बच्चों को बिगाड़ते हैं बड़े

मेरी सहेली कंचन के घर में अकसर पंचायत होती है जिस में उस के घर का छोटे से बड़ा हर सदस्य भाग लेता है. मुद्दा चाहे पड़ोसी का हो या किसी रिश्तेदार का, किसी परिचित के बेटे के किसी लड़की के साथ भाग जाने का हो या घर की आर्थिक स्थिति का.

विनोद ने औफिस से आ कर जैसे ही अपने घर की घंटी बजाई, पास में खेल रहा पड़ोसी मिश्राजी का 8 वर्षीय सोनू आ कर बोला, ‘‘अंकल, आप आंटी के साथ झगड़ा क्यों करते हो? आप को पता है, बेचारी आंटी ने आज सुबह से खाना भी नहीं खाया है.’’ इतने छोटे बच्चे के मुंह से यह सब सुन कर विनोद सन्न रह गया. आज सुबह पत्नी रीना से हुए उस के झगड़े के बारे में सोनू को कैसे पता? वह समझ गया कि पत्नी रीना ने झगड़े की बात पड़ोसिन अनुभा को बताई होगी जिसे सुन कर उन का बेटा सोनू उन से प्रश्न कर रहा था.

‘‘पता है, रैना आंटी की यह तीसरी शादी है और सामने वाली स्नेहा दी का किसी से अफेयर चल रहा है. वे रोज उस से मिलने भी जाती हैं,’’ 10 वर्षीय मनु अपनी पड़ोस की आंटी को दूसरे पड़ोसी के घर के बारे में यह सब बड़ी सहजता से बता रही थी. ‘‘मेरी दादी ने मेरी मम्मी को कल बहुत डांटा, बाद में मम्मी नाराज हो कर फोन पर मौसी से कह रही थीं कि बुढि़या पता नहीं कब तक मेरी छाती पर मूंग दलेगी,’’ 9 वर्षीय मोनू अपने दोस्त से कह रहा था. 

उपरोक्त उदाहरण यों तो बहुत सामान्य से लगते हैं परंतु इन सभी में एक बात समान है कि सभी में बातचीत करते समय बच्चों की उपस्थिति को नजरअंदाज किया गया. वास्तव में बच्चे बहुत भोले होते हैं. वे घर में जो भी सुनते हैं उसे उसी रूप में ग्रहण कर के अपनी धारणा बना लेते हैं और अवसर आने पर दूसरों के सामने प्रस्तुत कर देते हैं. इसलिए मातापिता बच्चों से सदैव उन के मानसिक स्तर की ही बातचीत करें और उन्हें ईर्ष्या, द्वेष, आलोचना या दूसरों की टोह ?लेने जैसी भावनाओं से दूर रखें क्योंकि उन की यह उम्र खेलनेकूदने और पढ़ाई करने की होती है, न कि इस प्रकार की व्यर्थ की दुनियादारी की बातों में पड़ने की.

बचपन में बच्चों को जब इस प्रकार की बातों में भाग लेने और अपना मत व्यक्त करने की आदत पड़ जाती है तो यह आदत उन के चरित्र का एक निगेटिव पौइंट बन जाती है. इसलिए ध्यान रखें. दरअसल, मातापिता, अभिभावक व घरपरिवार के बड़ेबूढ़े बच्चों को बेहतरीन इंसान बनाना चाहते हैं लेकिन उन में से कुछ की गलतियों के चलते उन के बच्चे बिगड़ जाते हैं. वे समझदारी से बच्चों को प्यार व उन की देखभाल करें तो वे बिगड़ नहीं सकते. इस प्रकार, बच्चों को बिगड़ने, न बिगड़ने का सारा दारोमदार बड़ों पर ही निर्भर है.

5 तरीकों से जानें आई कांटेक्ट फ्लर्टिंग के पीछे का छिपा विज्ञान

फ्लर्टिंग बड़ी दिलचस्प चीज है. खासकर जब आप आंखों-आंखों में फ्लर्ट करने की कोशिश करें. अब जरा सोचिए कि क्या कभी आपने अपने प्यार को या कहें अपने क्रश को दूर से घूरा है? क्या आपने कभी दूर से ही उसके साथ आंखों से संपर्क साधने की कोशिश की है? क्या कभी अपने प्यार को तब तक देखा है जब तक उसके चेहरे पर मुस्कुराहट न आए जाए या फिर वह शर्माने न लगे? क्या ये सारी बातें आपके मन में रोमांच नहीं पैदा करती हैं?

बहरहाल आप ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो आंखों-आंखों में फ्लर्ट करते हुए संकोच महसूस करते हैं. आपकी तरह तमाम ऐसे लोग हैं जो अपने क्रश को एकटक निहार नहीं पाते. असल में दूसरों की आंखों में घूरना जबरदस्त भाव है. यह न सिर्फ सकरात्मक प्रभाव छोड़ता है वरन यह आपको नकारात्मकता की ओर भी ले जा सकता है. अब कविता की बात सुनें. कविता कहती है कि मैं पिछले दिनों पार्टी में गयी थी जहां एक लड़का मुझे एकटक घूर रहा था. मैंने पार्टी के मेजमान से उसकी शिकायत की जिसके बाद उस लड़के को पार्टी से निकाल बाहर कर दिया गया.

आंखों-आंखों में देखकर फ्लर्ट करना दिलचस्प तो है साथ ही अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रभावशाली भी है. हैरानी की बात यह भी है कि यदि आप आंखों-आंखों में फ्लर्ट नहीं करेंगे तो आपके रिश्ते को पिक अप मिलने में मुश्किलें भी आ सकती हैं. बहरहाल इस लेख में आंखों-आंखों में फ्लर्ट के पीछे छिपे विज्ञान पर चर्चा करेंगे.

  1. दूसरों को खुश करना

आप चाहें फ्लर्ट करें या न करें यदि आप अपने क्रश को मुस्कान देते हुए एकटक निहारते हैं तो उस  पर सकरात्मक असर पड़ता है. असल में यह उसे खुश करने का एक तरीका भी है. इससे वह आपके बारे में अच्छा सोचने के लिए बाध्य होती है. यही नहीं वह आपके पास आ भी सकती है या फिर उम्मीद करती है कि आप उसके पास जाएं.

2. दूसरों को पढ़ने की कोशिश

आंखों-आंखों में संपर्क कर फ्लर्टिंग करने से दोनों एक दूसरे को जानने की कोशिश भी करते हैं. यही नहीं एक दूसरे के प्रति आलोचनात्मक रुख भी इख्तियार करते हैं. दरअसल आंखों-आंखों में संपर्क करना कोई सहज क्रिया नहीं है. मन में चोर हो तो भी आंखों में आंखें डालकर संपर्क नहीं किया जा सकता है. अतः यह पुरुष और महिला दोनों को एक दूसरे के लिए प्रति न्यायपरख बनाता है और एक दूसरे को जानने में मदद भी करता है.

3. विश्वसनीय बनाता है

क्या आप जानते हैं कि जिसे आप प्यार करते हैं या जिस पर आपका क्रश है, यदि आप उसे एकटक निहारते हैं तो यह आप दोनों का विश्वास भी बढ़ाता है. दरअसल %

कच्चा रिश्ता है लिव इन

टीवी स्टार प्रत्यूषा बनर्जी अपने घर में फांसी के फंदे पर लटकी पाई गई, जो मूलतया जमशेदपुर की थी. प्रत्यूषा अपने बौयफ्रैंड राहुल राज के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही थी. वह राहुल से शादी करना चाहती थी. पुलिस तफ्तीश में यह बात भी सामने आई कि वह प्रैगनैंट थी.

जाहिर है प्रत्यूषा लिव इन के अपने कमजोर रिश्ते को विवाह के मजबूत बंधन में तबदील करना चाहती होगी, मगर उस का बौयफ्रैंड शायद इस के लिए तैयार नहीं था. नतीजा सब के सामने है. इस मानसिक पीड़ा ने अंतत: उस के जीवन को लील लिया.

लिव इन आज की बदलती जीवनशैली के अनुरूप युवाओं द्वारा ईजाद किया गया थोड़ा कम आजमाया कौंसैप्ट है. पहले लड़के बाइयों के यहां पड़े रहते थे या फिर उन के भाभियों, कजिनों के साथ संबंध तो होते थे पर वे एक घर में नहीं रहते थे. घर नहीं चलाते थे.

लड़केलड़की की कपल्स की तरह साथ रहने की व्यवस्था यानी लिव इन में वैवाहिक जिंदगी की हसरतें तो पूरी होती हैं, एकदूसरे का साथ भी मिलता है पर लंबी जिम्मेदारियां निभाने का कोई वादा नहीं होता. कभी भी अलग हो जाने की आजादी रहती है. यह कौंसैप्ट शादी के लिए तैयार नहीं लोगों को लुभावना नजर आता है, पर अंदर से उतना ही खोखला और अस्थाई तो है ही, पर उस में भी बहुत जिम्मेदारियां भरी पड़ी हैं. शायद यही वजह है कि ज्यादातर लोग खासकर लड़कियां आज भी इसे स्वीकार नहीं कर पातीं.

अधूरेपन की कसक

एक तरह से यह रिश्ता धार्मिक मान्यताओं की जकड़न, सामाजिक रीतिरिवाजों और शोशेबाजी के रंग से दूर है और कानून ने भी इसे कुछ हद तक मान्यता दे दी है. मगर फिर भी इस रिश्ते के अधूरेपन को अनदेखा नहीं किया जा सकता खासकर लड़कियां इस तरह के रिश्ते में कई बार गहरी मानसिक पीड़ा से गुजरती हैं.

दरअसल, लिव इन में रिश्ता जब गहरा होता है और दोनों एकदूसरे के करीब आते हैं, शारीरिक संबंध बनते हैं, तो वह जज्बा लड़की के मन में हमेशा साथ रहने की चाहत को जन्म देता है.

50 मिनट की नजदीकी 50 सालों के साथ की इच्छा में बदलने लगती है. मगर जरूरी नहीं कि लड़का भी इसी रूप में सोचे और जिम्मेदारियां निभाने को तैयार हो जाए.

ज्यादातर मामलों में इस बात पर रिश्ता टूट जाता है और अंतत: शारीरिक प्रेम की बुनियाद पर बना यह रिश्ता उम्र भर की कसक बन कर रह जाता है. कई दफा इस टूटन से उत्पन्न पीड़ा इतनी गहरी होती है कि लड़की स्वयं को खत्म कर लेने जैसा बेवकूफी भरा कदम उठाने को भी तैयार हो जाती है जैसाकि प्रत्यूषा ने किया.

ऐसे रिश्तों में प्यार कम विवाद ज्यादा

इस रिश्ते में लड़केलड़कियों का एकदूसरे पर पूरा हक नहीं होता. वे जौइंट डिसीजन भी नहीं ले सकते. जैसाकि विवाहित दंपती लेते हैं. उदाहरण के लिए संपत्ति या तो लड़के की होती है या फिर लड़की की. दोनों का हक नहीं होता. दूसरे का यह पूछने का हक नहीं कि रुपए किस प्रकार खर्च हो रहे हैं. दोनों अपने रुपए अपने हिसाब से खर्च करते हैं.

इसी वजह से अकसर इन के बीच हक और अधिकार की लड़ाई होती रहती है. इन विवादों का निबटारा सहज नहीं होता. वे प्रयास करते हैं कि प्यार जता कर या आपस में बात कर मसला सुलझाया जाए, मगर अकसर ऐसा हो नहीं पाता, क्योंकि किसी भी रिश्ते को बनाए रखने और 2 लोगों को करीब रखने के लिए जो गुण सब से ज्यादा जरूरी हैं वे हैं, विश्वास, ईमानदारी, पारदर्शिता और आत्मिक निकटता.

इन्हें विकसित करने के लिए समय चाहिए होता है. महज भौतिक या शारीरिक निकटता मानसिक और भावनात्मक जुड़ाव भी दे, यह जरूरी नहीं. ऐसे खोखले रिश्ते में कड़वाहट का दौर आसानी से खत्म नहीं होता.

जिम्मेदारियों से भागना सिखाता है लिव इन

लिव इन रिलेशनशिप वास्तव में भावनात्मक बंधन के आधार पर साथ रहने का एक व्यक्तिगत और आर्थिक प्रबंध मात्र है. इस में हमेशा के लिए एकदूसरे का साथ देने का कोई वादा नहीं होता, न ही पूरे समाजकानून के आगे इस तरह का कोई अनुबंध ही किया जाता है. इस वजह से पार्टनर्स एकदूसरे पर (लिखित/मौखिक) किसी तरह का कोई दबाव नहीं बना सकते. ऐसा रिश्ता एक तरह से रैंटल ऐग्रीमैंट के समान होता है. यह बड़ी सहजता से बनाया जाता है और जब तक दोनों पक्ष सही व्यवहार करते हैं, एकदूसरे को खुश रखते हैं तभी तक वे साथ होते हैं. इस के विपरीत शादी इस पार्टनरशिप से बहुत ज्यादा गहरी है. यह एक सार्वभौमिक तौर पर किया गया अनुबंध है, जिस के साथ कानूनी और सामाजिक जिम्मेदारियां जुड़ी होती हैं. वस्तुत: शादी न सिर्फ 2 लोगों वरन 2 परिवारों व समुदायों के बीच बनाया गया रिश्ता है, जो उम्र भर के लिए स्वीकार्य है. जीवन में कितने भी दुख, परेशानियां आएं, आपसी बंधन कायम रखने का वादा किया जाता है.

कहा जा सकता है कि जब दिल मिल रहे हों तो रस्मोरिवाज की क्या जरूरत? मगर यहां बात सिर्फ रस्मों की नहीं वरन सामाजिक तौर पर की गई कमिटमैंट की है, सदैव जिम्मेदारियां उठाने की कमिटमैंट, हमेशा साथ निभाने की कमिटमैंट, विवाह में एक डिफरैंट लैवल की कमिटमैंट होती है, इसलिए एक डिफरैंट लैवल की सुरक्षा, आजादी और परिणामस्वरूप डिफरैंट लैवल की खुशी भी प्राप्त होती है. यह उस से बिलकुल अलग है, जो रिश्ता महज तब तक निभाया जाता है जब तक कि परस्पर प्यार और आकर्षण कायम है. बेहतर विकल्प मिलते ही अलग होने का रास्ता खुला होता है. हमेशा इस बात के लिए तैयार रहना पड़ता है कि कभी भी रिश्ता खत्म हो सकता है.

वफा चाहिए तो लिव इन नहीं

जब बात वफा की आती है, तो शादीशुदा पार्टनर इस दृष्टि से काफी लौयल पाए जाते  हैं. 5 सालों के एक अध्ययन के मुताबिक 90% विवाहित महिलाएं पतिव्रता पाई गईं, जबकि लिव इन में रह रहीं सिर्फ 60% महिलाएं ही लौयल निकलीं.

पुरुषों के मामले में स्थिति और भी ज्यादा आश्चर्यजनक रही. 90% विवाहित पुरुष अपनी पत्नी के प्रति वफादार रहे, जबकि लिव इन के मामले में केवल 43% पुरुष.

यही नहीं, लिव इन का प्रकोप यानी प्रीमैरिटल सैक्सुअल ऐटीट्यूड और बिहेवियर शादी के बाद भी नहीं बदलता. यदि एक महिला शादी से पहले किसी पुरुष के साथ रहती है, तो यह काफी हद तक संभव है कि वह शादी के बाद भी अपने पति को धोखा देगी.

अध्ययनों व अनुसंधानों के मुताबिक यदि कोई शख्स शादी से पहले सैक्स का अनुभव करता है, तो इस की संभावना काफी ज्यादा रहती है कि शादी के बाद भी उस के ऐक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स रहेंगे. यह खासतौर पर महिलाओं के लिए ज्यादा सच है.

पेरैंट्स से दूरी

लिव इन में रह रहे लड़केलड़कियों की जिंदगी में सामान्यतया मांबाप का दखल नाममात्र का होता है, क्योंकि इस बाबत उन की सहमति नहीं होती और वे अपने बच्चों से दूरी बना लेते हैं.

यदि वे घर वालों को इस बात की जानकारी नहीं देते, तो ऐसे में इस राज को छिपा कर रखना भी आसान हीं होता. कई तरह के मसले जैसे मांबाप से पैसों की मदद लेना, पार्टनर और उस के सामान को छिपाना जब अभिभावक अचानक मिलने आ रहे हों, लगातार उन की इच्छा के विरुद्ध जाने का अपराधबोध और झूठ बोलना जैसी बहुत सी बातें हैं, जो लिव इन में रहने वालों को बेचैन करती हैं.

विश्वास की कमी

जो शादी से पहले साथ रहते हैं, उन में अकसर अविश्वास का भाव विकसित होता है. परिपक्व प्रेम में गहरा विश्वास होता है कि आप का प्यार सिर्फ आप का है और कोई बीच में नहीं. मगर शादी से पहले ही नजदीकी बना लेने पर व्यक्ति के मन में कई तरह के शक पैदा होने लगते हैं कि कहीं इस की जिंदगी में मुझ से पहले भी तो कोई नहीं रहा या मेरे अलावा भविष्य में किसी और के साथ भी इस के संबंध तो नहीं बन जाएंगे.

इस तरह के अविश्वास और संदेह के भाव गहराने से व्यक्ति धीरेधीरे अपने पार्टनर के प्रति प्यार व सम्मान खोने लगता है जबकि शादीशुदा जिंदगी में विश्वास एक अहम फैक्टर होता है.

– 68% युवाओं का कहना था कि लिव इन प्यार (लव) नहीं वासना (लस्ट) है.

– 72% ने माना कि लिव इन का अंत ब्रेकअप में होता है.

– 36% महिलाओं ने ही इसे अच्छा माना.

– 52% युवा लड़कों ने लिव इन की जिंदगी जीने में रुचि दिखाई.

– 89% अभिभावकों ने कहा कि विवाह से पूर्व सैक्स स्वीकार्य नहीं.

– 51% युवाओं ने ही इसे गलत माना.

यशराज प्रोडक्शंस व औरमैक्स मीडिया द्वारा किए गए ‘शुद्ध देशी इंडिया की रोमांटिक सोच’ सर्वे से प्राप्त आंकड़े.

 

लिव इन रिलेशनशिप

भावनात्मक बंधन के आधार पर साथ रहने का एक व्यक्तिगत व आर्थिक प्रबंध मात्र है. इस में हमेशा के लिए एकदूसरे का साथ देने का कोई वादा नहीं होता…

पहले मजा बाद में सजा

‘‘देश की अदालतों में लिव इन में रहने वाले जोड़ों के मुकदमे दिनबदिन बढ़ रहे हैं. शारीरिक व भौतिक जरूरत के लिए लिव इन में रहना बाद में मुश्किल भी खड़ी कर सकता है. इन मामलों में आमतौर पर शादी का वादा कर के मुकरना, घरेलू हिंसा और यहां तक कि बलात्कार करने तक का संगीन आरोप लगता है. आपसी झगड़े का रूप कईकई बार बेहद आपराधिक हो जाता है. लड़कियां आत्महत्या कर लेती हैं, तो कई मामलों में लड़कियों की हत्या भी कर दी जाती है. हालिया हुई कई वारदातें इस बात का सुबूत हैं.’’

– अवधेश कुमार दुबे, ऐडवोकेट, दिल्ली हाई कोर्ट

आसान नहीं रहती जिंदगी

‘‘भारत में शहरी जनसंख्या खुले विचारों की है. उस पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी है. आज शिक्षा और नौकरी के कारण युवा बड़ी संख्या में अपने घरों से दूर रह रहे हैं, इसलिए लिव इन रिलेशनशिप का चलन लगातार बढ़ रहा है. आज की पीढ़ी के लिए यह एक अच्छा चलन है, क्योंकि इस में विवाह जितनी जटिलताएं नहीं हैं. इस में मूव इन और मूव आउट काफी आसान है. लेकिन यही इस रिश्ते की सब से बड़ी कमी भी है, क्योंकि इसी के कारण इस रिश्ते में असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य की चिंताएं घर करने लगती हैं. अकसर लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले लोग असुरक्षा, गुस्सा, दुख, भ्रम, अवसाद और भावनात्मक उथलपुथल के शिकार हो जाते हैं.

‘‘भारतीय समाज का तानाबाना ऐसा है कि यहां आज भी लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले लोगों पर परिवार और समाज का बहुत अधिक दबाव होता है. थोड़ी उम्र बीतने के बाद हर इनसान अपने जीवन में स्टैबिलिटी चाहता है, अपना परिवार बढ़ाना चाहता है. लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले लोगों में बच्चों को जन्म देने, उन्हें समाज, परिवार की मान्यता मिलने और उन के भविष्य को ले कर कई प्रकार की आशंकाएं होती हैं. वे हमेशा इस द्वंद्व में रहते हैं कि परिवार बढ़ाएं या न बढ़ाएं? इन पर हमेशा एक मानसिक दबाव रहता है. इस सब का मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. मानसिक दबाव के कारण

इन लोगों का इम्यून सिस्टम भी कमजोर हो जाता है, जो इन्हें बीमारियों का आसान शिकार बनाता है.’’

– डा. गौरव गुप्ता, मनोचिकित्सक, तुलसी है

जब जाना हो बच्चों के साथ रैस्टोरैंट

छोटे बच्चों के साथ बाहर खाना खाने जाने के बजाय ज्यादातर मातापिता बाहर का खाना खाने का मन होने पर खाना पैक करा कर घर लाना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि बच्चे इतना तमाशा करते हैं कि वे परेशान हो उठते हैं. मगर इस का यह मतलब भी नहीं कि छोटे बच्चों के साथ रैस्टोरैंट में खाना खाने जाएं ही नहीं. निम्न बातों पर ध्यान दे कर आराम से घर से बाहर अपनी पसंद के भोजन का लुत्फ उठाएं:

सही रैस्टोरैंट का चुनाव

रैस्टोरैंट ऐसा हो जहां अगर बच्चे शोर मचाएं, तो अजीब न लगे. कहने का मतलब यह है कि कुछ रैस्टोरैंट फैमिलीज के लिए जाने जाते हैं, जहां अन्य परिवार भी बच्चों के साथ आते हैं. यदि आप ने कोई ऐसा रैस्टोरैंट चुना जहां कपल्स आंखों में आंखें डाल कर लाइव गजलों का आनंद ले रहे हों, तो वहां आप को आप के खुराफाती बच्चों के साथ 15 मिनट के अंदर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.

पूल साइड रैस्टोरैंट्स में न जाएं, क्योंकि बच्चा खेलतेखेलते कब पूल में गिर जाए, कोई भरोसा नहीं.

पिज्जाबर्गर जौइंट्स या फास्ट फूड रैस्टोरैंट्स बच्चों के साथ जाने के लिए अच्छा विकल्प हो सकते हैं. वहां आप को खाने का अधिक समय इंतजार नहीं करना पड़ता. बच्चों के साथ इंतजार करना मुश्किल होता है.

बुफे भी एक अच्छा चुनाव हो सकता है, क्योंकि वहां लोग चलफिर रहे होते हैं. बच्चे अधिक देर एक जगह नहीं बैठ सकते. अत: वे जब इधरउधर जाएंगे, तो बुफे में अजीब नहीं लगेगा. आप का बच्चों के पीछे भागना भी अजीब नहीं लगेगा. साथ ही खाने की अधिक वैराइटी सामने होने पर बच्चे भी अपनी पसंद का खाना चुन सकते हैं.

कई रैस्टोरैंट्स हाई चेयर, झूला आदि की व्यवस्था बच्चों के लिए रखते हैं. बहुत छोटे बच्चे को झूले में लिटा कर आप कुछ समय के लिए तो बेफिक्र हो ही सकते हैं. बच्चे को नींद आ जाए, तो और बढि़या. थोडे़ बड़े बच्चे के लिए हाई चेयर वरदान है. उस से बच्चा उतर कर भाग नहीं पाएगा और उस की फूड ट्रे पर आप उस का पसंदीदा भोजन रख सकती हैं या उस के खिलौने भी. बच्चा कुछ समय के लिए ही सही पर व्यस्त हो जाएगा.

कुछ रिजौर्ट्स में बच्चे जब इधरउधर भागते हैं तो वेटर्स उन का ध्यान रखते हैं ताकि मातापिता आराम से भोजन कर सकें. अत: जिस रैस्टोरैंट में ऐसी सुविधा हो वहां बच्चों के साथ खाना खाने जाएं.

कुछ रैस्टोरैंट्स में चिल्ड्रन मेन्यू अलग से होता है, जिस में बच्चों की पसंद का खास ध्यान रखते हुए खाने की चीजें होती हैं. ये मिर्च रहित और बच्चों को आकर्षित करने वाली चीजें होती हैं. बच्चों के साथ रैस्टोरैंट का चुनाव करने में यह एक मेजर प्लस पौइंट होता है.

बैग में जरूर हों ये सामान

बच्चों के साथ रैस्टोरैंट जाना हो, तो अपने बैग में ये सामान जरूर रखें:

बच्चे की पसंदीदा किताबें, गेम्स या पजल्स और खिलौने. ये चीजें यदि ऐसी हों जो उस ने पिछले 2-3 महीनों से नहीं खेली हों, तो और बढि़या. बच्चे 15-20 मिनट तो इन में जरूर व्यस्त रहेंगे. तब तक आप अपना भोजन आराम से कर सकते हैं.

बच्चे की बिब, भोजन गिरने पर साफ करने के लिए नैपकिन और कपड़े खराब होने पर बदलने के लिए 1 जोड़ी ऐक्स्ट्रा कपड़े.

कुछ नए छोटेछोटे खिलौने भी आप रख सकती हैं. मगर ध्यान रहे शोर करने वाले खिलौने न हों वरना रैस्टोरैंट में आसपास के लोगों की शांति में खलल पड़ेगा. नए खिलौने में बच्चेका ध्यान अधिक समय तक बंटा रहेगा. हैलिकौप्टर, कार आदि खिलौने बच्चा हाई चेयर की ट्रे पर भी चला सकता है.

बच्चे की खाने संबंधी पसंदनापसंद आप को अच्छी तरह पता होती है. यदि बच्चे को रैस्टोरैंट में मिलने वाला खाना पसंद नहीं है, तो

आप उस के लिए कुछ स्नैक्स व किशमिश वगैरह ले जा सकती हैं. वे बच्चे को अधिक समय तक व्यस्त रखने में उपयोगी होते हैं और बच्चे का पेट भी खराब नहीं करते.

इन बातों का भी रहे ध्यान

आप का अटैंशन और बातचीत: चाहे बच्चों को सौ तरीकों से व्यस्त रखने की कोशिश करें, किंतु उन के लिए आप का अटैंशन भी जरूरी है. यदि आप के बच्चे को लगा कि आप कहीं और मशगूल हैं, तो वह रो कर ध्यान आकर्षित करेगा. इस से यह है कि अच्छा आप बीचबीच में उस से बात करें. जैसेकि अरे वाह, आप ने सारी किशमिश फिनिश कर दी. आप के ऐरोप्लेन में पायलट कहां बैठता है? या वेटर अंकल आए हैं, क्या आप के खाने के लिए कुछ मंगा दूं? आदि.

बच्चे की पसंद का खाना और्डर करें: नन्ही प्रियांशी को टोमैटो और चिकन दोनों ही सूप बहुत पसंद हैं. इसलिए प्रीति और प्रीतेश जब भी रैस्टोरैंट जाते हैं, तो सब से पहले सूप और्डर करते हैं. फ्रैंच फ्राइस, चिकन नगेट्स आदि भी बच्चों को बहुत पसंद होते हैं.

कुछ डैजर्ट भी आप सिर्फ अपने रैस्टोरैंट विजिट के लिए रिजर्व कर सकती हैं. अंशिका को पता है कि जब वह मम्मीपापा के साथ रैस्टोरैंट जाएगी, तो उसे पुडिंग मिलेगा उसी चक्कर में वह रैस्टोरैंट में अच्छी बच्ची बन कर रहती है. पीक आवर्स से पहले पहुंचें: लंच और डिनर के कुछ पीक आवर्स होते हैं, जिन में रैस्टोरैंट्स में बहुत भीड़ होती है. अत: कोशिश करें कि आप उस से पहले पहुंचें ताकि आप को सर्विस के लिए इंतजार न करना पड़े.

कुछ अनुशासन के नियम घर में भी जरूरी: खाने और मुंह से पानी को फेंकने न देना और जोर से चिल्लाने के लिए मना करना, ऐसे कुछ नियम घर पर भी बच्चों को अनुशासित करने के लिए अपनाएं ताकि घर और बाहर दोनों ही जगह वे सलीकेदार रहें.

बाहर जाने से पहले समझाएं: ज्यादातर मातापिता को यही लगता है कि बच्चों को समझाने का कोई फायदा नहीं होता, पर हकीकत में ऐसा नहीं होता है. बच्चे बहुत समझदार होते हैं. यदि उन्हें प्यार से समझाया जाए, तो वे बाहर भी गुड मैनर्स जरूर अपनाएंगे.

ममता के धागों से बुना दोस्ती का रिश्ता

माधुरी दीक्षित अभी भी अभिनय से ले कर टीवी रिऐलिटी शो, ब्रैंड इंडोर्समैंट और औनलाइन डांस ऐकेडमी आदि में व्यस्त रहती हैं. पर इन सब से वे अपने परिवार के लिए समय अवश्य निकाल लेती हैं. माधुरी से हुई बातचीत में यह पता चला कि वे व्यस्त रहने के बावजूद भी किस तरह अपने परिवारिक दायित्वों को पूरा करती हैं.

बच्चों के साथ आप का रिश्ता किस तरह का है?

मैं अपने बच्चों की मां होने के साथसाथ उन की दोस्त और टीचर भी हूं. मेरे बच्चे मुझे तनाव मुक्त कर देते हैं. उन की बातें को सुनना, उन के साथ स्कूल में क्या हुआ, आगे उन्हें क्या करना है आदि बातों को जानना मैं रोज करती हूं. मैं एक ऐसी मां हूं जो बच्चे का होमवर्क पूरा हुआ कि नहीं इस का भी खयाल रखती हूं.

जरूरत पड़ने पर मैं एक स्ट्रिक्ट मां भी हूं जो अपने बच्चों को अनुशासन में रखती है ताकि उन का भविष्य अच्छा बने. पर इस के साथसाथ मैं उन के साथ सभी बातें शेयर भी करती हूं. अभी वे छोटे हैं, इसलिए मैं उन्हें दिशा निर्देश दे कर सही रास्ता चुनने के लिए प्रेरित करती हूं. ताकि बाद में वे गलतियां न करें और सही दिशा की ओर अग्रसर हों.

बच्चों से जुड़ा कोई वाकया जो आप हमारे साथ शेयर करना चाहेंगी?

मेरे बेटे रेयान और आरिन जब पहली बार मुंबई रहने आए थे तो उन्हें यह शहर बहुत खराब लगा था. वे हमेशा पूछा करते थे कि मम्मी यहां के रास्ते इतने गंदे क्यों हैं? भिखारी रास्ते पर भीख क्यों मांगते हैं आदि? पर अब वे ऐसी बातें नहीं पूछते. स्कूल में उन के काफी दोस्त बन गए है. वे उन के घर भी आयाजाया करते हैं. मेरा आधा संघर्ष यहीं खत्म हो चुका है क्योंकि उन्हें अपना स्कूल और यह शहर पसंद आ गया है. मेरे हिसाब से वही सही समय था जब मैं बच्चों के साथ मुंबई आ गई. अगर उन के बड़े होने पर आती, तो वे शायद यहां ऐडजस्ट नहीं कर पाते या फिर आना ही नहीं चाहते.

अमेरिका से वापस आने के बाद आप एक बार फिर व्यस्त हो गई हैं. ऐसे में अपने पारिवारिक दायित्वों को कैसे पूरा करती हैं?

मैं अपने समय को सही तरीके से मैनेज करना जानती हूं. मेरा मानना है कि अगर बच्चे मुझे काम करते हुए देखेंगे तो वे और अधिक जिम्मेदार हो जाएंगे क्योंकि मातापिता का असर बच्चों पर सब से अधिक होता है.

मेरे काम में मेरे पति का बहुत सहयोग रहता है. उन में खूबी यह है कि वे विश्व के किसी भी कोने में ऐडजस्ट कर सकते हैं. उन्होंने अपना मैडिकल प्रोफैशन छोड़ कर मेरा साथ दिया. अभी वे मेरे प्रोडक्शन हाउस को संभाल रहे हैं. वे बहुत ही शांत प्रकृति के हैं. मैं कई बार कुछ निर्णय नहीं ले पाती, तो ऐसे में उन की राय लेती हूं. वे किसी भी काम को दृढ़तापूर्वक करते हैं. उन का निर्णय तुरंत होता है.

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