मेरी सास: कैसी थी उसकी सास

कहानियों व उपन्यासों का मुझे बहुत शौक था. सो, कुछ उन का असर था, कुछ गलीमहल्ले में सुनी चर्चाओं का. मैं ने अपने दिमाग में सास की एक तसवीर खींच रखी थी. अपने घर में अपनी मां की सास के दर्शन तो हुए नहीं थे क्योंकि मेरे इस दुनिया में आने से पहले ही वे गुजर चुकी थीं.

सास की जो खयाली प्रतिमा मैं ने गढ़ी थी वह कुछ इस प्रकार की थी. बूढ़ी या अधेड़, दुबली या मोटी, रोबदार. जिसे सिर्फ लड़ना, डांटना, ताने सुनाना व गलतियां ढूंढ़ना ही आता हो और जो अपनी सास के बुरे व्यवहार का बदला अपनी बहू से बुरा व्यवहार कर के लेने को कमर कसे बैठी हो. सास के इस हुलिए से, जो मेरे दिमाग की ही उपज थी, मैं इतनी आतंकित रहती कि अकसर सोचती कि अगर मेरी सास ही न हो तो बेहतर है. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

बड़ी दीदी का तो क्या कहना, उन की ससुराल में सिर्फ ससुरजी थे, सास नहीं थीं. मैं ने सोचा, उन की तो जिंदगी बन गई. देखें, हम बाकी दोनों बहनों को कैसे घर मिलते हैं. लेकिन सब से ज्यादा चकित तो मैं तब हुई जब दीदी कुछ ही सालों में सास की कमी बुरी तरह महसूस करने लगीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘सास का लाड़प्यार ससुर कैसे कर सकते हैं? घर में सुखदुख सभीकुछ लगा रहता है, जी की बात सास से ही कही जा सकती है.’’

मैं ने सोचा, ‘भई वाह, सास नहीं है, इसीलिए सास का बखान हो रहा है, सास होती तो लड़ाईझगड़े भी होते, तब यही मनातीं कि इस से अच्छा तो सास ही न होती.’

दूसरी दीदी की शादी तय हो गई थी. भरापूरा परिवार था उन का. घर में सासससुर, देवरननद सभी थे. मैं ने सोचा, यह गई काम से. देखें, ससुराल से लौट कर ये क्या भाषण देती हैं. दीदी पति के साथ दूसरे शहर में रहती थीं, यों भी उन का परिवार आधुनिक विचारधारा का हिमायती था. उन की सास दीदी से परदा भी नहीं कराती थीं. सब तरह की आजादी थी, यानी शादी से पहले से भी कहीं अधिक आजादी. सही है, सास जब खुद मौडर्न होगी तो बहू भी उसी के नक्शेकदमों पर चलेगी.

दीदी बेहद खुश थीं, पति व उन की मां के बखान करते अघाती न थीं. मैं ने सोचा, ‘मैडम को भारतीय रंग में रंगी सास व परिवार मिलता तो पता चलता. फिर, ये तो पति के साथ रहती हैं. सास के साथ रहतीं तब देखती तारीफों के

पुल कैसे बांधतीं. अभी तो बस आईं

और मेहमानदारी करा कर चल दीं.

चार दिन में वे तुम से और तुम उन से क्या कहोगी?’

बड़ी दीदी से सास की अनिवार्यता और मंझली दीदी से सास के बखान सुनसुन कर भी, मैं अपने मस्तिष्क में बनाई सास की तसवीर पूरी तरह मिटा न सकी.

अब मेरी मां स्वयं सास बनने जा रही थीं. भैया की शादी हुई, मेरी भाभी की मां नहीं थी. सो, न तो वे कामकाज सीख सकीं, न ही मां का प्यार पा सकीं. पर मां को क्या हो गया? बातबात पर हमें व भैया को डांट देती हैं. भाभी को हम से बढ़ कर प्यार करतीं?. मां कहतीं, ‘‘बहू हमारे घर अपना सबकुछ छोड़ कर आई है, घर में आए मेहमान से सभी अच्छा व्यवहार करते हैं.’’

मां का तर्क सुन कर लगता, काश, सभी सासें ऐसी हों तो सासबहू का झगड़ा ही न हो. कई बार सोचती, ‘मां जैसी सासें इस दुनिया में और भी होंगी. देखते हैं, मुझे कैसी सास मिलती है.’

इसी बीच, एक बार अपनी बचपन की सहेली रमा से मुलाकात हुई. मैं उस के मेजर पति से मिल कर बड़ी प्रभावित हुई, उस की सास भी काफी आधुनिक लगीं, पर बाद में जब रमा से बातें हुईं तो पता लगा उन का असली रंग क्या है.

रमा कहने लगी, ‘‘मैं तो उन्हें घर के सदस्या की तरह रखना चाहती हूं पर वे तो मेहमानों को भी मात कर देती हैं. शादी के इतने सालों बाद भी मुझे पराया समझती हैं. मेरे दुखसुख से उन्हें कोई मतलब नहीं. बस, समय पर सजधज कर खाने की मेज पर आ बैठती हैं. कभीकभी बड़ा गुस्सा आता है. ननद के आते ही सासजी की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, ‘ननद को कंगन बनवा कर दो, इतनी साडि़यां दो.’ अकेले रमेश कमाने वाले, घर का खर्च तो पूरा नहीं पड़ता, आखिर किस बूते पर करें.

‘‘रमेश परेशान हो जाते हैं तो उन का सारा गुस्सा मुझ पर उतरता है. घर का सुखचैन सब खत्म हो गया है. रमेश अपनी मां के अकेले बेटे हैं, इसलिए उन का और किसी के पास रहने का सवाल ही नहीं है. पोतेपोतियों से यों बचती हैं गोया उन के बेटे के बच्चे नहीं, किसी गैर के हैं. कहीं जाना हुआ तो सब से पहले तैयार, जिस से बच्चों को न संभालना पड़े.’’

रमा की बातें सुन कर मैं बुरी तरह सहम गई. ‘‘अरे, यह तो हूबहू वही तसवीर साक्षात रमा की सास के रूप में विद्यमान है. अब तो मैं ने पक्का निश्चय कर लिया कि नहीं, मेरी सास नहीं होनी चाहिए. लेकिन होनी, तो हो कर रहती है. मैं ने सुना तो दिल मसोस कर रह गई. अब मां से कैसे कहूं कि यहां शादी नहीं करूंगी. कारण पूछेंगी तो क्या कहूंगी कि मुझे सास नहीं चाहिए. वाह, यह भी कोई बात है.

मन ही मन उलझतीसुलझती आखिर एक दिन मैं डोली में बैठ विदा हो ही गई. नौकरीपेशा पिता ने हम भाईबहनों को अच्छी तरह पढ़ायालिखाया, पालापोसा, यही क्या कम है.

मेरी देवरानियांजेठानियां सभी अच्छे खातेपीते घरों की हैं, मैं ने कभी यह आशा नहीं की कि ससुराल में मेरा भव्य स्वागत होगा. ज्यादातर मैं डरीसिमटी सी बैठी रहती. कोई कुछ पूछता तो जवाब दे देती. अपनी तरफ से कम ही बोलती. रिश्तेदारों की बातचीत से पता चला कि सास पति की शादी कहीं ऊंचे घराने में करना चाहती थीं. लेकिन पति को पता नहीं मुझ में क्या दिखा, मुझ से ही शादी करने को अड़ गए. लेनदेन से सास खुश तो नजर नहीं आईं, पर तानेबाने कभी नहीं दिए, यह क्या कम है.

मैं ने मां की सीख गांठ बांध ली थी कि उलट कर जवाब कभी नहीं दूंगी. पति नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर में रहते थे. मैं उन्हीं के साथ रहती. बीचबीच में हम कभी आते. मेरी सास ने कभी भी किसी बात के लिए नहीं टोका. मुझ से बिछिया नहीं पहनी गई, मुझे उलटी मांग में सिंदूर भरना कभी अच्छा नहीं लगा, गले में चेन पहनना कभी बरदाश्त न हुआ, हाथों में कांच की चूडि़यां ज्यादा देर कभी न पहन पाईं. मतलब सुहाग की सभी बातों से किसी न किसी प्रकार का परहेज था. पर सासजी ने कभी जोर दे कर इस के लिए मजबूर नहीं किया.

दुबलीपतली, गोरीचिट्टी सी मेरी सास हमेशा काम में व्यस्त रहतीं. दूसरों को आदेश देने के बजाय वे सारे काम खुद निबटाना पसंद करती थीं. बेटियों से ज्यादा उन्हें अपनी बहुओं के आराम का खयाल था.

इस बीच, मैं 2 बेटियों की मां बन चुकी थी. समयसमय पर बच्चों को उन के पास छोड़ जाना पड़ता तो कभी उन के माथे पर बल नहीं पड़ा. मेरे सामने तो नहीं, पर मेरे पीछे उन्होंने हमेशा सब से मेरी तारीफ ही की. मेरी बेटियां तो मुझ से बढ़ कर उन्हें चाहने लगी थीं. मेरी असली सास के सामने मेरी खयाली सास की तसवीर एकदम धुंधली पड़ती जा रही थी.

इसी बीच, मेरे पति का अपने ही शहर में तबादला हो गया. मैं ने सोचा, ‘चलो, अब आजाद जिंदगी के मजे भी गए. कभीकभार मेहमान बन कर गए तो सास ने जी खोल कर खातिरदारी की. अब हमेशा के लिए उन के पास रहने जा रहे हैं. असली रंगढंग का तो अब पता चलेगा. पर उन्होंने खुद ही मुझे सुझाव दिया कि 3 कमरों वाले उस छोटे से घर में देवरननदों के साथ रहना हमारे लिए मुश्किल होगा. फिर अलग रहने से क्या, हैं तो हम सब साथ ही.

मेरी मां मुझ से मिलतीं तो उलाहना दिया करतीं. ‘‘तुझे तो सास से इतना प्यार मिला कि तू ने अपनी मां को भी भुला दिया.’’

शायद इस दुनिया में मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं. मेरे मस्तिष्क की पहली वाली तसवीर पता नहीं कहां गुम हो गई. अब सोचती हूं कि टीवी सीरियल व फिल्मों वगैरा में गढ़ी हुई सास की लड़ाकू व झगड़ालू औरत का किरदार बना कर, युवतियां अकारण ही भयभीत हो उठती हैं. जैसी अपनी मां, वैसी ही पति की मां, वे भला बहूबेटे का अहित क्यों चाहेंगी या उन का जीवन कलहमय क्यों बनाएंगी. शायद अधिकारों के साथसाथ कर्तव्यों की ओर भी ध्यान दिया जाए तो गलतफहमियां जन्म न लें. एकदूसरे को दुश्मन न समझ कर मित्र समझना ही उचित है. यों भी, ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती.

मेरी सास मुझ से कितनी प्रसन्न हैं, इस के लिए मैं लिख कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहती, इस के लिए तो मेरी सास को ही एक लेख लिखना पड़ेगा. पर उन की बहू अपनी सास से कितनी खुश है, यह तो आप को पता चल ही गया है.

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