बेटों की नियत और व्यवहार में बदलाव आ जाता है. लेकिन एक बेटी अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक माता-पिता के लिए प्यारी बेटी ही होती है. इसलिए बेटी पैतृक संपत्ति में बराबर की हकदार मानी जाएगी, भले ही  उसके पिता जीवित हों या नहीं.

  • दो तरह की होती हैं संपत्ति 

हिन्दू उत्तराधिकर कानून के मुताबिक, संपत्ति दो तरह की होती है. एक संपत्ति पिता द्वारा खरीदी गई संपत्ति और दूसरी पैतृक संपत्ति होती है., जो पिछले 3 पीढ़ियों से परिवार को मिलती आई है. कानून के मुताबिक, बेटा हो या बेटी, पैतृक संपत्ति पर दोनों का जन्म से बराबर का अधिकार होता है. इस तरह की संपत्ति को कोई पिता, अपने मन से किसी को नहीं दे सकता यानि एक के नाम पर वसीयत नहीं कर सकता है और ना ही बेटी को उसका हिस्सा देने से वंचित रख सकता है. अगर पिता ने संपत्ति खुद अपनी आय से खरीदी है तो उसे अपनी इच्छा से किसी को भी ये संपत्ति देने का अधिकार है, लेकिन इस पर भी बेटे, बेटी आपत्ति जता सकते हैं.

आपको बता दें कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने साल 1951 में हिन्दू कोड बिल संसद में पेश किया था.  जिसके अनुसार पुरुषों के एक से ज्यादा शादी करने पर रोक लगाने, महिलाओं को तलाक लेने के अधिकार देने और महिलाओं को पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर अधिकार देने की बात कही गई थी.  लेकिन महिलाओं के लिए संसद में पेश किए गए इस बिल का जमकर विरोध हुआ था.  हिन्दू महासभा ने इसे हिन्दू धर्म के लिए खतरा बताया था.  हिन्दू महासभा, आरएसएस व अन्य हिन्दू संगठनों ने इसका विरोध किया था.  जिसके कारण नेहरू जी भी इस बिल को पास नहीं करवा पाए थे.  जिसके बाद बाबा साहब ने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था.  हालांकि, बाद में इस बिल को चार हिस्सों में विभाजित कर इसे संसद में पास किया गया था.

  • समाज को ताकत दिखाता निर्णय 

सांसद व वकील मीनाक्षी लेखी का कहना कि इस फैसले को खुशी से स्वीकार किया जा रहा है. यह हमारे परिवार और समाज को ताकत दिखाता है कि समय के अनुसार, हमें बदलना भी आता है. बराबरी के अधिकार को हम सही मायनों में मानते हैं और नियमों के अनुसार, अपनी ज़िंदगी को बदलने की ताकत रखते हैं.  ये कानून बेटियों को बराबर का अधिकार और शक्ति देने वाला है. अभी तक हमारे समाज में बेटियों के साथ भेदभाव होता आया है. अक्सर घर वाले चाहते हैं कि जल्द से जल्द बेटी की शादी हो जाए. शादी के लिए दूसरे पक्ष से दहेज का दबाव भी होता है. इस दोनों पक्षों के बीच अक्सर बेटियाँ पिस जाती हैं. कभी-कभी ऐसी स्थिति बन जाती है कि ससुराल में बेटियाँ परेशान होती है. लेकिन उसके मायके वाले उस पर दबाव डालते हैं कि किसी तरह बेटी अपने ससुराल में ही टिकी रहें. यानि जब बेटियाँ परेशानी में फँसती है तो उसे शरण देने वाला कोई नहीं होता. लेकिन पैतृक संपत्ति में बराबर अधिकार से उसे न सिर्फ ताकत मिलेगी, बल्कि समाज में सम्मान के साथ जीने का हक भी मिलेगा. लेकिन ये बराबरी सिर्फ कहने के लिए ना हो. क्योंकि क्या पता कल को इस कानून का भी दुरुपयोग होने लगे? और बेटियाँ अब भी अपने हक से वंचित रह जाए ?

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  • बेटियां हकदार लेकिन कई मुश्किलें भी 

सर्वोच्च न्यायालय के इस नए फैसले ने देश की बेटियाँ को अपने पिता की संपत्ति में बराबरी का हकदार बना दिया है. अदालत के पुराने फैसले रद्द हो गए, जिनमें कई किन्तु-परंतु लगाकर बेटियों को पैतृक संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा जाता था.  मिताक्षर पद्धति या हिन्दू कानून में यह माना जाता था कि बेटी का ज्यों ही विवाह हुआ, वह पराई बन जाती है. माँ-बाप की संपत्ति में उसका कोई अधिकार नहीं रहता. मायके के मामलों में उसका कोई दखल नहीं होता, लेकिन अब पैतृक संपत्ति में बेटियों का अधिकार बेटों के बराबर ही होगा. यह फैसला नर-नारी समता का संदेशवाहक है. यह स्त्रियॉं के सम्मान और सुविधाओं की रक्षा करेगा. उनका आत्मविश्वास बढ़ाएगा. लेकिन यह ऐतिहासिक फैसला कई नए प्रश्नों को भी जन्म देगा. जैसे पिता की संपत्ति पर तो उसकी संतान का बराबर अधिकार होगा लेकिन क्या यह नियम माता की संपत्ति पर भी लागू होगा ? क्योंकि आजकल कई लोग कई-कई कारणों से अपनी सम्पत्तियां अपने नाम पर रखने की बजाय अपनी पत्नी के नाम करवा देते हैं. क्या ऐसी सम्पत्तियों पर भी अदालत का यह नया नियम लागू होगा ? क्या सचमुच सभी बहनें अपने भाइयों से अब पैतृक-संपत्ति की बंदरबांट का आग्रह करेगी ? क्या वे अदालतों की शरण लेंगी ? यदि हाँ, तो यह निश्चित जानिए की देश की अदालत में हर साल लाखों मामले बढ़ते चले जाएंगे. यदि बहनें अपने भाइयों से संपत्ति के बंटवारे का आग्रह नहीं भी करे, तो कल को उनके बच्चे संपत्ति में अपना हिस्सा मांग सकते हैं. कानून के अनुसार, बेटी की मौत के बाद उनके बच्चे भी पैतृक संपत्ति में अपना दावा ठोक सकते हैं. दूसरे शब्दों में यह नया अदालती फैसला पारिवारिक झगड़ों की सबसे बड़ी जड़ बन सकता है.

  • समाज की चूलें हिला देना वाला फैसला 

कल तक जो राजा, महाराजा, जागीरदार ठेकेदार अपनी बहन-बेटियों के साथ संपत्ति के मामले में अन्याय करते आए थे, अब ऐसा नहीं होगा. सत्ता और नाम के इस नशे ने हमेशा इन परिवारों में महिलाओं की स्थिति को कमजोर बना कर रखा था. सर्वोच्च न्यायालय के इस ताजे फैसले के बाद पिता की मृत्यु चाहे कभी भी हुई हो या नहीं हुई हो, बेटियों को पैतृक संपत्ति में उसी तरह के अधिकार मिलेगा, जिस तरह बेटों को मिलता है. इस निर्णय के बाद सीधे रास्ते से, इस कानून के तहत बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार दिया गया है.

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था में सत्ता के तीन मूल केंद्र हैं, संपत्ति, संतति, और सत्ता. ये तीनों ही अधिष्ठान  इन बड़े घरानों में पुरुषों के पास केन्द्रित थे. अब तक की परिपाटी है बच्चे के जन्म के बाद पिता का ही नाम चलता है, संपत्ति का उत्तराधिकारी बेटे को ही बनाया जाता रहा है. इसी तरह सत्ता भी पुरुषों के हाथ में ही रही है. चाहे वह सामाजिक हो, आर्थिक हो, राजनीतिक हो या धार्मिक. इसी कारण समाज में स्त्रियों का दर्जा दोयम रहा है. इसी कारण संपत्ति का जो अधिकार, स्वाभाविक अधिकार के तौर पर बेटियों को मिलना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिल पाया था.  लेकिन अब बेटियाँ भी बाप-दादा की संपत्ति में बराबरकी हकदार होंगी.

बहनें बचपन से ही भाइयों के प्रति प्रेम में अपने छोटे-छोटे हकों को छोड़ती आई हैं.  शायद इसी कारण भाई बड़े होने पर इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाते कि संपत्ति में बहनों कोभी बराबरी का हिस्सादेना है.  यह भी अजीब ही है कि पैतृक संपत्ति या मायके के साथ संबद्ध में से कोई एक चीज चुनने का विकल्प अक्सर भाई ही अपनी बहनों के सामने रखते हैं.  उसके बावजूद संबंध तोड़ने का अपराधबोध में बहनें ही रहती हैं, भाई नहीं.  लेकिन सवाल यह उठता है कि जो संबद्ध आर्थिक हित छोड़ने भर से बना हुआ है, आखिर वह कितना गहरा और सच्चा है ? सवाल यह भी किया जाना चाहिए कि बहन और संपत्ति में से अगर किसी  एक को चुनना पड़े तो भाई किसे चुनेंगे ? असल में यह सवाल पूछे जाने से पहले ही भाई इन दोनों में से संपत्ति का चुनाव कर चुके होते हैं.  यदि वे बहन के साथ संबंध और संपत्ति में से संपत्ति का चुनाव न करते तो बहनों के सामने ऐसा जटिल विकल्प कभी पैदा ही नहीं होता.

लड़की सिर्फ अपने हिस्से का हक मांगने भर से लालची, तेज-तर्रार और विद्रोही मान ली जाती है.  जबकि भाई अपनी बहन के आर्थिक हक को मारने के बाद भी लालची नहीं माने जाते.  भाई-बहन जैसे खूबसूरत और निहायत ही अनोखे रिश्ते में भी प्यार की कसौटी पर खरा उतरना बहन की ही एकतरफा ज़िम्मेदारी समझा जाता है.  अक्सर बहनों का हक छीन कर खाने पर न तो भाइयों को और ना ही समाज परिवार को शर्म महसूस होता है.  लेकिन अगर वही बहन अपना हक मांग ले तो वही समाज परिवार तन कर खड़े हो जाते हैं. यहाँ तक की बहनों द्वारा अपने हिस्से की मांग करने पर उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है ताकि बहनों को उनका हिस्सा न देना पड़े. आज भी कई लड़कियां जो अन्यन्य कारणों से शादी के रिश्ते से बाहर निकलना चाहती हैं, लेकिन उनके सामने प्रश्न यह आ जाता है कि वे कहाँ जाएँ ?

लेकिन अब यह सोच खत्म होनी चाहिए, बेटियों को संपत्ति, खासकर पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार देने को समाज की स्वीकृति मिलनी चाहिए.माँ-बाप कोभी बेटियों के दिमाग में यह बात बिठानी होगी कि जो कुछ भी उनका है, बेटा बेटी दोनों का है. हालांकि, इस निर्णय को सबसे पहले माता-पिता को खुद स्वीकार करना होगा. उन्हें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि बेटी की शादी करके भेज देंगे और बेटा घर संपत्ति का मालिक बनेगा, नहीं चलेगा अब.

बेटियों को भी अपना अधिकार मांगने में संकोच करने की जगह अपनी जबान खोलनी होगी. माता-पिता और भाइयों को यह बात समझाना होगा कि यह उनका अधिकार है, वे अलग से कुछ भी नहीं मांग रही हैं. वैसे, जो पैतृक संपत्ति पिता को मिली है, उन्होंने अर्जित नहीं की है. उसमें भी बेटी का हक है. माता-पिता व पुत्र को यह बातें स्वीकार करनी होगी कि संपत्ति में बेटियाँ का भी बराबर का कह है और रहेगा.

एक बात तो एकदम तय है कि बदलाव से हमारे सामाजिक ताने-बने में थोड़ा फर्क तो आयेगा ही. परिवर्तन की अपनी कीमत होती है, वह ऐसे नहीं आता. पुराना उजड़ने के बाद ही हम कुछ नया बना पाते हैं.इसलिए यहाँ भी रिश्तों में थोड़ी दरार तो आएगी. लेकिन इसमें बहुत ज्यादा सोचने की आवश्यक नहीं है. यदि इस दरार के पड़ने से समाज में सुधार आता है, तो इस दरार का पड़ना बेहतर  है. ये दरार ही बाद में मरहम का काम करेगी. अभी तो मुकदमेबाजी में सारे कानून में बैर ही बढ़ाती रही है. देश के सारे कानून विभागों में मकड़जाल में उलझे हैं. कानून तभी फलदायी हो सकेगा जब इसके साथ महिला और बाल-विकास विभाग जैसे विभाग सदाशयता बरतें.

  • संपत्ति में बेटे-बेटी का बराबर हक और ज़िम्मेदारी भी बराबर 

पैतृक संपत्ति पर अधिकार के मामले में बेटे और बेटी को बराबरी का हक है, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि सिर्फ अधिकार नहीं, बल्कि दायित्व भी बराबरी का है.

कुछ सालो पहले पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट ने एक फैसला दिया था, जहां एक पिता बेटे के मर्जी के बिना पैतृक संपत्ति का कुछ हिस्सा बहारियों से बेच दी थी उस पर बेटे ने पिता द्वारा बेची गई संपत्ति को कोर्ट में चुनौती दी थी.  बेटे का कहना था कि चूंकि यह पारिवारिक संपत्ति थी और पिता ने उसके मर्जी के बिना संपत्ति बेची इसलिए यह अमान्य है.  और जिस पर कोर्ट ने अपनी मुहर लगाई थी.

2005 में हिन्दू उताराधिकार अधिनियम में संशोधन होने तक, परिवार के केवल पुरुष सदस्यों को सहदायिक माना जाता था.  हालांकि, संशोधन के बाद, जब बेटों और बेटियों दोनों को एक समान माना गया है, अब दोनों को सहदायिक के रूप एक माना जाता है और इस तरह दोनों एचयूएफ ( Hindu Undivided Family ) संपत्ति के विभाजन के लिए पूछने के लिए समान रूप से अधिकार हैं.

बहुत से लोग पैतृक संपत्ति को बेचना चाहते हैं लेकिन लोगों को इसके नियम के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है.  जिसके कारण पैतृक संपत्ति बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों कानूनी झंझट में पड़ जाता है. नए कानून बनने के बाद चूंकि खरीदार ‘नो ऑबजेक्शन बेटियों से मांगता है.  मगर वहाँ भाई बहन को कुछ पैसा देकर समझौता कर लेते हैं या बहनों की जगह किसी और को खड़ा कर जमीन बेच देते हैं.

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राजनांदगाँव का एक मामला, जहां पैतृक संपत्ति में बहन भी बराबर की हकदार थीं.  मगर भाई ने बहन को बताए बिना, किसी और महिला को बहन बनाकर रजिस्ट्री में खड़ा किया और  जमीन बेच दी.  लेकिन जब खरीदार ने नामांतरण कराना चाहा तब यह बात सामने आई कि रजिस्ट्री के दिन असली बहन वहाँ थी ही नहीं. उसकी जगह पर किसी और महिला को खड़ा किया गया था.  बहन को हिस्सा न देना पड़े इसलिए भाई ने ऐसा कर्मकांड रचा और बाद में पकड़ा गया.  ऐसे कितने ही केसेस हुए हैं जहां बहन की जगह किसी और महिला को खड़ा कर संपत्ति बेची गई.  नकली हस्ताक्षर करवाए गए,ताकि बहनों को संपत्ति में हिस्सा न देना पड़े. आज संपत्ति में बेटों और बेटियों का बराबर का हिस्सा है लेकिन ज़्यादातर केस में बेटियों से एनओसी नॉन ऑबजेक्शन सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं जिससे सारी ज्याददाद भाइयों के नाम हो जाती है. डॉ के के शुक्ला एडवोकेट लखनऊ हाईकोर्ट बताते हैं कि ऐसे केस ज्यादा आ रहे हैं जिनमें लेखपाल से ही फर्जी एनओसी लगवाकर लोग पूरी ज्यादाद अपने नाम करवा लेते हैं. बहन को पता भी नहीं चलता उसके नाम कोई ज्यादाद है.

एक महिला का कहना है, कानून में भले ही कितने ही बदलाव कर दिये जाए लेकिन लोगों की मानसिकता आज भी वही है. अगर कोई लड़की अपना हक मांग भी लेती है तो उसे रिश्तों का हवाला देकर भावनात्मक रूप से कमजोर कर दिया जाता है.  परिवार समाज की दुहाई दी जाती है कि अगर वह ऐसा करेगी तो सब नाराज हो जाएंगे, मायके से उसका रिश्ता टूट जाएगा.

वर्तमान में महिला समाज को भूमि,संपत्ति संबंधी अधिकारों से वंचित रखना वास्तव में उस आधी आबादी अथवा आधी दुनिया की अवमानना है, जो एक माँ, बहन, बेटी और पत्नी अथवा महिला किसान के रूप में दो गज जमीन और मुट्ठी भर संपत्ति की वाजिब हकदार हैं. भारत में महिलाओं के भूमि तथा संपत्ति पर अधिकार, केवल वैधानिक अवमानना के उलझे सवाल भर नहीं हैं, बल्कि उसका मूल उस सामाजिक जड़ता में है जिसे आज आधुनिक भारत में नैतिकता के आधार पर चुनौती दिया जाना चाहिए. भारत विश्व के उस चुनिन्दा देशों से है जहां संवैधानिक प्रतिबद्धता और वैधानिक प्रावधानों के बावजूद महिलाओं की आधी आबादी आज भी धरातल पर अपनी जड़ों की सतत तलाश में है.

पैतृक संपत्ति को बेचने के नियम क्या हैं ?  जाने नए कानून…..

  • कानून के अनुसार पैतृक संपत्ति को बेचने को लेकर नियम काफी कठोर हैं. आप ऐसे ही इस संपत्ति को नहीं बेच सकते हैं.
  • दरअसल, पैतृक संपत्ति में कई लोगों का हिस्सा होता है. इसलिए कानून किसी एक व्यक्ति को संपत्ति बेचने का अधिकार नहीं देता है.
  • कानून के मुताबिक अगर बंटवारा न हुआ हो तो कोई भी शख़्स पैतृक संपत्ति को अपनी ,मर्जी से नहीं बेच सकता.
  • मिली जानकारी के मुताबिक,पैतृक संपत्ति बेचने के लिए सभी हिस्सेदारों की सहमति जरूरी है. अगर एक भी हिस्सेदार मना करता है तो आप संपत्ति नहीं बेच सकते हैं.
  • कानून के अनुसार अगर सभी हिस्सेदार संपत्ति बेचने के लिए राजी हैं तो पैतृक संपत्ति बेची जा सकती है, इसे कानून इजाजत देती है.

तरुण तेजपाल आरोप मुक्त?

21मई को गोवा के कोर्ट द्वारा तहलका पत्रिका के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल अपने पर 8 सालों से चल रहे बलात्कार के केस से बरी हो गए. 2013 में तरुण तेजपाल ने गोवा में तहलका पत्रिका के एक महाआयोजन के बीच एक पांचसितारा होटल की लिफ्ट में और होटल के कारिडौर में कम उम्र की एक सहकर्मी के साथ जिस तरह की अश्लील हरकतें की थीं, वे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत बलात्कार की श्रेणी में आती हैं. गोवा पुलिस ने 30 नवंबर, 2013 को तेजपाल को गिरफ्तार किया था, मगर कुछ वक्त जेल में काटने के बाद फरवरी, 2014 से जमानत पर चल रहे थे.

तरुण तेजपाल पर गोवा की पुलिस उपाधीक्षक सुनीता सावंत द्वारा आईपीसी की धारा 342 (गलत तरीके से रोकना), 342 (गलत मंशा से कैद करना), 354 (गरिमा भंग करने की मंशा से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करना), 354-ए (यौन उत्पीड़न), 376 (2) (महिला पर अधिकार की स्थिति रखने वाले व्यक्ति द्वारा बलात्कार) और 376 (2) (के) (नियंत्रण कर सकने की स्थिति वाले व्यक्ति द्वारा बलात्कार) के तहत यह मुकदमा दर्ज कराया गया था, मगर कोर्ट में वे इन में से किसी भी धारा के तहत दोषी साबित नहीं हुए.

क्या सुबूतों को मिटाया गया

उल्लेखनीय बात यह है कि यह मुकदमा गोवा पुलिस ने मीडिया में आई खबरों और प्रसारित वीडियो के चलते खुद संज्ञान ले कर दर्ज किया था. आखिर गोवा पुलिस की क्या दुश्मनी थी तरुण तेजपाल से कि जब उन्होंने कुछ किया ही नहीं था तो इतनी संगीन धाराओं में उन पर मुकदमा ठोंक दिया और 2,846 पन्नों की चार्जशीट लिख मारी?

आखिर कुछ तो गलत देखा था पुलिस ने. कुछ तो सुबूत लगे थे उस के हाथ. तभी तो इतनी लंबीचौड़ी चार्जशीट भी बनी, तो उस गलती की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए थी तेजपाल को. मगर नहीं मिली, क्योंकि पुलिस को मैनेज कर लिया गया. सुबूतों को मिटाया गया ताकि कोर्ट में आरोप सिद्ध न हो सकें और तेजपाल को संदेह का लाभ मिल जाए. और फिर वही हुआ. तेजपाल बाइज्जत बरी हुए.

न्यायाधीश क्षमा जोशी ने अपने फैसले में लिखा है कि कोर्ट के समक्ष पेश किए गए सुबूतों पर विचार करने के बाद अभियुक्त (तरुण तेजपाल) को संदेह का लाभ दिया जाता है, क्योंकि अभियोजन पक्ष (पीडि़त पक्ष) द्वारा लगाए गए आरोपों का समर्थन करने वाला कोई सुबूत नहीं है.

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अदालत ने कहा कि जांच अधिकारी ने  21 नवंबर, 2013 की महत्त्वपूर्ण सीसीटीवी फुटेज (पहली मंजिल की गैस्ट लिफ्ट) को देखा, जिस में साफ दिखता है कि आरोपी लिफ्ट से बाहर निकल रहा है. फुटेज को महत्त्वपूर्ण जानने के बाद भी ऐसा लगता है कि जांच अधिकारी ने फुटेज को जब्त करने में देरी की और इस बीच 7 नवंबर, 2013 की पहली मंजिल के सीसीटीवी फुटेज को नष्ट कर दिया गया.

अदालत ने यह भी कहा कि जांच अधिकारी ने उस कमरे को कभी सील नहीं किया, जिस में पहली मंजिल का महत्त्वपूर्ण फुटेज वाला डीवीआर रखा गया था. अदालत ने पुलिस को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि जांच के दौरान गोवा पुलिस ने सुबूतों को नष्ट किया और सही साक्ष्यों को कोर्ट में पेश नहीं किया.

गौरतलब है पुलिस को पांचसितारा होटल की पहली मंजिल का सीसीटीवी फुटेज, जिस में तेजपाल पीडि़त लड़की के साथ अश्लील हरकतें करते नजर आए थे, को कोर्ट में पेश करना चाहिए था, मगर यह महत्त्वपूर्ण फुटेज, जो आरोपी का दोष सिद्ध कर सकता था, नष्ट कर दिया गया.

फैसले के खिलाफ अपील

गोवा सरकार ने अब निचली अदालत के फैसले के खिलाफ बांबे हाईकोर्ट में अपील करने का ऐलान किया है. अगर हाईकोर्ट से भी तेजपाल राहत पा जाते हैं, जैसाकि मुमकिन भी है तो सुप्रीम कोर्ट का रास्ता बचता है. इस में कई साल लग जाएंगे.

गौतलब है कि दिसंबर, 2012 में दिल्ली की सड़कों पर दौड़ती एक बस में अब तक का सब से जघन्य ‘निर्भया कांड’ हुआ था. इतना संगीन और घिनौना सामूहिक बलात्कार कांड जिस के बाद पूरे देश में महिला सुरक्षा को ले कर जबरदस्त कुहराम मचा हुआ था.

पूरा मीडिया जगत इस मामले को ले कर सड़कों पर था. तरुण तेजपाल की तहलका टीम भी निर्भया को न्याय दिलाने के लिए इस आंदोलन का हिस्सा थी. यही वह वक्त था जब भारत में यौन हिंसा से जुड़े तमाम कानूनों में बड़ा परिवर्तन किया गया. डिजिटल रेप, कार्यस्थल पर रेप अथवा यौन उत्पीड़न, शादी के बाद पति द्वारा रेप जैसे मुद्दों पर खुली बहस देशभर में शुरू हुई.

‘निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या’ केस को देखते हुए यौन हिंसा से जुड़े कानूनों की समीक्षा के बाद भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वर्मा (रिटायर्ड) की अध्यक्षता वाली समिति ने महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण सु झाव दिए, जिन में से कइयों को अपनाते हुए महिला सुरक्षा और अपराध से जुड़े दशकों पुराने कानूनों को बदला गया.

कठोरतम सजा का प्रावधान

2013 में बलात्कार की परिभाषा को ‘फोर्स्ड पीनो-वैजाइनल पेनिट्रेशन’ से बढ़ाया गया और नई परिभाषा के अंतर्गत महिला के शरीर में किसी भी चीज या शारीरिक अंग को जबरदस्ती डालना भी बलात्कार माना गया. इस के अलावा किसी महिला को गलत तरीके से छूना, पकड़ना, जबरन चूमना, अश्लील बातें या इशारे करना जैसी चीजों को भी बलात्कार की विभिन्न श्रेणियों में लाया गया और उस के लिए कठोरतम सजा का प्रावधान किया गया.

काम की जगह पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए 2005 में बनाई गई विशाखा ‘गाइडलाइंस’ को इसी साल कानून की शक्ल दी गई. इस के तहत हर दफ्तर को जहां पुरुषों के साथ महिलाएं काम करती हैं, यौन उत्पीड़न की जांच और फैसले के लिए इंटरनल कंप्लेंट कमेटी बनानी अनिवार्य की गई.

रसूखदार व्यक्ति के खिलाफ मामला

2013 में तरुण तेजपाल का मामला इस नई परिभाषा के तहत किसी रसूखदार व्यक्ति के खिलाफ आया पहला मामला था. एक ऐसा पत्रकार और एक प्रतिष्ठित पत्रिका का प्रधान संपादक जो खुद निर्भया केस में बढ़चढ़ कर लिखतालिखाता रहा, इस से जुड़ी बहसमुबाहिसों में शामिल होता रहा, उस ने जब अपनी ही सहकर्मी की इज्जत पर हमला किया तो पूरा मीडिया उस के खिलाफ खड़ा हो गया.

‘तेजपाल का तहलका कांड’ और ‘तरुण तेजपाल ने खूब कमाई दौलत और शोहरत, स्कैंडल ने कर दिया बरबाद’ जैसी हैडलाइंस के साथ तेजपाल के अपराध पर कई लेख प्रकाशित हुए.

गोवा में जिस होटल की लिफ्ट में यह कांड हुआ था उस लिफ्ट की सीसीटीवी फुटेज और होटल के कौरिडोर, जिस में वे लड़की का पीछा करते और उसे पकड़ते नजर आ रहे हैं, का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ. देशभर में तेजपाल के खिलाफ प्रदर्शन हुए और सड़कों पर उन की तसवीरें जलाई गईं.

मगर इस केस की अहम बात यह है कि जिस लड़की के साथ तेजपाल ने यौन अपराध किया था उस ने खुद इस मामले में एफआईआर नहीं करवाई थी, बल्कि मीडिया खबरों और वीडियो टेप के आधार पर गोवा पुलिस ने अपराध का स्वयं संज्ञान लेते हुए मामला दर्ज किया था.

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चूंकि इस अपराध को गोवा में तेजपाल की मैगजीन के एक बड़े आयोजन के दौरान अंजाम दिया गया था तो इसे कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न का मामला माना गया और इसी के तहत पीडि़त लड़की ने अपने दफ्तर को चिट्ठी लिख कर पूरे मामले की जानकारी दी थी और इंटरनल कंप्लेंट कमेटी से जांच की मांग की. मगर उस समय तहलका मैगजीन के दफ्तर में कोई इंटरनल कंप्लेंट कमेटी नहीं बनी थी, अब बन गई हो तो कहा नहीं जा सकता.

गौरतलब है कि संशोधित भारतीय कानून के मुताबिक अगर कोई महिला काम की जगह पर यौन उत्पीड़न की शिकायत करना चाहती है तो यह उस की मरजी है कि वे इस के लिए दफ्तर में इंटरनल कंप्लेंट कमेटी के तहत जांच की मांग करे या फिर क्रिमिनल ला के सैक्शन 354(ए) के तहत पुलिस के पास जाए.

दफ्तरों की नीयत

भारत में अकसर कार्यस्थल पर कोई अभद्र, अशोभनीय, अश्लील हरकत अथवा बलात्कार की कोशिश अथवा बलात्कार होने पर ज्यादातर महिलाएं पुलिस के पास जाने के बजाय ‘सैक्सुअल हैरसमैंट ऐट वर्कप्लेस’ ऐक्ट के तहत दफ्तर में बनी कमेटी के आगे शिकायत करना बेहतर मानती हैं, जिस के तहत उन्हें कई तरह की राहत तुरंत मिल सकती है, जबकि पुलिस के पास मामला दर्ज करवाने और क्रिमिनल प्रौसिक्यूशन का रास्ता इख्तियार करने पर लंबा वक्त लगता है, पैसा और वक्त बरबाद होता है, सुनवाई के लिए हर बार उस जगह के कोर्ट में जाना पड़ता है, जहां घटना हुई, फिर डिफैंस लायर की टीम के उलटेसीधे सवालों को  झेलना, मीडिया के आंकलनों से बचना, सोशल मीडिया पर लोगों की बातों का शिकार बनने से बच पाना किसी पीडि़त महिला के लिए आसान नहीं होता है.

दफ्तर की इंटरनल कंप्लेंट कमेटी, जिस में तीनचौथाई सदस्य महिलाएं होती हैं, के आगे पूरी बात रखना पीडि़त महिला के लिए आसान होता है और शिकायत सही पाए जाने पर उस को तुरंत राहत मिलती है जैसे उस का विभाग या टीम बदल दी जाती है, मैनेजर बदल दिया जाता है, उस को आर्थिक भुगतान और काउंसलिंग की सुविधा मिलती है.

वहीं आरोपी का दोष सिद्ध होने पर उसे नौकरी से बरखास्त तक किया जा सकता है अथवा पूरे मामले की गंभीरता को देखते हुए पुलिस को सौंपा जा सकता है. लेकिन भारत के निजी क्षेत्र में कितनी कंपनियों ने यह कमेटी बनाई है, इस का कोई आंकड़ा आज तक मौजूद नहीं है. बस चर्चाओं के कारण इतना भर हुआ है कि लोगों को इस के बारे में थोड़ाबहुत पता है कि उन का कैसा व्यवहार गलत है और यौन उत्पीड़न की परिभाषा में आ सकता है, पर दफ्तरों की नीयत अब भी औरतों को न्याय दिलाने की नहीं है, कमेटियां या तो बनाई ही नहीं जाती हैं या सदस्यों का चयन कानून के मुताबिक नहीं होता है अथवा उस की जानकारी दफ्तर में सब को नहीं दी जाती है.

मार्च, 2020 में काम की जगह पर यौन उत्पीड़न पर हुए एक सर्वे में पत्रकार जगत से भाग लेने वाली 456 महिलाओं में से एकतिहाई ने कहा कि उन के साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ है, लेकिन 50 फीसदी ने इस के बारे में किसी को नहीं बताया.

हाईप्रोफाइल मामला

तरुण तेजपाल ऐसे दूसरे हाईप्रोफाइल भारतीय पत्रकार हैं, जिन्हें लैंगिक दुर्व्यवहार के मामले में गंभीर आरोपों का सामना तो करना ही पड़ा, मीडिया में भी काफी छीछालेदर हुई, मगर उन की मोटी चमड़ी पर इस का कोई ज्यादा असर नहीं हुआ.

इस से पहले दिल्ली की एक अदालत ने पूर्व मंत्री और संपादक एमजे अकबर की ओर से दायर मानहानि मामले में फैसला देते हुए पत्रकार प्रिया रमानी को बरी कर दिया था. प्रिया रमानी ने एमजे अकबर पर यौन दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया था, जिस के बदले में एमजे अकबर ने आदेश के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की थी. अकबर को भी अपने किए की कोई सजा नहीं मिली, अलबत्ता वे भाजपा का फ्रंट फेस अब नहीं हैं, उन्हें मंत्री पद से बरखास्त कर के थोड़ा पीछे धकेल दिया गया है. मगर जिंदगी मजे में कट रही है.

बेकार है न्याय की उम्मीद करना

ऐसा हो सकता है कि किसी औरत ने रेप की शिकायत की हो और उस के मामले में कार्रवाई भी हुई हो, जिस के बाद उसे न्याय भी मिल गया हो, लेकिन भारत में अधिकतर मामलों में रेप पीडि़ता शिकायत के बाद और भी ज्यादा प्रताडि़त की जाती है, यहां तक कि उस का जीना मुहाल हो जाता है और कभीकभी तो वह आत्महत्या तक कर लेती है तो कभी आरोपी के हाथों ही मार डाली जाती है.

‘मीटू’ जैसे सोशल मीडिया आंदोलनों की बदौलत अचानक बहुत सी महिलाएं सामने आईं और उन्होंने बताने की हिम्मत जुटाई कि वे बलात्कार, अश्लील हरकत, छेड़छाड़, भद्दे कमैंट्स की पीड़ा से गुजरी हैं.

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प्रिया रमानी ने भी एमजे अकबर पर मीटू के तहत ही आरोप लगाया था. मगर मीटू आंदोलन या ‘द रेपिस्ट इज यू’ जैसे गाने पूरी दुनिया में छाने के बावजूद महिलाओं के प्रति यौन अपराधों में कोई कमी आई हो ऐसा नहीं हुआ.

यौन अपराधों और कानूनों को ले कर सिर्फ जागरूकता ही पर्याप्त नहीं है. जब तक न्याय दिलाने वाली संस्थाएं, पुलिस और देश की अदालतें रसूखदारों की ताकत और पैसे के लालच से आजाद नहीं होंगी, पीडि़ताओं को न्याय नहीं मिलेगा.

सख्त सजा के अभाव में तेजपाल और अकबर जैसे लोग हर दिन किसी न किसी औरत के सीने से दुपट्टा खींचते ही रहेंगे.

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