गुलामी चाहिए तो धार्मिक बने रहें

छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में, जो जिला मुख्यालय धमतरी से 12 किलों मीटर की दूरी पर है वहाँ  माँ अंगोरीमाता का प्रसिद्ध मंदिर है. यहां हर साल दिवाली के बाद पड़ने वाले प्रथम शुक्रवार को मेला लगता है और मडई का आयोजन होता है, यहां मां अंगारमोती के मंदिर में संतान प्राप्ति के लिए एक लंबी प्रथा चली आ रही है. जिसमें महिलाएं पेट के बल लेटती है और बैगा जनजाति के लोग उनके ऊपर से होकर गुजरते  हैं. इसे परण कहा जाता है. मान्यता है की ऐसा करने से महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है. 2020 में भी 200 से अधिक महिलाएं नींबू, नारियल और अन्य पुजा की सामाग्रीलेकर खुले बाल और पेट के बल लेटी रही और बैगा जनजाति के लोग उन्हें रौंद कर गुजरते रहे.

बता दें कि यहाँ के मडई को देखने के लिए हजारों लोग दूर-दराज के इलाकों से आते हैं. मडई के दिन नि:संतान महिलाएं बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचती है. मान्यता है कि इस तरह महिलाओं के लेटने और उनके ऊपर से बैगाओ के गुजरने से माता की कृपा मिलती है और नि:संतान महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है.

2020 में कोरोना ने ऐसी तबाही मचाई कि लोग अपने घरों में कैद हो कर रह गए. इंसान, इंसान से भागने लगें. सड़कें गलियाँ सब सुनी-सुनी हो गई. लोगों को इस बीमारी से बचने का कोई उपाय नहीं मिल रहा था. छुआ-छूत की तरह कोरोना बीमारी लगातार फैलती ही जा रही थी. तब बिहार के एक गाँव, कुशीनगर, में कुछ औरतें कोरोना माई की पुजा-अर्चना करने लगी. उनका कहना था कि करुणा देवी के प्रकोप से यह सब हो रहा है  और वही करुणा देवी, कोरोना बनकर हम सब पर कहर ढाह रही हैं. कोरोना माई की पुजा का दिन भी तय था. उनकी पुजा शुक्रवार और सोमवार को ही की जा सकती थी. महिलाएं लड्डू, फूल,लॉन्ग, दीपक, अगरबती से कोरोना माता की पुजा कर रही थीं.

9 नंबर का कनैक्शन 

पुजा पूरे विधिविधान के साथ किया जा रहा था. कोविड-19 से 9 अंक लेकर महिलाएं, कोरोना माता को हर चीज नौ-नौ चढ़ा रही थी.कई घरों मेंमहिलाएं चकले पर बेलन को खड़ा कर कोरोना माता की पुजा कर रही थी. इसी तरह बिहार के कई इलाकों में कोरोना माई की पुजा अर्चना के नाम पर खूब अंधविश्वास फैलाया गया था. महिलाओं का कहना था कि कोरोना माई कहती हैं कि मेरी पुजा करो तब मैं रक्षा करूंगी. एक महिला से पूछने पर कि कैसे वह कोरोना माई की पुजा करती है?उस पर उसने बताया कि बंजर जमीन पर गद्दा खोदकर फिर उसमें नौ लॉन्ग, नौ लड्डू, नौ फूल चढ़ा कर कोरोना माता की पुजा करती हैं. कोरोना की पुजा में नौ का बड़ा महत्व था.

कुछ और महिलाओं से जब पूछा गया कि उन्हें इसकी जानकारी कहाँ से मिली ? तो उन्होंने बताया कि दो महिलाएं घास काट रही थीं तभी उनके पास एक गाय आई और कहने लगी कि मैं कोरोना माई हूँ. सब मेरी पुजा करो तब मैं रक्षा करूंगी. बस इसलिए सब पुजा करने लगी. जब पूछा गया कि क्या उनके पुजा करनेसे कोरोना भाग जाएगा ? तो उनका जवाब था कि विश्वास पर पुजा कर रहे हैं.

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रामायण में बाल मिलने का अंधविश्वास 

खैर, अभी तो कोरोना वैक्सीन आ चुकी है और कोरोना के मामले भी कम हो रहे हैं. लेकिन जब कोरोना महामारी के कारण त्राहिमाम मचा हुआ था. इस लाइलाज बीमारी की कोई दवा नहीं थी. तब एक और अंधविश्वास ने ज़ोर पकड़ा था और वह था रामायण में बाल मिलना. लोगों के मन में यह अंधविश्वास फैलाया गया था कि रामायण से बाल खोजकर उसको पानी में डालकर पीने से कोरोना वायरस का असर नहीं होगा. इस अंधविश्वास ने इतना ज्यादा ज़ोर पकड़ा था कि लोग रामायण या अन्य धर्मग्रंथ में बाल खोजने लगे और किताब में जहां भी कुछ तिनका जैसा दिखता, लोग उसे बाल समझकर पानी में डालकर पीने लगे थे.

विश्वास या अंधविश्वास 

विश्वास और अंधविश्वास के बीच बेहद महीन रेखा होती है, पता ही नहीं चलता कब हम आस्था से अंधविश्वास की ओर चले गए.  अंधविश्वास एक ऐसा विश्वास है, जिसका कोई उचित कारण नहीं होता है. एक छोटा बच्चा अपने घर-परिवार और समाज में जिन परम्पराओं, मान्यताओं को बचपन से देखता एंव सुनता आ रहा होता है, वह भी उन्हीं का अक्षरश: पालन करने लगता है. यह विश्वास का अंधविश्वास बच्चे के मन-मस्तिष्क पर इतना गहरा असर छोड़ देता है कि जीवन भर वह इन अंधविश्वासों से बाहर नहीं निकल पाता है.

बचपन में हम सब ने लगभग अपनी माँ दादी-नानी के मुंह से सती, सावित्री और सीता की कथा जरूर सुनी होगी. यह भी कि कैसे एक स्त्री के पति को कोढ़ हो गया था और वह सती अपने पति को टोकरी में बैठा कर नदी के किनारे नहलाने ले जाया करती थी. एक दिन नदी के किनारे एक वेश्या को नहाते देख कोढ़ी पति को उससे प्यार हो गया. लेकिन वेश्या के फिर न मिलने से वह उदास रहने लगा और जब पत्नी ने उदासी का कारण जाना तो वह खुद उसे उस वेश्या के पास ले जाने का धैर्य बँधाया. एक दिन जब वह अपने पति को उस वेश्या के पास ले जाने लगी तब टोकरी में बैठे पति को नीचे उतार कर कुछ देर सुस्ताने लगी. तभी वहाँ से कुछ साधूसंत गुजर रहे थे. साधुओं को बड़ी ज़ोर की दुर्गंध आई और तब उन्होंने शाप दिया की जिस भी प्राणी से यह दुर्गंध आ रही है, सूर्यास्त होते ही उसकी मृत्यु हो जाए. तब उस सती ने सूरज को भी आँख दिखाया कि कैसे उसकी मर्ज़ी के बिना वह उसके पति को ले जा सकते हैं. कथा के अनुसार उस स्त्री का सतीत्व परम बलशाली था जिस के आगे सूर्य देवता को भी झुकना पड़ा था. कहानी के माध्यम से महिलाओं को यह सिखलाया जाता है की पति कैसा भी हो, वह तुम्हारा परमेश्वर है. उसकी खुशी के लिए जो भी करना पड़े, जितना भी कष्ट उठाना पड़े, उस में तुम्हारा सौभाग्य है और धर्म भी.

धार्मिक कहानियों के माध्यम से महिलाओं को बचपन से ही पिलाई जाने वाली जन्म घुट्टी है. अधिकांश धार्मिक कथा-कहानियों  में नैतिक शिक्षाओं और प्राचीनकाल से चली आ रही व्यवस्थाओं की घुट्टी स्त्री को ही पिलाई जाती है. ज़्यादातर महिलाएं अपने परिवार की सलामती के लिए महीने में दो-चार व्रत-उपवास तो करती ही है. अपने पति-बेटे और परिवार की सलामती के लिए ही महिलाएं बाबाओं के चरणों में लोट जाती है. वो जो कहते है करती जाती है. कोई भी कसर नहीं छोड़ती पुजा-व्रत करने में. और बाबा इसी का फायदा उठाकर धर्म के नाम पर महिलाओं का शोषण करते हैं.

आसाराम से लेकर वीरेंद्र दीक्षित, राम रहीम तक….. इन सभी बाबाओं ने धर्म के नाम पर महिलाओं की आबरू के साथ खिलवाड़ किया.   चाहे साउथ के नित्यानन्द हो या इच्छाधारी बाबा सब ने धर्म के नाम पर महिलाओं को ठगा ही. हरियाणा के फ़रीदाबाद में खुद को कथावाचक बताने वाले ढोंगी बाबा ललितानन्द ने पहले एक महिला के घर भागवत कथा की और इसके बाद उसने महिला को सम्मोहित करके कई बार उसके साथ दुष्कर्म किया. बल्कि, उस महिला के पति बेटे को जान से मारने की धमकी देते हुए नगदी और जेवरात भी हड़प लिए. महिलाएं न चाहते हुए भी धर्म के जंजाल में इसलिए फँसती जाती है ताकि उसका पति बेटा और परिवार सलामत रहे और इसी का फायदा उठकर बाबा अपने मन का उससे करवाते जाते हैं.

पुर्णिमा की शादी जब 27  साल पर भी नहीं हो पा रही थी तब बाबा ने उसे ‘जड़’ पुजा का उपाय बताया, जो 21 दिन तक चलने वाली पुजा थी. उस पंडित जी का कहना था कि इस गुप्त पुजा के करने से जल्द ही उसकी शादी हो जाएगी. लेकिन इसपुजा में सुबह अंधेरे, जब कोई देख न पाए, उस जड़ को खोदकर निकालना होगा. मगर ध्यान रहे,जड़ बीच से टूटने न पाए.  उस गुप्त पुजा में प्याज, लहसुन या तामसी भोजन नहीं खाना था.  सुबह शाम दोनों समय भगवान का मंत्र जाप, आरती,हवन करना जरूरी था, और सबसे बड़ी बात की लड़की मासिक धर्म न होने पाए, वरना पुजा खंडित हो जाएगा. मन न होने के बाद भी, अपनी माँ के डर से  पुर्णिमा को सुबह-शाम मंत्र जाप, और भगवान की आरती करनी पड़ती थी जिससे वह काफी थक जाती थी.  समय की बर्बादी और पढ़ाई का नुकसान हो रहा था सो अलग. उस उबाऊ पुजा से वह बोर होने लगी थी. यह सब अब उसे ढकोसला लगने लगा था. लेकिन कहे किससे ? क्योंकि उसकी माँ तो खुद उस बाबा की परम भक्त थी. जैसे फैमिली डॉक्टर होते हैं न. ठीक वैसे ही वह बाबा, पुर्णिमा के फैमिली बाबा थे. घर में कोई भी समस्या हो बाबा के पास चले जाओ, सब सुलझा देते थे.

लेकिन पुजा के बीच में ही पुर्णिमा का मासिक धर्म आ गया. माँ यह बोलकर रोने लगी कि बेटी का भाग्य ही खराब है तभी पुजा  खंडित हो गया.  लेकिन फिर बाबा जी ने उसी पुजा को 21 की जगह चालीस दिन करने को कह दिया तो पुर्णिमा को रोना आ गया कि आखिर क्यों लड़कियों को ही यह सब करना पड़ता है, वह भी तब जब उसका मन नहीं है ? आखिर क्यों अच्छा पति पाने के लिए लड़कियों से ही व्रत उपवास करवाया जाता है ?

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आज भी अच्छे पति की चाह में लड़कियां सोलह सोमवार, गुरुवार और मंगलवार का व्रत रखती है. ऐसी मान्यता है कि कोई लड़की यदि पूरी श्रधा के साथ ये व्रत-उपवास रखती है तो उसे मनचाहा पति प्राप्त होता है. गुजरात में एक व्रत होता है जिसे जयापार्वती व्रत कहते हैं. यह व्रत युवा लड़कियों से लेकर चार-पाँच साल की बच्चियाँ भी रखती हैं. माना जाता है कि पाँच दिन के इस कठिन व्रत को जो भी श्रद्धा-भक्ति के साथ करता है उसकी सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है और लड़की को मनचाहा पति प्राप्त होता है. यह पाँच दिन चलने वाला व्रत, फलाहार या बिना नमक वाले भोजन पर ही रखना पड़ता है. पति बच्चों की लंबी उम्र के लिए या मनचाहा वर पाने के लिए, व्रत-उपवास, पुजा-पाठ कोई आज की बात नहीं है. यह तो बचपन से पिलाई गई जन्म घुट्टी है जो लड़की बड़े होने पर भी करती है.

अंजलि, बदला हुआ नाम, एक बड़े सरकारी ऑर्गनाइज़ेशन में अच्छे पोस्ट पर कार्यरत है. उसके पापा भी जॉब में हैं और उसकी माँ एक अस्पताल में नर्स है. अंजली खुद महीने के लाख-सवा लाख तनख्वा उठाती है, इसलिए उसे पैसों की कोई समस्या नहीं है, ज़िंदगी बहुत सही चल रही है उसकी. लेकिन फिर भी वह हर मंगलवार और गुरुवार का व्रत रखती है. कारण, उसे मनचाहा पति मिल सके.गरीब और अशिक्षित परिवारों में तो यह बात समझ में आती कि शिक्षा के अभाव में इन्हें नहीं पता कि व्रत-उपवास करने से अच्छा पति नहीं पाया जा सकता. लेकिन अंजली जैसी पढ़ी लिखी शिक्षित लड़की, जो खुद सक्षम है वह क्यों धर्म की गुलाम बनी हुई है ?यह बात कुछ समझ नहीं आया. पूछने पर हँसते हुए बोली कि उसकी माँ ऐसा चाहती है तो करना पड़ता है. और सभी लड़कियां अच्छे पति की कामना से ऐसा व्रत करती हैं. यानि मन न होने पर भी लड़कियों की ऐसे सब व्रत करने पड़ते हैं ताकि अच्छा घर-वर मिल सके.

व्रत को अगर आस्था से जोड़ा जाता है तो स्वाभाविक है की वहाँ विश्वास भी होगा और अंधविश्वास भी. अपने विश्वास की वजह से लोगों ने ऐसे-ऐसे नियम बना रखें हैं कि अगर उसमें जरा भी कमी हो जाए तो उसे अपशगुन से जोड़ दिया जाता है. व्रत में अगर किसी को उल्टी हो जाए तो उस व्रत को खंडित मान लिया जाता है. व्रत के समय अगर किसी महिला को पीरियड आ जाए तो कहा जाता है कि व्रत फलता नहीं है. सबसे बड़ा अंधविश्वास तो करवाचौथ के व्रत को लेकर है. ये व्रत पति की लंबी आयु के लिए रखा जाता है इसलिए इसको लेकर महिला किसी भी तरह का रिस्क नहीं लेती. भले ही उसकी तबीयत कितनी भी खराब क्यों न हो व्रत नहीं छोड़ सकतीं. नवरात्र में बहुत से लोग सिर्फ लॉन्ग खा कर बिता देते हैं. ऐसा  वो करते आ रहे हैं इसलिए डर की वजह से छोड़ नहीं पाते. चाहे स्वास्थ्य खराब हो जाए. लेकिन आज भी व्रत को लेकर ऐसे नियम कायदे बने हुए हैं जहां व्रत आस्था नहीं, बल्कि डर की वजह से किया जाता है कि कहीं कोई अपशगुन न हो जाए.

समाज औरतों के लिए हमेशा से पक्षपाती रहा है. औरतों की आजादी से डरा-घबराया पितृसत्तात्मक समाज औरतों को अपने नियंत्रण से बाहर जाने नहीं देना चाहता है, इसलिए उस पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए वह धर्म का बखूबी इस्तेमाल करता है. औरतों को गुलाम बनाए रखने के लिए धर्म ही सबसे मजबूत और आसान जरिया है उनके लिए. सवाल औरतों की नैतिकता, उसकी शारीरिक इच्छा का हो, तो नियंत्रण और अधिक बढ़ जाता है. पितृसत्तात्मक समाज में इसकी शुरुआत कब से हुई इसके बारे में ठीक तरह से तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन महिलाओं के व्रत रखने के पीछे उसके हमेशा आश्रय में रहने की स्थिति को ब्याँ जरूर करता है. वशिष्ठ धर्मसूत्र में लिखा है कि ‘पिता रक्षति कौमारे, भ्राता रक्षति यौवने, रक्षति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातंत्रमहर्ति’ इसका अर्थ है कि कुंवारी अवस्था में नारी की रक्षा पिता करेंगे, यौवन में पति और बुढ़ापे में पुत्र. नारी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है. पिता, पति, बेटा आश्रय के रूप में बदलते रहते हैं.

औरतों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि उसे अपने जीवन में किसी न किसी सहारे की जरूरत तो पड़ेगी ही. इसलिए एक औरत पति-पुत्र की सलामती के लिए व्रत-पुजा-उपवास करती है. पितृसत्तात्मक सोच ने यहाँ महिलाओं को यह समझाया है कि वह भले ही व्रत अपने पति-पुत्र की लंबी उम्र के लिए कर रही है, पर असल में स्वार्थ उनका ही है क्योंकि वह खुद बेसहारा नहीं होना चाहती है. तीज, करवाचौथ, जीतिया, छठ, सप्तमी यह सारे व्रत महिलाएं अपने पति और बेटे की लंबी उम्र के लिए करती हैं. महिलाओं के लिए व्रत के काफी विधिविधान हैं. लेकिन पुरुष हमेशा आराध्य के आसन पर आसीन रहे हैं.

जब रावण ने सीता का अपहरण कर लिया था, तब एक धोबी के कहने पर उन्हें अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा था और यह परीक्षा खुद उनके पति श्रीराम  ने लिए लिए थे ताकि प्रजा का मान रख सके. यहाँ तक कि समाज द्वारा उठाए जानेवाले सवालों के चलते और अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने के चलते श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता का त्याग कर दिया था.

आज भी होती है सतीत्व की परीक्षा 

कुछ सालों पहले राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में पिछड़ी बगारिया बिरादरी की चौदह महिलाओं को एक मंदिर में अपने सतीत्व की परीक्षा से गुजरना पड़ा था. पंचो ने महिलाओं को गर्म तेल से भरे कड़ाही में हाथ डालकर पक रहे पकवान को निकालने पर विवश किया था ताकि वह अपने पवित्र होने का प्रमाण दे सके. गर्म तेल में हाथ डालने से महिलाओं का हाथ बुरी तरह से जल गया था. घायल महिलाओं को इलाज के लिए गुजरात लाया गया था. अपनी गलती मानने के बजाय बगारिया बिरादरी के लोगों का कहना था कि उनके यहाँ यह प्रथा सदियों से चली आ रही है.

हर बार औरत को ही अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है. चाहे त्रेता युग में सीता बनकर या द्वापरयुग में द्रोपदी बनकर और आज  कलयुग में भी हर कदम पर औरत को अग्नि परीक्षा देनी ही पड़ती है. हालांकि आज परीक्षा देने के मायने बदल गए हैं. बेटी के घर देर से आने पर आज भी उससे सौ सवाल पूछे जाते हैं. पर बेटा घर से दो दिन भी गायब रहे, कोई कुछ नहीं पूछता, क्योंकि वह पुरुष है.

धर्म, औरतों को कंट्रोल करने का एक बहुत बड़ा हथियार पौराणिक जमाने से है. महिलाओं को पुजा, धर्म-कर्म में धकेल  कर पुरुष बाहर रंगरेलियाँ मनाता रहा है. वह कई औरतों से संबंध रखे, कोई बात नहीं है. लेकिन एक स्त्री के लिए पति के अलावा पराए पुरुष को देखना तक पाप माना गया है.

विकास के इस युग में भी स्त्री पर लाख पाबन्दियाँ 

आज हर तरफ महिला सशक्तिकरण की आवाजें गूंज रही है. हर क्षेत्र में स्त्री अग्रणी होती जा रही है. वह आज पुरुषों से किसी भी मामले में कम नहीं है. लेकिन यह सशक्तिकारण सिर्फ मुट्ठी भर महिलाओं की है. बाकी की अधिकतर महिलाएं  आज भी शोषित और घर की चारदीवारी में कैद है. महिलाएं आज न सिर्फ आर्थिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी पिछड़ी हुई हैं. सक्षम होते हुए भी कई महिलाएं पुरुषों के इशारे पर चलती हैं. महिलाओं के दिमाग में शुरू से ही एक बात गठरी की तरह बांध दी गई है कि उन्हें बच्चे संभालना है, सास-ससुर की सेवा करना है, घर-परिवार देखना है.

लेकिन महिलाओं की इस गुलामी की वजह भी महिलाएं ही हैं. घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलाएं, एक लड़की के मासिक धर्म होने पर उसे सब से अलग-थलग कर देती हैं.  वह मंदिर, किचन यहाँ तक की पुरुषों के सामने नहीं जा सकती, आचार पापड़ नहीं छु सकती, पेड़ में पानी नहीं डाल सकतीं, क्योंकि इस समय वह अछूत होती है. पंडितों का भी कहना है कि मासिक धर्म के दौरान किचन में जाकर खाना पकाने से औरत कुतिया बन जाती है. मासिक धर्म के दौरान अगर औरतें पेड़ में पानी डाल दे तो पेड़ सूख जाता है. उनका साया भी अगर पुरुषों पर पड़ जाए तो वह बीमार हो सकता है. इसलिए मासिक धर्म के दौरान कहीं-कहीं महिलाओं को आज भी एक अछूत की तरह घर का कोना पकड़ा दिया जाता है.

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स्त्री आज भी उपेक्षित क्यों 

‘सिमोन द बोउआर लिखती हैं कि यूरोप के कुछ देश व समाज में लड़कियों के विवाह से पहले कोमार्य भंग करने की कुप्रथा है. क्योंकि एक मिथक कि कौमार्य के समय का खून जहर के समान खतरनाक होता है पति के लिए. इसलिए लड़कियों के कौमार्य को नुखिले पत्थर से भंग किया जाता है. औरतों के लिए बहुत से दर्द कुदरत ने नहीं, बल्कि इन्सानों ने भी पैदा किए हैं.

धर्म चाहे कोई भी हो, सब में कुछ न कुछ कुरीतियाँ हैं जिनके साथ तर्क-वितर्क करना धर्म के ठेकेदारों को कतई पसंद नहीं है. लोगों की आँखों में धर्म, रीतिरिवाज का ऐसा पर्दा पड़ा है कि कुछ तार्किक ढंग से सोच ही नहीं सकते. धर्म और रीतिरिवाज के नाम पर औरतों के मन में ऐसा बीज बो दिया जाता है कि औरत ही औरत की शोषक बन जाती है. उदाहरण के तौर पर,आज भी गाँवों में बूढ़ी लाचार औरतों को डायन का नाम देकर उस पर पत्थर बरसाए जाते हैं और लोग तमाशा देखते हैं.

जारी है महिलाओं के साथ भेदभाव 

आज पुरुष और महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं. महिलाएं आसमान की ऊंचाइयों को छु रही है,लेकिन लिंग आधारित भेदभाव अब भी मौजूद है. हाल ही में एक दवा कंपनी में एक 26 वर्षीय महिला को पदोन्नति सिर्फ इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि उसकी जल्द ही शादी होने वाली थी.  समाज ने औरतों को उड़ने के लिए पंख तो दिया. मगर धर्म, पति परिवार की बेड़ियों के साथ, ताकि वह उड़ तो सके लेकिन सीमाओं के बंधन में रहकर.

कहीं पढ़ा था. एक पति इसलिए अपनी पत्नी को तलाक देना चाहता था क्योंकि उसने अपने पति के लिए करवा चौथ का व्रत रखने से इंकार कर दिया. पति का कहना था उसकी पत्नी अपने कर्तव्य का ठीक ढंग से पालन नहीं करती, उसकी पत्नी उसके लिए करवा चौथ का व्रत भी नहीं रखती है और उसके परिवार के साथ दिवाली जैसे त्योहार भी नहीं मनाती है. और भी काफी शिकायतें थी उसे अपनी पत्नी से लेकिन मेन मुद्दा करवा चौथ का था.

हमारे समाज में धर्म के नाम पर ही स्त्री को ज्यादा प्रताड़ित होना पड़ता है, क्योंकि सारे पवित्र ग्रन्थों में स्त्री के उत्पीड़न का न्याय है, जिसमें स्त्री के समानता और अधिकार कहीं नहीं है. चाहे सीता हो या द्रोपदी, सब धर्म के गुलाम बनी रही लेकिन इसका अंजाम क्या हुआ यह भी सब को पता है.

1920 के दशक में सनातन धर्म की मुख्य सोच थी कि हिन्दू धर्म खतरे में हैं और ये खतरा इस्लाम और अंग्रेजों के आने से शुरू हुआ, नहीं तो हिन्दू धर्म हर क्षेत्र में अव्वल था. सोच है कि इस्लाम और अंग्रेज के भारत आने के बाद हिन्दू सभ्यता भ्रष्ट हो गया और जरूरत थी उसी पुराने जमाने में जाने की जब की हिन्दू समाज चरम पर था. यानि पुरुष का काम था बाहर जाकर कमाना, शिक्षा ग्रहण करना और औरतों का काम था घर में रह कर बच्चे पैदा करना, पति सास-ससुर की सेवा करना, अपने पति-बच्चे परिवार की सलामती के लिए पुजा, आरती, भजन कृतन करना. और जब पति काम से लौटे तो एक पत्नी के कर्तव्य के अनुसार,पति के चित को शांत करना. स्त्री को भीतरी दुनिया का रानी बतलाया गया था जो बेहद ही कठिन और निराशाजनक और चुनौतियों से भरा हुआ था.

विशेषांकों को पढ़ें, तो साफ पता चलता है कि महिला से जुड़े हर मुद्दे पर पुरुषों की सोच हावी दिखती है. वह क्या खाएगी, कहाँ जाएगी,क्या पहनेगी,किससे कितना बात करेगी, किससे नहीं, सब कुछ पुरुष ही तय करते हैं. नहीं करने पर वह बाचाल, चरित्रहीन कहलाने लगती हैं.

स्त्रियॉं से यह उम्मीद की जाती है कि वह पति पारायण बनी रहे. ना चाहते हुए भी पति-बेटे और परिवार की सलामती के लिए व्रत-उपवास, भजन आरती करती रहे. पति के हर अच्छे बुरे व्यवहार को सहन करे, साथ ही परपुरुष के आकर्षण से भी दूर रहे. लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा कोई उपदेश नहीं है. सदियों से औरतों को कोमलांगी मानकर उसपर कभी धर्म के नाम पर तो कभी परिवार के नाम पर जुल्म किए जाते रहे हैं. आज 21वीं सदी में भी महिलाओं और बच्चियों पर अत्याचार हो रहे हैं. महिलाओं के आत्मा को कुचलकर उसे धर्म की अंधेरी कोठरी में धकेल दिया गया है जिससे वह चाह कर भी निकल नहीं पा रहीं हैं. वह इसलिए, ताकि स्त्री पुरुष की आजादी में हस्तक्षेप न कर सके. आज महिलाएं धर्म की गुलाम बनकर रह गईं है. इस गुलामी से वह आजाद होना चाहती भी है, तो समाज-परिवार की सोच ने उनकी आँखों पर धर्म की ऐसी पट्टी बांध दी है जिससे वह निकल नहीं पा रही है. कम पढ़ी लिखी या अशिक्षित ही नहीं, बल्कि पढ़ी लिखी महिलाएं भी धर्म के जंजाल में उलझ गई है. धर्म ने महिलाओं के विचारक्षमता को गुलाम बना दिया है.

धर्म के नाम पर मासूम बच्चियों को नर्क में धकेलने की प्रथा आज भी कायम है 

देवदासी प्रथा की शुरुआत छठी और सातवीं शताब्दी के आसपास हुई थी. इस प्रथा का प्रचलन मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, महाराष्ट्र में बढ़ा. दक्षिण भारत में खासतौर पर चोल,चेला और पांडयाओं के शासन काल में ये प्रथा खूब फला-फुला. लेकिन आज भी कई प्रदेशों में देवदासी की प्रथा का चलन जारी है. हमारे आधुनिक समाज में छोटी-छोटी बच्चियों को धर्म के नाम पर देवदासी बनने पर मजबूर किया जाता है. इसके पीछे भी अंधविश्वास तो हैं ही, गरीबी भी एक बड़ी वजह है. कम उम्र में लड़कियों को उनके मातापिता ही उन्हें देवदासी बनने पर मजबूर करते हैं.

बता दें कि आजादी से पहले और बाद भी सरकार ने देवदासी प्रथा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाए थे, पिछले 20 से भी ज्यादा सालों से पूरे देश में इस प्रथा का प्रचलन बंद हो चुका था. कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्रप्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया था. लेकिन राष्ट्रिय मानव अधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियाँ हैं. एक आंकड़ें के मुताबिक, सिर्फ तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में लगभग 80,000 देवदासियाँ हैं.

जो औरत धर्म का दामन छोड़ देतीं हैं वो गुलामी की सबसे बड़ी जंजीर तोड़ देती हैं और आर्थिक रूप से पुरुष के बराबर हो जाती हैं. क्योंकि कहीं न कहीं धर्म की गुलाम महिलाएं मानसिक रूप से पुरुषों से कभी बराबरी की नहीं सोच पाती और पुरुष सत्ता को बरकरार रखने में उसका साथ देती हैं. कई औरतें खुद पुरुषों के बराबरी का नहीं सोच पाती, क्योंकि उन्हें लगता है ऐसा करने से सामाजिक ढांचा टूट जाएगा और उनकी आर्थिक जरूरतें पूरी करने वाला कोई नहीं रहेगा. वो पुरुषों से बराबरी की चाह नहीं रखती क्योंकि हर धर्म में औरत को पुरुष की दासी बनने की सीख दी जाती है. पति कैसा भी हो पर एक स्त्री के लिए वह उसका परमेश्वरहोता हैं. स्त्री का परमेश्वर उसे मारे-पिटे या फिर जला कर मार ही क्यों न डाले, पर वह उसका पालनहार है.

कहने को तो हम 21वीं सदी में जी रहे हैं. हम पूरी तरह से आधुनिक हैं, शिक्षित हैं. हम अन्तरिक्ष और चाँद पर घर बसाने का सोच रहे हैं. लेकिन पुजा-धर्म, बाबा, पंडित, अंधविश्वसों से हम आज भी आजाद नहीं हो पाए हैं. उनके बिना हम एक कदम भी नहीं चल सकते हैं. हमारा हर काम मुहूर्त के हिसाब से होता है.

आज भी अंधविश्वास के कारण ही बच्चों की बली दी जाती है, औरतों को जला कर मारा जाता है, पैदा होने से पहले आज भी बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है. काला जादू, भूत-प्रेत, पशु बाली, डायन प्रथा, बाल विवाह से लेकर काँच के टूटने, बिल्ली के रास्ता काटने, पीछे से टोकने व नंबरों को अंधविश्वास के नजरिए से देखा जाता है.

इस पितृसत्तात्मक समाज में शुरू से ही जान-बूझकर महिलाओं को धर्म में धकेला गया, उन्हें धर्म का गुलाम बना कर रखा गया ताकि पुरुष उस पर अपना आधिपत्य जमा सके. बात अगर बराबरी का ही है तो फिर पुरुष भी क्यों नहीं अपनी पत्नी के लिए निर्जला व्रत रख सकते हैं ? शरीर को कष्ट देना हो या भोजन का त्याग करना हो, यह सिर्फ महिलाओं के हिस्से क्यों ?

लेकिन अब महिलाओं को ही यह बात समझनी होगी किहमेंधर्म, अंधविश्वास, और पाखंड का गुलाम नहीं बनना है, बल्कि मिलकर इसका बहिष्कार करना है. जो स्त्रियोंकी गरिमा को दीमक की तरह चाट रहा है.

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