महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-12

अब तक की कथा :

नील को अपने पास देख कर दिया हतप्रभ रह गई. ऐसे भी होते हैं लोग. इतने बेशर्म. नील दिया से ऐसे व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. बातों ही बातों में नील ने बताया कि वह पहले भी प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था. नील पूरे रास्ते दिया की चापलूसी करता रहा और वह उस की बेशरमाई के बारे में सोचती रही. आखिर वह बुत बनी हुई लंदन पहुंच गई. नील की मां ने आरती कर के उस का व बेटे का स्वागत किया और उसे नीचे का एक कमरा दे दिया गया. क्या दिया के संबंध नील से बन सके? घर से फोन आने पर वह बात क्यों नहीं कर सकी?

अब आगे…

ससुराल पहुंच कर दिया को लग रहा था जैसे वह किसी सुनसान जंगल में पहुंच गई है जहां दूरदूर तक पसरा सन्नाटा उसे ठेंगा दिखा रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह यहां किस से करेगी अपने मन की बात? नील इतनी सहजता से बात कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं. दिया का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. रिसीवर क्रैडिल पर रख कर दिया सोफे पर बैठ गई. तभी नील का स्वर सुनाई दिया, ‘‘तुम फ्रेश हो जाओ, फिर कुछ खापी लेते हैं. तुम तैयार हो जाओ, इतनी देर में मैं सूप और सैंडविच तैयार कर लेता हूं.’’

दिया चुपचाप देखती रही. कहां क्या करना है उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उस से ऐसा बरताव हो रहा था मानो वह न जाने कब से वहीं रहती आई हो. चुपचाप उठ कर वह उस कोठरीनुमा कमरे में गई. वह कमरा जिस में नील ने उस का सामान सरका दिया था. ‘उस के यहां नौकरों के कमरे भी कितने खुले हुए हैं,’ उस ने सोचा और खिड़की से बाहर देखने लगी. आकाश में चिडि़या तक नहीं दिखाई दे रही थी. मरघट का सा सन्नाटा. वह भीतर ही भीतर कांप गई.

‘‘चलो, तुम्हें बाथरूम दिखा देता हूं,’’ कह कर नील सीढि़यों पर चढ़ गया.दिया भी पीछेपीछे ऊपर जा पहुंची और उस ने एक गैलरी के दोनों ओर बने 2 कमरोें पर दृष्टि डाली.

‘‘ये मौम का कमरा है,’’ फिर दूसरी ओर इशारा कर के नील बोला, ‘‘दिस इज माय रूम.’’

फिर बाईं ओर के दरवाजे की ओर इशारा कर के नील बोला,  ‘‘यह एक और बैडरूम है और यह बाथरूम…’’

दिया तो मानो मूकबधिर की भांति सबकुछ सुन रही थी और समझने की चेष्टा कर रही थी कि उसे नीचे के बैडरूम में क्यों उतारा गया. इसी ऊहापोह में दरवाजा खोल कर वह बाथरूम में जा पहुंची. बाथरूम खासा बड़ा था. गरम पानी से नहाने के बाद उस ने स्वयं को थोड़ा सा चुस्त महसूस किया. घर की खिड़कियां लगभग एक सी लंबीचौड़ी थीं. बाहर पेड़ों पर एक भी पत्ता नहीं दिखाई दे रहा था. मानो किसी ने पत्ते रहित पेड़ों की पेंटिंग कर के वातावरण में दृश्य उपस्थित कर दिया हो. पेड़ों की उस तसवीर से उस के मन में और भी सूनापन भर उठा.

‘‘दिया,’’ नीचे से नील की आवाज थी. अपने वातावरण से उबर कर वह जल्दी ही सीढि़यों से नीचे उतर गई.

‘‘बड़ी देर लग गई?’’ नील ने पूछा जिस का दिया ने कुछ उत्तर नहीं दिया.

‘‘आओ दिया, मम्मा तुम्हारा वेट कर रही हैं,’’ नील किचन की ओर बढ़ा. वहीं एक डाइनिंग टेबल थी और मां टेबल पर बैठी नाश्ता सामने रखे प्रतीक्षा कर रही थीं.

किचन काफी बड़ा था और जरूरत की सभी चीजें उस में सलीके से फिट थीं. नील ने सैंडविच बना लिए थे, जूस के पैकेट्स निकाल कर मेज पर रख लिए थे. इन के साथ ही और भी बहुतकुछ जैसे भारतीय मिठाइयां और समोसे, जिन्हें नील माइक्रोवेव में गरम कर लाया था.

‘‘यहां एक सरदारनी बहुत बढि़या समोसे बनाती है. मौम मंगवा कर रख लेती हैं. जब जी चाहा, गरम कर के खा लिए,’’ नील बोलता जा रहा था.

नील की मां ने प्लेटें लगा ली थीं.

‘‘लो दिया, ऐसे तो भूखी रह जाओगी. यहां तो सैल्फ सर्विस करनी होती है.’’

दिया ने चुपचाप प्लेट ले ली. नील ने उस के गिलास में जूस भर दिया था.सब लोग चुपचाप नाश्ता करने लगे थे.

‘‘मम्मीपापा, दादी, भाई लोग, सब अच्छे हैं न?’’ एक ही सांस में नील की मां ने दिया से पूछ डाला. दिया ने हां में सिर हिला दिया. वह इन लोगों को समझने की चेष्टा कर रही थी. खूंटे से बंधी हुई गाय सिर हिलाने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी?

‘‘तुम्हें तो यह घर बहुत छोटा लग रहा होगा? यहां तो सब काम भी अपनेआप करना पड़ता है. मैं तो टांगों के दर्द से कुछ खास नहीं कर पाती. नील को ही मेरी मदद करनी पड़ती है. अब तुम आ गई हो तो…तुम तो जानती हो, नील को बाहर काफी आनाजाना पड़ता है.’’ सास अपनी जबान कैंची की तरह चलाए जा रही थीं. सैंडविच उठा कर मुंह तक ले जाता हुआ दिया का हाथ बीच में ही रुक गया. उसे याद आया कि जब उस की सास उन के घर आई थीं तब उन्होंने बताया था कि नील काफी बाहर जाता है परंतु उस के साथ ही यह भी याद आया कि उन्होंने कहा था कि दिया नील के साथ खूब घूमेगी. उस का दिमाग तो पहले से ही भटक रहा था, अब वह पूरी तरह समझ गई थी कि वह यहां क्यों लाई गई है. इतनी सर्दी में भी उसे पसीना आने लगा. उस ने सैंडविच वापस प्लेट में रख कर अपने माथे पर हाथ फेरा.

‘‘अरे, खाओ न, दिया. तुम ने फ्लाइट में भी कुछ नहीं खाया है. ऐसे तो तुम्हें चक्कर आने लगेंगे.’’

आने क्या लेगेंगे, चक्कर तो आ रहे थे दिया को. उसे फिर उल्टी सी आने लगी और खूब तेजी से सिर घूमने लगा, आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा और वह दोनों हाथों में अपना माथा थाम कर डाइनिंग टेबल पर बैठ गई.

‘‘दिया क्या बात है? आर यू औलराइट?’’ नील अपनी कुरसी से उठ कर उस के पास आ गया था और कंधों से पकड़ कर उस का मुंह ऊपर उठाने की चेष्टा करने लगा.

‘‘बैठ जाओ नील, ठीक हो जाएगी. अभी तक कभी इतनी लंबी फ्लाइट में सफर नहीं किया होगा न, शायद सिर घूम रहा है. है न दिया बेटा?’’

दिया तो उत्तर देने की स्थिति में ही नहीं थी.

‘‘लो, दिया, थोड़ा जूस पी लो, यू विल फील बैटर.’’

नील ने दिया का मुंह ऊपर कर के उस के होंठों से गिलास लगा दिया था. दिया ने कुछ घूंट भरे और अपना मुंह गिलास से हटा लिया. उस के शरीर में मानो जान ही नहीं थी और न ही दिमाग में सोचने की शक्ति. नील इतनी सहजता से बातें कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. दोनों मांबेटे एक से बढ़ कर एक बेशर्म. उस के मन ने सोचा कि वह ऐसे तो इस घर में घुट कर रह जाएगी. उस के घर के हालात भी इस समय ऐसे थे कि वह मांपापा को कुछ भी बताना नहीं चाहती थी. अगर वह कुछ खाएगीपीएगी नहीं तो अपना युद्ध कैसे लड़ सकेगी? उस ने स्वयं को संभाला और सैंडविच उठा कर धीरेधीरे कुतरने लगी. नाश्ता हो चुका था. नील ने प्लेटें समेट कर, उन की जूठन एक प्लेट में रखी और उसे किचन से बाहर लौबी में रखे हुए डस्टबिन में फेंक आया और दिया से आराम करने के लिए कहा. दिया टूटे हुए कदमों से कमरे की ओर बढ़ने लगी तो नील व उस की मां पीछेपीछे कमरे में घुस आए. फिर वही घिचपिच सी. दिया को याद आया कि उसे उपहार निकाल कर अपनी सास और पति को देने हैं. उस ने अटैची से उपहारों का डब्बा निकाल कर सासू मां के हाथों में पकड़ा दिया.

डब्बा हाथों में लेते हुए सासूजी बोलीं,  ‘‘अरे इतनी जल्दी क्या थी, दिया. अब तो घर में ही हो, फिर दे देतीं,’’ कहतेकहते डब्बा खोल डाला और खोलते ही मानो बाछें खिल गईं. उन के हाथों में कीमती हीरों का सैट जगमगा रहा था. दिया ने उड़ती दृष्टि से मांबेटों के चेहरों के उतारचढ़ाव पर दृष्टिपात किया और उस का थमा हुआ खून फिर से खौलने लगा. वह स्वयं को संभालती हुई अटैची बंद करने लगी.

‘‘अरे, यह अलमारी बिलकुल खाली है. इस में लगाओ न कपड़े. बाद में नील अटैची को अलमारी के ऊपर चढ़ा देगा.’’

अब उस का विश्वास दृढ़ होने लगा कि उस को यही कमरा मिलेगा. लेकिन क्यों? इस क्यों का उत्तर उस के पास था नहीं और अभी उस में इतना साहस नहीं था कि वह अपनी जबान खोल कर इन लोगों से कुछ पूछ सके.

क्या वह अपनी मां की प्रतिलिपि बन कर जीवनभर जीएगी? परंतु मां का घर के बाहर तो अपना अस्तित्व था, एक ही कमरे में दोनों पतिपत्नी की साझेदारी थी. मां अपने बच्चों से भी अपने दुख बांट सकती थी. दिया किस से करेगी अपने बारे में बात? तभी उसे याद आया कि नील के उपहार तो अटैची में ही रह गए. उस ने झट से उपहार निकाल कर नील को दे दिए. नील के लिए हीरे के कफलिंग्स और प्लेटिनम की चेन में हीरे का जगमगाता पैंडल था. जिसे देख कर मांबेटों के मुख पर मानो विजयी भाव फैल गए. डब्बों को मां के हाथ में पकड़ाते हुए नील ने सपाट स्वर में दिया से कहा, ‘‘अगर अभी थकी हुई हो तो कपड़े बाद में अलमारी में लगा लेना. अभी अटैची नीचे रख देता हूं,’’ और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा के उस ने दिया की अटैची उठा कर पलंग के नीचे की ओर सरका दी थी.

‘‘चलो दिया, तुम आराम कर लो बेटा. कितना उतरा हुआ मुंह लग रहा है. नील, तुम भी आराम कर लो.’’

बिना इधरउधर देखे और दिया के चेहरे को बिना पढ़े ही नवविवाहिता पत्नी को छोड़ कर नील दुधमुंहे बछड़े की भांति मां के पीछे चल दिया. दिया किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई और वे दोनों फटाफट सीढि़यां चढ़ गए थे. दिया भय के मारे कंपकंपाने लगी थी. उस ने अपने सिर को दोनों हाथों में थाम लिया. उस की आंखों में से अश्रुधारा एक बार फिर ऐसी प्रवाहित होने लगी मानो कमरे में बाढ़ ही ले आएगी. इसी स्थिति में न जाने कब उस की आंखें बंद हो गईं.

‘‘उठो, दिया, देखो कितने बज गए,’’ यदि उस ने यह न सुना होता तो शायद वह उसी प्रकार बिस्तर में लिपटी हुई गुड़मुड़ी सी बन कर पड़ी रहती.

आवाज सुनते ही वह चौंकी, आंखें खोल कर इधरउधर देखा. सासूमां उसे जगाने के लिए आवाज लगा रही थीं. दिया का बदन टूट रहा था. बिस्तर से उठने का उस का जरा सा भी मन नहीं था परंतु उसे यह कटु सत्य याद आया कि वह अपने पिता के घर में नहीं बल्कि अपनी ससुराल में है और यहां उसे अपने मन से चलने का कोई अधिकार नहीं है. ‘क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं?’ उस का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. मूकदर्शक सी उस ने बदन से रजाई उतार कर पैरों को पलंग से नीचे लटकाया और स्लीपर पहन लिए. अचानक उस की दृष्टि दीवारघड़ी पर पड़ी. शाम के 5 बज गए थे. दाहिनी ओर मुंह घुमाया तो खिड़की के बाहर रात घिर आई थी. शाम के 5 बजे इतना अंधेरा? उस ने पूछना चाहा पर मुख से बाहर आते हुए प्रश्न को भीतर ढकेल दिया था.

‘‘भूख नहीं लगी? कुछ खाओगी नहीं?’’ सास मानो चाशनी में शब्दों को घोल कर बोल रही थीं.

‘‘नहीं,’’ उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया और पलंग पर ही बैठी रही. उसे ठंड लग रही थी और वह फिर से रजाई में दुबक जाना चाहती थी. दीवार से सटी हुई एक कुरसी पड़ी थी. सास उसी पर बैठ गईं. उन्होंने दिया का माथा और गला छुआ तो झट से हाथ हटा लिया.

‘‘तुम्हें बुखार हो गया है. नील, जरा फर्स्ट-ऐड बौक्स और एक गिलास पानी तो लाओ.’’ कुछ देर में नील दवाई, थर्मामीटर एक गिलास में पानी ले कर उपस्थित हो गया. सास ने उसे गोली दी तो बिना किसी नानुकर के दिया ने गोली ले कर गले के नीचे उतार ली थी. वह किसी से भी कुछ बात नहीं करना चाहती थी.

‘‘दिया को बुखार हो गया है. इसे रैस्ट की जरूरत है. चलो बेटा, बिस्तर में लेट जाओ और रात में एक और गोली ले लेना. सुबह तक फिट हो जाओगी.’’ वे कुरसी से उठ गईं और दवाई का पत्ता उस के पलंग पर रख दिया.

‘‘दिया, टेक केयर प्लीज. दिस इज न्यू एटमौसफियर फौर यू,’’ कहते हुए नील मां के पीछेपीछे खिंचता हुआ सा दिया की ओर देखे बिना कमरे से बाहर निकल गया.

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