जब कोरोना ने छीन लिया पति

लेखक व लेखिका -शैलेंद्र सिंह, भारत भूषण श्रीवास्तव, सोमा घोष, नसीम अंसारी कोचर, पारुल भटनागर 

कोरोना महामारी की पहली लहर इतनी भयावह नहीं थी, मगर दूसरी लहर ने देशभर में लाखों परिवारों को पूरी तरह उजाड़ दिया. कई परिवार ऐसे हैं, जहां जवान औरतों ने अपने पति खो दिए हैं. कई महिलाएं 30-40 साल की उम्र की हैं, जिन के छोटे छोटे मासूम बच्चे हैं. कई ऐसी हैं जो आर्थिक रूप से पूरी तरह पति पर निर्भर थीं.

पति की मौत के बाद उन के सामने अपने बच्चों के लालनपालन की समस्या खड़ी हो गई है. आर्थिक जरूरतें और अनिश्चित भविष्य उन्हें डरा रहा है. बच्चों के कारण दूसरी शादी का फैसला भी आसान नहीं है.

गृहशोभा के रिपोर्टर्स की टीम ने ऐसी अनेक महिलाओं के दुखों और परेशानियों को जानने की कोशिश की:

पति के नाम को जिंदा रखना चाहती हैं ऐश्वर्या लखीमपुर खीरी जिले के गोला की रहने वाली ऐश्वर्या पांडेय की शादी 2009 में हुई थी. उन के पति पीयूष बैंक में कार्यरत थे. ऐश्वर्या एमबीए के बाद जौब करने लगी थी, मगर शादी के बाद ससुराल की जिम्मेदारियों और बेटे पार्थ के जन्म के कारण जौब छोड़नी पड़ी.

ऐश्वर्या और पीयूष बेटे पार्थ के भविष्य को ले कर सुनहरे सपने देख रहे थे. मगर काल के क्रूर चक्र को कुछ और ही मंजूर था.

11 मई, 2021 को पीयूष कोरोना की चपेट में आ गए. बैंक स्टाफ और अस्पताल के लोगों ने ऐश्वर्या का साथ दिया. अस्पताल में पीयूष का औक्सीजन लैवल घटने पर उन्हें आईसीयू में शिफ्ट किया गया. 8 जून को उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

मगर उन का कोविड टैस्ट लगातार पौजिटिव ही आ रहा था. 9 जून को उन का पल्स रेट फिर बिगड़ने लगा तो उन्हें फिर से आईसीयू में ले जाया गया, मगर 10 जून की सुबह ऐश्वर्या के जीवन में अंधेरा बन कर आई यानी पीयूष इस दुनिया से हमेशा के लिए दूर चले गए. ऐश्वर्या डिप्रैशन में चली गई.

ऐश्वर्या कहती है, ‘‘मेरे लिए सब से अधिक महत्त्वपूर्ण बेटे को संभालना था. मैं ने यह सोच कर हिम्मत बांधी कि अगर मुझे कुछ हो गया होता तो पीयूष कैसे बेटे को संभाल रहे होते? इस सोच ने मुझे हिम्मत दी. बेटे को ले कर मैं लखनऊ लौटी. उस का स्कूल में एडमिशन कराया. घर वालों ने सहयोग किया. अभी भी मैं पूरी तरह से उस दुख से उबर नहीं पाई हूं.

पहले घर किराए का था अब जिंदगी

दिल्ली में रहने वाली कंचन माथुर अपने पति शिशिर माथुर के साथ बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच चुकी थीं. उम्र के 55 साल पूरे हो गए थे. पति भी 58 के थे. 2 बेटियां थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. घर में अब ये 2 ही बचे थे. शुरू से ही कंचन और उन के पति शिशिर किराए के मकान में रहे. अपना घर नहीं खरीदा. वजह थी 2 बेटियां. शिशिर सोचते थे कि बेटियां शादी कर के अपनेअपने घर चली जाएंगी तो अपना घर ले कर क्या करना.

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कोरोना की दूसरी लहर ने शिशिर को जकड़ लिया. 2 हफ्ते होम क्वारंटाइन रहे. बड़ी बेटी, जो दिल्ली में ही ब्याही थी, उस ने देखभाल के लिए अपने बड़े लड़के को भेज दिया. मगर शिशिर का बुखार नहीं उतर रहा था. उन्हें डायबिटीज भी थी. एक शाम जब शिशिर का औक्सीजन लैवल 86 हो गया तो बेटीदामाद घबरा कर औक्सीजन सिलैंडर लेने के लिए गए, मगर कहीं नहीं मिला और न ही किसी अस्पताल में बैड खाली मिला.

दूसरे दिन नोएडा के एक अस्पताल में जगह मिली. मगर 4 दिन के इलाज के बाद ही शिशिर चल बसे. उन के दोनों फेफड़े संक्रमण के कारण नष्ट हो चुके थे. अस्पताल से ही उन का शव अस्पताल के कर्मचारियों के द्वारा श्मशान ले जाया गया और उन्होंने ही उन का क्रियाकर्म किया. घर के किसी सदस्य ने अंतिम समय में उन्हें नहीं देखा.

गहरा धक्का

इस बात का सब से ज्यादा धक्का उन की पत्नी कंचन को लगा है. पति के अचानक चले जाने से वे बिलकुल बेसहारा हो गई हैं. बड़ी बेटी किसी तरह अपने ससुराल वालों को राजी कर के उन्हें अपने साथ ले तो गई है, मगर अजनबी लोगों के बीच कंचन की वैसी देखभाल नहीं हो पा रही है जैसी उन के पति के रहते अपने घर में होती थी.

उन के दामाद ने उन का किराए का घर खाली कर दिया है. सारा सामान बेच दिया. बैंक में जो पैसा था वह अपने अकाउंट में ट्रांसफर करवा लिया.

घर का सामान बिकते देख कंचन के दिल पर जो गुजरी उस दर्द को कोई और नहीं समझ सकता है. पति की जोड़ी गई 1-1 चीज उन की आंखों के सामने कबाड़ में बेच दी गई. पहले घर किराए का था, मगर घर में रहने वाला अपना था, पर अब उन की पूरी जिंदगी किराए की हो गई है.

फिट इंसान के साथ ऐसा होगा सोचा न था

37 वर्षीय रेशमा राजेश पाटिल और उन के 12 वर्षीय बेटे रितेश राजेश पाटिल की जिंदगी कोरोना ने वीरान कर दी. कोविड की दूसरी लहर में मां ने अपना पति और बेटे ने अपने पिता को खो दिया है.

मुंबई के नजदीक अलीबाग के रहने वाले 42 वर्षीय तंदुरुस्त राजेश पाटिल सरकारी दफ्तर में काम करते थे. कोरोना की दूसरी लहर ने राजेश के बुजुर्ग पिता को कोरोना हो गया. राजेश पिता को रोजाना खाना पहुंचाने अस्पताल जाने लगा. एक दिन उसे भी बुखार हो गया. टैस्ट करवाने पर वह भी कोरोना पौजिटिव पाया गया. राजेश तुरंत होम क्वारंटाइन में चला गया. उस की पत्नी रेशमा ने अपने बेटे को मामा के पास मायके भेज दिया.

रेशमा अपने आंसू पोछती हुई कहती हैं, ‘‘होम क्वारंटाइन में राजेश डाक्टर से पूछ कर दवा ले रहे थे. लेकिन एक दिन उन्हें सांस लेने में ज्यादा दिक्कत होने लगी तो मैं तुरंत उन्हें सिविल अस्पताल ले गई. डाक्टर ने जांच की और बताया कि उन का औक्सीजन लैवल 97 है, इसलिए उन्हें यहां भरती नहीं कर सकते. तब मैं उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई. वहां जांच करने पर पता चला कि उन्हें निमोनिया हो गया है. डाक्टर ने एक इंजैक्शन शुरू करने की बात कही, जो 40 हजार रुपए का था. मैं ने पैसा अरेंज किया और इंजैक्शन ला कर दिए. मगर इंजैक्शन का उन पर कोई असर नहीं हुआ और 20 दिन अस्पताल में रहने के बाद उन का देहांत हो गया.

‘‘अभी रेशमा किराए के मकान में रहती हैं. उन्हें पति की पैंशन नहीं मिल सकती है क्योंकि उन्होंने 2009 में सरकारी नौकरी जौइन की थी. कुछ पैसे उन्हें राज्य सरकार और संस्था की तरफ से जरूर मिले हैं. बाल संगोपन संस्था के अंतर्गत उन्हें राज्य सरकार की तरफ से 50 हजार रुपए की रकम फौर्म भरने के 4 दिन बाद मिल गई. इस के अलावा बाल संगोपन संस्था के द्वारा बेटे की पढ़ाई के लिए प्रति माह 11 सौ रुपए और मुफ्त में थोड़ा राशन मिल जाता है, जिस से गुजारा हो रहा है. लेकिन आगे उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

रेशमा कहती हैं, ‘‘मैं ने पति के औफिस में नौकरी के लिए अर्जी दी है, लेकिन मेरे लायक कोई पद खाली होने पर ही मुझे नौकरी मिलेगी. गांव में पढ़ाई अच्छी न होने की वजह से मुझे बेटे की शिक्षा के लिए अलीबाग में ही रहना है. मेरे ससुराल में मेरे सासससुर भी हैं.’’

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जैसे जिंदगी से रोशनी चली गई

भोपाल के गांधी मैडिकल कालेज में टैक्नीशियन पद पर कार्यरत रवींद्र श्रीवास्तव की पत्नी रश्मि शहर के सरकारी स्कूल बाल विद्या मंदिर में प्राध्यापिका थीं. 18 साल पहले दोनों

की शादी हुई थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि गत 9 मई को कोरोना रश्मि को अपने साथ ले गया.

‘‘मुझे अभी तक यकीन नहीं होता कि रश्मि अब नहीं रही,’’ रवींद्र कहते हैं, ‘‘औफिस से घर लौटता हूं तो लगता है वह मेरा चाय पर इंतजार कर रही है. सच को स्वीकारने की बहुत कोशिश करता हूं, लेकिन उस की याद किसी न किसी बहाने आ ही जाती है.

रश्मि के जाने के बाद रवींद्र का सूनापन अब शायद ही कभी भर पाए. 17 साल का बेटा ऋषि भी अकसर उदास रहता है. रवींद्र पूरी तरह टूट गए हैं, मगर बेटे के लिए जैसेतैसे खुद को संभाले हुए हैं.

परिवार के लिए कमाना है

‘‘27 अप्रैल, 2021 को मेरे पति विकास ने कोविड की दूसरी लहर में अपनी जान गवां दी. मैं और मेरे दोनों बच्चे इस दुनिया में अकेले रह गए…’’ कहती हुई 40 वर्षीय नयना विकास की आवाज भारी हो गई.

नैना के पति विकास छत्तीसगढ़ के जिले के रायगढ़ के अंतर्गत सासवाने गांव में नयना और 2 बच्चों के साथ रहते थे. उन का बिल्डिंग मैटीरियल सप्लाई करने का व्यवसाय था, जिसे अब नयना संभाल रही हैं. मददगार प्रवृत्ति के विकास कोविड-19 के दूसरी लहर के दौरान लोगों की मदद कर रहे थे. उन्हें कुछ हो जाएगा, इस बारे में उन्होंने सोचा नहीं था.

नयना कहती हैं, ‘‘एक दिन उन्हें बुखार आया पर उन्होंने बताया नहीं. बुखार के साथ ही काम करते रहे. वे 100 से 150 लोगों को खाना खिलाते थे, जिसे मैं खुद बनाती थी. जो भी पैसा उन्हें अपने व्यवसाय से मिलता था, उन्हें जरूरतमंदों के लिए खर्च कर देते थे. 14 अप्रैल से उन्हें बुखार था. 19 अप्रैल को राशन बांटने के उद्देश्य से उन्होंने गांव के सरपंच के साथ मीटिंग रखी थी. मीटिंग खत्म होते ही वे घर आ गए. बुखार तेज था. मैं उन्हें सिविल अस्पताल ले गई, जहां टैस्ट करवाने पर रिपोर्ट पौजिटिव आई. मगर वहां अस्पताल में कोई बैड नहीं मिला. फिर मैं ने उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई जहां उन की मौत हो गई.

नयना के 2 बच्चे हैं. बेटी 8वीं कक्षा में और बेटा 5वीं कक्षा में पढ़ रहा है. दुख से उबरने के बाद नयना ने पति का व्यवसाय संभाल लिया है. काम में थोड़ी मुश्किलें भी हैं क्योंकि वे पहले इस काम से जुड़ी नहीं थीं. पति का बैंक खाता बिलकुल खाली है और किसी प्रकार का हैल्थ इंश्योरैंस भी नहीं है. नयना पर काफी कर्ज हो गया है.

पति की मृत्यु के बाद बाल संगोपन संस्था की तरफ से नयना को 50 हजार रुपए तथा राज्य सरकार की तरफ से बच्चों को पढ़ाई का खर्च मिल रहा है. लेकिन आगे नयना को ही परिवार की गाड़ी खींचनी है बिलकुल अकेले.

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बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं आने दूंगी -विना दुब

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में कुहराम मचा रखा है. लाखों परिवारों ने इस में अपने लोगों को खो दिया है. किसी ने बेटा, किसी ने पति, किसी ने पिता तो किसी ने पत्नी, बहन, बेटी या मां को खो दिया है. कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जिन्होंने इस महामारी में अपने मातापिता दोनों को ही खो दिया है.

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की विना दुबे ने कोरोना की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया. उन के दर्द को शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन विना ने हिम्मत नहीं हारी. दर्द से उबर कर जीवन को फिर वापस पटरी पर ले आई हैं और बच्चों का पालनपोषण कर रही हैं.

विना नहीं चाहतीं कि उन के बच्चों को कोई कमी हो या उन की पढ़ाई और कैरियर में किसी प्रकार की रुकावट पैदा हो. विना ने गृहशोभा से अपनी आपबीती साझ की:

जब आप को पता चला कि कोरोना से आप के पति की मृत्यु हो गई है तो उस समय आप को क्या लग रहा था?

मेरे पति अखिल कुमार दुबे मेरे लिए मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक, मेरे सबकुछ थे. लेकिन जब मुझे पता चला कि 6 दिन हौस्पिटल में इलाज करवाने के बाद भी वे नहीं रहे, तो मुझे एक पल को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वे हमें छोड़ कर चले गए हैं. लेकिन हकीकत यही थी कि वे अब नहीं रहे. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि आगे अब जिंदगी कैसे गुजारूंगी, क्या करूंगी, बच्चों का, खुद का जीवनयापन कैसे करूंगी? मेरे कदमों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई हो. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सामने ढेरों परेशानियां थीं. लेकिन बच्चों की खातिर मैं ने पति के जाने के दुख को अपने अंदर छिपा कर उन के लिए आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?

एक तो पति के जाने का गम और दूसरा आर्थिक तंगी. उस समय खुद को कैसे स्ट्रौंग बनाऊं, यही मेरे लिए सब से बड़ा संघर्ष था. 2 बच्चों की परवरिश, ऐजुकेशन की जिम्मेदारी अकेले मेरे कंधों पर आ गई है. भले ही मैं पहले से वर्किंग हूं, लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए सिंगल हैंड से काम नहीं चलता बल्कि मातापिता दोनों का कमाना बहुत जरूरी है. मगर मैं अकेली रह गई हूं. ऐसे में मैं इस संघर्ष के सामने हिम्मत तो नहीं हारूंगी क्योंकि मेरे बच्चों के भविष्य का सवाल जो है.

आप कैसे अपने परिवार का जीवनयापन कर रही हैं?

मैं बीए पास वर्किंग वूमन हूं. मुझे अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरा करना है, इसलिए कोई भी काम करना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगी. जौब के कारण बच्चे उपेक्षित न हों, इस बात का भी मैं पूरा ध्यान रखती हूं. उन के साथ वक्त गुजारती हूं, उन की प्रोब्लम सुनती हूं, पढ़ाई में उन्हें पूरा सहयोग देती हूं क्योंकि अब मैं ही उन की मां और पिता दोनों हूं.

पति के न रहने पर समाज व रिश्तेदारों का क्या योगदान रहा?

समाज का तो कुछ नहीं कह सकती क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जब सभी एकदूसरे से दूरी बनाए हुए थे. सब अपनों को बचाने के लिए, अपनेअपने बारे में सोच रहे थे. लेकिन ऐसे वक्त में मेरे जेठ अमित दुबे और जेठानी रीना दुबे ने तनमनधन हर तरह से सहयोग दिया. समाजसेविका नीतूजी की मैं दिल से आभारी हूं. उन्होंने जो बन पड़ा वह हमारे लिए किया. मेरे भाई मेरी हिम्मत बन कर खड़े हुए हैं, जिस के कारण मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिला है.

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हादसे के बाद जीवन के लिए सीख?

मैं सभी से यही कहना चाहूंगी कि जीवन में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. कब हंसतीखेलती जिंदगी में सन्नाटा छा जाए, किसी को नहीं मालूम. इसलिए परिवार में जब तक संभव हो सके पति पत्नी मिल कर काम करें. चाहे आप ज्यादा शिक्षित न भी हों तो भी जो भी आप में करने की योग्यता है, जैसे कुकिंग, बुनाई आदि तो उसे कर के न सिर्फ खुद सैल्फ डिपेंडैंट बनें, बल्कि उस से होने वाली आय को भविष्य के लिए जोड़ कर रखें ताकि कभी भी मुसीबत आने पर आप अपने परिवार की हिम्मत बन कर कठिन परिस्थितियों से लड़ पाने में सक्षम हों. फुजूलखर्ची छोड़ कर सेविंग करने की आदत को बढ़ाएं, साथ ही कभी भी हिम्मत न हारें.

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