आधी सी रेखा: फैंस के दिलों पर राज करने वाली अभिनेत्री की अधूरी प्रेम कहानी

रेखा भले ही बेमन से फिल्मी दुनिया में आई थीं, लेकिन जब उन्होंने अपनी ऐक्टिंग का जादू दिखाया तो वह दर्शकों के दिल में बस गईं. दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली इस हसीना का नाम कई अभिनेताओं के साथ जुड़ा, लेकिन बदकिस्मती से दिल का कोना खाली ही रह गया. इस गम को दबा कर हमेशा मुसकान बिखेरने वाली यही है आधीअधूरी रेखा, जो…

निर्देशक और अपने दौर के नामी व कामयाब लेखक एस. अली राजा की साल 1974 में प्रदर्शित फिल्म ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ हालांकि एक चलताऊ मसाला फिल्म थी, लेकिन यह फिल्म बौक्स औफिस पर जबरदस्त हिट रही थी. इस फिल्म में वह सब कुछ था, जो किसी भी फिल्म को हिट करवाने के लिए जरूरी होता है. मसलन रहस्य, रोमांच, प्यार, सैक्स, मारधाड़, डाकू, तवायफ, पुलिस और ठाकुर साहब वगैरह. लेकिन हकीकत में यह चली अभिनेत्री रेखा की वजह से थी, जिन्होंने 70 के दशक के चलन को धता बताते हुए एक निहायत ही उत्तेजक दृश्य दिया था.

इस सीन को देखने के लिए उस दौर के बड़ेबूढ़े तो बड़ेबूढ़े, स्कूली बच्चे और कालेज के छात्र तक पगला उठे थे. जिन्होंने ‘प्राण जाए पर…’ को दसियों बार देखा था और हर बार लाइन में लग कर टिकट लिया था. तब नीचे का टिकट महज 35 पैसे का आता था, लेकिन यह रकम भी उस दौर में कम नहीं होती थी.

कम इस लिहाज से कही जा सकती है कि वे तालाब से नहा कर निकलती गदराई ऐक्ट्रैस रेखा को एकदम नग्न देख पा रहे थे. जिन्होंने यह फिल्म देखी होगी, वे अब बूढ़े हो गए हैं लेकिन शायद ही याद्दाश्त जाने तक वे तालाब से नहा कर निकलती रेखा का नग्न बदन भूल पाए होंगे.

‘प्राण जाए पर…’ के एक और आकर्षण नायक सुनील दत्त थे, जो तब तक 1957 की ‘मदर इंडिया’ के बाद से कोई दरजन भर हिट फिल्में दे चुके थे. इस के पहले दर्शकों ने रेखा को उन की पहली फिल्म ‘सावन भादों’ में भी देखा और सराहा था, जो एक देहाती अल्हड़ लड़की चंदा की भूमिका में थीं, लेकिन तब फिल्मी पंडितों ने रेखा के चलने में शक जताया था, क्योंकि वे सांवली थीं, मोटी भी थीं और उन का चेहरामोहरा तब लगने वालों को हिंदी फिल्मों जैसा नहीं लगा था.

रेखा ने एकएक कर सारी आशंकाएं न केवल ध्वस्त कर दीं, बल्कि अपनी जबरदस्त अभिनय प्रतिभा का ऐसा लोहा मनवाया कि आज भी उन की कई फिल्मों की मिसाल दी जाती है. साल 1970 में प्रदर्शित उन की पहली फिल्म ‘सावन भादों’ का हिट होना किसी अजूबे से कम नहीं था, क्योंकि इस में अधिकांश कलाकार चाहे फिर वे इफ्तिखार जैसे मंझे और सधे चरित्र अभिनेता ही क्यों न हों, अनजाने से थे.

रेखा के साथ साथ खुद नवीन निश्चल की भी यह पहली फिल्म थी, लेकिन दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया. बाद में नवीन यदाकदा ही सफल हुए, पर रेखा ने फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा. कुछ दिनों बाद एक्टिंग के साथ साथ लोग उन की सुंदरता के भी कायल हो गए, जो आज तक हैं.

त्रासद बचपन

रेखा के नाम का सिक्का चल निकला तो लोग उन की व्यक्तिगत जिंदगी टटोलने उधेड़ने लगे, जो उन के सेलिब्रेटी और कामयाब होने की एक और निशानी थी. जब धीरेधीरे कर उन की जिंदगी की कहानी उजागर होने लगी तो लोगों की दिलचस्पी उन में और बढ़ने लगी. क्योंकि अब तक उन के इश्क के किस्से भी मीडिया और महफिल में चटखारे लेले कर कहे और सुने जाने लगे थे. 70 के दशक में प्रिंट मीडिया ही हुआ करता था. रेखा खासतौर से अखबारों और मैगजींस की जरूरत बन गई थीं.

दरअसल, रेखा उन बदकिस्मत करार दे दी गईं अभिनेत्रियों में से एक हैं, जिन का बचपन आम बच्चों सरीखा नहीं था. हालांकि उन के पिता जेमिनी गणेशन दक्षिण भारतीय फिल्मों का बड़ा नाम थे. लेकिन उन्होंने कभी रेखा को अपना नाम और प्यार नहीं दिया.

मां पुष्पवल्ली छोटीमोटी ऐक्ट्रैस थीं, जिन की पटरी कभी पति से बैठी नहीं. रेखा के जन्म के बाद तो दोनों के बीच इतनी कड़वाहट आ गई कि दोनों अलग हो गए. इन दोनों ने विधिवत शादी की भी थी या नहीं, यह रहस्य अभी तक रहस्य ही है.

रेखा जो उस वक्त भानुरेखा गणेशन थीं, मां के हिस्से में आईं. पुष्पवल्ली की माली हालत ठीक नहीं थी, इसलिए पैसा कमाने की गरज से उन्होंने 13 साल की इकलौती बेटी को फिल्मों में ढकेल दिया.

ढकेलना शब्द इसलिए भी सटीक बैठता है, क्योंकि रेखा फिल्मों में काम नहीं करना चाहती थीं. वह बचपन में मोटी भी थीं और काली या सांवली भी, जैसी कि आमतौर पर दक्षिण भारतीय लड़कियां होती हैं. लेकिन इस में कोई शक नहीं कि इस हालत में भी वे आकर्षक लगती थीं. उन में एक अपील थी, जो हिंदी फिल्मों में आने के बाद और निखरती गई.

प्यार के अधूरे किस्से

9वीं क्लास से ही रेखा को पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी. जब वे मां के साथ चेन्नई से मुंबई आईं तब अभाव और संघर्ष भी जरूरी घरेलू सामान की तरह उन के साथ लदे थे. लगता नहीं कि तब ही रेखा को यह एहसास हो गया होगा कि उन की जिंदगी में उन का अपना कुछ नहीं है. वे एक अधूरेपन के साथ पैदा हुई थीं, जो अब तक साए की तरह उन के साथ है.

अच्छी इकलौती बात यही है कि उन्होंने इस अधूरेपन से समझौता कर लिया है और इस के साथ जीने की आदत भी डाल ली है, वह भी मुसकराते हुए. मानो यही उन की जिंदगी भर की जमापूंजी है. अब 69 की उम्र में उन के चेहरे की रौनक देखते लगता नहीं कि उन्हें कोई गिलाशिकवा किसी से है और है भी तो वह उन के दिल के बेसमेंट के भी नीचे कहीं दफन है.

रेखा के प्यार के किस्से सच्चेझूठे जैसे भी हों, आज भी चर्चा में रहते हैं. ‘सावन भादों’ के रिलीज होने के तुरंत बाद ही फिल्म इंडस्ट्री में यह हवा फैल गई थी कि वे और नवीन निश्चल एकदूसरे से प्यार करते हैं. सत्तर के दशक का यह रिवाज था कि जो जोड़ी हिट हो जाती थी, उस पर प्यार का ठप्पा झट से लग जाता था. पहली फिल्म हिट हो जाना एक तरफ वरदान होता है तो किसी श्राप से भी कम नहीं होता.

नवीन निश्चल को शायद रेखा से इश्क के चर्चों से कुछ हासिल नहीं हो रहा था. दूसरे उन्हें अपने भविष्य के राजकपूर या दिलीप कुमार हो जाने का भी गुमान था, लिहाजा उन्होंने रेखा से जल्द कन्नी काट ली.

मुंबई में रेखा का पहला अनुभव ही बहुत कड़वा था. ‘सावन भादों’ भले ही उन की पहली प्रदर्शित फिल्म थी, लेकिन उन की साइन की गई पहली हिंदी फिल्म ‘अनजाना सफर’ थी, जिस में उन के अपोजिट विश्वजीत चटर्जी थे. इस फिल्म की शूटिंग महबूब स्टूडियो में हुई थी.

एक दृश्य में विश्वजीत को रेखा का चुंबन लेना था. रेखा तब महज 15 साल की थीं और इस दृश्य को फिल्माने में उन के साथ जो हुआ, उस के लिए वे बिलकुल भी तैयार नहीं थीं.

कमसिन रेखा को सेट पर देखते ही उम्र में उन से 25 साल बड़े विश्वजीत सुधबुध खो बैठे थे. उन्होंने जानबूझ कर एक के बाद एक वहशियों की तरह दरजन भर जबरिया चुंबन रेखा के होंठों के ले डाले, जिस से रेखा न केवल सहम गई थीं बल्कि डर कर रोने भी लगी थीं.

यह फिल्म ‘दो शिकारी’ नाम से 1979 में रिलीज हुई और बौक्स औफिस पर ज्यादा चली नहीं थी. जबकि तब तक रेखा कई हिट फिल्में दे चुकी थीं और किसी फिल्म में उन का होना ही उस की सफलता की गारंटी माना जाता था.

इस हादसे से जैसेतैसे उबरी रेखा का नाम नवीन निश्चल के बाद अभिनेता विनोद मेहरा से तेजी और इतनी शिद्दत से जुड़ा था कि उन्हें पतिपत्नी मान लिया गया था. विनोद मेहरा के साथ रेखा की मानिक चटर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘घर’ काफी सफल रही थी, जिस में रेखा ने बलात्कार पीडि़ता गृहिणी के रोल में जान डाल दी थी.

रेखा ने जमाई धाक

इस फिल्म के गाने ‘तेरे बिन जिया जाए न…’, ‘आप की आखों में कुछ…’ और ‘आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे…’ आज भी खूब गुनगुनाए जाते हैं. रेखा और विनोद मेहरा की कथित शादी भी बड़ी रहस्यमय थी, जिस के बारे में साल 2004 में सिम्मी ग्रेवाल के एक शो में रेखा ने खंडन किया था कि उन्होंने विनोद मेहरा से कभी शादी नहीं की.

70 के दशक में फिल्म इंडस्ट्री जितनी बदली, उतनी पहले कभी नहीं बदली थी. अभिनेत्रियों के लिहाज से भी यह पीढ़ी परिवर्तन का दौर था. मधुबाला, नरगिस और मीना कुमारी जैसी प्रतिभावान अभिनेत्रियों का दौर गुजर चुका था, जिन की जगह हेमा मालिनी, जया बच्चन मुमताज और रेखा लेती जा रही थीं.

साल 1976 से इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन और रेखा के इश्क के चर्चे होने लगे, जिस की शुरुआत ‘दो अनजाने’ फिल्म से हुई थी. इस के बाद इस जोड़ी ने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं, जिन में ‘आलाप’, ‘खून पसीना’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘मिस्टर नटवर लाल’, ‘सुहाग’, ‘राम बलराम’ और ‘सिलसिला’ उल्लेखनीय हैं.

अमिताभ उन दिनों टौप पर थे तो रेखा भी उन्नीस नहीं थीं, जिन्होंने कौमेडी के साथसाथ समांतर सिनेमा वाली ‘उत्सव’, ‘कलयुग’, ‘विजेता’ और ‘उमराव जान’ जैसी फिल्मों के जरिए अपनी एक्टिंग की धाक जमा ली थी.

अमिताभ रेखा की जोड़ी को गोल्डन जोड़ी कहा जाने लगा था. इन के इश्क में हकीकत का तड़का ‘मुकद्दर का सिकंदर’ फिल्म से लगा था, जिस में रेखा तवायफ जोहरा बाई की भूमिका में थीं. यूं तो प्रकाश मेहरा की इस फिल्म के सारे फ्रेम कसे हुए थे, पर वह फ्रेम ऊपर और नीचे दोनों तबकों के दिलोदिमाग में गहरे तक बैठ गया था, जिस में रेखा कहती हैं कि जोहरा अब नाचेगी तो सिर्फ सिकंदर के लिए.

यह सिलसिला साल 1981 में प्रदर्शित यश चोपड़ा की ‘सिलसिला’ फिल्म तक चला था, जो एक खास मकसद से बनाई गई थी. आप इसे प्रतीकात्मक तौर पर दोनों की बायोपिक भी कह सकते हैं.

परिपक्व प्रेम त्रिकोण पर बनी ‘सिलसिला’ में रेखा के सामने जया थीं या जया के सामने रेखा थीं, यह तय कर पाना बेहद मुश्किल भरा काम है. आज तक कोई विश्लेषक यह तय नहीं कर पाया कि किस ने अच्छी एक्टिंग की थी. पत्नी की भूमिका में जया ने या फिर प्रेमिका बनी रेखा ने जो रियल लाइफ में भी क्रमश: अमिताभ की पत्नी और प्रेमिका थीं.

जो भी हो, तब यह फिल्म अमिताभ बच्चन के करिअर की डूबती नैया पार लगाने के लिए बेहद जरूरी हो गई थी, जिस में अपने दौर की 2 धाकड़ नायिकाएं एक तरह से वास्तविक जिंदगी को परदे पर साकार कर रही थीं.

हकीकत में भी रेखा कभी अमिताभ को जया से छीन नहीं पाईं और शायद इस का ज्यादा मलाल भी उन्हें अब न होता हो, लेकिन तब अमिताभ से ध्यान बंटाने के लिए उन्होंने कामयाब बिजनैसमैन मुकेश अग्रवाल से शादी कर ली थी, जिस का हश्र फिल्मों सरीखा ही हुआ.

शादी के 6 महीने बाद ही मुकेश ने आत्महत्या कर ली थी, जिस का जिम्मेदार रेखा को ही ठहराया गया था.

सभी को दी टक्कर

अकेले जया बच्चन को ही नहीं, बल्कि रेखा ने ड्रीम गर्ल के खिताब से नवाजी गई हेमा मालिनी को भी कड़ी चुनौती दी थी, जिन के साथ 2 ही फिल्मों में काम किया, पहली थी 1972 में आई ‘गोरा और काला’ जिस में जुबली कुमार यानी राजेंद्र कुमार डबल रोल में थे. यह फिल्म सुपरहिट रही थी और 1975 में प्रदर्शित ‘धर्मात्मा’ ने भी तगड़ा बिजनैस किया था.

दोनों ही फिल्मों में हेमा और रेखा का आमनासामना न के बराबर हुआ था, लेकिन जितना भी हुआ उस में रेखा भारी पड़ी थीं.

अपनी समकालीन अभिनेत्रियों पर रेखा हमेशा हावी नजर आईं तो इस की वजह उन की अकड़, ठसक या स्टारडम नहीं, बल्कि एक्टिंग ही थी. निर्देशक रमेश तलवार की 1981 में आई फिल्म ‘बसेरा’ एक ऐसी ही पारिवारिक फिल्म थी, जिस में रेखा को अपनी पागल हो गई बड़ी बहिन राखी के पति शशि कपूर से शादी करनी पड़ती है.

इस फिल्म में रेखा ने बहुत ही सटीक और जमीनी एक्टिंग कर दर्शकों और समीक्षकों का दिल जीत लिया था. इस किरदार में एक्टिंग की गुंजाइश बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन रेखा ने जताया था कि गुंजाइश होती नहीं बल्कि पैदा की जाती है.

1981 में ही प्रदर्शित एक और फिल्म ‘एक ही भूल’ में उन्होंने शबाना आजमी को जरा भी स्पेस नहीं दिया था. हालांकि इस फिल्म के हीरो जितेंद्र के साथ उन की जोड़ी जमने लगी थी. इन दोनों की फिल्मों का अपना एक अलग ही फ्लेवर होता था.

ऐसी ही एक फिल्म ‘मांग भरो सजना’ में रेखा के सामने मौसमी चटर्जी थीं, जिस के भावुक दृश्यों में रेखा ज्यादा प्रभावी साबित हुई थीं. शुद्ध व्यावसायिक मसाला फिल्म ‘राम बलराम’ में जीनत अमान रेखा के सामने ज्यादा टिक नहीं पाई थीं.

इन फिल्मों ने चौंकाया भी

180 के लगभग फिल्मों में अभिनय कर चुकीं रेखा ने अपने सुनहरे दिनों में कुछ ऐसी भी फिल्मों में काम किया, जिन से दर्शक चौंके भी थे. मसलन मीरा नायर की 1996 में आई ‘कामसूत्र’ और बासु भट्टाचार्य निर्देशित फिल्म ‘आस्था’, जिस में नायक ओम पुरी थे. इन फिल्मों में हालांकि सैक्स और सहवास दृश्यों की भरमार थी, लेकिन उन में एक मैसेज भी था. पर रेखा 90 के दशक तक इतना नाम कमा चुकी थीं कि दर्शकों और उन के प्रशंसकों ने उन्हें इन भूमिकाओं में खारिज कर दिया था.

इस के पहले ‘कलयुग’, ‘विजेता’ और ‘उत्सव’ जैसी कला फिल्मों में उन्होंने अपनी एक्टिंग की गहरी छाप छोड़ी थी. श्याम बेनेगल की 1981 में प्रदर्शित फिल्म ‘कलयुग’ में तो उन्हें एक चुनौतीपूर्ण भूमिका मिली थी. आज महाभारत होता तो कैसा होता, यह इस फिल्म में व्यापारिक घरानों की लड़ाई के जरिए बताया गया था.

फिल्म में शशि कपूर, अमरीश पुरी, अनंत नाग, ओम पुरी, राज बब्बर, कुलभूषण खरबंदा, सुषमा श्रेष्ठ, सुप्रिया पाठक और विक्टर बनर्जी जैसे मंझे हुए कलाकारों के सामने द्रौपदी के शेड वाली रेखा ने अपनी चमक बरकरार रखी थी. इस फिल्म को तब मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दिखाया गया था और इसे फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था.

गिरीश कर्नाड की ‘उत्सव’ फिल्म में वसंत सेना के रोल में भी रेखा ने चौंकाया था, क्योंकि यह फिल्म भी वात्स्यानन के कामसूत्र पर आधारित थी, जिस में सहवास दृश्यों की भरमार थी. रेखा ने उन्मुक्त लेकिन सहज ढंग से इन दृश्यों में अभिनय किया था.

मुमकिन है उन की मंशा यह दिखाने की रही हो कि वे सभी शेड्स में एक्टिंग कर सकती हैं और दूसरी समकालीन सफल अभिनेत्रियों सरीखी पूर्वाग्रही और कुंठित नही हैं, जो इमेज के चलते ऐसे रोल करने में हिचकिचाती हैं.

रेखा होने के मायने

रेखा की जिंदगी देख कर कहा जा सकता है कि जो उन्होंने चाहा वह उन्हें कभी नहीं मिला. अपने दौर के मशहूर शायर निदा फाजली की यह गजल उन पर फिट बैठती है ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता…’ लेकिन बहैसियत एक ऐक्ट्रैस रेखा को जो प्यार और प्रशंसा मिली, वह भी हर किसी को नहीं मिलती. उन्होंने जो भी हासिल किया, अपने दम पर किया. उन का कोई गौडफादर नहीं था. यह सहज ही साबित हो गया कि अभिनय उन के खून में है और वे बनी ही एक्टिंग के लिए हैं.

तीन दशक तक उन्होंने जम कर शानदार एक्टिंग की. सेट पर खूब मौजमस्ती की. भीतर से रोते हुए मुसकराती रहीं. वह कोई साधारण औरत नहीं कर सकती. रेखा ने जताया कि कोई भी औरत बदसूरत नहीं होती, बशर्ते वह सलीके से रहे और अपनी सेहत और फिटनेस पर ध्यान देती रहे.

एक वक्त में अभिनेता शशि कपूर ने उन्हें बदसूरत और मोटी कह कर बेइज्जत किया था, लेकिन बाद में वही शशि कपूर अपनी फिल्मों में उन्हें लेने के लिए मोहताज रहने लगे थे और यही रेखा होने के अपने अलग माने हैं.

जिस पूर्णता की तलाश में रेखा जिंदगी भर भटकती रहीं और उसे प्यार में ढूंढती रहीं, वह रेगिस्तान के पानी की तरह होता है, जो होता नहीं है बस उस के होने का भ्रम भर होता है.

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