सौदामिनी: सब ओर से छली गई सौदामिनी के साथ क्या हुआ?

Serial Story: सौदामिनी (भाग-2)

रईस दद्दा ने सौदामिनी के लालनपालन में कहीं कोताही नहीं की थी लेकिन अनुशासन में बंधी वह न ज्यादा पनप पाई न ही पढ़लिख पाई. मृदुल जैसा सच्चा प्रेमी मिला लेकिन छीन लिया गया. आदित्य के पल्ले से बांध दी गई जिस ने पत्नी होने का उसे अधिकार कभी दिया ही नहीं. सास ने घर की मानमर्यादा के नाम पर उस की जबान बंद कर दी. क्या सौदामिनी ने अपने साथ होते अन्याय के आगे हथियार डाल दिए?

जानने के लिए आगे पढ़िए.

कोई एक बरस बाद राय साहब ने अपनी लाड़ली बेटी को पीहर बुलवा भेजा था. रोजरोज बेटी को मायके बुलाने के पक्ष में वे कतई नहीं थे. आदित्य के साथ सजीधजी सौदामिनी मायके आई तो राय साहब कृतकृत्य हो उठे. रुके नहीं थे आदित्य, बस औपचारिकता निभाई और चले गए. राय साहब ने भी कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी थी. धनदौलत की तुला पर बेटी की खुशियों को तोलने वाले दद्दा ने उस के अंतस में झांकने का प्रयत्न ही कब किया था? जितने दिन सौदामिनी पीहर में रही, अम्मा, बाबूजी रोज उसे बुलवा भेजते थे. वह कभी कुछ नहीं कहती थी. बस, अपने खयालों में खोई रहती. आखिर एक दिन अम्मा ने बहुत कुरेदा तो वह पानी से भरे पात्र सी छलक उठी, ‘मेरी इच्छाअनिच्छा, भावनाओं, संवेदनाओं को जाने बिना, क्या मेरे जीवन में ठुकराया जाना ही लिखा है, चाची? एक ने ठुकराया तो दूसरे के आंगन में जा पहुंची. अब आदित्य ने ठुकराया है तो कहां जाऊं?’

अम्मा और बाबूजी ने विचारविमर्श कर के एक बार दद्दा को बेटी के जीवन का सही चित्र दिखलाना चाहा था. वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बाद भी दद्दा न चौंके, न ही परेशान हुए. वैसे भी ब्याहता बिटिया को घर बिठा कर उन्हें समाज में अपनी बनीबनाई प्रतिष्ठा पर कालिख थोड़े ही पुतवानी थी. उन्होंने सौदामिनी को बहुत ही हलकेफुलके अंदाज में समझाया, ‘पुरुष तो स्वभाव से ही चंचल प्रकृति के होते हैं. हमारे जमाने में लोग मुजरों में जाया करते थे. अकसर रातें भी वहीं बिताते थे और घर की औरत को कानोंकान खबर नहीं होती थी. शुक्र कर बेटी, जो आदित्य ने अपने संबंध का सही चित्रण तेरे सामने किया है. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू किस तरह से उस को अपने पास लौटा कर लाती है.’

पिता द्वारा आदित्य का पक्ष लिया जाना उसे बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की तसल्ली दे गया था कि जैसे भी हो, उसे अपनी ससुराल में ही समझौता करना है.

समय धीरेधीरे सरकने लगा था. सौदामिनी को समय के साथ सबकुछ सहने की आदत सी पड़ने लगी थी. भीतर उठते विद्रोह का स्वर, कितना ही बवंडर मचाता, संस्कारों की मुहर उस के मौन को तोड़ने में बाधक सिद्ध होती.

इसी तरह 2 वर्ष बीत गए. सौदामिनी का हर संभव प्रयत्न व्यर्थ ही गया. आदित्य उस के पास लौट कर नहीं आए. स्नेह के पात्र की तरह आदमी घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है, पर आदित्य के लिए उस की पत्नी मात्र एक मोम की गुडि़या थी, संवेदनाओं से कोसों दूर, हाड़मांस का एक पुतलाभर.

कभीकभी जीवन में इंसान को जब कोई विकल्प सामने नजर नहीं आता तो उस का सब्र सारी सीमाएं तोड़ कर ज्वालामुखी के लावे के समान बह निकलता है. ऐसा ही एक दिन सौदामिनी के साथ भी हुआ था. घर से बाहर जा रहे आदित्य का मार्ग रोक कर वह खड़ी हुई, ‘किस कुसूर की सजा आप मुझे दे रहे हैं? आखिर कब तक यों ही मुंह मोड़ कर मुझ से दूर भागते रहेंगे?’

‘सजा कुसूरवार को दी जाती है सौदामिनी, तुम ने तो कुसूर किया ही नहीं, तो फिर मैं तुम्हें कैसे सजा दे सकता हूं? मैं ने सुहागरात को ही तुम से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि हमारा विवाह मात्र एक समझौता है. तुम चाहो तो यहां रहो, न चाहो तो कहीं भी जा सकती हो. मेरी ओर से तुम पूर्णरूप से स्वतंत्र हो.’

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उस रात आदित्य का स्वर धीमा था, पर इतना धीमा भी नहीं था कि हवेली की दीवारों को न भेद सके. एक कमरे से दूसरे कमरे का फासला ही कितना था. दीवान साहब के कानों में आदित्य का एकएक शब्द पिघले सीसे के समान उतरता गया. अपना ही खून इतना बेगैरत हो सकता है? क्या उन की बहू परित्यक्ता का सा जीवन बिताती आई है? इस की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी.

उन्होंने पत्नी को बुला कर कई प्रश्न किए, पर कोई भी उत्तर संतोषजनक नहीं लगा था. तारिणी पूर्णरूप से बेटे की ही पक्षधर बनी रही थीं. दीवान साहब ने सौदामिनी को पीहर लौट जाने का सुझाव दिया था. वह वहां भी नहीं गई.

तब जीवन की हर समस्या की ओर व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाले दीवान साहब ने बहू को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया. दबी, सहमी सौदामिनी के लिए यह प्रस्ताव अप्रत्याशित सा ही था. बस, यही सोचसोच कर कांपती रही थी कि बरसों पहले छोड़ी गई किताब और कलम पकड़ने में कहीं हाथ कांपे तो क्या करेगी?

पर दृढ़निश्चयी दीवान साहब के आगे उस की एक भी न चली. उधर तारिणी ने सुना, तो घर में हड़कंप मच गया. पूरी हवेली की व्यवस्था ही चरमरा कर रह गई थी. इतने बरसों बाद बहू को पोथी का ज्ञान करवाना क्या उचित था? पर पति के सामने उन की आवाज घुट कर रह गई.

सौदामिनी की मेहनत, लगन और निष्ठा रंग लाई. उस का मनोबल बढ़ा, व्यक्तित्व में निखार आया. अब लोग उस की तरफ खिंचे चले आते थे, आदित्य का स्थान अब गौण हो चला था.

पत्नी के इस परिवर्तन पर आदित्य परेशान हो उठा था. वैसे भी पुरुष, नारी को अपने ऊपर या अपने समकक्ष कब देखना चाहता है. यदि चाहेअनचाहे पत्नी या उस के संबंधियों के प्रयास से ऐसा हो भी जाता है तो पुरुष की हीनभावना उसे उग्र बना देती है. ऐसा ही यहां भी हुआ था जो थोड़ाबहुत मान पति के अधीनस्थ हो कर उसे मिल रहा था, वह भी छिनता चला गया. पर सौदामिनी रुकी नहीं, आगे ही बढ़ती गई.

अमेरिका में उस के पत्र मुझे नियमित रूप से मिलते रहे थे. मन में राहत सी महसूस होती.

उधर दीवान साहब की दशा दिनपरदिन गिरती चली गई. बहू का दुख घुन के समान उन के शरीर को खाता जा रहा था. हर समय वे खुद को सौदामिनी का दोषी समझते. उस का जीवन उन्हें मझधार में फंसी हुई उस नाव के समान लगता, जिस का कोई किनारा ही न हो. भारीभरकम शरीर जर्जरावस्था में पहुंचता गया, जबान तालू से चिपकती गई. एक दिन देखते ही देखते उन के प्राणपखेरू उड़ गए और सौदामिनी अकेली रह गई.

उस दिन उसे लगा, वह रिक्त हो गई है. ऐसा कोई था भी तो नहीं, जो उस के दुख को समझ पाता. जिस कंधे का सहारा ले कर वह आंसुओं के चंद कतरे बहा सकती थी, वह भी तो स्पंदनहीन पड़ा था.

पिता की मृत्यु के बाद आदित्य पूर्णरूप से आजाद हो गया था. तेरहवीं की रस्म के बाद ही सूजी को घर में ला कर वह मुक्ति पर्व मनाने लगा था. सूजी उस के दिल की स्वामिनी तो थी ही, पूरे घर की स्वामिनी भी बन बैठी. घर की पूर्ण व्यवस्था पर उस का ही वर्चस्व था.

संवेदनशील सौदामिनी विस्मित हो पति का रवैया निहारती रह गई.

आदित्य का व्यवहार धीरेधीरे उसे परेशान नहीं, संतुलित करता गया. उस में निर्णय लेने की शक्ति आ गई थी.

अपने आखिरी पत्र में उस ने मुझे लिखा था…

‘सारे रस्मोंरिवाजों के बंधनों को तोड़ कर एक दिन मैं आजाद हो जाऊंगी. नासूर बन गए जुड़ाव की लहूलुहान पीड़ा से तो मुक्ति का सुख ज्यादा आनंददायक होगा. लगता है, वह समय आ गया है. अगर जिंदा रही तो जरूर मिलूंगी.

तुम्हारी सौदामिनी.’

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उस के बाद वह कहां गई, मैं नहीं जानती थी. दद्दा को भी मैं ने कई पत्र लिखे थे, पर उन्होंने तो शायद दीवान साहब की मृत्यु के बाद बेटी की सुध ही नहीं ली थी. बेटी को अपनी चौखट से विदा कर के ही उन के कर्तव्य की इतिश्री हो गई थी.

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Serial Story: सौदामिनी (भाग-1)

आबू की घुमावदार सड़कों और हरीभरी वादियों के बीच बसे उस छोटे से रमणीक स्थल पर मूकबधिरों की सेवा करती सौदामिनी से यों भेंट हो जाएगी, इस की तो मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. गहरा नीला रंग उसे सब से अधिक प्रिय था. गहरे नीले रंग की साड़ी में उस ने सलीके से अपनी दुर्बल काया को छिपा रखा था. हाथ में पकड़े पैन को, रजिस्टर पर तेजी से दौड़ाती हुई मैं उस को अपलक निहारती रह गई.

माथे पर चौड़ी लाल बिंदी और मांग में रक्तिम सिंदूर की आभा इस बात की पुष्टि कर रही थी कि इतना संघर्षभरा जीवन जीने के बाद भी अपने अतीत से जुड़े उन चंद पृष्ठों को वह अपने वर्तमान से दूर रखने में शायद असमर्थ थी. मेज की दराज से उस ने पुस्तकें निकालीं तो मैं ने उस का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पुकारा, ‘‘सौदामिनी, पहचाना नहीं क्या मुझे?’’

सौदामिनी चौंकी जरूर थी, पर मुझे पहचान लिया हो, ऐसा भी नहीं लगा था. वह अपनी जगह पर यों ही बैठी रही, न मुसकराई, न ही कुछ बोली. उस का शुद्ध व्यवहार मुझे अचरज में डाल गया था. सोचा, समय का अंतराल चाहे कितना ही क्यों न फैल जाए, इंसान का चेहरा, रूपरंग इतना तो नहीं बदल जाता कि उसे पहचाना ही न जा सके.

चश्मे को पोंछ कर उस ने फ्रेम को कुछ ऊपर खिसका दिया और पहचानने की कोशिश करने लगी. मैं ने फिर याद दिलाया, ‘‘सौदामिनी, मैं हूं, तनु, तुम्हारे अच्युत काका की बेटी.’’

‘‘अरे, तनु तुम? आओआओ, इतने बरसों बाद कैसे आना हुआ?’’ उस ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए पूछा.

फिर दराज बंद कर के उस ने चाबी का गुच्छा, पास ही खड़े चौकीदार को पकड़ाया और कमरा बंद करने का निर्देश दे कर बाहर निकल आई. कुछ ही कदमों के फासले पर हरीभरी झाडि़यों व लतिकाओं से घिरा हुआ उस का घर था. लौन का गेट खोल कर उस ने बाहर रखी चारपाई को, घुटने मोड़ कर सीधा किया और उस पर मोटी सी दरी बिछा कर बोली, ‘‘अमेरिका में रहते हुए तुम्हारी तो चारपाई पर बैठने की आदत छूट गई होगी? मुश्किल हो तो आरामकुरसी निकाल दूं?’’

‘‘कैसी बातें करती हो? यही सब तो वहां याद आता है…आम का अचार, उड़द की दाल की बडि़यां. सच पूछो तो यहां की मिट्टी की सोंधी महक ही तो बारबार मुझे खींच लाती है.’’

झुर्रीदार चेहरे पर हंसी प्रस्फुटित हुई थी, ‘‘अच्छा, यह तो बताओ, मेरा पता तुम्हें किस ने दिया?’’

‘‘अविनाश और मैं दोनों ही काम पर जाते हैं, इसलिए रोजरोज तो छुट्टी मिलती नहीं है. 5 वर्षों में एक बार आ पाते हैं. कुल मिला कर 3 सप्ताह की छुट्टी मिलती है, उन में 2 सप्ताह तो अम्मा, बाबूजी के पास रामपुर में ही बीत जाते हैं. बाकी एक सप्ताह किसी न किसी पहाड़ी जगह पर ही हम बिताते हैं. इस बार बच्चों ने आबू देखने की जिद की, तो यहीं चले आए.’’

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कुछ देर बाद चारों ओर पसरे मौन को मैं ने ही बींधा, ‘‘दरअसल, शारीरिक रूप से अपंग बच्चों पर मैं एक किताब लिख रही हूं. किसी ने तुम्हारे आश्रम का नाम सुझाया, तो यहीं चली आई.’’

मैं ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराया. वह चुपचाप गुमसुम सी बैठी रही, जैसे न ही कुछ पूछना चाह रही हो, न ही कुछ कहने की इच्छुक हो. वातावरण कुछ बोझिल सा हो चला था. दिसंबर की ठंडी धूप सामने वाले पेड़ पर जा अटकी थी. ठंडी हवाओं से कुछ सिहरन सी महसूस हुई तो मैं ने शौल ओढ़ ली.

‘‘यहां अकसर शाम को ठंड बढ़ जाती है. चलो, अंदर चल कर बैठते हैं. अब तो अंधेरा भी होने लगा है.’’

दरवाजा खोल कर उस ने मुझे अंदर बिठाया और खुद अलमारी में से कुछ निकालने लगी. पलस्तर उखड़े कमरे में

4 कुरसियां और मेजपोश से ढकी मेज के अलावा, कोने में एक पुराना पलंग था, जिस पर कांच सी पारदर्शी आंखों में तटस्थ सा भाव लिए एक छोटा सा बालक लेटा था. सौदामिनी को देख कर उस के चेहरे पर स्मित हास्य के चिह्न मुखर हो उठे थे. न जाने कौन सी भाषा में वह उस से प्रश्न करता जा रहा था और वह भी उसी की भाषा में उस की जिज्ञासा शांत करती जा रही थी.

मैं एकटक उसे निहारती रह गई. बालों में छिटके चांदी के तार, चेहरे पर पड़ आई झुर्रियों ने उसे असमय ही बुढ़ापे की ओर धकेल दिया था. दुग्ध धवल सा गौर वर्ण आबनूस की तरह काला हो चुका था. भराभरा सा गदराया शरीर संघर्ष करतेकरते दुर्बल काया का रूप ले चुका था.

‘‘यह मानव है, मेरा बेटा, बहुत प्यारा है न?’’ बच्चे के कपड़े बदलते हुए उस ने मुझ से कहा तो मैं चौंकी. कमरे में पसरी सड़ांध मेरे नथुनों में समाने लगी थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उबकाई को रोका. मेरी परेशानी माथे पर पड़ी सिलवटों से जाहिर हो उठी थी. वह शायद समझ गई थी. बोली, ‘‘वैसे तो हमेशा लघुशंका और दीर्घशंका के लिए संकेत देता है. आज ठंड कुछ ज्यादा है न, इसलिए…अच्छा, तुम बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

पर मेरा ध्यान कहीं और था, इस पसोपेश में थी कि यह बालक है कौन? जहां तक मुझे याद था, आदित्य के घर से जब वह लौटी थी तो निसंतान ही थी.

सौदामिनी चाय बनाने चली गई तो मैं पास ही पड़ी आरामकुरसी पर आंखें मूंद कर लेट गई. हवा के झोंकों से यादों के किवाड़ धीरेधीरे खुलने लगे तो मन दद्दा की हवेली में भटकने लगा था…

बाबूजी के चचेरे भाई थे, दद्दा. लोग उन्हें राय साहब भवानी प्रसाद के नाम से पहचानते थे. शहर के बीचोंबीच संगमरमर से बनी उन की कोठी की शान निराली थी.

दद्दा ने बड़ा ही निराला स्वभाव पाया, तबीयत शौकीन और अंदाज रईसी वाले. हर काम अपने ही ढंग से करते, न किसी के काम में हस्तक्षेप करते, न ही किसी की टीकाटिप्पणी बरदाश्त करते.

जन्म लेते ही सौदामिनी के सिर से मां का साया उठ गया था. पिता करोड़ों की जायदाद के इकलौते वारिस थे, पर प्यार और अपनत्व का आदानप्रदान करने में गजब के कंजूस. भावनाएं और संवेदनाएं तो उन्हें छू तक नहीं पाई थीं. हर शाम शहर के रईस लोगों के बीच शतरंज की बाजी खेलने वाले दद्दा ने अपनी बेटी के लालनपालन में कहीं कोताही की हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. हर समय उस पर कड़ी निगरानी रखते थे.

सौदामिनी जरा सा सिसकती, तो दद्दा चिल्लाते. उन की चीखपुकार सुन कर सेविकाएं दौड़ी चली आतीं और बिटिया बिना दुलारेपुचकारे सहम कर यों ही चुप हो जाती. ठोकर खा कर गिरती, तो दद्दा एक ही गति में निरंतर चिंघाड़ते रहते. सेविकाओं की पेशी होती, कोई इधर दौड़ती कोई उधर भागती, और कोई खिलौनों की अलमारी के सामने जा खड़ी हो जाती पर सौदामिनी तो तब तक पिता का रौद्र रूप देख कर ही दहशत के मारे चुप हो चुकी होती थी.

स्कूल या कालेज सौदामिनी कभी गई ही नहीं. इस का कारण था, राय साहब की रूढि़वादी सोच. घर से बाहर बेटियों को निकालने के वे सख्त विरोधी थे. वे सोचते, लड़कों के संग बतिया कर उन की बिटिया कहीं भाग गई तो? पास ही एक मिशनरी स्कूल था, वहीं की एक ईसाई टीचर को उन्होंने सौदामिनी की शिक्षा के लिए नियुक्त कर दिया था. ऐसे में उस की शिक्षा का दायरा हिंदी, अंगरेजी की वर्णमाला तक ही सिमट कर रह गया था.

बेटी के प्रति अपनी आचारसंहिता में नित नए विधानों की रचना करने वाले दद्दा. उस के हर काम, हर गतिविधि पर कड़ी निगरानी रखने लगे.

सौदामिनी हर समय व्याकुल रहती जीवन की उन सचाइयों से परिचित होने के लिए, जिन की चर्चा अकसर वह अपनी सहेलियों से सुन लिया करती थी.

कलकत्ता का राजभोग और मथुरा के पेड़े खाते समय उस का मन कच्चे अमरूद खाने के लिए तरसता. ऐसे में दोपहरी में हम दोनों दद्दा की नजरें चुरा कर पिछवाड़े की बगिया में जा पहुंचतीं. पेड़ पर चढ़ कर कच्चे अमरूद ढूंढ़ने का आनंद वैसा ही था जैसे किसी गोताखोर के लिए मोती ढूंढ़ने का.

एक दिन यह खबर, न जाने कैसे दद्दा के दीवानखाने जा पहुंची. और तब सौदामिनी की पेशी हुई.

पिता का तिरस्कारपूर्ण स्वर सुन कर बालहृदय छलनी हो गया. सहम कर अपना मुंह अपने नन्हेनन्हे हाथों से छिपा कर वह देर तक रोती रही.

सौदामिनी हर समय सहमीसिमटी रहती थी, न हंसती न बोलती. पिंजरे के तार चाहे सोने के हों या लोहे के, कैद तो आखिर कैद ही है.

धीरेधीरे उस का मनोबल गिरता चला गया. हाथपांव पसीने में भीगे रहते, जबान लड़खड़ाने लगी. रात को सोती तो चीखनेचिल्लाने लगती. कई हकीम, डाक्टर और वैद्यों का इलाज करवाया गया, पर सौदामिनी की दशा दिनपरदिन बिगड़ती ही चली गई.

एक दिन दद्दा के मुनीम अपने अनुज, डाक्टर मृदुल को सौदामिनी के इलाज के लिए ले आए. अचानक अपने सामने किसी नए डाक्टर को देख कर राय साहब असमंजस में पड़ गए. एक तो मुनीम का भाई, दूसरा अनुभवहीन. सोचा, जहां बड़ेबड़े डाक्टर कुछ नहीं कर पाए, यह नौसिखिया क्या कर लेगा? बस, यही सोच कर दद्दा चुप्पी साधे रहे.

पर सौदामिनी की ऐसी दशा अम्मा, बाबूजी से सहन नहीं हो पा रही थी. पहली बार अम्मा ने तब दद्दा के सामने मुंह खोला था और न जाने क्या सोच कर वे मान भी गए.

मृदुल की दवा से सौदामिनी की दशा दिनपरदिन सुधरने लगी. मृदुल जानते थे, उस का रोग शारीरिक कम, मानसिक अधिक है. दवा से ज्यादा उसे प्यार और अपनत्व की जरूरत है. उधर सौदामिनी को स्वास्थ्यलाभ मिला, इधर राय साहब के विश्वास की जड़ें मृदुल पर जमने लगीं. वह तेजस्वी व्यक्तित्व और विलक्षण बुद्धि का स्वामी था, सदा अपने आकर्षण में सब को बांधे रखता. घंटों सौदामिनी के पास बैठा रहता.

मृदुल की संवेदनाओं ने न जाने कब अपमान, उपेक्षा और तिरस्कार के वज्र खंड तले सहमीसिमटी सौदामिनी के हृदय की बसंती बयार को सुगंधित झोंके के समान छू कर उस के दिल में प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया.

सौदामिनी मृदुल के साहचर्य के लिए हर समय तरसती. उधर मृदुल भी सौदामिनी के ठहाकों, मुसकराहटों और उलझनों से अनजाने ही जुड़ते चले गए.

शुरूशुरू में राय साहब को इस प्रेमप्रसंग की जरा भी जानकारी नहीं मिली. प्यार, स्नेह, आसक्ति जैसी नैसर्गिक भावनाएं उम्र के किसी भी सोपान पर, जीवन के किसी भी मोड़ पर स्वाभाविक रूप से जन्म ले सकती हैं. उन के नियम, विधान के संसार में ऐसा सोचना भी प्रतिबंधित सा था.

ऊंची मानमर्यादा और प्रतिष्ठा के स्वामी राय साहब लाखों का दहेज देने की सामर्थ्य रखते थे. मुनीम के भाई के साथ अपनी इकलौती बेटी को ब्याह कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा पर उन्हें कालिख थोड़े ही पुतवानी थी.

मैं उस प्रेमकहानी को कभी नहीं भूली, जिस की एकएक ईंट, राय साहब ने अपने छल से गिरवा दी थी और रह गया था, एक खंडहर.

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कुछ दिनों के लिए सौदामिनी को दद्दा ने उस के ननिहाल भिजवा दिया था. नाना की तबीयत बेहद खराब थी, इसलिए उन की सेवा के लिए कोई तो चाहिए ही था. पिता के बारे में सौदामिनी के मन में कोई दुर्भावना नहीं उपजी और न ही कोई राय बनी. जब तक लौटी, मुनीम और उन का अनुज पूरे दृश्यपटल से ओझल हो चुके थे. मृदुल यों बिना बताए क्यों चले गए, कहां चले गए? इस की जरा भी भनक न सौदामिनी को मिली, न ही हवेली वालों को.

छल, प्रवंचनाओं के छद्म भेदों से दूर सौदामिनी का मन मैला करना कोई बहुत कठिन काम नहीं था. जीवन के गूढ़ रहस्यों से अनभिज्ञ भोलीभाली बेटी के सामने दद्दा ने मृदुल के चरित्र का ऐसा घिनौना चित्रण प्रस्तुत किया कि उस का मन मृदुल के प्रति वितृष्णा से भर उठा.

प्रेम में चोट खाए हृदय का दुख समय के साथ ही मिटता जाएगा, यह सभी जानते थे. दद्दा भी जानते थे कि वक्त बड़े से बड़े जख्म भर देता है. समय बीतता गया. सौदामिनी के रिसते घाव भरने लगे.

विश्वास, अविश्वास के चक्रवात में उलझी सौदामिनी अब एक बार फिर प्रेम का घरौंदा बनाने के लिए सुनहरे स्वप्न संजोने लगी थी. इस घर से भावनात्मक रूप से वह जुड़ी ही कब थी, जो यहां मन रमता? करोड़पति पिता ने करोड़पति परिवारों की खोज शुरू कर दी थी. रिश्तों की कमी न थी. पर दद्दा को हर रिश्ते में कोई न कोई खामी नजर आती ही थी.

आखिर एक दिन बड़ी ही जद्दोजेहद के बाद उन्हें दीवान दुर्गा प्रसाद का इकलौता बेटा आदित्य अपनी सौदामिनी के लिए उपयुक्त लगा. आदित्य डाक्टर था, व्यक्तित्व का ही नहीं, कृतित्व का भी धनी था.

अतीत के सारे दुखद प्रसंगों को भूल कर सौदामिनी खुद को कल्पनाओं के मोहक संसार में पिरोने लगी थी.

दोनों ही पक्षों ने दिल खोल कर खर्चा किया था. दीवान साहब की प्रतिष्ठा का अंदाजा बरात में आए लोगों की भीड़ देख कर लगाया जा सकता था. जीवनपर्यंत सुखदुख का साथी बने रहने का संकल्प ले कर सौदामिनी ने ससुराल की देहरी पर कदम रखा था.

रात्रि की नीरवता चारों ओर पसरी हुई थी. सभी मेहमान अपनेअपने कमरों में सो चुके थे. कमरे के बाहर उस की सास तारिणी सामान को सुव्यविस्थत करने में जुटी हुई थीं. रात्रि का तीसरा पहर भी ढलने को था. लेकिन आदित्य का दूरदूर तक कहीं पता न था.

सुबह की पहली किरण के साथ आदित्य कमरे में लौटे तो सौदामिनी और भी सिमट गई.

वे बिना कोई भूमिका बांधे पास ही पड़ी कुरसी पर बैठ गए और बोले, ‘सौदामिनी, हमारे समाज में मातापिता बेटे के लिए पत्नी नहीं, अपने लिए कुलवधू ढूंढ़ते हैं, गृहलक्ष्मी ढूंढ़ते हैं,’ आदित्य के स्वर में ऐसा भाव था, जिस ने सौदामिनी के मन को छू लिया.

‘मैं किसी और को प्यार करता हूं. सूजी नाम है उस का…मेरे ही अस्पताल में नर्स है. तुम्हें बुरा तो लगेगा, पर मैं सच कह रहा हूं. मैं ने तो तुम्हें एक नजर देखा भी नहीं था. कई बार मैं ने इस विवाह का विरोध किया, पर मां न मानीं. सच पूछो तो उन्होंने भी तुम्हारी धनसंपदा को ही पसंद किया है, तुम्हें नहीं,’ इतना कह कर आदित्य दूसरे कमरे में चले गए थे और छोड़ गए थे सूनापन.

कल्पना का महल खंडित हो चुका था. सौदामिनी अपनी जगह से हिली, न डुली. उसे लगा, वह जमीन में धंसती चली जा रही है. ऐसे समय में कोई नवविवाहिता कह भी क्या सकती है. बस, आदित्य के अगले वाक्य की प्रतीक्षा करती रही. वे लौट आए थे, ‘इस घर में तुम्हें सारे अधिकार मिलेंगे, पर मेरे हृदय पर अधिकार सूजी का ही होगा. उसे भुलाना मेरे वश में नहीं,’ आदित्य की आंखों में भावुकता से अश्रुकण छलक आए.

सौदामिनी सोच रही थी, अगर उस के दिल पर उस का अधिकार नहीं तो इस घर में रह कर क्या करेगी? किलेनुमा उस हवेली में वह खुद को कैदी ही समझ रही थी.

कुछ ही देर में आदित्य की मां थाल में नए वस्त्र और आभूषण ले कर आईं, जिन्हें अपने शरीर पर धारण कर के उसे आगंतुकों से शुभकामनाएं लेनी थीं. सौदामिनी ने मां का लाड़प्यार कभी देखा नहीं था, सुना जरूर था कि मां का हृदय विशाल होता है, एक वटवृक्ष की तरह, जिस की छाया तले न जाने कितने पौधे पुष्पित, पल्लवित होते हैं. बस, यही सोच कर उन का हाथ पकड़ कर सौदामिनी सिसक उठी, ‘मांजी, सबकुछ जानते हुए भी, आप ने मेरा जीवन बरबाद क्यों किया? आप को उन की प्रेमिका से ही उन का विवाह करवाना चाहिए था.’

तारिणी ने अपना हाथ छुड़ाते हुए रुखाई से कहा, ‘बहू, रिश्ते जोड़ते समय खानदान, जात, वर्ग, परंपरा जैसी कई बातों को ध्यान में रखना पड़ता है.’

कांपते स्वर में उस ने इतना ही कहा, ‘चाहे इन सब बातों के लिए किसी दूसरी लड़की के जीवन की सारी खुशियां ही दांव पर क्यों न लग जाएं?’

‘ऐसा कुछ नहीं होता, बहू. पत्नी में सामर्थ्य हो तो साम, दाम, दंड, भेद जैसा कोई भी अस्त्र प्रयोग कर के अपने पति का मन जीत सकती है.’

सास ने कहा, ‘देखो सौदामिनी, तुम इस घर की बहू हो. इस घर की मानमर्यादा तुम्हें ही बना कर रखनी है. समाज में हमारा नाम है, इज्जत है. आदित्य और सूजी के संबंधों पर परदा पड़ा रहे, इसी में तुम्हारी भलाई है और हम सब की भी. किसी को इस विषय में कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए. तुम्हारे ससुर दीवान साहब को भी पता नहीं चलना चाहिए. वे दिल के मरीज हैं. उन का ध्यान रख कर ही मैं ने तुम्हें इस घर की बहू बनाया है, वरना सूजी ही आती इस घर में. अगर उन्हें कुछ हो गया तो इस का उत्तरदायित्व तुम पर ही होगा.’

सभी का अपनाअपना मत था. कोई मजबूरी जतला रहा था, कोई धमकी दे रहा था. सौदामिनी को समाज के कठघरे में खड़ा करने वाले उस के तथाकथित संबंधी, उस की भावनाओं से सर्वथा अनभिज्ञ थे. राय साहब के साम्राज्य की इकलौती राजकुमारी का अस्तित्व ससुराल वालों ने कितनी बेरहमी से नकार दिया था.

नववधू अपमान का घूंट पी कर रह गई थी. न जाने क्यों, उस दिन मृदुल बहुत याद आए थे, ‘क्यों छोड़ कर चले गए उसे यों मझधार में? कम से कम एक बार मिल तो लेते, कुछ कहनेसुनने का मौका तो दिया होता.’

दीवान साहब नेक इंसान थे. एक बार सौदामिनी के जी में आया कि वह उन से सबकुछ कह दे, पर सहज नहीं लगा था. वह होंठ सीए रही थी.

– क्रमश:

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Serial Story: सौदामिनी (भाग-3)

सामने मेज पर रखी चाय बर्फ के समान ठंडी हो चुकी थी. गुमसुम सी बैठी सौदामिनी से मैं ने प्रश्न किया, ‘‘दीवान साहब के घर से निकल कर तुम कहां गईं, कहां रहीं?’’

सौदामिनी गंभीर हो उठी थी. उस के माथे पर सिलवटें सी पड़ गईं. ऐसा लगा, उस के सीने में जो अपमान जमा है, एक बार फिर पिघलने लगा है.

‘‘तनु, अतीत को कुरेद कर, वर्तमान को गंधाने से क्या लाभ? उन धुंधली यादों को अपने जीवन की पुस्तक से मैं फाड़ चुकी हूं.’’

‘‘जानती हूं, लेकिन फिर भी, जो हमारे अपने होते हैं और जिन्हें हम बेहद प्यार करते हैं, उन से कुछ पूछने का हक तो होता है न हमें. क्या यह अधिकार भी मुझे नहीं दोगी?’’

आत्मीयता के चंद शब्द सुन कर उस की आंखें भीग गईं. अवरुद्ध स्वर, कितनी मुश्किल से कंठ से बाहर निकला होगा, इस का अंदाजा मैं ने लगा लिया था.

‘‘जिस समय आदित्य की चौखट लांघ कर बाहर निकली थी, विश्वासअविश्वास के चक्रवात में उलझी मैं ऐसे दोराहे पर खड़ी थी, जहां से एक सीधीसपाट सड़क मायके की देहरी पर खत्म होती थी. पर वहां कौन था मेरा? सो, लौटने का सवाल ही नहीं उठता था.

‘‘आत्महत्या करने का प्रयास भी कई बार किया था, पर नाकाम रही थी. अगर जीवन के प्रति जिजीविषा बनी हुई हो तो मृत्युवरण भी कैसे हो सकता है? इतने बरसों बाद अपनी सूनी आंखों में मोहभंग का इतिहास समेटे जब मैं घर से निकली थी तो मेरे पास कुछ भी नहीं था, सिवा सोने की 4 चूडि़यों के. उन्हें मैं ने कब सुनार के पास बेचा, और कब ट्रेन में चढ़ कर यहां माउंट आबू पहुंच गई, याद ही नहीं. यहांवहां भटकती रही.

‘‘ऐसी ही एक शाम मैं गश खा कर गिर पड़ी. पर जब आंख खुली तो अपने सामने श्वेत वस्त्रधारी, एक महिला को खड़े पाया. उस के चेहरे पर पांडित्य के लक्षण थे. उस के हाथ में ढेर सारी दवाइयां थीं. मिसरी पगे स्वर में उस ने पूछा, ‘कहां जाना है, बहन? चलो, मैं तुम्हें छोड़ आती हूं.’

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‘‘किसी अजनबी के सामने अपना परिचय देने में डर लग रहा था. वैसे भी अपने गंतव्य के विषय में जब खुद मुझे ही कुछ नहीं मालूम था तो उसे क्या बताती. उस के चेहरे पर ममता और दया के भाव परिलक्षित हो उठे थे. मेरे आंसुओं को वह धीरेधीरे पोंछती रही. उस ने मुझे अपने साथ चलने को कहा और यहां इस आश्रम में ले आई.

‘‘कई दिनों से बंद पड़े एक कमरे को उस ने भली प्रकार से साफ करवाया, रोजमर्रा की जरूरी चीजों को मेरे लिए जुटा कर वह मेरे पास ही बैठ गई. कुछ देर बाद उस ने मेरे अतीत को फिर से कुरेदा तो मैं ने हिचकियों के बीच सचाई उसे बता दी.

‘‘उस का नाम श्यामली था. एक दिन वह बोली, ‘यों कब तक अंधेरे में मुंह छिपा कर बैठी रहोगी, सौदामिनी. जब जीवन का हर द्वार बंद हो जाए तो जी कर भी क्या करेगा इंसान?

‘‘‘जीवन एक अमूल्य निधि है, इसे गंवाना कहां की अक्लमंदी है? केवल भावनाओं और संवेदनाओं के सहारे जीवन नहीं जीया जा सकता. जीविकोपार्जन के लिए कुछ न कुछ साधन जुटाने पड़ते हैं.’

‘‘श्यामली इसी आश्रम की संचालिका थी. बरसों पहले उस ने और उस के डाक्टर पति ने इस आश्रम को स्थापित किया था. वह मुझे इसी आश्रम में बने एक स्कूल में ले गई. इधरउधर छिटकी, बिखरी कलियों को समेट कर एक कक्षा में बिठा कर पढ़ाना शुरू किया तो लगा, पूर्ण मातृत्व को प्राप्त कर लिया है. घर के बाहर कुछ सब्जियां वगैरा उगा ली थीं. समय भी बीत जाता, खर्च में भी बचत हो जाती.

‘‘दिन तो अच्छा बीत जाता था. शाम को अकेली बैठती तो गहरी उदासी के बादल चारों ओर घिर आते थे. श्यामली अकसर मुझे अपने घर बुलाती, पर कहीं जाने का मन ही नहीं करता था.

‘‘कई आघातों के बाद जीवन ने एक स्वाभाविक गति पकड़ ली थी. सहज होने में कितना भी समय क्यों न लगा हो, जीवन मंथर गति से चलने लगा था. अतीत की यादें परछाईं की तरह मिटने लगी थीं. उसी वातावरण में रमती गई, तो जीवन रास आने लगा.

‘‘इधर एक हफ्ते से श्यामली मुझ से मिली नहीं थी. मैं अचरज में थी कि वह इतने दिनों तक अनुपस्थित कैसे रह सकती है. कभी उस के घर गई नहीं थी. इसलिए कदम उठ ही नहीं रहे थे. पर जब मन न माना तो मैं उसी ओर चल दी.

‘‘दरवाजा श्यामली ने ही खोला था. मुझे देख कर उस के चेहरे पर स्मित हास्य के चिह्न मुखर हो उठे थे. उसे देख कर मुझे अपने अंदर कुछ सरकता सा महसूस हुआ. पहले से वह बेहद कमजोर लग रही थी.

‘‘उस ने आगे बढ़ कर मेरे कंधे पर हाथ रखा और अंदर ले गई. पालने में एक बालक लेटा हुआ था. मानसिक रूप से उस का पूर्ण विकास अवरुद्ध हो गया है, ऐसा मुझे महसूस हुआ था. पूरे घर में शांति थी.

‘‘‘पिछले कुछ दिनों से मेरे पति की तबीयत अचानक खराब हो गई. आजकल रोज अस्पताल जाना पड़ता है,’ उस ने बताया.

‘‘क्या कहते हैं, डाक्टर?’

‘‘‘उन्हें कैंसर है,’ उस का स्वर धीमा था.

‘‘कुछ देर बाद उस के पति के कराहने का स्वर सुनाई दिया, तो वह अंदर चली गई. साथ ही, मुझे भी अपने पीछे आने को कहा.

‘‘दुर्बल शरीर, खिचड़ी से बेतरतीब बाल, लंबी दाढ़ी…पर मैं उसे एक पल में पहचान गई थी. सामने मृदुल मृत्युशय्या पर लेटा था. सैलाब के क्षणों में जैसे समूची धरती उलटपलट जाती है, वैसे ही मेरे अंतस में भयावह हाहाकार जाग उठा था. वक्त ने कैसा क्रूर मजाक किया था, मेरे साथ? अतीत के जिस प्रसंग को मैं भूल चुकी थी, वर्तमान बन कर मेरे सामने खड़ा था. वितृष्णा, विरक्ति, घृणा जैसे भाव मेरे चेहरे पर मुखरित हो उठे थे. उस की पीड़ा देख कर मेरे चेहरे पर संतोष का भाव उभर आया.

‘‘‘अगर तुम यहां मृदुल के पास कुछ समय बैठो, तो मैं आश्रम का निरीक्षण कर आऊं?’ श्यामली ने मुझे वर्तमान में धकेला था.

‘‘‘हांहां, तुम निश्ंिचत हो कर जाओ, मैं यहीं पर हूं.’

‘‘श्यामली के जाने के बाद वातावरण असहज हो उठा था. मैं अपनेआप में सिमटती जा रही थी. मृदुल की मुंदी हुई आंखें हौलेहौले खुलने लगी थीं. उस के हावभाव में बेहद ठंडापन था. झील जैसी शांत शीतल छाया बिखेरती निगाहें उठा कर उस ने मुझे देखा और अपने पास रखी कुरसी पर बैठने को कहा. फिर हौले से बोला, ‘तुम यहां, इस शहर में?’

‘‘‘और अगर यही प्रश्न मैं तुम से करूं तो? मृदुल, क्या सपनों के राजकुमार यों ही जिंदगी में आते हैं? अगर श्यामली से ही ब्याह करना था तो मुझ से प्रेम ही क्यों किया था? मुझे तो अकेले जीने की आदत थी.’ रुलाई को बमुश्किल संयत करते हुए मैं ने पूछा तो उस ने अपनी कांपती मुट्ठी में मेरी दोनों हथेलियों को कस कर पकड़ लिया.

‘‘उस के स्पर्श में दया, ममता और अपनत्व के भाव थे. वह हौले से बोला, ‘क्या दोषारोपण के सारे अधिकार तुम्हारे ही पास हैं? मुझे लगता है तुम ने उतना ही सुना और समझा है, जितना शायद तुम ने सुनना और समझना चाहा है. अपने इर्दगिर्द की सारी सीमाएं तोड़ दो और फिर देखो, क्या कोई फरेब दिखता है, तुम्हें?’

‘‘मैं उसे एकटक निहारती रही. अपना सिर पीछे दीवार से टिका कर उस ने आंखें बंद कर लीं. उन बंद आंखों के पीछे बहुतकुछ था, जो अनकहा था.

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‘‘आखिर मृदुल ने खुद ही मौन बींधा, ‘तुम्हारे पिता राय साहब बड़े आदमी थे. वहां का रुख तक वे अपने अनुसार मोड़ने में सिद्धहस्त थे. यह मुझ से ज्यादा शायद तुम समझती होगी. जिन दिनों मैं तुम्हारे पास आया करता था, मेरे भैया की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. डाक्टर ने दिल का औपरेशन करने का सुझाव दिया था. देखा जाए तो भारत में न डाक्टरों की कमी है, न ही अस्पतालों की, पर तुम्हारे पिता ने उस समय मुझे भैया को ले कर अमेरिका में औपरेशन करने का सुझाव दिया था.

‘‘‘तुम तो जानती हो, मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, पर राय साहब ने आननफानन सारी तैयारी करवा कर 2 टिकट मेरे हाथ में पकड़वा दिए थे. उस समय मेरा मन उन के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो उठा था.

‘‘‘तुम सोच रही होगी, मैं तुम से मिलने क्यों नहीं आया? मैं तुम्हारे घर गया था, पर तब तक तुम ननिहाल जा चुकी थीं. कुछ ही दिन बीते तो अमेरिका में तुम्हारे ब्याह की खबर सुनी थी. तुम्हारे पिता के प्रति मन घृणा से भर उठा था. शतरंज की बिसात पर 2 युवा प्रेमियों को मुहरों की तरह प्रयोग कर के कितनी कुशलता से उन्होंने बाजी जीत ली थी. फिर तुम ने भी तो सच को समझने का प्रयास ही नहीं किया.’

‘‘छोटे बालक की तरह वह सिसकता रहा. अतीत की धूमिल यादें, एक बार फिर मानसपटल पर साकार हो उठी थीं. झूठी मानमर्यादा और सामाजिक प्रतिष्ठा की दुहाई देने वाले मेरे पिता को, 2 युवा प्रेमियों को अलग करने से क्या मिला? मृदुल को तो फिर भी गृहस्थी और पत्नी का सुख मिला था. लुटती तो मैं ही रही थी. कितनी देर तक पीड़ा के तिनके हृदयपटल से बुहारने का प्रयास करती रही थी, पर बरसों से जमी पीड़ा को पिघलने में समय तो लगता ही है.

‘‘घर पहुंच कर सुख को मैं कोसने लगी कि मृदुल से क्यों मिली. मृगतृष्णा ही सही, आश्वस्त तो थी कि उस ने मुझे छला है. धोखा दिया है. अब तो घृणा का स्थान दया ने ले लिया था. उस से मिलने को मन हर समय आतुर रहता. उस के सान्निध्य में, कुंआरे सपने साकार होने लगते. यह जानते हुए भी कि मैं अंधेरी गुफा की ओर बढ़ रही हूं, खुद को रोक पाने में अक्षम थी.

‘‘एक दिन मेरे अंतस से पुरजोर आवाज उभरी, ‘यह क्या कर  रही है तू? जिस महिला ने तुझे जीवनदान दिया, जीने की दिशा सुझाई, उसी का सुखचैन लूट रही है. मृदुल तेरा पूर्व प्रेमी सही, अब श्यामली का पति है. फिर तू भी तो आदित्य की ब्याहता पत्नी है. श्यामली के जीवन में विष घोल रही है?’

‘‘मन ने धिक्कारा, तो पैरों में खुदबखुद बेडि़यां पड़ गईं. श्यामली से भी मैं दूर भागने लगी थी. अपने ही काम में व्यस्त रहती. मन उचटता तो गूंगेबहरे, विक्षिप्त बच्चों के पास जा पहुंचती. इस से राहत सी महसूस होती थी. श्यामली संदेशा भिजवाती भी, तो बड़ी ही सफाई से टाल जाती.

‘‘एक रात श्यामली के घर से करुण क्रंदन सुनाई दिया था. मन हाहाकार कर उठा. दौड़ती हुई मैं श्यामली के पास जा पहुंची, लोगों की भीड़ जमा थी.

‘‘पाषाण प्रतिमा बनी श्यामली पति के सिरहाने गुमसुम सी बैठी थी. पास ही, उस का बेटा लेटा हुआ था. सच, पुरुष का साया मात्र उठ जाने से औरत कितनी असहाय हो उठती है. मुझे जिंदगी ने छला था तो उसे मौत ने.

‘‘उस दिन के बाद मैं प्रतिदिन श्यामली के पास जाती. घंटों उस के पास बैठी रहती. उस की खामोश आंखों में मृदुल की छवि समाई हुई थी.

‘‘पति की मौत का दुख घुन की तरह उस के शरीर को बींधता रहा था. उस की तबीयत दिनपरदिन बिगड़ने लगी थी. वह अकसर कहती, ‘मृदुल बहुत नेक इंसान थे. जीवन के इस महासागर में, उन्हें बहुत कम समय व्यतीत करना है, यह शायद वे जानते थे. उन्होंने कभी किसी को चोट नहीं पहुंचाई, कभी किसी को दुख नहीं दिया. पर अब मुझे जीवन की तल्खियों से जूझने के लिए अकेला क्यों छोड़ गए?’

‘‘जब निविड़ अंधकार में प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती, तब आदमी जिंदगी की डोर झटक कर तोड़ देने को मजबूर हो जाता होगा. श्यामली का जीवन भी ऐसा ही अंधकारपूर्ण हो गया होगा, तभी तो एक दिन चुपके से उस ने प्राण त्याग दिए थे और जा पहुंची थी अपने मृदुल के पास.

‘‘मृदुल की मृत्यु के बाद मैं उसी के घर में उस के साथ रहने लगी थी. हर समय उस का बेटा मेरे ही पास रहता. हर समय उस के मुख पर एक ही प्रश्न रहता कि उस के बाद उस के बेटे का क्या होगा? मैं उसे धीरज बंधाती, उस का मनोबल बढ़ाती, पर वह भीतर ही भीतर घुटती रहती.

‘‘‘जीने का मोह ही नहीं रहा,’ उस ने एक दिन बुझीबुझी आंखों से कहा था, ‘एक बात कहूं? मेरी मृत्यु के बाद इस आश्रम और मेरे बेटे मानव का दायित्व तुम्हारे कंधों पर होगा,’ उसे मेरी हां का इंतजार था, ‘हमारा रुपयापैसा, जमापूजीं तुम्हारी हुई सौदामिनी…’

‘‘मैं चुप थी. क्या इतना बड़ा उत्तरदायित्व मैं संभाल सकूंगी? मन इसी ऊहापोह में था.

‘‘फिर थोड़ा रुक कर वह बोली, ‘मृत्युवरण से कुछ समय पूर्व ही मृदुल ने अपने और तुम्हारे संबंधों के बारे में मुझे सबकुछ बता दिया था. यह भी कहा था कि अगर मुझे कुछ हो जाए तो मानव का दायित्व मैं तुम्हें सौंप दूं. उन की अंतिम इच्छा क्या पूरी नहीं करोगी? एक बार हां कह दो, तो चैन से इस संसार से विदा ले लूं.’

‘‘मन कृतकृत्य हो उठा था. साथ ही, मृदुल का मेरे प्रति अटूट विश्वास इस अवधारणा से मुक्त कर गया था कि सप्तपदी और विवाह का अनुष्ठान तो मात्र एक मुहर है जो 2 इंसानों को जोड़ता है. असल तो है, मन से मन का मिलन.

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‘‘मानव का उत्तरदायित्व लेने से हिचकिचाहट तो हुई थी. एक बार फिर समाज और इस के लोग मेरे सामने आ गए थे. मन कांपा था, लोग अफवाहें फैलाएंगे. फिकरे कसेंगे, पर एक झटके से मन पर नियंत्रण भी पा लिया था. सोचा, जिस समाज ने हमेशा घाव ही दिए, उस की चिंता कर के इस बच्चे का जीवन क्यों बरबाद करूं? मृदुल के विश्वास को क्यों धोखा दूं?’’

आसमान पर चांद का टुकड़ा कब खिड़की की राह कमरे में दाखिल हो गया, हम दोनों को पता ही नहीं चला. मैं उठ कर बाहर आई, तो चांद मुसकरा रहा था.

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