जानलेवा हमले भी सुनीता कृष्णन को डिगा न सके

बचपन से ही समाजसेवा के कार्यों से जुड़ने वाली सुनीता कृष्णन ने बलात्कार पीड़ित, ट्रैफिकिंग की शिकार महिलाओं, बच्चियों और तस्करों के शिकंजे में फंसे बच्चों को बचाने में अपना जीवन झोंक दिया है. उन पर सत्रह बार जानलेवा हमले हुए, मगर यह हमले सुनीता कृष्णन को उनके मजबूत इरादों से डिगा नहीं पाये. उनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, लाठी-डंडों से हमले हुए, उन पर एसिड फेंकने की कोशिश हुई, जहर देकर मार डालने की कोशिश हुई, लेकिन इन तमाम हादसों ने सुनीता को पीड़ित नहीं, बल्कि योद्धा बना दिया. दर्द और दहशत के कठिन दौर ने उनके जज्बे को और मजबूत कर दिया. सुनीता बीते तीस सालों से समाजसेवा के क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. पंद्रह साल की छोटी सी उम्र में दलित समुदाय को साक्षर बनाने की एक मुहिम के दौरान सुनीता के साथ गांव के आठ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया था. तब उनको बुरी तरह मारा-पीटा गया था. इस हादसे ने उनको और उनके परिवार को बुरी तरह डरा दिया था, मगर डर के आगे जीत है. सुनीता इस हादसे के बाद औरतों पर जुल्म ढाने वाले अपराधियों के खिलाफ और तन कर खड़ी हो गयीं.

सुनीता कृष्णन का जन्म बेंगलुरु के पालक्कड़ में मलयाली माता पिता – राजा कृष्णन और नलिनी कृष्णन के घर हुआ था. उनके पिता सर्वेक्षण विभाग में काम करते थे, जो पूरे देश के लिए नक़्शे बनाते हैं. इस तरह उनके साथ एक जगह से दूसरी जगह यात्रा के दौरान कृष्णन भारत का अधिकांश क्षेत्र देख चुकी हैं. सुनीता कृष्णन बचपन से ही सामाजिक गतिविधियों में संलग्न हो गयी थीं. आठ साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें नृत्य सिखाना शुरू किया. बारह वर्ष की आयु में वह वंचित बच्चों के लिए झुग्गियों में स्कूल चलाने लगीं. पंद्रह वर्ष की आयु में जब वह दलित वर्ग के लोगों के लिए कम्युनिटी नव साक्षरता अभियान से जुड़ कर काम कर रही थीं, तब गांव के आठ दबंगों ने उनका सामूहिक बलात्कार किया, उनकी इतनी बुरी तरह पिटायी की गयी कि उनका एक कान खराब हो गया. इस भयानक घटना के बाद सुनीता की जिन्दगी दहशत और दर्द से भर गयी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी बल्कि एक संस्था बनायी – प्रज्जवला, जो कमजोर वर्ग के प्रति होने वाले अपराधों, महिलाओं और छोटी-छोटी बच्चियों की तस्करी और वेश्यावृत्ति के खिलाफ आवाज बुलन्द करती है.

सुनीता कहती हैं, ‘जब मेरे साथ सामूहिक बलात्कार हुआ तो समाज का जो रवैय्या मैंने अपने प्रति देखा, कि जैसे लोग मुझे देखते थे, सवाल करते थे, मुझे बहुत दुख होता था. किसी ने नहीं पूछा कि उन दबंगों ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? लोग मुझसे ही सवाल करते थे कि मैं वहां क्यों गयी? मेरे माता-पिता ने मुझे आजादी क्यों दी? मुझे एहसास हुआ कि मेरे साथ ऐसा एक बार हुआ, लेकिन कितनी महिलाएं हैं, जो बेची जाती हैं, वेश्यावृत्ति में ढकेली जाती हैं, उनके साथ तो यह हर रोज हो रहा है. वह कैसे सहती होंगी ये दर्द, उन्हें बचाना है.’

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अब तक सैकड़ों बच्चियों और स्त्रियों को सेक्स ट्रैफिकिंग से बचाने वाली सुनीता कृष्णन की कहानी सुनकर बॉलिवुड एक्ट्रेस अनुष्का शर्मा ने ट्वीट किया था – ‘सुनीता कृष्णन ने एक भयावह सच्चाई को, जो एक धर्मयुद्ध की तरह है, समाज के सामने रखा है. यह न सिर्फ चौंकाने वाला, बल्कि बेहद दर्दनाक भी है. वह महिलाओं और छोटी बच्चियों को सेक्स ट्रैफिकिंग से बचाने का अद्भुत कार्य कर रही हैं.’
वर्ष 2016 में देश का चौथा सर्वोच्च सम्मान पदमश्री और मदर टेरेसा अवॉर्ड से सम्मानित सुनीता कृष्णन के साहसिक कार्यों पर उनसे हुई बातचीत के संक्षिप्त अंश –

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आप बचपन से ही समाजसेवा में जुट गयी थीं, जिस में अनेक खतरे और हादसे आपने झेले, क्या कभी आपके परिजनों ने आपके काम पर आपत्ति नहीं की या इस काम को छोड़कर अन्य दिशा में करियर बनाने पर जोर नहीं दिया?

मैं बहुत छोटी उम्र से समाजसेवा के कार्य से जुड़ी हूं. 15 बरस की उम्र में गांव के दलित और पीड़ित लोगों की शिक्षा के एक कार्यक्रम के चलते जब विरोधियों द्वारा मेरा सामूहिक बलात्कार हुआ तो इस घटना ने मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल दिया. उन घटना के बाद जहां मेरे अन्दर एक विरक्ति सी आ गयी, वहीं परिवार भी चुप सा हो गया. सबने मेरी तरफ से चुप्पी ओढ़ ली. वह बड़ा अजीब तरह का व्यवहार था. मुझे समझ में नहीं आता था कि वह मुझे दुत्कार रहे हैं, या मुझे आगे बढ़ने के लिए खामोशी से रास्ता दे रहे हैं. उस समय तो यही लगता था कि वह मुझे दुत्कार रहे हैं, लेकिन अब पच्चीस-तीस साल गुजरने के बाद जब मैं पीछे मुड़ कर बचपन के उन दिनों को याद करती हूं तो लगता है उनकी चुप्पी ने मेरा आगे बढ़ने का रास्ता ही प्रशस्त किया. अगर वह बोलते, रोक-टोक करते तो शायद आज मैं इतना काम नहीं कर पाती.

अपनी संस्था ‘प्रज्जवला’ की स्थापना के विषय में कुछ बताएं. कब और किन उद्देश्यों के तहत आपने इस संस्था का गठन किया?

प्रज्जवला की स्थापना सन् 1996 में वेश्यावृत्ति उन्मूलन के उद्देश्यों के तहत की थी. लेकिन जैसे-जैसे हमारा काम बढ़ता गया, मैंने पाया कि यह तो संगठित अपराध है, जिसे संगठित गिरोहों के जरिए चलाया जाता है. इसमें बच्चियों का अपहरण, उनकी सौदेबाजी, देश के एक कोने से दूसरे कोने में उनको भेजना, देह-व्यापार के लिए मजबूर करना, बड़े चकलाघरों तक पहुंचाना और कई बार यह सब पुलिस की जानकारी में होना या उनकी संलग्नता भी दिखायी दी. फिर तो यह बड़ा आन्दोलन बन गया. हम कई मोर्चों पर लड़ने लगे. वेश्यावृत्ति के चुंगल से न सिर्फ बच्चियों को बचाना हमारा काम रह गया, बल्कि उनके परिजनों को ढूंढना, उन्हें उन तक पहुंचाना, अगर वह उन्हें वापस नहीं लेते तो उनका पुनर्वास कैसे हो, इसको लेकर जूझना, उनकी कानूनी लड़ाइयां ऐसी तमाम बातों को भी देखना पड़ा. कई बार महिलाओं के साथ उनके मासूम बच्चे भी होते हैं. उन्हें भी निकालना पड़ता है. आपको यकीन नहीं होगा ऐसे ही एक अभियान के दौरान हमने तीन साल की मासूम बच्ची को एक चकलाघर से निकाला, जिसे वेश्यावृत्ति के लिए बेचा गया था.

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आप तीन दशकों से ट्रैफिकिंग की शिकार महिलाओं-बच्चियों को बचाने में जुटी हैं. क्या उन तमाम महिलाओं-बच्चियों को उनके घरवाले आसानी से स्वीकार कर लेते हैं?

नहीं, ज्यादातर मामले में ऐसा नहीं होता है. यह बहुत बड़ी विडम्बना है महिलाओं की. कई बार तो परिवार वाले उनको पहचानने से ही इन्कार कर देते हैं. बहुतेरी महिलाओं या बच्चियों को तो खुद उनके परिवार वालों ने ही दलालों के हाथों बेचा होता है, ऐसी हालत में वह उनको हमसे वापस तो ले लेते हैं, मगर कुछ दिन बाद उन्हें किसी दूसरे दलाल को बेच देते हैं. ऐसे में हमें बड़ी सतर्कता बरतनी पड़ती है. नजर रखनी पड़ती है. महिलाओं को भी लगता है कि उनका जीवन खत्म हो चुका है, उन्हें कौन अपनाएगा, तो वह भी इसी दलदल में बनी रहना चाहती हैं. हम अपनी संस्था के जरिए मानव तस्करी और वेश्यावृत्ति की रोकथाम, बचाव, पुनर्वास, पुनर्मिलन और उनके कानूनी पक्ष को लेकर काम करते हैं. इसके अलावा हमारी कोशिश होती है कि अपराधी को सजा तक पहुंचाया जाए. इस सम्बन्ध में जो भी कानूनी प्रक्रिया होती है, हम उस पर लगातार नजर रखते हैं.

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बलात्कार पीड़ित महिला के प्रति समाज के रवैय्ये में बदलाव कैसे आए? वह कैसे डर, दर्द और बदनामी से बाहर निकले?

देखिए, जब तक हम औरत की सुरक्षा के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराते रहेंगे, औरत कभी सुरक्षित नहीं हो सकती. हमें अपने बेटों को, अपने भाइयों को समझाना होगा, अपने बेटे की परवरिश इस तरह से करनी होगी कि वह समझे कि औरत की रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य है. उसके दिल में बचपन से ही औरत के प्रति इज्जत हो, उसको सुरक्षा देने की भावना हो. जब ऐसी सीख के तहत हमारे बेटे, हमारे भाई बड़े होंगे तब समाज बदलेगा और तब औरत सुरक्षित होगी. बेटों को बताना होगा कि अगर कोई औरत किसी घटना की शिकार हुई है तो उसकी जिम्मेदार वह नहीं है, बल्कि वह पुरुष है जिसने उसके साथ ऐसा अपराध किया है. इसके लिए औरत को शर्मिन्दा होने की जरूरत नहीं है, इसके लिए पुरुष को शर्मिन्दा होने और सजा भुगतने की जरूरत है.

आपके इस काम में आपके परिवार, ससुराल और पति का क्या सहयोग और योगदान रहा है? क्या उन्होंने कभी आपके इन दुस्साहसिक कार्यों पर आपत्ति दर्ज की या इसे छोड़ने के लिए कहा?

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मैंने जिस रास्ते पर कदम बढ़ाया, उस रास्ते को कभी छोड़ा नहीं. मेरे काम के बारे में कौन क्या सोचता है, कौन क्या बोलता है, इस तरफ मैंने कभी ध्यान नहीं दिया. बहुत सारे लोग बहुत सारी बातें करते होंगे, लेकिन मैंने बहुत सालों से किसी भी ऑब्जेक्शन की ओर देखना बंद कर दिया है. मैं बहुत भाग्यवान हूं कि मेरे पति राजेश टोचरीवर ने मेरा हर कदम पर साथ दिया. उनका जो सपोर्ट है वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. वे मेरे रीढ़ की हड्डी हैं. मैं उतनी दूर-दृष्टि वाली महिला नहीं हूं, मगर राजेश में बहुत दूर तक देख लेने की क्षमता है और वह मेरा मार्गदर्शन करते हैं, मुझे देखने-समझने की शक्ति देते हैं. मेरे हर कदम पर वह मेरे साथ हैं, मुझे इस बात से बहुत प्राउड फील होता है. आपको यकीन नहीं होगा कि मेरे ऊपर अब तक 17 बार जानलेवा हमले हो चुके हैं. मुझ पर ऑटोरिक्शा में जाते वक्त एसिड फेंका गया, जहर खिलाने की कोशिश हुई, यहां तक कि तलवार से भी हमला हुआ, मगर मैं हर बार बच निकली. मैं मरने से नहीं डरती, जब तक मेरी सांस है मैं पीड़ित लड़कियों को वेश्यालयों से निकालती रहूंगी और मेरे इस काम में मेरे पति का पूरा सहयोग मुझे है.

समाज और परिवार दोनों मोर्चों को कैसे संभालती हैं?

मेरे लिए दोनों एक ही हैं. कोई ड्यूएल लाइफ नहीं है मेरी. मेरा काम ही मेरा घर-परिवार और समाज है. आपको यकीन नहीं होगा कि बीते बीस सालों में तो मैंने अपने काम से एक दिन भी छुट्टी नहीं ली है. संडे क्या होता है मुझे नहीं मालूम. मेरे पति ने कभी मुझसे यह नहीं कहा कि इतवार की छुट्टी है तो आज घर पर रहो या खाना बनाओ. जब वह जल्दी लौट आते हैं तो वह खाना बना लेते हैं, जब मैं जल्दी लौट आती हूं तो मैं बना लेती हूं.

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अपनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों और किताबों के विषय में बताएं?

मैंने एचआईवी, वेश्यावृत्ति, मानव तस्करी समेत अन्य सामाजिक विषयों पर करीब 14 डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनायी हैं. यह फिल्में हिन्दी और तेलुगू भाषा में हैं, जिनमें से कई को अवॉर्ड भी हासिल हुए हैं. इसके अलावा मैंने ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर कुछ किताबें भी लिखी हैं.

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