Famous Hindi Stories : कुछ हट कर

Famous Hindi Stories :  एक सुबह कविता सो कर उठी और फ्रैश हुई. तभी अचानक उस की नजर कैलेंडर पर पड़ी तो वह जरा ठिठकी, ओह, कुछ ही दिनों में वह 42 साल की हो जाएगी. बस यही ठंडी सी सांस उस के मुंह से निकली. किचन में चाय बनाते हुए मन अजीब सा हुआ कि क्या सच में काफी उम्र हो रही है? चाय ले जा कर मेज पर रखी और फिर विनय का बाथरूम से निकलने का इंतजार करने लगी. लगा इतने सालों से वह बस इंतजार ही तो कर रही है…

आजकल कई दिनों से मन में फैली अजीब सी उदासीनता कविता से सहन नहीं होती. उसे अपने जीवन में शांत झील का ठहराव नहीं, बल्कि समुद्र की तूफानी लहरों का उफान चाहिए, कुछ तो खट्टामीठा स्वाद हो जीवन का.

दोनों बच्चे अभिजीत और अनन्या बड़े हो गए हैं, दोनों ने अपनीअपनी डगर ले ली है. ‘लगता है, अब किसी को मेरी जरूरत नहीं है, कैसे ढोऊं अब उद्देश्यहीन जीवन का भार?’ आजकल कविता बस ऐसी ही बातें सोचती रहती. उसे अपनी मनोदशा स्वयं समझ नहीं आती. जितना सोचती उतना ही अपने बनाए

हुए भ्रमजाल में उलझती जाती. आज जब बच्चे उस के स्नेह की छांव को छोड़ कर अपने क्षितिज की तलाश में बढ़ चले हैं, तो वह नितांत अकेली खड़ी महसूस करती है, निराधार, अर्थहीन.

‘‘अरे, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है, कविता,’’ विनय की आवाज से कविता की

तंद्रा भंग हुई.

‘‘क्या सोच रही थी, तबीयत तो ठीक है न?’’ पूछतेपूछते विनय ने चाय के साथ पेपर उठा लिया तो कविता और अनमनी हो गई, सोचा, बस पेपर पढ़ कर औफिस चले जाएंगे, बच्चे भी कालेज चले जाएंगे, तीनों शाम तक ही लौटेंगे. बस, उस का वही बोरिंग रूटीन शुरू हो जाएगा. मेड से काम करवाएगी, नहाधो कर थोड़ी देर टीवी देखेगी, कोई पत्रिका पढ़ेगी और फिर शाम होतेहोते सब के आने का इंतजार शुरू हो जाएगा.

कविता सोचती वह पोस्ट ग्रैजुएट है. विवाह के बाद विनय और उस के सासससुर उस के नौकरी करने के पक्षधर नहीं थे, उस ने भी घरगृहस्थी खुशीखुशी संभाल ली थी. सब ठीक था, बस, इन कुछ सालों में कुछ कमी सी लगती है. वह अपने रूटीन से बोर हो रही है, आजकल उस का कुछ हट कर, कुछ नया करने को जी चाहता है. इन्हीं खयालों में डूबे उस ने दिन भर के काम निबटाए, शाम को सोसायटी के गार्डन में सैर करने गई. यह अब भी उस की दिनचर्या का सब से प्रिय काम था.

कविता आधा घंटा सैर करती, फिर गार्डन से क्लबहाउस के टैरेस पर जाने का जो रास्ता है, वहां जा कर थोड़ी देर घूमती. टैरेस से नीचे बना स्विमिंगपूल दिखता, उस में हाथपैर मारते छोटेछोटे बच्चे उसे बहुत अच्छे लगते. शाम को ज्यादातर बच्चे ही दिखते थे, टीनएजर्स कभीकभी ही दिखते थे. पूल का नीलापन जैसे आसमान का आईना लगता. वह नीलापन कविता को आकर्षित करता. वह खड़ीखड़ी कभी आसमान को देखती तो कभी स्विमिंगपूल के नीलेपन को.

क्लब हाउस का पास तो कविता के पास था ही. अत: एक दिन वह ऐसे ही टहलतेटहलते पूल के पास पहुंच गई और फिर किनारे पर रखी चेयर पर बैठ गई. स्विमिंग पूल से पानी की हलकीहलकी आवाजें आ रही थीं, अत: पानी में जाने की तीव्र इच्छा उस पर हावी हुई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था. उस के अंदर जैसे किसी ने कहा, कुछ हट कर करना है न तो स्विमिंग क्यों नहीं? दिल किया वह अभी इसी समय अपने इस एहसास को किसी के साथ बांटे. पूल में उतरने और तैरने के खयाल से ही वह उत्साहित हो गई. हां, यह ठीक रहेगा, वह हमेशा स्विमिंग से डरती है, पानी से उसे डर लगता है, जब भी जुहू या और किसी बीच पर जाती है, हमेशा पानी से दूर टहलती है.

2 साल पहले जब चारों गोआ घूमने गए थे, उसे बहुत मजा आया था. लेकिन वह लहरों के बीच जाने से कतराती रही थी. पिछले साल फिर जब उस ने विनय से गोआ चलने के लिए कहा तो अभिजीत और अनन्या दोनों ने ही कहा, ‘‘मम्मी, आप को गोआ जा कर करना क्या है? आप को दूरदूर किनारे ही तो घूमना है. उस के लिए तो यहीं मुंबई में ही जुहू बीच पर चली जाया करो.’’

कविता क्या करे, उसे लहरों के अंदर घबराहट सी होती और यह घबराहट उसे पहले नहीं होती थी. वह तो 10 साल पहले जब विनय की पोस्टिंग नईनई ठाणे में हुई थी तो वे घर के पास ही स्थित ‘टिकुजीनिवाड़ी वाटर पार्क’ में गए थे. वहां पहुंच कर कविता बहुत उत्साहित थी. यह किसी वाटरपार्क का उस का पहला अनुभव था. वहीं एक स्लाइड से नीचे आते हुए उस का संतुलन बिगड़ गया और वह सिर के बल पानी में गिर गई और घबराहट में स्वयं को संभाल नहीं पाई.

विनय ने ही उसे सहारा दे कर खड़ा किया. वे कुछ क्षण जब उसे अपनी सांस रुकती हुई लगी थी, उसे अब तक याद थे.

और आज जब कुछ नया करने की इच्छा है, तो वह क्यों न पानी में उतर जाए, वह मन ही मन संतुष्ट हुई, हां, स्विमिंग ठीक रहेगी और विनय और बच्चों को अभी नहीं बताऊंगी वरना इस उम्र में यह शौक देख कर वे तीनों हंसने लगेंगे. यह मैं अपने लिए करूंगी, कई सालों में बहुत दिनों बाद, जो मैं चाहती हूं वह करूंगी न कि वह जो सब सोचते हैं. उस ने अभी से अपने को युवा सा महसूस किया. पानी के किनारे बैठेबैठे अपनी योजना को आकार दिया. फिर उत्साहित कदमों से रिसैप्शन पर गई और पूछा, ‘‘लेडीज कोच है?’’

‘‘इस समय बस बच्चों के लिए ही एक कोच आता है, लेडीज के लिए बैच गरमियों में शुरू होगा,’’ रिसैप्शनिस्ट बोली.

अभी तो नवंबर है, कविता को अपना उत्साह काफूर होता लगा. लेकिन बस पल भर के लिए. फिर उस का उत्साह यह सोचते ही लौट आया कि वह खुद अपने बलबूते स्विमिंग सीखने की कोशिश करेगी.

घर आ कर कविता मन ही मन प्लानिंग करती रही. विनय ने हमेशा की तरह टीवी देखा, लैपटौप पर काम किया, बच्चे भी अपनेअपने क्रियाकलापों में व्यस्त थे. किसी ने उस के उत्साह पर ध्यान नहीं दिया. वह भी चुपचाप क्या करना है, कैसे करना है, सोचती रही.

अगले दिन तीनों के जाने के बाद कविता स्विमसूट खरीदने मार्केट गई. उसे बड़ा अजीब लग रहा था. उस ने शरीर को ज्यादा से ज्यादा ढकने वाला स्विमसूट खरीदा, ट्रायलरूम में पहन कर देखा और मन ही मन संतुष्ट हुई. सैर से अभी फिगर ठीक ही थी. वह खुश हुई. अगले 8-10 दिन वह पूल के किनारे बैठ जाती, बच्चों को देखती, कैसे वे पानी में पैर मारते हैं, कैसे बांहें चलाते हैं, किस तरह उन के पैर उन्हें आगे धकेलते हैं और कैसे यह सब वे सांस खींच कर हवा को अपने अंदर भरते हैं. उस ने गहरी सांस ली और रोक ली. उसे निराशा हुई. लगा, नहीं कर पाएगी. नहीं, वह हारेगी नहीं, उसे कुछ नया, कुछ अलग करना है. रात को जब वह सोने के लिए लेटी तो उस के सामने बस वह पल था जब वह पूल के पानी को अपने चारों ओर महसूस कर सकेगी.

10 दिन बाद वह पूल की ओर बढ़ी तो मन में कुछ डर भी था तो कुछ जोश भी. यह पल उसे उस समय की याद दिला गया जब सुहागरात पर दुलहन बनी उसे फूलों से सजे बैडरूम में ले जाया जा रहा था. वहां विनय इंतजार में थे, यहां पूल. मन ही मन इस तुलना पर उसे हंसी आ गई. वह चेंजिंगरूम में गई, सनस्क्रीन लोशन लगाया और फिर घुटनों तक के शौर्ट्स के ऊपर स्विमसूट पहन लिया. शरीर का काफी हिस्सा ढक गया था. खाली स्विमसूट पहनने से उसे संकोच हो रहा था. अब वह सहज थी, केशों को सूखा रखने के लिए उस ने कैप लगाई और शरीर पर तौलिया लपेट लिया.

11 बज रहे थे, यह क्लबहाउस में स्विमिंग का लेडीज टाइम था. बस एक लड़की स्विमिंग कर रही थी. कविता पूल के किनारे बने खुले शावर की ओर बढ़ी. वह जानती थी पूल में उतरने से पहले शावर लेना नियम है. उस ने तौलिया हटा दिया, शावर के ठंडे पानी की तेज बौछार से पल भर को उस की सांसें जैसे रुक सी गईं.

कविता पूल के कम पानी वाले किनारे खड़ी हो कर फिल्मों में पूल में उतरने के दृश्य याद करने लगी. वह इस पल का क्या खूब आनंद उठा रही है, यह सोच कर उस के होंठों पर मुसकान आ गई. उसे लाइफगार्ड किनारे बैठा नजर आया तो वह थोड़ा निश्चिंत हो गई. अब जो भी करना था अपने बलबूते करना था. पानी ठंडा था, उस ने याद किया, कैसे बच्चों का कोच बच्चों को सिखाता था, नीचे जाओ, सांस रोको, ठंड नहीं लगेगी. उस ने ऐसा ही किया. रौड पकड़ी, पानी में चेहरा डाला और पैर चलाने की कोशिश की. बस थोड़ी देर ही कर पाई. बाहर निकली, थोड़ी निराश थी, कैसे करेगी वह यह.

घर पहुंचते ही थोड़ी देर लेट गई. अगला1 हफ्ता वह बस पानी में पैर चलाती रही. थक जाती तो पानी के अंदर डुबकी लगा कर आंखें खुली रखने की कोशिश करती. क्लोरीनयुक्त पानी से आंखें लाल हो जातीं. वह खुद को समझाती कि इस की आदत भी हो जाएगी. फिर अपनी पीठ उठा लेती जैसे पीठ के बल तैर रही हो.

शाम की सैर के बाद कविता पूल के किनारे चेयर पर जरूर बैठती, अपने कान बच्चों के कोच के 1-1 शब्द पर लगाए रखती और अगले दिन वैसा ही करने की कोशिश करती. उसे इस खेल में विचित्र आनंद आने लगा था.

एक दिन कविता ने सोचा, वह रौड को नहीं छुएगी. उस ने पूल की दीवार से टांग टिकाई, मुंह में खूब हवा भरी और एक रबड़रिंग को पकड़ कर खुद को आगे धकेला. उस ने रबड़रिंग को छोड़ने की कोशिश की तो वह डूबने लगी. वह घबरा गई. लगा वह मर रही है, डूब रही है. फिर वह पानी के ऊपर आ गई. उस ने फिर स्टील की रौड को पकड़ लिया. उसे लगा वह अभी तैयार नहीं है.

20वें दिन जब वह कम पानी वाले पूल की चौड़ाई नाप रही थी, तो लाइफगार्ड, जो उसे रोज कोशिश करते देख रहा था, ने पूछा, ‘‘मैडम आप की लंबाई कितनी है?’’

‘‘5 फुट 5 इंच.’’

वह मुसकराया, ‘‘आप 4 फुट गहरे पानी में हैं, आप नहीं डूबेंगी. डूबने भी लगेंगी तो फौरन आप के पैर तली पर लग जाएंगे और आप ऊपर होंगी, आप को तो रिंग की भी जरूरत नहीं है.’’

कविता को लगा उस की बात में दम है. अत: उस ने फिर तैरने की कोशिश की और अब 1 घंटे में वह कई बार पूल की चौड़ाई में तैर चुकी थी.

हफ्ते में 1 दिन क्लबहाउस बंद रहता था, वह आराम करती, संडे को भी स्विमिंग के लिए नहीं जाती थी, क्योंकि विनय और बच्चे घर में होते थे. उस दिन संडे था. रात को वह जब सोने के लिए लेटी तो उसे अपने अंदर इच्छाओं की बंद मुट्ठी खुलती महसूस हुई, उस का शरीर जैसे खिल गया था. कुछ अलग करने के जोश से मन खुश था.

उस ने विनय के सीने पर हाथ रखा, तो विनय को कुछ अलग सा महसूस हुआ. उस ने करवट ले कर कविता की कमर पर हाथ रखा, फिर उस के शरीर पर हाथ फेरा तो चौंका. कविता के शरीर में नया कसाव था. बोला, ‘‘अरे, बहुत बढि़या फिगर लग रही है, क्या करती हो आजकल?’’

‘‘कुछ नहीं, बस आजकल मछली बनी हुई हूं,’’ कविता खुल कर हंसी.

विनय ने उसे हैरानी से देखा, एक पल विनय को लगा, आज उस ने पहले वाली कविता को देखा है, जो अपनी कातिल मुसकराहटों, घातक अदाओं और उत्तेजक देह से उस के होश उड़ा देती थी. आजकल तो कविता बस उस के घर की स्वामिनी और उस के बच्चों की मां थी. उधर कविता विनय की उधेड़बुन से बिलकुल अनजान थी.

विनय ने कहा, ‘‘बहुत चेंज लग रहा है तुम में, बताओ न, क्या चक्कर है?’’

कविता ने उसे स्विमिंग के बारे में सब बताया तो वह हैरान रह गया और फिर उसे बांहों में भर लिया. कविता वह जिन इच्छाओं को समझ रही थी कि हमेशा के लिए मर गई हैं, उन के जागने के आनंद में डूब गई. आखिरी बार वह कब भावनाओं के इस सागर में डूबी थी, याद करने लगी.

अगले दिन फिर उस ने गहरी सांस ली, खुद को आगे धकेला, उस के नीचे पूल की टाइल्स चमक रही थीं. शांत पानी उसे अपने चारों ओर लिपटता सा लगा. पूरे शरीर में हलकापन महसूस हुआ. मन में एक जीत की भावना तैर गई. उस ने कुछ अपने बोरिंग रूटीन से हट कर कर लिया है. परमसंतोष के इस पल की बराबरी नहीं है. जब उसे महसूस हुआ कि वह स्विमिंग कर सकती है. स्विमिंग का 1-1 प्रयास कविता के हिमशिला बने मनमस्तिष्क को पिघलाता जा रहा था. तेज हुए रक्तप्रवाह ने शिथिल पड़ी धमनियों को फिर से थरथरा दिया था. मन के समस्त पूर्वाग्रह न जाने कहां हवा हो चले थे और कई दिन पुराने कुछ नया कर गुजरने के तूफानी उद्वेग उन की जगह लेते जा रहे थे. उसे पता चल गया था उम्र बिलकुल भी माने नहीं रखती है, माने रखता है तो भीतर समाया उत्साह और हर पल जीने की इच्छा, जो हर दिन को आनंदमयी दिन में बदलने की चाह रखती हो.

Mother’s Day 2025 : थैंक्यू मां

Mother’s Day 2025 :  पूजा के आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे. आज उसने ईशा का मनपसंद आलू का पराठा बनाया था और उसे खाते ही ईशा ने उसे “थैंक्यू मम्मा, इतना टेस्टी पराठा बनाने के लिए” बोला था.

यूँ बात बहुत छोटी थी. वह उसकी माँ थी और उसके लिए अच्छे से अच्छा खाना बनाना उसका फ़र्ज़ था लेकिन अपनी बच्ची के मुंह से ‘थैंक्यू’ शब्द सुनकर उसे कितनी खुशी हुई थी केवल वही महसूस कर पा रही थी. तो क्या माँ को भी उससे यही उम्मीद थी? पर वह उनकी उम्मीद पर कहाँ खरा उतर पायी थी. सोचते हुए वह सालों पहले के अपने अतीत में जा पहुंची.

“सच आँटी मेरी बेटी तो मेरे पिताजी (ससुर) का आशीर्वाद है. इसे मैं उन्ही का दिया हुआ प्रसाद मानती हूं. यदि आज वे होते तो बहुत खुश होते.” मायके आयी पूजा दो महीने की ईशा को गोदी में लिए बड़े गर्व से अपनी आंटियों को बता रही थी.

उसी दिन दोपहर को वह बेटी को लेकर सोई थी कि पास के कमरे से पापा के साथ बैठी माँ का उदास स्वर सुनाई दिया, “पूजा ने ईशा को अपने ससुर का आशीर्वाद बताया, उनकी खूब तारीफ की. अच्छा लगा, पर उसने एक बार भी मेरा नाम न लिया. जबकि सवा महीने के संवर मे मैंने ही उसके घर पर रहकर उसे और उसकी बच्ची को संभाला. माना कि ये मेरा फ़र्ज़ था लेकिन अगर वो दो शब्द मेरे लिए भी बोल देती तो मुझे कितनी खुशी होती?” लेकिन आश्चर्य…उस समय माँ की बात का मर्म समझने की बजाय वह बेतहाशा उन पर चीखने लगी थी.

“मुझे नही मालूम था कि आप ये सब तारीफ पाने के लिए कर रही हो. मुझे जो सही लगा मैंने बोला. अगर आपको इतना ही तारीफ पाने का शौक था तो पहले ही बता दिया होता मैं सबके सामने आपका गुणगान कर देती.” वह आवेश में बोलती चली गयी. एक बार भी नही सोचा कि माँ को कितनी तकलीफ हो रही होगी. कितनी नासमझ थी वो जो ये भी न समझ सकी कि हमेशा से मुँह पर मौन की पट्टी रखे माँ जिंदगी में अपने सभी कर्तव्यों को भलीभांति निभाती आयी हैं. ससुराल, पति और बच्चों के लिए तमाम त्याग और बलिदान करती रहीं मगर मुंह से उफ़ तक नही की. लेकिन इन सबके बाद भी, आख़िर हैं तो वे हाड़ मास से बनी एक इंसान ही. क्या कभी उन्हें अपने काम की तारीफ पाना अच्छा नही लगता, क्या प्रशंसा के दो बोल उन्हें नही सुहाते?

उसने उस वक्त माँ का मन दुखाया था और आज ये बात उसे अंदर ही अंदर खाये जा रही थी. पर करती भी क्या उस वक्त उसकी समझ ही वैसी थी. एक औरत और वो भी माँ शायद काम करने के लिए ही बनी होती है. उससे सदा त्याग की आशा की जाती है. यही सोचा जाता है कि उसे तारीफ की क्या जरूरत. ये सब वो अपनी ख़ुशी के लिए ही तो कर रही है. ममता की मूरत को देवी बना के पूजा तो जा सकता है पर एक साधारण इंसान समझ प्रोत्साहन के दो शब्द नही कहे जा सकते.

स्वयं माँ ने भी तो बिदा के वक्त उसे यही समझाया था कि बड़ों का आदर सम्मान करना व उस घर के प्रति अपने सभी कर्तव्य ईमानदारी से निभाना. वह तो माँ की इसी सीख को शिरोधार्य कर चली थी. ससुराल में उससे कोई भूल न हो अतः जी जान से वह वहां के रिश्तों के प्रति समर्पित थी. वैसे भी उसके ससुर एक नेकदिल इंसान थे. उनकी बीमारी के दौरान उसने तन मन से उनकी बहुत सेवा की थी और बदले में उनका अथाह स्नेह भी पाया था. उनकी मृत्यु के दो महीने पश्चात ईशा का जन्म हुआ था अतः उनके प्रति अपने लगाव व सम्मान को प्रदर्शित करने हेतु वह उनकी तारीफ किया करती थी. लेकिन जानती न थी कि उस दिन माँ की अनदेखी से उन्हें बहुत दुःख होगा. आखिर उसकी सभी खुशियों की सूत्रधार उसकी जन्मदात्री का भी तो अपने बच्चों की तारीफ पर कोई हक बनता था. बच्चों के मुंह से निकला तारीफ़ का छोटा सा शब्द भी उनके दिल को कितनी ख़ुशी देगा वह कभी समझ ही न पायी.

उसे याद आया ईशा के जन्म के समय पर उसके घर कोई कामवाली बाई भी नही थी. माँ पापा के साथ मिलकर अकेले ही सारे काम निपटाती थीं. इस दौरान साफ सफाई, झाड़ू पोछा, बर्तन, कपड़े आदि कामों में उन्हें पूरा दिन हो जाता था. फिर सबका खाना बनाने के बाद वे समय समय पर उसके लिए मूंग की दाल दलिया, मेवे के लड्डू, हरीरा आदि बनाने में जुट जाती थीं. बचे हुए वक्त में वे नन्ही ईशा को गोदी में लिए बैठी रहतीं ताकि वह कुछ देर चैन की नींद सो सके.

ईशा वैसे भी बहुत कमजोर पैदा हुई थी पर उन्हीं की मेहनत से महीने भर में ही उन दोनों माँ बेटी के चेहरे पर रौनक आ गयी थी. जहां ईशा खूब गोल मटोल और सुंदर दिखने लगी थी वहीं वह खुद भी लंबे घने बालों के साथ और भी आकर्षक लगने लगी थी. सोचते हुए उसकी आँखों से पछतावे के आंसू झरने लगे. ओह्ह उस वक्त वह अपनी माँ की मेहनत क्यों नहीं देख पायी या देख कर भी उसे अनदेखा कर दिया ये सोचकर कि ये तो उनका फ़र्ज़ है. सच उसकी इस नादानी से माँ को कितनी पीड़ा पहुंची होगी, इसका अंदाज भी वो नही लगा सकती.

वो माँ जिसकी दुनिया अपने बच्चों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म हो जाती है क्या वे अपने बच्चों के मुँह से प्रशंसा के दो बोल सुनने की हकदार नही. निस्वार्थ भाव से पूरी जिंदगी अपने बच्चों पर निछावर कर देने वाली माँ क्या इस सम्मान के योग्य नही होती कि चंद शब्दों में कभी हम उनकी तारीफ कर दें? माना हम उनके अहसानों का बदला कभी नही चुका सकते पर बदले में उन्हें धन्यवाद तो कह सकते हैं. प्यार भरा शुक्रिया कहकर उनके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान तो ला सकते हैं. आज उसकी बेटी ईशा के छोटे से थैंक्यू ने उसे इस शब्द की महत्ता भलीभांति समझा दी थी. अभी भी देर नही हुई. हालांकि माँ अब बहुत वृद्ध हैं. कान से ऊंचा सुनती हैं और शरीर से भी बहुत अशक्त हो चली हैं. लेकिन जब उसे सुध आयी तभी भला सोचकर उसने अपने आँसू पोंछे और जल्दी जल्दी घर के काम निपटाने लगी.

ठीक शाम चार बजे वह मम्मी के घर उनके पैरों के पास बैठी थी. ईशा नाना के साथ मस्ती में लगी थी. “माँ याद है एक बार जब आँटी लोग ईशा को देखने हमारे घर आयी थीं उस दिन अपनी बेवकूफी में मैं न जाने आपको क्या क्या कह गयी थी और आपका मन बहुत दुखाया था. उस दिन के व्यवहार के लिए मैं दिल से क्षमाप्रार्थी हूं. मुझे माफ़ कर दो माँ. वर्षों बाद शायद आपकी महत्ता को समझ पायी हूं.” हाथ जोड़ते हुए ईशा की आँखों मे आंसू छलछला उठे.

“आज आपको हर उस पल के लिए थैंक्यू भी बोलना चाहती हूं, जिन पलों में आपने मेरा उत्साहवर्धन किया, मुझे संभाला, मेरा हौसला बढ़ाया. ढेरों शुक्रिया माँ कि जब जब मुझे आपकी जरूरत थी आप मेरे साथ थीं. सच माँ, बहुत प्यार करती हूं आपको पर कभी जता नही पायी. थैंक्यू सो मच माँ मेरी माँ होने के लिए.” कहकर उसने माँ की गोद मे अपना सर टिका दिया. माँ की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे. बड़े स्नेह से अपने कांपते हाथों को उसके सिर पर फेरकर वे उसे आशीर्वाद दिए जा रही थीं. शायद उनकी ममता आज पूरी तरह तृप्त हो चुकी थी. वहीं पूजा का मन भी हल्का हो एक असीम शांति से भर चुका था.

Mother’s Day 2025 : मां का दिल- क्या बदल सकता है मां का प्यार?

Mother’s Day 2025 :  2 साल के राजू को गोद में खिलाते हुए माला ने अपनी बहन सोनू से कहा, “सोनू, पता नहीं क्यों मुझे कभीकभी ऐसा लगता है जैसे राजू हमारी संतान नहीं.”

“पगला गई हो क्या दीदी, यह क्या कह रही हो? राजू आप की संतान नहीं तो क्या बाजार से ख़रीदा है जीजू ने?”  कह कर 16 साल की सोनू जोरजोर से हंसने लगी. मगर माला के चेहरे की शिकन कम नहीं हुई.

राजू के चेहरे को गौर से देखती हुई बोली, “जरा इस की आंखें देख. तेरे जीजू से मिलती हैं, न मुझ से. आंखें क्यों पूरा चेहरा ही हमारे घर में किसी से नहीं मिलता.”

“मगर दीदी, बच्चे का चेहरा मांबाप जैसा ही हो, यह जरूरी तो नहीं. कई बार किसी दूर के रिश्तेदार या फिर जिसे आप ने प्रैग्नैंसी के दौरान ज्यादा देखा हो, उस से भी मिल सकता है. वैसे, यह अभी बहुत छोटा है, बड़ा होगा तो अपने पापा जैसा ही दिखेगा.”

“बाकी सबकुछ छोड़. इस का रंग देख. मैं गोरी, मेरी बेटी दिशा गोरी मगर यह सांवला. तेरे जीजू भी तो गोरे ही हैं न. फिर यह… ”

‘अरे दीदी, लड़कों का रंग कहां देखा जाता है. वैसे भी, यह 21वीं सदी का बच्चा है. जनवरी 2001 की पैदाइश है. इस की बर्थडेट खुद में खास है. 11 /1 / 2001 को जन्म लेने वाला यह तुम्हारा लाडला जरूर जिंदगी में कुछ ऐसा काम करेगा कि तुम दोनों का भी नाम हो जाएगा,” प्यार से राजू को दुलारते हुए सोनू ने कहा.

” वह तो मैं मानती हूं सोनू कि लड़कों का रंग नहीं देखते और फिर मां के लिए तो अपने बच्चे से प्यारा कुछ हो ही नहीं सकता पर यों ही कभीकभी कुछ बातें दिमाग में आ जाती हैं.”

” याद है दीदी, इस के जन्म वाले दिन जीजू कितने खुश थे. इसे बांहों में ले कर झूम उठे थे. बेटा हुआ है, इस बात की खुशी उन के चेहरे पर देखते ही बनती थी. मुझे तो लगता है जैसे जीजू इस पर जान छिड़कने हैं और एक तुम हो जो इसे…”

” देख सोनू, जान तो मैं भी छिड़कती हूं पर कभीकभी संदेह सा होता है. मैं तो बच्चे को जन्म दे कर बेहोश हो गई थी. बाद में तेरे जीजू ने ही इसे मेरी बांहों में डाला था.”

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सोनू ने दरवाजा खोला तो सामने अपने जीजा दिनेश को देख कर मुसकारा उठी. दिनेश की आवाज सुनते ही नन्हा राजू मां की गोद से छिटक कर बाहर भागा और बाप की बांहों में झूल गया. दिनेश ने तुरंत अपने साथ लाया हुआ चौकलेट उस के नन्हे हाथों में थमा दिया.

सोनू मुसकराते हुए बोली, “यह है बापबेटे का मिलन. दीदी, देख लो अपनी आंखों से तुम्हारा राजू अपने बापू से कितना प्यार करता है.”

माला ने एक ठंडी आह भरी और पुराने खयालों में खो गई. उसे याद आ रहा था वह दिन जब दिशा पैदा हुई थी. घरभर में एक अनकही सी उदासी पसर गई थी. सास ने बुरा सा मुंह बना लिया था. उस पर दिनेश भी खुश नहीं थे. बच्ची को गोद में उठा कर चूमा भी नहीं. बस, दूर से ही देख कर चले गए थे. माला मानती है कि घर में सब लड़के की बाट जोह रहे थे. मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि बेटी को प्यार ही न करें. उस के साथ सौतेला व्यवहार किया जाए. आज दिशा 5 साल की हो गई है. पर मजाल है कि कभी दिनेश उस के लिए चौकलेट ले कर आए हों. बेटे के पीछे ऐसा भी क्या पागलपन कि बेटी को बिलकुल ही इग्नोर कर दिया जाए.

वक्त यों ही गुजरता रहा. माला को 2 बेटियां और हुईं. हर बार सास और पति का मुरझाया चेहरा उसे अंदर तक तोड़ देता. राजू दादी और पापा की आंखों का तारा था. वह अब स्कूल जाने लगा था और जिद्दी भी हो गया था. स्कूल से उस की बदमाशियों की शिकायतें अकसर आने लगी थीं.

माला अकसर सोचती कि उस का बेटा तीनों बेटियों से कितना अलग है. कभीकभी मन में शक गहराता की क्या वाकई वह उस का बेटा है? फिर मन को समझा लेती कि हो न हो, यह सब उसे मिलने वाले हद से ज्यादा प्यारदुलार का नतीजा हो.

दिनेश इन शिकायतों के प्रति आंख मूंद लेता. माला कुछ कहती तो हंस कर कहता, “माला, जरा सोचो, हमारा एक ही बेटा है. इसे ही अपना सारा प्यारदुलार देना है. आखिर बुढ़ापे में यही तो हमारे काम आएगा.”

“ऐसा क्यों कह रहे हो? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि बेटियां काम नहीं आएंगी?”

“क्यों माला, क्या तुम कभी अपनी मां के काम आ सकीं? तुम तो इतनी दूर हो मायके से, बताओ कैसे काम आओगी? इसी तरह हमारी बच्चियां भी कल को ब्याह कर बहुत दूर चली जाएंगी. जमाने की रीत है यह. फिर हम चाहेंगे तो भी उन्हें अपने पास नहीं बुला सकेंगे. हमारे लिए अपना राजू ही खड़ा होगा.”

दिनेश की बात सुन कर माला का दिल रो पड़ा. सचमुच वह अपनी मां के लिए कुछ भी नहीं कर पाई थी. उस की मां का पैर टूट गया था. वह महीनों  बिस्तर पर पड़ी रही. मगर सास ने उसे बच्चों को छोड़ कर जाने की अनुमति नहीं दी. वैसे भी, तब राजू कुल 4 महीने का था. वह चाह कर भी नहीं जा सकी. दिनेश भले ही कड़वा बोल रहा था मगर कहीं न कहीं यही सच था. समाज ने बेटियों के पैरों में बेड़ियां जो डाल रखी हैं.

माला अकसर राजू को पढ़ाते हुए सोचती कि वह अपनी बेटियों को भी खूब पढ़ाएगी. बड़ी बेटी को दिनेश ने 8वीं के बाद घर पर बैठा लिया था और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू कर दी थी. मगर दोनों छोटी बेटियों को आगे पढ़ाने के लिए माला अड़ गई. वक्त गुजरता गया. राजू ने 12वीं पास कर ली. बाकी विषयों में साधारण होने के बावजूद वह मैथ्स में काफी तेज निकला. पूरे खानदान में कोई भी मैथ्स में कभी इतने अच्छे नंबर नहीं लाया था. राजू के नंबर इतने अच्छे थे कि दिनेश ने उसे इंजीनियरिंग पढ़ाने की ठान ली. एक अच्छे कालेज में दाखिले और फीस के लिए बाकायदा उस ने रुपयों का इंतजाम भी कर लिया था.

मगर कुछ समय से राजू को कई तरह की शारीरिक परेशानियां महसूस होने लगी थीं. उसे आजकल आंखों से धुंधला दिखने लगा था. एक आंख की रोशनी काफी कम हो गई थी. बारबार हाथपैर सुन्न होने लगे थे. बोलने में भी कई बार कठिनाई होने लगती. उस ने घरवालों को ये सारी बातें नहीं बताई थीं. इंजीनियरिंग एंट्रेंस टैस्ट से ठीक एक दिन पहले वह अचानक लड़खड़ा कर गिर पड़ा. माला ने हड़बड़ा कर उसे उठाया तो वह रोने लगा.

“क्या हुआ बेटे?” माला ने घबरा कर पूछा तो उस ने बड़ी मुश्किल से अपनी सारी तकलीफ़ों के बारे में विस्तार से बताया. तब तक दिनेश भी आ गया था. उस ने देर नहीं की और तुरंत बेटे को डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने कई तरह के टैस्ट लिख दिए. जांच के बाद पता चला कि उसे मल्टीपल स्क्लेरोसिस की समस्या है.

मल्टीपल स्क्लेरोसिस एक औटोइम्यून डिजीज है जिस में सैंट्रल नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है. इस में देखने, बात करने, चलने और ध्यान एकाग्र करने से जुड़ी समस्याएं पैदा होती हैं. इंसान अपना संतुलन खो बैठता है. इस से पीड़ित व्यक्ति कई बार लकवे का शिकार भी हो जाता है. डाक्टरों के मुताबिक, राजू के शरीर का एक हिस्सा आंशिकरूप से लकवाग्रस्त भी हो गया था. यह बीमारी कभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाती.

राजू की बीमारी काफी गंभीर हालत में पहुंच चुकी थी और लाखों रुपयों का खर्च आना था. राजू पूरी तरह ठीक हो सकेगा या नहीं, इस बारे में भी श्योर नहीं कहा जा सकता था.

इस बीच डाक्टर ने दिनेश और माला का डीएनए टैस्ट कराने की बात की. यह टैस्ट राजू की बीमारी बेहतर ढंग से समझने और सही इलाज के लिए जरूरी था. माला तो तुरंत तैयार हो गई मगर दिनेश टैस्ट कराने से आनाकानी करने लगा. माला ने लाख कहा मगर वह तैयार नहीं हो रहा था. बाद में जब डाक्टर ने इस टैस्ट की आवश्यकता बताते हुए दिनेश को समझाया तो वह हार कर टैस्ट कराने को तैयार हो गया.

जब टैस्ट की रिपोर्ट आई तो सब दंग रह गए. रिपोर्ट के मुताबिक, दिनेश और माला राजू के मांबाप नहीं थे. माला ने सवालिया नजरों से पति की तरफ देखा तो दिनेश अनजान बनते हुए वहां से चला गया. शाम को घर लौटा तो माला ने एक बार फिर पति से राजू के जन्म का राज पूछा. तो दिनेश फूटफूट कर रोने लगा.

माला ने उसे सहारा दिया तो उस के कंधों पर सिर रखता हुआ दिनेश बोला, “माला, मां की बहुत इच्छा थी कि हमारा भी एक बेटा हो. ऐसा ही कुछ मैं भी चाहता था. मगर दूसरी बेटी को जन्म दे कर जब तुम बेहोश हो गईं तो मैं ने देखा कि उसी वार्ड में एक महिला ने बेटे को जन्म दिया था. उस के 2 बेटे पहले से थे. मेरा मन डोल गया. मैं ने उस बच्चे के बाप से बात की. बेटी के बदले बेटा लेना चाहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया. फिर मैं ने एक मोटी रकम का लालच दिया. थोड़ा सोचविचार कर वह तैयार हो गया. हम दोनों ने जल्दीजल्दी अपने बच्चे बदल लिए.

“मेरी गोद में राजू आ गया. उसे पा कर मैं बहुत खुश था. मुझे उस की जाति की परवा थी और न खानदान की. मेरे लिए तो इतना ही काफी था कि वह एक लड़का है और अब से मेरा बेटा कहलाएगा.”

यह कहतेकहते दिनेश फिर से रोने लगा और माफी मांगता हुआ आगे बोला, “माला, मुझे माफ कर दो. बेटे की चाह में मैं बावला हो गया था. अपनी बिटिया किसी और को सौंप कर दूसरे का बच्चा घर ले आया. शायद, इसी बात की सजा मिली है मुझे.”

“ऐसा मत कहो दिनेश, अब जो हो गया सो हो गया. शायद इसी वजह से मुझे अकसर संदेह होता था कि यह बच्चा मेरा नहीं. बचपन में इसे सीने से लगाने पर वह आत्मिक तृप्ति नहीं मिलती थी जो अपने बच्चे को लगाने पर मिलती है. तुम ने जो भी किया सासुमां की खुशी के लिए किया. मगर याद रखो, खुशी खरीद कर नहीं मिल सकती. जो हमें मिला है हमें उसी में खुश रहना चाहिए.”

मांबाप की ये सारी बातें कमरे के बाहर खड़ी माला की छोटी बिटिया ने सुन ली. उस ने बड़ी बहन को भी सारी बातें बता दीं. दोनों बेटियां चुपकेचुपके कमरे में दाखिल हुईं.

दिनेश ने उन्हें अपनी बांहों में भरते हुए कहा, “माला, जो हुआ उसे भूल जाओ. मगर मैं अब अपने किए का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. अब तक अपनी दोनों बेटियों का हक़ मारता रहा, मगर अब और नहीं. राजू के इलाज पर लाखों रुपए खर्च होंगे. वे रुपए हमारी बच्चियों के हक के हैं. वह कभी ठीक हो सकेगा या नहीं, यह भी श्योर नहीं कहा जा सकता. हमें राजू को अपनी जिंदगी से निकाल देना चाहिए. यही सब के लिए अच्छा होगा.”

माला दिनेश का चेहरा देखती रह गई. दोनों बेटियों ने भी पिता की हां में हां मिलाई, “जब राजू भैया हमारे अपने भाई हैं ही नहीं तो फिर हमारे घर में क्यों हैं?”

“चुप कर, नैना,” अचानक माला चीखी. फिर पति की तरफ देखती हुई बोली, “यह क्या कह रहे हो तुम? एक गलती सुधारने के लिए उस से बड़ी गलती करना चाहते हो? इतना बड़ा अपराध करना चाहते हो? क्या ऐसा करने पर तुम्हारा दिल तुम्हें कोसेगा नहीं? जिस बच्चे को आज तक हम अपना बच्चा मान कर इतने लाड़प्यार से पालते आ रहे हैं, आज अचानक वह पराया हो गया? क्या उस की बीमारी का बहाना बना कर हम उसे अकेला छोड़ देंगे?”

बड़ी बेटी ने कंधे उचकाते हुए कहा, “देखो न मां, आज तक हमारे हिस्से का लाड़प्यार और सुखसुविधाएं भी भाई को मिलतीं रहीं. भाई को आप ने अलग कमरा दिया. अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया. ट्यूशन लगवाया. उन की हर जरूरत बढ़चढ़ कर पूरी की. मगर सब बेकार गया न. अब तो वे उम्रभर उठ ही नहीं सकेंगे. फिर इलाज का क्या फायदा? जाने दो भाई को. कहीं छोड़ आओ उन्हें. वे आप का खून भी नहीं, फिर बेकार घर में रख कर इलाज में रुपए लगाने का क्या फायदा?”

“वाह बेटे, आप तो इतने बड़े हो गए कि हर चीज में फायदा देखने लगे. मैं भी फायदा देखती तो बेटियों को पढ़ाती ही नहीं. फायदा क्या है, वे तो ससुराल चली जाएंगी न. बचपन से जिस भाई की कलाई में राखी बांधती आ रही हो, आज वह पराया हो गया? रिश्ते क्या केवल खून के होते हैं? भाई से तुम लोगों का दिल का कोई रिश्ता नहीं?”

“मां, ऐसी इमोशनल बातें कह कर हमें उलझाओ मत. सच यही है कि भाई हमारा नहीं है और अब उम्रभर हमें उस की सेवा करनी पड़ेगी. वह उठ भी नहीं सकेगा. ऐसे में लौजिक क्या कहता है? यही न, कि इन्हें कहीं छोड़ आओ.”

बेटी की बातें माला के कानों में जहर जैसी चुभ रही थीं. बेटी के गालों पर एक तमाचा जड़ती हुई वह चीखी, “खबरदार जो किसी ने मेरे बेटे के खिलाफ एक शब्द भी कहा. वह मेरे पास रहेगा और मेरे दिल का टुकड़ा बन कर रहेगा.”

“पर माला अब राजू ठीक होगा, इस बात का कोई भरोसा नहीं है. हमारे पास इतने पैसे भी नहीं हैं. उस के इलाज में सारे रुपए खर्च हो जाएंगे तो फिर हमारी बेटियों का क्या होगा?”

” पैसा है या नहीं, यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं. हम उस की सेवा करेंगे. उस का खयाल रखेंगे. वैसे, बहुत सी बीमारियां प्राकृतिक जड़ीबूटियों या घरेलू उपायों से भी ठीक हो जाती हैं. जरूरत पड़ी तो किसी बड़े नहीं लेकिन छोटे अस्पताल में तो इलाज करा ही लेंगे. लेकिन इस तकलीफ के समय उसे अकेला नहीं छोड़ेंगे. यदि राजू सच में हमारा बच्चा होता तो भी क्या तुम उसे ऐसे छोड़ देते? नहीं न. तो फिर अब क्यों? राजू मेरी बेटियों का हक नहीं मार रहा. उसे अब तक अपना बच्चा मान कर पालापोसा है, तो आगे भी वह मेरा ही बेटा रहेगा. भूले से भी मुझे मेरे बच्चे से जुदा करने की बात न सोचना. और हां, तुम में से कोई भी राजू से इस सचाई के बारे में नहीं बताएगा,” माला ने अपना फैसला सुना दिया था.

दूसरे कमरे में लेटा राजू सबकुछ सुन रहा था. एक तरफ आत्मग्लानि, दूसरी तरफ बीमारी का दर्द और उस पर पिता व बहनों की इस सोच ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था. वह खुद को बहुत असहाय महसूस कर रहा था. मगर मां की बातें उस के जख्मों पर मरहम लगाने का काम कर रही थीं. सारा दर्द उस की आंखों से पानी बन कर बह निकला था. उसे बचपन से अब तक की अपनी जिंदगी के लमहे याद आ रहे थे. छोटा सा था वह जब मां के आंचल में छिप कर शरारतें करता. जैसेजैसे बड़ा हुआ वैसेवैसे जिद्दी होता गया. जो भी जिद करता, घरवाले उसे पूरा करते. घर में अपनी मरजी चलाता. बहनों को डांटता, तो कभी प्यार भी करता. आज वे सारे रिश्ते बेगाने हो चले थे.

अचानक ही वह तड़प कर चीखा, “मां, इधर आओ मां.”

माला दौड़ी गई. पीछेपीछे पिता और बहनें भी उस के कमरे में आ गए. राजू मां का हाथ थाम कर रोते हुए टूटेफूटे शब्दों में कहने लगा, “मां, आज तक मैं ने जितनी भी गलतियां कीं उन के लिए आप सब मुझे माफ कर दो और मां, मेरी बहनों पर आप नाराज न होना. मेरी बहनें  जो कह रही हैं और पापा ने जो कहा है वह सही है. कहीं छोड़ आओ मुझे. किसी धर्मशाला या आश्रम में पड़ा रहूंगा. आप लोगों को परेशान नहीं करना चाहता. मेरी बहनों को हर खुशी मिलनी चाहिए. उन के रास्ते में बाधा नहीं बनना चाहता.”

“चुप हो जा मेरे बच्चे,” मां ने प्यार से उस का माथा सहलाते हुए कहा, “तू बड़ा भाई है. तेरी बहनों को खुशी तभी मिलेगी जब उन के पास तेरा प्यार और आशीर्वाद रहेगा. तू वादा कर हमेशा मेरी आंखों के आगे रहेगा.”

दोनों बहनें भी भाई के प्यार को महसूस कर रही थीं. दोनों बेटियां मां के गले लग गईं और बोलीं, “मां, आप बिलकुल सही हो. हम अपने भाई को कहीं भी जाने नहीं देंगे.”

दिनेश को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. दिनेश ने माला का हाथ थामते हुए कहा, “माला, मां के दिल जैसा कोई दिल नहीं होता. मुझे गर्व है कि तुम मेरी पत्नी हो. मैं गलत था. आज के बाद ऐसी बात मेरे जेहन में नहीं आएगी. हम सब मिल कर हमेशा राजू का साथ देंगे. मुझे माफ कर दे राजू बेटा. मैं बहुत स्वार्थी हो गया था. पर तेरी मां ने मेरी आंखें खोल दीं.”

बेटियों ने भी हामी में सिर हिलाया, तो माला की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

Hindi Stories Online : अनजान मंजिल के नए रास्ते

 Hindi Stories Online :‘‘सुबहउठते ही सब से पहले हाथों में अपने करम की लकीरों के दर्शन करने चाहिए.’’  मां की यह बात मंजूड़ी के दिमाग में ऐसी फिट बैठी हुई है कि हर सुबह नींद खुलने के साथ ही उस के दोनों हाथ मसल कर अपनेआप ही आंखों के सामने आ जाते हैं. यह अलग बात है कि मंजूड़ी को इन में आज तक किसी देव के दर्शन नहीं हुए. अपने करम की लकीरों से सदा ही शिकायत रही है उसे. और हो भी क्यों नहीं… दिन उगने के साथ ही उसे रोजमर्रा की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी जूझना पड़ता है… समस्या एक हो तो गिनाए भी… यहां तो अंबार लगा है…

उठते ही सब से पहले समस्या आती है फारिग होने की… बस्ती की बाकी लड़कियों के साथ उसे भी किसी की पी कर खाली की गई ठंडे की बोतल ले कर मुंह अंधेरे ही निकलना पड़ता है… अगर किसी दिन जरा भी आलस कर गई तो दिन भर की छुट्टी… अंधेरा होने तक पेट दबाते ही रहो…

इस के बाद बारी आती है नहानेधोने की… तो रोज न सही लेकिन कभीकभी तो नहानाधोना भी पड़ता ही है… यूं तो सड़क के किनारे बिछी मोटी पाइपलाइन से जगहजगह रिसता पानी इस काम को आसान बना देता है. जब वह छोटी थी तो मां के कमठाणे पर जाने के बाद कितनी ही

देर तक इस पानी से खेलती रहती थी. लेकिन एक दिन… जब वह नहा रही थी तब मुकेसिया उसे घूरने लगा था… पहली बार मां ने बांह

पकड़ के उसे कहा था ‘‘ओट में नहाया कर…’’ उस दिन के बाद वह ओट  में ही नहाती है. जी हां! ओट…

मां ने लकड़ी की चार डंडियां रोप कर… पुराने टाट और अपनी धोती बांध कर नहाने के लिए ओट तो बना रखी थी लेकिन वहां नहाना भी कहां आसान था… एक बड़ी परात में छोटा सा पाटा रख कर उस पर किसी तरह बैठ कर

नहाओ अखरता तो बहुत है लेकिन क्या करें…

मां कहती है, ‘‘विधाता के लिखे करम तो भोगने ही पड़ेंगे.’’

पीने के लिए पानी का जुगाड़ करना भी एक बड़ी समस्या है. मैल से चिक्कट हुए कुछ प्लास्टिक के खाली कनस्तर झुग्गी के बाहर पड़े हैं. टूटी हुई पाइपलाइन से लोटालोटा भर के इन में दिन भर के लिए पीने का पानी भरना है… मां ने तो यह काम उसी के जिम्मे डाल रखा है… खुद तो बापड़ी दिन उगे उठने के साथ ही चूल्हे में सिर दे देती है… न दे तो करे भी क्या… 5 औलादें और 2 खुद… 7 मिनखों के लिए टिक्कड़ सेकतेसेकते ही सूरज सिर पर आ जाता है…

8 बजतेबजते तो दोनों धणीलुगाई अपने टिफिन ले कर काम पर चले जाते हैं… जो दिन ढले आते हैं तो थक के एकदम चूर… बाप तो एकआध पौव्वा चढ़ा कर अपनी थकान उतारने का झूठा बिलम करता है लेकिन मां बेचारी क्या करे… सूखे होंठों की पापड़ी को गीली जीभ फिरा कर नरम करती है और फिर से चूल्हे में सिर दे देती है… ईटों की तगारी सिर पर ढोतेढोते खोपड़ी के बाल घिस गए बेचारी के…

‘‘अरे मंजूड़ी, सूरज सिर पर नाचण लाग रियो है… इब तो उठ जा मरजाणी… बेगी सी मैडमजी को काम सलटा के आज्या… मैं और तेरो बापू जा रिया हां… और सुण, मुकेसिया नै ज्यादा मुंह मत लगाया कर… छुट्टा सांड हो रखा है आजकल…’’ मां ने जूट सिली पानी की बोतल प्लास्टिक की थैली में रखते हुए कहा तो मंजूड़ी ने अपनी खाट छोड़ी और अंगड़ाई लेने लगी. झुग्गी में पड़ेपड़े ही बाहर देखा. रामूड़ा अपनी खाट पर नहीं दिखा. उस का प्लाटिक का थैला भी अपनी ठौर नहीं था.

‘बेचारा रामूड़ा, मुंह अंधेरे ही कांच प्लास्टिक की खाली बोतलें चुगने निकल जाता है… न जाए तो क्या करे… यहां भी तो चुगने वालों में होड़ लगी रहती है… जो सोए… सो खोए… कुछ कचरा बीन लाएगा तो 10-20 रुपल्ली हाथ में आ जाएगी… रुपए मुट्ठी में दबा के कैसा धन्ना सेठ समझने लगता है खुद को…’ सोच कर मंजूड़ी मुसकरा दी.

16 साल की मंजूड़ी भले ही झुग्गी में रहती है… बेशक उस की जिंदगी में सौ अभाव हैं… लेकिन आंखों में सपने तो आम लड़कियों की तरह ही हैं न… बारबार खुद को दर्पण में देखना… तरहतरह से बाल काढ़ना… सस्ती ही सही लेकिन नाखूनों पर पालिश की परत चढ़ाना… लिपस्टिक न सही… 2-5 रुपए की संतरे वाली कुल्फी से ही अपने होंठों को रंग कर खुद पर इतराना… ये सब भला किसी विशेष सामाजिक स्तर की लड़कियों के लिए आरक्षित थोड़े ही हैं… मंजूड़ी को भी सपने देखने का उतना ही अधिकार है जितना किसी भी सामान्य किशोरी को… उस का मन भी बारिश में भीगभीग कर गीत गाने को होता है… जैसे फिल्मों में हीरोइन गाती है… सफेद झीनी साड़ी पहने के… उसे भी सर्दी में चाय के साथ गरमगरम समोसे और गरमी में ठंडीठंडी कुल्फी आइसक्रीम खाने को दिल करता है…

अरे हां, चाय और आइसक्रीम से याद आया. अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है. ननिहाल से बिरजू मामा आए थे. मां ने छोटी बहन नानकी को 10 का नोट दे कर दूध लाने भेजा था. दूध वाली थड़ी पर एक बच्चा अपनी

मां के साथ आइसक्रीम ले कर खा रहा था. नानकी का भी दिल मचल गया. उस ने उस

10 रुपए की कुल्फी खरीद ली और मजे से चुस्की मारने लगी.

उधर चाय का पानी दूध के इंतजार में

उबल रहा था और उधर ननकी का

कोई अतापता ही नहीं… मां ने बापू को देखने भेजा तो पीछेपीछे मंजूड़ी भी आ गई. बापू ने नानकी को कुल्फी चूसते देखा तो ताव खौल गया… रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले के लिए 10 के नोट की कीमत क्या होती है यह सिर्फ वही समझ सकता है… तमतमाए बापू ने मां

की गाली के साथ एक जोरदार डूक नानकी की पीठ पर धर दिया. कुल्फी छूट कर मिट्टी में गिर गई. नानकी ने पलट कर देखा तो डर का एक साया उस की आंखों में उतर आया लेकिन अगले ही पल उसे कुल्फी का ध्यान आया. उस ने कुल्फी को उठाया… अपनी फ्रौक से पोंछी और फिर से उसे चूसनेचाटने लगी.. ‘‘बेचारी नानकी…’’ मंजूड़ी को उस पर दया आ गई. उस ने बहन के बालों में हाथ फेरा और झुग्गी से बाहर आ गई.

बस्ती में कुछ चूल्हे अभी भी सुलग रहे हैं. दीनू काका कीकर की छांव में बैठे बीड़ी फूंक रहे हैं… सरबती ताई खाट पर पड़ी खांस रही है… बिमली का छोरा झुग्गी के बाहर रखी 2 ईंटों पर अपना सुबह का पहला काम निपटा रहा है… 2 पिल्ले उस के निबटने के इंतजार में आसपास मंडरा रहे हैं… एक तरफ 3-4 बच्चे धींगामस्ती कर रहे हैं. मुकेस अपनी औटो साफ कर रहा है… उस के एफएम पर तेज गाने बज रहे हैं. मुकेस ने उस की तरफ देखा और मुसकरा कर अपनी बाईं आंख दबा दी. मंजूड़ी सकपका कर झुग्गी के भीतर आ गई.

‘‘छुट्टा सांड कहीं का, मां कहती है मुकेसिये को मुंह मत लगाना… ससुरा ये तो अंगअंग लग चुका…’’ मंजूड़ी बुदबुदाई और फिर से खाट पर पसर गई. हाथ छाती पर चला गया. 10-10 के कुछ नोट अभी भी चोली में दबे

पड़े हैं.

3 साल पहले की ही बात है. मंजूड़ी मैडमजी के घर साफसफाई कर के आई ही थी. तावड़े ने भी आज धार ही रखी थी लाय बरसाने की. मंजूड़ी अपनी लूगड़ी को पानी में निचोड़ कर लाई और गीली को ही ओढ़ कर खाट पर पसर गई थी. थोड़ी देर में लूगड़ी का पानी सूख गया. वह फिर से बाहर निकली उसे भिगोने के लिए. तभी मुकेस सामने आ गया.

‘‘क्या बात है! बहुत गरमी चढ़ी है क्या?’’ मुकेस बोला.

‘‘गरमी कहां? मैं तो ठंड से कांप रही हूं.’’ मंजूड़ी ने तमक कर कहा.

‘‘अरे ठंड तो तुझे मैं बताता हूं… मेरे साथ आ…’’ मुकेस उस का हाथ पकड़ कर अपनी झुग्गी में ले गया. झुग्गी सचमुच ठंडी टीप हो रही थी. कूलर जो लगा था… मगर बिजली? मंजूड़ी ने देखा कि उस ने बिजली के खंभे पर अंकुड़ा डाल रखा है. मुकेस ने मंजूड़ी को खाट पर लिटा दिया और खुद भी बगल में सो गया. मुकेस उस पर छाने की कोशिश करने लगा. मंजूड़ी ने विरोध किया लेकिन उस का विरोध थोथा साबित हुआ और मुकेस ने उसे परोट ही लिया. जैसे कभीकभी बापू उस की मां को परोट लेता है… अब एक झुग्गी में इतने मिनख साथ सोएंगे तो फिर परदा कहां रहेगा.

मंजूड़ी की आंखें मूंदने लगी थी. जब

आंख खुली तो मुकेस पैंट पहन

रहा था. उस ने भी अपने कपड़े ठीक किए और खाट से नीचे उतर गई.

‘‘जब कभी गरमी ज्यादा लगे तो कूलर की हवा खाने आ आना…’’ कहते हुए मुकेस ने

10-10 के 3-4 नोट उस की मुट्ठी में ठूंस दिए थे. वही नोट आज भी उस की चोली में कड़कड़ा रहे हैं.

‘‘आज तुम सब को कुल्फी खिलाऊंगी.’’ नोट सहेजती मंजूड़ी भाईबहनों को जगाने लगी.

मंजूड़ी को आज मैडमजी के घर जाने में

देर हो गई. वह फटाफट उन के काम निपटाने लगी. तभी मैडमजी कालेज के लिए तैयार हो

कर कमरे से बाहर निकली. और दिन तो वह

उन को रात के बासी गाउन में ही देखती है. लेकिन आज…

काली सलवार और लाल कुरता… मैचिंग चप्पल… कंधे पर झूलता पर्स और हाथ में पकड़ा मोबाइल… कानों में लटके झुमके अलग से लकदक कर रहे थे… मंजूड़ी देखती ही रह गई. आंखों में ‘‘काश’’ वाली एक चमक सी उभरी और फिर धीरेधीरे मंद पड़ती गई.

‘‘आज बहुत देर कर दी मंजू. मैं तो निकल रही हूं… तू भी फटाफट काम निबटा दे… साहब को भी जाना है…’’ कहती हुई मैडमजी ने कार की चाबी उठाई और बाहर निकल गई. मंजूड़ी अपने काम में लग गई लेकिन आंखों के सामने अभी भी हीरोइन सी सजीधजी मैडमजी ही घूम रही थीं.

3-4 दिन बाद जब मंजूड़ी सफाई करने मैडमजी के कमरे में गई तो देखा कि ड्रैसिंग टेबल पर उन के वही झुमके रखे थे. उस ने

उन्हें उठाया और अपने कानों से लगा कर देखा… फिर गरदन इधरउधर घुमाई… खुद ही खुद पर मुग्ध हो गई… कुछ देर यों ही खुद को निहारती रही… तभी शीशे में साहबजी की छवि देख कर वह अचकचा गई और झुमके वापस रख दिए.

‘‘तुझे पसंद है क्या?’’ साहब ने प्रेम से पूछा. मंजूड़ी ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘ये ले, पहन ले… विनी के पास तो ऐसे बहुत से हैं.’’ साहबजी उस के बहुत पास आ गए थे. इतने पास कि पंखे की हवा से उन के शरीर पर छिड़का हुआ पाउडर उड़ कर मंजूड़ी की कुर्ती पर बिखरने लगा. साहबजी ने वे झुमके जबरदस्ती उस के हाथों में थमा दिए. इसी बहाने उस के हाथों को ऊपर तक और फिर कुछ नीचे भी… गले और छाती तक… मसल दिया था साहब ने… एक बार तो मंजूड़ी अचकचा गई लेकिन फिर उस ने झुमके ले लिए. झुमकों की ये कीमत ज्यादा नहीं लगी उसे.

एक मूक समझौता हो गया… साहबजी… मुकेस… और मंजूड़ी… सब एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने लगे. आजकल मंजूड़ी काफी खुश नजर आती है. दिन भर गुनगुनाती रहती है. और तो और विनी मैडम के घर भी जानबूझ कर देरी से जाने लगी है. बस, उस का घर में घुसना और विनी का निकलना… लगभग साथसाथ ही होता है… कभीकभी मुकेस की झुग्गी में ठंडी हवा खाने भी चली जाती है.

‘‘आज ये कुल्फी किस ने खाई रे?’’ मां ने झुग्गी के बाहर से चूसी हुई कुल्फी की डंडियां उठाते हुए पूछा.

‘‘मंजूड़ी लाई थी…’’ नानकी ने पोल

खोल दी तो मां ने मंजूड़ी को सवालिया निगाहों

से घूरा.

‘‘आज रास्ते में 20 का नोट पड़ा मिला था… उसी से खरीद…’’ मंजूड़ी साफ झूठ बोल गई लेकिन मन ही मन डर भी गई थी कि कहीं मां यह झूठ पकड़ न ले… मंजूड़ी अतिरिक्त सतर्क हो गई.

‘‘मंजूड़ी यह नई फैसन की लाल चोली कहां से आई तेरे पास? एक दिन मां ने कड़कते हुए पूछा था.’’

‘‘इन मांओं के पास भी जाने कैसी चील की सी नजर होती है… कुछ भी नहीं छिपता इन से…’’ मंजूड़ी अपनी लूगड़ी में ब्रा को छिपाने की कोशिश करने लगी.

‘‘अरे बता तो… किस ने दी है?’’ मां ने उस की लूगड़ी परे फेंक दी. मंजूड़ी चुप.

‘‘मां हूं तेरी… बरस खाए हैं मैं ने… तेरी वाली उमर भोग चुकी हूं… देख छोरी, सहीसही बता… किस रास्ते जा रही है तू…’’ मां ने उस के कंधे झिंझोड़ दिए. मंजूड़ी पूरी हिल गई… नहीं हिली तो सिर्फ उस की जुबान.

‘‘देख मंजूड़ी, हम ठहरी लुगाई जात… मरद का मैल भी हमें ही ढोना पड़ता है… मुकेसिए और तेरे साहबजी जैसे लोगों के चक्कर में मत आ जाना… और ये प्रेमप्यार का तो सोचना भी मत… यह सब हमारे भाग में नहीं लिखा होता…’’ मां थोड़ी नरम पड़ी तो मंजूड़ी का भी हौंसला बढ़ा.

‘‘तू तो मेरी वाली उमर भोग चुकी है न मां, जानती ही होगी कि अच्छा खानेपीने, पहननेओढ़ने और सैरसपाटे की कितनी हूंस उठती है मन में… अब न तो मेरा बाप कोई धन्ना सेठ है जो मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर देगा और न ही हमारी इतनी औकात है कि हम पढ़लिख कर विनी मैडम जैसे कमाएं और उड़ाएं… ज्यादा क्या होगा… 2-4 घर और पकड़ लूंगी… लेकिन उतने भर से क्या हो जाएगा… तो ञ्चया मार लें अपने मन को? यों ही रोतेबिसूरते निकाल में अपनी उमर? तूने तो बरस खाए हैं न… तू ही कोई इज्जत वाला रास्ता बता जिस से मेरे सपने पूरे हो सकें.’’ मंजूड़ी जैसेजैसे बोल रही थी वैसेवैसे मां के माथे पर लकीरें बढ़ती जा रही थी.

‘‘अरे करमजली, किस रास्ते पर चल पड़ी है तू… ये मरद जात बड़ी काइयां होती हैं… तू इन के लिए बिस्तर की चादर सी है… नई बिछाते ही पुरानी को उतार फेंकेंगे… कल को कहीं कोई रोगमरज लग गया तो दवादारू तो छोड़… देखने तक भी नहीं आएंगे ये… अरे हमारे पास चरित्तर के अलावा और है ही क्या…’’ मां उस के सिर में ठोला दे कर फुंफकारी. मंजूड़ी सर झुकाए खड़ी रही. मां उसे इसी हालत में छोड़ कर काम पर निकल गई.

4 दिन हो गए. मंजूड़ी काम पर नहीं गई. मुकेस भी कई बार उस के आसपास मंडराया लेकिन

उस ने उस की तरफ देखा तक नहीं… नानकी 2 दिन से कुल्फी के लिए रिरिया रही है. रामूड़े की जांघ उस के नेकर में से झांकने लगी है… खुद उस की आंखों के सामने विनी मैडमजी जैसे झुमके… बिंदी और क्रीम पाउडर घूम रहे हैं. मंजूड़ी चरित्र और इज्जत की परिभाषा में उलझती ही जा रही है.

‘‘इज्जत… इज्जत… इज्जत, चाटूं क्या इस थोथे चरित्तर को… क्या हो जाता है इज्जत को जब मुंह अंधेरे मोट्यारों के सामने नाड़ा खोल कर बैठना पड़ता है… कहां छिप जाता है चरित्तर जब खुले में आंख मींच के नहाना पड़ता है… कहां चली जाती है लाजशरम जब रात में मांबापू के बीच में सांस दबा के सोने का नाटक करना पड़ता है…’’ मंजूड़ी खुद को मथने लगी. विचारों के दही में से निष्कर्ष का मक्खन अलग होने लगा.

‘‘अगर कभी साहबजी ने मेरे साथ जबरदस्ती की होती तो? तो क्या होता… मैं अपनी इज्जत की खातिर दूसरा घर देखती… लेकिन एक बार तो लुट ही गई होती न… तो फिर? क्या हर बार लुटने के बाद घर बदलती? लेकिन कब तक? और तब न इज्जत बचती और न ही हाथ में दो रुपल्ली आती… तो फिर अब जब यह सब मेरी मर्जी से हो रहा है तो इस में क्या गलत है? क्या चरित्तर की ठेकेदारी सिर्फ हम लुगाइयों की है… साहबजी या मुकेसिये पर तो कोई उंगली नहीं उठाएगा… जब वो मेरे जरिए अपना मलब साध रहे हैं तो फिर मैं ही क्यों इज्जत की टोकरी ढोती फिरूं… मैं भी क्यों नहीं उन के जरिए अपना मतलब साधूं… कोई न कोई बीच का रास्ता जरूर होगा…’’ रात भर विचारती मंजूड़ी के मन की गुत्थी सुबह होने तक लगभग सुलझ ही आई थी.

आज मां के जागने से पहले ही मंजूड़ी

उठ गई… सुबह का काम निबटाया… हाथमुंह धोया… अपने कपड़े ठीक किए… काम पर निकल पड़ी… रास्ते में दवाई की दुकान पर ठिठकी… आसपास देखा… घोड़े की फोटो वाला पैकेट खरीद कर चोली में ठूंस लिया… सधे हुए कदमों से चल दी मंजूड़ी… अनजान मंजिल के नए रास्तों पर…

Short Stories in Hindi : नि:शुल्क मोटापा मुक्ति कैंप

Short Stories in Hindi : उस दिन औफिस से हारेथके हम घर पहुंचे ही थे कि श्रीमतीजी ने दरवाजा खोलते ही अपना अभिभाषण शुरू कर दिया, ‘‘आप ने सुना… आज बहुत बड़ी खुशी की बात. वह कहावत है न कि जिसे ढूंढ़ते थे हम गलीगली, अरे वह तो हमें घर के दरवाजे पर ही मिल गई. फ्लैट के सामने वह जो पार्क है न, उसी में मोटापा से मुक्ति का कैंप लग रहा है.’’

‘‘अरे तो इस में खुशी की क्या बात हो गई? नगर में जबतब मोटापा मुक्ति कैंप लगते रहते हैं,’’ हम ने इतना कहा ही था कि श्रीमतीजी फिर बिफर गईं, ‘‘आप तो रिटायरमैंट से पहले मस्तिष्क से पूरी तरह रिटायर्ड हो चुके हो. अरे, आप ही तो रोजरोज कहते हो, मैं बहुत मोटी हो रही हूं. पार्टियों में मुझे साथ ले जाते हुए आप को शर्म आती है. राजीव कपूर की पार्टी में आप मुझे साथ नहीं ले जा रहे थे. कह रहे थे, कपूर की बीवी रश्मि के सामने बेलन सी लगोगी. अरे, उसी मोटापे को खत्म करने के लिए मोटापा मुक्ति कैंप लग रहा है… संडे को कैंप का उद्घाटन होगा. आप को यह तो बताना ही भूल गई कि कैंप नि:शुल्क लग रहा है. है न मजेदार बात? मोटापा भी नष्ट होगा और कोई पैसा भी नहीं खर्च करना पड़ेगा.’’

‘‘नि:शुल्क मोटापा कैंप में चली जाना… पर कैंप के चक्कर में क्या आज कुछ चायनाश्ता नहीं कराओगी? औफिस से बहुत थकेहारे घर लौट रहे हैं हम,’’ श्रीमतीजी के भाषण के बीच हम ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘हां, हां, चायनाश्ते की याद है…

भुलक्कड़ तो आप हो ही. संडे तक का पता नहीं आप का… कितनी बार नि:शुल्क मोटापा मुक्ति कैंप की बात याद दिलानी पड़ेगी,’’ यह कहते हुए श्रीमतीजी पांव पटकती हुई किचन में चली गईं. किचन से बरतनों के आपस में टकराने की आवाज से श्रीमतीजी के गुस्से का पता चलता रहा.

एक दिन बाद ही संडे था. शानिवार की रात को फ्लैट के सामने बड़ेबड़े शामियाने लगा कर कैंप बना दिया गया था. सुबह से ही कैंप के प्रवेशद्वार पर मोटे स्त्रीपुरुषों की लाइनें लगने लगी थीं. कैंप के मुख्य दरवाजे पर 3 मेजों के पास कुरसियों पर 3 सुंदरी बालाएं बैठी थीं. उन बालाओं को कैंप में आने वालों के रजिस्ट्रेशन के लिए बैठाया गया था.

कैंप में मोटापा कम करने वालों के लिए 50 रजिस्ट्रेशन फीस थी. स्त्रीपुरुष 50-50 के नोट बरसा रहे थे. नि:शुल्क मोटापा कैंप में नोट बरसाने वालों की कोई कमी नहीं थी. आखिर श्रीमतीजी ने 50 दे कर रजिस्ट्रेशन करा लिया.

एक दिन मोटापा मुक्ति कैंप में संयासियों जैसे बड़ेबड़े कुरते पहने, लंबीलंबी दाढ़ी वाले कुछ लोगों ने भाषण दिए. मोटापे पर भाषण के दौरान उन्होंने चाटपकौड़ी नहीं खाने पर लंबेलंबे भाषण दिए. उसी कैंप की एक साइड में बहुत सी खानेपीने की दुकानें भी सजी थीं.

उन दुकानों के बीच कुछ रेस्तरां भी बने थे. उन रेस्तरां में पिज्जा, डोसा, इडली, समोसे, कचौड़ी के बैनर भी लगे थे. सभी रेस्तराओं के आगे स्त्रीपुरुषों की भीड़ लगी थी. कैंप के नुक्कड़ पर एक गोलगप्पे का स्टाल था. मोटापा मुक्ति कैंप में सब से ज्यादा उस स्टाल के आगे स्त्रियों की भीड़ थी. शायद उस दिन सभी स्त्रियां गोलगप्पे खा कर अपने मोटापे से मुक्ति पा लेना चाहती थीं.

मोटापे पर भाषण देने वाले संयासी कुरते पहने लोगों ने मोटापे से डायबिटीज, हार्ट अटैक, हाई ब्लडप्रैशर, किडनी फेल्योर, जोड़ों का दर्र्द होने की बात कहते हुए कैंसर भी मोटे स्त्रीपुरुषों को होने की बात कही. आजकल स्त्रीपुरुष किसी महानुभावक की बातें चाहे न मानें, लेकिन संन्यासी जैसे रंगीन कुरते पहने लोगों की बातें अवश्य मानते हैं. तभी तो देश में सभी साधुसंन्यासी प्रवचन करतेकरते बड़ेबड़े व्यापारी बन गए हैं. सभी साधुसंन्यासियों ने लोगों को मोटापा और दूसरी बीमारियों को नष्ट करने वाली दवाएं बेचना शुरू कर दिया है. एक बड़े संन्यासी बाबा तो प्रवचन करतेकरते, दवा बेचतेबेचते जेल चले गए. सुना है कि बाबा जेल में रहतेरहते भी खुद दवा बेच रहे हैं.

2-3 दिन मोटापे पर भाषण देने के बाद मंच से घोषणा की गई कि जो स्त्रीपुरुष डायबिटीज, हृदय रोग, हाई ब्लडप्रैशर आदि रोगों से पीडि़त हैं वे कैंप में लगे स्टालों से अपनीअपनी बीमारी की दवा खरीद लें. बीमारी नष्ट किए बिना मोटापा कम नहीं होता है. बस फिर क्या था, सभी स्त्रीपुरुष कैंप में लगे दवा के स्टालों की ओर दौड़ पड़े. दवा के स्टालों के आगे लंबीलंबी लाइनें लगने लगीं.

उस दिन हम श्रीमतीजी के साथ किसी दवा के स्टाल पर नहीं जा सके, क्योंकि उस दिन हमें औफिस से छुट्टी नहीं मिल सकी थी. मोटापा मुक्ति कैंप में श्रीमतीजी के साथ निपटने के लिए औफिस से 4 छुट्टियां ले चुके थे हम. उस दिन शाम को औफिस से घर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने मेज पर कई डब्बे और शीशियां सजा दी.

आज मोटापा मुक्ति कैंप में 500 की दवा खरीद कर लाई हूं. बाबाजी ने कहा था कि बीमारी के चलते मोटापा कम नहीं होता है.

‘‘लेकिन आप को तो कोई बीमारी नहीं थी? फिर इतनी मंहगी दवा क्यों खरीद लाईं?’’ हम ने पूछा तो श्रीमतीजी तुनक कर बोलीं,

‘‘आप को क्या पता है कि हमें क्या बीमारी है. अरे, कब्ज की बीमारी है बाबाजी ने बताया है कि कब्ज के कारण ही मोटापा हुआ है.

मोटापा कम करने के लिए पहले कब्ज को नष्ट करना होगा.’’

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‘‘कब्ज नष्ट करने के लिए 500 की दवा? अरे, कब्ज तो आधा किलो पपीता खाने से नष्ट हो जाती है.’’

‘‘आप तो 500 की बात सुन कर ही घबरा रहे हो, बाबाजी ने तो कहा है कि 500-600 की दवा कई बार खानी पड़ेगी तभी कब्ज नष्ट हो पाएगी. आप यह क्यों नहीं सोचते कि नि:शुल्क मोटापा मुक्ति कैंप लगा है. आखिर दवागोली पर कुछ तो खर्च करना पड़ेगा. बाबाजी मोटापे से मुक्ति दिलाने पर कुछ तो मांग नहीं रहे,’’ कह श्रीमती पांव पटकती हुई किचन में चली गईं तो हम अपना सिर पकड़ कर बैठ गए.

अगले दिन मोटापा मुक्ति कैंप में सभी स्त्रीपुरुषों को मोटापा कम करने के लिए योगासनों का अभ्यास कराया गया. उत्तानपादासन, भुजंगासन, धनुरासन, चक्रासन आदि का प्रदर्शन कर के एक संन्यासी वेशभूषा वाले बाबाजी ने घर पर जा कर सर्वांगासन करने के लिए बताया.

उस दिन रविवार होने के कारण देर तक सोने को मन कर रहा था. तभी दूसरे कमरे से श्रीमतीजी के जोरजोर से चिल्लाने की आवाजें सुन कर उन के कमरे में पहुंचे तो श्रीमतीजी फर्श पर बिखरी पड़ी जोरजोर से कराह रही थीं, ‘‘आह, मर गई… मेरी तो गरदन टूट गई.’’

हम ने पास जा कर पूछा, ‘‘सुबहसुबह क्यों चिल्ला रही हो? सुबहसुबह पास के फ्लैट वाले आप की आवाजें सुनेंगे तो सब हाल पूछने आ धमकेंगे और फिर सब को चायनाश्ता कराना पड़ेगा. आप की सहेलियां तो चायनाश्ता किए बिना सोफे से उठने का नाम नहीं लेगीं.’’

‘‘अरे, अब खड़ेखड़े भाषण ही देते रहोगे… मुझे उठा कर डाक्टर के पास ले चलने की तैयारी करो. सर्वांगासन करते हुए मेरी तो गरदन ही टूट गई. आह… बहुत दर्द हो रहा है… आह मैं मर गई.’’

श्रीमतीजी की चीखपुकार निरंतर बढ़ रही थी. पड़ोस के लोगों की सहायता से श्रीमतीजी को उठा कर पास के नर्सिंग होम में ले जाना पड़ा. उस दिन शाम तक उस नर्सिंग होम में रहना पड़ा. सर्वांगासन करने में श्रीमतीजी के कंधे में चोट लगी थी और डाक्टर ने प्लास्टर चढ़ा दिया था. शाम तक नर्सिंग होम में रहने और प्लास्टर कराने का 3 हजार से अधिक का बिल बन गया था.

मोटापा मुक्ति कैंप में जाने से श्रीमतीजी का मोटापा तो 1 इंच भी कम नहीं हो पाया, उलटे 5 हजार का बिल चुकाना पड़ा… अभी तो प्लास्टर चढ़ा है पता नहीं आगे नर्सिंग होम के कितने बिल चुकाने पड़ेंगे.

Interesting Hindi Stories : सिंदूरी मूर्ति – जाति का बंधन जब आया राघव और रम्या के प्यार के बीच

Interesting Hindi Stories : अभी लोकल ट्रेन आने में 15 मिनट बाकी थे. रम्या बारबार प्लेटफौर्म की दूसरी तरफ देख रही थी. ‘राघव अभी तक नहीं आया. अगर यह लोकल ट्रेन छूट गई तो फिर अगली के लिए आधे घंटे का इंतजार करना पड़ेगा’, रम्या सोच रही थी.

तभी रम्या को राघव आता दिखाई दिया. उस ने मुसकरा कर हाथ हिलाया. राघव ने भी उसे एक मुसकान उछाल दी. रम्या ने अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ाई. अभी सुबह के 7 बजे थे. लिहाजा स्टेशन पर अधिक भीड़ नहीं थी. एक कोने में कंधे से स्कूल बैग लटकाए 3-4 किशोर, एक अधेड़ उम्र का जोड़ा व कुछ दूरी पर खड़े लफंगे टाइप के 4-5 युवकों के अलावा स्टेशन एकदम खाली था.

रम्या प्लेफौर्म की बैंच से उठ कर प्लेटफौर्म के किनारे आ कर खड़ी हुई तो उस का मोबाइल बज उठा. उस ने अपने मोबाइल को औन किया ही था कि अचानक किसी ने पीछे से उस की पीठ में छुरा भोंक दिया. एक तेज धक्के से वह पेट के बल गिर पड़ी, जिस से उस का सिर भी फट गया और वह बेहोश हो गई.

राघव जब तक उस तक पहुंच पाता, हमलावर नौ दो ग्यारह हो चुका था. चारों तरफ चीखपुकार गूंज उठी. रेलवे पुलिस ने तत्काल उसे सरकारी अस्पताल पहुंचाने का इंतजाम किया. रम्या के मोबाइल फोन से उस के पापा को कौल की. संयोग से वे स्टेशन के बाहर ही खड़े हो अपने एक पुराने परिचित से बातचीत में मग्न हो गए थे. वे उस रोज रम्या के साथ ही घर से स्टेशन तक आए थे. उन्हें चेंग्ल्पप्त स्टेशन पर कुछ काम था. इसीलिए वे बाहर निकल गए जबकि रम्या परानुरू की लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर ही रुक गई. रम्या रोज 2 ट्रेनें बदल कर महिंद्रा सिटी अपने औफिस पहुंचती थी.

अचानक फोन पर यह खबर सुन कर रम्या के पिता की हालत बिगड़ने लगी. यह देख कर उन के परिचित उन्हें धैर्य बंधाते हुए साथ में अस्पताल चल पड़े.

रम्या को तुरंत आईसीयू में भरती कर लिया गया. घर से भी उस की मां, बड़ी बहन, जीजा सभी अस्पताल पहुंच गए. डाक्टर ने 24 घंटे का अल्टीमेटम देते हुए कह दिया कि यदि इतने घंटे सकुशल निकल गए तो बचने की उम्मीद है.

मां और बहन का रोरो कर बुरा हाल था. उन का दामाद, डाक्टर और मैडिकल स्टोर के बीच चक्करघिन्नी सा घूम रहा था.

राघव सिर पकड़े एक कोने की बैंच पर  बैठ गया. वह दूर से रम्या के मम्मीपापा और बड़ी बहन को देख रहा था. क्या बोले और कैसे, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. रम्या ने बताया था कि उस के परिवार के लोग गांव में रहते हैं. अत: वे तमिल के अलावा और कोई भाषा नहीं जानते थे जबकि वह शुरू से ही पढ़ाई में होशियार थी. इसीलिए गांव से निकल कर होस्टल में पढ़ने आ गई थी और फिर इंजीनियरिंग कर नौकरी कर रही थी वरना उस की दीदी का तो 12वीं कक्षा के बाद ही पास के गांव में एक संपन्न किसान परिवार में विवाह कर दिया गया था. सुबह से दोपहर हो गई वह अपनी जगह से हिला ही नहीं, अंदर जाने की किसी को अनुमति नहीं थी. उस ने रम्या की खबर उस के औफिस में दी तो कुछ सहकर्मियों ने शाम को हौस्पिटल आने का आश्वासन दिया. अब वह बैठा उन लोगों का इंतजार कर रहा था. वे आए तभी वह भी रम्या के मातापिता से अपनी भावनाएं व्यक्त कर सका.

पिछले 2 सालों से राघव और रम्या औफिस की एक ही बिल्डिंग में काम कर रहे थे. रम्या एक तमिल ब्राह्मण परिवार से थी, जो काफी संपन्न किसान परिवार था, जबकि राघव उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग के गरीब परिवार से था. उस का और रम्या का कोई तालमेल ही नहीं, मगर न जाने वह कौन सी अदृश्य डोर से उस की ओर खिंचा चला गया.

उस की पहली मुलाकात भी रम्या से इसी चेंग्ल्पप्त स्टेशन पर हुई थी, जहां से उसे परानुरू के लिए लोकल ट्रेन पकड़नी थी. उस दिन अपनी कंपनी का ही आईडी कार्ड लटकाए रम्या को देख कर वह हिम्मत कर उस के नजदीक पहुंच गया. जब रम्या को ज्ञात हुआ कि वह पहली बार लोकल ट्रेन पकड़ने आया है तो उस ने उस से कहा भी था कि जब उसे पीजी में ही रहना है तो परानुरू की महिंद्रा सिटी में शिफ्ट हो जाए. रोजरोज की परानुरू से चेंग्ल्पप्त की लोकल नहीं पकड़नी पड़ेगी.

खुद रम्या को तो रोज 2 ट्रेनें बदल कर अपने गांव से यहां आना पड़ता था. उन की बातों के दौरान ही ट्रेन आ गईं. जब तक वह कुछ समझता ट्रेन चल पड़ी. रम्या उस में सवार हो चुकी थी और वह प्लेटफौर्म पर ही रह गया. यह क्या अचानक रम्या प्लेटफौर्म पर कूद गई.

रम्या जब कूदी उस समय ट्रेन रफ्तार में नहीं थी. अत: वह कूदते ही थोड़ा सा लड़खड़ाई पर फिर संभल गई.

राघव हक्काबक्का सा उसे देखते रह गया. फिर सकुचा कर बोला, ‘‘तुम्हें इस तरह नहीं कूदना चाहिए था?’’

‘‘तुम अभी मुझ से ट्रेन के अप और डाउन के बारे में पूछ रहे थे… तुम यहां नए हो… मुझे लगा तुम किसी गलत ट्रेन में न बैठ जाओ सो उतर गई,’’ कह रम्या मुसकराई.

रम्या के सांवले मुखड़े को घेरे हुए उस के घुंघराले बाल हवा में उड़ रहे थे. चौड़े ललाट पर पसीने की बूंदों के बीच छोटी सी काली बिंदी, पतली नाक और पतले होंठों के बीच एक मधुर मुसकान खेल रही थी. राघव को लगा यह तो वही काली मिट्टी से बनी मूर्ति है जिसे उस के पिता बचपन में उसे रंग भरने को थमा देते थे.

‘‘क्या सोच रहे हो?’’ रम्या ने पूछा.

‘‘यही कि तुम्हें कुछ हो जाता तो, मैं पूरी जिंदगी अपनेआप को माफ न कर पाता… तुम्हें ऐसा हरगिज नहीं करना चाहिए था.’’

‘‘ब्लड… ब्लड…’’ यही शब्द उन वाक्यों के उसे समझ आए, जो डाक्टर रम्या की फैमिली से तमिल में बोल रहा था.

राघव तुरंत डाक्टर के पास पहुंच गया. बोला, ‘‘सर, माई ब्लड ग्रुप इज ओ पौजिटिव.’’

‘‘कम विद मी,’’ डाक्टर ने कहा तो राघव डाक्टर के साथ चल पड़ा. उन्हीं से राघव को पता चला कि शाम तक 5-6 यूनिट खून की जरूरत पड़ सकती है. राघव ने डाक्टर को बताया कि शाम तक अन्य सहकर्मी भी आ रहे हैं. अत: ब्लड की कमी नहीं पड़ेगी.

रक्तदान के बाद राघव अस्पताल के एहाते में बनी कैंटीन में कौफी पीने के लिए आ गया. अस्पताल आए 6 घंटे बीत चुके थे. उस ने एक बिस्कुट का पैकेट लिया और कौफी में डुबोडुबो कर खाने लगा.

तभी उस की नजर सामने बैठे व्यक्ति पर पड़ी, जो कौफी के छोटे से गिलास को साथ में दिए छोटे कटोरे (जिसे यहां सब डिग्री बोलते हैं) में पलट कर ठंडा कर उसे जल्दीजल्दी पीए जा रहा था. रम्या ने बताया था कि उस के अप्पा जब भी बाहर कौफी पीते हैं, तो इसी अंदाज में, क्योंकि वे दूसरे बरतन में अपना मुंह नहीं लगाना चाहते. अरे, हां ये तो रम्या के अप्पा ही हैं. मगर वह उन से कोई बात नहीं कर सकता. वही भाषा की मुसीबत.

तभी उस की नजर पुलिस पर पड़ी, जिस ने पास आ कर उस से स्टेटमैंट ली और उसे शहर छोड़ कर जाने से पहले थाने आ कर अनुमति लेने की हिदायत व पुलिस के साथ पूरा सहयोग करने की चेतावनी दे कर छोड़ दिया.

शाम के 6 बज चुके थे. जब उस के सहकर्मी आए तो राघव की सांस में सांस आई. वे

सभी रक्तदान करने के पश्चात रम्या के परिजनों से मिले और राघव का भी परिचय कराया.

तब उस की अम्मां ने कहा, ‘‘हां, मैं ने सुबह से ही इसे यहीं बैठे देखा था. मगर मैं नहीं जान पाई कि ये भी उस के सहकर्मी हैं,’’ और फिर वे राघव का हाथ थाम कर रो पड़ीं.

उन लोगों के साथ राघव भी लौट गया. वह रोज शाम 7 बजे अस्पताल पहुंच जाता और 9 बजे लौट आता. पूरे 15 दिन तक आईसीयू में रहने के बाद जब रम्या प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट हुई तब जा कर उसे रम्या की झलक मिल सकी. रम्या की पीठ का घाव तो भरने लगा था, मगर उस के शरीर का दायां भाग लकवे का शिकार हो गया था, जबकि बाएं भाग में गहरा घाव होने से उसे ज्यादा हिलनेडुलने को डाक्टर ने मना किया था. रम्या निर्जीव सी बिस्तर पर लेटी रहती. अपनी असमर्थता पर आंसू गिरा कर रह जाती.

दुर्घटना के पूरे 6 महीनों के बाद स्वास्थ्य लाभ कर उस दिन रम्या औफिस जौइन करने जा रही थी. सुबह से रम्या को कई फोन आ चुके थे कि वह आज जरूर आए. उस दिन राघव की विदाई पार्टी थी. वह कंपनी की चंडीगढ़ ब्रांच में ट्रांसफर ले चुका था. वह दिन उस का अंतिम कार्यदिवस था.

कंपनी के गेट तक रम्या अपने अप्पा के साथ आई थी. वे वहीं से लौट गए, क्योंकि औफिस में शनिवार के अतिरिक्त अन्य किसी भी दिन आगंतुक का अंदर प्रवेश प्रतिबंधित था. उस का स्वागत करने को कई मित्र गेट पर ही रुके थे. उस ने मुसकरा कर सब का धन्यवाद दिया. राघव एक गुलदस्ता लिए सब से पीछे खड़ा था.

रम्या ने खुद आगे बढ़ कर उस के हाथ से गुलदस्ता लेते हुए कहा, ‘‘शायद तुम इसे मुझे देने के लिए ही लाए हो.’’

एक सम्मिलित ठहाका गूंज उठा. ‘तुम्हारी यही जिंदादिली तो मिस कर रहे थे हम सब,’ राघव ने मन ही मन सोचा.

रम्या को औफिस आ कर ही पता चला कि आज की लंच पार्टी रम्या की स्वागतपार्टी और राघव की विदाई पार्टी है. दोनों ही सोच में डूबे हुए अपनेअपने कंप्यूटर की स्क्रीन से जूझने लगे.

राघव सोच रहा था कि रम्या की जिंदगी के इस दिन का उसे कितना इंतजार था कि स्वस्थ हो दोबारा औफिस जौइन कर ले. मगर वही दिन उसे रम्या की जिंदगी से दूर भी ले कर जा रहा था.

रम्या सोच रही थी कि जब मैं अस्पताल में थी तो राघव नियम से मुझ से मिलने आता था और कितनी बातें करता था. शुरूशुरू में तो मां को उसी पर शक हो गया था कि यह रोज क्यों आता है? कहीं इसी ने तो हमला नहीं करवाया और अब हीरो बन सेवा करने आता है? और अप्पा को तो मामा पर शक हो गया था, क्योंकि मैं ने मामा से शादी करने को मना कर दिया था और छोेटा मामा तो वैसे भी निकम्मा और बुरी संगत का था. अप्पा को लगा मामा ने ही मुझ से नाराज हो कर हमला करवाया है. जब राघव को मैं ने मामा की शादी के प्रोपोजल के बारे में बताया तो वह हैरान रह गया. उस का कहना था कि उन के यहां मामाभानजी का रिश्ता बहुत पवित्र माना जाता है. अगर गलती से भी पैर छू जाए तो भानजी के पैर छू कर माफी मांगते हैं. पर हमारी तरफ तो शादी होना आम बात है. मामा की उम्र अधिक होने पर उन के बेटे से भी शादी कर सकते हैं.

उन दिनों कितनी प्रौब्ल्म्स हो गई थीं घर में… हर किसी को शक की निगाह से देखने लगे थे हम. राघव, मामा, हमारे पड़ोसियों सभी को… अम्मां को भी अस्पताल के पास ही घर किराए पर ले कर रहना पड़ा. आखिर कब तक अस्पताल में रहतीं. 1 महीने बाद अस्पताल छोड़ना पड़ा. मगर लकवाग्रस्त हालत में गांव कैसे जाती? फिजियोथेरैपिस्ट कहां मिलते? राघव ने भी मुझ से ही पूछा था कि अगर वह शनिवार, रविवार को मुझ से मिलने घर आए तो मेरे मातापिता को कोई आपत्ति तो नहीं होगी. अम्मांअप्पा ने अनुमति दे दी. वे भी देखते थे कि दिन भर की मुरझाई मैं शाम को उस की बातों से कैसे खिल जाती हूं, हमारा अंगरेजी का वार्त्तालाप अम्मां की समझ से दूर रहता. मगर मेरे चेहरे की चमक उन्हें समझ आती थी.

मामा ने गुस्से में आना कम कर दिया तो अप्पा का शक और बढ़ गया. वह तो

2 महीने पहले ही पुलिस ने केस सुलझा लिया और हमलावर पकड़ा गया वरना राघव का भी अपने घर जाना मुश्किल हो गया था. मैं ने आखिरी कौल राघव को ही की थी कि मैं स्टेशन पहुंच गई हूं, तुम भी आ जाओ. उस के बाद उस अनजान कौल को रिसीव करने के बीच ही वह हमला हो गया.

राघव ने जब बताया था कि वह बाराबंकी के कुंभकार परिवार से है और उस का बचपन मूर्ति में रंग भरने में ही बीता है, तो मैं ने कहा था कि वह मूर्ति बना कर दिखाए. तब उस ने रंगीन क्ले ला कर बहुत सुंदर मूर्ति बनाई जो संभाल कर रख ली.

‘रम्या भी तो एक बेजान मूर्ति में परिवर्तित हो गई थी उन दिनों,’ राघव ने सोचा. वह हर शनिवाररविवार जब मिलने जाता तब उसे रम्या में वही स्वरूप दिखाई देता जैसा उस के बाबा दीवाली में लक्ष्मी का रूप बनाते थे. काली मिट्टी से बनी सौम्य मूर्ति. उस मूर्ति में जब वह लाल, गुलाबी, पीले और चमकीले रंगों में ब्रश डुबोडुबो कर रंग भरता, तो उस मूर्ति से बातें भी करता.

यही स्थिति अभी भी हो गई है. रम्या के बेजान मूर्तिवत स्वरूप से तो वह कितनी बातें करता था. लकवाग्रस्त होने के कारण शुरूशुरू में वह कुछ बोल भी नहीं पाती थी, केवल अपने होंठ फड़फड़ा कर या पलकें झपका कर रह जाती. बाद में तो वह भी कितनी बातें करने लगी थी. उस की जिंदगी में भी रंग भरने लगे थे. वह समझ ही नहीं पाया कि रंग भर कौन रहा है? वह रम्या की जिंदगी में या रम्या उस की जिंदगी में? अब रम्या जीवन के रंगों से भरपूर है. अपने अम्मांअप्पा के संरक्षण में गांव लौट गई है, उस की पहुंच से दूर. अब उस की सेवा की रम्या को क्या आवश्यकता? अब वह भी यहां से चला जाएगा. रम्या से फेसबुक और व्हाट्सऐप के माध्यम से जुड़ा रहेगा वैसे ही जैसे पंडाल में सजी मूर्तियों से मन ही मन जुड़ा रहता था.

‘‘चलो, सब आज सब का लंच साथ हैं याद है न?’’ रमन ने मेज थपथपाई.

सभी एकसाथ लंच करने बैठ गए तो रम्या ने कहा, ‘‘धन्यवाद तो मुझे तुम सब का देना चाहिए जो रक्तदान कर मेरे प्राण बचाए…’’

‘‘सौरी, मैं तुम्हें रोक रहा हूं. मगर सब से पहले तुम्हें राघव को धन्यवाद करना चाहिए. इस ने सर्वप्रथम खून दे कर तुम्हें जीवनदान दिया है,’’ मुरली मोहन बोला.

‘‘ठीक है, उसे मैं अलग से धन्यवाद दे दूंगी,’’ कह रम्या हंस रही थी. राघव ने देखा आज उस ने काले की जगह लाल रंग की बिंदी लगाई थी.

‘‘वैसे वह तेरा वनसाइड लवर भी बड़ा खतरनाक था… तुझे अपने इस पड़ोसी पर पहले कभी शक नहीं हुआ?’’ सुभ्रा ने पूछा.

‘‘अरे वह तो उम्र में भी 2 साल छोटा है मुझ से. कई बार कुछ न कुछ पूछने को किसी न किसी विषय की किताब ले कर घर आ धमकता था. मगर मैं नहीं जानती थी कि वह क्या सोचता है मेरे बारे में,’’ रम्या अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

लगभग सभी खापी कर उठ चुके थे. राघव अपने कौफी के कप को घूरने में लगा था मानो उस में उस का भविष्य दिख रहा हो.

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है उस लड़के के बारे में?’’ रम्या ने पास आ कर उस से पूछा.

‘‘प्यार मेरी नजर में कुछ पाने का नहीं, बल्कि दूसरे को खुशियां देने का नाम है. अगर हम प्रतिदान चाहते हैं, तो वह प्यार नहीं स्वार्थ है और मेरी नजर में प्यार स्वार्थ से बहुत ऊपर की भावना है.’’

‘‘इस के अलावा भी कुछ और कहना है तुम्हें?’’ रम्या ने शरारत से राघव से पूछा.

‘‘हां, तुम हमेशा इसी तरह हंसतीमुसकराती रहना और अपनी फ्रैंड लिस्ट में मुझे भी ऐड कर लेना. अब वही एक माध्यम रह जाएगा एकदूसरे की जानकारी लेने का.’’

‘‘ठीक है, मगर तुम ने मुझ से नहीं पूछा?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मुझे कुछ कहना है कि नहीं?’’ रम्या ने कहा तो राघव सोच में पड़ गया.

‘‘क्या सोचते रहते हो मन ही मन? राघव, अब मेरे मन की सुनो. अगले महीने अप्पा बाराबंकी जाएंगे तुम्हारे घर मेरे रिश्ते की बात करने.’’

‘‘उन्हें मेरी जाति के बारे में नहीं पता शायद,’’ राघव को अप्पा का कौफी पीना याद आ गया.

‘‘यह देखो इन रगों में तुम्हारे खून की

लाली ही तो दौड़ रही है और जो जिंदगी के पढ़ाए पाठ से भी सबक न सीख सके वह इनसान ही क्या… मेरे अप्पा इनसानियत का पाठ पढ़ चुके हैं. अब उन्हें किसी बाह्य आडंबर की जरूरत नहीं है,’’ रम्या ने अपना हाथ उस की हथेलियों में रख कर कहा, ‘‘अब अप्पा भी चाह कर मेरे और तुम्हारे खून को अलगअलग नहीं कर सकते.’’

‘‘तुम ने आज लाल बिंदी लगई है,’’ राघव अपने को कहने से न रोक सका.

‘‘नोटिस कर लिया तुम ने? यह तुम्हारा ही दिया रंग है, जो मेरी बिंदी में झलक आया है और जल्द ही सिंदूर बन मेरे वजूद में छा जाएगा,’’ रम्या बोली और फिर दोनों एकदूसरे का हाथ थामें जिंदगी के कैनवास में नए रंग भरने निकल पड़े.

Hindi Fiction Stories : भरोसेमंद- शर्माजी का कड़वा बोलना लोगों को क्यों पसंद नही आता था?

Hindi Fiction Stories : ‘‘बड़ी खुशी हुई आप से मिल कर. अच्छी बात है वरना अकसर लोग मुझे पसंद

नहीं करते.’’

‘‘अरे, ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं नहीं कह रहा, सिर्फ बता रहा हूं आप को वह सच जो मैं महसूस करता हूं. अकसर लोग मुझे पसंद नहीं करते. आप भी जल्द ही उन की भाषा बोलने लगेंगे. आइए, हमारे औफिस में आप का स्वागत है.’’

शर्माजी ने मेरा स्वागत करते हुए अपने बारे में भी शायद वह सब बता दिया जिसे वे महसूस करते होंगे या जैसा उन्हें महसूस कराया जाता होगा. मुझे तो पहली ही नजर में बहुत अच्छे लगे थे शर्माजी. उन के हावभाव, उन का मुसकराना, उन का अपनी ही दुनिया में मस्त रहना, किसी के मामले में ज्यादा दखल न देना और हर किसी को पूरापूरा स्पेस भी देना.

हुआ कुछ इस तरह कि मुझे अपनी चचेरी बहन को ले कर डाक्टर के पास जाना पड़ा. संयोग भी ऐसा कि हम लगातार 3 बार गए और तीनों बार ही शर्माजी का मुझ से मिलना हो गया. उन का घर वहीं पास में ही था. हर शाम वे सैर करने जाते हुए मुझ से मिल जाते और औपचारिक लहजे में घर आने को भी कहते. मगर उन्होंने कभी ज्यादा प्रश्न नहीं किए. मुसकरा कर ही निकल जाते. उन्हीं दिनों मुझे एक हफ्ते के लिए टूर पर जाना पड़ा. बहन का कोर्स अभी पूरा नहीं हुआ था. वह अकेली चली तो जाती पर वापसी पर अंधेरा हो जाएगा, यह सोच कर उसे घबराहट होती थी.

‘‘तुम शर्माजी के घर चली जाना. छोटा भाई अपनी ट्यूशन क्लास से वापस आते हुए तुम्हें लेता आएगा. मैं उन का पता ले लूंगा, पास ही में उन का घर है.’’

बहन को समझा दिया मैं ने. शर्माजी से इस बारे में बात भी कर ली. सारी स्थिति उन्हें समझा दी. शर्माजी तुरंत बोले, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, जरूर आइए. मेरी बहन घर पर होती है. पत्नी तो औफिस से देर से ही आती हैं लेकिन आप चिंता मत कीजिए. निसंकोच आइए.’’

मेरी समस्या सुलझा दी उन्होंने. हफ्ता बीता और उस के बाद उस की जिम्मेदारी फिर मुझ पर आ गई. पता चला, शर्माजी की बहन तो उसी के कालेज की निकली. इसलिए मेरी बहन का समय अच्छे से बीत गया. मैं ने शर्माजी को धन्यवाद दिया. वे हंसने लगे.

‘‘अरे, इस में धन्यवाद की क्या जरूरत है? यह दुनिया रैनबसेरा है विजय बाबू. न घर तेरा न घर मेरा. जो समय हंसतेखेलते बीत जाए बस, समझ लीजिए वही आप का रहा. मिनी बता रही थी कि आप की बहन तो उसी के कालेज में पढ़ती है.’’

‘‘हां, शर्माजी. अब क्या कहें? फुटबाल की मंझी हुई खिलाड़ी थी मेरी बहन. एक दिन खेलतेखेलते हाथ की हड्डी ऐसी खिसकी कि ठीक ही नहीं हो रही. उसी सिलसिले में तो आप के सैक्टर में जाना पड़ता है उसे डा. मेहता के पास. आप को तो सब बताया ही था.’’

‘‘मुझे कुछ याद नहीं. दरअसल, आप बुरा मत मानना, मैं किसी की व्यक्तिगत जिंदगी में जरा कम ही दिलचस्पी लेता हूं. मैं आप के काम आ सका उस के लिए मैं ही आप का आभारी हूं.’’

भौचक्का रह गया मैं. एक पल को रूखे से लगे मुझे शर्माजी. ऐसी भी क्या आदत जो किसी की समस्या का पता ही न हो.

‘‘सब के जीवन में कोई न कोई समस्या होती है जिसे मनुष्य को स्वयं ही ढोना पड़ता है. किसी को न आप से कुछ लेना है न ही देना है. अपना दिल खोल कर क्यों मजाक का विषय बना जाए. क्योंकि आज कोई भी इतना ईमानदार नहीं जो निष्पक्ष हो कर आप की पीड़ा सुन या समझ सके,’’ शर्माजी बोले.

सुनता रहा मैं. कुछ समझ में आया कुछ नहीं भी आया. अकसर गहरी बातें एक ही बार में समझ में भी तो नहीं आतीं.

‘‘मैं कोशिश करता हूं किसी के साथ ज्यादा घुलनेमिलने से बचूं. समाज में रह कर एकदूसरे के काम आना हमारा कर्तव्य भी है और इंसानियत भी. हम जिंदा हैं उस का प्रमाण तो हमें देना ही चाहिए. प्रकृति तो हर चीज का हिसाब मांगती है. एक हाथ लो तो दूसरे हाथ देना भी तो आना चाहिए,’’ शर्माजी ने कहा.

चश्मे के पार शर्माजी की आंखें डबडबा गई थीं. मेरा कंधा थपथपा कर चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया. मुझे लगा, शर्माजी बहुत रूखे स्वभाव के हैं. थोड़ा तो इंसान को मीठा भी होना चाहिए. याद आया पहली बार मिले तो उन्होंने ही बताया था कि लोग अकसर उन्हें पसंद नहीं करते. शायद यही वजह होगी. रूखा इंसान कैसे सब को पसंद आएगा? घर आ कर पत्नी से बात की. हंस पड़ी वह.

‘‘जरा से उसूली होंगे आप के शर्माजी. नियमों पर चलने वाला इंसान सहज ही सब के गले से नीचे नहीं उतरता. कुछ उन के नियम होंगे और कुछ उन्हें दुनिया ने सिखा दिए होंगे. धीरेधीरे इंसान अपने ही दायरे में सिमट जाता है. जहां तक हो सके किसी और की मदद करने से पीछे नहीं हटता मगर अपनी तरफ से नजदीकी कम से कम ही पसंद करता है. चारू बता रही थी कि हफ्ताभर उन की बहन ने उस का पूरापूरा खयाल रखा. 1 घंटा तो वहां बैठती ही थी वह, शर्माजी ने अपनी बहन को बताया होगा कि उन के सहयोगी की बहन है इसीलिए न. दिल के बहुत अच्छे होते हैं इस तरह के लोग. ज्यादा मीठे लोग तो मुझे वैसे ही अच्छे नहीं लगते,’’ मेरी पत्नी बोली.

फिर बुरा सा मुंह बना कर वह वहां से चली गई. मुझे शर्माजी को समझने का एक नया ही नजरिया मिला. याद आया, उस दिन सब हमारी एक सहयोगी की शादी के लिए तोहफा खरीद रहे थे. तय हुआ था कि सभी 500-500 रुपए एकत्र करें तो औफिस की तरफ से एक अच्छा तोहफा हो जाएगा. जातेजाते सब से पहले शर्माजी 500 रुपए का नोट मेरी मेज पर छोड़ गए थे. किसी के लिए कुछ देने में भी पीछे नहीं थे, मगर आगे आ कर सब की बहस में पड़ने में सब से पीछे थे.

‘‘जिस को जो करना है उसे करने दो, एक बार ठोकर लगेगी दोबारा नहीं करेगा और जिसे एक बार ठोकर लग कर भी समझ में नहीं आता उसे एक और धक्का लगने दो. जो चीज हम मांबाप हो कर अपनी औलाद को नहीं समझा सकते, उसी औलाद को दुनिया बड़ी अच्छी तरह समझा देती है. दुनिया थोड़े न माफ करती है.’’

‘‘बेटी मुंहजोर हो गई है, अपना कमा रही है. उसे लगने लगा है हमसब बेवकूफ हैं. छोटेबड़े का लिहाज ही नहीं रहा, आजाद रहना चाहती है. आज हमारा मान नहीं रखती, कल ससुराल में क्या करेगी? अच्छा रिश्ता हाथ में आया है. शरीफ, संस्कारी परिवार है मगर समझ नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘अपना सिक्का खोटा है तो मान लीजिए साहब, ऐसा न हो कि लड़के वालों का जीना ही हराम कर दे. अपने घर ही इस तरह की बहू चली आई तो बुढ़ापा गया न रसातल में. लड़के वालों पर दया कीजिए. आजकल तो वैसे भी सारे कानून लड़की के हक में हैं.’’

लंचबे्रक में शर्माजी की बातें कानों में पड़ीं. तिवारीजी अपनी परेशानी उन्हें बता रहे थे. बातें निजी थीं मगर सर्वव्यापी थीं. हर घर में बेटी है और बेटा भी. मांबाप हैं और नातेरिश्तेदार भी. उम्मीदें हैं और स्वार्थ भी. तिवारीजी अपना ही पेट नंगा कर के शर्माजी को दिखा रहे थे जबकि सत्य यह है कि अपने पेट की बुराई अकसर नजर नहीं आती. अपनी संतान सही नहीं है, यह किसी और के सामने मान लेना आसान नहीं होता.

‘‘बेटी को समय दीजिए, किसी और का घर न उजड़े, इसलिए समस्या को अपने ही घर तक रखिए. जब तक समझ न आए इंतजार कीजिए. शादी कोई दवा थोड़ी है कि लेते ही बीमारी चली जाएगी. शादी के बाद वापस आ गई तो क्या कर लेंगे आप? आज 25 की है तो क्या हो गया. पढ़नेलिखने वाले बच्चों की इतनी उम्र हो ही जाती है.’’

तर्कसंगत थीं शर्माजी की बातें. यह हर घर की कहानी है. नया क्या था इस में. पिछली मेज पर बैठेबैठे सब  मेरे कानों में पड़ा. तिवारीजी के स्वभाव पर हैरानी हुई. अत्यंत मीठा स्वभाव है उन का और शर्माजी के विषय में उन की राय ज्यादा अच्छी भी नहीं है और वही अपनी ही बच्ची की समस्या उन्हें बता रहे हैं जिन्हें वे ज्यादा अच्छा भी नहीं मानते.

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं, आप को ही कमाती बेटी सहन नहीं हो रही? आप को ही लग रहा हो कि बेटी पर काबू नहीं रहा क्योंकि अब वह आप के सामने हाथ नहीं फैलाती. अपनी तनख्वाह अपने ही तरीके से खर्च करती है. शायद आप चाहते हों, वह पूरी तनख्वाह जमा करती रहे और आप से पहले की तरह बस जरा सा मांग कर गुजारा करती रहे.’’

चुप रहे उत्तर में तिवारीजी. क्योंकि मौन पसर गया था. मेरे कान भी मानो समूल चेतना लिए खड़े हो गए.

‘‘मैं आप की बच्ची को जानता नहीं हूं मगर आप तो उसे जानते हैं न. बच्ची मेधावी होगी तभी तो पढ़लिख कर आज हर महीने 40 हजार रुपए कमाने लगी है. नालायक तो हो ही नहीं सकती और हम ने अपनी नौकरी में अब जा कर 40 हजार रुपए का मुंह देखा है. जो बच्ची रातरात भर जाग कर पढ़ती रही, उसे क्या अपनी कमाई खुद पर खर्च करने का अधिकार नहीं है? क्या खर्च कर लेती होगी भला? महंगे कपड़े खरीद लेती होगी या भाईबहनों पर लुटा देती होगी और कब तक कर लेगी? कल को जब अपनी गृहस्थी होगी तब वही चक्की होगी जिसे आज तक हम भी चला रहे हैं. आज उस के पिता को एतराज है, कल उस के पति को भी होगा. एक मध्यवर्ग की लड़की भला कितना ऊंचा उड़ लेगी? मुड़मुड़ कर नातेरिश्तों को ही पूरा करेगी. उस के पैर जमीन में ही होंगे, ऐसा मैं अनुमान लगा सकता हूं. बच्ची को जरा सा उस के तरीके से भी जी लेने दीजिए. जरा सोचिए तिवारीजी, क्या हम और आप नहीं चाहते,’’ कह कर शर्माजी चुप हो गए.

तिवारीजी उठ कर चले गए और मैं चुपचाप किसी किताब में लीन हो गए शर्माजी को देखने लगा. हैरान था मैं. उस दिन मुझ से कह रहे थे वे कि किसी के निजी मामले में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते और जो अभी सुना वह दिलचस्पी नहीं थी तो क्या था. ऐसी दिलचस्पी जिस में तिवारीजी को भी पूरीपूरी जगह दी गई थी और उन की बच्ची को भी.

‘शर्माजी रूखेरूखे हैं, कड़वा बोलते हैं’, ‘तिवारीजी बड़े मीठे हैं. किसी को नाराज नहीं करते,’ सब को ऐसा लगता है तो फिर अपनी समस्या ले कर तिवारीजी शर्माजी के पास ही क्यों आए? शर्माजी कड़वे हैं, लेकिन उन पर भरोसा किया न तिवारीजी ने. सत्य है, कड़वा इंसान स्पष्ट भी होता है और भरोसे लायक भी. तिवारीजी शर्माजी के बारे में क्या राय रखते हैं, सब को पता है. तिवारीजी सब के चहेते हैं तो अपनी समस्या स्वयं क्यों नहीं सुलझाई और क्यों किसी और से कह कर अपनी समस्या सांझी नहीं की? सब से छिप कर मात्र शर्माजी से ही कही. मैं एक कोने में जरा सी आड़ में बैठा था, तभी उन्हें नजर नहीं आया वरना मुझे कभी भी पता न चलता.

उस शाम जब घर आया तब देर तक शर्माजी के शब्दों को मानसपटल पर दोहराता रहा.  अपने ही तरीके से जरा सा जी लेने की चाहत भला किस में नहीं है. जरा सा अपना चाहा करना, जरा सी अपनी चाही जिंदगी की चाहत हर किसी को होती है.

तिवारीजी की बच्ची को मैं ने देखा नहीं है मगर यही सच होगा जो शर्माजी ने समझा होगा. क्या बच्ची को जरा सा अपने तरीके से खर्च करने का अधिकार नहीं है? क्या तिवारीजी इसी को मुंहजोरी कह रहे थे? सत्य है संस्कार सदा मध्यम वर्ग में ही पनपते हैं. हम बीच के स्तर वाले लोग ही हैं जो न नीचे गिर सकते हैं न हवा में  हमें उड़ना आता है. मध्यम वर्ग ही है जिसे समाज की रीढ़ माना जाता है और मध्यम वर्ग की बच्ची अपनी मेहनत की कमाई पर आत्मसंतोष महसूस करती होगी, गर्व मानती होगी. जहां तक मेरा सवाल है मेरी भी यही सोच है, तिवारीजी की बच्ची मुंहजोर नहीं होगी.

कुछ दिनों बाद तिवारीजी का चेहरा कुछ ज्यादा ही दमकता सा लगा मुझे.

‘‘आज बहुत खिल रहे हैं साहब, क्या बात है?’’

‘‘बेटी की लाई नई महंगी कमीज जो पहनी है आज. कल मेरा जन्मदिन था.’’

सच में तिवारीजी पर अच्छे ब्रांड की कमीज बहुत जंच रही थी. महंगा कपड़ा सौम्यता में चारचांद तो लगाता ही है. उन की बच्ची की पसंद भी बहुत अच्छी थी. शर्माजी मंदमंद मुसकरा रहे थे. मानो तिवारीजी के चेहरे के संतोष में, दमकती चमक में उन का भी योगदान हो क्योंकि तिवारीजी तो अपनी बच्ची को बदतमीज और आजाद मान ही चुके थे. मैं बारीबारी से दोनों का चेहरा पढ़ रहा था.

‘‘आप की बच्ची क्या करती है तिवारीजी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एमबीए है, एक बड़ी कंपनी में काम करती है. बड़ी होनहार है. खुशनसीब हूं मैं ऐसी औलाद पा कर.’’

बात पूरी तरह बदल चुकी थी. शर्माजी अपने काम में व्यस्त थे, मानो अब उन्हें इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं हो. तिवारीजी संतोष में डूबे अपनी बच्ची की प्रशंसा कर रहे थे, मानो उस दिन की उन की चिंता अब कहीं है ही नहीं.

‘‘अकसर लोग खुश होना भूल जाते हैं विजयजी. खुशी भीतर ही होती है. मगर उसे महसूस ही नहीं कर पाते. जैसे मृग होता है न, जिस की नाभि में कस्तूरी होती है और वह पागलों की तरह जंगलजंगल भटकता है.’’

सच में बहुत खुश थे तिवारीजी. और भी बहुत कुछ कहते रहे. मैं ने नजरें उठा कर शर्माजी को देखा. मुझे उन के पहले कहे शब्द याद आए, ‘अकसर लोगों को मैं पसंद नहीं आता.’

दोटूक बात जो करते हैं, चाशनी में घोल कर विषबाण जो नहीं चलाते, तभी तो भरोसा करते हैं उन पर तिवारीजी जैसे मीठे चापलूस लोग भी. पसंद का क्या है, वह तो बदलती रहती है. शर्माजी पहले दिन भी मुझे अच्छे लगे थे और आज तो और भी ज्यादा अच्छे लगे. एक सच्चा इंसान, जिस पर मैं वक्त आने पर और भी ज्यादा भरोसा कर सकता हूं, ऐसा भरोसा जो पसंद की तरह बदलता नहीं. प्रिय और पसंदीदा बनना आसान है, भरोसेमंद बनना बहुत कठिन है.

Hindi Love Stories : अंधेरे से उजाले की ओर

Hindi Love Stories :  कमरे में प्रवेश करते ही डा. कृपा अपना कोट उतार कर कुरसी पर धड़ाम से बैठ गईं. आज उन्होंने एक बहुत ही मुश्किल आपरेशन निबटाया था.

शाम को जब वे अस्पताल में अपने कक्ष में गईं, तो सिर्फ 2 मरीजों को इंतजार करते हुए पाया. आज उन्होंने कोई अपौइंटमैंट भी नहीं दिया था. इन 2 मरीजों से निबटने के बाद वे जल्द से जल्द घर लौटना चाहती थीं. उन्हें आराम किए हुए एक अरसा हो गया था. वे अपना बैग उठा कर निकलने ही वाली थीं कि अपने नाम की घोषणा सुनी, ‘‘डा. कृपा, कृपया आपरेशन थिएटर की ओर प्रस्थान करें.’’

माइक पर अपने नाम की घोषणा सुन कर उन्हें पता चल गया कि जरूर कोई इमरजैंसी केस आ गया होगा.

मरीज को अंदर पहुंचाया जा चुका था. बाहर मरीज की मां और पत्नी बैठी थीं.

मरीज के इतिहास को जानने के बाद डा. कृपा ने जैसे ही मरीज का नाम पढ़ा तो चौंक गईं. ‘जयंत शुक्ला,’ नाम तो यही लिखा था. फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि नहीं, यह वह जयंत नहीं हो सकता.

लेकिन मरीज को करीब से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही जयंत है, उन का सहपाठी. उन्होंने नहीं चाहा था कि जिंदगी में कभी इस व्यक्ति से मुलाकात हो. पर इस वक्त वे एक डाक्टर थीं और सामने वाला एक मरीज. अस्पताल में जब मरीज को लाया गया था तो ड्यूटी पर मौजूद डाक्टरों ने मरीज की प्रारंभिक जांच कर ली थी. जब उन्हें पता चला कि मरीज को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा है तो उन्होंने दौरे का कारण जानने के लिए एंजियोग्राफी की थी, जिस से पता चला कि मरीज की मुख्य रक्तनलिका में बहुत ज्यादा अवरोध है. मरीज का आपरेशन तुरंत होना बहुत जरूरी था. जब मरीज की पत्नी व मां को इस बात की सूचना दी गई तो पहले तो वे बेहद घबरा गईं, फिर मरीज के सहकर्मियों की सलाह पर वे मान गईं. सभी चाहते थे कि उस का आपरेशन डा. कृपा ही करें. इत्तफाक से डा. कृपा अपने कक्ष में ही मौजूद थीं.

मरीज की बीवी से जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए. करीब 5 घंटे लगे आपरेशन में. आपरेशन सफल रहा. हाथ धो कर जब डा. कृपा आपरेशन थिएटर से बाहर निकलीं तो सभी उन के पास भागेभागे आए.

डा. कृपा ने सब को आश्वासन दिया कि आपरेशन सफल रहा और मरीज अब खतरे से बाहर है. अपने कमरे में पहुंच कर डा. कृपा ने कोट उतार कर एक ओर फेंक दिया और धड़ाम से कुरसी पर बैठ गईं.

आंखें बंद कर आरामकुरसी पर बैठते ही उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना बीता कल नजर आने लगा. जिंदगी के पन्ने पलटते चले गए.

उन्हें अपना बचपन याद आने लगा… जयपुर में एक मध्यवर्गीय परिवार में वे पलीबढ़ी थीं. उन का एक बड़ा भाई था, जो मांबाप की आंखों का तारा था. कृपा की एक जुड़वां बहन थी, जिस का नाम रूपा था. नाम के अनुरूप रूपा गोरी और सुंदर थी, अपनी मां की तरह. कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी. कृपा का रंग अपने पिता की तरह काला था. दोनों बहनों की शक्लसूरत में मीनआसमान का फर्क था. बचपन में जब उन की मां दोनों का हाथ थामे कहीं भी जातीं, तो कृपा की तरफ उंगली दिखा कर सब यही पूछते कि यह कौन है?

उन की मां के मुंह से यह सुन कर कि दोनों उन की जुड़वां बेटियां हैं, लोग आश्चर्य में पड़ जाते. लोग जब हंसते हुए रूपा को गोद में उठा कर प्यार करते तो उस का बालमन बहुत दुखी होता. तब कृपा सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोती, मचलती.

तब उसे पता नहीं था कि मानवमन तो सुंदरता का पुजारी होता है. तब वह समझ नहीं पाती थी कि लोग क्यों उस के बजाय उस की बहन को ही प्यार करते हैं. एक बार तो उसे इस तरह मचलते देख कर किसी ने उस की मां से कह भी दिया था कि लीला, तुम्हारी इस बेटी में न तो रूप है न गुण.

धीरेधीरे कृपा को समझ में आने लगा अपने और रूपा के बीच का यह फर्क.

मां कृपा को समझातीं कि बेटी, समझदारी का मानदंड रंगरूप नहीं होता. माइकल जैकसन काले थे, पर पूरी दुनिया के चहेते थे. हमारी बेटी तो बहुत होशियार है. पढ़लिख कर उसे मांबाप का नाम रोशन करना है. बस, मां की इसी बात को कृपा ने गांठ बांध लिया. मन लगा कर पढ़ाई करती और कक्षा में हमेशा अव्वल आती.

कृपा जब थोड़ी और बड़ी हुई तो उस ने लड़कों और लड़कियों को एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते देखा. उस ने बस, अपने मन में डाक्टर बनने का सपना संजो लिया था. वह जानती थी कि कोई उस की ओर आकर्षित नहीं होगा. यदि मनुष्य अपनी कमजोर रग को पहचान ले और उसे अनदेखा कर के उस क्षेत्र में आगे बढ़े जहां उसे महारत हासिल हो, तो उस की कमजोर रग कभी उस की दुखती रग नहीं बन सकती. इसीलिए जब जयंत ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने उसे ठुकरा दिया.

कृपा का ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर था. एक दिन उस ने जयंत को अपने दोस्तों से यह कहते हुए सुना कि मैं कृपा से इसलिए दोस्ती करना चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत ईमानदार लड़की है, कितने गुण हैं उस में, हमेशा हर कक्षा में अव्वल आती है, फिर भी जमीन से जुड़ी है.

उस दिन के बाद कृपा का बरताव जयंत के प्रति नरम होता गया. 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे नंबर आना बेहद जरूरी था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर मैडिकल में दाखिला मिल सकता था. सभी को कृपा से बहुत उम्मीदें थीं.

जयंत बेझिझक कृपा से पढ़ाई में मदद लेने लगा. वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता था. खाली समय में ट्यूशन पढ़ाता था ताकि मैडिकल में दाखिला मिलने पर उसे पैसों की दिक्कत न हो.

कृपा लाइब्रेरी में बैठ कर किसी एक विषय पर अलगअलग लेखकों द्वारा लिखित किताबें लेती और नोट्स तैयार करती थी.

पहली बार जब उस ने अपने नोट्स की एक प्रति जयंत को दी तो वह कृतार्थ हो गया. कहने लगा कि तुम ने मेरी जो मदद की है, उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा.

अब जब भी कृपा नोट्स तैयार करती तो उस की एक प्रति जयंत को जरूर देती.

एक दिन जयंत ने कृपा के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा साथ जीवन भर का हो जाए तो कैसा हो?

कृपा ने मीठी झिड़की दी कि अभी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, मजनू. ये सब तो बहुत बाद की बातें हैं.

कृपा ने झिड़क तो दिया पर मन ही मन वह सपने बुनने लगी थी. जयंत स्कूल से सीधे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, इसलिए कृपा रोज जयंत से मिल कर थोड़ी देर बातें करती, फिर जयंत से चाबी ले कर नोट्स उस के कमरे में छोड़ आती. चाबी वहीं छोड़ आती, क्योंकि जयंत का रूममेट तब तक आ जाता था.

एक दिन लाइब्रेरी से बाहर आते समय कृपा ने हमेशा की तरह रुक कर जयंत से बातें कीं. जयंत अपने दोस्तों के साथ खड़ा था, पर जातेजाते वह जयंत से चाबी लेना भूल गई. थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक जब उसे याद आया तो वापस आने लगी. वह जयंत के पास पहुंचने ही वाली थी कि अपना नाम सुन कर अचानक रुक गई.

जयंत का दोस्त उस से कह रहा था कि तुम ने उस कुरूपा (कृपा) को अच्छा पटाया. तुम्हारा काम तो आसान हो गया, यार. इस साथी को जीवनसाथी बनाने का इरादा है क्या?

जयंत ने कहा कि दिमाग खराब नहीं हुआ है मेरा. उसे इसी गलतफहमी में रहने दो. बनेबनाए नोट्स मिलते रहें तो मुझे रोजरोज पढ़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. परीक्षा से कुछ दिन पहले दिनरात एक कर देता हूं. इस बार देखना, उसी के नोट्स पढ़ कर उस से भी अच्छे नंबर लाऊंगा.

जयंत के मुंह से ये सब बातें सुन कर कृपा कांप गई. उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. इतना बड़ा धोखा? वह उलटे पांव लौट गई. भाग कर घर पहुंची तो इतनी देर से दबी रुलाई फूट पड़ी. मां ने उसे चुप कराया. सिसकियों के बीच कृपा ने मां को किसी तरह पूरी बात बताई.

कुछ देर के लिए तो मां भी हैरान रह गईं, पर वे अनुभवी थीं. अत: उन्होंने कृपा को समझाया कि बेटे, अगर कोई यह सोचता है कि किसी सीधेसादे इनसान को धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है, तो वह अपनेआप को धोखा देता है. नुकसान तुम्हारा नहीं, उस का हुआ है. व्यवहार बैलेंस शीट की तरह होता है, जिस में जमाघटा बराबर होगा ही. जयंत को अपने किए की सजा जरूर मिलेगी. तुम्हारी मेहनत तुम्हारे साथ है, इसलिए आज तुम चाबी लेना भूल गईं. पढ़ाई में तुम्हारी बराबरी इन में से कोई नहीं कर सकता. प्रकृति ने जिसे जो बनाया उसे मान कर उस पर खुश हो कर फिर से सब कुछ भूल कर पढ़ाई में जुट जाओ.

मां की बातों से कृपा को काफी राहत मिली, पर यह सब भुला पाना इतना आसान नहीं था.

हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन हमेशा की तरह कृपा ने जयंत से चाबी ली, पर नोट्स रखने के लिए नहीं, बल्कि आज तक उस ने जो नोट्स दिए थे उन्हें निकालने के लिए. अपने सारे नोट्स ले कर चाबी यथास्थान रख कर कृपा घर की ओर चल पड़ी. 2-4 दिनों में छुट्टियां शुरू होने वाली थीं, उस के बाद इम्तिहान थे. चाबी लेते समय उस ने जयंत से कह दिया था कि अब छुट्टियां शुरू होने के बाद ही उस से मिलेगी, क्योंकि उसे 2-4 दिनों तक कुछ काम है. घर जाने पर उस ने मां से कह दिया कि वह छुट्टियों में मौसी के घर रह कर अपनी पढ़ाई करेगी.

जिस दिन छुट्टियां शुरू हुईं, उस दिन सुबह ही कृपा मौसी के घर की ओर प्रस्थान कर गई. जाने से पहले उस ने एक पत्र जयंत के नाम लिख कर मां को दे दिया.

छुट्टियां शुरू होने के बाद एक दिन जब जयंत ने नोट्स निकालने के लिए दराज खोली तो पाया कि वहां से नोट्स नदारद हैं. उस ने पूरे कमरे को छान मारा, पर नोट्स होते तो मिलते. तुरंत भागाभागा वह कृपा के घर पहुंचा. वहां मां ने उसे कृपा की लिखी चिट्ठी पकड़ा दी.

कृपा ने लिखा था, ‘जयंत, उस दिन मैं ने तुम्हारे दोस्त के साथ हुई तुम्हारी बातचीत को सुन लिया था. मेरे बारे में तुम्हारी राय जानने के बाद मुझे लगा कि मेरे नोट्स का तुम्हारी दराज में होना कोई माने नहीं रखता, इसलिए मैं ने नोट्स वापस ले लिए. मेरे परिवार वालों से मेरा पता मत पूछना, क्योंकि वे तुम्हें बताएंगे नहीं. मेरी तुम से इतनी विनती है कि जो कुछ भी तुम ने मेरे साथ किया है, उस का जिक्र किसी से न करना और न ही किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना वरना लोगों का दोस्ती पर से विश्वास उठ जाएगा. शुभ कामनाओं सहित, कृपा.’

पत्र पढ़ कर जयंत ने माथा पीट लिया. वह अपनेआप को कोसने लगा कि यह कैसी मूर्खता कर बैठा. इस तरह खुल्लमखुल्ला डींगें हांक कर उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली थी. उस के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, न ही इतना वक्त था कि नोट्स तैयार करता.

इम्तिहान से एक दिन पहले कृपा वापस अपने घर आई. दोस्तों से पता चला कि इस बार जयंत परीक्षा में नहीं बैठ रहा है.

उस के बाद कृपा की जिंदगी में जो कुछ भी घटा, सब कुछ सुखद था. पूरे राज्य में अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी कृपा. दूरदर्शन, अखबार वालों का तांता लग गया था उस के घर में. सभी बड़े कालेजों ने उसे खुद न्योता दे कर बुलाया था.

मुंबई के एक बड़े कालेज में उस ने दाखिला ले लिया था. एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षाएं दीं. यहां भी वह अव्वल आई. उस ने हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का फैसला लिया. एम.डी. की पढ़ाई करने के बाद उस ने 3 बड़े अस्पतालों में विजिटिंग डाक्टर के रूप में काम करना शुरू किया. समय के साथ उसे काफी प्रसिद्धि मिली.

इधर उस की जुड़वां बहन की पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी. मातापिता ने उस की शादी कर दी. उस का भाई अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था. भाई कभी मातापिता का हालचाल तक नहीं पूछता था. बहू ने दूरी बनाए रखी थी. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

बेटे के इस रवैए ने मांबाप को बहुत पीड़ा पहुंचाई थी. कृपा ने निश्चय कर लिया था कि मातापिता और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता देगी. कृपा ने मुंबई में अपना घर खरीद लिया और मातापिता को भी अपने पास ले गई.

चर्मरोग विशेषज्ञ डा. मनीष से कृपा की अच्छी निभती थी. दोनों डाक्टरी के अलावा दूसरे विषयों पर भी बातें किया करते थे, पर कृपा ने उन से दूरी बनाए रखी. एक दिन डा. मनीष ने डा. कृपा से शादी करने की इच्छा जाहिर की, पर दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है.

डा. कृपा ने दृढ़ता के साथ मना कर दिया. उस के बाद डा. मनीष की हिम्मत नहीं हुई दोबारा पूछने की. मां को जब पता चला तो मां ने कहा, ‘‘बेटे, सभी एक जैसे तो नहीं होते. क्यों न हम डा. मनीष को एक मौका दें.’’

डा. मनीष अपने किसी मरीज के बारे में डा. कृपा से सलाह करना चाहते थे. डा. कृपा का सेलफोन लगातार व्यस्त आ रहा था, तो उन्होंने डा. कृपा के घर फोन किया.

डा. कृपा घर पर भी नहीं थी. उस की मां ने डा. मनीष से बात की और उन्हें दूसरे दिन घर पर खाने पर बुला लिया. मां ने डा. मनीष से खुल कर बातें कीं. 4-5 साल पहले उन की शादी एक सुंदर लड़की से तय हुई थी, पर 2-3 बार मिलने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि वे उस के साथ किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठा सकते. तब उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

मां की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि डा. मनीष ही डा. कृपा के लिए उपयुक्त वर हैं. अब तक डा. कृपा भी घर लौट चुकी थी. सब ने एकसाथ मिल कर खाना खाया. बाद में मां के बारबार आग्रह करने पर डा. मनीष से बातचीत के लिए तैयार हो गई डा. कृपा. उस ने डा. मनीष से साफसाफ कह दिया कि उस की कुछ शर्तें हैं, जैसे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उस की है, इसलिए वह उन के घर के पास ही घर ले कर रहेंगे. वह डा. मनीष के घर वालों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार थी, लेकिन इमरजैंसी के दौरान वक्तबेवक्त घर से जाना पड़ सकता है, तब उस के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, वगैरह.

डा. मनीष ने उस की सारी शर्तें मान लीं और उन का विवाह हो गया. डा. मनीष जैसे सुलझे हुए व्यक्ति को पा कर कृपा को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी. कुछ साल पहले डा. कृपा अपनेआप को कितनी कोसती थी. लेकिन अब उसे लगने लगा कि उस की जिंदगी में अब कोई अंधेरा नहीं है, बल्कि चारों तरफ उजाला ही उजाला है.

डा. कृपा धीरेधीरे वर्तमान में लौट आई. इस के बाद उस का सामना कई बार जयंत से हुआ. पहली बार होश आने पर जब जयंत ने डा. कृपा को देखा तो चौंकने की बारी उस की थी. कई बार उस ने डा. कृपा से बात करने की कोशिश की, पर डा. कृपा ने एक डाक्टर और मरीज की सीमारेखा से बाहर कोई भी बात करने से मना कर दिया.

डा. कृपा सोचने लगी, आज वह डा. मनीष के साथ कितनी खुश है. जिंदगी में कटु अनुभवों के आधार पर लोगों के बारे में आम राय बना लेना कितनी गलत बात है. कुदरत ने सुख और दुख सब के हिस्से में बराबर मात्रा में दिए हैं. जरूरत है तो दुख में संयम बरतने की और सही समय का इंतजार करने की. किसी की भी जिंदगी में अंधेरा अधिक देर तक नहीं रहता है, उजाला आता ही है.

Interesting Hindi Stories : हिमशैल – क्या सगे भाई विजय और अजय के आपसी रिश्तों में मधुरता आ पाई?

Interesting Hindi Stories :  ‘‘अजय, अब केवल तुम्हारे लिए हम चाचाजी के परिवार को तो छोड़ नहीं सकते. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाएंगे ही.’’

बड़े भाई विजय के पिघलते शीशे से ये शब्द अजय के कानों से होते हुए सीधे दिलोदिमाग तक पहुंच कर सारी कोमल भावनाओं को पत्थर सा जमाते चले गए थे, जो आज कई महीने बाद भी उन के पारिवारिक सौहार्द को पुनर्जीवित करने के प्रयास में शिलाखंड से राह रोके पड़ेथे.

आपसी भावनाओं के सम्मान से ही रिश्तों को जीवित रखा जा सकता है पर जब दूसरे का मान नगण्य और अपना हित ही सर्वोपरि हो जाए तो रिश्तों को बिखरते देर नहीं लगती. अजय ने अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाने के बजाय संयुक्त परिवार से निर्वासन स्वीकार कर लिया था.

धीरेधीरे नेहा की गोदभराई की तिथि नजदीक आती जा रही थी पर दोनों भाइयों के बीच की स्थिति ज्यों की त्यों थी और जब आज सुबह से ही विजय के घर में लाउडस्पीकर पर ढोलक की थापों की आवाज रहरह कर कानों में गूंजने लगी तो अजय की पत्नी आरती न चाहते हुए भी पुरानी यादों में खो सी गई.

वक्त कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब वह अपने पूरे वजूद के साथ सामने आता है. कल तक छोटी सी नेहा उस के आगेपीछे चाचीचाची कह कर भागती रहती थी. उस का कोई काम चाची के बिना पूरा ही नहीं होता था और आज वह एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही है तो एक बार भी उसे अपनी चाची की याद नहीं आई. शायद अब भी उस की मां ने उसे रोक लिया हो पर एक फोन तो कर ही सकती थी…ऊंह, जब उन लोगों को ही उस की याद नहीं आती तो वह क्यों परेशान हो. उस ने सिर झटक कर पुरानी यादों को दूर करना चाहा, पर वे किसी हठी बालक की तरह आसपास ही मंडराती रहीं. उस ने ध्यान हटाने के लिए खुद को व्यस्त रखना चाहा पर वे शरारती बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर उसे फिर अतीत में खींच ले गईं.

तीनों भाइयों, विजय, अजय व कमल में कितना प्यार था. उस के ससुर रायबहादुर पत्नी के न होने की कमी महसूस करते हुए भी उन के द्वारा लगाई फुलवारी को फलताफूलता देख खुशी से भर उठते थे. उच्चपदासीन बेटे, आज्ञाकारी बहुएं व पोतेपोतियों से भरेपूरे परिवार के मुखिया अपने छोटे भाई के परिवार को भी कम मान व प्यार नहीं देते थे. जो उसी शहर में कुछ ही दूरी पर रहते थे.

हर तीजत्योहार पर दोनों परिवार जब एकसाथ मिल कर खुशियां मनाते तो घर की रौनक ही अलग होती थी. उन के खानदानी आपसी प्यार का शहर के लोग उदाहरण दिया करते थे पर न तो समय सदैव एक सा रहता है और न ही एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर होती हैं.

रायबहादुर के छोटे भाई भी उन्हीं की तरह सज्जन थे परंतु कलेक्टर पति के पद के मद में डूबी उन की पत्नी जानेअनजाने अपने बच्चों में भी अहंकार भर बैठी थीं. पिता के पद का दुरुपयोग उन्हें घर में विलासिता व कालिज में यूनियन का नेता तो बना गया पर न तो पढ़ाई में अव्वल बना सका और न ही मानवीय मूल्यों की इज्जत करने वाला संस्कारशील स्वभाव दे सका. जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, व्यर्थ के कामों में समय गंवा कर वे खुद ही अपना रास्ता अवरुद्ध करते गए. बीता समय तो लौट कर आता नहीं, आखिर मन मार कर उन्हें साधारण नौकरियों पर ही संतोष करना पड़ा.

संतान ही मांबाप का सिर गर्व से ऊंचा कराती है. जब कलेक्टर की बीवी अपने जेठ रायबहादुर के परिवार पर निगाह डालतीं तो अपने बच्चों के साधारण भविष्य का एहसास उन्हें मन ही मन कुंठित कर देता पर उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उन जैसे लोग अपने सुख से इतना सुखी नहीं होते जितना कि दूसरे के सुख से दुखी. उन के अंदर के ईर्ष्यालु भाव से अनजान रायबहादुर की दोनों बहुएं आरती व भारती, जो देवरानीजेठानी कम, बहनें ज्यादा लगती थीं, अपनी सास की कमी चचिया सास की निकटता पा कर भूल जाती थीं. यद्यपि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही आरती को चचिया सास का वैमनस्य से भरा व्यवहार उलझन में डालने लगा था. चाचीजी अकसर उस के कामों में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे शर्म्ंिदा करने का बहाना ढूंढ़ती रहती थीं और हर झिड़की के साथ वह यह जरूर कहती थीं, ‘अजय अपनी पसंद की लड़की ब्याह तो लाया है, देखते हैं कितना निभाती है. इतनी अच्छी लड़की बताई थी पर जरा कान नहीं दिया.’

अपनी बात न रखे जाने का मलाल वाणी से स्पष्ट झलकता था. शायद इसीलिए वह चाची की आंख में सदैव कांटा सी खटकती रही. चोट खाए अहं के कारण ही शायद चाची कभी किसी बात के लिए उस की प्रशंसा न कर सकीं. घर में शांति बनाए रखने के लिए व्यर्थ के वादविवाद में न पड़ कर, छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज कर के वह उन के मनमुताबिक ही कर देती.

आरती जितनी झुकती गई उतना ही वे अजय व आरती के खिलाफ जहर घोलते हुए एक कूटनीति के तहत विजय व भारती के प्रति प्रेमप्रदर्शन करती गईं. दूध चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, विष की एक बूंद ही उसे विषैला बनाने के लिए काफी होती है. शुरू में तो भारती व आरती एकदूसरे का सुखदुख बांट लेती थीं पर विजय व भारती का चाची के परिवार के प्रति बढ़ता झुकाव, साथ ही अपने सगे भाई अजय व पिता की उपेक्षा से उन के आपसी रिश्तों में दूरियां आने लगीं.

अच्छाई से अधिक बुराई अपना असर जल्दी दिखाती है. उन के इस पक्षपातपूर्ण रवैए का असर घर के निर्मल वातावरण को भी दूषित करने लगा था. आपसी प्यार का स्थान प्रतिस्पर्धा ने ले लिया. चचिया सास के प्रपंच से अनजान उन की आंखों का तारा बनी भारती को भी अब अजय व आरती की हर बात में स्वार्थ ही नजर आता. उन के भले के लिए कही गई सही बात भी गलत लगती.

कई कलाओं की जानकार आरती के पास जब जेठानी के बच्चे नेहा, नीतू व शिशिर अपने स्कूल की हस्तकला प्रतियोगिता के लिए वस्तुएं बनाना सीख रहे होते तो खुद को उपेक्षित समझ भारती इसे अपना अपमान समझती. अपने बच्चों का उन लोगों के प्रति स्नेह भी उसे आरती का षड्यंत्र ही लगता.

‘अब तो हर चीज बाजार में मिलती है, खरीद कर दे देना. समय क्यों खराब कर रहे हो तुम लोग, उठो यहां से और पढ़ने जाओ,’ कहती हुई भारती बच्चों को स्वयं कुछ करने या सीखने की प्रेरणा से विलग करती जा रही थी.

रायबहादुर घर में आए इस बदलाव को महसूस तो कर रहे थे पर कारण समझने में असमर्थ थे इसलिए केवल मूकदर्शक ही बन कर रह गए थे. इनसान बाहर के दुश्मनों से तो लड़ सकता है किंतु जब घर में ही कोई विभीषण हो तो कोई क्या करे. अपनों से धोखा खाना बेहद सरल है. कहते हैं कि औरत ही घर बनाती है और वही बिगाड़ती भी है. यदि परिवार में एक भी स्त्री गलत मंतव्य की आ जाए तो विनाश अवश्यंभावी है.

उम्र बढ़ने के साथसाथ आरती की चचिया सास के निरंकुश शासन का साम्राज्य भी बढ़ता रहा. इस बात का तकलीफदेह अनुभव तब हुआ जब चाचीजी के सौतेले भाई ने अपने बेटे के विवाह में बहन की नाराजगी के डर से अजय व रायबहादुर को विवाह का आमंत्रणपत्र ही नहीं भेजा. लोगों द्वारा उन के न आने का कारण पूछने पर उन का पैसों का अहंकार प्रचारित कर दिया गया. हालांकि चाचाजी ने इस का विरोध किया था किंतु तेजतर्रार चाची के सामने उन की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई थी.

मृतप्राय रिश्तों के ताबूत में आखिरी कील उन्होंने तब ठोंक दी जब अजय के बेटे अंशुल के जन्मदिन की पार्टी में रायबहादुर द्वारा सानुरोध सपरिवार आमंत्रित होेने के बाद भी केवल चाचाजी थोड़ी देर के लिए आ कर रस्म अदायगी कर गए. केवल लोकलाज के लिए रिश्तों को ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रह गया था. इसीलिए सगी भतीजी नेहा के विवाह आमंत्रण पर अजय ने साफ कह दिया कि यदि चाचाजी के परिवार को बुलाया गया तो हमारा परिवार नहीं जाएगा.

हमेशा की तरह बिना कारण पूछे विजय छूटते ही बोला, ‘अजय, तुम तो लड़ने का बहाना ढूंढ़ते रहते हो, इसीलिए सब तुम से दूर होते जा रहे हैं.’

‘अपने दूर क्यों हो रहे हैं, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि समझना ही नहीं चाहते. मैं न किसी से लड़ने जाता हूं और न अहंकारी हूं. हां, साफ कहने का माद्दा रखता हूं और गलत बात बरदाश्त नहीं करता. मुझे तो भाई आश्चर्य इस बात का है कि जब वे आप को गलत नहीं लगे तो मैं क्यों लग रहा हूं या तो आप को पूरी बातें पता ही नहीं हैं या मेरी इज्जत आप के लिए कोई माने नहीं रखती है. कोई हो या न हो पर पिताजी मेरे साथ हैं और यही मेरे लिए काफी है,’ अजय एक सांस में बोल गया.

‘तुम्हीं लोगों को शिकायतें रहती हैं. पिताजी तो मेरे यहां हर फंक्शन पर आते हैं और चाचाजी व अन्य सब से ठीक से बोलते भी हैं.’

‘संतान का मोह ही उन्हें खींच कर ले जाता है. संतान चाहे कितना भी दुख दे मांबाप का प्यार तो निस्वार्थ होता है. आप ने कभी उन का दर्द महसूस ही नहीं किया. रही बात चाचाजी से पिताजी के बोलने की, तो हम लोग उस स्तर तक असभ्य नहीं हो सकते कि कोई बात करे तो जवाब न दें या अपने घर फंक्शन पर बुला कर खाने तक के लिए न पूछें. क्या आप के लिए चाचाजी, सगे भाई व पिता की खुशी से भी ज्यादा बढ़ कर हैं?’

‘जो भी हो…पर अजय…अब केवल तुम्हारे लिए मैं चाचाजी के पूरे परिवार को तो नहीं छोड़ सकता. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाऊंगा ही,’ विजय जैसे कुछ सुननेसमझने को तैयार ही न था.

‘तो ठीक है, हमें ही छोड़ दीजिए,’ भारी मन से कह अजय सब के बीच से उठ कर चला गया था. पर इस एक पल में अंदर कितना कुछ टूट गया, कौन जान सका. एक क्षण को विजय अपने ही शब्दों की चुभन से आहत हो उठा था. किंतु बंदूक से निकली गोली और मुंह से निकली बोली तो वापस नहीं हो सकती.

उस दिन का व्याप्त सन्नाटा आज तक नहीं टूट पाया था. तभी महरी की आवाज से आरती की तंद्रा भंग हो गई.

‘‘बीबीजी, आप नहीं जाएंगी नेहा बिटिया की गोदभराई पर?’’ आंखों में कुटिल भाव लिए पल्लू से हाथ पोंछती महरी ने पूछा था.

‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब है…जाओ, अपना काम करो,’’ उस की चुगलखोरी की आदत से अच्छी तरह परिचित आरती ने उसे झिड़क दिया. वह मुंह बनाती हुई चली गई. आरती ने जा कर दरवाजा बंद कर लिया. मन की थकान से तन भी क्लांत हो उठा था. वह कुरसी पर अधलेटी सी आंखें बंद कर बैठ गई.

घर में फैले तनाव को भांप कर दोनों बच्चे अंशुल व आकांक्षा स्कूल से आ कर चुपचाप खाना खा कर अपने कमरे में पढ़ने का उपक्रम कर रहे थे. अजय के आने में देर थी. विजय का बेटा शिशिर जब बुलाने आया तो पिताजी न चाहते हुए भी उस के साथ नेहा की गोदभराई में चले गए थे. घर के एकांत में लाउडस्पीकर पर गानों की आवाज से ज्यादा पुरानी यादों की गूंज थीं.

आपसी रिश्तों में ख्ंिचाव व नया मकान बन जाने पर अजय अपने परिवार व पिता के साथ पुश्तैनी मकान, जिस में विजय का परिवार भी रहता था, छोड़ कर पास ही बने अपने नए बंगले में शिफ्ट हो गया था. दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार होते हुए भी न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति उन के संबंधों को पुन: मधुर बनने से रोकती रही. स्थान की दूरी तो इनसान तय कर सकता है पर दिलों के फासले दूर करना इतना आसान नहीं है.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. अन्यमनस्क सी आरती ने उठ कर द्वार खोला तो सगे देवर कमल व उस की पत्नी पूजा को आया देख सुखद आश्चर्य से भर उठीं.

‘‘आइए, अंदर आइए, कमल भैया. पूजा…कब आए लंदन से?’’ अपनों से मिलने की प्रसन्नता आंखें नम कर गई.

‘‘भाभी, बस, अभी 2 घंटे पहले ही पहुंचे हैं. पर यह सब हम क्या सुन रहे हैं. आप लोग सगाई में शरीक नहीं होंगे?’’

अंदर आ कर कमल और पूजा ने आरती को पेर छूते हुए पूछा तो अनायास ही उस की आंखें भर आईं. पूजा को उठा कर गले से लगाती हुई बोली, ‘‘लोग तो अपने देश में रह कर भी आपसी सभ्यता व संस्कार याद नहीं रखते. तुम लोग विदेश जा कर भी भूले नहीं हो.’’

‘‘हां, भाभी, विदेश में सबकुछ मिलता है. हर चीज पैसों से खरीदी जा सकती है पर बड़ों का आशीर्वाद और प्यार बाजार में नहीं बिकता. सच, आप सब की वहां बहुत याद आती है. चलिए, तैयार हो जाइए. ऐसा भी कहीं हो सकता है, घर में शादी है और आप लोग यहां अकेले बैठे हैं,’’ पूजा मनुहार करती सी बोली.

आरती के चेहरे पर कई रंग आ कर चले गए. तभी अजय भी आ गए. बरसों बाद मिले सब एकदूसरे का सुखदुख बांटते रहे. आखिर, कमल के बहुत पूछने पर अजय ने उन को अपने न जाने की वजह बता दी.

‘‘यहां इतना कुछ हो गया और आप लोगों ने हमें कुछ बताया ही नहीं. उन सब की ज्यादतियों का हिसाब तो हम लोग ले ही लेंगे पर अभी तो आप लोग चलिए वरना हम भी नहीं जाएंगे और आप खुद को अकेला न समझें भैया. मैं हूं न आप के साथ,’’ कमल उत्तेजित हो कर बोला.

‘‘जहां इज्जत न हो वहां न जाना ही बेहतर है. यह हमारा अहंकार या जिद नहीं स्वाभिमान है. हद तो यह है कि चाचीजी के भाई सौतेले हो कर भी उन की गलत बात मान लेते हैं और हम अपने सगे भाइयों से सही बात मानने की आशा न रखें. वे मुझे ही गलत समझते हैं. और तो और पिताजी की इच्छा का भी उन के लिए कोई महत्त्व नहीं है,’’ उदासी अजय की आवाज से साफ झलक उठी थी. एक नजर सब पर डाल वह फिर कहने लगे, ‘‘इस निर्णय तक मुझे पहुंचने में तकलीफ तो बहुत हुई पर अब कोई दुख नहीं है. इसी बहाने मुझे अपने और बेगानों की पहचान तो हो गई.’’

‘‘हम लोगों के जाने न जाने से वहां किसी को क्या फर्क पड़ रहा है? एक बार भी किसी को इस परिवार की याद आई?’’ आरती कह ही रही थी कि…उस के कानों में नेहा के ये शब्द पड़े, ‘‘चाचीजी मुझे तो आप की बहुत याद आ रही थी…आना तो मैं बहुत पहले ही चाहती थी पर…बस…सोचती ही रह गई…अब तो जल्द ही मैं यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी. मुझ से कैसी शिकायत?’’ नेहा की आवाज सुन कर सब चौंक कर दरवाजे की तरफदेखने लगे.

सितारों जड़ी गुलाबी साड़ी में सजी नेहा बेहद सुंदर लग रही थी. अचानक उसे यों अपनी छोटी बहन के साथ आया देख सब हतप्रभ रह गए थे.

‘‘पगली…तुझ से कैसी शिकायत. तुम तो हमारी बच्ची ही हो. पर तुम इस समय यहां…घर में तुम्हारी ससुराल वाले आते ही होंगे,’’ आरती ने प्यार से नेहा को अंदर ला कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, चाचीजी, उन को बता कर आई हूं, सब आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं. पापा अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकते तो मैं भी अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकती. जब तक आप लोग नहीं आएंगे, मैं भी गोदभराई पर नहीं बैठूंगी,’’ नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए पास ही खड़े छोटे चचेरे भाईबहन को गले से लगा लिया, ‘‘और तुम भी तैयार हो जाओ. फेरों पर जीजाजी के जूते नहीं चुराओगी?’’

आकांक्षा व अंशुल आशा भरी नजरों से अजय व आरती को देखने लगे जो असमंजस में थे. तभी कमल उत्साहित हो कर बोल उठा, ‘‘ये हुई न बात. अब तो भैया आप को चलना ही होगा.’’

नेहा के प्यार व अपनत्व ने सब के दिलों को झकझोर दिया था. एकाएक नेहा कितनी समझदार व बड़ी लगने लगी थी. उस के आत्मविश्वास व प्यार भरे अधिकार ने एकबारगी सब को अभिभूत कर दिया था, कोई भी नफरत की दीवार अपनों के रिश्तों के प्यार से ज्यादा मजबूत नहीं होती, ढह ही जाती है. जरूरत केवल समय पर एक ईमानदार प्रयास करने की होती है. वर्षों तक हिमाच्छादित हिमखंड के अंदर बहते निर्मल जल के सोते जैसे अचानक राह मिलते ही बह निकलते हैं, यत्नपूर्वक अब तक रोके गए बहते आंसू ही उन के प्यार की अभिव्यक्ति बन गए थे.

‘‘हां, तुम लोगों को आना ही

होगा,’’ तभी दरवाजे से अंदर आते चाचाजी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘जाने- अनजाने तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है. मुझे इस का दुख है. खैर, अब दिल में कुछ न रखो. यह सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है. याद रखो. बंद मुट्ठी ही सवा लाख की होती है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, बहू,’’ चचिया सास पश्चात्ताप भरे स्वर में कह रही थीं, ‘‘नेहा ने मेरी आंखें खोल दी हैं. ईर्ष्या ने मुझे विवेकहीन बना दिया था…कहो तो मैं तुम दोनों के पैर भी…’’

सकपका कर आरती पीछे हट गई, ‘‘अरे, अरे, आप यह क्या कर रही हैं. आप तो हमारी बड़ी हैं.’’

‘‘हां, बड़ी तो हैं पर इन्हें बड़ों के फर्ज नहीं केवल अधिकार ही याद रहे,’’ पहली बार सब ने चाचाजी को गरजते सुना, ‘‘बड़प्पन बनाए रखने के लिए आचरण भी तो मर्यादित होना चाहिए.’’

चाचाजी के और अधिक उग्र क्रोध का लक्ष्य बनने से चाचीजी को बचाते हुए अजय बोला, ‘‘अब छोडि़ए भी, चाचाजी. पश्चात्ताप का एक आंसू ही सारे गिलेशिकवे दूर कर देता है. अपनी गलती का एहसास कर के क्षमाप्रार्थी होना ही सब से बड़ा बड़प्पन है. आप लोगों ने मेरे लिए इतना सोच लिया यही पर्याप्त है.’’

शाम का अंधेरा घिर आया था. कुरसी से जल्दी उठ कर उस ने स्विच आन किया तो कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा. रात्रि के 9 बज रहे थे. बाहर शाम से चीख रहे लाउडस्पीकर शांत हो चुके थे. सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर आने में उसे कुछ ही पल लगे थे. तब तक टेलीविजन देख रहे बच्चों ने दरवाजा खोल दिया था. अजय अंदर आते हुए उसे उनींदा सा देख पूछ रहे थे, ‘‘क्या हुआ…सो रही थीं?’’

‘‘हां…शायद झपकी सी आ गई थी…पर अब जाग गई हूं. आइए, खाना लगाती हूं.’’

रसोई की तरफ बढ़ती आरती सोच रही थी कि अवचेतन ने स्वप्न में उन की आशाओं को मूर्तरूप तो दे दिया था पर यथार्थ कितने कठोर होते हैं…बिलकुल हिमशैल की तरह जिस का केवल एकचौथाई भाग ही नजर आता है, शेष जलमग्न रहता है. जिंदगी स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं जिसे पसंद न आने पर मिटा कर पुन: लिख दें. यह तो अमिट शिलालेख है, जिसे चाहते न चाहते हुए भी हमें पढ़ना ही है.

Hindi Stories Online : आसमान की ओर

Hindi Stories Online :  मेरी यात्रा लगातार जारी है. मैं शायद किसी बस में हूं. मुझे यों प्रतीत हो रहा है. बस के भीतर बैठने की सीटें नहीं हैं. सब लोग नीचे ही बस के तले पर बैठे हैं. कुछ लोग इसी तल पर लेटे हैं. बस से बाहर जाने का कोई भी मार्ग अभी तक मुझे दिखाई नहीं दिया है और न ही किसी और कोे.

बस की दीवारों में छोटेछोटे छेद हैं, जिन में से रोशनी कभीकभी छन कर भीतर आ जाती है. जब रोशनी उन छिद्रों से बस के भीतर आती है तो उस से रोशनी की लंबीलंबी लकीरें बन जाती हैं. मेरे सहित सब लोग उसे पकड़ने की भरसक कोशिश करते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं. कोईर् भी उन को पकड़ नहीं पाया है. बहुत देर से कई लोग इस तरह की कोशिश कर चुके हैं.

बस को कौन चला रहा है, इस बात का भी अभी तक किसी को पता नहीं है. मैं कभीकभार बस के भीतर घूम लेता हूं, लेकिन यह खत्म होने को ही नहीं आती है. शायद यह बहुत लंबी है. मैं थकहार कर फिर वहीं आ बैठता हूं जहां से मैं उठ कर गया था. मेरी तरह और भी बहुत सारे लोग इस बस में घूमघूम कर फिर से वहीं आ बैठते हैं जहां से वे उठ कर जाते हैं.

यह एक बस है और यह कई सदियों से ऐसे ही चल रही है. सच बताऊं तो, पता मुझे भी पूरी तरह से नहीं है. मैं कई बार यह समझने की कोशिश करता हूं कि यह बस है या फिर कुछ और. लेकिन सच का पता नहीं चल रहा है. अजीब किस्म का रहस्य है, जिस का पता नहीं चल रहा है.

कभीकभार कुछ लोग आते हैं और हमारा खून निकाल कर ले जाते हैं. पूछने पर कुछ नहीं बताते. जब कभी गुस्सा कर लें, तो फिर बहुत एहसान से बताते हैं कि वे लोग इस बस को चला रहे हैं. इस बस को चलाने के लिए उन को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इस का तो उन लोगों को ही पता है. पूछें तो कहते हैं कि यह बस उन के अपने खून से चल रही है.

‘‘लेकिन खून तो आप लोग हमारा ले रहे हो?’’ हम में से कोई बोलता है.

‘‘तुम्हारा खून तो हम कभीकभार लेते हैं, बस तो हम अपने खून से ही चलाते हैं.’’

फिर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम तो नुचेसिकुड़े से कमजोर से हैं और वे हट्टेकट्टे, हृष्टपुष्ट जवान. समझ कुछ भी नहीं आता है. हर समय हम लोग परेशान रहते हैं. उन की पूंछें सदैव ऊपर आसमान की तरफ तनी हुई रहती हैं और हमारी जमीन पर लटकी रहती हैं, जैसे कि इन में हड्डी ही न हो. खून लेने आने वाले लोग कुछ देर बाद बदल जाते हैं. बहुत ही एहसान से वे हमारा खून ले कर जाते हैं जैसे कि वे लोग हम पर बहुत दया कर रहे हों. हम भी इस डर से खून दे देते हैं कि कहीं हमारी बस रुक ही न जाए. पसोपेश वाली स्थिति है कि यह बस है या फिर कुछ और, और यह हमें कहां ले जा रही है.

बस चलाने वाले पूछने पर गुस्सा करते हैं, कहते हैं, ‘‘आप लोग चुप रहो, आराम से बैठो, आप को कुछ नहीं पता है. आप, बस, हमें अपना खून दो.’’

कुछ देर बाद खून लेने वाले फिर बदल जाते हैं. यह भी समझ नहीं आता कि पहले वाले लोग कहां गए. पूछने पर कोई जवाब नहीं देते हैं. बारबार पूछने पर कहते हैं, ‘‘वे पहले वाले लोग सारा का सारा खून खुद ही डकार गए हैं, खून वाली सारी टंकी खाली है. अब हम क्या करें, हमें खून चाहिए, वरना बस नहीं चलेगी.’’

हम फिर अपना हाथ खून देने के लिए उन के आगे कर देते हैं. फिर बस चलती रहती है. फिर बस की दीवारों के छेदों से रोशनी की लकीरें अंदर तक पहुंचती हैं. फिर से हम लोग उन को पकड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी के भी हाथ नहीं आतीं. सब थकहार कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. कुछ दिनों पहले उड़ती हुई एक अफवाह आईर् थी कि बस को चलाने वाले कुछ लोग हमारे से लिए खून में से ज्यादा खून तो खुद ही पी जाते हैं और बाकी जो बच जाता है उसे बस की टंकी में डाल देते हैं. और कई बार तो वे लोग बस के पुर्जे तक खा जाते हैं.

यह तो गनीमत है कि बस के जो पुर्जे कम हो जाते हैं, वे कुछ दिनों बाद खुदबखुद ही पनप उठते हैं. बस में सफर करने वाले सब लोग भोलेभाले, ईमानदार और साफ दिल के हैं. कभीकभी वे लोग इस तरह की बातें सुन कर निराश हो जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद वे लोग फिर अपनेआप ही ठीक हो जाते हैं. यही आम आदमी की विशेषता है. वैसे इस के अलावा उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. और फिर जब उन का खून ले लिया जाता है तो वे फिर अपनेआप शांत हो जाते हैं.

बस बहुत समय से ऐसे ही चल रही है. कहां जा रही है, क्यों जा रही है, यह रहस्य है जो किसी को पता नही है. कभीकभार खून लेने वाले ही कह जाते हैं कि –

‘‘बस स्वर्ग जा रही है’’

‘‘परंतु इतनी देर…’’ हम में से कोई कहता है.

‘‘धैर्य रखो, रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है, समय तो लगता ही है,’’ वे कहते हैं.

हम लोग फिर उन की बातें सुन कर चुप हो जाते हैं. हम यह सोचते हैं कि ये चालाक व समझदार लोग हैं, ठीक ही कहते होंगे. देखेंभालें तो न बस का चालक दिखता है, न ही कोई इंजन और न ही कोई टैंक. खून किस टंकी में पड़ता है, कहां जाता है, यह भी पता नहीं चलता है. सभी रहस्यमयी विचारों में उलझे रहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है. कुछ लोग हमारा खून लेने के लिए आए थे. वे लोग नएनए ही लग रहे थे. वे बहुत जोशीले थे. वे बहुत ही चालाकी से बातें कर रहे थे. वे पूरे वातावरण में एक अलग तरह का उत्साह भर रहे थे. वे बहुत प्यार से हमारा खून ले रहे थे. सब ने उन की बातें सुन कर उन को बहुत ही प्यार व सम्मान सहित अपना खून दिया.

वे लोग सब को यह भरोसा दिला रहे थे कि हम लोग बहुत जल्दी स्वर्ग पहुंच जाएंगे. सब उन की बातें सुनसुन कर बहुत खुश हो रहे थे. कितनी देर से दबेकुचले हम लोग भी आखिरकार स्वर्ग को जा रहे हैं, यह सोचसोच कर बहुत खुशी हो रही थी. सब लोग मारे खुशी के उन की जयजयकार कर रहे थे.

कुछ दिनों बाद फिर वे लोग हमारा खून लेने के लिए आए. ये पहले से कुछ जल्दी आ गए थे. उन्होंने फिर हमारे भीतर जोश भरा. हमें फिर सब्जबाग दिखाए. हमारी बांछें खिल उठीं. हम फिर मुसकराए. उन की बातों में बहुत उत्साह व जोश था. उन की बातें सुनसुन कर हमारे भीतर भी जोश आ गया. चारों ओर फिर उन की जयजयकार होने लगी. जोश ही जोश में उन्होंने हमारा खून निकालने वाले टीके निकाल लिए और हमारा खून निकालना शुरू कर दिया.

सब ने बहुत खुशीखुशी अपना खून दिया. परंतु इस बार हमारा खून निकालने वाले टीके पहले से कुछ बड़े थे. लेकिन हमारे भीतर जोश इतना भर गया था कि हमें सब पता होते हुए भी बुरा न लगा. कुछ अजीब तो लगा परंतु ज्यादा बुरा न लगा. थोड़ा सा बुरा लगा लेकिन यह तो होना ही है, ठीक है, अब बस को चलाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही है. सब की आस्था बस के ठीक रहने और उस के स्वर्ग तक पहुंचने की है. बस, इसी जोश और जज्बे के चलते हर कोई अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार बैठा है.

अजीब बात तब हुई जब वे लोग फिर हमारे पास आए और हम से हमारी थोड़ीथोड़ी टांगों की मांग करने लगे. मतलब कि उन को हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े चाहिए थे. सब ने उन की इस मांग पर आपत्ति की. कोई भी उन को अपनी टांगें देने को तैयार नहीं था. उन को हमारी टांगें क्यों चाहिए, इस बात का किसी के पास कोई जवाब न था.

आखिर उन में से एक ने बताया कि वे लोग हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े ले कर बस में लगाएंगे ताकि बस तेजी से स्वर्ग की ओर जा सके. मेरे साथसाथ सब को बहुत बुरा लगा. सब ने फिर विरोध किया. कोई अपनी टांगों के टुकड़े देने को तैयार न था. आखिर वे लोग जोरजबरदस्ती पर उतर आए और हमारी टांगों के छोटेछोट टुकड़े उतार कर ले गए. हमारे सब के कद छोटे हो गए. आहिस्ताआहिस्ता यह परंपरा बन गई.

अब जब वे लोग हमारा खून लेने के लिए आते हैं तो वे हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर ले जाते हैं. पूछने पर कहते कि बस को बहुत सारी टांगों की जरूरत है. उस में लगा रहे हैं. परंतु अजीब बात तो यह है कि हम बस में लगी अपनी टांगें देख नहीं पाते हैं क्योंकि बस में से बाहर जाने को हमारे लिए कोईर् रास्ता ही नहीं है. बस को चलाने वाले कैसे बाहर जाते हैं, हमें इस का भी कोई पता नहीं है.

हमें कभीकभी अपनी अवस्था गुलामों जैसी लगती है. लेकिन जब हम उन खून लेने वाले लोगों की बातें सुनते हैं तो हमें लगता है कि हम लोग ही सबकुछ हैं, लेकिन कई बार लगता है कि हम लोग कुछ भी नहीं है. यह भी बहुत अजीब तरह का एहसास है.

एक और अजीब बात है कि हमारे कद तो छोटे होते जा रहे हैं और हमारा खून लेने वालों के कद बड़े. हम लोग सूखते जा रहे हैं और वे लोग ताकतवर होते जा रहे हैं. हमारी पूंछें तो जमीन पर लटकती जा रही हैं और उन की तनती जा रही हैं.

अजीब बात है कि हम लोगों को लगता है कि हमारी पूंछ में कोई हड्डी ही नहीं. बस चलाने वाले अकसर यह कहते है कि वे लोग बस में हमारी टांगें लगा कर उस को रेलगाड़ी बना देंगे और अगर आप का ऐसा ही सहयोग रहा तो एक दिन रेलगाड़ी को हवाईजहाज बना देंगे. उन की बातों में बहुत ही जोश है और बहुत ही उत्साह. सब लोग उन की ऐसी बातें सुन कर बहुत ही उत्साह में आ जाते हैं. सब को उन की बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये लोग एक न एक दिन उन को स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. हमारी बस को रेलगाड़ी और रेलगाड़ी को एक न एक दिन हवाईजहाज जरूर बना देंगे.

इसी विश्वास के साथ हम लोग हर बार उन की मांग के अनुसार उन को खून देने के लिए अपनेआप को उन के सम्मुख कर देते हैं. अपनी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर दे देते हैं, चाहे आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वाले टीकों के आकार बढ़ते जा रहे हों. हमारे कद छोटे होते जा रहे हैं और उन के बड़े. उन की पूंछें आसमान की ओर तनी जा रही हैं और हमारी जमीन पर लटकती जा रही हैं. लेकिन हम तो यही सोच कर अपना सबकुछ समर्पित करते जा रहे हैं कि एक न एक दिन ये लोग हमें स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. लेकिन हमारे नौजवान उन की आसमान की ओर तनी पूछें देख कर अकसर दांत पीसते नजर आते हैं.   यह भी खूब रही राम अपने कंजूस दोस्त श्याम को कथा सुनाने ले गया. दोनों जब वहां पहुंचे तो देखा कि चारों तरफ पंडाल रंगबिरंगे कपड़ों से सजा हुआ था. फूलमाला पहने कथावाचक लोगों को दानपुण्य की महिमा बता रहे थे. कहने का मतलब पूरी कथा में दानपुण्य की महिमा बताई गई थी. वापस आने के बाद राम ने पूछा, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है दान देने के बारे में?’’

श्याम ने कहा, ‘‘भाई, मैं तो धन्य हो गया आज की कथा सुन कर. सोच रहा हूं, मैं भी दान मांगना शुरू कर दूं.’’ यह सुनते ही राम की बोलती बंद हो गई.

मेरा बेटा 9 महीने का था. दिसंबर का महीना होने की वजह से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. एक दिन रात को करीब 3 बजे मेरे बेटे ने सोते समय पोटी कर दी. दांत निकल रहे थे, इसलिए पोटी पतली होने की वजह से उस के पैर भी गंदे हो गए थे.

पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा होेने की वजह से मैं ने बराबर में दूसरे बिस्तर पर सो रहे अपने पति को उठाया कि थोड़ा पानी गरम कर दें. जिस से मैं बेटे की पोटी साफ कर सकूं और उसे ठंड न लगे. किंतु मेरी बहुत कोशिश के बावजूद मेरे पति उठने को तैयार नहीं हुए. करवट बदल कर दूसरी तरफ मुंह कर के लिहाफ में दुबक कर सो गए.

मजबूर हो कर मैं ने बर्फ जैसे पानी से ही अपने बेटे की पोटी को साफ किया. पानी इतना ठंडा था कि मेरा बेटा बुरी तरह रो रहा था. मेरी भी उंगलियां ठंडे पानी की वजह से गली जा रही थीं. किंतु मेरे पतिदेव अब भी लिहाफ से मुंह ढक कर सो रहे थे. मैं ने जैसेतैसे बेटे को कपड़े से पोंछ कर सुखाया और लिहाफ में गरम कर के सुला दिया.

किंतु मेरी आंखों में नींद बिलकुल नहीं थी. मुझे पति पर गुस्सा आ रहा था कि उन के पानी न गरम करने की वजह से मुझे अपने बेटे को ठंडे पानी से साफ करना पड़ा और उसे परेशानी हुई.

अचानक मैं उठी और वही बर्फ जैसा पानी बालटी में ले आई. फिर गहरी नींद में सो रहे अपने पति के ऊपर उलट दिया. अब गुस्सा होने की बारी उन की थी. उन्होंने उठ कर एक जोर का चांटा मेरे गाल पर जड़ दिया. किंतु, फिर भी मैं उन को गीला करने के बाद अपने लिहाफ में चैन से सो गई.

आज उस घटना को 18 वर्ष बीत चुके, किंतु अब भी उस घटना को याद कर के हम लोग हंस पड़ते हैं.

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