आखिर गरीब इतने तकनीक विरोधी क्यों हैं ?

अगर इतिहास उठाकर देखें तो भारत में गरीब लोग हमेशा से बेहद यथास्थिवादी  या दूसरे शब्दों में तकनीकी विरोधी रहे हैं. आजादी के बाद जब हथकरघों की जगह पॉवर लूम लगाए गए तो इसका सबसे ज्यादा विरोध मिलों के उन मजदूरों द्वारा किया गया,जो बेहद अमानवीय परिस्थितियों में शरीर के चकनाचूर हो जाने की हद तक काम किया करते थे,वह भी बहुत कम मजदूरी के लिए.मिलों के मालिक उन्हें समझाते थे कि पॉवर लूम से उन्हीं की आय बढ़ेगी,उन्हें कम मेहनत करनी पड़ेगी,उनका स्वास्थ्य बेहतर रहेगा,उनकी ज्यादा कमाई होगी वगैरह वगैरह. लेकिन ये तमाम फायदे की बातें उन्हें लुभा नहीं पाती थीं.उन दिनों इस तकनीक के विरोध के लिए मजदूरों ने नेहरू की सरकार को जनविरोधी सरकार तक कहा था.

इसी तरह साल 1985 के बाद देश में जब राजीव गांधी ने कम्प्यूटराइजेशन शुरू किया तो पूरे देश में इसका विरोध हुआ.ठीक इसी तरह जैसे इन दिनों लेनदेन की तमाम नई तकनीकों के साथ तालमेल बिठाने के बैंकों के तमाम आग्रहों का आम लोग विरोध करते हैं.सरकार की तमाम चाहत के बावजूद भी अगर देश में कैश का इस्तेमाल कम नहीं हो रहा तो उसके पीछे तकनीक के साथ असहज आम भारतीय मन ही है.नई सड़कों से लेकर बुलेट ट्रेन तक का विरोध भी इसीलिए हो रहा है.सवाल है आखिर देश में हाशिये के लोग इस कदर तकनीक विरोधी क्यों  हैं? खासकर तब,जब तमाम सरकारें,तकनीकी विशेषज्ञ और ओहदेदार लोग यानी अफसरशाह दिन रात यही कह रहे हों कि नई तकनीक गरीब लोगों का जीवन आसान करती है,उन्हें समृद्धि और सफलता की मुख्यधारा में लाती है.

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पांच साल पहले साल 2015 में डिजिटल इंडिया सप्ताह की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इससे उन 9 बड़े फायदों को गिनवाया था, जो डिजिटल तकनीक से आम लोगों को होने वाले थे.इन फायदों में ई-गवर्नेंस से लेकर इंफ़ोर्मेशन फ़ॉर ऑल जैसी चीजें थीं.मगर इन दावों और आश्वासनों के बावजूद गरीब लोग तकनीक से डरे डरे ही रहते हैं ? सवाल है क्या गरीब लोग अपना हित अनहित नहीं समझते ? क्या गरीब लोग अपने ही दुश्मन हैं ? ऐसा नहीं है.वास्तव में तकनीक से इस खौफ का कारण है इसके कटु अनुभव.विशेषज्ञ कुछ भी कहें,राजनेता कुछ भी आश्वासन दें,लेकिन सच्चाई यही है कि तकनीक हमेशा से गरीब विरोधी रही है. ऑक्सफेम की 2017-18 की रिपोर्ट देखिये तो पता चलता है कि जिस डिजिटल तकनीक के बारे में अब भी कहा जा रहा है कि यह गरीबों की कायापलट कर देगी,उसी डिजिटल तकनीक के 2 दशकों के अपने व्योहारिक साम्राज्य में अमीरों और गरीबों के बीच इतिहास की सबसे बड़ी खाईं निर्मित की है.

साल 2017-18 में दुनिया के महज 8 सबसे अमीर लोगों के पास धरती की 50 फीसदी सबसे गरीब लोगों की आबादी के बराबर की सम्पत्ति थी यानी 8 बनाम 3.5 अरब का मामला था.इन 8 लोगों में से 5 लोग इसी डिजिटल तकनीक द्वारा बनाये गए सम्पत्ति के शहंशाह हैं. भारत में भी यही हाल है.हमारे यहां भी डिजिटल तकनीक की बदौलत जहां सबसे रईस एक प्रतिशत आबादी की संपत्ति में सालाना 46 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है,वहीं सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी की संपत्ति सिर्फ 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है .ऑक्सफैम इंटरनैशनल की  रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2019 में देश के टॉप एक प्रतिशत अमीर हर दिन 2200 करोड़ कमाते थे.जबकि सबसे गरीब लोगों के लिए आज भी हर दिन 2 डॉलर या 150 रूपये कमाने भी आसान नहीं हैं. साल 2018 में ऑक्सफैम की ही एक रिपोर्ट से यह सच सामने आया कि भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की 73 प्रतिशत संपत्ति है.

क्या इन तमाम सच्चाइयों के बावजूद हम यह मान सकते हैं कि तकनीक का फायदा सबको एक जैसा मिलता है ? तकनीक यूँ तो सबके लिये एक जैसी होती है लेकिन इसमें एक जटिल किस्म का वर्गीय भेदभाव भी नत्थी होता है. दरअसल एक ही समय में किसी तकनीक के कई रूप चलन में होते हैं.उच्च तकनीक हमेशा प्रीवेलेज्ड क्लास के पास ही होती है और तकनीक के सारे लाभ भी इसी उच्च तकनीक के साथ नत्थी होते हैं.अपनी मेहनत मशक्कत से जब तक आदमी किसी तकनीक के बुनियादी ढाँचे तक पहुँचता है तो पता चलता है कि वह तो वहाँ से बहुत आगे जा चुकी है.साथ ही यह भी मालूम होता है कि तकनीक से होने वाले  फायदे भी आगे पंहुच चुके हैं.उदाहरण के लिए जब आम लोगों की मोबाइल फोन तक पंहुच हुई तब तक आम मोबाइल खिलौना हो चुका था और उससे होने वाले तमाम फायदे स्मार्ट मोबाइल के पास शिफ्ट हो गए थे.

जब कुछ सालों में आम आदमी ने किसी तरह से अपनी पंहुच इस स्मार्ट फोन तक बनाई तो पता चला कि मोबाइल के तमाम फायदे तो 4 जी वाले मोबाइल  नेटवर्क के पास पहुँच गए हैं और 4 जी नेटवर्क साधारण स्मार्ट फोन में नहीं चलता.मतलब तकनीक की चूहा दौड़ में आम आदमी हमेशा पीछे रहता है.एक उदाहरण देखिये कहने को डिजिटल टिकटिंग की सुविधा सबके लिए है लेकिन क्या आपको पता है इसके चलते आम लोगों के लिए इन दिनों आरक्षित सीटें मिलना 1 दशक पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा जटिल हो गया है ? जी हां ऐसा इसलिए है क्योंकि अब रेलवे के पास आम लोगों के लिए आरक्षित टिकटें नाममात्र की बचती हैं.ज्यादातर डिजिटल टिकटें उच्च तकनीकी क्षमताओं के स्वामी यानी फास्ट नेटवर्क वाले पहले ही ले उड़ते हैं.

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मतलब यह कि तकनीक ने आम लोगों की आरक्षित टिकटों में हिस्सेदारी को बढ़ाया नहीं उलटे घटा दिया है.इस कारण तकनीक के इस युग में आम लोगों के लिए रेल यात्रा पहले से कहीं ज्यादा नारकीय हो चुकी है.चूँकि तकनीक का बाहरी आवरण लोकतांत्रिक दिखता है.लगता है यह किसी किस्म का वर्गीय भेद नहीं जानती.इस भ्रम से तकनीक का बौद्धिक तबका कभी उस तरह से विरोध नहीं करता जैसे शोषण के दूसरे अवयवों का होता है.तकनीक से आम आदमी को होने वाले नुकसानों के चलते राजनेता जरूर इसकी मजम्मत करते हैं,लेकिन तब जब वह सत्ता में नहीं होते.सत्ता में आते ही वह भी तकनीक के प्रति वैसी  ही आशक्ति प्रदर्शित करते हैं जैसे पिछली सरकार ने प्रदर्शित किया होता है.इसलिए सरकारें बदलती हैं लेकिन तकनीक की पक्षधरता बनी रहती है और इसकी आड़ में यह गरीबों का अमीरों के लिए शोषण करती रहती है.

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