धर्म और कानून की नहीं सूझबूझ की जरूरत

पतिपत्नी मतभेद होने पर कैसे अपना जीवन बरबाद करते हैं, सिर्फ दूसरे को नीचा दिखाने के लिए, उस का एक उदाहरण है जयदीप मजूमदार और भारती जायसवाल मजूमदार का. दोनों ने 2006 में विवाह किया और विवाह के बाद कुछ माह विशाखापट्टनम में रहे तो कुछ माह लुधियाना में. पति एमटैक और आर्मी औफिसर है और पत्नी उत्तराखंड के टिहरी में सरकारी कालेज में फैकल्टी मैंबर.

दोनों में 2007 से ही झगड़ा होने लगा. पति ने विशाखापट्टनम कोर्ट में तलाक की अर्जी लगाई तो पत्नी ने देहरादून कोर्ट में वैवाहिक रिश्तों की स्थापना के आदेश की. इस बीच पत्नी ने आर्मी के अफसरों को पत्र लिखने शुरू कर दिए कि उस का पति जयदीप उस के साथ बुरा व्यवहार करता है, तंग करता है, साथ नहीं रहता. पति का कहना था कि ये पत्र उस पर क्रूएल्टी की गिनती में आते हैं, क्योंकि इस से उस की प्रतिष्ठा पर आंच आई और उसे नीचा देखना पड़ा.

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अदालतों ने क्या कहा यह जाने बगैर बड़ा सवाल है कि 2007 से चल रहे तलाक के मामले यदि 2021 तक घसीटे जाएं तो गलती किस की है? कानून की या पतिपत्नी की शिक्षा की?

सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में निर्णय दिया कि पत्नी के लिखे पत्र क्रूएल्टी के दायरे में आते हैं और अगर किसी अदालत ने कहा कि ये पतिपत्नी के क्षणिक मतभेद हैं, गलत है. सवाल तो यह है कि क्या आर्मी औफिसर और यूनिवर्सिटी की फैकल्टी मैंबर बैठ कर फैसला नहीं कर सकते थे कि अब हमारी शादी निभ नहीं रही, हम अलग हो जाएं?

यह शादी निश्चित रूप से प्रेम विवाह होगा क्योंकि एक बंगाली है और दूसरी पंजाब या उत्तराखंड की. जब प्रेम खुद कर सकते हैं तो तलाक के लिए झगड़ने की क्या जरूरत खासतौर पर तब जब न बच्चों की कस्टडी का सवाल हो न अपार संपत्ति का? दोनों के बच्चे हुए नहीं और दोनों मध्यवर्ग के नौकरीपेशा हैं. दोनों उस तरह शिक्षा प्राप्त हैं जिसे हम शिक्षा कहते हैं.

उन्हें अगर कुछ नहीं आता तो वह है कि कैसे एकदूसरे के साथ जीएं और अगर नहीं जीना तो कैसे अलग हों? वे जीवन को समझ नहीं पा रहे. उन को जो कालेजीय शिक्षा मिली है उस में केवल यही है कि कैसे अपनी बात को ऊपर रखें और कैसे लकीर के फकीर बने रहें.

फूहड़ धार्मिक और विश्वविद्यालीय शिक्षा लोगों को रट्टू बनाती है. धर्म कहता है कि हर काम पंडित के कहे अनुसार करते चले जाओ, कालेज में पढ़ाया जाता है कि जितना लिखा है, उसे रट लो. न मौलिक ज्ञान सिखाया जा रहा है, न तर्क की पढ़ाई हो रही है, न जीवन के कालेसफेद व अन्य रंगों के बारे में कुछ बताया जा रहा है.

बेवकूफों की एक बड़ी कौम तैयार हो रही है और इस में पतिपत्नी भी शामिल हैं. क्या ये दोनों मन मार कर एकदूसरे के साथ कुढ़तेसड़ते जीते हैं या अलग होने की प्रक्रिया में वूमंस सैल, पुलिस, अदालतों के चक्कर काटते हैं?

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केरल में इसी जून के तीसरे सप्ताह में महिला आयोग की अध्यक्षा ने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि एक खुले मंच पर फोन से आई डोमैस्टिक वायलैंस की शिकायत पर इस आयोग अध्यक्षा ने पूछा कि क्या पत्नी पुलिस या वूमंस सैल में गई और इनकार करने पर कहा कि फिर सहो. लोगों को न जाने क्यों इस पर आपत्ति हुई. यह सही था कि या तो शिकायत कर के अलग रहो या फिर साथ रहो. अगर पति हिंसक है तो दुनिया की कोई ताकत पति को डांटफटकार कर ठीक नहीं कर सकती.

जीवन कैसे जीया जाए, आज उस का ज्ञान सिर्फ व्हाट्सऐप के निरर्थक मैसेजों में या धार्मिक प्रवचनों में रह गया है, जिन में औरतों को हर हाल में सरैंडर करने की सलाह ही दी जाती है.

कोई भी जोड़ा बनता तब है जब दोनों को जरूरत होती है. शादी जबरन नहीं होती. यह पारस्परिक सहयोग की नींव पर टिकी होती है पर नींव बनाने में धर्म और कानून नहीं, तर्क, सूझबूझ, जीवन की उलझनों, वैवाहिक जीवन के चैलेंज, विवाहपूर्व प्रेम, बच्चों की समस्याओं के बारे में जानना भी हो तो कहीं कुछ नहीं मिल रहा या ढूंढ़ा ही नहीं जा रहा. नतीजा है जयदीप और भारती मजूमदार जैसे झगड़े, जिन में दोनों के 10-10 लाख रुपए तो खर्च हो ही गए होंगे.

धर्म और कानून के बीच फंसे रिश्ते

आजकल अदालतें ऐसे मामलों से भरी हुई हैं जिन में तलाक के आदेश या गुजारेभत्ते के लिए पतिपत्नी, यानी भूतपूर्व पतिपत्नी, कुत्तेबिल्लियों की तरह लड़ रहे होते हैं और उन की लड़ाई का फायदा वकील उठाते हैं और तमाशा सारा वर्ग देखता है, पतिपत्नी संबंध प्रेम का संबंध है. इसे कानून और धर्म से जोडऩा ही मूलरूप से गलत था. राजाओं और धर्म के दुकानदारों को इस में दखल दे कर दोनों से वसूली करने का रास्ता ढूंढ़ लिया.

धर्म और कानून को सदियों पतिपत्नी विवादों में खूब कमाया है और आज भी काम रहे हैं. शादी के नियम कानून सारे धर्म ने बना दिए. जब से लोकतंत्र आया तब से संसदों ने कानून बनाने शुरू कर दिए पर वे भी धर्म की राह पर. उन्होंने दूसरे बिचोलिए, वकील, बैठा दिए.

राजेश और नेहा जनवरी, 2013 से झगड़ रहे हैं और सिर्फ 15000 मासिक के गुजारेभत्ते को ले कर 2-3 बार सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुके हैं. अहम के मारे दोनों लोग कानूनी दांवपेंच अपना रहे हैं. मामला क्या है, यह जाने दें, यह पूछें कि जब शादी प्रेम के बाद मिनटों में हो सकती है तो तोडऩे में फौजदारी क्यों जरूरी है. सीता को निकालना था तो मिनटों में रथ में बैठा कर रवाना कर दिया गया. जब भगवानों को छूट है तो राजेश और नेहा जैसे जोड़े एक नई …..पर काम करने के लिए आजाद क्यों न हों.

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शादी के बाद पतिपत्नी में मनमुटाव हो तो दोनों अपनेआप जिम्मेदार होने चाहिए. कानून सिर्फ बच्चों के लिए आगे आए कि उन की देखभाल का जिम्मा पिता और मां दोनों का है. बच्चे मां के पास रहें तो खर्च पिता को देना हो और पिता के पास रहें तो मां को मिलने की पूरी छूट हो.

न पति किसी गुजारेभत्ते देने को जिम्मेदार हो न पत्नी. यह प्रेम का संबंध था और दोनों की जिम्मेदारी थी कि इसे हराभरा रहने दें. सूखे पेड़ को पानी देने की जबरन ड्यूटी जो कानून ने लगा दी है वह गलत है. अगर पति को दूसरी पसंद आ गई तो पहली को अपना रास्ता वैसे ही खुद तय करना चाहिए जैसा वह शादी से पहले करती.

इस जबरदस्ती का नतीजा ही डोमेस्टिक वायलैंस है. इसी जबरदस्ती के कारण पत्नियां पतियों की संपत्ति बन गई है. पति चाहे 10 जगह मुंह मार ले, पत्नी किसी से हंस भी ल तो उस की पिटाई हो जाती है. पत्नी शादी के बाद आज बेबस हो जाती है. अगर शादी को कानून व धर्म की जंजीरों में नहीं बांधा जाएगा तो दोनों एकदूसरे को वैसे ही खुश रखेंगे जैसे प्रेमी प्रेमिका रखते हैं.

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जहां तक संबंध टूटने के सवाल हैं तो बापबेटे के संबंध टूटते हैं, भाईबहनों के टूटते हैं पर उन में किसी धाॢमक दुकानदारी की जरूरत नहीं होती. विरासत के समय भाईयोंबहनों में विवाद हो सकता है पर वह पार्टनरों जैसा व्यापारिक होता है. धर्म जब भाईभाई, भाईबहन और बहनबहन के संबंधों को पक्की मोहर नहीं लगा पाता तो शादी में क्यों लगाता. आज कोई कानून नहीं है कि किसी भाई को बहन के साथ रहना ही होगा या भाई के साथ जबरन काम करना ही होगा.
यह भेदभाव असल में पत्नियों को कमजोर करने के लिए. आजाद औरतें पत्नी बन कर भी अपने पैरों पर खड़ी रहतीं की न जाने कब पति उन्हें छोड़ जाए. यह पतिपत्नी के प्यार को बल देता, कमजोर नहीं करता.

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