लेखिका- करुणा शंकर
विवेकवेक ने लंच ब्रेक के दौरान मोबाइल पर मुझे जो जानकारी दी उस ने मुझे चिंता से भर दिया.
‘‘विनोद भैया ने किराए का मकान ढूंढ़ लिया है. मुझे उन के दोस्त ने बताया है कि
2 हफ्ते बाद वे शिफ्ट कर जाएंगे,’’ विवेक की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.
‘‘हमें उन्हें जाने से रोकना होगा,’’ मैं एकदम बेचैन हो उठी.
‘‘बिलकुल रोकना होगा, रितु. अब रिश्तेदार और महल्ले वाले हम पर कितना हंसेंगे. तुम आज शाम ही भाभी को समझना. मैं भी बड़े भैया को अभी फोन करता हूं.’’
‘‘नहीं,’’ मैं ने उन्हें फौरन टोका, ‘‘अभी आप किसी से इस विषय पर कोई बात न करना प्लीज. यह मामला समझनेबुझने से नहीं सुधरेगा.’’
‘‘फिर कैसे बात बनेगी?’’
‘‘पहले शाम को हम आपस में विचारविमर्श करेंगे फिर कोई कदम उठाएंगे.’’
‘‘ओ. के.’’
इधरउधर की कुछ और बातें करने के बाद मैं ने फोन काट दिया. खाना खाने का मन नहीं कर रहा था. मैं ने आंखें मूंद लीं और वर्तमान समस्या के बारे में सोचविचार करने लगी…
संयुक्त परिवार की बहू बन कर सुसराल आए मुझे अभी सालभर भी नहीं हुआ है. अब मेरे जेठजेठानी अलग होने की सोच रहे हैं. इस कारण मैं परेशान तो हूं, पर मेरी परेशानी का कारण जगहंसाई का डर नहीं है.
संयुक्त परिवार से जुड़े रहने के फायदों को, उस की सुरक्षा को मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर जानती हूं.
मेरे पापा का दिल के दौरे से जब अचानक देहांत हुआ, तब मैं बी.कौम. के अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी. साथ रह रहे मेरे दोनों चाचाओं का पूरा सहयोग हमारे परिवार को न मिला होता, तो मेरी कालेज की पढ़ाई बड़ी कठिनाई से पूरी होती. फिर बाद में जो मैं ने एमबीए भी किया, उस डिगरी को प्राप्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.
एमबीए करने के बाद मुझे अच्छी नौकरी मिली, तो मैं अपने संयुक्त परिवार का मजबूत स्तंभ बन गई. अपने छोटे भाई को इंजीनियर व बड़े चाचा के बेटे को डाक्टर बनाने में मेरी पगार का पूरा योगदान रहा. अपनी शादी का लगभग पूरा खर्चा मैं ने ही उठाया. मेरे मायके में संयुक्त परिवार की नींव आज भी मजबूत है.
अपनी ससुराल में भी मैं संयुक्त परिवार की जड़ों को उखड़ने नहीं देना चाहती हूं. काफी सोचविचार के बाद मैं अपने बौस अमन साहब से मिलने उठ खड़ी हुई. वे मुझे बहुत मानते हैं और इस समस्या के समाधान के लिए मैं उन की सहायता व सहयोग पाने की इच्छुक थी.
शाम को घर में घुसते समय मेरे पास सब को सुनाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण खबर
थी. उसे मैं शानदार अभिनय करते हुए सुनाना चाहती थी, पर वैसा कुछ हो नहीं सका क्योंकि मेरी सासूमां संध्या भाभी पर बुरी तरह बरस रही थीं.
‘‘हम तो तंग आ गए हैं तुम्हारे रोजरोज के बीमार रहने से,’’ मेरी सास की गुस्से से भरी आवाज घर के बाहर तक सुनी जा सकती थी, ‘‘तुम सारा दिन पलंग तोड़ती रहा करो और रितु सुबह रसोई में घुसे फिर औफिस में और फिर थकीहारी शाम को लौटे, तो फिर सब का खाना बनाने को रसोई में घुंसे. अरे, इस तरह से बड़ी घरगृहस्थियां नहीं चलतीं… अगर कल को हम ने घर से अलग कर दिया, तो कौन देगा खाना बना कर विनोद और बच्चों को?’’
संध्या भाभी अपने कमरे में खामोश लेटी थीं. यह सच है कि वे आए दिन कमर व सिर के दर्द से परेशान रहती हैं. तब उन से कोई काम नहीं होता और मेरी सासूमां ऐसे मौकों पर उन्हें कड़वीतीखी बातें सुनाने से कभी नहीं चूकतीं.
मैं घर में मौजूद हूं तो सासूमां भाभी की जरा ज्यादा बुराइयां गिनाने के साथसाथ मेरी प्रशंसा के पुल भी बखूबी बांधती जातीं.
भाभी और मेरी व्यक्तित्व बिलकुल भिन्न है. वे बीमार रहती हैं और मैं बिलकुल चुस्त. घर की साफसफाई, वाशिंग मशीन में कपड़े डालने व रसोई के सारे काम अकेले निबटाने का अभ्यास मुझे अपने मातापिता के घर से ही है. ये सारे काम में वहां नौकरी करने के साथसाथ ही करती थी. इन कामों से न में थकती हूं, न चिड़ती हूं.
संध्या भाभी के दर्दों ने उन्हें अपाहिज सा बना दिया है. फूला शरीर भी उन की कार्यक्षमता को कम कर रहा है. सासूमां और उन के बीच झगड़ा शायद हमेशा से चलता रहा होगा, पर मेरे आने के बाद स्थिति बदतर हो गई.
मैं समझ सकती हूं कि देवरानी के सामने आए दिन बेइज्जत होना उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगता होगा. वे उलट कर जवाब देने की आदी नहीं हैं पर कभीकभी गुस्से का शिकार हो अपना संतुलन खो देती हैं. कोविड-19 के दिनों की बात तो दूसरी थी पर अब तक लगा मामला सुधर जाएगा पर सासूमां तो और मुखर हो गईं.
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जेठानी के पलट कर जवाब देते ही मेरी सास घंटों तक झगड़े को बनाए रखती हैं. घर का माहौल तब बहुत खराब हो जाता है.
इसी कारण संध्या भाभी चुप रहती हैं. मैं ने कई बार उन्हें अपने कमरे में मौन आंसू बहाते देखा है.
उस दिन कपड़े बदल कर जब मैं उन का हालचाल पूछने उन के कमरे में पहुंची, तो उन की आंखों में आंसुओं के बजाय गुस्से व विद्रोह के भावों को देख कर मुझे ज्यादा हैरानी नहीं हुई.
किराए के मकान में जा कर रहने का निर्णय उन के इन विद्रोही भावों को पैदा कर रहा था. उन के इस फैसले की विवेक और मेरे अलावा किसी को खबर नहीं थी.
उन के दोनों बच्चे एक तरफ रखी स्टडीटेबल पर पढ़ रहे थे. शायद किसी टीचर से औनलाइन ट्यूशन चल रही थी. मैं ने भाभी से सिर्फ उन का हालचाल पूछा और फिर रोहित और आंचल से हाय की.
दोनों पढ़ाई में बहुत होशिशर हैं.दोनों की लिखावट के अक्षर मोतियों से नजर आते हैं. दोनों के कक्षा में प्रथम आने का पूरा श्रेय संध्या भाभी को जाता है. वे प्यार व सहनशीलता के साथ उन्हें नियमितरूप से पढ़ाने में पूरी दिलचस्पी लेती हैं.
‘‘भाभी, आप मम्मी की बातों का बुरा न माना करो. रसोई का काम मैं संभाल लूंगी,’’ मेरा यह आश्वासन उन का मूड ठीक करने में असमर्थ रहा और मैं दोनों बच्चों को प्यार करने के बाद उन के कमरे से बाहर आ गई.
विवेक तब तक औफिस से लौट आए थे. मैं ने कुछ देर तक उन्हें संक्षेप में अपनी बात समझई और फिर रात के भोजन की तैयारी करने रसोई में जा घुसी.
मेरी सास भी रसोई में आ गईं. पर वहां उन की ऊर्जा का बड़ा भाग संध्या भाभी को जलीकटी बतों सुनाने में ही खर्र्च हो रहा था.
मेरी ज्यादा बोलने की आदत कभी नहीं रही. इस कारण कई लोग मुझे घमंडी मानने की भूल कर बैठते हैं. मैं अंतर्मुखी इंसान हूं और मुझे अपने काम से काम रखना पसंद है.
अपनी सास का लगातार बोलना मुझे पसंद नहीं आ रहा था, पर मैं चुपचाप काम में लगी रही. न तो उन की हां में हां मिलाई और न ही भाभी के पक्ष में बोल कर उन्हें भड़काने की गलती करी.
डिनर कर लेने के बाद मुझे सब को वह खबर सुनाने का मौका मिला जिसे मैं घर में घुसते ही सुनाना चाहती थी.
अपने सुसरजी को संबोधित करते हुए मैं
ने खुशीभरे लहजे में कहा, ‘‘पापा, मुझे औफिस में आज प्रमोशन मिला है. यह देखिए मेरा
औफर लेटर.’’
मेरे हाथ से लैटर ले कर सुसरजी ने पढ़ा और फिर परेशान लहजे में बोले, ‘‘बहू, इस में तो तुम्हारे मुंबई जाने की बात लिखी हुई है.’’
‘‘वही एक समस्या जरूर है, पापा पर पदोन्नति के साथसाथ मेरी पगार में पूरे 15 हजार रुपए हर महीने की बढ़त भी होगी.’’
‘‘वह तो ठीक है पर इतनी दूर जाने का फैसला…’’
‘‘तुम लोगों को मुंबई जाने की कोई जरूरत नहीं है,’’ मेरी सास ने अपने पति को टोकते हुए अपना मत मजबूत स्वर में व्यक्त किया, ‘‘अरे, 15 हजार की बढ़त मिलेगी, तो खर्चे भी तो बढ़ेंगे. फिर कल को तुम्हारे पैर भारी होगा, तो कौन देखभाल करेगा तुम्हारी?’’
विवेक ने शांत लहजे में अपनी मां को जवाब दिया, ‘‘मां, अभी हम ने
इस विषय पर ठीक से सोचविचार नहीं किया है, पर इस प्रमोशन को पाना रितु के लिए महत्त्वपूर्ण है. मेरी कंपनी भी मुझे मुंबई शाखा में ट्रांसफर करने के लिए आसानी से राजी हो जाएगी. रही बात बच्चे होने के समय में देखभाल की तो
अच्छे डाक्टरों व अस्पतालों की मुंबई में कोई कमी नहीं.’’
‘‘बेकार की बातें मत कर तू,’’ सासूजी ने उन्हें डपट दिया, ‘‘मांबाप के बुढ़ापे में बेटे को साथ रहना चाहिए. आजकल कोविड-19 की वजह से पता नहीं कब बसें, ट्रेनें, फ्लाइटें बंद हो जाएं.’’
‘‘हमें आए दिन घर से निकल जाने की धमकी मिलती है, भाई. मेरे इस घर में सुखशांति से रहने के दिन कब के खत्म हो चुके हैं,’’ विनोद भैया ने नाराजगीभरे अंदाज में अपनी शिकायत दर्ज कराई और ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चले गए.
‘‘तुम लोग मुंबई नहीं जाओगे,’’ हमें आदेश देते हुए अपनी सास की आंखों में चिंता और बेबसी के भाव मैं ने शायद पहली बार देखे होंगे.
‘‘मां, हम और सोचविचार कर के इस विषय में फैसला करेंगे,’’ विवेक के इस आश्वासन से मेरी सास का आंतरिक तनाव शायद रत्तीभर भी कम नहीं हुआ होगा.
अगले दिन से मेरी सास चिड़ी और परेशान सी नजर आने लगीं. वे गुस्सा करने के हर मौके पर खूब बोल रही थीं, पर कमाल की बात यह हुई कि उस दिन बीमार संध्या भाभी के खिलाफ सीधेसीधे एक भी जलीकटी बात उन्होंने अपने मुंह से नहीं निकाली.
रविवार के उस दिन उन्होंने मुझे दसियों बार मुंबई न जाने के कई फायदे गिनाए. अपनी आदत के अनुरूप में चुप रह कर सारी बातें सुनती रही.
‘‘आप बेकार परेशान हो रही हैं मम्मी, अभी हम ने कोई पक्का फैसला नहीं किया है. अगर हम मुंबई गए भी, तो आप को साथ ले कर जाएंगे,’’ मेरे इस प्रस्ताव का उन्होंने फौरन विरोध करते हुए मुंबई कभी न जाने का निर्णय सब को नाराज लहजे में सुना दिया.
उस शाम को बड़े भैया ने किराए का मकान लेने व अगले महीने की पहली तारीख को उस में शिफ्ट करने का अपना फैसला बता कर मेरी सास को एक जबरदस्त झटका दिया.
‘‘तुम दोनों भाइयों को क्या बिलकुल शर्म नहीं आ रही है इस घर से दूर जाने की बात कहते हुए?’’ सासूमां फट पड़ी, ‘‘हम बुढ्ढेबुढि़या को यहां अकेले सड़ने के लिए छोड़ोगे क्या तुम दोनों?’’
‘‘मुझे यह बेकार का ड्रामे मत दिखाओ मां,’’ विनोद भैया ने उन्हें उलटा डांट दिया, ‘‘तुम तो मुझे घर से निकल जाने की धमकी वर्षों से देती आ रही हो. अगर अकेले रहने से डर लगता है, तो अपने छोटे बेटे व प्यारी बहू को मुंबई न जाने को राजी कर लो. मैं रोजरोज अपमानित होने को इस घर में नहीं रूकूंगा, ‘‘अपना फैसला सुना कर बड़े भैया ड्राइंगरूम से बाहर चले गए.’’
‘‘मां, हम मुंबई रितु का कैरियर बेहतर बनाने के लिए जा रहे हैं और भैया नाराज हो कर घर छोड़ रहे हैं. हम शायद न रुकें, पर भैयाभाभी को रोका जा सकता है और यह काम सिर्फ तुम ही कर सकती हो अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने का उन दोनों का भरोसा दिला कर,’’ बाद में अपनी मां को अकेले में यह सलाह दे कर विवेक भी अपने कमरे में आ गए थे.
उस रात के बाद सासूमां ने खूब रोनाधोना शुरू कर दिया. संध्या भाभी के साथ
उन्होंने सारी तकरार बंद कर दी थी, पर उन के दोनों बेटों को बड़ी कड़वीतीखी बातें सुनने को मिलीं.
ससुरजी से उन की खूब झड़प होती. बड़े बेटेबहू के घर छोड़ कर जाने के लिए ससुरजी उन्हें खुल कर जिम्मेदार ठहरा रहे थे. वे अपनी गलती ना मान कर बेटों को खुदगर्ज बतातीं और दोनों के बीच कुछ घंटों के अंतराल पर नया झगड़ा शुरू हो जाता.
अगला सप्ताह ऐसे ही लड़ाईझगड़े में गुजरा पर न बड़े भैया ने किराए के मकान में जाने का फैसला बदला और न ही विवेक ने मुंबई जाने का विकल्प छोड़ा.
रोनेधोने और चीखनेचिल्लाने के अपने हथियारों को बेकार जाता देख सासूमां निराश हो गईं और उन्हें खामोश उदासी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.
इस रविवार की दोपहर में मैं अकेली संध्या भाभी से मिलने उन के कमरे में पहुंची. बाकी के लोग उस समय ड्राइंगरूम में टीवी पर फिल्म देख रहे थे.
मेरे हावभावों को सही ढंग से पढ़ते हुए संध्या भाभी ने मेरे कुछ कहने से पहले ही अपना फैसला दोहरया, ‘‘न, मुझे कुछ समझने की जरूरत नहीं है. मैं किराए के मकान में पक्का जाऊंगी.’’
मैं ने भावुक लहजे में जवाब दिया, ‘‘भाभी, अपने अनुभव के आधार पर मैं एक बार जानती हूं. बुरा वक्त आते जरा देर नहीं लगती… वही परिवार ऐसे सदमों व हादसों का सामना कर
लेता है जिस के सदस्यों में एका हो… दिलों में प्यार हो.’’
‘‘मांजी को हमारी नहीं तुम्हारी जरूरत है.’’
‘‘लेकिन मुझे तुम्हारी जरूरत है,’’ मैं ने एकएक शब्द पर पूरा जोर दिया.
‘‘तुम अच्छा कमाती हो… घर के कामों में ऐक्सपर्ट हो तुम्हें किसी की क्या जरूरत होगी? सारा घर तो तुम्हारे आगेपीछे घूमता है,’’ उन की आवाज में शिकायत भरी कड़वाहट उभरी.
‘‘भाभी, आप मुझे प्यार करती हैं न?’’
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मैं ने पास बैठ कर उन का हाथ अपने हाथों में
ले लिया.
‘‘हां, लेकिन मैं इस घर में सुखी नहीं रह सकती हूं.’’
‘‘और अगर आप घर छोड़ कर चली गईं
तो मैं खुद को बड़ा दुखी और असुरक्षित महसूस करूंगी.’’
‘‘तुम तो मुंबई जा रही हो. फिर तुम्हें मेरे यहां रहने या न रहने से क्या फर्क पड़ता है?’’ उन्होंने माथे में बल डाल कर प्रश्न किया.
‘‘आप अगर आदेश देंगी, तो मैं मुंबई नहीं जाऊंगी,’’ मैं शरारती ढंग से मुसकराई.
‘‘क्या मतलब?’’ वे चौंक पड़ीं.
‘‘भाभी, मैं अपने मन की बात आज खुल कर आप से कहू?’’
‘‘हां… हां,’’ उन की आंखों में उत्सुकता के भाव पैदा हुए.
‘‘भाभी, इस घर की नई पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए हम दोनों को बड़े प्रेम व समझदारी भरा आचरण करना होगा. और लोग हम दोनों के बीच तुलना करते रहेंगे, पर हम दोनों को मन में खटास पैदा करने वाली उन बातों पर बिलकुल ध्यान नहीं देना है.
‘‘देखिए, मेरी पगार इस घर की आर्थिक नींव मजबूत करती है. पर मेरे पास समय का अभाव है. जैसे आप ने रोहित और आंचल को अपने पढ़ाई में होशियार बनाया है, कल को वैसे ही मेरे बच्चों का होशियार बनाना आप की जिम्मेदारी होगी.’’
‘‘आप स्वस्थ नहीं रहती हैं, तो मैं आप का काम खुशीखुशी करूंगी. तुलना वाली कोई बात ही नहीं. हम दोनों एकदूसरे की पूरक बनी रहें, तो ही हमारे घर में सुखशांति और हंसीखुशी का वास रहेगा. क्या मेरी यह सोच गलत है, भाभी?’’ उन के सामने शायद पहली बार मेरी आंखों में आंसू ?िलमिलाए होंगे.
‘‘नहीं, पर…’’
‘‘भाभी, सब बातों को नजरअंदाज कर हम दोनों को अपनी मजबूत टीम बनानी ही होगी. हमें अपने पतियों व सासससुर का साथ व सहयोग न भी मिले, तो परवाह नहीं. यह परिवार टूटा, तो सब से ज्यादा नुकसान हम दोनों का ही होगा. हम दोनों जुड़ी रहीं, तो छोटेबड़े सब का बेड़ा पार हो जाएगा,’’ उन का नजरिया बदलने का प्रयास करते हुए मैं ने अपनी पूरी ताकत लगा दी.
कुछ देर खामोश रहने के बाद भाभी ने आगे बढ़ कर जब मेरा माथा प्यार से चूमा,
तो मैं इतनी खुश हुई कि उन के गले लग कर
रो पड़ी.
वे मुझे देर तक समझती रहीं. साथसाथ अपने मन की पीड़ा भी व्यक्त कर रही थीं. उस समय मेरे मन ने उन के सान्निध्य में इतनी राहत व शांति महसूस करी कि मैं ने मन ही मन उन्हें भाभी के साथसाथ मां का दर्जा भी दे दिया.
आजकल हमारे घर में कुछ भी नहीं बदलते हुए भी सबकुछ बदल गया है.
हमारी सास शोर करती रहती हैं पहले की तरह, लेकिन अब भाभी की आंखों में शिकायत या नाराजगी के भाव नहीं होते. सासूमां के सामने हम गंभीर नजर आती हैं, पर उन के मुड़ते ही एकदूसरे की आंखों में देख कर हमारा मुसकराना मन का सारा तनाव दूर कर देता है.
मैं ने अपनी बेटी आंचल के लिए हर महीने 1000 रुपए जोड़ने शुरू कर दिए हैं. इस बात का भाभी और विवेक के अलावा किसी को पता नहीं.
वे आए दिन मुझे समझती हैं, ‘‘रितु, अब जल्दी से एक बेटा या बेटी पैदा कर के मेरे हवाले कर दे. बेटा होगा तो उसे इंजीनियर और बेटी होगी तो उसे डाक्टर बनाने की मेहनत शुरू करने को मैं बेताब हुई जा रही हूं.’’
उन की बेताबी देख कर कभी मैं हंसती हूं, तो कभी शरमा जाती हूं. अब मन बड़ा हलका व प्रसन्न महसूस करता है. अपने इस संयुक्त परिवार की सुरक्षा, सुखशांति व खुशियों की मजबूत नींव के प्रति मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं.