वादे हैं वादों का क्या

हमारे देश के लगभग सारे शहर बड़े अस्तव्यस्त हैं. चंडीगढ़ और गांधीनगर जैसे नए शहर भी 40-50 सालों में बुरी तरह टूटीफूटी सड़कों पर कच्ची दुकानों, कोनों में गुमटियों, मैदानों में झुग्गियों की बस्तियों से भरे पड़े हैं. पुराने शहरों का तो कुछ कहना ही नहीं. स्मार्ट सिटी का जो नारा दिया जाता है वह पंडों द्वारा यज्ञ करो, दान करो और धनधान्य पाओ जैसा होता है. मिलता कुछ नहीं, खर्च बहुत ज्यादा हो जाता है.

दिल्ली में बारबार मास्टर प्लान बनते हैं. अब 2041 की विशाल दिल्ली की योजनाएं बन रही हैं. बड़ीबड़ी बातें हो रही हैं पर हाल यह है कि इतने बड़े शहर में मास्टर प्लान के मसौदे पर अपने विचार देने के लिए सिर्फ 70 लोग आए, बाकी को पता है कि यहां सरकार को सुनना नहीं आता, तोड़ना और रिश्वत लेना ज्यादा आता है. क्या फायदा है 20 साल बाद की सोचने का जब अगले 20 दिन का पता नहीं.

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नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को 21 दिनों में कोरोना पर फतह पा लेने का वादा किया था. क्या हुआ? वैसे भी 2-3 घंटे में 70 लोगों की बातें भारीभरकम दस्तावेजों को ले कर सुनना संभव कहां है.

दिल्ली ही नहीं हर शहर, कसबे की औरतें अब इस बात को तैयार हो गई हैं कि उन्हें बदबूदार सड़कों, तंग गलियों, भयंकर प्रदूषण, खतरनाक ट्रैफिक में जीना है. जिस के पास पैसा है वह अपना अंदरूनी घर ठीक कर रहा है, बाहर की साजसज्जा, साफसफाई की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. वैसे भी मकान अगर आकर्षक लगे तो पड़ोसियों को ईर्ष्या होती है और सरकारी लोगों का रिश्वत का रेट बढ़ जाता है.

मास्टर प्लान में भी सोलर पैनलों का हल्ला कुछ ज्यादा मचाया गया है. लोग लगवा भी लेते हैं पर सस्ते और जल्दी खराब होने वाले सोलर पैनलों से बिजली का वही हिसाब है जैसा वाटर हारवेस्टिंग से पीने के पानी का. ये सरकारी चोंचले बन कर रह जाते हैं और शहरों के मास्टर प्लानों की उपज होते हैं. इन मास्टर प्लानों पर अरबों रुपए खर्च करे जाते हैं पर आखिर में शहर में रहने वालों को कुछ नहीं मिलता.

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हमारे यहां की शहरी जिंदगी एक जंगल की तरह है जहां पेड़पौधों की तरह टेढ़ेसीधे उगे मकान होते हैं और इन में औरतों को हर समय जंगल का सा डर रहता है. ऊपर से गंद और बदबू बोनस में मिलती हैं. दिल्ली का कल्याण पिछले मास्टर प्लानों से कुछ भी नहीं हुआ, अब तो बिलकुल नहीं होगा.

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