पूर्णाहुति: जया का क्या था फैसला

मैं बैठक में चाय ले कर पहुंची तो देखा, जया दीदी रो रही हैं और लता दीदी उन्हें चुप भी नहीं करा रहीं. कुछ क्षणों तक तो चुप्पी ही साधे रही, फिर पूछा, ‘‘जया दीदी को क्या हुआ, लता दीदी? क्या हुआ इन्हें?’’

आंसुओं को रूमाल से पोंछ, जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए जया दीदी बोलीं, ‘‘हुआ तो कुछ भी नहीं… लता ने प्यार से मन को छू दिया तो मैं रो दी, माफ करना. तेरे यहां के आत्मीय माहौल में ले चलने के लिए लता से मैं ने ही कहा था, पर कभीकभी ज्यादा प्यार भी रास नहीं आता. जैसे ही लता ने अभय का नाम लिया कि मैं…’’ वे फिर रोने लगी थीं.

‘अभय को क्या हुआ?’ मैं ने अब लता दीदी की तरफ देखते हुए आंखोंआंखों में ही पूछा. इस सब से बेखबर अपने को संयत करने की कोशिश में जया दीदी स्नानघर की तरफ बढ़ गई थीं. मुंहहाथ धो कर उन्होंने कोशिश तो अवश्य की थी कि वे सहज लगने लगें या हो भी जाएं, पर लगता था कि अभी फिर से रो पड़ेंगी.

‘‘मुझे समझ नहीं आता कि कहूं या न कहूं, पर छिपाऊं भी क्या? बात यह है कि अभय अपनी पत्नी सहित मुझ से अलग होना चाह रहा है,’’ भर्राई आवाज में उन्होंने कहा.

‘‘इस में रोने की क्या बात है, जया दीदी, यह तो एक दिन होना ही था,’’ मैं ने कहा.

‘‘यही तो मैं इसे समझा रही थी कि हम दोनों तो इस बात को बहुत दिनों से सूंघ रही थीं,’’ लता दीदी कह रही थीं.

‘‘वह कैसे? तुम लोगों से अचला और अभय बहुत आत्मीयता से मिलते हैं, मेरी सहेलियों में तुम दोनों का घर आना तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है,’’ जया दीदी ने कहा.

‘‘हमारा घर आना क्यों बुरा लगेगा उन्हें. समस्या तो आप हैं, हम नहीं. और फिर बाहर वालों के सामने तो अपनी भलमनसाहत का सिक्का जमाना ही होता है. वाहवाही जो मिलती है उन से. कितनी सुंदर, सुघड़, मेहमाननवाज, सलीकेदार है आप की बहू. भई, मुसीबत तो घर के लोग होते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जया, यह समय सम्मिलित कुटुंब का नहीं रहा है. चाहे परिवार के नाम पर एक मां ही क्यों न हो. और फिर तू घबराती क्यों है? एक प्राध्यापिका की आय कम नहीं होती. 5 साल बाद रिटायर होती भी है तो पैंशन तो मिलेगी ही. एक नौकरानी रख लेना,’’ लता दीदी उन्हें समझा रही थीं.

‘‘जया दीदी, 2-3 साल बाद जो होना है वह अगर अभी हो जाता है तो यह आप के हित में ही है. जब से अभय की शादी हुई है, मैं तो दिनबदिन आप को कमजोर होते ही देख रही हूं. मुझे लगता है, आप भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती हैं. आज की सासें बहुओं को कुछ कह तो सकती नहीं, अपनेआप में ही तनाव झेलती और घुलती रहती हैं. मैं तो सोचती हूं, उन का आप से अलग हो जाना आप के लिए अच्छा ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘फिर जया, अब वह जमाना नहीं है कि तुम बेटे से कहो कि बेटा, मैं ने तुम्हें इसलिए पालापोसा था कि बुढ़ापे में तुम मेरी लाठी बन सको. हम लोगों को बच्चों से किसी भी प्रकार की अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए…’’

‘‘कुछ अपेक्षा नहीं है मेरी,’’ लता की बात को बीच में काटती हुई जया दीदी बोलीं, ‘‘मैं तो केवल यह चाहती हूं कि वे मेरे सामने रहें. साथ रहने के लिए तो मैं ने आगरा विश्वविद्यालय से मिल रही  ‘रीडरशिप’ अस्वीकार कर दी थी.’’

‘‘जो हुआ सो हुआ, अब तुम अपने को उन से अलग हो कर अकेले जिंदगी जीने के लिए तैयार करो. आजकल की मांओं को बेटों के मोह से मुक्त हो कर अलग रहने के लिए तैयार रहना चाहिए. मैं जानती हूं, कहने और करने में बहुत अंतर होता है पर मानसिक तैयारी तो होनी ही चाहिए. अभ्यास से अकेलापन खलता नहीं, विशेषकर हम लोगों को, जिन को पढ़नेलिखने की आदत है. फिर तू तो एक तरह से अकेली ही रही है. अभय के साथ तेरे भीतर का अकेलापन कटा हो, यह तो मैं नहीं मान सकती. हां, दायित्व जरूर था वह तुझ पर.’’

‘‘दायित्व ही सही, व्यस्त तो रखा उस ने मुझे. एक भरीपूरी दिनचर्या तो रही, किसी को मेरी जरूरत है, यह एहसास तो रहा. नहीं लता, यह अकेलापन मुझ से बरदाश्त नहीं होगा.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा, जया. चाय ठंडी न कर. रोने का मन है तो बेशक रो ले.’’ लता दीदी के ऐसा कहते ही जया हंसने लगीं, ‘‘इसीलिए तो यहां आई थी कि तुम लोगों में बैठ कर कुछ सही सोच पाऊंगी, अपने में कुछ विश्वास प्राप्त कर सकूंगी.’’

जया दीदी मन से उखड़ी हुई थीं, इसीलिए लता दीदी और मेरे प्रयासों के बावजूद अन्यमनस्क वे एकाएक खड़ी हो गईं और लता दीदी से कहने लगीं, ‘‘चल, अब और न बैठा जाएगा आज.’’

मुझे भी लगा, उन्हें अपने को समेटने के लिए बिलकुल अकेलेपन की जरूरत है, जिस का सामना करने से वे बच रही हैं. मैं ने कहा, ‘‘जया दीदी, मेरे पति तो आजकल बाहर हैं, इसलिए जब चाहे, आइए मेरे पास. मुझे आप का आना अच्छा ही लगेगा. इच्छा हो तो 2-4 दिन मेरे पास ही रह जाइए. मैं फिर दोहरा रही हूं, अभय और अचला के चले जाने पर आप अपने ढंग से रह सकेंगी. हमें भी आप के घर आने पर ज्यादा अपनापन लगेगा. अभी तो लेदे कर आप का शयनकक्ष ही अपना रह गया है.’’

जया दीदी लता दीदी के साथ चली गई थीं, पर मैं अभी भी उन्हीं में खोई हुई थी. अभय बड़ा हो गया है, यह उसी दिन महसूस हुआ. यों समझदार तो वह मुझे पहले से ही लगता था. उन दिनों हिंदी विषय पढ़ने के लिए वह अकसर मेरे पास आता था.

एक दिन वह बोला, ‘‘मौसी, ऐसा कुछ बताइए कि…’’

‘‘एक रात में ही तू पढ़ कर पास हो जाए…है न?’’ उस की बात पूरी करते हुए मैं ने कहा था, ‘‘पर बेटे, थोड़े दिन अपने पाठ्यक्रम को एक बार पूरी तरह से पढ़ तो ले.’’

उस की अभिव्यक्ति में कहीं कोई कमी नहीं थी. साहित्य पर उस की पूरी पकड़ थी. कठिनाई आती थी भाषा के संदर्भ में.

‘‘मौसी, इस बार पास नहीं हुआ तो, ‘औनर्स’ की डिगरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा भरोसा है कि तुम हिंदी पास ही नहीं करोगे, अच्छे अंक भी पाओगे.’’

‘‘ओह, धन्यवाद मौसी.’’

‘आषाढ़ का एक दिन’ नामक नाटक पढ़ने में उसे कठिनाई हो रही थी. मुझे याद है, इसलिए मैं ने उसे उन्हीं दिनों ‘संभव’ द्वारा हो रहे इसी नाटक को देखने के लिए भेजा था. परिणाम यह हुआ था कि ‘विलोम’ के चरित्र को उस ने परीक्षा में बड़े खूबसूरत ढंग से लिखा था. जीवन की उसे समझ थी.

‘मल्लिका’ की वेदना वह उस उम्र में भी महसूस कर सका था. फिर अपनी मां की वेदना को? क्या हुआ है अभय को? पर एकसाथ तनावग्रस्त रहने से तो अच्छे, मधुर संबंधों के साथ लगाव रखते हुए अलग रहना कहीं ज्यादा बेहतर है.

लंबी चुप्पी तो नहीं रही जया दीदी के साथ, पर मिलना भी नहीं हुआ. एक दिन फोन आया तो पूछ ही बैठी, ‘‘दीदी, अभय और अचला ने यह निर्णय क्यों लिया? कोई तात्कालिक कारण तो रहा ही होगा?’’

‘‘हां,’’ उन्होंने बताया, ‘‘तू जानती ही है कि नवरात्रों के अंतिम 2 दिन मेरा उपवास रहता है. अचला सुबह 9 बजे चली जाती थी. 10.50 पर मेरी भी कक्षा थी. सुबह मैं ने दोनों को चाय दे ही दी थी, अष्टमी की वजह से नाश्ते के लिए अंडा नहीं रखा था. बस, इसी पर चिल्ला पड़ी, ‘मैं सुबहसुबह पूरीहलवा नहीं खा सकती.’

‘‘मैं ने इतना कहा, ‘बेटे, आज अंडा, औमलेट या जो चाहिए, बाहर हीटर पर बना लो.’

‘‘पर वह तो पैर पटकती हुई चली गई. उसी शाम दफ्तर से वह मायके चली गई और अभय ने मुझे सूचित किया कि वह अलग घर का इंतजाम कर रहा है.

‘‘मेरे पूछने पर कि मेरा दोष क्या है? वह बोला, ‘मां, आप पर बहुत ज्यादा बोझ है. यहां रहते अचला कभी अपना दायित्व नहीं समझेगी और नासमझ ही रह जाएगी. व्यर्थ में आप को भी परेशानी होती है.’

‘‘नया मकान लेने के बाद अभय के साथ अचला भी आई थी. बहुत प्यार से मिली, ‘मां, हम क्या करें, हमें यहां अजीब तनाव सा लगता था. कभी देर रात तक अभय और हमारे मित्र आते तो लगता, आप परेशान हो रही हैं. आप कुछ कहती तो नहीं थीं, पर हमें अपराधबोध होता था. कुछ घुटाघुटा सा लगता था. यहां देखने में कुछ भी गलत न होने पर लगता था, जैसे सबकुछ ही गलत है.’

‘‘बस, ऐसे चले गए वे. अभय अभी हर शाम आता है, पर कब तक आएगा?’’ जया दीदी शायद रो रही थीं क्योंकि एकाएक चुप्पी के बाद ‘अच्छा’ कहा और रिसीवर रख दिया.

लगभग 15 वर्ष पहले कालेज में एक मेला लगा था. जया दीदी छुट्टी पर थीं. हम लोगों के जोर देने पर अभय को घुमाने के लिए मेले में ले आई थीं.

मां से पैसे ले कर वह कोई खेल खेलने चला गया. भोजन के बाद जया दीदी ने उसे वापस चलने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी नहीं, अभी और खेलेंगे.’

खेलने के बाद मां को ढूंढ़ते हुए वह हमारे स्टाल पर आया तो हम चाय पी रहे थे. जया दीदी ने फिर कहा था, ‘अब तो चलो अभय, दूर जाना है, बस भी न जाने कितनी देर में मिले.’

तब वह गरदन ऊंची करते हुए बोला, ‘डरती क्यों हो मां. मैं हूं न साथ.’ लेकिन मेला उठने से पहले ही मां को बिना ठिकाने पर पहुंचाए उस ने अपना अलग ठिकाना कर लिया था.

मैं इसी में खोई हुई थी कि फोन की घंटी से तंद्रा भंग हुई, ‘‘अरे आप, सच, लंबी उम्र है आप की. आप ही को याद कर रही थी. कैसी हैं आप? क्या कहा, अभी आप के पास आना होगा? लता दीदी भी आ रही हैं? जैसा आदेश, आती हूं,’’ कहते हुए मैं ने फोन बंद कर दिया था.

जया दीदी का उल्लासयुक्त स्वर बहुत दिनों बाद सुना था. नया फ्लैट दिखाना चाह रही थीं. हमारे परामर्श के बाद ही लेंगी, ऐसा सोच रही थीं. फ्लैट बहुत अच्छा था. लेने का निर्णय भी उसी समय कर लिया था उन्होंने और ‘बयाना’ भी हमारे सामने ही दे दिया था.

बस, अब तो इंतजार था उन के गृहप्रवेश का. एक दिन शाम को उन का फोन आया कि वे हवन नहीं करवा रहीं. कुछ लोगों को सूचित करने के लिए उन्होंने कहा था. वह सब तो किया, पर लगा कि जया दीदी के पास जाना चाहिए.

लता दीदी को फोन कर के उन के फ्लैट पर पहुंची.

‘‘वाह, यहां तो जो आ जाए उस का जाने का मन ही न हो,’’ इस वाक्य से जया दीदी खुश होने के बदले आहत ही हुईं, ‘‘जाने की क्या बात, यहां तो कोई आना ही नहीं चाहता. अभय, अचला ने हवन पर आने से इनकार कर दिया है. सोचा, वही नहीं आ रहे तो फिर काहे का हवन. अब तो लगने लगा है, पूर्णाहुति की बेला में ही आएगा वह यहां. पर प्रश्न है, क्या उस समय मैं उसे देख पाऊंगी?’’

बैठक के द्वार पर मैं स्तब्ध सी खड़ी रह गई थी. क्या कहती, निराश, निढाल, थकी मां को.

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