सीमा रेखा: जब भाई के लिए धीरेन भूल गया पति का फर्ज

‘‘सोमू, उठ जाओ बाबू…’’ धीरेन दा लगातार आवाज दिए जा रहे थे जिस से रूपल की नींद में बाधा पड़ने लगी तो वह कसमसाती हुई सोमेन के आगोश से न चाहते हुए भी अलग हो गई और पति सोमेन को लगभग धकियाती हुई बोली, ‘‘अब जाओ, उठो भी, नहीं तो तुम्हारे दादा सुबहसुबह पूरे घर को सिर पर उठा लेंगे. छुट्टी वाले दिन भी आराम नहीं करने देते.’’

सोमेन अंगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा और ‘आया दादा’ कहता हुआ बाथरूम की ओर लपका. जब फे्रश हो कर जोगिंग करने के लिए टै्रकसूट और जूते पहन कर कमरे से बाहर निकला तो दादा रोज की तरह गरम चाय लिए उस का इंतजार करते मिले.

उसे देखते ही मुसकरा कर प्यालों में चाय डालते हुए बोले, ‘‘सोमू, रूपल और बच्चों से भी क्यों नहीं कहता कि सुबह जल्दी उठ कर कुछ देर व्यायाम कर लें. सुबह की ताजा हवा से दिन भर तरावट महसूस होती है और साथ में स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है.’’

‘‘दादा, रोज तो उन्हें जल्दी जागना ही पड़ता है, सो कम से कम रविवार को उन्हें नींद का मजा लेने दीजिए. चलिए, हम दोनों जोगिंग पर चलते हैं,’’ कहता हुआ सोमेन चाय की खाली प्याली रख कर उठ खड़ा हुआ. दोनों भाइयों ने नजदीक के पार्क में धीमी गति से जोगिंग की. फिर धीरेन दा बैंच पर बैठ कर हाथपांव हिलाने लगे और उन के पास ही सोमेन एक्सरसाइज करने लगा. धीरेन दा 55 से ऊपर के हो चले थे और सोमेन भी 34 बसंत पार कर चुका था. लेकिन धीरेन दा हरपल सोमेन का ऐसे खयाल रखते जैसे वह कोई नादान बालक हो.

धीरेन दा की दुनिया सोमेन से शुरू हो कर उसी पर खत्म हो जाती थी. कुदरत की इच्छा के आगे किसी का बस नहीं चलता. धीरेन दा के जन्म के बाद काफी कोशिशों के बावजूद उन के मातापिता की कोई दूसरी संतान नहीं हुई फिर भी वे डाक्टर की सलाह पर दवा लेते रहे और फिर 16 साल बाद अचानक सोमेन का जन्म हुआ. सोमेन के जन्म से धीरेन दा बहुत खुश थे मानो सोमेन के रूप में उन्हें कोई जीताजागता खिलौना मिल गया हो. उन के बाबूजी की माली हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी इसलिए मां को ही घर का हर काम करना पड़ता था. ऐसे में मां का हाथ बंटाने के लिए धीरेन दा ने सोमेन की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी.

सोमेन ज्यादातर समय धीरेन दा की गोद में होता या जहां वह पढ़ते थे उन के पास ही पालने में सोया या खेलता रहता. देखतेदेखते सोमेन 4 साल का हो गया. धीरेन दा उस दिन बहुत खुश थे क्योंकि बी. काम. फाइनल में उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में टाप किया था. घर आ कर जब उन्होंने यह खबर मांबाबूजी को सुनाई तो वे बहुत खुश हुए. इस खुशी को अपने पड़ासियों के साथ बांटने के लिए वे दोनों मिठाई लेने ऐसे निकले कि कफन ओढ़ कर घर वापस आए.

रास्ते में एक बस ने उन्हें बुरी तरह से कुचल दिया था. एक पल को धीरेन दा को यों लगा मानो उन का सबकुछ खत्म हो गया. पर मासूम सोमेन को बिलखते देख उन्हें भाई से पिता रूप में परिवर्तित होने में तनिक भी वक्त नहीं लगा. उसी वक्त उन्होंने मन ही मन प्रण किया कि वह न सोमेन को अनाथ होने देंगे और न ही कभी उसे मातापिता की कमी महसूस होने देंगे. इस घटना के कुछ महीनों बाद ही धीरेन दा की बैंक में नौकरी लग गई. नौकरी मिलने के 1 साल बाद उन्होंने रजनी के साथ विवाह रचा लिया. रजनी के गृहप्रवेश करते ही धीरेन दा की दुनिया बदल गई.

सोमेन को भी रजनी भाभी कम और मां ज्यादा लगतीं. 2 साल का प्यार भरा समय कैसे गुजर गया, पता ही न चला. एक दिन रजनी को अपने भीतर एक नवजीवन के पनपने का एहसास हुआ तो धीरेन दा की खुशियों की सीमा न रही. सोमेन को भी चाचा बनने की बेहद खुशी थी. पर उन लोगों की सारी खुशियां रेत के घरौंदे की तरह पलक झपकते ही बिखर गईं. एक दिन रजनी बारिश में भीगते कपड़ों को समेटने गई और फिसल कर गिर पड़ी. अंदरूनी चोट इतनी गहरी थी कि लाख कोशिशों के बावजूद डाक्टर मां और बच्चे में से किसी को नहीं बचा सके.

रजनी की मौत के बाद धीरेन दा ने किसी भी स्त्री के लिए अपने दिल के दरवाजे हमेशाहमेशा को बंद कर लिए. अब उन के जीने का मकसद सिर्फ और सिर्फ सोमेन था. अब वह सोमेन की नींद सोते और जागते थे. उस की हर जरूरत का ध्यान रखना, उसे खुश रखना और उस के विकास के बारे में चिंतनमनन करना ही जैसे उन का एकमात्र ध्येय रह गया था. कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म होते ही जब सोमेन को एक बड़ी इंटरनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई तो सोमेन से कहीं ज्यादा खुशी धीरेन दा को हुई. सोमेन के प्रति उन की बस आखिरी जिम्मेदारी बाकी रह गई थी और वह जिम्मेदारी थी सोमेन की शादी.

साल भर बाद धीरेन दा ने अपने मित्र रमेशजी की मदद से आखिर रूपल जैसी गुणवती, सुंदर और मासूम लड़की को अपने अनुज के लिए तलाश ही लिया. रूपल के रूप में उन्हें एक बेटी का ही रूप नजर आता. रूपल थी भी इतनी प्यारी और नेकदिल कि सोमेन और धीरेन दा के दिलों में बसने के लिए उसे जरा भी वक्त नहीं लगा. सबकुछ ठीक चल रहा था. रूपल को कुछ अखरता था तो वह धीरेन दा का सोमेन को ले कर जरूरत से ज्यादा पजेसिव होना.

भाई के प्यार में वह इस कदर डूबे हुए थे कि अकसर रूपल की उपस्थिति को नजरअंदाज कर जाते. वह भूल जाते कि उन की तरह रूपल भी सुबह से सोेमेन का इंतजार कर रही है. पति को देखने को व्याकुल उस नवविवाहिता की आंखें शाम से ही दरवाजे पर टिकी हुई हैं. सोमेन भी घर आते ही रूपल को बांहों में ले कर प्यार की बौछार कर देने को आतुर रहता पर घर में प्रवेश करते ही धीरेन दा को अपना इंतजार करते बैठा देखता तो मर्यादा के तहत मन को वश में कर वहीं बैठ जाता और उन से वार्तालाप में मस्त हो जाता. बीच में कभी कपड़े बदलने के बहाने से तो कभी बाथरूम जाने के बहाने से अंदर जा कर झुंझलाईबौखलाई रूपल पर ऐसे तेज गति से चुंबनों की झड़ी लगा देता कि रूपल सारा गुस्सा भूल कर कह उठती, ‘‘अब बस भी करो मेरे सुपर फास्ट राजधानी एक्सप्रेस, बाहर भैया चाय के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं.’’

फिर दोनों भाई शतरंज खेलते. इस बीच खाना बना कर रूपल बेमन से टीवी का चैनल बदलती रहती. कभी सोमेन आवाज लगाता तो चाय या पानी दे जाती. उस की मनोस्थिति से सर्वथा अनजान धीरेन दा शतरंज की बिसात पर नजरें जमाए हुए कहते, ‘‘रूपल, तुम भी शतरंज खेलना सीख जाओ तो मजा आ जाए.’’ ‘‘जी दादा, सीखूंगी,’’ संक्षिप्त सा उत्तर दे कर वह वापस अंदर की ओर मुड़ जाती. तब सोमेन का मन शतरंज छोड़ कर उठ जाने को करता. वह चाहता कि रूठी हुई रूपल को हंसाए, गुदगुदाए पर दादा का एकाकीपन अकसर उस के मन पर अंकुश लगा देता.

रात को अपने अंतरंग क्षणों में वह रूपल को मना लेता और समझा भी देता कि धीरेन दा ने सिर्फ मेरे लिए अपनी सारी खुशियों की आहुति दे दी. अब हमारे किसी काम से उन्हें यह एहसास नहीं होना चाहिए कि हम उन की परवा या कद्र नहीं करते. रूपल ने भी धीरेधीरे यह सोच कर नाराज होना छोड़ दिया कि जब बच्चे हो जाएंगे तब सब ठीक हो जाएगा पर वैसा कुछ हुआ नहीं.

पिंकी व बंटी के होने के बाद भी धीरेन दा की वजह से सोमेन रूपल को वक्त नहीं दे पाता. यों ही और 8 साल बीत गए. अब तो पिंकी 10 और बंटी 8 साल के हो गए थे. अगर बच्चे कहते, ‘‘पापा, हमें किसी बच्चों के पार्क में या चिडि़याघर दिखाने ले चलिए,’’ तो सोमेन का जवाब होता कि बेटे, हम वहां जाएंगे तो ताऊजी अकेले हो जाएंगे. ‘‘तो फिर ताऊजी को भी साथ में ले चलिए न,’’ पिंकी ठुनकती हुई कहती. इस पर सोमेन प्यार से उसे समझाते हुए कहता, ‘‘बेटे, इस उम्र में ज्यादा चलनाफिरना ताऊजी को थका देता है. हम फिर कभी जाएंगे,’’ और वह दिन बच्चों के लिए कभी नहीं आया था.

यह सब देखसुन कर रूपल कुढ़ कर रह जाती. उस ने अपनी सारी इच्छाएं दफन कर डालीं पर अब बच्चों के चेहरों पर छाई मायूसी उस के मन में धीरेन दा के लिए आक्रोश भर देती. इन सब का परिणाम यह हुआ कि धीरेधीरे रूपल के व्यवहार में अंतर आने लगा और बोली में भी कड़वापन झलकने लगा. धीरेन दा कुछ महीनों से रूपल के व्यवहार में आए परिवर्तन को देख रहे थे पर बहुत सोचने पर भी उस की तह तक नहीं पहुंच पाए. अंत में हार कर उन्होंने अपने मित्र रमेश से परामर्श करने की सोची.

रमेश से उन का कोई दुराव- छिपाव न था. एक बार फिर रमेश ने उन्हें मर्यादा और व्यावहारिक ज्ञान से रूबरू कराया. रमेश ने धीरेन दा की कही हरेक बातें ध्यान से सुनीं और उन से उन के और घर के हर सदस्यों की दिनचर्या के बारे में विस्तार से जानकारी हासिल की, फिर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए. पल भर के मौन के बाद धीरेन दा को समझाने के लहजे में बोले, ‘‘देख, धीरेन, ऐसा नहीं है कि रूपल अब तुम्हें बड़े भाई का मान नहीं देती. पर मेरे यार, तुम एक बात भूल गए कि कोई भी इनसान किसी एक का नहीं होता.

‘‘सोमेन की शादी से पहले की बात और थी. तब तुम्हारे सिवा उस का कोई नहीं था लेकिन विवाह के बाद वह किसी का पति और किसी का पिता बन गया. तुम्हारी ही तरह पिंकी, बंटी और रूपल को सोमेन से विभिन्न अपेक्षाएं हैं जो वह सिर्फ इसलिए पूरी नहीं कर पा रहा कि कहीं तुम स्वयं को उपेक्षित न समझ बैठो. उलटे तुम्हें हमेशा खुश रखने के प्रयास में वह न तो अच्छा पति साबित हो रहा है और न ही एक अच्छा पिता. हर रिश्ता एक मर्यादा और सीमारेखा से बंधा होता है जिस का अतिक्रमण बिखराव और ऊब की स्थिति ला देता है.

‘‘मेरे यार, अनजाने ही सही, तुम भी रिश्तों की सीमारेखा को लांघने लगे हो. माना कि तुम्हारी नीयत में कोई खोट नहीं पर कौन सी ऐसी पत्नी होगी जो कुछ वक्त अपने पति के साथ अकेले बिताना नहीं चाहेगी या फिर कौन से बच्चे अपने पापा के साथ कहीं घूमने नहीं जाना चाहेंगे. कहते हैं न, जब आंख खुली तभी सवेरा समझो. अब भी देर नहीं हुई है. तुम्हारे घर की खोती हुई खुशियां और रूपल की निगाहों में तुम्हारे प्रति सम्मान फिर से वापस आ सकता है. बस, तुम अपने और सोमेन के रिश्ते को थोड़ा विस्तृत कर लो. खुले मन से अपने साथ रूपल और बच्चों को समाहित कर लो…’’

सहसा धीरेन दा के चेहरे पर एक चमक आ गई और वह रमेशजी को बीच में ही टोकते हुए बोले, ‘‘बस यार, मेरी आंखें खोलने के लिए तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. अब मैं चलता हूं, पहले ही बहुत देर हो चुकी है…अब मैं और देर नहीं करना चाहता,’’ फिर तेजतेज कदमों से वह घर की ओर चल पड़े मानो भागते हुए समय को खींच कर पीछे ले जाएंगे. रमेशजी ने जाते हुए अपने मित्र को और रोकना उचित नहीं समझा और मुसकरा पड़े.

अगले दिन रविवार था. सालों के नियम को भंग करते हुए धीरेन दा अकेले ही सुबहसुबह कहीं गायब हो गए. रूपल की नींद खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. वह उठ कर पूरे घर का एक चक्कर लगा आई. बाहर का दरवाजा भी यों ही उढ़का हुआ था. घबरा कर उस ने सोमेन को जगाया, ‘‘सुनोसुनो, जल्दी उठो, 8 बज गए हैं और दादा का कहीं पता नहीं है. दरवाजा भी खुला हुआ है.’’ सोमेन घबरा कर उठ बैठा. बच्चे भी मम्मीपापा के बीच का होहल्ला सुन कर जाग गए. सब मिल कर सोचने लगे कि धीरेन दा कहां जा सकते हैं?

आखिर 10 बजे घर के बाहर आटो रुकने की आवाज आई. पिंकी व बंटी दरवाजे से बाहर झांक कर चिल्लाए, ‘‘ताऊजी आ गए, ताऊजी आ गए.’’ सोमेन और रूपल ने चैन की सांस ली. धीरेन दा के घर में घुसते ही रूपल ने सवालों की झड़ी लगा दी, ‘‘दादा, आप कहां चले गए थे? कह कर क्यों नहीं गए? हम से नाराज हैं क्या? क्या हम से कोई गलती हो गई?’’ धीरेन दा मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो अपनी गलती सुधारने गया था.’’

कुछ न समझने की स्थिति में सोमेन और रूपल एकदूसरे का मुंह देखने लगे. धीरेन दा बोले, ‘‘अरे, बाबा, मैं तुम लोगों को सरप्राइज देना चाहता था इसलिए ‘सिंह इज किंग’ की 2 टिकटें लाया हूं. आइनोक्स में यह फिल्म लगी है, आज तुम दोनों देख आना.’’ रूपल की आंखें आश्चर्य और खुशी से भर गईं. आज तक उसे आइनोक्स में फिल्म देखने का मौका जो नसीब नहीं हुआ था. वह तो कहीं भी आनेजाने की उम्मीद ही छोड़ बैठी थी.

‘‘पर दादा, बच्चे और आप…’’ ‘‘उस की तुम चिंता मत करो. हम तीनों आज ‘एडवेंचर आइलैंड’ जाएंगे, बाहर खाना खाएंगे और खूब मस्ती करेंगे. क्यों बच्चो?’’ ‘‘दादाजी, आप कितने अच्छे हैं?’’ यह कहते हुए दोनों बच्चे धीरेन दा के पैरों से लिपट गए तो धीरेन दा भावुक हो उठे. इधर सोमेन और रूपल की आंखों से छलका हुआ अनकहा ‘धन्यवाद’ भी…

सीमा रेखा: क्या था निर्मला का असली रूप

लेखक- मधुप चौधरी

समधिन की बात सुन कर दिवाकर सकते में आ गए. नागिन की तरह फुफकार कर निर्मला बोली, ‘‘आप लोग मेरी बेटी को तरहतरह से तंग करते हैं. मैं ने बेटी का ब्याह किया है, उसे आप के हाथों बेचा नहीं है. मेरी बेटी अब आप के घर नहीं जाएगी.’’

दिवाकर ने पिछले साल ही अपने बड़े बेटे मुकुल की शादी पटना से सटे इस कसबे के निवासी गुलाबचंद की बड़ी बेटी रूपा से की थी. लड़की देखने आए तो गुलाबचंद और निर्मला के व्यवहार से इतना प्रभावित हुए थे कि आननफानन में रिश्ते के लिए ‘हां’ कर दी थी.

रूपा भी साधारण तौर पर नापसंद करने लायक नहीं थी. साफ रंग, छरहरा शरीर, नैननक्श भी ठीक ही थे. उस समय वह बीए की परीक्षा की तैयारी कर रही थी. दिवाकर को भी पढ़ीलिखी लड़की की ही तलाश थी सो रूपा हर तरह से उन लोगों को जंच गई. मुकुल को भी पसंद आई.

शादी बिना दानदहेज के बड़ी धूमधाम से हुई. बाजेगाजे और पूरे वैवाहिक कार्यक्रम की वीडियोग्राफी  हुई. रूपा के ससुराल आने पर दिवाकर ने एक शानदार प्रीतिभोज का आयोजन किया था.

दिवाकर को इस रिश्ते के लिए सब से अधिक लड़की की मां के व्यवहार और उन्मुक्तता ने प्रभावित किया था. कसबे के माहौल में ऐसी गृहिणियां भी हो सकती हैं, दिवाकर की कल्पना में भी नहीं था. गुलाबचंद दब्बू किस्म के मर्द लगे पर ऐसा ही होता है. दब्बू किस्म के मर्दों की पत्नियां मुखर होती हैं.

लेकिन दिवाकर को निर्मला से इस तरह से बातचीत या ऐसे तेवर की उम्मीद नहीं थी.

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पिछले 2 महीने से नाराज हो कर आने के बाद रूपा मायके में थी. दिवाकर ने सोचा था पटना का अपना काम निबटाने के बाद समधी से मिल कर रूपा की विदाई के बारे में बात कर लेंगे. सीधे लौट जाने पर गुलाबचंद और निर्मला को बुरा लगने वाली बात होती. लेकिन समधिन के तीखे स्वर और तीखी बातों ने दिवाकर को बेचैन कर दिया. असहजता महसूस करते हुए बोले, ‘‘क्या कह रही हैं आप, समधिनजी?’’

‘‘मैं ठीक कह रही हूं दिवाकरजी,’’ निर्मला बोली, ‘‘आप ने मेरी बेटी को ले जा कर पिंजरे में बंद कर दिया. ऊपर से कई तरह की पाबंदियां कि यह मत करो, वैसा मत पहनो, ऐसे मत खाओ, उधर मत जाओ. वह क्या जानवर है जो गाय समझ कर गोशाला में खूंटे से बांध दी? इस पर हमें ही दोषी ठहराते हैं कि बच्चों पर हमारा कंट्रोल नहीं है.’’

दिवाकर को अब समझ में आया कि समधिन का गुस्सा उन की उस बात पर है जो उन्होंने गुलाबचंद से, जब वह रूपा को लाने गए थे, कही थी.

शादी के बाद ससुराल आई रूपा

की चालढाल और व्यवहार से दिवाकर संतुष्ट नहीं थे. रूपा घर के अदब व कायदों को मानने को राजी नहीं थी. वह उसे बंदिश लगते थे. दिवाकर रूढि़वादी नहीं थे परंतु अमर्या- दित आजादी और खुलापन उन्हें पसंद नहीं था.

मुकुल की मां की सोच बहू के बारे में पारंपरिक थी. बहू सुशील और मृदुभाषी हो. घरगृहस्थी का काम जाने, बड़ों का सम्मान करे, हमेशा हंसती- मुसकराती रहे और अपने व्यवहार से घर में खुशियां बिखेरे.

रूपा उन की बहू की उस तसवीर से बिलकुल अलग थी. वह देर रात तक टीवी पर सिनेमा व धारावाहिक देखती. देर से सो कर उठती. उठने के बाद उसे बेड टी चाहिए थी. रसोई का नाम सुनते ही उस का सिर दर्द करने लगता. वह सिर्फ मुकुल को अपना समझती थी. घर के बाकी किसी सदस्य से उसे कोई मतलब नहीं था.

दिवाकर ने रूपा को बेटी की तरह मानते हुए हर तरह से समझाने की कोशिश की कि बेटी, यह तुम्हारा घर है, तुम इस घर की बड़ी बहू हो. घर की जिम्मेदारियों को समझो. लेकिन रूपा में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ. दिवाकर को लगा कि उन्होंने निर्मला की बाहरी चमक से प्रभावित हो कर भारी भूल की, भीतर झांक कर तह तक जाने का प्रयास नहीं किया.

फिर भी दिवाकर को विश्वास था कि रूपा समय के साथ धीरेधीरे इन बातों और अपनी जिम्मेदारियों को समझने लगेगी. आखिर बच्ची ही तो थी. उस से इतनी जल्दी प्रौढ़ता की उम्मीद करना भूल होगी. फिर जिस घर में उन्मुक्तता का वातावरण हो और जहां मातापिता ने अपनी संतानों को जिम्मेदारियों का पाठ न पढ़ाया हो, बेटियों को बेटी और बहू का अंतर न समझाया हो वहां ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है. इस में दोष रूपा का नहीं उस के मातापिता का है.

इसी बीच एक घटना घट गई. रूपा के छोटे भाई राजेश ने मां के डांटने पर अपने कपड़ों पर तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. सतर्कता के कारण वह बच गया लेकिन यह भयंकर हादसा हो सकता था.

गुलाबचंद रूपा को लेने आए तो बातों ही बातों में दिवाकर कह बैठे, ‘‘भाई साहब बुरा मत मानिएगा, आप के घर में बच्चों पर आप का नियंत्रण नहीं है.’’

असल में दिवाकर का इशारा रूपा की ओर था जिसे समझा कर वह हार चुके थे और हर तरह का प्रयत्न कर के भी परिवार की धारा में नहीं ला पा रहे थे.

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यह बात गुलाबचंद निर्मला को कह देंगे और वह इस का इतना बुरा मान जाएंगी दिवाकर ने सोचा भी नहीं था. लेकिन निर्मला ने जब तेवर और तैश से इसे दोहराया तो जैसे दिवाकर का आत्मसम्मान जाग उठा. क्षण भर को यही खयाल जागा कि यह औरत उन्हें भी गुलाबचंद समझती है क्या. गुलाबचंद उस की धौंस सह सकते हैं. उन पर क्यों धौंस जमाएगी यह औरत?

विवाद वहीं उत्पन्न होता है जहां व्यक्ति सीमा रेखा का उल्लंघन करता है. दिवाकर को लगा निर्मला अपनी पारिवारिक सीमा लांघ कर उन की पारिवारिक व्यवस्था में दखल देने की ज्यादती कर रही है. वह बोल उठे, ‘‘सचमुच आप के घर में किसी पर किसी का नियंत्रण नहीं है. सभी अपने मन के हैं. बड़ों की इज्जत की किसी को परवा नहीं है. राजेश ने आग लगा ली. गनीमत थी सिर्फ थोड़ा सा पैर जला. बड़ा हादसा हो जाता तो क्या होता?’’

दिवाकर ने यह भी समझाने के लिए कहा था परंतु निर्मला को यह बात उस की सत्ता को चुनौती और व्यंग्य सी लगी. वह तिलमिला उठी.

उसी समय गुलाबचंद वहां आ गए. दिवाकर ने गुलाबचंद से कहा, ‘‘भाई साहब, मैं पटना अपने किसी काम से आया था तो आप लोगों से मिलने भी चला आया. रूपा को आए 2 महीने हो गए हैं. आप कब उसे विदा करेंगे?’’

‘‘यह क्या बोलेंगे?’’ निर्मला तमतमाए स्वर में बोली, ‘‘मैं कह चुकी हूं कि मेरी बेटी अब उस घर में कभी नहीं जाएगी.’’

‘‘आप एक बात भूल रही हैं, समधिनजी,’’ दिवाकर कुरसी छोड़ कर खड़े हो गए और समझाते हुए बोले, ‘‘रूपा अब हमारे घर की बहू है. उस पर आप का नहीं, हमारा हक बनता है. आप अपने अहं को बेटी के भविष्य से जोड़ कर अच्छा नहीं कर रही हैं. ठंडे दिमाग से सोच कर देखिएगा. मैं जा रहा हूं लेकिन अब मैं या मुकुल रूपा को विदा कराने नहीं आएंगे. आप लोगों की इच्छा होगी तो बेटी भेज दीजिएगा या फिर सारी जिंदगी अपने घर पर ही रखे रहिएगा.’’

निर्मला ने चीख कर कहा, ‘‘हां, हम उसे सारी जिंदगी रखेंगे पर आप के घर कभी नहीं भेजेंगे.’’

दिवाकर निर्मला की बात सुनते हुए भी अनसुनी कर बाहर निकल गए.

दिवाकर के जाने के बाद निर्मला थके हुए योद्धा की तरह धम से सोफे पर बैठ गई. उसे लगा कि दिवाकर नाम के इस मर्द का दर्प आज उस ने चूर कर दिया है पर दूसरे ही पल ऐसा महसूस हुआ कि नहीं, इस जंग में वह जीत नहीं सकी. और इस के लिए गुलाबचंद को दोषी मानते हुए वह उन पर बरस पड़ी, ‘‘दिवाकर इतनी बड़ीबड़ी बातें कह गए और आप को कुछ बोलते नहीं बना?’’

‘‘मैं क्या कहता? तुम तो बोल ही रही थीं,’’ गुलाबचंद ने सफाई दी.

‘‘आप मर्द हैं या माटी का लोंदा? वह आदमी आप की पत्नी का अपमान कर गया और आप चुपचाप उस का चेहरा देखते रहे.’’

गुलाबचंद ने देखा कि निर्मला बहुत नाराज है और अपनी आदत के अनुसार जो भी उस के सामने पड़ेगा उसी पर झल्लाएगी, इसलिए वहां से हट जाना ही उचित समझा.

गुलाबचंद के जाने के बाद निर्मला ने तेज स्वर में रूपा को आवाज दी, ‘‘रूपा…’’

‘‘आई, मम्मी…’’ के साथ ही रूपा बगल के कमरे से निकल कर सामने आ गई.

निर्मला ने सीधे रूपा की ओर देखा. उस की मांग में सिंदूर भरा हुआ था. वह गुस्से में तिलमिला कर बोली, ‘‘मैं ने तुझे सिंदूर लगाने को मना किया है न, तू मानती क्यों नहीं?  जा, जा कर सिंदूर धो दे.’’

रूपा वहां से चली आई.

रूपा पसोपेश में थी, क्या करे, क्या न करे. इस बार सास और पति से झगड़ कर गुस्से में आई थी. मम्मी को रोरो कर उस ने सारा हाल बताया था और यह भी कहा था कि वह उस घर में नहीं जाना चाहती. मम्मी ने भी कहा था वह उस घर में नहीं जाएगी और उन्होंने सिंदूर लगाने को मना किया था. रूपा ने तब मम्मी के कहने पर सिंदूर पोंछ दिया था पर बालों में कंघा करते वक्त अनायास ही उस के हाथ सिंदूर की डिबिया और मांग तक पहुंच जाते.

रूपा अभी ऊहापोह में ही थी कि उसे अपनी छोटी बहन गुडि़या की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘क्या चिंता कर रही हो, दीदी? मम्मी ने कहा है मांग का सिंदूर धो दो तो धो डालो. तुम भी तो यही चाहती हो.’’

गुडि़या, रूपा की तरह उन्मुक्त और लापरवा नहीं बल्कि गंभीर प्रवृत्ति की थी. 12वीं कक्षा में पढ़ती थी. पापा से बहुत कम ही बातें करती थी. हां, छोटे भाइयों से बहुत स्नेह रखती थी.

रूपा ने कहा, ‘‘मैं तय नहीं कर पा रही हूं गुडि़या कि इस समय मुझे क्या करना चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ गुडि़या ने करीब आ कर कहा, ‘‘तुम्हारा तो उस घर में दम घुटता है. उस घर के सभी लोग तुम पर अत्याचार करते हैं. तुम पर तरहतरह की बंदिशें लगाते हैं. वह घर है या जेलखाना. बचपन से मम्मी से आजादी का पाठ पढ़ा है तुम ने. फिर तुम उस जेलखाने में कैसे रह सकती हो?’’

‘‘जेलखाना तो सचमुच ही है परंतु…’’

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‘‘परंतु क्या, दीदी?’’ गुडि़या ने रूपा की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘यही मौका है. बंधन तोड़ कर बाहर निकल आओ और आजाद पंछी की तरह घूमो. इस सिंदूर में क्या रखा है? शादी तो एक धोखा है, पवित्र धोखा. आत्मा के बंधन के नाम पर धोखा. असल में यह औरतों को मर्दों का गुलाम बनाने का फंदा है. है न दीदी?’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो, गुडि़या,’’ रूपा को लगा गुडि़या उस का समर्थन कर रही है पर अगले ही पल गुडि़या का जवाब सुन कर वह चकरा गई.

‘‘मेरी बात मानोगी, दीदी. तुम अभी ही ससुराल वापस चली जाओ. वही तुम्हारा घर है. हम बेटियों के लिए मांबाप का घर शादी के पहले तक ही होता है, शादी के बाद ससुराल ही हमारा अपना घर होता है. तुम अपने आसपास देखो, कहीं दिखाई पड़ता है ऐसा कि शादी के बाद बेटी पिता के घर पर रह रही है.’’

रूपा को कुछ उत्तर देते न बना.

‘‘सच तो यह है दीदी कि मम्मी तुम्हारे कष्टों के लिए यह रिश्ता नहीं तोड़ रहीं, अपने अहं की तुष्टि के लिए तोड़ रही हैं. उन्हें आप के ससुर का कहना बुरा लगा है. मम्मी को तो तुम जानती ही हो और मैं भी. जरा सोचो दीदी, रिश्ता टूटने से उन का क्या बिगड़ेगा? लड़के वाले हैं. जीजाजी की दूसरी शादी हो जाएगी पर तुम्हारा क्या होगा? तुम्हें शादी के बंधन में नहीं बंधना हो तो अलग बात है. वरना परित्यक्ता का दाग तो लग ही जाएगा. फिर मुकुल जीजाजी या उन के घर वाले जालिम हैं ऐसा तो नहीं लगता और मैं भी तो तुम्हारे ससुराल हो आई हूं.’’

‘‘मुझे उन की पाबंदियों वाली बातें बरदाश्त नहीं होतीं,’’ रूपा ने अपना पक्ष रखने की नीयत से कहा.

‘‘ठीक है, तुम्हें उन की नसीहत, उन की सीख अच्छी नहीं लगती. और इसी को तुम ने अत्याचार का नाम दे कर बारबार मम्मी से शिकायत की है लेकिन जब मम्मी डांटती हैं तो कैसे बरदाश्त कर लेती हो?’’

‘‘तुम कहना चाहती हो गुडि़या, मुझे ससुराल लौट जाना चाहिए?’’

‘‘हां, दीदी, इसी में हम सब की भलाई है,’’ गुडि़या ने कहा, ‘‘इस से तुम्हारी इज्जत और जिंदगी बर्बाद होने से बच जाएगी. दोनों परिवारों की इज्जत रह जाएगी. यदि ऐसा नहीं हुआ तो मेरी शादी नहीं हो पाएगी.’’

‘‘वह कैसे?’’ रूपा ने विस्मय से पूछा.

‘‘जिस परिवार की बेटी साधारण समस्याओं के लिए पति और ससुराल छोड़ कर पिता के घर में बैठी हो उस परिवार में कौन रिश्ता जोड़ने आएगा?’’ गुडि़या ने कहा.

‘‘लेकिन मम्मी…’’

‘‘मम्मी की परवा मत करो, दीदी, तुम अपना भविष्य देखो. मम्मी भी तो किसी घर की बेटी हैं. वह क्यों नहीं रहीं अपने मायके में जो तुम्हारी ससुराल छुड़ाना चाहती हैं.’’

रूपा ने आश्चर्य से गुडि़या को देखा कि इतनी छोटी सी लड़की और इतनी समझदारी, इतना ज्ञान कहां से आया उस के पास.

‘‘एक बात तुम्हें और बताती हूं, दीदी, लड़का हो या लड़की, उम्र के साथ जिम्मेदारियां भी बदलती हैं और उसी के साथ विचार भी. आज मम्मी जींस पहनें तो अच्छा लगेगा? बोलो न, अच्छा लगेगा?’’

रूपा ने तात्पर्य न समझते हुए भी कहा, ‘‘नहीं.’’

‘‘ठीक उसी तरह बहू के लिबास में मर्यादा की मांग की जाए तो बुरा क्यों लगना चाहिए? तुम तो सलवारकमीज ही पहनती रहीं. मुझे जींस पसंद है परंतु शादी के बाद बहू की मर्यादा वाला लिबास ही पहनूंगी.’’

गुडि़या और भी कुछ कहती पर रूपा अपने भीतर चल रहे मंथन में डूब गई.

अगली सुबह रूपा मम्मी के सामने आई तो निर्मला ने अवाक् हो कर उसे देखा. वह ससुराल की साड़ी पहने और शृंगार किए हुए थी. मांग में सिंदूर दमक रहा था. निर्मला चीख उठी, ‘‘यह क्या किया तू ने? मैं ने तुझे सिंदूर धो देने को कहा था.’’

‘‘पति के जीवित रहते सिंदूर नहीं धो सकती,’’  रूपा ने साहस कर के कहा.

‘‘कौन पति? कैसा पति?  मर गया तेरा पति.’’

‘‘मम्मी, ऐसा मत कहिए. मैं ससुराल जाने के लिए आप से अनुमति लेने आई  हूं.’’

‘‘क्या? ससुराल जाएगी. दिमाग फिर गया है तेरा?’’

‘‘दिमाग तो पहले फिरा हुआ था, मम्मी,’’ बगल के कमरे से निकल कर गुडि़या सामने आ गई, ‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि दीदी अपने घर जा रही हैं. इस के साथ ही महीनों से चला आ रहा दोनों परिवारों के बीच का तनाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘तू चुप रह, बड़ी समझदार हो गई है. मेरी कोख से जन्मी मुझी को सबक सिखा रही है,’’ निर्मला गरजीं.

‘‘तुम चाहे जितना बिगड़ लो, मम्मी, दीदी अब यहां नहीं रहेंगी, अपनी ससुराल जाएंगी, आज और अभी.’’

‘‘देखती हूं कौन ले जाता है इसे,’’ निर्मला चीखीं.

‘‘पापा ले कर जाएंगे, और यदि पापा नहीं ले गए तो मैं दीदी को छोड़ कर आऊंगी.’’

निर्मला अपना गुस्सा नहीं रोक सकी. उठ कर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया गुडि़या के गाल पर. फिर उस की गरदन पकड़ कर झकझोरने लगी, ‘‘नालायक, मुझे जवाब देती है.’’

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रूपा गुडि़या को छुड़ा कर निर्मला के सामने सीधी खड़ी हो गई. उस की आंखों में आज तेज था. निर्मला की आंखों में देखते हुए बोली, ‘‘बस कीजिए, मम्मी. हद हो गई. मैं बच्ची नहीं बालिग हूं. अपने बारे में सोचनेसमझने और फैसला लेने का मुझे पूरा हक है. मैं ने ससुराल वापस जाने का फै सला कर लिया है और जाऊंगी ही. मुझे कोई नहीं रोक सकता.’’

निर्मला गश खा कर धम से सोफे पर बैठ गई. कल दिवाकर के साथ बहस की जंग में जीती थी या हारी थी, ठीकठीक नहीं मालूम पर आज अपनी सत्ता और अहं के युद्ध में पूरी तरह परास्त हो गई थी वह.   द

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