हिंदी फिल्मों में महिलाएं, पिक्चर अभी बाकी क्यों

भारत ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पहला कदम 1913 में रखा था. पहली मूक और ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म बनी- ‘राजा हरिशचंद्र.’ भारतीय सिनेमा ने शुरुआत से ही परदे पर भारतीय नारी को बड़ा निरीह, कोमल, रोनेधोने वाली, अपने दुखों को ले कर ईश्वर के आगे सिर पटकने वाली, भक्तिभजनों में डूबी, पूजापाठ में रमी, सास के हाथों पिटती, अपमानित होती और पति की घरगृहस्थी बच्चों को संभालती औरत के रूप में दिखाया, जबकि उन दिनों भी ऐसी बहुत सी स्त्रियां थीं जो आजादी की लड़ाई में मर्दों से भी 2 कदम आगे बढ़ कर काम कर रही थीं.

रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरतमहल, सावित्रीबाई फुले, कस्तूरबा गांधी, विजया लक्ष्मी पंडित, कमला नेहरू, दुर्गा बाई देशमुख, सुचेता कृपलानी, अरुणा आसफ, सरोजिनी नायडू उन्हीं में शामिल हैं, जिन के संघर्षमय जीवन को, उन की वीरता को रंगीन परदे पर आना चाहिए था ताकि देश उन वीर नारियों के बारे में जान पाता, मगर ऐसा हुआ नहीं.

बेगम हजरतमहल तो 1857 की क्रांति में भाग लेने वाली पहली महिला थीं, जिन्होंने पूरे अवध को अंगरेजों से मुक्त करा लिया था, मगर उन पर भी आज तक कोई फिल्म नहीं बनी. रानी लक्ष्मी बाई पर भी देश की आजादी के 7 दशक बाद जा कर एक फिल्म बनी- ‘मणिकर्णिका.’

बदतर थी औरतों की हालत

यह बात ठीक है कि जब फिल्में बननी शुरू हुईं तो भारत की अधिकांश जनता गरीबी, भुखमरी और प्रताड़ना का शिकार थी. औरतों की हालत बदतर थी. आम औरतों का जीवन चूल्हेचौके, खेतखलिहान में खप जाता था. वे साहूकारों और जमींदारों के जुल्मों का शिकार भी बनती थीं. तब की ज्यादातर पारिवारिक फिल्मों में आम औरत का यही हाल दिखाया गया.

फिल्म ‘मदर इंडिया’ से नई शुरुआत

1957 में ‘मदर इंडिया’ फिल्म में औरत के जज्बे, उस की मेहनत और आक्रोश को दिखाया गया. ‘मदर इंडिया’ भारतीय सिनेमा के शुरुआती और क्लासिक दौर की फिल्म थी. यह उस समय नई राह दिखाने वाली फिल्म थी. इस फिल्म में अभिनेत्री नरगिस ने एक गरीब किसान राधा का किरदार निभाया था. राधा अपने 2 बेटों को बड़ा करने के लिए पूरी दुनिया से लड़ जाती है. गांव वाले उसे न्याय और सत्य की देवी की तरह देखते हैं. यहां तक कि अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए वह अपने विद्रोही बेटे को गोली तक मार देती है.

‘मदर इंडिया’ ने औरत की अबला नारी वाली छवि तोड़ कर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उस के मुखर रूप को दर्शाया. यह फिल्म आज भी देखने वालों के रोंगटे खड़े कर देती है. हालांकि नरगिस को फिल्म में सफल होते दिखाया है पर अंत में यही दिखाया है कि औरतों को कैसे भी वर्ण व्यवस्था को मजबूत रखना होगा और उस के लिए बेटे की जान ले ले तो महान है.

नारी के संघर्ष को दिखाया गया

1993 में स्त्रीप्रधान फिल्म आई थी ‘दामिनी.’ फिल्म ‘दामिनी’ में मुख्य भूमिका मीनाक्षी शेषाद्रि ने निभाई थी. इस फिल्म में ऐसी नारी के संघर्ष को दिखाया गया है, जिस की शादी बेहद संपन्न परिवार में होती है. दामिनी इस फिल्म में अपने देवर को घर की नौकरानी का रेप करते हुए देख लेती है. दामिनी उस महिला को इंसाफ दिलाने और अपराधी को सजा दिलवाने की ठान लेती है.

दामिनी का पूरा परिवार उस के खिलाफ हो जाता है. लेकिन इस के बावजूद वह अपने निश्चय पर टिकी रहती है और घर छोड़ देती है. हालांकि बलात्कार की शिकार महिला की अस्पताल में मौत हो जाती है, मगर एक वकील की मदद से दामिनी अंतत: अपराधी को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने में कामयाब होती है.

औरत की अबला और मासूम छवि को तोड़ने वाली एक अन्य फिल्म थी ‘बैंडिट क्वीन,’ जो 1994 में आई थी. फिल्म एक महिला डकैत फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित है. इस फिल्म में फूलन देवी का किरदार सीमा बिस्वास ने निभाया है. इस फिल्म में सीमा बिस्वास ने काफी बोल्ड सीन दिए. पहली बार परदे पर दर्शकों ने भारतीय औरत को जम कर गालीगलौज करते और बंदूक चलाते देखा.

टुटी और बिखरी महिला की कहानी

‘द डर्टी पिक्चर’ में विद्या बालन ने अपने अस्तित्व के लिए जूझती एक अभिनेत्री सिल्क स्मिता के निजी जीवन और उस के संघर्ष को बखूबी दर्शाया. फिल्मी दुनिया में औरतों की कामयाबी और नाकामयाबी, समझतों और धोखों की कहानी पर आधारित इस फिल्म में विद्या ने सिल्क की फर्श से अर्श तक पहुंचने और फिर टूट कर खत्म हो जाने की कहानी को परदे पर जीया. यह फिल्म स्त्रीप्रधान तो जरूर है, मगर एक हताश, टूटी और बिखरी हुई महिला की कहानी है. अधिकांश महिलाप्रधान फिल्मों में नायिका को अंत में दुखी या हताश ही दिखाया गया है चाहे पूरी फिल्म में वह सफलता के झंडे गाड़ रही हो.

विद्या बालन ने दूसरी फिल्म ‘बौबी जासूस’ में महिला जासूस का किरदार निभाया. एक महिला सिर्फ शादी कर के पति का घर और बच्चे संभालने के बजाय अपने जासूसी के हुनर की बदौलत नाम और पैसा कमाने घर से बाहर निकलती है. महिला जासूस पर केंद्रित शायद यह पहली हिंदी फिल्म थी, मगर कहानी ढीली होने के चलते विद्या की यह फिल्म ज्यादा नहीं चली.

उपेक्षित रही महिलाएं

बौलीवुड में बनी महिलाओं के संघर्षों पर आधारित फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं. अबला का चोला उतार कर, रूढि़वादी परंपराओं को ठुकरा कर और सामाजिक बंधनों को तोड़ कर अपने दम पर कुछ कर गुजरने वाली औरतों की कुछ कहानियां जो हाल के दशक में परदे पर आईं, उन्हें काफी पसंद किया गया और औरतों के लिए ये फिल्में काफी प्रेरणादाई भी रहीं.

महिला रैसलर पर आधारित फिल्म ‘दंगल’ में 2 खिलाडि़यों और उन के पिता के संघर्ष को दिखाया गया. यह फिल्म गीता फोगाट और उन की बहन बबीता फोगाट के जीवन पर आधारित थी. फिल्म में गीता फोगाट और बबीता फोगाट का किरदार ऐक्ट्रैस फातिमा सना शेख और सान्या मल्होत्रा ने निभाया. वहीं आमिर खान उन के पिता और गुरु के रूप में परदे पर नजर आए.

बाधाओं से पार करने की कहानी

फिल्म ‘शेरनी’ 18 जून, 2021 को ओटीटी प्लेटफौर्म अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई. विद्या बालन इस में लीड रोल में हैं. अमित मसुरकर द्वारा निर्देशित यह फिल्म मानवपशु संघर्ष पर आधारित है. इस में विद्या एक वन अधिकारी की भूमिका निभाती हैं जिस के आगे एक आदमखोर शेरनी को पकड़ने की चुनौती है. उस आदमखोर शेरनी ने आसपास के गांवों में कई लोगों को अपना शिकार बनाया. बावजूद इस के विद्या उस को मारने के पक्ष में नहीं बल्कि जिंदा पकड़ने के पक्ष में होती हैं और एक प्लान तैयार करती हैं.

वे कहती हैं कि कोई भी शेरनी आदमखोर नहीं, भूखी होती है. एक वन्य अधिकारी होने के नाते उन का मानना है कि कोई भी जानवर आदमखोर नहीं होता, लेकिन जब भूख सहन नहीं होती तो वह पेट भरने के लिए इंसान पर भी हमला करता है. अगर जानवरों से उन के जंगल न छीने जाएं तो जानवर भी सुरक्षित रहें और इंसान भी.

इस फिल्म में विद्या ने एक महिला वन अधिकारी की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभाई है. वे शिकारियों, गांव की राजनीति, विभागीय राजनीति, पितृसत्ता सोच के साथ लगातार लड़ती हैं. वे अंतर्मुखी हैं, लेकिन कमजोर नहीं हैं. वे कुछकुछ जंगल की शेरनी जैसी हैं. शेरनी को अपना रास्ता मालूम है, लेकिन मनुष्यों द्वारा निर्मित बाधाएं हैं. वहीं, विद्या के सामने सामाजिक बाधाएं हैं. क्या ‘शेरनी’ इन बाधाओं से पार जा पाएगी? इसी के इर्दगिर्द फिल्म की पूरी कहानी घूमती है.

सपनों को पूरा करने की कहानी

कंगना रनौत द्वारा अभिनीत फिल्म ‘थलाइवी’ तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के जीवन पर बनी फिल्म है, जिस में उन के संघर्ष को कंगना ने बखूबी परदे पर उतारा है. यह फिल्म हमें दिवंगत नेता के जीवन के सभी उतारचढ़ावों से रूबरू कराती है और राजनीति में औरत के संघर्ष को दिखाती है.

फिल्म ‘साइना’ बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल के जीवन पर आधारित है, जो 2021 में आई. इस फिल्म में उन का किरदार परिणीति चोपड़ा ने निभाया. साइना नेहवाल पद्मश्री, अर्जुन अवार्ड, राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित होने वाली विश्व रैंकिंग में शीर्ष तक पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं.

वहीं ऐसिड अटैक की पीडि़त महिलाओं की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘छपाक’ 2020 में आई, जिस में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने ऐसिड अटैक विक्टिम लक्ष्मी के संघर्ष को परदे पर दिखाया. 15 साल की लक्ष्मी के चेहरे और शरीर पर एक युवक ने तब तेजाब फेंक दिया जब उस ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया. घटना के बाद अस्पताल में लक्ष्मी लंबे समय तक मृत्यु से जंग लड़ती रही. अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जले हुए भयावह चेहरे के साथ जीवन की जंग और अदालत से न्याय पाने की उस की जंग को दीपिका ने परदे पर बखूबी चित्रित किया. यह कहानी उस स्त्री की कहानी है जिस की हिम्मत और अदालतों में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने का नतीजा यह हुआ कि देश में बाजार में खुले तेजाब बेचने पर बैन लग गया.

2020 में लैफ्टिनैंट गुंजन सक्सेना पर फिल्म बनी- ‘गुंजन सक्सेना.’ गुंजन एक भारतीय वायु सेना औफिसर और पूर्व हैलिकाप्टर पायलट है. सक्सेना को कारगिल गर्ल के नाम से भी जाना जाता है. सक्सेना 1994 में इंडियन एयर फोर्स में शामिल हुई थी और 1999 के कारगिल युद्ध में जाने वाली वह एकमात्र महिला थी. इस फिल्म में जाह्नवी कपूर ने गुंजन सक्सेना का किरदार निभाया है.

फिल्में जिन से प्रेरणा मिलती हैं

5 बार की वर्ल्ड चैंपियन रहीं बौक्सर एम. सी. मैरी कौम के जीवन पर आधारित फिल्म ‘मैरी कौम’ में उन का किरदार प्रियंका चोपड़ा ने निभाया. इस फिल्म के जरीए खेल के क्षेत्र में संघर्ष कर रही महिलाओं की सफलताओं को बखूबी दर्शाया गया. खेल जगत का जानामाना नाम मैरी कौम को कई अवार्ड्स से सम्मानित किया जा चुका है, जिन में ‘पद्मभूषण,’ ‘अर्जुन अवार्ड,’ ‘पद्मश्री’ और ‘खेलरत्न’ शामिल हैं.

बीती एक शताब्दी में महिलाओं के संघर्ष ने समाज को उन के प्रति अपनी सोच बदलने के लिए बाध्य किया है. महिलाओं के बुलंद इरादों ने अनेक क्षेत्रों में अपने झंडे गाड़े हैं, मगर उन की कामयाबी अखबारों के भीतरी पन्नों पर कुछ लाइनों की खबर बन कर सिमट जाती है. उन की सफलताओं को अगर रंगीन परदे पर भी प्रदर्शित किया जाता रहता तो देश की अनेकानेक औरतों को इन फिल्मों से प्रेरणा मिलती.

आज औरतें जब परिवार के साथ फिल्म देखने थिएटर जाती हैं तो उन के सामने रोनेधोने वाली पारिवारिक फिल्में या पुरुषप्रधान मारधाड़ वाली ऐक्शन फिल्में ही ज्यादा होती हैं. कभीकभी बनने वाली स्त्रीप्रधान फिल्मों में कुछ तो चलती हैं, लेकिन ज्यादातर कम बजट, प्रचार की कमी, लचर कहानी आदि के कारण पिट जाती हैं.

महिलाओं के संघर्ष को परदे पर न दिखा कर ज्यादातर फिल्मों में उन को रोमांटिक और पारिवारिक दृश्यों तक सीमित रखने का एक बड़ा कारण यह भी है कि बौलीवुड में महिला फिल्म राइटर, प्रोड्यूसर और निर्देशक न के बराबर हैं. पुरुष लेखकनिर्देशकप्रोड्यूसर पुरुषप्रधान और पितृसत्ता को मजबूती देनी वाली फिल्में ही बनाते हैं और ऐसी फिल्मों में औरत अबला ही बनी रहती है.

क्या है एओर्टिक स्टेनोसिस

डायबिटीज रोगी 77 साल के बिपिन चंद्रा की जिंदगी अब थोड़ी सुकूनभरी है लेकिन साल 2014 में उन की स्थिति काफी तकलीफदेह हो गई थी. किडनी की बीमारी से जूझ रहे बिपिन चंद्रा की बाईपास सर्जरी हो चुकी थी. उम्र के इस पड़ाव में उन का चलनाफिरना या काम करना मुश्किल हो गया था. थोड़ा चलने पर ही वे हांफने लगते. उन की बढ़ती समस्या को देखते हुए डाक्टर से परामर्श लिया गया.

डाक्टर ने उन के कुछ टैस्ट किए जिन में एमएससीटी (इस तकनीक में हृदय और वैसल्स की 3डी इमेज बनाने के लिए एक्सरे बीम तथा लिक्विड डाई का इस्तेमाल किया जाता है) भी शामिल है. टैस्ट के बाद खुलासा हुआ कि वे गंभीररूप से एओर्टिक स्टेनोसिस से पीडि़त थे. बिपिन चंद्रा की सर्जरी हुए 2 साल हो गए हैं और अब वे बेहतरीन जिंदगी जी रहे हैं.

एओर्टिक स्टेनोसिस क्या है?

जब हृदय पंप करता है तो दिल के वौल्व खुल जाते हैं जिस से रक्त आगे जाता है और हृदय की धड़कनों के बीच तुरंत ही वे बंद हो जाते हैं ताकि रक्त पीछे की तरफ वापस न आ सके. एओर्टिक वौल्व रक्त को बाएं लोअर चैंबर (बायां वैंट्रिकल) से एओर्टिक में जाने के निर्देश देते हैं.

एओर्टिक मुख्य रक्तवाहिका है जो बाएं लोअर चैंबर से निकल कर शरीर के बाकी हिस्सों में जाती है. अगर सामान्य प्रवाह में व्यवधान पड़ जाए तो हृदय प्रभावी तरीके से पंप नहीं कर पाता. गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस यानी एएस में एओर्टिक वौल्व ठीक से खुल नहीं पाते.

मेदांता अस्पताल के कार्डियोलौजिस्ट डा. प्रवीण चंद्रा कहते हैं कि गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस की स्थिति में आप के हृदय को शरीर में रक्त पहुंचाने में अधिक मेहनत करनी पड़ती है. समय के साथ इस वजह से दिल कमजोर हो जाता है. यह पूरे शरीर को प्रभावित करता है और इस वजह से सामान्य गतिविधियां करने में दिक्कत होती है. जटिल एएस बहुत गंभीर समस्या है. अगर इस का इलाज न किया जाए तो इस से जिंदगी को खतरा हो सकता है. यह हार्ट फेल्योर व अचानक कार्डिएक मृत्यु का कारण बन सकता है.

लक्षण पहचानें

एओर्टिक स्टेनोसिस के कई मामलों में लक्षण तब तक नजर नहीं आते जब तक रक्त का प्रवाह तेजी से गिरने नहीं लगता. इसलिए यह बीमारी काफी खतरनाक है. हालांकि यह बेहतर रहता है कि बुजुर्गों में सामने आने वाले विशिष्ट लक्षणों पर खासतौर से नजर रखनी चाहिए. ये लक्षण छाती में दर्द, दबाव या जकड़न, सांस लेने में तकलीफ, बेहोशी, कार्य करने में स्तर गिरना, घबराहट या भारीपन महसूस होना और तेज या धीमी दिल की धड़कन होना हैं.

बुजुर्ग लोगों को एओर्टिक स्टेनोसिस का बहुत रिस्क रहता है क्योंकि इस का काफी समय तक शुरुआती लक्षण नहीं दिखता. जब तक लक्षण, जैसे कि छाती में दर्द या तकलीफ, बेहोशी या सांस लेने में तकलीफ, विकसित होने लगते हैं तब तक मरीज की जीने की उम्र सीमित हो जाती है. ऐसी स्थिति में इस का इलाज सिर्फ वौल्व का रिप्लेसमैंट करना ही बचता है. हाल ही में विकसित ट्रांसकैथेटर एओर्टिक वौल्व रिप्लेसमैंट (टीएवीआर) तकनीक की मदद से गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस रोगियों का इलाज प्रभावी तरीके से किया जा सकता है जिन की सर्जरी करने में बहुत ज्यादा जोखिम होता है.

एओर्टिक वौल्व रिप्लेसमैंट

टीएवीआर से उन एओर्टिक स्टेनोसिस रोगियों को बहुत लाभ मिलेगा जिन्हें ओपन हार्ट सर्जरी करने के लिए अनफिट माना गया है. इस उपचार की सलाह उन मरीजों को दी जाती है जिन का औपरेशन रिस्कभरा होता है. इस से उन के जीने और कार्यक्षमता में बहुत सुधार होता है.

गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस में जान जाने का खतरा रहता है और अधिकतर मामलों में सर्जरी की ही जरूरत पड़ती है. कुछ सालों तक इस बीमारी का इलाज ओपन हार्ट सर्जरी ही थी. लेकिन टीएवीआर के आने से अब काफी बदलाव हो रहे हैं. टीएवीआर मिनिमल इंवेसिव सर्जिकल रिप्लेसमैंट प्रक्रिया है जो गंभीर रूप से पीडि़त एओर्टिक स्टेनोसिस रोगियों और ओपन हार्ट सर्जरी के लिए रिस्की माने जाने वाले रोगियों के लिए उपलब्ध है. इस के अलावा जो रोगी कई तरह की बीमारियों से घिरे हुए हैं, उन के लिए भी यह काफी प्रभावी और सुरक्षित प्रक्रिया है.

टीएवीआर ने दी नई जिंदगी

देहरादून के 53 साल के संजीव कुमार का वजन 140 किलो था और वे हाइपरटैंशन व डायबिटीज से पीडि़त थे. इस के साथ उन्हें अनस्टेबल एंजाइना की समस्या थी जिस में रोगी को अचानक छाती में दर्द होता है और अकसर यह दर्द आराम करते समय महसूस होता है.

संजीव को कई और बीमारियां जैसे कि नौन क्रीटिकल क्रोनोरी आर्टरी बीमारी (सीएडी), औबस्ट्रैक्टिव स्लीप अपनिया (सोते समय सांस लेने में तकलीफ), उच्च रक्तचाप, क्रोनिक वीनस इनसफिशिएंसी (बाएं पैर), ग्रेड 2 फैटी लीवर (कमजोर लीवर), हर्निया और गंभीर एलवी डायफंक्शन के साथ खराब इंजैक्शन फ्रैक्शन 25 फीसदी (हृदय के पंपिग करने की कार्यक्षमता) थीं.

संजीव की स्थिति दिनबदिन गंभीर होती जा रही थी और उन का पल्स रेट 98 प्रति मिनट (सामान्य से काफी ज्यादा) था. सीटी स्कैन और अन्य परीक्षणों के बाद खुलासा हुआ कि वे गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस से भी पीडि़त थे.

इतनी बीमारियों के कारण डाक्टर ने मोेटापे से ग्रस्त संजीव का इलाज ट्रांसकैथेटर एओर्टिक वौल्व रिप्लेसमैंट (टीएवीआर) से किया. हालांकि जब फरवरी 2016 में उन पर यह प्रक्रिया अपनाई गई, तब तक वे 25-30 किलो वजन कम कर चुके थे और जिंदगी को ले कर उन का नजरिया काफी सकारात्मक हो गया था.

समय पर चैकअप जरूरी

गौरतलब है कि एएस की बीमारी आमतौर पर जब तक गंभीर रूप नहीं ले लेती तब तक इस बीमारी के लक्षणों का पता नहीं चलता. इसलिए नियमित चैकअप कराने की सलाह दी जाती है. उम्र बढ़ने के साथ एएस के मामले भी बढ़ते जाते हैं. इसलिए बुजुर्ग रोगियों को वौल्व फंक्शन टैस्ट के बारे में डाक्टर से पूछना चाहिए और गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस के इलाज की आधुनिक तकनीकों की जानकारी भी लेते रहना चाहिए.

क्या आप जानते हैं

भारत में लगभग 15 लाख लोग गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस से पीडि़त हैं. उन में से 4.5 लाख रोगी सर्जरी के लिए अनफिट हैं.

अगर समय पर एओर्टिक वौल्व रिप्लेस न किए जाएं तो पाया गया है कि 50 फीसदी एओर्टिक स्टेनोसिस रोगी दिल का दौरा पड़ने पर 2 साल और छाती में दर्द के साथ 5 साल तक ही जीवित रह पाते हैं.

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