REVIEW: अति सतही फिल्म है Babli Bouncer

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः विनीत जैन व अमृता पांडे

निर्देशकः मधुर भंडारकर

कलाकारःतमन्ना भाटिया,  अभिषेक बजाज, सौरभ शुक्ला, साहिल वैद्य,  सानंद वर्मा, सव्यसाची चक्रवर्ती,  करण सिंह छाबरा व अन्य.

अवधिः लगभग दो घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉट स्टार डिज्नी

सरकारें बदलने के साथ हर देश के सिनेमा में कुछ बदलाव जरुर होते हैं. मगर सिनेमा में कहानी व मनोरजन जरुर रहता है. लेकिन बौलीवुड के फिल्मकार तो अब सिर्फ  किसी न किसी अजेंडे के तहत ही फिल्में बना रहे हैं. ऐसा करते समय वह सिनेमा तकनीक , मनोरंजन व कहानी पर ध्यान ही नही देते. तभी तो 23 सितंबर से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘डिज्नी हॉटस्टार ’पर स्ट्ीम हो रही फिल्म ‘‘बबली बाउंसर’’ देखकर इस बात का अहसास ही नही होता कि इस फिल्म का निर्देशन राष्ट्ीय पुरस्कार प्राप्त व 2016 में पद्मश्री से सम्मानित निर्देशक मधुर भंडारकर ने किया है, जिन्होने इससे पहले ‘चांदनी बार’, ‘पेज 3’, ‘कारपोरेट’, ‘ट्रेफिक सिग्नल’, ‘फैशन’ , ‘जेल ’ व ‘हीरोईन जैसी फिल्में निर्देशित की हैं.

हरियाणा की पृष्ठभूमि में ओमन इंम्पॉवरमेंट’ पर बनायी गयी फिल्म ‘‘बबली बाउंसर’’में न तो ओमन इम्पावरमेंट है, न प्रेम कहानी है न हास्य है और न इसमें मनोरंजन का कोई तत्व है. . इतना ही नहीं इस फिल्म का नाम यदि ‘‘बबली बाउंसर’ न होता तो भी कोई फर्क नही पड़ता.

कहानीः     

फिल्म ‘‘बबली बाउंसर’’ की कहानी दिल्ली से सटे हरियाणा के गांव असोला-फतेहपुरी से शुरू होती है. जहां हर वर्ष सैकड़ों पुरूष बाउंसर तैयार होते हैं और फिर वह दिल्ली के नाइट क्लबों में नौकरी करते हैं. इसी गांव में एक लड़की बबली तंवर ( तमन्ना भाटिया) हैं, जो कि अपने पिता व गांव के बॉडी बिल्डर (सौरभ शुक्ला) से बौडी बिल्डिंग सीखती हैं. बबली की मां को बेटी की शादी की चिंता है, मगर बाप बेटी कुछ अलग ही जिंदगी जी रहे हैं. वह अपनी सहेली की ही तरह दिल्ली जाकर नौकरी करना चाहती है.  बबली का आशिक गांव का ही युवक(साहिल वैद्य) है. एक दिन गांव के सरपंच की बेटी की शादी में बबली की मुलाकात अपनी शिक्षिका के बेटे विराज से होती है, जो कि लंदन से पढ़ाई करके वापस लौटा है और वह दिल्ली में साफ्टवेअर इंजीनियर के रूप में ेनौकरी कर रहा है. बबली उस पर लट्टू हो जाती है और विराज से शादी करने का सपना देखने लगती है. एक दिन वह अपने बचपन के  प्रशंसक (साहिल वैद्य) की मदद से,  अपने माता-पिता को मनाकर दिल्ली के एक नाइट क्लब में महिला बाउंसर के रूप में नौकरी पाने में सफल हो जाती है. दिल्ली में वह बार बार विराज से मिलने का प्रयास करती है. पर एक दिन विराज उससे साफ साफ कह देता है कि वह उसेस विवाह नही करेगा. विराज के अनुसार बबली बहुत जिद्दी, डकार लेेने वाली और दसवीं फेल यानी कि अनपढ़ है. दिल टूटने के बाद बबली खुद को बदलने का निर्णय लेकर अंग्रेजी की कक्षा में पढ़ने जाने लगती है. दसवीं की परीक्षा पास करती है.  एक दिन वह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सीख जाती है. शहरी रहन सहन के अनुकूल खुद को ढालती है. फिर एक दिन रात में सड़क पर चार लड़कों की पिटायी कर मुख्यमंत्री से बहादुरी का पुरस्कार भी पा जाती है. सुखद अंत होता है. बबली अब लड़कियों को बाउंसर बनने की ट्रेनिंग देने लगती है.

लेखन व निर्देशनः

कहानी के केंद्र में पुरूष प्रधान बाउंसर के पेशे मंे महिला बाउंसरों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वह है. मगर पूरी फिल्म देखकर ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता. फिल्म में महिला बाउंसरो की दुर्दशा, उनकी समस्याओं आदि का चित्रण होना चाहिए था, पर यहां तो बबली को सब कुछ प्लेट में सजा कर दिया जाता है. हरियाणा को अच्छी तरह से जानने वाले इस बात से वाकिफ है कि वहां पर लड़कियों व औरतांे की क्या स्थिति है, मगर इस फिल्म में वह सब गायब है. फिल्म का हास्य बहुत ही बेतुका सा है. कहानी व पटकथा के स्तर पर काफी गड़बड़ियां है. फिल्मकार ने बिना किसी शोध को किए ही आलस्य के साथ बबली के चरित्र को अति सतही लिखा है. फिल्मकार नेता के बेटे की दादागीरी और बंदूक का डर दिखाने से लेकर सारे हथकंडे इसमें भी पिरो दिए हैं.

फिल्मकार मधुर भंडारकर ने हरियाणा के एक गांव की युवा लड़की के महिला बाउंसर बनने की कहानी जरुर उठायी, पर फिल्म में वह बाउंसर महज इसलिए बनती हैं जिससे वह दिल्ली जाकर एक साफ्टवेअर इंजीनियर को अपने प्रेम जाल में फंास सके. सच यह है कि मध्ुार को हरियाणा के गांव , वहां के निवासियों के रहन सहन व सोच की कोई समझ ही नही है. इस पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. मगर फिल्मकार ने गंभीरता से इस विषय पर काम नही किया. वह तो केवल अपने अजेंडे तक ही सीमित रहे. लेकिन वह अपने अजेंडे के साथ भी न्याय नही कर पाए. कितनी अजीब बात है कि ‘ओमन इम्पावरमेंट प्र आधारित फिल्म में बबली बाउंसर बनने के सपने को पूरा करने के लिए गांव से दिल्ली नहीं आती, वह तो विराज के प्रेम में पड़कर विराज को पाने का सपना लेकर आती है. फिल्मकर प्रेम कहानी को भी ठीक से चित्रित नही कर पाए. इतना ही नही वह विराज के किरदार को ठीक से चित्रित नही कर पाए. इस फिल्म में महिला बाउंसरो को काम करते हुए किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उसका भी कहीं कोई चित्रण नही है. फिल्मकार ने सारा ध्यान इस बात पर लगाया कि बबली के अंदर कितनी ताकत है. फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसका रोमांटिक ट्ैक है. फिल्म देखते हुए दर्शकों को सैकड़ों पुरानी फिल्में याद आ जाती हैं.

फिल्म के नायक को अंग्रेजी बोलने में असमर्थ होने,  सार्वजनिक रूप से डकार लेने और दिल्ली के एक महंगे रेस्तरां में अपने हाथों से फ्राइड राइस खाने का मजाक उड़ाते हुए दिखाया गया है. इस तरह के दृश्यों से फिल्मर्सजक साबित क्या करना चाहते हैं?

अभिनयः

बबली के किरदार में तमन्ना भाटिया का अभिनय ठीक ठाक ही कहा जाएगा. शुरूआत में वह बुरी तरह से मात खा गयी हैं. बीच में उनके अभिनय में सुधार आता है, पर अंत तक वह अपने अभिनय के लहजे को सही टै्क पर रख नही पाती. यह  चरित्र चित्रण मे कमी व निर्देशक की अपनी कमजोरी के चलते भी हो सकता है. विराज के कमजोर किरदार में अभिषेक बजाज से बहुत ज्यादा उम्मीद बचती नही. यदि फिल्मकार ने विराज के किरदार को ठीक से रचा होता तो अभिषेक बजाज का अभिनय शानदार हो जाता. पर फिल्मकार का सारा ध्यान तो तमन्ना के किरदार पर रहा. फिर भी अभिषेक ने अपनी तरफ से कोई कमी नही छोड़ी.

REVIEW: जानें कैसी है Ranbir Kapoor की फिल्म Shamshera

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः आदित्य चोपड़ा

निर्देशकः करण मल्होत्रा

लेखकः एकता पाठक मलहोत्रा,नीलेश मिश्रा,खिला बिस्ट,पियूष मिश्रा

कलाकारः रणबीर कपूर,संजय दत्त, वाणी कपूर, रोनित रौय,सौरभ शुक्ला,क्रेग मेक्गिनले व अन्य

 अवधिः दो घंटे 40 मिनट

सिनेमा एक कला का फार्म है. सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होता है. सिनेमा आम दर्शक के लिए  मनोरंजन का साधन है. मगर इन सारी बातों को वर्तमान समय का फिल्म सर्जक भूल चुका है. वर्तमान समय का फिल्मकार तो महज किसी न किसी अजेंडे के तहत ही फिल्म बना रहा है. कुछ फिल्मकार तो वर्तमान सरकार को ख्ुाश करने या सरकार की ‘गुड बुक’ में खुद को लाने के ेलिए अजेंडे के ही चलते फिल्म बनाते हुए पूरी फिल्म का कबाड़ा करने के साथ ही दर्शकों को भी संदेश दे रहे हंै कि दर्शक उनकी फिल्म से दूरी बनाकर रहे. कुछ समय पहले फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज ’’ में इतिहास का बंटाधार करने के बाद अब फिल्म निर्माता आदित्य चोपड़ा ने जाति गत व धर्म के अजेंडे के तहत पीरियड फिल्म ‘‘शमशेरा’’ लेकर आए हैं,जिसमें न कहानी है, न अच्छा निर्देशन न कला है. जी हॉ! फिल्म ‘शमशेरा’ 1871 से 1896 तक नीची जाति व उंची जाति के संघर्ष की अजीबोगरीब कहानी है,जो पूरी तरह से बिखरी और भटकी हुई हैं. इतना ही नही फिल्म ‘शमशेरा’’ में नीची जाति यानीकि खमेरन जाति के लोगों को नेस्तानाबूद करने का बीड़ा उठाने वाल खलनायक का नाम है-शुद्धि सिंह. इससे भी फिल्मकार की मंशा का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब यह बात पूरी तरह से साफ हो गयी है कि इस तरह अजेंडे के ेतहत फिल्म बनाने वाले कभी भी बेहतरीन कहानी युक्त मनोरंजक फिल्म नही बना सकते. वैसे इसी तरह आजादी से पहले चोर कही जाने वाली अति पिछड़ी जनजाति ‘क्षारा’  गुजरात के कुछ हिस्से मंे पायी जाती थी. इस जनजाति के लोगो ने अपने मान सम्मान के लिए काफी लड़ाई लड़ी. इनका संघर्ष आज भी जारी है.

आदित्य चोपड़ा की पिछले कुछ वर्षों से लगातार फिल्में बाक्स आफिस पर डब रही हैं. सिर्फ तीन माह के अंदर ही ‘जयेशभाई भाई जोरदार’ व ‘सम्राट पृथ्वीराज’ के बाद बाक्स आफिस पर दम तोड़ने वाली ‘शमशेरा’ तीसरी फिल्म साबित हो रही है. मजेदार बात यह है कि आदित्य चोपड़ा निर्मित यह तीनों फिल्में धर्म का भ्रम फैलाने के अलावा कुछ नही करती. इसकी मूल वजह यह भी समझ में आ रही है कि अब फिल्म निर्माण नहीं बल्कि फैक्टरी का काम हो रहा है. मुझे उस वक्त बड़ा आश्चर्य हुआ जब एक बड़ी फिल्म प्रचारक ने कहा-‘‘अब क्वालिटी नही क्वांटीटी का काम हो रहा है,जिसकी सराहना की जानी चाहिए. ’ ’ वैसे फिल्म प्रचारक ने एकदम सच ही कहा. पर क्वांटीटी के नाम पर उलजलूल फिल्मों का सराहना तो नही की जा सकती. ऐसी पीआर टीम किसी फिल्म या निर्माता निर्देशक या कलाकारों को किस मुकाम पर ले जाएगी, इसका अहसास हर किसी को कर लेना चाहिए.

कहानी:

कहानी 1871 में शुरू होती है. उत्तर भारत के किसी कोने में एक खमेरन नामक बंजारी कौम थी,जिसने मुगलों के खिलाफ राजपूतों का साथ दिया.  लेकिन मुगल जीत गए और राजपूतों ने खमेरनों को नीची जाति बता कर हाशिये पर डाल दिया. इससे शमशेरा(रणबीर कपूर) के नेतृत्व में खमेरन बागी हो गए और वह हथियार उठाकर डाकू बन गए.  शमशेरा और उसके साथियों ने अमीरों की नाक में दम कर दिया. तब अमीरों ने अंग्रेज अफसरों से मदद की गुहार लगायी.  अंग्रेज पुलिस बल में नौकरी कर रहा दरोगा शुद्ध सिंह (संजय दत्त) अपने हुक्मनारों से कहता है कि वह शमशेरा को ठीक कर देगा. शुद्ध सिंह,शमशेरा को समझाता है कि सभी खमेरन के साथ वह सरकार के सामने आत्म समर्पण कर दें,जिसके बदले में अंग्रेज उन्हे अमीरो से दूर एक नए इलाके में बसाएंगे.  पैसा भी देंगे.  इससे वह और उसकी पूरी कौम सम्मान और इज्जत का जीवन फिर शुरू कर सकते हैं. शमशेरा समझौते को मंजूर कर लेता है. लेकिन आत्मसमर्पण करते ही शमशेरा को अहसास होता है कि उसके और खमेरन कौम को धोखा मिला है.  शुद्ध सिंह ने इन सभी को काजा नाम की जगह पर बनी विशाल किलेनुमा जेल में कैद कर देता है और फिर इनके साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है. इस किले के तीन तरफ से अति गहरी आजाद नदी बहती है. शमशेरा को शुद्ध सिंह समझाता है कि अंग्रेज लालची हैं. अमीरों ने पांच हजार करोड़ सोने के सिक्के दिए हैं,वह दस हजार करोड़ सोने के सिक्के दे,तो उसे व उसकी पूरी खमेरन कौम को आजादी मिल जाएगी. स्टैंप पेपर पर लिखा पढ़ी हो जाती है. सोना जमा करने के लिए किले से बाहर निकलना जरुरी है. इसी चक्कर में शुद्ध सिंह की चाल में फंसकर शमशेरा न सिर्फ मारा जाता है,बल्कि खमेरन कौम उसे भगोड़ा भी कहती है.

शमशेरा की मौत के वक्त उसकी पत्नी गर्भवती होती है,जो कि बेटे बल्ली (रणबीर कपूर) को जन्म देती है. बल्ली 25 वर्ष का हो गया है. मस्ती करना और जेल के अंदर डांस करने आने वाली सोना(वाणी कपूर ) के प्यार में पागल है. अब तक उसे किसी ने नहीं बताया कि उसे भगोड़े का बेटा क्यों कहा जाता है. बल्ली भी अंग्रेजों की पुलिस में अफसर बनना चाहता है. शुद्धसिंह उसे अफसर बनाने के लिए परीक्षा लेने के नाम पर बल्ली की जमकर पिटायी कर देता है. तब उसकी मां उसे सारा सच बाती है कि उसका पिता भगोड़ा नही था,बल्कि सभी खमेरन को आजाद करने की कोशिश में उन्हे मौत मिली थी. तब बल्ली भी अपने पिता की ही राह पकड़कर उस जेल से भागने का प्रयास करता है,जिसमें उसे कामयाबी मिलती है. वह काजा से निकलकर नगीना नामक जगह पहुॅचता है,जहां उसके पिता के खमेरन जाति के कई साथी रूप बदलकर शमशेरा के आने का इंतजार कर रहे हैं. उसके बाद बल्ली उन सभी के साथ मिलकर सभी खमेरन को आजाद कराने के लिए संघर्ष शुरू करता है. सोना भी उसके साथ है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः शुद्धसिंह मारा जाता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसके चार लेखक व निर्देशक करण मल्होत्रा खुद हैं. फिल्म में एक नहीं चार लेखक है और चारों ने मिलकर फिल्म का सत्यानाश करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. इनचारों ने 2013 की असफल हौलीवुड फिल्म ‘‘द लोन रेंजर’’ की नकल करने के साथ ही डाकू सुल्ताना,फिल्म ‘नगीना’ व असफल फिल्म ‘ठग्स आफ हिंदुस्तान’ का कचूमर बनाकर ‘शमशेरा’ पेश कर दिया. लेखकों व निर्देशक के दिमागी दिवालियापन की हद यह है कि इस जेल के अंदर सभी खमेरन मोटी मोटी लोहे की चैन से बंधे हुए हैं. इन्हे नहाने के लिए पानी नहीं मिलता. दरोगा शुद्ध सिंह इनसे क्या काम करवाता है,यह भी पता नही. सभी के पास ठीक से पहनने के लिए कपड़े नही है. इन सब के बावजूद बल्ली अच्छे कपड़े पहनता है. बल्ली ने अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई कहां व कैसे की. वह अंग्रेजों और शमशेरा के बीच हुआ अंग्रेजी में लिखा समझौता पढ़-समझ लेता है. वह नक्शा पढ़ लेता है. आसमान में देखकर दिशा समझ जाता है. सोना जैसी डंासर से इश्क भी कर लेता है.

हौलीवुड फिल्म ‘‘ द लोन रेंजर’’ में ट्ेन,सफेद घोड़ा व लाखों कौए,बाज पक्षी के साथ ही पिता की मृत्यू के बदले की कहानी भी है. यह सब आपको फिल्म ‘‘शमशेरा’’ में नजर आ जाएगा.  शमशेरा और बल्ली पर जब भी मुसीबत आती है,उनकी मदद करने लाखों कौवे अचानक पहुॅच जाते हैं,ऐसा क्यांे होता है,इस पर फिल्म कुछ नही कहती. लेकिन जब बल्ली किले से भाग कर एक नदी किनारे बेहोश पड़ा होता है, तो उसे होश में लाने के लिए कौवे की जगह अचानक एक बाज कैसे आ जाता है? मतलब पूरी फिल्म बेसिर पैर के घटनाक्रमों का जखीरा है. एक भी दृश्य ऐसा नही है जिससे दर्शकों का मनोरंजन हो. इंटरवल से पहले तो फिल्म कुछ ठीक चलती है,मगर इंटरवल के बाद केवल दृश्यों का दोहराव व पूरी फिल्म का विखराव ही है.

2012 में फिल्म ‘अग्निपथ’ का निर्देशन कर करण मल्होत्रा ने उम्मीद जतायी थी कि वह एक बेहतरीन निर्देशक बन सकते हैं. मगर 2015 में फिल्म ‘‘ब्रदर्स’’ का निर्देशन कर करण मल्होत्रा ने जता दिया था कि उन्हे निर्देशन करना नही आता. अब पूरे सात वर्ष बाद ‘शमशेरा’ से जता दिया कि वह पिछले सात वर्ष निर्देशन की बारीकियां सीखने की बजाय निर्देशन के बारे में उन्हे जो कुछ आता था ,उसे भी भूलने का ही प्रयास करते रहे. तभी तो बतौर निर्देशक ‘शमशेरा’ में वह बुरी तरह से असफल रहे हैं. फिल्म के कई दृश्य अति बचकाने हैं. निर्देशक को यह भी नही पता कि 25 वर्ष में हर इंसान की उम्र बढ़ती है,उसकी शारीरिक बनावट पर असर होता है. मगर यहां शुद्ध सिंह तो ‘शमशेरा’ और ‘बल्ली’ दोनो के वक्त एक जैसा ही नजर आता है.

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी पीयूष मिश्रा लिखित संवाद हैं. कहानी 1871 से 1896 के बीच की है. उस वक्त तक देश में खड़ी बोली का प्रचार प्रसार होना शुरू ही हुआ था.  अवधी और ब्रज बोलने वाला फिल्म में एक भी किरदार नहीं है जो उत्तर भारत की उन दिनों की अहम बोलियां थी.

फिल्म की मार्केटिंग और पीआर टीम ने इस फिल्म को आजादी मिलने से पहले अंग्रेजों से देश की आजादी की कहानी के रूप में प्रचार किया. जबकि यह पूरी फिल्म देश की आजादी नही बल्कि एक कबीले या यॅंू कहें कि एक आदिवासी जाति की आजादी की कहानी मात्र है.  जी हॉ!यह स्वतंत्रता की लड़ाई नही है. इस फिल्म में अंग्रेज शासक विलेन नही है. फिल्म में अंग्रेजांे यानी श्वेत व्यक्ति की बुराई नही दिखायी गयी है. बल्कि कहानी पूरी तरह से देसी जातिगत संघर्ष पर टिकी है,जिसका विलेन भारतीय शुद्ध सिंह ही है.

फिल्म का वीएफएक्स भी काफी घटिया है. फिल्म का गीत व संगीत भी असरदार नही है. फिल्म के संगीतकार मिथुन ने पूरी तरह से निराश किया है. फिल्म का बैकग्राउंड संगीत कान के पर्दे फोड़ने पर आमादा है. यह संगीतकार की सबसे बड़ी असफलता ही है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो यह फिल्म और यह किरदार उनके लिए नही था. उन्हें फिलहाल रोमांस और डांस ही करना चाहिए. जितना काम यहां उन्होंने किया, उतना कोई भी कर सकता था. वैसे भी यह रणबीर कपूर वही है जो आज भी अपने कैरियर की पहली फिल्म का नाम नही बताते. उनकी इच्छा के अनुसार सभी को पता है कि रणबीर कपूर की पहली फिल्म ‘‘सांवरिया’’ थी,जिसके लिए उन्होने अपनी पहली फिल्म को कभी प्रदर्शित नही होने दिया. पर ‘सांवरिया’ असफल रही थी. वैसे रणबीर कपूर ने अपनी 2018 में प्रदर्शित अपनी पिछली फिल्म ‘‘संजू’’ में बेहतरीन अभिनय किया था. मगर चार वर्ष बाद ‘शमशेरा’ से अभिनय में वापसी करते हुए वह निराश करते हैं.

वाणी कपूर ने 2013 में प्रदर्शित अपनी पहली ही फिल्म ‘‘शुद्ध देसी रोमांस’’ से जता दिया था कि उन्हे अभिनय नही आता. उनके पास दिखाने के लिए सिर्फ खूबसूरत जिस्म है. उसके बाद ‘बेफिक्रे’,‘वार’,‘बेलबॉटम’ और ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ में भी उनका अभिनय घटिया रहा. फिल्म ‘शमशेरा’ में भी वही हाल है.  उनके कपड़े डिजाइन और मेक-अप करने वाले भूल गए कि कहानी साल 1900 से भी पुरानी है. इस फिल्म में भी कई जगह उन्होने बेवजह अपने जिस्म की नुमाइश की है. देखना है इस तरह वह कब तक फिल्म इंडस्ट्ी मंे टिकी रहती हैं. इरावती हर्षे का अभिनय ठीक ठाक है.

कुछ मेकअप की कमियों को नजरंदाज कर दें तो संजय दत्त ने कमाल का अभिनय किया है. वैसे उनका किरदार काफी लाउड है.  संजय दत्त का किरदार फिल्म का खलनायक है,पर वह क्रूर कम और कॉमिक ज्यादा नजर आते हैं.  फिर भी उनका अभिनय शानदार है. पूरी फिल्म में सिर्फ संजय दत्त ही अपनी छाप छोड़ जाते हैं. सौरभ शुक्ला जैसे शिक्षित कलाकार ने यह फिल्म क्यों की,यह बात समझ से परे है. शायद रोनित राय ने भी महज पेसे के लिए फिल्म की है.

क्या होना चाहिएः

यश राज चोपड़ा की कंपनी ‘यशराज फिल्मस’’ की अपनी एक गरिमा रही है. यह प्रोडक्शन हाउस उत्कृष्ट सिनेमा की पहचान रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ‘यशराज फिल्मस’ की छवि काफी धूमिल हुई है. इस छवि को पुनः चमकाने और  अपने पिता यशराज चोपड़ा के यश को बरकरा रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि अब आदित्य चोपड़ा गंभीरता से विचार करें. बौलीवुड का एक तबका मानता है कि अब वक्त आ गया है,जब आदित्य चोपड़ा को अपने प्रोडक्शन हाउस की रचनात्मक टीम के साथ ही मार्केटिंग व पीआर टीम में अमूलचूल बदलाव कर सिनेमा को किसी अजेंडे की बजाय सिनेमा की तरह बनाएं.  माना कि ‘यशराज फिल्मस’ के पास बहुत बड़ा सेटअप है. पर आदित्य चोपड़ा को चाहिए कि वह अपनी वर्तमान टीम में से कईयों को बाहर का रास्ता दिखाकर सिनेमा की समझ रखने वाले नए लोगों को जगह दे, वह भी ऐसे नए लोग, जो उनके स्टूडियो में कार से स्ट्रगल करने न आएं.  जिनका दिमाग विदेशी सिनेमा के बोझ तले न दबा हो.  कम से कम इतनी असफल फिल्मों के बाद आदित्य को समझ लेना चाहिए कि एक अच्छी फिल्म सिर्फ पैसे से नहीं बनती.

‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में रिचा चड्डा का शानदार अभिनय, पढ़ें रिव्यू

रेटिंगः ढाई  स्टार

निर्माताः डिंपल खरबंदा, भूषण कुमार, किशन कुमार व नरेन कुमार लेखक व निर्देशकः सुभाष कपूर

कलाकारः रिचा चड्डा, सौरभ शुक्ला,  मानव कौल, बोलाराम, अक्षय ओबेरॉय,  शुभ्राज्योति व अन्य.

अवधिः दो घंटे 4 मिनट

‘दबंगो के लिए सत्त घमंड है’’इस मूल कथनक के साथ जातिगत भेदभाव के साथ भ्रष्ट राजनीति पर आधारित फिल्म‘‘मैडम चीफ मिनिस्टर’’ लेकर आए हैं फिल्मकार सुभाष कपूर. जो कि राजनीति,  विश्वास,  धोखा,  प्रतिशोध,  लॉयल्टी,  सत्ता की ताकत,  सत्ता की भूख,  सत्ता को हथियाने की साजिशों से परिपूर्ण है.

कहानीः

फिल्म की कहानी शुरू होती है 1982 में उत्तर प्रदेश से. दलित जाति के रूपराम एक बारात के साथ बैंड बाजें के साथ ठाकुर की हवेली के सामने से निकलते हैं, दलित युवक दूल्हा बना हुआ घोड़ी पर बैठा हुआ है. यह बात ठाकुर को पसंद नही आती, विवाद बढ़ता है और ठाकुर गुस्से में रूपराम को गोली मार देते हैं. इधर रूपराम की मौत होती है, उधर घर में रूप राम चैथी बेटी को जन्म देती है. रूपराम की मॉं इस लड़की को मनहूस बताती है. बाद में कहानी शुरू होती है, जब तारा(रिचा चड्डा ) बाइक पर कालेज के पुस्तकालय पहुंचती है, जहां वह सहायक पुस्तकालय के रूप में कार्यरत हैं. तारा का कालेज के लड़के इंद्रमणि त्रिपाठी( अक्षय ओबेराय )  संग अफेयर है. एक बार वह गर्भपात करवा चुकी है और अब जब इंद्रमणि त्रिपाठी कालेज में चुनाव लड़ रहा है और उसकी तमन्ना एक दिन विधायक और फिर मुख्यमंत्री बनने की है. पर तारा दूसरी बार गर्भवती हो जाती है. इंद्रमणि साफ साफ कह देते हैं कि वह उससे शादी कभी नहीं करेगा, पर प्यार करता रहेगा. तब तारा धमकी देती है कि वह सच बताकर कालेज का चुनाव जीतने नही देगी. अब इंद्रमणि अपने साथियों को आदेश देता है कि तारा का गर्र्भपात करा दिया जाए या उसे मौत दे दी जाए. ऐन वक्त पर ‘परिवर्तन पार्टी’के अध्यक्ष मास्टर सूरज (सौरभ शुक्ला ) अपने साथियों संग वहां से गुजरते हुए घायल तारा को बचाकर अपने घर ले आते हैं, जहां तारा की मरहम पट्टी करवाते हैं. उसके बाद तारा,  मास्टर जी के साथ ही रहने लगती है. यहां पर पता चलता है कि तारा, रूपराम की चैथी बेटी है, जो कि अपनी दादी के तानों से उबरकर घर से भागकर शहर आकर पढ़ी और नौकरी की तथा इंद्रमणि त्रिपाठी के संपर्क में आ गयी थी. पर जिस तरह से इंद्रमणि ने उसका शोषण किया और उसे मरवाने का प्रयत्न किया, उसके चलते अब तारा का मकसद हर हाल में इंद्रमणि त्रिपाठी से बदला लेना है.

ये भी पढ़ें- अनुपमा देगी तलाक तो काव्या लेगी वनराज से जुड़ा ये फैसला, आएगा नया ट्विस्ट

मास्टर सूरज से तारा को राजनीति की भी शिक्षा मिलती रहती है. राज्य के राजनीतिक हालात बदलते हैं और चुनाव से पहले विकास पार्टी के अध्यक्ष अरविंद सिंह (शुभ्राज्योत) , मास्टर जी को उनकी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन करने का प्रस्ताव देते हैं. मासटर जी सोचनेका वक्त मांगते हैं. मास्टरजी के सभी साथ इस प्रस्ताव को ठुकराने के लिए कहते हैं. पर तारा कहती है कि समाज में बदलाव लाने के लिए सत्ता में होना आवश्यक है. फिर मास्टर जी की तरफ से तारा, अरविंद सिंह से बात करने जाती है और अपनी शर्तों पर अरविंद को गंठबंधन के लिए मजबूर कर देती है. इस शर्त के अनुसार पहले ढाई वर्ष उनकी पार्टी का विधायक मुख्यमंत्री होगा. इतना ही नही वर्तमान मुख्यमंत्री के सामने गौरीगंज से स्वयं तारा मैदान में उतरती है और अपने मौसेरे भाई   बबलू (निखिल विजय )से खुद पर गोली चलवाकर विजेता बन जाती है. मास्टरजी, तारा को ही मुख्यमंत्री के रूप में पेश करते हैं. इससे मास्टर जी के वरिष्ठ सहयोगी कुशवाहा भी नाराज होते हैं. अरविंद सिंह अपनी पार्टी की तरफ से इंद्रमोहन त्रिपाठी को मंत्री बनाने के लिए कहते हैं, पर तारा मना कर देती है. अब कुशवाहा,  अरविंद सिंह और इंद्रमणि त्रिपाठी हर हाल में तारा को हटाने के प्रयास में लग जाते हैं. पर तारा चतुर चालाक राजनीतिज्ञ की तरह सभी को जवाब देती रहती है. उसका ओसीडी दानिश खान(मानव कौल   ) भी उसकी मदद करते हैं. अचानक इंद्रमोहन त्रिपाठी, मास्टरजी के सहायक संुदर(बोलाराम ) की मदद से मास्टरजी की हत्या करवा देता है. तब गुस्से में एक दिन तारा मिर्जापुर के गेस्टहाउस में अरविंद सिंह के विधायकों को ले जाकर बंदी बना लेती है और उन्हें अपनी ‘परिवर्तन पार्टी’में शामिल कर लेती है, इसकी खबर लगते ही अरविंद सिंह व इंद्रमोहन त्रिपाठी अपने दलबल व शस्त्रों के साथ पुलिस अफसर एसपी की मदद से गेस्ट हाउस में घुस जाते हैं. उनकी योजना तारा की हत्या करना है. मगर दानिश खान उन्हे बचाता है. पर दानिश खान का गोली लग जाती है. उसके बाद अरविंद सिंह की गिरफ्तारी हो जाती हैं.  इधर सार्वजनिक मंच से तारा, दानिश खान के संग शादी का ऐलान करेदेती है. पर हालात सुधरते नही हैं. चार माह बाद अरविंद सिह को अदालत से जमानत मिल जाती है. अरविंद सिंह की पार्टी केंद्र से मांगकर मुख्यमंत्री तारा के खिलाफ सीबीआई की जांच शुरू करवा देते हैं. अब दानिश खान मुख्यमंत्री बनने वाले हैं, पर तारा के सामने दानिश खान की साजिश सामने आ जाती है. उसके बाद घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.

लेखन व निर्देशनः

राजनीतिक पत्रकारिता छोड़कर फिल्म निर्माता व निर्देशक बने सुभाष कपूर अब तक ‘फंस गए रे ओबामा‘,  ‘जौली एलएलबी‘,  ‘गुड्ड न रंगीला‘, ‘ ‘जौली एलएलबी 2‘ जैसी सफल फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं, मगर इस बार वह मात खा गए हैं. उनकी पिछली फिल्मों में जिस तरह से सामाजिक व राजनीतिक कटाथा व व्यंग रहता था, वह इसमें गायब है. फिल्म की कहानी बहुत साधारण है. इंटरवल से पहले ठीक ठाक है, मगर इंटरवल के बाद पूरी फिल्म विखर सी गयी है. वैसे सत्ता का नशा किस कदर एक नेक व इमानदारी इंसान को भी भ्रष्ट राजनेता बना देता है, इसका बहुत सूक्ष्म चित्रण करने में वह जरुर सफल रहे हैं. गरीब राज्य के लोगों के नेता के रूप में उसकी भव्य जीवन शैली के अनुरूप उसकी गरीबी में हेरफेर करने का उसका शानदार तरीका पर्याप्त रूप से रेखांकित है. उत्तर प्रदेश की राजनीति से भलीभंति परिचित लोग फिल्म को देखते हुए समझ जाएंगे कि फिल्मकार ने किन्ही मजबूरी के तहत कहानी के साथ जो छेड़छाड़ की है, उससे फिल्म कमजोर हो गयी है. माना कि इसमें राजनीति के छोटे छोटे तत्वों को पकड़ने का प्रयास किया गया है, मगर कई किरदार ठीक से विकसित ही नहीं हो पाए. उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कुछ बयानो को बदलकर इस फिल्म में रख गया है. किसी भी नए इंसान के लिए राजनीति इतनी आसान नही हो सकती, जितनी इस फिल्म में चित्रित हैं. कई दृश्य तो काफी अविश्वसनीय लगते हैं. फिल्म को ठीक से प्रचारित भी नही किया गया.

सुभाष कपूर ने फिल्म के शुरूआती दृश्य को ज्यों का त्यों सफल वेब सीरीज‘‘आश्रम’’सीरीज एक के पहले एपीसोड से उठाया है. अब यह महज संयोग है या . यह तो फिल्मकार ही जानते होंगे. यह वह दृश्य है जब दलित दूल्हा घेड़ी पर बैठे हुए ठाकुर के घर के सामने से निकलता है.

फिल्म के कुछ संवाद अवश्य अच्छे व वजनदार बन पड़े हैं. मसलन-मास्टर सूरज का एक संवाद है-‘‘जिस दिन हमारे समाज के लोग मंदिर जाकर प्रसाद पाएंगे, उसी दिन हम प्रसाद ग्रहण करेंगें. ’’ अथवा ‘‘सत्ता में रहकर सत्ता की बीमारी से बचना मुश्किल है. ’’अथवा तारा का मास्टर जी (सौरभ शुक्ला) से कहना -‘‘अछूत को  मंदिर में प्रवेश कराना गलत है ?लड़कियों को साइकिल पर बताना गलत है?. . .  मगर मेरे इस काम से पार्टी मजबूत हो रही है.  रिचा चड्ढा का एक और संवाद है-‘‘ मगर मैं बचपन से  जिद्दी हूं.  बचपन से अक्खड़ हूं . कोई कितने भी सितम कर ले.  मुझे कितने ही बलिदान देने पड़े. तुम्हारी आवाज उठाने से , तुम्हारी सेवा करने से , दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. . . ‘‘ यह संवाद अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है.

ये भी पढ़ें- Bhabiji Ghar Par Hain के सेट पर पहुंची नई अनीता भाभी, PHOTOS VIRAL

अभिनयः

दलित व शोषित लड़की से मुख्यमंत्री तक की तारा की यात्रा को चित्रित करने में रिचा चड्डा ने उत्कृष्ट अभिनय का परिचय दिया है. शीर्ष किरदार में रिचा ने पूरी जान डाल दी है. वह अकेले ही इस फिल्म को अपने कंधे पर लेकर चलती हैं. मगर कुछ दृश्यों में वह कमजोर पड़ गयी हैं. मसलन-मास्टर सूरज, जब चोटिल तारा को घर लाकर उसकी मरहम पट्टी करते हैं, तब तारा के चेहरे पर दर्द के भाव नहीं आते. ऐसा पटकथा व निर्देशक की कमजोरी के चलते भी संभव है. मुख्यमंत्री तारा के राजनीतिक सलाहकार, फिर पति व मुख्यमंत्री बनने की चाह रखने वाले दानिश खान के किरदार के चित्रण में मानव कौल अपनी छाप छोड़ जाते हैं. मास्टर सूरज के किरदार में सौरभ शुक्ला ने शानदार अभिनय किया है. सुंदर के छोटे किरदार में बोलाराम ठीकठाक जमे हैं. मगर इंद्रमणि त्रिपाठी के किरदार में अक्षय ओबेराय का अभिनय काफी औसत रहा. अरविंद सिंह के किरदार मे तेज तर्रार व चालाक राजनेता के किरदार के साथ शुभ्राज्योत पूरी तरह से न्याय नही कर पाएं. निखिल विजय का अभिनय ठीक ठाक है.

REVIEW: जानें कैसी है राज कुमार राव की फिल्म ‘छलांग’

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः अजय देवगन, लव रंजन, अंकुर गर्ग, भूषण कुमार

निर्देशकः हंसल मेहता

कलाकारः राज कुमार राव, नुसरत भरूचा, सतीश कौशिक, सौरभ शुक्ला,  मो. जीशान अयूब.

अवधिः दो घंटे 16 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मःअमेजान प्राइम वीडियो

‘शाहिद’, ‘अलीगढ़’जैसी फिल्मों के सर्जक हंसल मेहता इस बार सामाजिक ब्लैक कॉमेडी वाली फिल्म ‘छलांग’ (जिसका अर्थ होता है ‘कूद’ ) लेकर आए हैं. जिस 13 नवंबर से ओटीटी प्लेटफार्म ‘अमेजन’पर देखा जा सकता है. दो घंटे 16 मिनट की अवधि वाली इस फिल्म का नाम पहले ‘तुर्ररम खां’था.

कहानीः

फिल्म की कहानी झाझर, हरियाणा जैसे छोटे शहर के एक अर्ध सरकारी स्कूल से शुरू होती है, जहंा की प्रिंसिपल उषा गहलोत(इला अरूण)हैं. इस स्कूल में ही पढ़े हुए महिंदर सिंह हुडा उर्फ मंटो(राज कुमार राव)पीटी शिक्षक हैं. प्रिंसिपल ने उन्हे यह नौकरी मंटो के पिता वकील हुडा(सतीश कौशिक )के कहने पर दी है. हुडा के घर के उपर ही रहने वाले शुक्ला जी(सौरभ शुक्ला) इस स्कूल में हिंदी के शिक्षक हैं. अविवाहित हैं. मंटो के परिवार में मां(बलविंदर कौर)और एक छोटा भाई बबलू(नमन जैन) है. बबलू भी इसी स्कूल में पढ़ता है. मंटो कहने को पीटी शिक्षक हैं, मगर वह कुछ करते नहीं हैं. किसी तरह नौकरी चल रही है. मगर रवीवार या ‘वेलेनटाइन डे’पर‘‘संस्कृति दल’’के लोगों के साथ पार्क में जाकर प्रेमी जोड़ो की पिटायी और उन्हें अपमानित जरुर करते हैं. वेलेनटाइन डे पर पार्क में टहल रहे नीलिमा (नुसरत भरूचा) के माता (सुपर्णा मारवाह) व पिता (राजीव गुप्ता) का भी अपमान करते हैं और उनकी तस्वीर अखबार में छपवा देते हैं, जबकि फोन पर नीलिमा ने कहा था कि वह दोनों उसके माता पिता हैं. स्कूल में जब सभी मंटो की तारीफ कर रहे होते हैं, तभी प्रिंसिपल उषा के साथ नीलिमा पहुंचती हैं और प्रिंसिपल उषा परिचय कराती हैं कि नीलिमा स्कूल की कम्प्यूटर शिक्षक हैं. अखबार हाथ में लेकर नीलिमा मंटो को खूब खरी खोटी सुनाती हैं.

उसके बाद शुक्ला के कहने पर मंटो, नीलिमा से माफी मांगते हुए सफाई देते हैं कि यह सब गलतफहमी के चलते हुआ. इस पर नीलिमा का तर्क है कि प्यार करना गुनाह नही है. पार्क में लड़के व लड़की का एक दूसरे का हाथ पकड़कर बैठना भी गुनाह नही है. उसके बाद से दोनों के बीच स्कूल में नोक झोक चलती रहती है. इसी बीच मंटो, नीलिमा को अपना दिल दे बैठते हैं. खैर, नीलिमा भी उन्हे चाहने लगती हैं.

पर तभी स्कूल में वरिष्ठ पीटी शिक्षक के रूप में इंद्र मोहन सिंह(मोहम्मद जीशान अयूब)की भर्ती होती हैं और अब मंटो को उनका सहायक बनकर काम करना है. प्रिंसिपल उषा के समझाने पर मंटो, इंद्र मोहन सिंह के सहायक के रूप में काम करने लगते हैं. मगर इंद्र मोहन सिंह बड़े सलीके से बच्चों के सामने मंटो को जलील करने के साथ ही अपनी बाइक पर नीलिमा को उसके घर भी छोड़ने लगते है. मंटो को अहसास होता है कि सिंह तो उनकी पे्रमिका को भी उनसे छीन रहा है. अचानक एक दिन दोनो झगड़ पड़ते है. मंटो को अपना अपमान नजर आता है और फिर मंटो नौकरी छोड़ देते हैं. शुक्ला जी, उषा के अलावा मंटो से बात कर एक राह निकालते हैं. अब प्रेमिका और नौकरी दोनो को बचाने तथा सिंह को सबक सिखाने के लिए मंटो वह सब करने पर उतारू हो जाते हैं, जिसे वह कभी गंभीरता से नहीं लेते थे. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. इस बीच कुछ सबक भी सिखाए जाते हैं.

लेखनः

कहानी में नयापन नही है, मगर मानवीय ड्रामा है. मानवीय रिश्तों और मानवीय भावनाओं को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है. वैसे भी लव रंजन की गिनती मानवीय भावनाओं की समझ रखने वाले लेखक व निर्देशक के तौैर पर होती है, पर इस फिल्म के वह कहानीकार हैं और उन्होने असीम अरोड़ा तथा जीशान कादरी के साथ मिलकर पटकथा लिखी है. पटकथा काफी कमजोर हैं. कई दृश्य काफी कमजोर हैं. इसमें विलेन की सबसे बड़ी कमी है. कुछ दृश्य हंसाते हैं. पटकथा  लेखन की कमजोरी के चलते यह न सही ढंग से ‘स्पोर्टस फिल्म’बन पाती है और न ही ‘त्रिकोणीय प्रेम कहानी वाली फिल्म बन पाती है.

फिल्म के संवाद काफी अच्छे हैं.

निर्देशनः

हंसल मेहता की बतौर निर्देशक वेब सीरीज ‘स्कैम 1992’की काफी तारीफ हो रही है. पर इस फिल्म में उनका निर्देशन बड़ा सतही है. यह खेल की फिल्म है यानी कि एक प्रतियोगिता है, मगर प्रतिस्पर्धा का जो रोमांच होता है, उसे स्थापित करने में निर्देशक असफल रहे हैं.  इंटरवल के बाद फिल्म में सब कुछ वही है, जिसे तमाम खेल वाली फिल्मों में दर्शक देख चुके हैं.

बतौर निर्देशक हंसल मेहता को गंभीर, संजीदा व संवेदनशील विषयों वाली फिल्मों के निर्देशन में महारत हासिल है, मगर  पता नहीं क्यों हल्के फुल्के विषय के निर्देशन में वह सुस्त हो जाते है.

लेखक व निर्देशक ने कुछ अच्छी बातें भी की हैं. मसलन-हर इंसान को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना जरुरी है. अथवा बच्चे खिलाड़ी बने, इसकी आशा रखने वाले माता पिता को पहले खिलाड़ी बच्चे का माता पिता बनना सीखना होगा. मगर यह सब बातें क्लायमेक्स में इस तरह से कही गयी हैं कि इनका प्रभाव पड़ने की बजाय किसी नेता की भाषणबाजी ज्यादा नजर आता  है.

अभिनयः

राज कुमार राव बेहतरीन अभिनेता हैं, पूरे कंविक्शन के साथ उन्होने महिंदर सिंह उर्फ मंटो के किरदार को निभाया है. सौरभ शुक्ला ने शानदार अभिनय किया है. राज कुमार राव और सौरभ‘शुक्ला के बीच की केमिस्ट्री काफी अच्छी बन पड़ी है. नुसरत भरूचा ठीक ठाक हैं. वैसे उनके हिस्से करने के लिए कुछ खास आया ही नहीं. मो. जीशान अयूब ने भी अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है, पर बहुत ज्यादा प्रभावत नही कर पाते. जतिन सरमा की प्रतिभा को जाया किया गया है. सतीश कौशिक, राजीव गुप्ता व अन्य कलाकारो ने अपना काम सही ढंग से किया है. इला अरूण का किरदार काफी छोटा है, पर वह अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं.

अंतिम बातः

यदि लेखकों और निर्देशक ने मेहनत की होती, तो यह एक यादगार फिल्म बन सकती थी, पर वह भूल गए कि जब फिल्म की कहानी खेल के इर्द गिर्द हो, तो प्रतिस्पर्धा का रोमांच उभरना चाहिए. इसके अलावा इंद्रमोहन सिंह के किरदार को बुरा बताया ही नही गया, ऐसे में मंटो के किरदार के साथ सहानुभूति पैदा नही होती. यह भी लेखक व निर्देशक की ही कमजोर कड़ी का हिस्सा है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें