क्यों नहीं हो पा रहा आपका रिलेशनशिप मजबूत, जानें यहां

एक-दूसरे को खोने का डर और हद से ज्यादा इंटरफेयर और केयर कभी-कभी रिश्तों को बोझिल बना देता है. “वह मेरा है और सिर्फ मुझसे प्यार करता है” ऐसी धारणा चिंता का विषय बन जाता है और बात न होते हुए भी बात-बात पर झगड़ा करना तनाव का कारण बन जाता है. कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि आपके साथ गलत हो रहा होता है लेकिन उसको खोने के डर से आप गलत चीजों को भी अवॉयड कर देते हैं जोकि कुशल रिश्ते के लिए ये सकारात्मक चीजें नहीं हैं. फिर भी आप अपनी चाहत देखते हो और उसको अपने से दूर नहीं करना चाहते हैं.

कुछ इसी तरह के लक्षण रिलेशनशिप में ब्रेक ला सकती है. ऐसा क्यों होता है, किसी रिश्ते में विश्वासनीयता में कमी क्यों आती है और क्यों रिश्तों को संभालना इतना मुश्किल हो गया है. चलिए जानते हैं कुछ प्वांइट्स के बारे में जो आप कहीं न कहीं मिस कर जाते हो-

  • फियर ऑफ़ मिसिंग आउट
  • अकेलेपन का डर
  • आदत बन जाना
  • असुरक्षा की भावना

फियर ऑफ़ मिसिंग आउटहमेशा उस चीज के बारे में डरना, जिसका असल में कोई अस्तिव ही नहीं है. अपने पार्टनर को लेकर ये मिस अंडरस्टैंडिंग बना लेना कि आगे क्या होगा, भविष्य कैसा होगा? क्या हम दोनों हमेशा साथ रह सकेंगे? ऐसे ही कई सारे सवाल जो आपके अंदर बेचैनी ला देते हैं और इन्हीं बातों को लेकर आप परेशान रहते हैं. सबसे ज्यादा सवाल तो यह आता है कि “वह तो सुंदर है उसे तो और मिल जाएंगे पर मेरा क्या होगा, मुझे कौन पूछेगा? मैं कैसे रहूंगा…?” यही कारण है कि आप अपने आपमे संतुष्ट नहीं होते हैं और हमेशा खोने का डर बना रहता है जिससे आप प्यार के लिए तरसते रहते हैं.

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अकेलेपन का डर

फिर से अकेलेपन का डर आपको सुकून से वह पल भी नहीं बिताने देता जो आप उस समय अपने पार्टनर के साथ जी रहे होते हैं. जबिक यह बात आप अच्छी तरह से जानते हैं कि वह आपके साथ लंबे समय तक एक-साथ नहीं रह सकेगा, फिर भी आप यह सोचकर कम्प्रोमाइज करने के लिए तैयार रहते हैं कि वह जिसके साथ रहेगा आप मैनेज कर लोगे क्योंकि आप अपने को कभी उससे दूर रखना पसंद नहीं करते हो. अगर आपसे अलग हो जाएगा तो आप कैसे रहेंगे, इसी डर को लेकर आप अकेलेपन से डरते हैं.

आदत बन जाना

नेहू अपने पार्टनर से बहुत प्यार करती है, उसने अपने पार्टनर को अपनीआदत बना ली है. यानि कि उसका पार्टनर उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा होता है फिर भी वह उसे सहन करती है और यह सोचती है कि थोड़े समय बाद सब ठीक हो जाएगा. लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है, नेहू का पार्टनर उससे बुरा बर्ताव करता है और वह उसे सुनती रहती है. ऐसा इसलिए क्योंकि नेहू ने उसे अपनी आदत में शामिल कर लिया है और बिछड़ने का डर भी उससे यह सब सुनने को मजबूर कर देता है. ऐसा तभी हो रहा होता है क्योंकि कहीं न कहीं नेहू के पास्ट में ऐसी ही कोई घटना पहले हो चुकी होती है. शायद यही कारण है कि उसे अपने पार्टनर से जुदा होने का डर हमेशा सताता रहता है और उसकी आदत उसके पार्टनर को और भी ज्यादा उस पर हावी होने का मौका देती है.

असुरक्षा की भावना आना

असुरक्षा की भावना आना हर किसी के मन का शंका का विषय रहता है. अपने आपको किसी अन्य से तुलना करने पर कमतर समझना यही आत्मविश्वास को कमजोर करती है और आप अपने व्यक्तित्व के मूल्य को समझने में विफल रहते हैं. आप अपने पार्टनर को लेकर भी असुरक्षित फील करते हैं. कहीं आपका पार्टनर आपके अलावा किसी और से संबंध न बना ले, ऐसी भावना आना हर महिला या पुरुष का स्वाभाविक स्वभाव होता है.

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ऐसे में आप अपने आपको अकदम फ्री कर दें और प्रकृति की गोद में अपना समय दें जिससे आप असुरक्षित न महसूस कर सकें. नेचर से आपको मन को शांति और शुकून दोनों ही मिलेगा. साथ ही आप अपने रिश्ते को कुछ पल के लिए ही सही खुलापन दीजिए जिससे आप एक-दूसरे को समझ सकें और एक मजबूत रिश्ता बना सकें.

आजादी पर भारी शादी

‘‘बदलते समय के साथ न केवल लोगों की लाइफस्टाइल में बदलाव आया है, बल्कि उन की सोच और सामाजिक तौरतरीके भी बदले हैं. यह सही है कि आजकल लड़कियां अपने कैरियर और आजादी को प्राथमिकता दे रही हैं, लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि शादी के लिए अब लड़कों की लड़कियों से उम्मीदें भी बढ़ गई हैं. मैट्रो सिटी में रहनसहन के स्तर को संतुलित बनाए रखने के लिए लड़के उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियों को ही प्राथमिकता देते हैं. ऐसे में लड़कियां अपने सुरक्षित भविष्य के लिए शादी करने में समय ले रही हैं. मुझे इस में कोई बुराई नहीं नजर आती. हां, शादी टालने की एक सीमा जरूर होनी चाहिए क्योंकि इस को जरूरत से ज्यादा टालने के विपरीत परिणाम भी हो सकते हैं.’’

सोनल, ऐसोसिएट एचआर

‘‘यह हमेशा याद रखें कि आप का ऐटिट्यूड किसी भी रिश्ते को बनने से पहले ही उसे खोखला करना शुरू कर देता है, जबकि बौंडिंग किसी भी रिश्ते को गहरा व मजबूत बनाती है.’’

28 साल की तान्या न सिर्फ गुड लुकिंग है बल्कि एक अच्छी मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर पोजिशन पर कार्यरत भी है. लेकिन अभी भी तान्या सिंगल है. शादी की बात आते ही तान्या उसे टाल जाती है.

हिना का भी हाल कुछ ऐसा ही है. हिना मौडलिंग करती है, ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़ी है और दिखने में काफी स्टाइलिश है. हिना से शादी करने को न जाने कितने लड़के बेताब हैं, लेकिन हिना अब तक कई प्रपोजल्स रिजैक्ट कर चुकी है. रिजैक्शन के पीछे वजह सिर्फ यही है कि हिना को लगता है कि भले ही उस का पार्टनर उसे शादी के बाद काम करने भी दे, लेकिन उस की आजादी तो कहीं न कहीं उस से छिन ही जाएगी. बस, यही वजह है कि हिना पेरैंट्स के कहने पर लड़कों से मिलती जरूर है, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ाती.

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यह कहानी सिर्फ तान्या और हिना की ही नहीं, बल्कि आज हमारे समाज की उन ढेर सारी लड़कियों की है, जो अपनी पढ़ाईलिखाई कर सिर्फ अपनी जौब और कैरियर को प्रिफरैंस देती है. इन के लिए शादी प्रिफरैंस लिस्ट में तो दूर की बात, ये तो शादी के नाम से ही कतराती हैं.

बदल गए हैं जिंदगी के माने

अगर हम यह कहें कि अब समाज में लड़कियों की जिंदगी के माने पूरी तरह बदल चुके हैं, तो शायद यह भी गलत नहीं होगा. लड़कियां शादी कर चूल्हाचौका संभालने की सोच से बाहर निकल कर अपने कैरियर और समाज की सोच को एक नई दिशा दे रही हैं. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि बदलते जमाने के साथ कदम से कदम मिला कर चलने वाली ये पीढ़ी वाकई सही है या इस सफलता में छिपा है डिपै्रशन और फ्रस्ट्रेशन भी.

हाल ही में कई बड़े शहरों में एक सर्वे के दौरान एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया. बड़े शहरों की पढ़ीलिखी लड़कियां अच्छी पढ़ाई कर प्रोफैशनली बाजी जरूर मार रही हैं, लेकिन उन की व्यक्तिगत जिंदगी उन्हें इतना परेशान कर रही है कि उस के चलते कई लड़कियां डिप्रैशन की शिकार हैं.

दिल्ली में पढ़ीलिखी गुड लुकिंग 36 साल की प्रीति मल्टी नैशनल कंपनी में सीनियर लीगल ऐडवाइजर है. देखने में खूबसूरत व स्टाइलिश और कैरियर में सैटल होने के बावजूद भी प्रीति अभी भी सिंगल है. शादी के लिए उस के पास ढेर सारे प्रपोजल्स तो हैं मगर साथ ही कन्फ्यूजन भी कि शादी करे तो किस से? जो लड़का प्रीति को पसंद आता है उसे प्रीति को प्रोफाइल मैचिंग नहीं लगता और जिसे प्रीति पसंद आती है उस से प्रीति आगे बात बढ़ाना ही नहीं चाहती.

ऐसा सिर्फ प्रीति के साथ ही नहीं बल्कि न जाने कितनी लड़कियों के साथ होता है, जो कैरियर में सैटल होने के बावजूद भी सही उम्र में शादी नहीं कर पातीं क्योंकि शादी के लिए उन की कुछ शर्तें भी होती हैं. आमतौर पर सभी शर्तों को पूरा करने यानी उन की कसौटी पर खरा उतरने के नाम से ही लड़के कन्नी काटने लगते हैं और अच्छी पढ़ीलिखी बड़े शहरों की लड़कियों के बजाय छोटे कसबे या गांव की कम पढ़ीलिखी लड़कियों को ही चुनना ज्यादा पसंद करते हैं.

ये बात थोड़ी चौंकाने वाली जरूर है लेकिन यही हकीकत है कि कम से कम 50% बड़े शहरों की लड़कियां अपनी आजादी को खोने के डर से अब शादी को तवज्जो नहीं देतीं.

35 वर्षीय दीप्ति एक नैशनल न्यूज चैनल में एक अच्छी पोस्ट पर काम करती हैं और सिंगल हैं. शादी से जुड़े सवाल पर तपाक से कहती हैं, ‘‘अच्छी है न जिंदगी क्योंकि कोई रोकटोक नहीं है. अपने तरीके से अपनी लाइफ ऐंजौय कर रही हूं. अपने पेरैंट्स का खयाल रखती हूं. अपना घर, गाड़ी सब कुछ है, तो ऐसे में शादी कर कई हजार बंदिशों में बंध रिस्क क्यों लिया जाए?’’

असल में ऐसी सोच सिर्फ दीप्ति की ही नहीं बल्कि शहरों में पलीबढ़ी 60% लड़कियों की है. या तो ये शादी करना नहीं चाहतीं या फिर अगर शादी करती भी हैं तो अपनी शर्तों पर. ऐसे में जाहिर सी बात है कि हमारे पितृसत्तात्मक समाज के लड़कों के माथे पर सिकुड़न पड़ना तय है.

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कशमकश में उलझी हैं सफल महिलाएं

अजीब सी कशमकश में उलझी ऐसी सफल महिलाएं उम्र के इस पड़ाव पर आने के बावजूद भी शादी करने का फैसला सही उम्र में नहीं ले पातीं. जब तक हो सके अकेले ही रहना चाहती हैं, जिस की एक सीधी सी वजह यह है कि अब लड़कियां शादी जैसे बंधन में बंधने के लिए अपनी जिंदगी में न तो कोई बदलाव लाना चाहती हैं और न ही कोई समझौता करना चाहती हैं. जिस की सब से बड़ी वजह यही है कि अब लड़कियां अपनी आजादी नहीं खोना चाहतीं.

लेकिन इन का यही फैसला कहीं न कहीं इन के लिए एक वक्त के बाद मुश्किलें भी खड़ी कर देता है. एक वक्त के बाद सिंगल रहना अखरने भी लगता है. जिंदगी के सफर में तनहाई काटने को दौड़ती है. उस वक्त जरूरत महसूस होती है एक ऐसे साथी की जो हमसफर बन कर आप के साथ जिंदगी के सुखदुख साथ बांट सके.

अब सोचने वाली बात यह है कि लड़कियों की यह सोच वाकई समाज के माने बदल समाज को एक सही दिशा में जा रही है या फिर इस सोच के कल कई दुष्प्रभाव समाज पर पड़ सकते हैं?

सालता भी है अकेलापन

अगर देखा जाए तो लड़कियों का शादी जैसे मुद्दे पर खुद फैसला लेना सही है, लेकिन अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीने की चाहत में इस खूबसूरत पड़ाव से कतराना भी समझदारी नहीं, क्योंकि कुछ वक्त के बाद इंसान को अकेलापन सताने लगता है और अकेलेपन से बचना वाकई बड़ा मुश्किल है.

एक जमाने की मशहूर अदाकारा परवीन बौबी को ही ले लीजिए. उन की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी. एक वक्त था जब परवीन के पास ढेरों प्रपोजल्स थे. न जाने कितने नौजवान उन से शादी करने को बेताब थे. मगर उस वक्त सफलता के नशे में चूर परवीन बौबी सारे प्रपोजल्स टालती गईं. शादी की बात को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया. लेकिन बाद में उन का यही फैसला उन के लिए काफी नुकसानदायक साबित हुआ. उन की जिंदगी के अंतिम दिनों में उन का अकेलापन ही उन की मौत का कारण बना.

एक जमाने में लाखोंकरोड़ों दिलों पर राज करने वाली इस खूबसूरत अदाकारा की जिंदगी में एक वक्त ऐसा भी आया, जब इस ने खुद को अपनी तनहाई के साथ घर की चारदीवारी में कैद कर लिया. परवीन पर अकेलापन ऐसा हावी हुआ कि वे न सिर्फ डिप्रैशन में चली गईं बल्कि उन का मानसिक संतुलन तक बिगड़ गया. यहां तक कि उन्होंने लोगों से मिलनाजुलना तक बंद कर दिया और फिर एक दिन वही हुआ, जब करोड़ों दिलों पर राज करने वाली इस अदाकारा ने अंतिम सांस ली, इन के पास कोई नहीं था. यहां तक कि इन की मौत का पता भी कई दिनों के बाद इन के पड़ोसियों को दरवाजे पर लटकी दूध की थैलियों और दरवाजे के पास पड़े अखबार के बंडलों से चला. फिर जांचपड़ताल के बाद घर के अंदर उन की लाश मिली तब जा कर पता चला कि लाखोंकरोड़ों दिलों की चहेती परवीन बौबी इस दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं.

ऐसा सिर्फ परवीन बौबी के साथ ही नहीं हुआ. इस के और भी ढेर सारे उदाहरण आप को मिल जाएंगे. हकीकत में यह अकेलापन ऐसी बीमारी है, जो बाद में डिप्रैशन का रूप ले लेती है आगे चल कर जिंदगी के लिए काफी नुकसानदायक साबित हो सकती है. इसलिए बेहतर है कि जिंदगी को गंभीरता से लें.

क्या करें क्या न करें

शादी का बंधन इतना नाजुक नहीं होता कि उसे जब चाहे तोड़ लो और जब मन करे जोड़ लो. निश्चित तौर पर काफी सोचनेसमझने के बाद ही यह फैसला लेना सही होता है. और अगर आप अपने हिसाब से जीवनसाथी चुनना चाहती हैं तो इस में भी हरज कुछ नहीं, लेकिन ध्यान रखें कि आप जरूरत से ज्यादा चूजी भी न हो जाएं क्योंकि यह इकलौती वजह ही ढेरों प्रपोजल रिजैक्ट करने के लिए काफी होती है.

किसी भी रिश्ते को पनपने से पहले ही अपनी शर्तों में न बांध दें. किसी भी रिश्ते की बौंडिंग मजबूत होने में वक्त लगता है, तो आप भी अपने रिश्ते को वक्त दें. सामने वाले इंसान को पहले समझने की कोशिश करें.

परफैक्शन में नहीं हकीकत में विश्वास करें. यह कोई प्रोफैशनल टास्क नहीं है, जिस में आप को या आप के हमसफर को परफैक्शन के मापदंड पर खरा उतरना है. यह फिल्मी दुनिया नहीं बल्कि हकीकत है. हकीकत पर भरोसा करें. चांद सब से खूबसूरत होता है, लेकिन उस में भी दाग है. वही कहानी इंसानों की भी है. इसलिए परफैक्शन में जाने के बजाय प्रैक्टिकल हो कर सोचें.

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फैसले का सही वक्त क्या हो

सही उम्र में सही फैसला लेना भी जरूरी होता है. कैरियर के साथसाथ पर्सनल लाइफ पर भी ध्यान दें. यदि आप ने समय से अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के मनचाहा मुकाम हासिल कर लिया है तो शादी का फैसला बेवजह टालने में समझदारी नहीं है.

ऐटिट्यूड में नहीं बौंडिंग में यकीन करना सीखें. हमेशा याद रखें कि आप का ऐटिट्यूड किसी भी रिश्ते को बनने से पहले ही उसे खोखला करना शुरू कर देता है जबकि बौंडिंग किसी भी रिश्ते को और गहरा और मजबूत बनाती है.

पहले से किसी इंसान या उस के प्रोफैशन को ले कर उस के प्रति अपने मन में कोई धारणा न बना लें. प्यार और विश्वास से एक नए रिश्ते की शुरुआत करें.

कई बार लड़कियां जब शादी के लिए किसी से मिलती हैं, तो वे उस लड़के की अपने ड्रीम बौय या फिर अपने आदर्श इंसान से तुलना शुरू कर देती हैं जो सही नहीं है, हर इंसान का व्यक्तित्व, व्यवहार और खूबियां अलगअलग होती हैं. इसलिए जब भी आप किसी से मिलें तो बेवजह उस की किसी और से तुलना न शुरू कर दें.

जैसे जीवनसाथी की कल्पना आप ने अपने लिए की है वैसा ही आप को मिले, यह थोड़ा मुश्किल है. ऐसे में बेहतर यही होगा कि समझदारी के साथ जीवनसाथी का चुनाव करें और यह विश्वास रखें कि शादी के बाद भी आपसी समझ से रिश्ते को बेहतर बनाया जा सकता है. अकेला रह कर आप क्षणिक सुख तो पा सकती हैं पर सारी जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए एक हमकदम का साथ जरूरी होता है.

इस बात पर यकीन करें कि एक खूबसूरत जिंदगी एक अच्छे हमसफर के साथ आप का इंतजार कर रही है. बस जरूरत है तो सिर्फ पहल करने और गंभीरता से सोचने की. तो देर किस बात की, शुरुआत कीजिए और कदम बढ़ाइए इस खूबसूरत जिंदगी की तरफ.

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क्या आपको पता है महिलाओं के ये 12 सीक्रेट

महिलाओं की जिंदगी में कुछ ऐसी बातें होती हैं, जिसे वह किसी शेयर नही करतीं. साथ ही बहुत सी ऐसी बातें है जिसकी चाहत हर महिला को होती है लेकिन वो स्‍वयं इन्हें अपनी जुबां से कभी नहीं कहती, लेकिन कभी-कभी आपके काम ऐसी बातें लड़कों के काफी काम आ सकती हैं. जैसे उनका प्रेमी उनके नखरे उठाएं, उनके आगे-पीछे घूमें, उन्हें महत्‍वपूर्ण समझें, उनकी हर बात मानें.

1. महिलाओं के सीक्रेट

महिलाओं का स्‍वभाव बहुत शार्मिला होता है. इसलिए उनके दिल की बात को जुबां तक आने में काफी समय लगता हैं. लेकिन बहुत सी बातें ऐसी है जो हर महिला चाहती हैं. जैसे अपने प्रेमी से प्‍यार और देखभाल की उम्‍मीद, साथ ही यह भी की उनका प्रेमी उनके नखरे उठाएं, उनके आगे-पीछे घूमें, उन्हें महत्‍वपूर्ण समझें, उनकी हर बात मानें. आइये इसके अलावा महिलाओं की सीक्रेट के बारे में जानें.

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2. अपनी तारीफ सुनना

महिलाओं को हमेशा उनकी तारीफ करने वाले पुरुष बहुत अच्‍छे लगते हैं. ऐसे में उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगता है जब प्रेमी उनमें किसी भी तरह का बदलाव दिखने पर तुरंत उनकी प्रशंसा करें. जैसे अगर महिला फिट दिखें, कोई नया हेयरकट करवाया हो या आकर्षक लगें, तो उनकी तारीफ जरुर करें.

3. ध्यान रखने वाला पुरुष

महिलाओं को केयर करने वाले पुरुष बहुत पसंद होते है. महिलाएं संवेदनशील होती है इसलिए उन्‍हें ऐसे ही पुरुष बहुत अच्‍छे लगते है. जो परेशानी के समय उनकी अच्‍छे से देखभाल कर सकें.

4. कपड़ों से प्रभावित होना

ज्‍यादातर महिलाएं पुरूषों को उनके पहनावे से भी पसंद करती है. इसलिए पुरुषों को चाहिए कि वह महिलाओं को अपने कपड़ों से प्रभावित करने की कोशिश करें. पुरुषों को हमेशा अपने सौंदर्य और कपडों पर ध्यान देना चाहिए. अगर, महिलाएं आपको टाइट जींस में देखना पसंद करती है, तो उनके लिए ज्यादातर टाइट जींस पहनें.

5. पुराने संबंधों के बारे में जानना

अगर महिलाएं आप से आपके पुराने संबंधों के बारे में बात करना चाहे, तो इसका अर्थ यह नहीं कि आपने कुछ गलत किया है. अपने संबंधों के बारे में बात करने से ना डरें. यह तो आप दोनों के लिए अच्छी बात है, क्‍योंकि सच्चाई और लंबी बातचीत आप लोगों को एक दूसरे के करीब ला सकती है.

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6. सुझावों को थोपें नहीं

अकसर पुरुष महिलाओं की समस्‍या सुने बिना अपने सुझावों को उनपर थोपने लगते हैं. पुरुष, अपने राय को उन पर थोप कर उनकी दुनिया को सीमित कर देते हैं. इसलिए अगर वह किसी बात से परेशान है, तो उन्हें सलाह देने से पहले उनकी बात को अच्‍छे से सुनें.

7. रिश्‍ते में रोमांस

महिलाएं अपने रिश्‍ते की कद्र करने के साथ रिश्‍ते में रोमांस को निरंतर बनाये रखना चाहती हैं. इसलिए यह जरूरी है कि आपका रिश्‍ता चाहे वह 5 म‍हीने से हो या 5 सालों से उसमें रोमांस को हमेशा बनाये रखें.

8. कमियों को जानना

महिलाओं को प्रशंसा करने वाले पुरुषों के साथ-साथ कमियां बताने वाले पुरुष भी पसंद होते हैं. जैसे, अगर महिला लंबे समय तक काम करने के बाद काफी थक गई हैं और चिडचिडापन महसूस कर रहीं हैं तो उस समय उनकी कमी को बताने वाले पुरुष पसंद आते हैं.

9. बातों को ध्‍यान से सुनना

महिलाएं अकसर यह जानने की कोशिश करती हैं कि उनकी बातों को आप कितनी ध्‍यान से सुनते हो और कैसे प्रतिक्रिया देते हैं. इसलिये महिलाओं से बात करते समय केवल सर हिलाना काफी नहीं है उनकी बात को महत्वपूर्ण ढंग से सुने.

10. सेक्स में उनकी चाहत

महिला अकसर सेक्‍स के बारे में बात करना और अपने साथी को खुश करना चाहती हैं. इसलिए आप भी सेक्‍स के दौरान वह करें जो महिला साथी चाहती है. इसके लिए विनम्र दृष्टिकोण अक्सर सबसे अच्छा होता है. पहले, यह पूछे कि वह क्या चाहती है. फिर अपनी इच्छा को सकारात्मक और सही तरीके से उनके सामने व्यक्त करें.

11. शिष्टता का व्‍यवहार

जब रोमांस की बात आती है तो बहुत सारी महिलाएं पुरुषों की पारंपरिक मर्दाना भूमिका ही पसंद करती है. जैसे लड़की बैठने के लिये खुद ही कुर्सी खीच सकती हो, लेकिन वह आपका इंतजार करती है कि आप उसको कुर्सी खींच कर दें. तो समय आ गया है कि आप उसकी नजरों में सज्जन पुरुष बन जाएं.

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12. आपकी शर्ट उनके लिए प्यार का चुंबक

क्‍या आपकी महिला साथी आपके स्‍वेटर में सिकुड़ने या शर्ट में घुसने का प्रयास करती हैं. कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार, महिलाओं को पुरुष के पसीने की गंध से आरामदायक प्रभाव पड़ता है. क्‍या आप महिलाओं के इस सीक्रेट के बारे में जानते हैं.

क्या मां बनने के बाद लग जाता है करियर पर ब्रेक?

प्रोफैशनल वर्ल्ड में महिलाओं के लिए गर्भावस्था चुनौतीपूर्ण समय होता है. सिर्फ शारीरिक तौर पर ही नहीं, बल्कि इस समय उन के सामने मानसिक तौर पर भी बहुत सारी चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं. गर्भावस्था में पेश आने वाली चुनौतियों में से एक नौकरी के स्तर पर महसूस होने वाली चुनौती भी है. इस संदर्भ में हुए एक शोध में यह बात सामने आई है कि गर्भावस्था के दौरान ज्यादातर महिलाओं को नौकरी से निकाले जाने का डर लगा रहता है.

अधिकतर कामकाजी महिलाओं को ऐसा लगता है कि गर्भवती होने से उन की नौकरी को खतरा हो सकता है. उन्हें नौकरी से निकाल दिया जा सकता है जबकि पिता बनने वाले पुरुषों को अकसर नौकरी या कार्यस्थल पर बढ़ावा मिलता है.

क्या कहता है शोध

अमेरिका की फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी के शोध से जुड़े इस निष्कर्ष को ऐप्लाइड मनोविज्ञान के जर्नल में प्रकाशित किया गया. इस में इस बात की पुष्टि की गई है कि मां बनने वाली औरतों को ऐसा महसूस होता है कि गर्भ के दौरान व बाद में कार्यस्थल पर उन का ठीक से स्वागत नहीं किया जाएगा.

अध्ययन में पाया गया कि जब कामकाजी महिलाओं ने अपनी प्रैगनैंसी का जिक्र अपने मैनेजर या सहकार्यकर्ताओं से किया तो उन्हें कैरियर के क्षेत्र में प्रमोशन दिए जाने की दर में कमी आई जबकि बाप बनने वाले पुरुषों को प्रमोशन किए जाने की दर में बढ़ोतरी हुई.

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स्त्री सशक्तीकरण के इस दौर में जब महिलाएं हर क्षेत्र में कामयाबी के झंडे गाढ़ रही हैं, इस तरह के खुलासे थोड़ा हतोत्साहित करते हैं, पर यह हकीकत है. कहीं न कहीं घरपरिवार के साथ कार्यस्थल की दोहरी जिम्मेदारियों के बीच स्त्री का कैरियर पीछे छूट ही जाता है. वह चाह कर भी दोनों क्षेत्रों में एकसाथ बेहतर परिणाम नहीं दे पाती.

इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद एक स्त्री का प्राकृतिक दायित्व अपने परिवार की तरफ होता है. बड़ेबुजुर्गों की सेवा, पति व अन्य परिजनों की देखभाल, बच्चों की परवरिश जैसे काम उसे निभाने ही होते हैं. इस के अलावा शादी के बाद परिवार बढ़ाना भी एक सामाजिक जिम्मेदारी है. वैसे भी आम भारतीय घरों में एक मां से यह अपेक्षा की जाती है कि वह हर तरह के हितों को जिन में उस के खुद के हित भी शामिल हैं, को बच्चे से नीचे रखे.

गर्भावस्था और उस के बाद के 1-2 साल स्त्री को अपने साथसाथ नए मेहमान की सुरक्षा और जरूरतों का भी पूरा खयाल रखना होता है. ऐसे में यदि उसे घर से पूरी सपोर्ट, अच्छा माहौल, आनेजाने यानी ट्रांसपोर्ट की बेहतर सुविधा न मिले तो नई मां के लिए सबकुछ मैनेज करना बहुत कठिन हो जाता है.

एक तरफ जहां उस से घर के सारे काम करने और परिवार की तरफ पूरी जिम्मेदारियां निभाने की अपेक्षा की जाती है, वहीं दूसरी तरफ औफिस में इंप्लौयर भी अपने काम में कोई कोताही नहीं सह सकता. मां कैरियर के किसी भी मुकाम पर क्यों न हो बात जब बच्चे के जन्म और पालनपोषण की आती है तो पिता के मुकाबले एक महिला पर बहुत सारी जिम्मेदारियां आ जाती हैं और इस दौरान उसे बहुत त्याग करने पड़ते हैं. उसे कैरियर के बजाय परिवार को प्राथमिकता देनी पड़ती है.

कामकाजी महिलाओं की संख्या में कमी

विश्वबैंक की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या लगातार कम हो रही है. कार्यक्षेत्र में हिस्सेदारी के मामले में भारत की महिलाएं 131 देशों में 121वें स्थान पर हैं. यह धर्म के कारण भी है, क्योंकि केवल गर्भधारण या बच्चे ही नहीं, धार्मिक पाखंड पूरे करने में भी कामकाजी औरतों को रिआयत नहीं दी जाती और उन्हें घर, परिवार, पति, बच्चों के साथ धार्मिक रीतिरिवाज भी पूरे करने पड़ते हैं, जिस से काम के बारे में सोचने या घर पर काम करने की क्षमता नहीं रहती.

2004-05 में देश में लगभग 43 फीसदी महिलाएं कामकाजी थीं. कुछ ऐसा ही आंकड़ा 1993-94 में भी था. लेकिन 2016-17 में जब देश नए कीर्तिमान रच रहा था कामकाजी महिलाओं का आंकड़ा 27% से भी कम होता जा रहा था.

हमारे देश से अच्छी स्थिति नेपाल, बंगलादेश और श्रीलंका जैसे देशों की हैं. जैसेजैसे देश में धर्म का प्रचार बढ़ रहा है, औरतों की नौकरियां कम हो रही हैं. औरतों को तो मंदिरों से फुरसत नहीं रहती.

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 के बीच विभिन्न कारणों से 1.97 करोड़ महिलाओं ने नौकरी छोड़ी. यह बात अलग है कि जो महिलाएं काम कर रही हैं वे अपनी काबिलीयत के झंडे गाढ़ रही हैं. मगर इन की संख्या संतोषजनक नहीं है.

ग्लोबल जैंडर 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक 144 देशों में किए गए सर्वे में भारत 136वें नंबर पर है. भारत में महिला कार्यबल की भागीदारी महज 27% है, जो वैश्विक औसत के मुकाबले 23% कम है.

वर्ल्ड इकौनौमिक फोरम द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 5 में से 4 कंपनियों में 10% से भी कम महिला कर्मचारी काम कर रही हैं. भारत की ज्यादातर कंपनियां महिलाओं की जगह पुरुष कर्मचारियों को भरती करना पसंद करती हैं.

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मैटरनिटी बैनिफिट ऐक्ट 2016 के जरीए प्रैगनैंसी के दौरान छुट्टियों को 12 हफ्ते से बढ़ा कर 26 हफ्ते किया गया है ताकि महिलाओं को इस तनाव से उबारा जा सके. हालांकि अभी असंगठित क्षेत्रों में यह तनाव बरकरार है पर सरकारी नौकरियों में बहुत हद तक महिलाएं इस तनाव से बाहर आ रही हैं.

दरअसल, मैटरनिटी लीव के बढ़ते दबाव के कारण कंपनियां महिलाओं को भरती करने से गुरेज करती हैं. बड़ी कंपनियां इस मामले में सकारात्मक रूख अपनाती हैं. वे ऐक्ट से हुए बदलाव का समर्थन करते हुए महिलाओं की भरती में कोई कमी नहीं करतीं. लेकिन असली दिक्कत छोटी और मीडियम कंपनियों से है. इन में महिलाओं की सैलरी कम करने जैसे तरीके अपनाए जाते हैं या इन की हायरिंग ही कम कर दी जाती है.

इंप्लौयर का पक्ष भी देखें

अगर कोई महिला प्रैगनैंसी के बाद 6 माह लीव पर चली जाए और इंप्लौयर को उस के बदले किसी और को रखने की जरूरत न पड़े तो इस का मतलब यह भी माना जा सकता है वह जो काम कर रही थी न के बराबर का था और उस के न होने से किसी को फर्क नहीं पड़ेगा. मान लीजिए कि किसी कंपनी या एक सरकारी यूनिवर्सिटी में कोई महिला काम कर रही है और उसे बच्चे के बाद 6 माह की लीव पर जाना पड़ा. उस के बाद भी उस ने एकडेढ़ साल की पेड लीव ले ली.

जाहिर है, इतने समय तक उस के बगैर काम चल सकता है यानी उस के पास कोई महत्त्वपूर्ण काम नहीं. कार्यालय में उस की उपयोगिता न के बराबर है. उस के होने या न होने से कंपनी या यूनिवर्सिटी को कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर यदि उस के बदले किसी और को ऐडहौक पर रखना पड़ता है तो फिर यही इंगित करता है कि कंपनी को उस महिला की वजह से नया इंप्लोई रखने पर खर्च करना पड़ा. ऐसे में इंप्लौयर अपनी सुविधा देखते हुए भविष्य में महिला इंप्लौइज को कम से कम लेना शुरू कर देगा या फिर उन की सैलरी शुरू से कम रखेगा ताकि भविष्य में उसे अधिक नुकसान न हो.

पारिवारिक ढांचा है मददगार

महिलाओं की इन तमाम दिक्कतों से निबटने में घर और औफिस में अच्छा सपोर्ट सिस्टम मदद कर सकता है. अगर बौस वूमन हो तो इन दिक्कतों को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. इसी तरह परिवार का सहयोग भी काफी माने रखता है. जैसेजैसे संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं वैसेवैसे बच्चों की परवरिश मुश्किल होती जा रही है. जहां एक अध्ययन के मुताबिक एक छोटा बच्चा होने से महिलाओं के रोजगार पर नकारात्मक असर पड़ता है, वहीं किसी बड़ी महिला के परिवार में होने से कामकाजी महिलाओं के काम करने के आसार बढ़ जाते हैं.

इस तरह मां बनने वाली महिलाओं के प्रति कैरियर से जुड़े प्रोत्साहन को कम नहीं किया जाना चाहिए. इस के विपरीत मातापिता दोनों को ही सामाजिक और कैरियर से जुड़ी हर संभव सहायता प्रदान करनी चाहिए ताकि काम और परिवार से जुड़ी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने में उन्हें मदद मिले.

इस दौर में पिता की भूमिका भी तेजी से बदल रही है. उन को मालूम है कि 2 कमाने वाले होंगे तो बेहतर रहन-सहन हो सकता है. इसलिए अब वे अपनी पत्नी की सपोर्ट कर रहे हैं. फिर भी जब तक रूढि़वादी मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक रियल में हालात नहीं बदल सकते.

क्या है समाधान

यदि कैरियर के साथ प्रैगनैंट होना है तो प्रयास करें कि 35 के बाद यह नौबत आए, क्योंकि उस समय तक लड़की अपने पेशे से जुड़े हुनर अच्छी तरह सीख चुकी होती है. वह कैरियर के मामले में सैटल और हर तरह से मैच्योर रहती है. उस में इतनी काबिलीयत आ जाती है कि घर से भी काम कर के दे सकती है. वैसे भी तकनीकी विकास का जमाना है. इंप्लौयर भी उसे सपोर्ट देने को तैयार रहता है, क्योंकि वह कंपनी के लिए काफी कुछ कर चुकी होती है.

मगर 27-28 साल की उम्र में यदि लड़की प्रैगनैंट हो जाए और इंप्लौयर, उसे सिखा रहा होता है तो यह इंप्लौयर के लिए काफी घाटे का सौदा साबित होता है. यदि लड़की मार्केटिंग फील्ड में है तो जाहिर है कि कम उम्र में उस का अधिक दौड़भाग का काम होगा जबकि उम्र बढ़ने पर वह सुपरवाइजर बन चुकी होती है. इसी तरह किसी भी फील्ड में उम्र बढ़ने पर थोड़ी स्थिरता का काम मिल जाता है. ऐसे में यदि वह 2-4 घंटों के लिए भी आ कर महत्त्वपूर्ण काम निबटा जाए तो इंप्लौयर का काम चल जाता है. साथ काम करने वाली लड़कियों को भी समस्या हो सकती है, क्योंकि जो लड़की शादीशुदा है, प्रैगनैंट हो जाती है तो उसे एकमुश्त 6 माह की छुट्टी मिल जाती हैं. मगर 200 में से यदि 140 लड़कियां ऐसी हैं जो अविवाहिता हैं या प्रैगनैंट नहीं होती हैं तो उन के लिए तो यह एक तरह का लौस ही है. भला उन का क्या कसूर था कि उन्हें काम की चुनौतियों को सहना पड़ा. अविवाहिताओं के लिए यह बड़ा भेदभाव है.

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इसी तरह स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों में कोईर् भी इंप्लौयर मेल कैंडीडेट्स को ही तरजीह देगा और अपना घाटा कम करने का प्रयास करेगा. उसे या तो प्रोडक्ट की कीमत में वुद्धि करनी पड़ेगी और तब सोसाइटी द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से वह खर्र्चवहन किया जाएगा या फिर समाधान यह है कि समाज खुद आगे आए और यह खर्च वहन करे या फिर जिस ने कानून बनाया वही यानी सरकार इस का समाधान करे.

किसी को कुछ दें तो न दिलाएं उसे याद

महान जरमन दार्शनिक व कवि फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं, ‘‘जिस ने देने की कला सीख ली समझो उस ने जीवन जीने की कला भी साध ली. देना एक साधना है, जिसे अपने भीतर उतारने में सदियां बीत जाती हैं.’’

हमारे परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों के बीच देने का यह क्रम लगातार चलता रहता है खासकर तीजत्योहारों और शादी समारोह में देने की यह गति और तेज हो जाती है. लेकिन लेनेदेने की इस गति में कई बार हमारी सोच, हमारा मन खुद ही बाधक बन जाता है. जब हम किसी को कुछ देते हैं तो उस में हमारा प्रेम व लगाव छिपा होता है पर वही प्रेम और राग तब काफूर हो जाता है जब हम सामने वाले को गाहेबगाहे यह याद दिलाते हैं कि मैं ने तुम्हें फलां चीज दी थी, याद है न?

ऐसे में सामने वाला खुद को दीनहीन समझने लगता है और यह कुंठा तब और उग्र हो जाती है जब यह ताना पब्लिकली दिया गया हो.

हाल ही में एक सगाई समारोह में कुछ पुरानी सहेलियों के साथ मेरी बैस्टफ्रैंड भी मिली. कमलेश व ज्योति कभी अंतरंग मित्र हुआ करती थीं. छूटते ही ज्योति बोल पड़ी, ‘‘अरे वाह कमलेश, तूने यह वही नैकपीस पहना है न जो मैं ने तुझे तेरी पिछली सालगिरह पर दिया था?’’

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कमलेश भरी महफिल में कुछ न बोल सकी बस मुसकरा कर रह गई. पर उस के मन पर जो चोट लगी उसे वह भूल न सकी.

हमारे आसपास, फैमिली या सोसाइटी में ऐसे लोग भरे हैं जो अपनी दी हुई चीजों का बखान करते नहीं थकते. कई बार तो देने से ज्यादा बढ़ाचढ़ा कर अपनी बात रखी जाती है. लेने वाला जब किसी और के मुख से ऐसी बातें सुनता है तो उस का स्वाभिमान तिलमिला उठता है. अकसर कुंठा से ग्रस्त हो खुद को कोसने लगता है कि आखिर उस ने उस व्यक्ति से कोई उपहार स्वीकार ही क्यों किया?

ऐसे सीखें देने की कला

– चाहे आप ने कितना भी महंगा गिफ्ट क्यों न दिया हो, मन में मलाल न रखें कि हाय मैं ने इतनी महंगी चीज क्यों दे दी.

– गिफ्ट या कोई भी आइटम देते वक्त उस का प्राइस टैग जरूर रिमूव करें या प्राइस प्रिटेंड हो तो उसे इंक या व्हाइट पेपर से कवर कर दें.

– देने के बाद भूल कर भी कभी याद न दिलाएं या किसी पार्टी अथवा गैदरिंग में अनावश्यक याद न कराएं.

– एकसाथ एक जैसे गिफ्ट अपने किसी भी क्लोज को देने की भूल न करें. हो सकता है वे बाइचांस किसी इवेंट में सेम आइटम के साथ दिख जाएं तो शर्मिंदगी हो सकती है.

– किसी को कुछ भी दें तो दिल से दें.

– कोशिश करें डब्बाबंद अच्छी तरह वैल पैक्ड गिफ्ट दें. इस से आप का इंप्रैशन जमेगा.

– देना हमें भीतर से विशाल बनाता है, इसलिए इस परंपरा के वाहक बनें.

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यह कोई बड़ा काम नहीं

खुद को देने की कला में माहिर बनाना कोई बड़ा काम नहीं है, भारी काम नहीं है. थोड़े से प्रयास से हम इस स्किल को बेहतर तरीके से डैवलप कर सकते हैं.

आखिर हम अल्बर्ट आइंस्टीन, ग्राहम बेल, क्रोलबस, जौर्ज वाशिंगटन, वाल्टडिज्नी, बिलगैट्स, एपीजे कलाम जैसे महान लोगों से कुछ क्यों नहीं सीखते, जिन्होंने जीवनभर इस दुनिया को कुछ न कुछ देने का काम किया पर उस का नाम न लिया.

देना अगर गुप्त हो तो तभी वह सफल है. इस का ऐक्सपोजर आप को नैरो बनाता है. गिविंगनैस आप को बड़ा बनाती है. ग्रेटनैस इसी में है कि किसी को देने का एहसास न कराएं. भारी व भरे मन से नहीं, बल्कि खुले व हलके मन से देने की आदत डालें. हैप्पीनैस के साथ गिविंगनैस का कौंबो पैक आप की इमेज को लार्जर दैन लाइफ बना सकता है.

स्टैपनी बन कर क्यों रह गई सास

काम से लौटी महिला बोझिल व असहाय होती है. उस के लिए तुरंत कोई भी अप्रिय स्थिति झेलना या घरेलू कार्य करना संभव नहीं होता. ऐसी परिस्थिति में परिवार चाहे संयुक्त हो या एकल, जहां सारी अपेक्षाएं सिर्फ उसी से रखी जाती हैं, वहां तनाव बढ़ता जाता है.

कामकाजी महिलाओं का लगभग एकतिहाई हिस्सा ‘लाइफ स्टाइल डिजीज’ की चपेट में है. एक सर्वे के अनुसार 20-40 साल तक की उम्र की महिलाओं में ‘लाइफ स्टाइल डिजीज’ का खतरा सब से अधिक रहता है. समय रहते इस पर ध्यान न देने से यह गंभीर परेशानी खड़ी कर सकता है. डिप्रैशन, मोटापा, ब्लडप्रैशर, डाइबिटीज जैसी समस्याएं लाइफ स्टाइल डिजीज के अंर्तगत आती हैं, जो कामकाजी महिलाओं में अंदरबाहर की जिम्मेदारियों के कारण उपजे भीषण तनाव से पैदा होती हैं.

पिछली पीढ़ी की कामकाजी महिलाएं

वे बड़े परिवारों में बड़ी होती थीं और बड़े परिवारों में ब्याह दी जाती थीं. संयुक्त परिवारों की सहीगलत, अच्छीबुरी, पसंदनापसंद परंपराएं अपनातीं, निभातीं ये महिलाएं संयुक्त परिवारों में अनेक रिश्तों को निभाने की जिम्मेदारियां भी निभातीं और किसी तरह सब को खुश रख कर अपनी नौकरी बचाए रखने की जद्दोजहद में भी लगी रहती थीं.

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उन के खुद के कमाए पैसे पर भले ही उन का हक न होता था और उन्हें उस का मानसम्मान व आत्मविश्वास प्राप्त न हो पाता था पर उन पर सब का हक होता था. उन का नौकरी करना उन की खुद की समस्या थी, उन के परिवार की नहीं. उन्हें सब के प्रति अपने कर्तव्य पालन में हर वक्त खड़े रहना पड़ता था. अगर उन्हें एक अच्छा खुशहाल जीवन जीना होता था तो उन्हें एक अच्छी पत्नी, मां, बहू, भाभी, हर भूमिका मुस्तैदी से निभानी पड़ती. उन के नौकरी करने में पति का सहयोग न के बराबर होता था.

संयुक्त परिवारों की जिम्मेदारियां पूरी करने के बावजूद और पति का सहयोग न के बराबर मिलने के बावजूद अपने परिश्रम की कमाई को ये महिलाएं अपने ढंग से खर्च भी नहीं कर पाती थीं. कमाती वे थीं पर हिसाब पति के पास रहता था.

घर की जिम्मेदारियों के अलावा मामूली कठिनाइयों के लिए भी उन्हें अवकाश लेने के लिए मजबूर किया जाता था. इन सब का असर उन की कार्यक्षमता पर पड़ता था. जरूरत पड़ने पर औनलाइन जरूरत का सामान मंगाने जैसी सुविधा तब उन के पास नहीं थी. किचन में भी इतने सुविधाजनक उपकरण नहीं होते थे, जबकि संयुक्त परिवारों में बेहिसाब काम होते थे.

नई पीढ़ी की कामकाजी महिलाएं

महिलाओं में बदलाव है. आज अगर पतिपत्नी अपनी अलग गृहस्थी बसा कर रह रहे हैं तो पति अपनी पत्नी को पूरा सहयोग दे रहे हैं. फिर चाहे वह किचन संबंधी कार्य हो या बच्चों के लालनपालन की बात हो. कामकाजी महिलाओं की दोहरी जिम्मेदारियां पूरी तरह से खत्म नहीं होती हैं, क्योंकि बच्चे अकसर समय मिलने पर मां से ही चिपकते हैं और उम्मीद करते हैं. घर के भी कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें एक महिला ही सही तरीके से अंजाम दे पाती है. फिर भी कुछ दकियानूसी परिवारों की बात छोड़ दी जाए तो आज वह संतोषजनक स्थिति में है.

जरूरत पड़ने पर बाहर से खाना और्डर करने का चलन चल पड़ा है. हर जरूरत की वस्तु के लिए औनलाइन शौपिंग जैसी सुविधा भी है. जो कामकाजी युवतियां संयुक्त परिवारों में रह रही

हैं, वहां अमूमन बहुओं की नहीं, बल्कि सासों की मुश्किल है. परिवार के नाम पर अब सासससुर ही रह गए हैं और आज की इस शिक्षित सास का रोल आज के संयुक्त परिवार में बहुत बदल गया है.

एक तरह से आज की पीढ़ी की यह सास स्टैपनी ही नहीं रह गई है. इस ने अपने समय के संयुक्त बड़े परिवार भी निभाए. बहुतों ने नौकरियां भी कीं. नौकरी के साथसाथ गृहस्थी भी संभाली. फिर अपनी संभाली और अब अगर बहूबेटे साथ हैं तो उन की गृहस्थी भी संभाल रही हैं. इसलिए आज बहू से उम्मीद कम और सासों से ज्यादा हो गई है.

जो कामकाजी महिलाएं सासससुर के साथ रहती हैं वे अपने सासससुर से अपनी गृहस्थी व बच्चों के लालनपालन में उन का सहयोग तो चाहती हैं पर जहां तक उन के पैसे की बात आती है, उन की सोच एक आम गृहिणी जैसी हो जाती है कि पति का पैसा तो सब का पर उन का पैसा सिर्फ उन का.

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वे चाहती हैं कि अपने कमाए पैसे का वे खुद जैसे चाहें इस्तेमाल करें. चाहे अपने मातापिता या भाईबहन पर खर्च करें या अपने कपड़ेजेवरों पर, पति या परिवारजन को इस में बोलने का कोई अधिकार न हो. जहां तक पति की कमाई की बात है उसी पर दूसरों का अधिकार हो और सब से ज्यादा अधिकार उस का खुद का हो. पति बिना उस की इजाजत लिए अपने भाईबहन या मातापिता पर भी अपनी कमाई नहीं खर्च कर सकता.

फर्ज और अधिकार में फर्क

सासससुर का फर्ज तो उसे याद रहता है पर अपनी कमाई पर सासससुर का थोड़ा सा अधिकार भी वह सपने में भी नहीं सोच सकती. उन का थोड़ाबहुत अधिकार है तो सिर्फ अपने  बेटे की कमाई पर. जिन युवतियों की यह मानसिकता है, उन्हें समझना चाहिए कि यदि वे अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए दूसरों का सहयोग चाहती हैं तो उन की कमाई पर भी उन के पति की कमाई की तरह ही सब का हक होगा, क्योंकि यह ‘गिव ऐंड टेक’ जैसी बात है. अगर वे किसी रूप में भी परिवारजनों का सहयोग करेंगी और साथ ही अपना मधुर व्यवहार भी बनाए रखेंगी, तभी वे दूसरों से भी सहयोग की उम्मीद कर सकती हैं.

कुछ युवतियों का तो यह आलम है कि वे कहने को तो कामकाजी हैं पर उन की नौकरी इस लायक नहीं होती कि पति या परिवार को बहुत अधिक आर्थिक मदद कर सकें, लेकिन अपनी इस नौकरी के पीछे वे अपने पूरे परिवार को परेशान किए रहती हैं. खास तौर पर सास को न उन से आर्थिक सहयोग ही मिलता है, न घर ही ठीक से संभलता है कि पति निश्ंिचत हो कर अपनी नौकरी कर सके.

आज की युवा पीढ़ी की अधिकतर कामकाजी युवतियों को सास के कर्तव्य तो याद रहते हैं पर अपने सारे कर्तव्य भूल जाती हैं. वे सास से मां जैसे व्यवहार व ससुराल में मायके जैसे अधिकार व व्यवहार की अपेक्षा तो रखती हैं पर स्वयं बेटी जैसे कर्त्तव्य व प्यार देने की बात भूल जाती हैं.

पिछले कुछ समय से सारे उपदेश सासों को ही दिए जा रहे हैं कि सिर्फ सास के ही कर्त्तव्य हैं. यह सोच कर अपनी गृहस्थी सास के भरोसे छोड़ने का समय अब नहीं रहा. सही तो यही है कि पतिपत्नी ही मिल कर अपनी गृहस्थी सुचारु रूप से चलाएं. सासससुर ने पूरी जिंदगी संघर्ष कर, अब थोड़ा विराम पाया है, इसलिए उन्हें भी अपनी अभिरुचियों के साथ जिंदगी जीने दें. उन से बस थोड़ेबहुत सहयोग की ही अपेक्षा रखें जितना वे दे सकते हैं. उन्हें जिम्मेदारियों से न लादें.

कैसी हो कामकाजी महिलाओं की जीवनशैली

कामकाजी महिलाएं चाहे आज की हों या पिछली पीढ़ी की, इस में दोराय नहीं कि उन के जीवन के कुछ साल बहुत तनाव में गुजरते हैं जब तक उन के बच्चे छोटे होते हैं. दोहरी जिम्मेदारियों के बोझ के चलते तनाव व अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से घिर चुकी कामकाजी महिलाओं को अब अपने लिए समय निकालने की जरूरत है. जिन घरों में पति या अन्य परिजन कामकाज में हाथ बंटाते हैं, उन घरों में महिलाओं का स्वास्थ्य बेहतर पाया जाता है. पर इस के लिए कामकाजी महिलाओं का व्यवहार व स्वभाव स्वयं उत्तरदायी है.

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अगर घर में दिन में काम कराने हैं तो सास कराएगी. बच्चों को स्कूल से लाना है तो सास लाएगी. मेड से निबटना है तो सास निबटेगी. घर की सफाई, पुताई कराई है तो जिम्मा सास के सिर पर. बहुत मामलों में मिल्कीयत तो सासससुर की होती है पर उपयोग बेटेबहू करते हैं और रखरखाव का काम सासससुर पर छोड़ दिया जाता है वह भी बहू की सलाह पर जो सलाह कम आदेश ज्यादा होती है. बच्चे बीमार हों तो रातभर सास ही अस्पताल में बैठी नजर आएंगी. सास को बारबार कह दिया जाता है कि आई लव यू मौम, पर असल लव तो अपनी मां पर टपकता है सास पर नहीं. सासदामाद का रिश्ता तो शानदार है पर सासबहू में सास बेचारी स्टैप्नी है, 5वां पहिया जो घिसापिटा होता है.

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