प्यार पर पहरा क्यों?

दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके में रहने वाले प्रतीक (29) ने जब अपने घर  में सिया (25) के बारे में बताया तो मानो घर पर पहाड़ टूट पड़ा हो. सिया के बारे में सुनते ही प्रतीक के घरवाले खुद को दोतरफा चोट खाया महसूस करने लगे. सिया उन के अपने राज्य उत्तराखंड से नहीं थी, वह यूपी से तअल्लुक रखती थी. बड़ी बात यह कि वह जाति से भी अलग थी.

दरअसल, प्रतीक और सिया काफी समय से एकदूसरे से प्रेम कर रहे थे. साथ समय बिताते हुए दोनों के बीच आपसी अंडरस्टैंडिंग काफी अच्छी हो गई थी. दोनों ने शादी करने का फैसला किया. लेकिन उन दोनों के प्रेम संबंध और शादी के बंधन के बीच उन की जाति आड़े आ रही थी. जहां प्रतीक ऊंची जाति था वहीं सिया कथित नीची जाति की थी.

प्रतीक के घर में काफी हंगामा बरपा. शहरी रहनसहन होने के बावजूद जाति की खनक परिवार के कामों में शोर मचा रही थी. यह वही खनक थी, जिस में खुद की जातीय श्रेष्ठता का झठा गौरव ऊंचनीच के भेदभाव की नींव को सदियों से मजबूत कर रहा है. प्रतीक के घर में शादी के लिए नानुकुर हुई. ऐसे में सगेसंबंधी कहां पीछे रहने वाले थे. उन्होंने तो खासकर ताने मारने ही थे.

बात परिवार की इज्जत पर आ गई. लेदे कर परिवार की सहमति बनी कि यह शादी हरगिज नहीं होनी चाहिए. बारबार प्रतीक के समझने के बाद भी घर वाले नहीं माने तो अंत में दोनों ने सहमति बनाई और कोर्ट मैरिज कर ली.

फिलहाल वे परिवार से अलग अच्छी जिंदगी जी रहे हैं. लेकिन उम्मीद इसी बात की करते हैं कि एक दिन प्रतीक के मातापिता जरूर सिया को बहू के रूप में स्वीकार लेंगे.

जाति ने न जाने कितने रिश्तों की भेंट चढ़ा दी

यह तो शहरी मामला रहा जहां प्रतीक और सिया ने कानून का सहारा ले कर शादी रचाई और खुद की इच्छा का जीवनसाथी चुना.

लेकिन क्या भारत में ऐसा हर जगह हो पाना आज भी संभव है? अगर बात गांवदेहातों की हो तो वहां ऐसा करना तो दूर, सोचना भी पाप माना जाता है. यदि ऐसा कोई मामला सामने आ जाए तो अगले दिन ‘ओनर किलिंग’ की खबर देश की शोभा बढ़ाने में चार चांद लगाने को तैयार रहती है.

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भारत में जाति व्यवस्था सदियों से अस्तित्व में है, जो न सिर्फ समाज में घृणा फैलाती रही है, बल्कि कई लोगों के मौत का भी कारण बनी है. ऐसे में जातीय शुद्धता के चलते अंतर्जातीय प्रेमी युगलों/विवाहितों को समाज द्वारा खास टारगेट किया जाता रहा है.

शर्मसार कर देने वाली घटनाएं

अक्तूबर, 2020 में कर्नाटका के रामनगरा जिला (मगदी तुलक) में ओनर किलिंग की घटना घटी. बकौल पुलिस, एक पिता ने अपनी बेटी को इसी के चलते मार दिया कि उस की बेटी का किसी गैरजातीय लड़के के साथ प्रेम संबंध चल रहा था और दोनों शादी करने वाले थे. हैरानी की बात यह कि गांव वाले घटना की हकीकत जानने के बावजूद पुलिस के आगे मूक बने रहे.

जाहिर है इस में उन की भी सामाजिक स्वीकृति रही. यही कारण है कि बहुत सी ऐसी घटनाएं सामने आ भी नहीं पातीं. बहुत बार यदि प्रेमी युगल के परिवार बच्चों की खुशी के लिए शादी करने को तैयार हो भी जाएं तो गांव का खाप उन्हें ऐसा करने से रोक देता है और दंडित करता है.

एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014-17 के बीच भारत में कुल 300 ओनर किलिंग की घटनाएं सामने आईं. देश में अधिकाधिक ओनर किलिंग की शर्मशार कर देने वाली घटनाएं उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से अधिक देखने को मिलती हैं.

गोत्र एक होना भी समस्या

भारत में 2 प्रेमी जोड़ों की स्वेच्छा से शादी में रुकावट डालने का समाज के पास सिर्फ यही तंत्र नहीं है. ऐसा ही एक मामला अमित और प्रिया के साथ हुआ. यहां समस्या उन की जाति नहीं, बल्कि उन का एक गोत्र होना था. हिंदू धर्म में 3 गोत्र (खुद का, मां का और दादी व नानी का) में शादी करने को गलत माना जाता है.

आमतौर पर माना जाता है कि एक गोत्र होने पर गुणसूत्र एक से हो जाते हैं, फिर आगे समस्याएं पैदा होने जाती हैं. लेकिन अमित के लिए प्रिया से प्यार न करने की यह दलील नाकाफी थी. प्रिया, अमित के ननिहाल गांव से थी, जहां अमित का अकसर आनाजाना रहता था. जाहिर है जहां उठनाबैठना व बातचीत का सिलसिला चलता है वहां आपसी समझदारी भी बनने लगती है.

यही कारण है कि अमित और प्रिया को आपस में प्रेम हुआ. वे एकदूसरे के करीब आए और शादी का फैसला कर लिया. बात घर में पता चली तो इस रिश्ते का पुरजोर विरोध हुआ. उन के घर वालों ने एक गोत्र होने की अड़चन खड़ी कर दी और एकदूसरे से न मिलने का फरमान जारी कर दिया.

यहां बात गांव की थी, स्थानीय समाज भी उन दोनों के खिलाफ खड़ा हो गया, जिस का अंत यह हुआ कि जोरजबरन आननफानन में प्रिया की शादी ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो उस के लिए बिलकुल अजनबी था, जिस के प्रति उस की चाहत शून्य थी.

भाषा और संस्कृति का झमेला

भारत में ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहां प्रेमी युगलों को सामाजिक दबाव के चलते अपनी इच्छाओं की आहुति देनी पड़ती है. यह न सिर्फ जाति या गोत्र के चलते होता है, बल्कि ऐसे ही कुछ मामले तब भी देखने को मिलते हैं जब 2 परिवारों के रहनसहन, भाषा और संस्कृति में अंतर होता है.

यह विडंबना है कि भारत में शादी 2 व्यक्तियों का आपसी मसला नहीं, बल्कि 2 परिवारों और उन के सगेसंबंधियों का आपसी मसला बन जाता है.

यहां राज्यों के भीतर ही भाषा और संस्कृति में कई तरह की विविधताएं देखने को मिल जाती हैं तो फिर दूसरे राज्य की विविधता की तो बात ही अलग है. यही कारण है कि जब हिमाचल प्रदेश के विक्रम ने अपनी प्रेमिका आभा के बारे में घर वालों को बताया तो परिवार सन्न रह गया. दरअसल, 8 साल पहले आभा और विक्रम की मुलाकात दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस राम लाल कालेज में साथ पढ़ते हुए हुई थी.

दोनों का आपस में खास लगाव हो गया, तो उसी समय दोनों ने अंत तक साथ रहने का विचार भी मजबूत कर लिया. इस बीच दोनों ने खुद के कैरियर को मजबूत किया, जिस के चलते उन्होंने परिवार से बात करने की हिम्मत जुटाई.

भाषा और संस्कृति के नाम पर

विक्रम के घर वालों का फिलहाल यही मानना है कि दोनों परिवारों की भाषा, संस्कृति और रहनसहन में काफी  अंतर है वे आपस में मेल नहीं खा पाएंगे. ऊपर से डर है कि बंगाल के लोग चालाक होते हैं. अत: आभा विक्रम को अपने वश में कर लेगी.

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जाहिर सी बात है जब दो वयस्क लोग आपस में शादी के लिए पूरी तरह तैयार हैं तो उस स्थिति में बाकी लोगों को शादी कराने की पौसिब्लिटी की तरफ बढ़ना चाहिए न कि रोकने की. ऐसे में उचित यही होता कि विक्रम के मातापिता देखें कि विक्रम को आभा के साथ जीवन बिताना है.

ऐसे में उस की पसंद प्राथमिक होनी चाहिए. दूसरा, अगर संस्कृति आपस में मेल नहीं खा रही तो यह समस्या आभा के लिए ज्यादा होनी चाहिए, जिसे अपना घर छोड़ कर ससुराल आना है. ऐसे में अगर वह तैयार है तो उन्हें भी एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए. बाकी किसी के गलत और सही को ऐसे जज तो बिलकुल भी नहीं किया जा सकता.

अंतरधार्मिक विवाह बड़ा बवाल

मौजूदा समय में जिस तरह से सामाजिक और राजनीतिक हवा बह रही है वह प्रेम विवाहों पर तरहतरह से रोड़े अटकाए जाने को ले कर है, किंतु इस हवा के सीधे रडार पर वे जोड़े आ रहे हैं, जो धर्म के इतर जा कर अपने प्यार की बुनियाद मजबूत कर रहे थे.

भारत में अंतरधार्मिक विवाहों को समाज द्वारा सब से ज्यादा हिराकत भरी नजरों से देखा जाता रहा है. परिवार, रिश्तेदार और समाज द्वारा अंतरधार्मिक विवाहों का खुल कर विरोध किया जाता रहा है. ऐसे में इन प्रेम विवाहों को जहां सरकार को प्रोत्साहन देने की जरूरत थी व हर संभव मदद करने की जरूरत थी, वहां खुद भाजपा शासित सरकारें तथाकथित धर्मांतरण विरोधी कानून के नाम पर इन प्रेम विवाहों पर अड़चनें डालने में जुट गई हैं, जिस के बाद कई शादीशुदा जोड़ों को इस कानून के नाम पर उत्पीडि़त किया जा रहा है.

स्थिति यह है कि ऐसे प्रेमी व विवाहित जोड़ों को असामाजिक तत्त्वों द्वारा ढूंढ़ढूंढ़ कर पीटा जा रहा है. इस में संविधान की कसम खाने वाले पुलिस भी पीछे नहीं है. वह लाठी के बल पर इन जोड़ों को अलग व गिरफ्तार कर रही है. उन के ऊपर झठे मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं, जबरन विवाहित महिला को उस के पिता की कस्टडी में भेजा जा रहा है.

ऐसे में वयस्क प्रेमी युगलों के पास न सिर्फ घरपरिवार, सगेसंबंधी और समाज को मनाने का चैलेंज है बल्कि इस के बाद सरकार के सामने भी यह साबित करना चैलेंज हो गया है कि प्यार और शादी उन की खुद की मरजी से हुई है.

विवादित कानून की आड़ में

विवादित धर्मांतरण निषेध कानून के यूपी में पास होने के बाद से ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के समक्ष कई अंतरधार्मिक विवाह के मामले आने लगे हैं. ऐसा ही हालिया मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में सामने आया. झठे आरोपों में फंसाए बालिग सिखा (21) और सलमान को पहले परिवार, नातेरिश्तेदारों और समाज से लड़ना पड़ा. फिर जब वे शादी करने में कामयाब हुए तो अब उन्हें सरकार से भी संघर्ष करना पड़ रहा है.

गत 18 दिसंबर को जस्टिस पंकज नकवी और विवेक अग्रवाल की बैंच ने कहा, ‘‘शिखा अपने पति के साथ रहना चाहती है और वह आजाद है कि अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जीए.’’

वहीं इस से पहले 7 दिसंबर को कोर्ट ने सिखा की जबरन पिता की कस्टडी में भेजे जाने की सिफारिश पर सीडब्ल्यूसी को कहा था कि बिना उस की इच्छा के सीडब्ल्यूसी द्वारा इसा किया गया.

ये चीजें दिखाती हैं कि किस प्रकार से विवादित कानून की आड़ में अंतरधार्मिक वैवाहिक जोड़ों को परेशान किया जा रहा है. इस से पहले कोलकाता हाई कोर्ट ने भी दोहराया, ‘‘अगर कोई वयस्क अपनी पसंद के अनुसार शादी करता है और धर्मपरिवर्तन कर अपने पिता के घर नहीं जाना चाहता है, तो मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता है.’’

अब स्थिति यह है कि इन सब फसादों के चलते कई प्रेमी जोड़े डर रहे हैं कि वे शादी के लिए आगे बढ़ें या नहीं.

कानून क्या कहता है

भारत में वयस्कों की शादी करने की न्यूनतम उम्र पुरुष की 21 और महिला की 18 साल है. ऐसे में दोनों स्वतंत्र हैं कि अपनी मरजी से जिस से चाहे शादी कर सकते हैं. भारत में अधिकतर शादियां अलगअलग धार्मिक कानूनों और ‘पर्सनल लौ’ बोर्ड के तहत होती हैं. इस के लिए शर्त यह कि दोनों का उसी धर्म का होना जरूरी है.

‘नैशनल कौंसिल औफ एप्लाइड इकनौमिक रिसर्च’ (एनसीएईआर) द्वारा 2014 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5% ही अंतरजातीय व अंतरधार्मिक विवाह होते हैं और 95% अपनी जाति/समुदाय के भीतर होते हैं.

हिंदू विवाह अधिनियम-1955, में यह प्रावधान है कि हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध आपस में शादी कर सकते हैं. कुछ इसी प्रकार मुसलिम पर्सनल लौ बोर्ड-1937, भारतीय इसाई विवाह अधिनियम-1872, पारसी विवाह और निषेध अधिनियम-1936 है, जहां एक ही धर्म के लोग आपस में शादी कर सकते हैं. ऐसे में अगर किसी गैरधार्मिक व्यक्ति को इन नियमकानूनों के तहत शादी करनी हो तो उसे अपना धर्म बदलना ही पड़ता है.

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ऐसे में भारत सरकार साल 1954 में विशेष विवाह अधिनियम-1954 ले कर आई ताकि किसी भी पार्टी को धर्म बदलने की जरूरत न पड़े. इस अधिनियम के तहत दोनों में से कोई भी पार्टी बिना धर्म परिवर्तन के एक वैध शादी कर सकती है. साफ है कि यह अधिनियम अनुच्छेद 21 के जीवन जीने के अधिकार के तहत अपना जीवनसाथी स्वयं चुनने की स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है.

कानूनी खामियां

किंतु उस के बावजूद इस कानून की कुछ खामियां रही हैं, जिस के चलते इस प्रक्रिया से प्रेमी जोड़े को शादी करना पेचीदा महसूस होने लगता है. जाहिर है, इस में घरपरिवार की सहमति हो तब तो ठीक है (अलबता बजरंग दल या युवावाहिनी होहल्ला न करे तो), लेकिन अगर वे असहमत हैं और नोटिस लगने के 30 दिन के भीतर औब्जैक्ट करते हैं तो शादी में रुकावट पैदा की जा सकता है.

यही कारण है कि इन पेचीदगियों से बचने के लिए प्रेमी जोड़ा धार्मिक कानूनों में सरल प्रक्रिया के चलते धर्म परिवर्तन के लिए भी तैयार हो जाता है. ऐसे में धर्म प्रेमी युगलों के लिए बहुत बड़ा मसला है भी नहीं, जितना हौआ कट्टरपंथी लगातार खड़ा कर रहे हैं.

अब मुख्य मामला यह कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 संविधान के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, जिस में यह स्पष्ट कहा गया है कि भारत में कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया के अलावा कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उस के जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता है.

इस का अर्थ वह चाहे जिस से प्रेम करे, चाहे जिसे माने यह उस की निजी स्वतंत्रता और हक है. ऐसे में इन दिनों इन्हीं वाक्यों को बारबार इलाहाबाद हाई कोर्ट सामने आ रहे फर्जी मुकदमों के खिलाफ कहते भी आ रहा है. फिर सवाल यह कि जब संविधान हामी भरता है तो ऐसी शादियों से समस्या किसे और क्यों है?

मिक्स्ड कल्चर का खौफ

दुनिया के किसी भी कोने में समाज को अगर किसी चीज का डर सताता है तो वह कल्चर के मिक्स होने का है. हजारों सालों से लोगों ने खुद को मानसिक दासता की बेडि़यों में बांध कर डब्बों में देखने की आदत डाल ली है. ये डब्बे धर्म के हैं, जाति के हैं, अमीरीगरीबी के हैं, नस्ल के हैं. यही कारण है कि थोड़े से सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव से भी यह समाज विचलित हो उठता है. ऐसे ही इस मानसिक दासता को चोट पहुंचाने का तीखा काम इसी प्रकार के प्रेम विवाह करते हैं, जहां लोगों के हजारों सालों से जमे अंधविश्वासों पर गहरी चोट पड़ती है. जाति और धर्म के बाहर जा कर शादी करना रूढि़वाद पर तीखा प्रहार करने के समान है. सिर्फ एक मामला और सबकुछ कुहरे की तरह साफ होने जैसा है. अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादियों के बाद होने वाले बच्चे मुसलमान, हिंदू, ब्राह्मण, हरिजन नहीं बनते बल्कि वे इंसान बनते हैं.

यही चीज समाज के अव्वल दुश्मन, रूढि़वादी और धार्मिक कट्टरपंथी नहीं होने देना चाहते. उन्हें डर होता है अपनी विरासत चले जाने का. यह डर होता है कि कहीं उन के खिलाफ बगावत न उठ खड़ी हो जाए. वे ताकत को अपने हाथों में ही केंद्रित रखना चाहते हैं. लोगों को बंटा हुआ देखना ही उन के राजपाट को मजबूत करता है. उन की तमाम राजनीतिक शुरुआत और अंत एकदूसरे की विभिन्नता को कुरेदने से होती है. यह लोग जानते हैं कि इस प्रकार की शादियों से लोग धार्मिक अंधविश्वासों के बनाए भ्रम को मानने से इनकार करेंगे. मिक्स्ड कल्चर से पैदा हुए बच्चे कभी इन के धार्मिक और जातीय उकसावे में नहीं आएंगे. यही कारण है कि सत्ता में बैठे लोगों की कोशिश यही रहती है कि जितना हो सके इन की भिन्नता को और गाढ़ा किया जाए.

आमतौर पर मिक्स्ड कल्चर के लोग समानता और मानव अधिकारों के पक्ष में अधिक उदार होते हैं. ऐसे में वे धर्म के पाखंडों के फरेब में आसानी से नहीं फंसते हैं. उन का ध्येय धर्म की सिरखपाई से अधिक कर्म की कमाई होता है, जिस कारण इन कट्टरपंथियों को इस प्रकार के लोग खासा रास नहीं आते हैं, इसलिए इन की मूल कोशिश यही रहती है कि ऐसी स्थिति बनने से पहले इन पर रोक लगा दी जाए. किंतु प्रेम को कोई रोक पाया है भला. इस तरह के लोग अपने घरपरिवारों में ही इसे रोक न सके तो समाज को क्या रोकेंगे.

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करते हैं प्यार पर शादी से इनकार क्यों?

4साल की लंबी कोर्टशिप के बाद जब नेहा और शेखर ने अचानक अपनी दोस्ती खत्म कर ली तो सभी को बहुत आश्चर्य हुआ. ‘‘हम सब तो उन की शादी के निमंत्रण की प्रतीक्षा में थे. आखिर ऐसा क्या घटा उन दोनों में जो बात बनतेबनते बिगड़ गई?’’ जब नेहा से पूछा तो वह बिफर पड़ी, ‘‘सब लड़के एक जैसे ही होते हैं. पिछले 2 साल से वह मुझे शादी के लिए टाल रहा है. कहता है, इसी तरह दोस्ती बनाए रखने में क्या हरज है? असल में वह जिम्मेदारियों से दूर भागने वाला, बस, मौजमस्ती करने वाला एक प्लेबौय किस्म का इनसान है. आखिर मुझे भी तो कोई सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा चाहिए.’’

दूसरी ओर शेखर का कुछ और ही नजरिया था, ‘‘मैं ने शुरू से ही नेहा से कह दिया था कि हम दोनों बस, इसी तरह एकदूसरे को प्यार करते हुए दोस्ती बनाए रखेंगे. मुझे शादी और परिवार जैसी संस्थाओं में विश्वास नहीं है. उस वक्त तो नेहा ने खुशी से सहमति दे दी थी, लेकिन मन ही मन वह शादी और बच्चों की प्लानिंग करती रही और जबतब मुझ पर शादी के लिए दबाव डालना शुरू किया तो मैं ने उस से संबंध तोड़ लिया.’’

पुरुषों के बारे में धारणा

आमतौर पर पुरुषों के बारे में स्त्रियों का यही नजरिया रहा है कि वे किसी एक के प्रति निष्ठावान हो कर समर्पित नहीं होते हैं. वे एक गैरजिम्मेदार, मौजमस्ती में यकीन करने वाले मदमस्त भौंरे होते हैं, किंतु अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इस आरोप की जड़ें बहुत गहरी हैं. इस की मुख्य वजह है पुरुष और स्त्री की बुनियादी कल्पनाओं का परस्पर भिन्न होना. पुरुष की प्रथम कल्पना होती है अधिक से अधिक सुंदर स्त्रियों के साथ दोस्ती करना. दूसरी ओर अधिकांश स्त्रियों की कल्पना होती है किसी एक ऐसे पुरुष के साथ निष्ठापूर्वक संबंध बनाना, जो उन्हें आर्थिक और सामाजिक संरक्षण दे सके. विवाह के बाद जहां एक स्त्री की प्रथम कल्पना को और पोषण मिलता है वहीं पुरुष को अपनी कल्पना को साकार करने का अवसर जाता दिखता है. अत: एक पुरुष के लिए जहां समर्पण का अर्थ अपनी प्यारी कल्पना का त्याग करना है वहीं स्त्री के लिए समर्पण का अर्थ है अपनी बुनियादी कल्पना को साकार करना. शायद इसीलिए समर्पित होना या किसी बंधन में बंधना पुरुषों के लिए उतना आसान नहीं होता जितना स्त्रियों के लिए.

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कुछ तो मजबूरियां

एक औरत, जो स्वावलंबी हो उसे हम कैरियर विमन कहते हैं, लेकिन यदि पुरुष स्वावलंबी हो तो उसे हम प्लेबौय, जिम्मेदारियों से कतराने वाला कहते हैं. यह जो धारणा बनी है, उस के पीछे पुरुषों के विकास और उन के मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी है. हमारे यहां लाखों रुपए ऐसे विज्ञापनों पर खर्च किए जाते हैं, जो एक किशोर बालक के अर्धविकसित मस्तिष्क में एक जवान खूबसूरत और विकसित औरत की चाहत भर देते हैं. नतीजतन 14-15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते वह सुंदरियों की कल्पनाओं का आदी हो जाता है और फिर उसे एक नशीली लत लग जाती है. ऐसे में वह अपनी कल्पना की परी से अपनेआप को बहुत हीन महसूस करने लगता है. फिर जद्दोजहद शुरू होती है अपनेआप को बेहतर बनाने की. स्कूल में वह देखता है कि जो विजेता है, हीरो है, लड़कियां उसी के आसपास होती हैं. अत: उन का सामीप्य पाने के लिए वह हर क्षेत्र में हीरो बनने के लिए हाथपैर मारता है. इस कोशिश में वह बहुत मानसिक दबाव में रहता है. एक उम्र तक पहुंचतेपहुंचते वह समझने लगता है कि उसे लड़कियों का दिल जीतने के लिए या तो आर्थिक रूप से सबल बनना है या किसी और क्षेत्र में ‘हीरो’ बनना है. धीरेधीरे वह यह भी समझने लगता है कि ‘प्यार’ शब्द काफी महंगा है. प्यार जहां एक ओर अस्वीकार होने के भय को कम करता है वहीं दूसरी ओर यह पुरुष की जेबों पर आजीवन भार बनने वाला भी होता है. अत: समर्पित होने से पहले उसे बहुत कुछ सोचना पड़ता है.

अस्वीकृत होने का भय

सेक्स के मामले में यदि पुरुष पहल करते भी हैं तो स्त्री द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने का भय भी उन्हें लगातार बना रहता है, क्योंकि अमूमन जब कोई पुरुष किसी महिला के प्रति आकर्षित होता है तो उसे (स्त्री को) समझने में देर नहीं लगती कि यह लड़का उस में रुचि रखता है, किंतु पुरुष के लिए अकसर यह समझना कठिन होता है कि उसे स्वीकार किया जाएगा या नहीं. वह इसी दुविधा में रहता है कि हो सकता है उस की महिला मित्र ने उसे इसलिए इनकार न किया हो, क्योंकि वह ‘न’ नहीं कह पाई हो या उसे सिर्फ उस से सहानुभूति हो.

स्त्री चरित्र

हमारे यहां ज्यादातर स्त्रियां दोस्ती तो कर लेती हैं, लेकिन प्रेम के इजहार में वे बहुत कंजूसी बरतती हैं. अकसर पुरुष के प्रत्येक प्रस्ताव पर उन के मुंह से ‘न’ ही निकलता है, चाहे मन में जितनी ही ‘हां’ हो. और जब कोई स्त्री ‘न’ कहती है तो उस के लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि उस की प्रेमिका की किस ‘न’ का मतलब ‘हां’ है और फिर उस की ‘न’ को ‘संभावनाओं’ में और ‘संभावनाओं’ को ‘संभवों’ में बदलने की नैतिक जिम्मेदारी बेचारे पुरुष की होती है. वैसे यदि महिलाओं की मूक भाषा का अनुवाद किया जा सके तो पुरुषों के लिए अस्वीकार किए जाने का खतरा शायद कम हो जाए. एक तरफ तो पुरुष लगातार अपनी महिला मित्र की ‘अस्वीकृतियों’ को ‘स्वीकृतियों’ में बदलने की उलझन में रहता है तो दूसरी तरफ उसे यह भी डर लगा रहता है कि यदि वह उस पर ज्यादा दबाव डालता है तो उसे ‘चरित्रहीन’, ‘सेक्सी’ और न जाने क्याक्या समझा जाएगा. साथ ही वह इस उलझन में भी रहता है कि यदि वह उस पर ज्यादा दबाव डालता है तो कहीं वह उस से विरक्त न हो जाए.

महिलाओं की गुप्त योजनाएं

अधिकांश महिलाएं सोचती हैं कि शादी के बाद पुरुष बदल जाएगा, जबकि वह कम ही बदलता है. इसलिए वे मन ही मन अपने हिसाब से भविष्य के कार्यक्रम बनाती रहती हैं. नेहा और शेखर के केस में यही बात थी. शेखर के शादी न करने के निर्णय के बावजूद नेहा ने मन ही मन शादी की सारी तैयारी यह सोच कर डाली कि वह बाद में मान जाएगा. जब नेहा ने उस पर दबाव डाला तो शेखर को लगा कि नेहा ने पूरी तरह से न सिर्फ उस की भावनाओं की अपेक्षा की है बल्कि अपने वादे को भी तोड़ा है. ऐसे में भविष्य के प्रति नेहा के व्यवहार को ले कर आशंकित होना शेखर के लिए स्वाभाविक ही था. आज यद्यपि स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां बदल चुकी हैं, अधिकांश महिलाएं आत्मनिर्भर होती जा रही हैं, फिर भी ज्यादातर मामलों में पुरुषों से उन की अपेक्षाएं नहीं बदली हैं. एक स्त्री जितनी अधिक आर्थिक परेशानियों में रहती है वह पुरुष से उतने ही अधिक आर्थिक संरक्षण की अपेक्षा रखती है. ऐसे में एक पुरुष जब अपनी प्रेमिका को यह हिसाब लगाते देखता है कि वह शादी के बाद काम करे या न करे, तब वह सोचता है कि यह लड़की शायद एक खास वजह से शादी करना चाहती है. शायद वह काम करतेकरते थक गई है और नौकरी से छुटकारा पाने के लिए विवाह के रूप में आर्थिक सुरक्षा की चादर ओढ़ना चाहती हो या उस की नौकरी छूटने वाली हो या वह अपने कैरियर से तंग आ कर मां बनना चाहती हो वगैरहवगैरह. ऐसी हालत में पुरुषों के जस्ट इन केस सिंड्रोम से पीडि़त हो कर अपनी महिला मित्र से संबंध खत्म कर लेना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है.

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समर्पित पुरुषों की कमी

जहां स्त्रियां पुरुषों पर प्रेम में समर्पित न होने का आरोप लगाती हैं वहीं पुरुषों को भी महिलाओं से बहुत गंभीर शिकायतें होती हैं. उन का मानना है कि अधिकांश महिलाएं अपनी दूरबीन हमेशा कामयाब पुरुषों पर ही रखती हैं. स्कूलकालेज के समय से ही लड़के पाते हैं कि जो लड़के पढ़ाई में अच्छे होते हैं, खेल में भी आगे होते हैं, देखने में भी स्मार्ट होते हैं, साथ ही उन के पास अच्छी बाइक या कार होती है, लड़कियां उन्हीं के इर्दगिर्द चक्कर लगाती हैं. वे चाहती हैं कि पुरुष हर क्षेत्र में कामयाब भी हो और उन के प्रति पूरी तरह समर्पित भी हो. ऐसे में यकीन निष्ठावान पुरुषों की कमी तो होगी ही, क्योंकि अगर पुरुष भी इसी तरह की शर्त रख कर स्त्रियों का चयन करें तो उन्हें भी वफादार स्त्रियों की कमी खलेगी. मसलन, कोई पुरुष यदि ऐसी स्त्री की तलाश में हो जिस की कमाई वह खुद इस्तेमाल कर सके, वह खूबसूरत और आकर्षक भी हो, वह स्वयं प्रस्ताव भी ले कर आए और सेक्स में भी पहल करे तो क्या पुरुषों को ऐसी निष्ठावान स्त्रियों की समस्या नहीं रहेगी? चूंकि पुरुष के लिए समर्पण का अर्थ होता है अपनी बुनियादी कल्पनाओं का त्याग. अत: यदि वह अपनी प्रेमिका में ही अपने सारे सपने साकार कर सके तो वह काफी कुछ परेशानियों से बच सकता है.

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