बंटी : क्या अंगरेजी मीडियम स्कूल दे पाया अच्छे संस्कार?

लेखक- सुरेंद्र कुमार

सुधा मायके गई है और शाम को जब वह वापस आएगी तो बंटी के स्कूल को ले कर फिर से उस के साथ चिकचिक होगी, सुधीर को इस बात की पूरी आशंका थी.

सुधा के मायके वाले अमीर थे. करोड़ों में फैला उन का कारोबार था. सुधा के सारे भतीजेभतीजियां महंगे अंगरेजी स्कूलों में पढ़ते थे और फर्राटे से अंगरेजी बोलते थे. सुधा की परेशानी की असली वजह यही थी. बंटी के स्कूल को ले कर वह अपनी दोनों भाभियों के सामने जैसे छोटी और हीन पड़ जाती थी. दूसरे शब्दों में कहें तो, कौंपलैक्स की शिकार हो जाती थी. बंटी का किसी छोटे स्कूल में पढ़ना जैसे सुधा के लिए अपमान की बात थी.

अपना ज्यादा वक्त किटी पार्टियों और ब्यूटीपार्लर में बिताने वाली सुधा की अमीर और फैशनपरस्त भाभियां सबकुछ जानते हुए बंटी के स्कूल को ले कर जानबूझ कर सवाल करतीं और अपनेपन व हमदर्दी की आड़ में बंटी के स्कूल को तुरंत बदल देने की सलाह भी देती थीं. सुधा की दुखती रग को दबाने में शायद उन्हें मजा आता था. इस मामले में सुधा को नादान ही कहा जा सकता था. भाभियों की असली मंशा को वह समझ नहीं पाती थी.

मायके से आ कर बंटी के स्कूल को ले कर हमेशा बिफर जाती थी सुधा और इस बार भी ऐसा ही होने वाला था. जैसी सुधीर को आशंका थी, वैसा हुआ भी.

इस बार सुधा के बिफरने का अंदाज पहले से कहीं अधिक उग्र था. अब की बार बंटी के मामले में जैसे वह कुछ ठान कर ही आई थी.

आते ही उस ने ऐलान कर दिया, ‘‘बस, बहुत हो चुका, मैं कल ही बंटी को किसी अच्छे से अंगरेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दूंगी. इस निकम्मे से देसी स्कूल में वह कुछ नहीं सीख सकेगा, सिवा गंदी गालियों के.’’

‘‘लेकिन मैं ने तो कभी उस के मुंह से गंदी गाली निकलती हुई नहीं सुनी. हां, सुबह स्कूल जाते हुए वह हम दोनों के पांवों को जरूर छूता है. यह एक अच्छी चीज है और ऐसा करना बंटी ने जरूर उस स्कूल में ही सीखा होगा जिस को अकसर तुम निकम्मा और देसी कहती हो,’’ मुसकराते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारे साथ किसी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहती. कल से बंटी किसी दूसरे अंगरेजी स्कूल में ही जाएगा. तुम नहीं जानते बंटी के कारण ही मुझ को कितने कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं. भैया के बच्चों की तरह बंटी में आत्मविश्वास ही नहीं है. हर समय मेरी गोद में ही दुबके रहना चाहता है. कहीं भी नहीं ठहर पाता बंटी उन के सामने.’’

‘‘मगर इन सारी बातों का इलाज स्कूल बदलने से ही हो जाएगा क्या?’’ सुधीर ने पूछा.

‘‘जरूर होगा. भैया के बच्चों में आत्मविश्वास और हाजिरजवाबी केवल उन के स्कूल की वजह से ही है. वे किसी भी सवाल पर न तो बंटी की तरह झेंपते हैं और न ही घबराते हैं. उन की मौजूदगी में तो बंटी के मुंह से बात तक नहीं निकलती. नीरू भाभी तो कुछ नहीं कहतीं, लेकिन आरती भाभी की आदत को तो तुम जानते ही हो, वे कोई न कोई ऐसी बात कहने से बाज नहीं आतीं, जो तनबदन में आग लगा दे. एक ही तो बेटा है हमारा. फिर हमारे पास कमी किस चीज की है? हम भी तो बंटी को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा सकते हैं?’’

‘‘बंटी अपनी पढ़ाई में तो ठीक ही है सिवा इस के कि वह फर्राटे से अंगरेजी नहीं बोल सकता. फिर वह अभी काफी छोटा है. इस समय उस का स्कूल बदलना ठीक नहीं होगा,’’ सुधीर ने उस को समझाना चाहा.

‘‘नहीं, इस बार मैं तुम्हारी एक भी नहीं सुनूंगी. कल से बंटी किसी दूसरे स्कूल में ही जाएगा,’’ सुधा का स्वर निर्णायक था.

सुधा ने जैसा कहा वैसा किया भी. स्कूल का रिकशा आया तो उस ने बंटी को स्कूल नहीं भेजा.

इस के बाद सुधा ने मायके फोन किया और अपनी भाभियों से उन स्कूलों की लिस्ट मांगी जिन में से किसी एक में बंटी का दाखिला करवाने के बाद वह अपनी हीनभावना से मुक्त हो सकती थी.

दोनों भाभियों ने कई महंगे अंगरेजी स्कूलों के नाम सुधा को सुझाए.

भाभियों द्वारा सुझाए गए स्कूलों में से किसी एक को चुनने के लिए जब सुधा ने सुधीर से सलाह मांगी तो उस ने कहा, ‘‘अब इस के बारे में भी तुम अपनी किसी भाभी से ही पूछ लो तो बेहतर रहेगा, क्योंकि मुझ को इन सारे स्कूलों के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं.’’

इस पर सुधा का मुंह बन गया. वह बोली, ‘‘तुम से तो बात करना ही बेकार है. मेरे मायके वालों की किसी भी बात से तो तुम्हें वैसे ही चिढ़ है.’’

पत्नी की इस पुरानी शिकायत पर सुधीर के पास मुसकराने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.

हर बात में मायके का राग अलापना कुछ औरतों के स्वभाव में शामिल होता है और सुधा उन्हीं में से एक थी.

सुधीर के दफ्तर जाने से पहले ही सुधा बंटी को ले कर उसे अंगरेजी स्कूल में दाखिला करवाने के अभियान पर निकल पड़ी.

सुधीर ने उस से पैसों के बारे में पूछा तो उस ने कहा, ‘‘मेरे पास हैं. कल रमेश भैया ने भी काफी रुपए दे दिए थे. मैं ने लेने से इनकार भी किया था मगर वे

नहीं माने.’’

‘‘हां, बंटी के अंगरेजी स्कूल में दाखिले का सवाल था, तुम भी इनकार कैसे करतीं,’’ सुधीर ने व्यंग्यपूर्वक कहा.

‘‘मैं जानती थी, तुम कोई ताना मारने से बाज नहीं आओगे,’’ मुंह बनाती हुई सुधा ने कहा और बंटी को ले कर बाहर निकल गई.

शाम को सुधीर जब दफ्तर से वापस आया तो सुधा के चेहरे पर रौनक थी.

उस के चेहरे की रौनक से स्पष्ट था कि बंटी का ऐडमिशन किसी अंगरेजी स्कूल में हो गया था. जैसे कोई बड़ा किला फतह कर लिया हो, कुछ ऐसी ही हालत थी सुधा की.

सुधीर के कुछ पूछने से पहले ही वह खुद बंटी के ऐडमिशन में पेश आई मुश्किलों की सारी कहानी उसे बताने लगी. कहानी के अंत में बंटी को ऐडमिशन का सारा श्रेय अपने भाई को देना नहीं भूली, सुधा.

‘‘रमेश भैया की सिफारिश नहीं होती तो बंटी को बिना डोनेशन के कभी भी ऐडमिशन नहीं मिलता.’’

‘‘चलो, जैसे भी है बंटी को अंगरेजी स्कूल में ऐडमिशन मिल गया. अब कम से कम उस के कारण अपनी भाभियों के सामने तुम्हारी नाक नीची नहीं होगी,’’ चुटकी लेते हुए सुधीर ने कहा. सुधा का मुंह बन गया.

अपनी मम्मी और पापा की बातों से एकदम उदासीन बंटी अपने नए वाले स्कूल की किताबों को उलटपलट कर देख रहा था. वह परेशान सा नजर आ रहा था.

अगर स्कूल महंगा और बड़ा था तो उस की किताबें भी वैसी ही महंगी और कठिन थीं. बंटी इसलिए परेशान था क्योंकि नए स्कूल की किताबों में से उस के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था. नए स्कूल की किताबों में जो कुछ था वह पहले वाले स्कूल की किताबों में नहीं था.

शिक्षा के क्षेत्र में जो अजीब चलन चल पड़ा उस का शिकार बंटी जैसे मासूम बच्चे ही बनते हैं.

किसी स्कूल के स्टैंडर्ड का मानदंड इन दिनों भारीभरकम डोनेशन, ऊंची फीस और कठिन सिलेबस बन चुका. जितनी बड़ीबड़ी और कठिन शब्दावली की किताबें उतना ही नामी स्कूल.

नए स्कूल में से जो किताबें बंटी को मिलीं वे खूबसूरत और आकर्षक थीं. चिकने पृष्ठों वाली किताबों के अंदर जानवरों, पक्षियों, वाहनों, नदी और पहाड़ों के सुंदर व रंगबिरंगे चित्र थे. ये चित्र बंटी को खूब भाए थे. लेकिन किताबों में मौजूद अंगरेजी की पोएम्स समझना बंटी के लिए मुश्किल था. कमोवेश शब्दों के अर्थ भी बदल गए थे. जैसे पहले वाले स्कूल की किताबों में बंटी ‘ए फौर एप्पल’ पढ़ता आ रहा था, मगर नए स्कूल की किताबों में ‘ए फौर एलिगेटर’ बन गया था. ‘सी फौर कैट’, नए स्कूल में ‘सी फौर क्राउन’ हो गया था.

स्कूल बदलते समय बंटी के मन की किसी ने नहीं जानी थी. उस की मरजी किसी ने नहीं पूछी थी. यों?भी सोसाइटी में बड़ों की नाक के मामले में मासूमों की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं.

यह साफ था कि नए स्कूल में अपर केजी में पढ़ने वाले बंटी की सारी पढ़ाई भी नए सिरे से ही शुरू होने वाली थी.

उधर बंटी का स्कूल बदल कर सुधा ने बैठेबिठाए अपने लिए परेशानी मोल ले ली थी.

बंटी का पहला स्कूल घर के काफी पास था, उस पर उस को स्कूल ले जाने के लिए रिकशा घर के दरवाजे तक आता था. बंटी को स्कूल भेजने के लिए सुधा काफी आराम से उठती थी. अगर बंटी ने नाश्ता न किया हो और स्कूल की रिकशा आ जाए तो सुधा के कहने पर रिकशा वाला दोचार मिनट रुक भी जाता था.

लेकिन स्कूल को बदलने से सारी बात ही दूसरी हो गई थी. बंटी के नए स्कूल की बस चौराहे तक आती थी जोकि घर से बहुत दूर नहीं तो ज्यादा पास भी नहीं था बंटी को साथ ले और उस का भारीभरकम स्कूल बैग उठा कर पैदल चौराहे तक पहुंचने में सुधा को कम से कम 15-20 मिनट तो लग ही जाते थे. नए स्कूल की बस किसी के लिए 1 मिनट भी नहीं रुकती थी इसलिए उस के आने के समय से काफी पहले ही चौराहे पर जा कर खड़े होना पड़ता था.

यही हालत बंटी के स्कूल से आने के समय होती थी. कड़कती धूप में बस के आने के समय से 10-15 मिनट पहले ही सुधा को चौराहे पर खड़े हो उस की राह देखनी पड़ती थी.

बंटी को स्कूल की बस में चढ़ाने और उतारने के चक्कर में सुधा हांफ जाती थी. कभीकभी खीज भी उठती थी. लेकिन अपनी खीज को वह जाहिर नहीं कर पाती थी.

करती भी कैसे, सारी मुसीबत उस की अपनी ही तो मोल ली हुई थी. केवल एक ही खयाल उस को काफी राहत और संतोष देने वाला था और वह था कि बंटी के कारण अब कम से कम अपनी नखरैल भाभियों के सामने उस की स्थिति कमजोर नहीं पड़ेगी.

एक और समस्या भी बंटी के स्कूल बदलने से सुधा के सामने आ खड़ी हुई थी. बंटी के नए स्कूल की किताबें सुधा के पल्ले नहीं पड़ रही थीं. ऐसे में उस को होमवर्क करवाना सुधा के बस की बात नहीं थी. बंटी के लिए ट्यूशन का इंतजाम करना भी अब जरूरी हो गया था.

इधर बंटी के दिल और दिमाग की हालत क्या थी, किसी को भी इसे जानने की फुरसत न थी.

सुबह सुधा गहरी नींद से उसे जगा देती और फिर जल्दीजल्दी उस को स्कूल के लिए तैयार करती.

बंटी को तैयार करते वक्त सुधा का ध्यान उस की तरफ कम और दीवार पर लटक रही घड़ी की तरफ ज्यादा रहता. उसे डर रहता कि कहीं स्कूल की बस निकल न जाए इसलिए वह बंटी को लगभग घसीटते हुए चौराहे तक ले जाती.

बस में स्कूल जाना बंटी के लिए नया और मजेदार अनुभव था. नए स्कूल की साफसुथरी और शानदार इमारत में प्रवेश भी बंटी के लिए रोमांचपूर्ण अनुभव था. बाकी चीजों के मामले में पहले वाले स्कूल से नया स्कूल बंटी के लिए कुछ अच्छा और कुछ बुरा था.

नए स्कूल में आ कर शुरूशुरू में तो बंटी को ऐसा लगा था जैसे वह किसी एकदम बेगानी दुनिया में आ गया हो. वह बहुत घबराया हुआ था. अपनेआप में ही सिमटा चला जा रहा था. क्लास में बाकी बच्चे उस की इस हालत पर हंसते थे.

नए स्कूल की मैम बंटी को बहुत पसंद आईं. उन का बोलचाल का ढंग भी अच्छा था. पहले वाले स्कूल की मैडम की तरह पढ़ाते समय वे तेज आवाज में बच्चों पर चिल्लाती नहीं थीं. एक बच्चे ने जब अपना सबक ठीक से नहीं सुनाया तो मैम ने बस उस के कान को हलके से खींच दिया था. पहले वाले स्कूल की मैडम तो ऐसे बच्चों को फौरन अपनी टेबल के पास मुर्गा बना देतीं या उन की पीठ अथवा हाथों पर स्केल से जोरजोर से मारती थीं.

बड़ी अच्छी चीजें देखी बंटी ने नए स्कूल में, पर कुछ चीजें बहुत बुरी भी लगीं उस को.

नए स्कूल में बच्चे बड़ी गंदीगंदी हरकतें करते थे. वे गालियां भी निकालते थे, जो अभी बंटी की समझ में नहीं आती थीं, क्योंकि उन के द्वारा दी जाने वाली अधिकांश गालियां अंगरेजी में होती थीं. अपनी उम्र से कहीं बड़ीबड़ी बातें करते थे नए स्कूल के बच्चे.

इधर बंटी को महंगे और बढि़या स्कूल में दाखिल करवाने के बाद गर्व से इतरा रही सुधा को उस दिन फिर अपमान का सामना करना पड़ा जब उस के घर बच्चों समेत आई भाभियों की मौजूदगी में बंटी और उन के बच्चों में झगड़ा हो गया और इस झगड़े में बंटी के मुख से ठेठ पंजाबी जबान में मांबहन वाली गाली निकल गई. गुस्से से सुधा ने बंटी के गाल पर एक जोर का चांटा रसीद कर दिया.

सुधा के लिए शर्म की बात थी कि बढि़या अंगरेजी स्कूल में जाने के बाद भी बंटी की जबान से घटिया गाली निकली थी.

ऐसे मौके पर भी बड़ी भाभी आरती कटाक्ष करने से नहीं चूकी थीं, ‘‘जाने दो दीदी, इतना गुस्सा क्यों करती हो? शुरू से ही इस को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाया होता तो यह ऐसी गालियां नहीं सीखता. नए स्कूल के माहौल का असर होने में थोड़ा समय तो लगता ही है. इसलिए बुरी आदतें भी जाने में कुछ वक्त तो लगेगा ही. आखिर कौआ एकदम से हंस की चाल तो नहीं चल पड़ेगा.’’

सुधा कुछ बोली नहीं, मगर उस का चेहरा अपमान से लाल हो गया.

यह देख दोनों भाभियां कुटिलता से मुसकरा दीं. सुधा को नीचा दिखलाने का कोई मौका वे कभी नहीं छोड़ती थीं.

शाम को दोनों भाभियां बच्चों को ले कर चली गईं, मगर सुधा के मन में अपमान की कड़वाहट छोड़ गईं.

तिलमिलाई सुधा अपने दिल की सारी भड़ास एक बार फिर से बंटी पर निकालना चाहती थी मगर सुधीर ने उस को ऐसा करने से रोक दिया.

बंटी की वजह से सुधा को एक बार फिर नीचा देखना पड़ा था. भाभी की बातें नश्तर बन कर उसे काटे जा रही थीं.

सुधीर उस को शांत करने की लगातार कोशिश करता रहा. सहमा हुआ बंटी रात को भूखा ही सो गया.

बंटी के भूखे सो जाने से सुधा के अंदर की ममता जागी. शायद अपने व्यवहार के लिए उस को पश्चात्ताप भी हुआ था. सुधा बंटी को जगा कर कुछ खिलाना चाहती थी मगर सुधीर ने उसे मना कर दिया.

नए अंगरेजी स्कूल का असर 4-5 महीने में बंटी में साफ नजर आने लगा था. रोजमर्रा की छोटीमोटी बातों के लिए बंटी अंगरेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने लगा था. सुबह उठते ही ‘गुडमौर्निंग पापा, गुडमौर्निंग ममा’ और रात को सोते वक्त ‘गुडनाइट पापा, गुडनाइट ममा’ कहना बंटी की दिनचर्या का हिस्सा बन गया था. अंडे को अब वह ‘एग’ कहता था और सेब को ‘एप्पल’.

यह देख सुधा फूली नहीं समाती. उस के दिमाग में न जाने कैसे यह बात बैठ गई कि अंगरेजी में बात करने वाले बच्चों के कारण ही सोसाइटी में मांबाप की शान बनती है.

बदलाव तो बंटी में आ रहा था मगर यह केवल अंगरेजी के चंद शब्द बोलने तक ही सीमित नहीं था. बंटी के व्यवहार में आक्रामकता और उद्दंडता भी आ रही थी. किसी बात के लिए टोके जाना बंटी को अच्छा नहीं लगता था.

सुधा उस की हर चीज केवल इसलिए बरदाश्त कर रही थी क्योंकि वह अंगरेजी स्कूल के रंग में रंग रहा था. उस की जबान से अब कोई हलके किस्म की पंजाबी गाली नहीं निकलती थी. लेकिन इस का मतलब यह नहीं था कि बंटी गाली देना ही भूल गया था. यह बात अलग थी कि अब उस की दी हुई गाली सुधा की समझ में नहीं आती थी, क्योंकि अब वह अंगरेजी में ऐसी गालियां निकालना सीख गया जिस का मतलब समझना उस के लिए मुश्किल था.

गालियों का मतलब बंटी भी शायद नहीं समझता था, लेकिन उस को इतना जरूर मालूम होता था कि जो उस के मुख से निकल रहा है वह गाली है.

एक दिन जब रिमोट हाथ में ले कर बंटी टैलीविजन के चैनल से छेड़छाड़ कर रहा था तो सुधा ने उसे टोका और कहा, ‘‘बहुत हो गया बंटी, अब टैलीविजन बंद करो और अपना होमवर्क करो,’’ लेकिन बंटी ने उस की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और कार्टून चैनल देखता रहा.

सुधा ने अपनी बात दोहराई, लेकिन बंटी पर कोई असर नहीं हुआ.

दूसरी बार भी जब बंटी ने बात को अनसुना किया तो सुधा को गुस्सा आ गया. उस ने बंटी के हाथ से रिमोट छीना और चिल्ला कर बोली, ‘‘मैं क्या कह रही हूं, सुनाई नहीं दे रहा क्या?’’

सुधा का रिमोट छीनना और चिल्लाना बंटी को रास नहीं आया. उस के नथुने फूलने लगे और वह गुस्से से सुधा को घूरते हुए जोर से चीखा, ‘‘शटअप, यू ब्लडी बास्टर्ड.’’

अंगरेजी में दी गई बंटी की गाली के मतलब सुधा नहीं समझी थी इसलिए उस का तमाचा बंटी के गाल पर नहीं पड़ा. वह असहाय और बेबस नजरों से सुधीर को देखने लगी.

पत्नी की हालत पर गुस्से की बजाय सुधीर को तरस आता. वह पत्नी को यह नहीं बताना चाहता था कि बंटी की अंगरेजी में दी गई गाली पंजाबी में दी गई उस गाली से बेहतर नहीं थी जिस की वजह से उस ने एक दिन बंटी के गाल पर तमाचा मारा था.

सच्ची श्रद्धांजलि : दूसरी शादी के पीछे क्या थी विधवा निर्मला की वजह?

सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी. मुझे चिढ़ हुई कि रविवार के दिन भी चैन से सोने को नहीं मिला. फोन उठाया तो नीता बूआ की आवाज आई, ‘‘रिया बेटा, शाम तक आ जाओ. तुम्हारे पापा और निर्मला की शादी है.’’

मुझे बहुत तेज गुस्सा आ गया. लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘नीता बूआ, आप को मेरे साथ इतना भद्दा मजाक नहीं करना चाहिए.’’

वे तुरंत बोलीं, ‘‘बेटा, मैं मजाक नहीं कर रही हूं, बल्कि तुम्हें खबर दे रही हूं.’’

मैं ने फोन काट दिया. मुझ में पापा की शादी के संबंध में बातचीत करने का सामर्थ्य नहीं था. बूआ का 2 बार और फोन आया किंतु मैं ने काट दिया. मेरी चीख सुन राजेश भी जाग गए तथा मुझ से बारबार पूछने लगे कि किस का फोन था, क्या बात हुई, मैं इतना परेशान क्यों हूं वगैरहवगैरह. मैं तो अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘आदमी इतना भी मक्कार हो सकता है. अपनी जान से प्यारी पत्नी के देहांत के ढाई माह के अंदर ही उस की प्यारी सखी से शादी रचा ले, इस का मतलब तो यही है कि मम्मी के साथ उन के पति और उन की सखी ने षड्यंत्र रचा है.’

पापा दूसरी शादी कर रहे हैं, यह सुन कर मैं हतप्रभ थी. रोऊं या हंसूं, चीखूं या चिल्लाऊं, करूं तो क्या करूं, पापा की शादी की खबर गले में फांस की तरह अटकी हुई थी. मम्मी को गुजरे अभी सिर्फ ढाई माह हुए हैं, उन की मृत्यु के शोक से तो मन उबर नहीं पा रहा है. रातदिन मम्मी की तसवीर आंखों के सामने छाई रहती है. घर, औफिस सभी जगह काम मशीनी ढंग से करती रहती हूं, पर दिलोदिमाग पर मम्मी ही छाई रहती हैं. अपने मन को स्वयं ही समझाती रहती हूं. मम्मी तो इस दुनिया से चली गईं, अब लौट कर आएंगी भी नहीं. जिंदगी तो किसी के जाने से रुकती नहीं. मैं खुद भी कितनी खुश हूं कि मेरी मम्मी मुझे सैटल कर, गृहस्थी बसा कर गई हैं. कितने ऐसे अभागे हैं इस संसार में जिन की मम्मी  उन के बचपन में ही गुजर जाती हैं, फिर भी वे अपना जीवन चलाते हैं.

मम्मी के साथसाथ इन दिनों पापा भी बहुत याद आते, मन बहुत भावुक हो आता पापा को याद कर. मन में विचार आता कि मैं तो अपनी गृहस्थी, औफिस और अपनी प्यारी गुडि़या रिंकू में व्यस्त होने के बावजूद मम्मी को भुला नहीं पाती हूं, बेचारे पापा का क्या हाल होता होगा? वे अपना समय मम्मी के बिना किस तरह बिताते होंगे? 30 वर्षों का सुखी विवाहित जीवन दोनों ने एकसाथ बिताया था. मम्मी के साथ साए की तरह रहते थे. उन की दिनचर्या मम्मी के इर्दगिर्द ही घूमती रहती थी.

मम्मी की मृत्यु के बाद 4 दिन और पापा के साथ रह कर मैं वापस लखनऊ आ गई थी. मैं ने पापा को लखनऊ अपने साथ लाने की बहुत जिद की, पापा को अकेला छोड़ना मुझे नागवार लग रहा था. पापा 2 साल पहले रिटायर्ड हो चुके थे. मेरा सोचना था कि मम्मी के बिना वे अकेले यहां क्या करेंगे.

पापा मेरे साथ आने के लिए एकदम तैयार नहीं हुए. उन का तर्क था, ‘यह घर मैं ने और हेमा ने बड़े प्यार से बनवाया है, सजायासंवारा है. इस घर के हर कोने में मुझे हेमा नजर आती है. उस की यादों के सहारे मैं बाकी जिंदगी गुजार लूंगा. फिर तुम लोग हो ही, जब फुरसत मिले, मिलने चले आना या मुझे जरूरत लगेगी तो मैं बुला लूंगा. 4-5 घंटे का ही तो रास्ता है.’

मैं ने कहा, ‘ठीक है पापा, किंतु मेरी तसल्ली के लिए कुछ दिनों के लिए चलिए.’

पापा तैयार नहीं ही हुए. मैं सपरिवार लखनऊ लौट आई. अपनी गृहस्थी में रमने की लाख कोशिशों के बावजूद पूरे समय मम्मीपापा पर ध्यान लगा रहता. पापा से रोज फोन से बात कर लेती, पापा ठीक से हैं, यह जान कर मन को कुछ तसल्ली होती.

आज अचानक नीता बूआ से पापा की शादी की खबर मिलना, मेरे जीवन में झंझावात से कम न था. मेरी दशा पागलों जैसी हो रही थी. मन में बारबार यही खयाल आता कि बूआ ने कहीं मजाक ही किया हो, यह खबर सही न हो.

निर्मला आंटी और मम्मी कालेज के दिनों से ही अच्छी सहेलियां थीं और शादी के बाद भी दोनों अच्छी सहेलियां बनी रहीं. निर्मला आंटी आगरा में रहती थीं. उन के पति बेहद स्मार्ट और हैंडसम थे व अच्छे ओहदे पर कार्यरत थे, लेकिन शादी के 2 साल बाद ही एक ऐक्सीडैंट में उन का देहांत हो गया. निर्मला आंटी को उन के पति के औफिस में काम पर रख लिया गया. लेकिन उन के ससुराल वालों ने उन्हें ‘अभागी’ मान उन से संबंध तोड़ लिया. उन की सास बहुत कड़े स्वभाव की थीं. उन्होंने साफ कह दिया कि बेटे से ही बहू है, जब बेटा ही नहीं रहा तो बहू कैसी?

निर्मला आंटी एकदम अकेली हो गई थीं, लेकिन मम्मी ने उन्हें टूटने नहीं दिया. मम्मी और निर्मला आंटी में बहुत प्रेम था. मम्मी उन्हें प्रेम से निम्मो कहती थीं तथा आंटी मम्मी को हेमू कह कर पुकारती थीं. मम्मी अब हर मौके पर निर्मला आंटी को अपने घर बुला लेती थीं. मम्मी अकसर आंटी से कहतीं, ‘निम्मो, फिर से शादी कर ले, अकेले जिंदगी पहाड़ जैसी लगेगी, मन की कहनेसुनने को तो कोई होना चाहिए.’ निर्मला आंटी हमेशा ‘न’ कर देतीं, कहतीं, ‘हेमू, यदि मेरे जीवन में उन का साथ होना होता तो उन का देहांत क्यों होता? यदि मेरे जीवन में अकेला, सूनापन है तो वही सही.’ मम्मी फिर भी कहतीं, ‘निम्मो, भविष्य की तो सोच, हर दिन एक से नहीं होते, कोई सहारा चाहिए होता है.’ निर्मला आंटी कहतीं, ‘हेमू, तू और तेरा परिवार है न, इतना अपनापन तुम लोगों से मिलता है, उस सहारे जिंदगी काट लूंगी.’  मम्मी के बहुत समझाने पर भी निर्मला आंटी दूसरी शादी के लिए तैयार न होतीं.

एक बार उन्होंने मम्मी से सख्ती से कह भी दिया था, ‘देख हेमू, यदि तू मुझे आइंदा पुनर्विवाह के लिए बोलेगी तो मैं तेरे पास आना छोड़ दूंगी,’ उन्होंने बहुत भावुक हो कर कहा था, ‘रमेश के साथ गुजरे 2 सालों पर मेरी पूरी जिंदगी कुरबान है हेमू.’ मम्मी ने आंटी को गले से लगाते हुए कहा था, ‘निम्मो, मैं आइंदा तुझ से विवाह के लिए नहीं बोलूंगी, मुझे हेमेश की कसम.’

पापा निर्मला आंटी को ‘साली साहिबा’ कह कर पुकारते थे. मम्मी को यदि पापा की मरजी के खिलाफ पापा से काम करवाना होता तो वे निर्मला आंटी के माध्यम से ही पापा को कहलवाती थीं तथा पापा यह कहते हुए कि साली साहिबा, आप की बात टालने की हिम्मत तो मुझ में नहीं है, काम कर देते थे.

बड़ा प्यारा रिश्ता था पापा और निर्मला आंटी का. दोनों के रिश्तों में शुद्ध लगाव के अलावा ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता था जिसे आपत्तिजनक कहा जा सके. वे दोनों कभी भी अकेले में मिलते हुए या बातें करते हुए भी नजर नहीं आते थे. दोनों के रिश्तों की धुरी तो मम्मी ही नजर आती थी. फिर दोनों ने शादी कैसे कर ली और क्यों कर ली. दोनों इतने समय से मम्मी को छल रहे थे. इस गुत्थी को मैं किसी भी तरह सुलझा नहीं पा रही थी.

मम्मी और निर्मला आंटी रंगरूप, स्वभाव में बहुत मेल खाती थीं. पहली नजर में तो वे जुड़वां बहनें ही नजर आती थीं. मम्मी के कैंसर का पता अंतिम स्थिति में चल पाया. पापा ने मम्मी के इलाज और सेवा में रातदिन एक कर दिए.

मैं ने उन्हें छिपछिप कर रोते हुए देखा था. मम्मी की हालत की खबर निर्मला आंटी को भी दे दी गई. वे खबर मिलते ही मम्मी के पास पहुंच गईं. आते ही मम्मी की सेवा में लग गईं. कितना प्यार करती थीं मम्मी को वे, कभीकभी उन की बुदबुदाहट मुझे सुनाई भी पड़ी थी, ‘यह क्या हो गया? मेरी हेमू को कुछ नहीं होना चाहिए, उसे बचा लो, मुझे उठा लो, उस के सारे कष्ट मुझे दे दो.’

फिर वही सवाल दिमाग को मथने लगता कि कैसे दोनों ने शादी कर ली? इस का मतलब तो यही है कि दोनों मम्मा के सामने नाटक कर रहे थे.

मैं रातदिन पापा और आंटी की शादी की गुत्थी में उलझी रहती, एक सेकंड भी मेरा मन इस उलझन से निकल नहीं पाता था. नतीजतन, इस का असर मेरे स्वास्थ्य पर पड़ना ही था, सो पड़ गया. राजेश ने मुझे डाक्टर को दिखाया. सारी जांचपड़ताल के बाद डाक्टर का दोटूक निर्णय यही था कि सब रिपोर्ट नौर्मल हैं, ये बहुत टैंशन में हैं, इतना टैंशन इन को काफी नुकसान पहुंचा सकता है. इन्हें खुश रहने की ही आवश्यकता है. राजेश ने मुझे बड़े प्यार से समझाया, ‘‘रिया, जो होना था सो हो गया, मम्मी चली गई हैं, तुम्हारे लाख चिंता करने से भी वापस नहीं आएंगी. सो, मन को दुखी मत करो.’’

मैं ने कहा, ‘‘राजेश, मम्मी को गुजरे ढाई माह हो रहे हैं, मैं ने उस दुख को सहज ले लिया है. मैं क्या करूं, पापा और आंटी ने शादी कर मम्मी के साथ विश्वासघात किया है, यह मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा है.’’

राजेश बहुत संयत हो कर बोले, ‘‘यों अपने को जलाने से तो कोई फायदा नहीं है. मुझे ऐसा लगता है, जरूर कोई कारण होगा जो उन लोगों ने ऐसा कदम उठाया है, दोनों ही बहुत सुलझे हुए और समझदार इंसान हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘राजेश, क्या कारण हो सकता है, दोनों सब की आंखों में धूल झोंक कर प्रेम किया करते होंगे. अभी तक दोनों नाटक ही कर रहे थे, बल्कि मुझे तो पूरा विश्वास है कि दोनों मम्मी की मृत्यु का इंतजार ही करते होंगे. उन्हें अपने रास्ते का कांटा ही समझते रहे होंगे.’’

राजेश ने थोड़ा सख्ती से मुझ से कहा, ‘‘रिया, हम भी बच्चे नहीं हैं. हमारी आंखों पर पट्टी नहीं बंधी हुई है जो हमारी आंखों के सामने प्रेमलीला खेली जाए और वह हमें दिखाई भी न दे.’’

मैं ने मायूस हो कर कहा, ‘‘राजेश, मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? किस के आगे रोऊं, चीखूं, चिल्लाऊं. जी में आता है उन दोनों से खूब झगड़ूं कि आप लोगों की नीयत में ही खोट था जो मम्मी चल बसीं और अब दोनों शादी रचा रहे हैं.’’

राजेश ने मेरे हाथ को अपने हाथों में ले कर बहुत ही संयत ढंग से कहा, ‘‘रिया, मेरी बात ध्यान से सुनो. 4 दिनों बाद रिंकू की गरमी की छुट्टियां शुरू हो रही हैं. हम भी छुट्टी ले कर पापा के पास चलते हैं.’’

मैं ने झट से कहा, ‘‘राजेश, उन्हें तो हम कबाब में हड्डी की तरह लगेंगे. वे दोनों तो हनीमून के मूड में होंगे. अब निर्मला आंटी मेरी आंटी नहीं, बल्कि मेरी सौतेली मां बन बैठी हैं, न जाने कैसा व्यवहार करें,’’ मैं ने बात और विस्तार से समझाने के लिए राजेश से कहा, ‘‘अब तो पापा पर भी भरोसा नहीं रहा. कहीं वे हम लोगों का अपमान न कर बैठें? मेरी तो छोड़ो, तुम्हारे अपमान को मैं बरदाश्त न कर पाऊंगी.’’

राजेश ने मेरे कंधों पर हाथ रखते हुए बड़े धैर्य से जवाब दिया, ‘‘यदि नहीं मिलना चाहेंगे या हमारा अपमान करेंगे, हम तुरंत लौट आएंगे और फिर दोबारा उन के पास नहीं जाएंगे. हम यही समझ लेंगे कि मम्मी तो अब इस दुनिया में नहीं हैं और पापा से अब हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

मैं चुपचाप राजेश की बातें सुन रही थी.

‘‘तुम्हें मुझ से वादा करना होगा कि तुम उस के बाद पापा की चिंता करना छोड़ दोगी,’’ उन्होंने बड़े प्यार से कहा, ‘‘मुझ से मेरी बीवी उदास और बुझीबुझी देखी नहीं जाती इसलिए एक बार तो यह रिस्क लेना ही होगा. एक बार चल कर देखना ही होगा.’’

हम जब पापा के पास पहुंचे उस समय सुबह के लगभग 8 बज रहे थे. पापा बागबानी में लगे हुए थे. हमें देखते ही गेट तक आए और बोले, ‘‘अरे, तुम लोग बिना खबर दिए आए, खबर करते तो मैं स्टेशन आ जाता.’’

राजेश ने धीरे से मुझ से कहा, ‘‘रिया, गुस्से को जब्त रखना और अपनी तरफ से कुछ भी अपमानजनक नहीं करना,’’ राजेश ने टैक्सी से निकलते हुए कहा, ‘‘अचानक ही प्रोग्राम बन गया इसलिए चले आए,’’ मैं अपने क्रोध को किसी तरह रोकने की कोशिश कर रही थी, फिर भी मुंह से निकल ही गया, ‘‘हमें लगा, आप को फुरसत कहां होगी, फिर हमें लाने की आप को अनुमति मिले न मिले.’’

पापा कुछ भी न बोले. हमें अंदर लिवा लाए और बोले, ‘‘निम्मो, देखो कौन आया है?’’

पापा के मुंह से निम्मो सुन मैं अंदर ही अंदर तिलमिला गई. निर्मला आंटी तुरंत हाथ पोंछती हुई हमारे पास आ गईं, शायद किचन में थीं. आते ही बोलीं, ‘‘अरे बेटी रिया, कैसी हो? राजेश, रिंकू तुम सभी को देख कर बहुत खुशी हो रही है,’’ फिर रिंकू को दुलारते हुए बोलीं, ‘‘तुम लोग फ्रैश हो लो, मैं नाश्ते की तैयारी करती हूं. हम सभी साथ ही नाश्ता करेंगे.’’

मैं ने कुछ भी नहीं कहा. अपना मायका आज मुझे अपना सा लग ही नहीं रहा था. चुपचाप हम ने थोड़ाथोड़ा नाश्ता कर लिया. निर्मला आंटी ने राजेश के पसंद के आलू के परांठे बनाए थे तथा रिंकू की पसंद की गाढ़ी सेंवइयां भी बनाई थीं.

पापा का बैडरूम वैसा ही था जैसा मम्मी के समय रहता था. घर की साजसज्जा भी वैसी ही थी, जैसी मम्मी के समय रहती थी. परदे, चादरें सब मम्मी की पसंद के ही लगे हुए थे. बैडरूम में मम्मी की बड़ी सी तसवीर लगी हुई, उस पर सुंदर सी माला पड़ी हुई थी. मुझे मायके आए हुए 2 दिन हो चुके थे. निर्मला आंटी से मैं ने कोई बात नहीं की थी. पापा से भी कुछ खास बात नहीं हुई थी. शाम को पापा रिंकू को ले कर घूमने निकले थे, मैं और राजेश टैरेस पर गुमसुम बैठे हुए थे, तभी निर्मला आंटी आईं और मेरे हाथ में एक कागज थमाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी रिया, इसे पढ़ लो. मैं खाना बनाने जा रही हूं. क्या खाना पसंद करोगी, बता देतीं तो अच्छा रहता.’’

मैं ने बेरुखी से कहा, ‘‘जो आप की इच्छा, हम लोगों को खास भूख नहीं है.’’

वे चली गईं. तब मैं ने कटाक्ष करते हुए राजेश से कहा, ‘‘खाना हमारी पसंद से बनेगा और शादी के समय हमारी पसंद कहां गई थी? हुंह, बात बनाना भी कोई इन से सीखे. कितनी बेशर्मी से नाटक जारी है,’’ कहते हुए मैं ने बेमन से कागज खोला, यह तो मम्मी का पत्र था :

प्यारी प्यारी निम्मो,

आज मैं तुझ से अपनी हेमेश की कसम तोड़ने की इजाजत लेते हुए पुनर्विवाह की बात कर रही हूं. आशा करती हूं, मेरी अंतिम इच्छा पूरी करने से ‘न’ नहीं करेगी. मेरी तो विदाई की वेला आ गई है. तुझ से, हेमेश से, बेटी रिया, राजेश, रिंकू सभी से इच्छा न होते हुए भी विदा तो मुझे होना ही पड़ेगा.

एक दिन मैं ने हेमेश और डाक्टर की बातें सुन ली थीं. मुझे अपनी बीमारी का हाल मिल गया था. मैं अच्छी तरह समझ चुकी थी कि मैं चंद दिनों की मेहमान हूं. मैं ने सब से नजर बचा कर यह पत्र लिखा क्योंकि अपनी अंतिम इच्छा बताना जरूरी था. मन की बात तुम लोगों को बताए बिना भी तो मेरी आत्मा को शांति न मिल सकेगी.

मेरे बाद हेमेश एकदम अकेले हो जाएंगे. तू भी अब रिटायर होने वाली है. मेरे हेमेश को अपना लेना. दोनों एकदूसरे का सहारा बन जाना. हेमेश को तो जानती ही है, अपनी सेहत के प्रति कितने लापरवाह रहते हैं, तू रहेगी तो उन्हें वक्त पर हर चीज मिलेगी. प्यारी निम्मो, हेमेश की साली साहिबा से बीवी साहिबा बन जाना.

रिया बेटी मेरे जाने से बहुत दुखी होगी. फिर धीरेधीरे रियाराजेश अपनी जिंदगी, अपनी गृहस्थी में मन लगा लेंगे. उन की आंटी से उन की मम्मी बन जाना. मेरी बेटी का मायका पूर्ववत बना रहेगा.

थक गई हूं, अब लिखा नहीं जा रहा है. बोल देती हूं, तुम दोनों की शादी ही तुम दोनों की तरफ से मेरे लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

तेरी,

हेमू

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे. राजेश ने भी मेरे साथ ही पत्र पढ़ लिया था. उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोले, ‘‘चलो, सारी गलतफहमियां दूर हो गईं. चल कर देखें मम्मी क्या कर रही हैं?’’

हम लोग किचन में गए. देखा, निर्मला आंटी खाना बनाने में व्यस्त थीं. पापा भी किचन में ही थे. वे सलाद काट रहे थे. मैं निर्मला आंटी के पास गई तथा बोली, ‘‘क्या बना रही हैं, मम्मी?’’

निर्मला आंटी की आंखें डबडबा आईं. उन्होंने प्यार से मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया फिर धीरे से कहा, ‘‘हेमेश और मेरा शादी करने का एकदम मन नहीं था. हम ने कभी एकदूसरे को इस नजर से देखा ही नहीं था लेकिन हेमू की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए शादी करनी पड़ी. मंदिर में तुम्हारे बूआ, फूफा की उपस्थिति में हम ने एकदूसरे को माला पहनाई, हेमेश ने मेरी सूनी मांग में सिंदूर भर दिया, हो गई शादी. तुम्हारी नीता बूआ ने मिठाई खिला हमारा मुंह मीठा कराया.’’

मैं चुपचाप उन्हें देखे जा रही थी.

उन्होंने आगे कहा, ‘‘तुम्हें बताने की हिम्मत मुझ में और हेमेश में न थी.

तुम्हें बताने की जिम्मेदारी नीता ने ली, उस ने तुम्हें सारी बातें बताने की कोशिश की, लेकिन तुम ने उस के फोन काट दिए, बात नहीं सुनी उस की. वैसे बेटा, तुम ने भी वही किया जो एक बेटी अपनी मम्मी को खोने के बाद इस तरह की खबर सुन कर करेगी, हमें तुम से…’’

मैं ने बीच में ही निर्मला आंटी की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप लोगों से माफी मांगने लायक तो नहीं हूं, लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए. सौरी मम्मी, सौरी पापा.’’

मम्मीपापा दोनों ने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगा लिया. मैं ने देखा राजेश, रिंकू को गोद में लिए पूरी तरह संतुष्ट नजर आ रहे थे. वे भी मुझ से नजर मिलते ही मुसकरा दिए. इस दौरान एक विचार दिल और दिमाग को लगातार मथ रहा था कि दो उदास और तन्हा प्राणियों को एक कर जीने का मौका देना क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है? इस विचार के आते ही मम्मी के प्रति श्रद्धा से सिर झुक गया.

प्यार की खातिर : क्या हुआ समुद्र किनारे बैठी रश्मि के साथ?

हमेशा की तरह इस बार भी जब रोहिणी और कार्तिक के बीच जम कर बहस हुई, तो कार्तिक झगड़ा समाप्त करने की गरज से अपने कमरे में जा कर लैपटौप में व्यस्त हो गया.

रोहिणी उत्तेजित सी कुछ देर कमरे में टहलती रही. फिर एकाएक बाहर चल दी.

गेट से निकल ही रही थी कि वाचमैन दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘कहीं जाना है मेमसाब? टैक्सी बुला दूं?’’

‘‘नहीं, मैं पास ही जा रही हूं. 10 मिनट में लौट आऊंगी.’’

रात के 10 बज रहे थे, पर कोलाबा की सड़कों पर अभी भी काफी गहमागहमी थी. दुकानें अभी भी खुली हुई थीं और लोग खरीदारी कर रहे थे. रेस्तरां और हलवाईर् की दुकानों के आसपास भी भीड़ थी.

रोहिणी के मन में खलबली मची हुई थी. आजकल जब भी उस की पति के साथ बहस होती, तो बात कार्तिक के परिवार पर ही आ कर थमती. कार्तिक अपने मातापिता का एकलौता बेटा था. अपनी मां की आंखों का तारा, उन का बेहद दुलारा. उस की 3 बड़ी बहनें थीं, जो उसे बेहद प्यार करती थीं और उसे हाथोंहाथ लेती थीं.

रोहिणी को इस बात से कोई परेशानी नहीं थी, पर कभीकभी उसे लगता था कि उस का पति अभी भी बच्चा बना हुआ है. वह एक कदम भी अपनी मरजी से नहीं उठा सकता है. रोज जब तक दिन में एकाध बार वह अपनी मां व बहनों से बात नहीं कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता था.

जब भी इस बात को ले कर रोहिणी भुनभुनाती तो कार्तिक कहता, ‘‘पिताजी के देहांत के बाद उन की खोजखबर लेने वाला मैं अकेला ही तो हूं. मेरे पैदा होने के बाद से मां बीमार रहतीं… मेरी तीनों बहनों ने ही मेरी परवरिश की है. मेरे पिता के देहांत के बाद मेरी मां ने मुझे बड़ी मुश्किल से पाला है. मैं उन का ऋण कभी नहीं चुका सकता.’’

ऐसी दलीलों से रोहिणी चुप हो जाती थी. पर उसे यह बात समझ में न आती थी कि बच्चों को पालपोस कर बड़ा करना हर मातापिता का फर्ज होता है, तो इस में एहसान की बात कहां से आ गई? पर वह जानती थी कि कार्तिक से बहस करना बेकार था. वैसे उसे अपने पति से और कोई शिकायत नहीं थी. वह उस से बेहद प्यार करता था. वह एक भला इनसान था और उस के प्रति संवेदशील था. उसे कोफ्त केवल इस बात से होती कि उसे अपने पति का प्यार उस के घर वालों से साझा करना पड़ता है.

जब उस की शादी हुई तो कार्तिक ने उस से कहा था, ‘‘जानेमन, तुम्हें पूरा अधिकार है कि तुम अपना घर जैसे चाहे सजाओ, जिस तरह चाहे चलाओ. मैं ने अपने को भी तुम्हारे हवाले किया. मेरी तुम से केवल एक ही गुजारिश है कि चूंकि मैं अपने परिवार से बेहद जुड़ा हुआ हूं इसलिए चाहता हूं तुम भी उन से मेलजोल रखो, उन का आदरसम्मान करो. मैं अपनी मां की आंखों में आंसू नहीं देख सकता और अपनी बहनों को भी किसी भी कीमत पर दुख नहीं पहुंचाना चाहता.’’

उसे याद आया कि अपने हनीमून पर जब वे सिंगापुर गए थे, तो उन्होंने खूब मौजमस्ती की थी.

एक दिन जब वे बाजार से हो कर गुजर रहे थे, तो कार्तिक एक जौहरी की दुकान के सामने ठिठक गया. बोला, ‘‘चलो जरा इस दुकान में चलते हैं.’’

वह मन ही मन पुलकित हुई कि क्या कार्तिक उसे कोई गहना खरीद कर देने वाला है.

उन्होंने दुकान में रखे काफी गहने देख डाले. फिर कार्तिक ने एक हार उठा कर कहा, ‘‘यह हार तुम्हें कैसा लगता है?’’

‘‘अरे, यह तो बहुत ही खूबसूरत है,’’ खुशी से बोली.

‘‘तुम्हें पसंद है तो ले लो. हमारे हनीमून की एक यादगार भेंट’’

‘‘ओह कार्तिक, तुम कितने अच्छे हो. लेकिन इतनी महंगी…?’’

‘‘कीमत की तुम फिक्र न करो और हां सुनो 1-1 गहना अपनी तीनों बहनों के लिए भी ले लेते हैं. यहां से लौटेंगे तो वे सब मुझ से किसी भेंट की अपेक्षा करेंगी.’’

सुन कर रोहिणी मन ही मन कुढ़ गई पर कुछ बोली नहीं.

‘‘और मांजी के लिए?’’ उस ने पूछा.

‘‘उन के लिए एक शाल ले लेते हैं.’’

वे घर सामान से लदेफदे लौटे. उस के बाद भी हर तीजत्योहार पर अपने परिवार के लिए तोहफे भेजता. जब भी विदेश जाता, तो उस के पास भानजेभानजियों की मनचाही वस्तुओं की लिस्ट पहले पहुंच जाती. अपने परिवार वालों के लिए उन के कहने की देर होती कि वह उन की फरमाइश तुरंत पूरी कर देता.

रोहिणी को इस पर कोई आपत्ति न थी. कार्तिक एक आईटी कंपनी में कार्यरत था और अच्छा कमा रहा था. उसे पूरा हक था कि वह अपनी कमाई जैसे चाहे, जिस पर चाहे, खर्च करे. पर उसे यह बात बुरी तरह अखरती थी कि कार्तिक के जिस कीमती समय को वह अपने लिए सुरक्षित रखना चाहती उसे भी वह बिना हिचक अपने परिवार को समर्पित कर देता. रोहिणी को अपने पति का प्यार उस के घर वालों के साथ बांटना बहुत नागवार गुजरता.

अब आज ही की बात ले लो. उन की शादी की सालगिरह थी. वह कब से सोच रही थी कि इस बार एक शानदार जगह जा कर ठाट से छुट्टियां मनाएंगे पर सब गुड़ गोबर हो गया. जब से उस की 2-4 किट्टी पार्टी वाली सहेलियां इटली हो कर आई थीं वे लगातार उस जगह की तारीफ के पुल बांध रही थीं कि उन्होंने वहां कितना लुत्फ उठाया. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे. उस की 1-2 सहेलियों के पति जो अरबपति थे, वे उन की दौलत दोनों हाथों से लुटातीं थीं और नित नईर् साडि़यों और गहनों की नुमाइश करती थीं. इस से रोहिणी जलभुन जाती थी.

बड़ी मुश्किल से उस ने अपने पति को राजी कर लिया था कि इस बार वे भी विदेश जा कर दिल खोल कर पैसा खर्च करेंगे, खूब मौजमस्ती करेंगे.

उस ने मन ही मन कल्पना की थी कि जब वह फ्रैंच शिफौन की साड़ी में लिपटी, महंगे फौरेन सैंट की खुशबू बिखेरती, हाथ में चौकलेट का डब्बा लिए किट्टी पार्टी में पहुंचेगी तो सब उसे देख कर ईर्ष्या से जल मरेंगी पर ऊपरी मन से उस की खूब तारीफ करेंगी.

मगर आज रात खाने के बाद जब उस ने यह बात उठाई तो कार्तिक बोला, ‘‘इस बार तो विदेश जाना जरा मुश्किल होगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इसलिए कि बड़ी दीदी शकुंतला की बेटी रीना की शादी पक्की हो गई है. मैं ने तुम्हें बताया तो था… आज ही सुबह उन का फोन आया कि इसी महीने सगाई की रस्म है और हमारा वहां पहुंचना बहुत जरूरी है. आखिर मैं एकलौता मामा हूं न… भानजी की शादी में मेरी प्रमुख भूमिका रहेगी.’’

‘‘आप के घर में तो हमेशा कुछ न कुछ लगा रहता है,’’ वह मुंह बना कर बोली, ‘‘कभी किसी का जन्मदिन है, तो कभी किसी का मुंडन तो कभी कुछ और.’’

‘‘अरे जन्मदिन तो हर साल आता है. उस की इतनी अहमियत नहीं… पर शादीब्याह तो रोजरोज नहीं होते न? दीदी ने बहुत आग्रह किया है कि हम जरूर आएं. वे कोई भी बहाना सुनने को तैयार नहीं हैं.’’

‘‘मैं पूछती हूं कि क्या हम कभी अपनी मरजी से नहीं जी सकते?’’

‘‘डार्लिंग, इतना क्यों बिगड़ती हो… हम शादी की सालगिरह मनाने अगले साल भी तो जा सकते हैं… अभी से तय कर लो कि कहां जाना है और कितने दिनों के लिए जाना है… मैं सारी प्लानिंग तुम्हीं पर छोड़ता हूं.’’

‘‘जी हां, बड़ी मेहरबानी आप की… हम सारा प्लान बना लेंगे और फिर आप के घर वालों का एक फोन आएगा और सब कुछ कैंसल.’’

‘‘यह हमेशा थोड़े न होता है?’’

‘‘यह हमेशा होता है… हर बार होता है. हमारी अपनी कोई जिंदगी ही नहीं है.’’

‘‘तुम बेकार में नाराज हो रही हो… क्या मैं ने कभी तुम्हें किसी चीज से वंचित रखा है? हमेशा तुम्हारी इच्छा पूरी की है. तुम्हारे सारे नाजनखरे सहर्ष उठाता हूं.’’

‘‘इस में कौन सी बड़ी बात है…. यह तो हर पति करता है, बशर्ते वह अपनी पत्नी से प्यार करता हो.’’

‘‘तो तुम्हारा खयाल है कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता?’’ कार्तिक रोहिणी की आंखों में झांक कर मुसकराया.

‘‘लगता तो ऐसा ही है.’’

‘‘रोहिणी, यह तुम ज्यादती कर रही हो. जानती हो मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम देख कर मेरे यारदोस्त मुझे बीवी का गुलाम कह कर चिढ़ाते हैं.’’

‘‘अच्छा? वे ऐसा क्यों कहते हैं भला, जब मेरी हर बात काटी जाती है… मेरा हर प्रस्ताव ठुकराया जाता है. हां, अगर कोई तुम्हें मां के पल्लू से बंधा लल्लू या बहनों का पिछलग्गू कहे तो मैं मान सकती हूं.’’

कार्तिक खिलखिला कर हंस पड़ा, ‘‘तुम्हारा भी जवाब नहीं.’’

कार्तिक ने टीवी औन कर लिया. रोहिणी थोड़ी देर बड़बड़ाती रही. वह इस मसले को कल पर नहीं छोड़ना चाहती थी. अभी कोई फैसला कर लेना चाहती थी. अत: बोली, ‘‘तो क्या तय किया तुम ने?’’

‘‘किस बारे में?’’

‘‘यह लो घंटे भर से मैं क्या बकबक किए जा रही हूं… हम इस टूअर पर जा रहे हैं या नहीं?’’

‘‘कह तो दिया भई कि इस बार जरा मुश्किल हैं. तुम तो जानती हो कि मुझे साल में सिर्फ 2 हफ्ते की छुट्टी मिलती है. शादी में जाना जरूरी है… पर अगले साल इटली अवश्य…’’

‘‘जी नहीं, मुझे तुम इन खोखले वादों से नहीं टाल सकते.’’

‘‘पर अगले साल भी इटली उसी जगह बना रहेगा और हम दोनों भी.’’

‘‘और तुम्हारा परिवार भी तो वैसे ही सहीसलामत ही रहेगा.’’

‘‘तुम कभीकभी बड़ी बचकानी बातें करती हो.’’

‘‘हां, मैं तो हूं ही बेवकूफ, सिरफिरी, अदूरदर्शी…  सारी बुराइयां मुझ में कूटकूट कर भरी हैं.’’

‘‘तुम से इस विषय में बात करना बेकार है… अभी तुम्हारा दिमाग जरा गरम है. कल

सुबह ठंडे दिमाग से इस बारे में बात करेंगे.

मैं जरा दफ्तर का जरूरी काम निबटा कर आता हूं,’’ कह कार्तिक अपने औफिसरूम में चला गया.

रोहिणी अपनी बात न मनवा पाई तो गुस्से से बिफर गई. कुछ देर वह क्रोध में भरी बैठी रही. फिर सहसा उठ कर बाहर की ओर चल दी.

कोलाबा के बाजार में अभी भी काफी चहलपहल थी. रीगल सिनेमा के पास पहुंची तो देखा कि वहां भी भीड़ है. उस ने सोचा कि टिकट खरीद कर रात का शो देख ले. 2 घंटे आराम से बीत जाएंगे. पर फिर यह सोच कर कि इस बीच अगर कार्तिक ने उसे घर में न पाया तो वह परेशान हो जाएगा. उसे पागलों की तरह ढूंढ़ेगा. इधरउधर फोन घुमाएगा, अपना इरादा बदल दिया. फिर वह गेट वे औफ इंडिया की तरफ मुड़ गई.

यहां लोग समुद्र के किनारे बैठे ठंडी हवा का लुत्फ उठा रहे थे. रोहिणी भी वहां मुंडेर पर बैठ गईर् और अपनी नजरें समुद्र के पार क्षितिज पर गड़ा दीं.

समुद्र के बीच 2-3 समुद्री जहाज लंगर डाले थे. उन की बत्तियां पानी में झिलमिला रही थीं. रोहिणी ने हसरत भरी नजरों से समुद्र की गहराइयों में झांका. बस इस अथाह जल में समाने की देर है, उस ने सोचा. एक ही पल में उस के प्राणों का अंत हो जाएगा.

उस ने मन की आंखों से देखा कार्तिक उस के निष्प्राण शरीर से लिपट कर बिलख रहा है कि हाय प्रिये, मैं ने क्यों तुम्हारी बात न मानी. मैं जानता न था कि तुम इतनी सी बात पर मुझ से रूठ जाओगी और मुझे हमेशा के लिए छोड़ कर चली जाओगी.

पर नहीं, वह क्यों अपनी जान दे. उस ने अभी दुनिया में देखा ही क्या है और उस के ऊपर कौन सा गमों का पहाड़ टूट पड़ा है, जो वह अपनी जान देने की सोचे. ठीक है पति से थोड़ी खटपट हुई है. यह तो हर शादीशुदा स्त्री के जीवन का हिस्सा है. कभी खुशी तो कभी गम. और सच पूछा जाए तो उस के जीवन में खुशियां ज्यादा हैं गम न के बराबर.

वह आज जरा उत्तेजित है, विचलित है, क्योंकि उस की मनमानी नहीं हुई है. कभीकभी उस का पति किसी बात पर अड़ जाता है तो टस से मस नहीं होता और उसे मजबूरन उस के आगे हार माननी पड़ती है. उस की शादी को 4 साल हो गए और अभी तक वह समझ न पाई कि वह अपने पति से कैसे पेश आए.

खयालों में डूबी रोहिणी को समय का भान ही न हुआ. अचानक उस ने चौंक कर देखा कि उस के आसपास की भीड़ अब छंट चुकी थी. खोमचे वाले, आइसक्रीम वाले अपना सामान समेट कर चल दिए थे. हां, ताज होटल के सामने अभी भी काफी रौनक थी. लोग आ जा रहे थे. मुख्यद्वार पर संतरी मुस्तैद था.

एक और बात रोहिणी ने नोट की. समुद्र के किनारे की सड़क पर अब कुछ स्त्रियां भड़कीले व तंग कपड़े पहने चहलकदमी कर रही हैं. उन्हें देख कर साफ लगता है कि वे स्ट्रीट वाकर्स हैं यानी रात की रानियां.

हर थोड़ी देर में लोग गाडि़यों में आते. किसी एक स्त्री के पास गाड़ी रोकते, मोलतोल करते और वह स्त्री गाड़ी में बैठ कर फुर्र हो जाती. यह सब देख कर रोहिणी को बड़ी हंसी आई.

सहसा एक गाड़ी उस के पास आ कर रुकी. उस में 3-4 युवक सवार थे, जो कालेज के छात्र लग रहे थे.

‘‘हाय ब्यूटीफुल,’’ एक युवक ने कार की खिड़की में से सिर निकाल कर उसे आवाज दी, ‘‘अकेली बैठी क्या कर रही हो? हमारे साथ आओ… कुछ मौजमस्ती करेंगे, घूमेंगेफिरेंगे.’’

रोहिणी दंग रह गई कि क्या ये पाजी लड़के उसे एक वेश्या समझ बैठे हैं? हद हो गई. क्या इन्हें एक भले घर की स्त्री और एक वेश्या में फर्क नहीं दिखाई देता? अब यहां इतनी रात गए यों अकेले बैठे रहना ठीक नहीं. उसे अब घर चल देना चाहिए.

रोहिणी तेजी से घर का रूख किया. कार उस के पास से सर्र से निकल गई. पर कुछ ही देर बाद वही कार लौट कर फिर उस के पास आ कर रुकी.

‘‘आओ न डियर. होटल में बियर पीएंगे. तुम्हें चाइनीज खाना पसंद है? हम तुम्हें नौनकिंग रेस्तरां में खाना खिलाएंगे. उस के बाद डांस करेंगे. हम तुम्हारा भरपूर मनोरंजन करेंगे,’’ एक लड़के ने खिड़की से सिर निकाल कर कहा.

‘‘आप को गलतफहमी हुई है,’’ वह संयत स्वर में बोली, ‘‘मैं एक हाउसवाइफ हूं. अपने घर जा रही हूं.’’

‘‘तो चलो न हम आप को आप के घर छोड़ देते हैं. कहां रहती हैं आप?’’ वे लड़के कार धीरेधीरे चलाते हुए उस का पीछा करते रहे और लगातार उस से बातें करते रहे. जाहिर था कि वे कंगाल थे. वे बिना पैसा खर्च किए उस की सोहबत का आनंद उठाना चाहते थे.

रोहिणी अपनी राह चलती रही. सहसा गाड़ी उस के पास आ कर झटके से रुकी. एक लड़का गाड़ी से उतरा और उस के पास आ कर बोला, ‘‘आखिर इतनी जिद क्यों कर रही हो स्वीटी?’’ हम तुम्हें सुपर टाइम देंगे… आई प्रौमिस. चलो गाड़ी में बैठो और वह रोहिणी से हाथापाई करने लगा.

‘‘मुझे हाथ मत लगाना नहीं तो मैं शोर मचा पुलिस बुला लूंगी,’’ उस ने कड़क आवाज में कहा.

अचानक एक और कार उस के पास आ कर रुकी. उस का हौर्न जोर से बज उठा. रोहिणी ने चौंक कर देखा तो कार्तिक अपनी कार में बैठा उसे आवाजें लगा रहा था, ‘‘रोहिणी जल्दी आओ गाड़ी में बैठो.’’

रोहिणी अपना हाथ छुड़ा दौड़ कर गाड़ी में बैठ गई.

‘‘इतनी रात को यह तुम्हें क्या सूझी?’’ कार्तिक ने उसे लताड़ा, ‘‘यह क्या घर से अकेले बाहर निकलने का समय है?’’ रोहिणी तुम्हें कब अक्ल आएगी? देखा नहीं कैसेकैसे गुंडेमवाली रात को सड़कों पर घूमते शिकार की ताक में रहते हैं… मेरी नजर तुम पर पड़ गई वरना जानती हो क्या हो जाता?’’

‘‘क्या हो जाता?’’

‘‘अरे वे लोफर तुम्हें गाड़ी में बैठा कर अगवा कर ले जाते.’’

‘‘अगवा करना क्या इतना आसान है?’’ हर समय पुलिस की गाड़ी गश्त लगाती रहती है.

‘‘हां, लेकिन पुलिस के आने से पहले ही अगर वे गुंडे तुम्हें ले उड़ते तो तुम समझ सकती हो फिर वे तुम्हारा क्या हश्र करते? तुम्हें रेप कर के अधमरी हालत में कहीं झाडि़यों में फेंक कर चलते बनते. रोहिणी तुम रोज अखबार में इस तरह की घटनाओं के बारे में पढ़ती हो, टीवी पर देखती हो. फिर भी तुम ने ऐसा खतरा मोल लिया. तुम्हारी अक्ल क्या घास चरने चली गई?’’

‘‘ये सब वे कैसे कर पाते?’’ रोहिणी ने प्रतिवाद किया, ‘‘मैं जोर से चिल्लाती तो भीड़ इकट्ठी हो जाती, पुलिस पहुंच जाती.’’

‘‘ये सब कहने की बातें हैं. इस सुनसान सड़क पर तुम्हारे शोर मचाने से पहले ही बहुत कुछ घट जाता. वे तुम्हें मिनटों में गायब कर देते और फिर तुम्हारा अतापता भी न मिलता. मत भूलो कि वे 4 थे तुम अकेली. तुम उन से मुकाबला कैसे कर पातीं. इस तरह की हठधर्मिता की वजह से ही आए दिन औरतों के साथ हादसे होते रहते हैं. इतनी रात को अकेले घर से निकलना, अनजान लोगों से लिफ्ट लेना, गैरों के साथ टैक्सी शेयर करना ये सब सरासर नादानी है.’’

रोहिणी ने चुप्पी साध ली. घर पहुंच कर कार्तिक ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया, ‘‘डार्लिंग एक वादा करो कि अब से जब भी तुम मुझ से खफा होगी तो बेशक मुझे जो चाह कर लेना पर इस तरह का पागलपन नहीं करोगी,’’ कह उस ने इटली जाने के लिए होटल की बुकिंग और प्लेन के टिकट रोहिणी को थमा दिए.

‘‘यह क्या? तुम तो कह रहे थे कि इस साल जाना नहीं हो सकता.’’

‘‘हां, कहा तो था, पर मैं अपनी प्रिये का कहना कैसे टाल सकता हूं?’’

‘‘प्रोग्राम कैंसल कर दो.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अरे भाई, शकुंतला दीदी की बेटी की शादी जो हो रही है… हमें वहां जाना पड़ेगा न.’’

‘‘दीदी से शादी में न आने का कोई बहाना बना दूंगा.’’

‘‘जी हां, और फिर सब से डांट सुनोगे. तुम तो आसानी से छूट जाओगे पर सब मुझे ही परेशान करेंगे कि रोहिणी अपने ससुराल वालों से अलगथलग रहती है और अपने पति को भी अपने चंगुल में कर रखा है. उसे अपने परिवार से दूर कर देना चाहती है.’’

‘‘हद हो गई रोहिणी. चित भी तुम्हारी और पट भी तुम्हारी. तुम से मैं कभी पार नहीं पा सकता.’’

‘‘सो तो है,’’ रोहिणी ने विजयी भाव से कहा.

उड़ान: उम्र के आखिरी दौर में अरुणा ने जब तोड़ी सारी मर्यादा

घर्रघर्र की आवाज करती बस कच्ची सड़क पर बढ़ती जा रही थी. उस में बैठी अरुणा हिचकोले खाती बाहर का दृश्य एकटक देख रही थी. नारियल के पेड़ों के झुंड, कौफी के बागान, अमराइयां, सुपारी के पेड़, लहलहाते धान के खेत, चारों तरफ हरियाली और प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य देख कर अरुणा की आंखें भर आईं.

बचपन में यही सफर वह बैलगाड़ी में तय करती थी. उस के गांव तिरुपुर में तब बस और मोटरें नहीं चलती थीं. आसपास के गांवों तक लोग बैलगाड़ी में ही आयाजाया करते थे.

अरुणा की आंखें शून्य में जा टंगीं. वह अतीत की यादों में खो गई.

वह अभी 16 साल की थी कि उस के मातापिता ने उस का ब्याह तय कर दिया. उस ने बहुत नानुकुर की पर उस की एक न चली. उस का मन आगे पढ़ने का था पर पिता बोले, ‘आगे पढ़ कर क्या करना है, वही चूल्हाचक्की न. बस, बहुत हो गया.’

इस बात की जानकारी जब उस के चाचा गोविंद को हुई तो वे शहर से दौड़े चले आए.

‘अन्ना, यह क्या करते हो? इतनी छोटी उम्र में बेटी की शादी?’

‘अरे, मेरा बस चलता तो इसे छुटपन में ही ब्याह देता,’ कृष्णस्वामी बोले, ‘लड़की रजस्वला हो उस से पहले उस का विवाह होना कल्याणकारी होता है. ऐसे ही विवाह को  ‘गौरी कल्याणम’ कहा जाता है और इसे बहुत श्रेष्ठ माना जाता है.’

‘लेकिन आजकल ये सब कौन करता है. अरुणा को आगे पढ़ने दीजिए.’

‘देखो गोविंद, बेटी को आगे पढ़ाने का मतलब है उसे शहर भेजना, क्योंकि हमारे गांव में कालेज तो है नहीं.’

‘इसे मेरे पास बेंगलुरु भेज दीजिए.’

‘नहीं, तुम्हारा अपना परिवार है.

तुम उस को देखो. अरुणा मेरी जिम्मेदारी है. उस के लिए अच्छा घरवर ढूंढ़ लिया है. और फिर अरुणा ठिकाने से लगेगी तभी न उस की छोटी बहनों के लिए रास्ता खुलेगा.’

शादी के 1 वर्ष बाद ही अरुणा के पति की एक ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस के ससुराल वालों का तो उस पर कहर ही टूट पड़ा, ‘अरे, कैसी सत्यानाशी, कुलक्षणी लड़की निकली यह जो आते ही हमारे बेटे को खा गई. हमें नहीं चाहिए यह मनहूस कुलनाशिनी,’ ससुराल में उस का जीना दूभर कर दिया गया.

पिता उसे ससुराल से घर ले आए.

‘तू फिक्र न कर मेरी बच्ची,’ उन्होंने उसे दिलासा दिया था, ‘जब तक

मांबाप का साया तेरे सिर पर है, तुझे किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं. हम हैं न तेरी सरपरस्ती के लिए.’

‘हां अक्का,’ छोटे भाई राघव ने आश्वासन दिया, ‘मैं और केशव भी हैं जो आजन्म तुम्हें संभालेंगे.’

लेकिन क्या इन खोखले शब्दों से उस के आंसू थमने वाले थे? मांबाप का संरक्षण था, पर साथ ही बंदिशें भी थीं. उसे अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता था.

पिता कृष्णस्वामी के धर्मगुरु स्वामी अनंताचार्य घर आए. पूरा घर हाथ जोड़े उन के स्वागत में लग गया.

‘यजमान, तुम्हारी बेटी के बारे में सुना, बड़ा दुख हुआ. पर होनी को कौन टाल सकता है. अब तुम लोगों को चाहिए कि बिटिया को धैर्य बंधाओ. पिछले जन्म के कर्मों की सजा इस जन्म में मिल रही है. इस जन्म में नेमधरम से रहेगी तभी अगला जन्म संवरेगा. हां, तो बिटिया के केशकर्तन कब करवा रहे हो?’

कृष्णस्वामी भारी सोच में पड़ गए. बेटी का उदास चेहरा, सूना माथा और  गला देख कर ही उन का कलेजा मुंह को आता था. उस के केश उतारे जाने की कल्पना से वे थर्रा गए.

अरुणा ने सुना तो वह बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘पिताजी, मेरे केश मत उतरवाओ. मैं यह सह नहीं पाऊंगी.’

उस के लिए यही क्या कम था कि भरी जवानी में वैधव्य दुख भोग रही थी. पति के मरते ही उस की चूडि़यां तोड़ दी गई थीं. मंगलसूत्र गले से उतार लिया गया था. उसे सादे कपड़े पहनने के लिए बाध्य कर दिया गया था. माथे से सुहाग का चिह्न पोंछ दिया गया था सौंदर्य प्रसाधन, आमोदप्रमोद सब वर्जित हो गए. जब उस की सखीसहेलियां शादीब्याह में बनठन कर अठखेलियां करतीं तो वह उपेक्षित सी घर में मुंह लपेट कर पड़ी रहती.

उस के गोविंद चाचा जब शहर से गांव आए तो देखा कि सारा घर शोक में डूबा हुआ था.

‘यह क्या अन्ना, हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता बसते हैं. लेकिन तुम्हारे घर की स्त्रियों की दयनीय दशा देखी नहीं जाती. एक तरफ भाभी रो रही हैं. बेटी अलग अपने गम में घुलती जा रही है और तुम हो कि उन की ओर से बिलकुल उदासीन हो.’

‘मैं क्या करूं गोविंद, मुझे तो कुछ सूझता नहीं है,’ कृष्णस्वामी ने बुझे हुए स्वर में कहा.

‘तुम अब अरुणा को मेरे जिम्मे छोड़ दो. मैं उसे शहर ले जाऊंगा. उसे कालेज में भरती कराऊंगा. बिटिया वहीं पढ़ाई करेगी.’

‘लेकिन…’

‘अब लेकिनवेकिन नहीं. मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा.’

मांबाप ने भारी मन से अरुणा को विदा किया. सौ हिदायतें दीं. घर में थी तो बात और थी. वे उस के ऊपर कड़ा नियंत्रण रखते. पगपग पर टोकाटाकी करते. जवान लड़की के कहीं कदम बहक न जाएं, इस बात का उन्हें हमेशा डर लगा रहता.

अरुणा के चाचा उसे बेंगलुरु ले कर चले गए. उसे कालेज में दाखिला दिला दिया.

इस दौरान एक दिन अरुणा की मुलाकात श्रीकांत से हुई. वह पास के कालेज में पढ़ता था. सुदर्शन और मेधावी था. लड़कियां उस के पीछे दीवानी थीं. पर उस ने सब को छोड़ अरुणा को चुना था. वे चोरीछिपे मिलने लगे.

एक दिन श्रीकांत बोला, ‘तुम ने उडुपी कृष्णभवन का मसाला डोसा खाया है कभी?’

‘नहीं.’

‘चलो, आज चलते हैं.’

‘नहीं बाबा, तुम्हारे साथ रेस्तरां गई और किसी ने देख लिया तो?’

‘देख ले, हमारी बला से. कोई हमारा क्या कर लेगा? हम दोनों तो शादी करने वाले हैं.’

‘शादी,’ उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘श्रीकांत, यह तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम जानते नहीं कि मैं विधवा हूं?’

‘जानता हूं. पर वह तुम्हारा गुजरा हुआ कल था. मैं तुम्हारा आने वाला कल हूं.’

उस के प्यार की भनक आखिर एक दिन घरवालों को लग ही गई. उस दिन घर में एक तूफान आ गया था.

‘विधवा का पुनर्विवाह,’ पिताजी गरजे थे, ‘असंभव. अरे पगली, तू उस देश में जन्मी है जहां स्त्रियां पति की चिता पर सहगमन करती थीं. हमारे वंश में न कभी ऐसा हुआ न कभी होगा. हम लोग ऐसेवैसे नहीं हैं. हम उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं. मेरे दादा मैसूर महाराजा के राजपुरोहित थे. सभी काम नेमधरम से करते थे तब कहीं जा कर राजकाज संभालते थे. और तुझे मेरी मां की याद है?’

‘हां,’ उस ने अस्फुट स्वर में कहा.

अरुणा को अपनी दादी भलीभांति याद हैं. 20 साल की आयु में विधवा हुईं. घुटा हुआ सिर, एकवसना, एक जून खाना.

8 गज की तांत की साड़ी में अपना तन और सिर ढकतीं. हमेशा नेमधरम से रहतीं. वे सांध्य बेला में मंदिर जाना नहीं भूलतीं. एक दिन मंदिर में ही एक खंभे के सहारे बैठेबैठे, प्रवचन सुनते हुए उन के प्राणपखेरू उड़ गए थे.

लेकिन जैसे अरुणा का मन अंदर से चीख उठा था, ‘वह जमाना और था’. उसे इस बात का ज्ञान था कि वह आज के युग की नारी है, उस में सोचनेसमझने की शक्ति है, वह अपना भलाबुरा जानती है. वह नियति के आगे सिर कैसे झुका दे. वह कैसे एक अज्ञात मनुष्य के नाम की माला जपते हुए अपने बचेखुचे दिन गुजार दे.

माना कि वह पुरुष उस का पति था. अग्नि को साक्षी मान कर उस ने उस के साथ सात फेरे लिए थे. पर था तो वह उस के लिए एक अजनबी ही. यह जानते हुए कि यही विधि का विधान है, वह मन मार कर नहीं रह सकती. उस का मन विद्रोह करना चाहता है.

उसे अपने हिस्से की धूप चाहिए. उसे वे सभी खुशियां, वे सभी नेमतें चाहिए जिन पर उस का जन्मसिद्ध अधिकार हैं. उसे एक जीवनसाथी चाहिए, एक सहचर जिस के साथ वह अपना सुखदुख बांट सके. जिस पर अपना प्यार लुटा सके, जिस पर वह अपना अधिकार जमा सके, उसे चाहिए एक नीड़ जहां बच्चों का कलरव गूंजे.

वह यह सब अपने मातापिता से कहना चाहती थी. पर उस के मांबाप पुरातनपंथी थे, रूढि़वादी थे, संकीर्ण विचारों वाले परले सिरे के अंधविश्वासी थे. पिता उग्र स्वभाव के थे जिन के सामने उस की जबान न खुलती थी. मां पिता की हां में हां मिलातीं. वे उस की सुनने को तैयार ही न थे. श्रीकांत का उन्होंने जम कर विरोध किया.

‘देख अरुणा, हम तुझे बताए देते हैं, इस लड़के से ब्याह का विचार त्याग दे. हमारे जीतेजी यह मुमकिन नहीं. हमें बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा. जाने कहां का आवारा, लफंगा तुझे अपने जाल में फंसाना चाहता है. हम ठहरे ब्राह्मण, वह नीच जाति का. मैं कहे देता हूं, यदि तू ने उस छोकरे से ब्याह करने की जिद ठानी तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा. मैं अपनी बात का धनी हूं. इस से पहले कि कुल पर आंच आए या कोई हम पर उंगली उठाए, हम मर जाएंगे. मैं कुएं में छलांग लगा दूंगा या आमरण अनशन करूंगा.’

अरुणा सहम गई. मांबाप के प्रति विद्रोह करने की उस में हिम्मत न थी. उस ने श्रीकांत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

स्वामी अनंताचार्य घर आए. उन्होंने अरुणा के बारे में सुना.

‘देख वत्स, इसीलिए मैं कहता था कि बिटिया के केश उतरवा दो. विधवाओं के लिए यह नियम मनुस्मृति में लिखा गया है. लेकिन उस वक्त तुम ने मेरी बात नहीं मानी. अब देख लिया न परिणाम? तुम्हारी बेटी का  रूप व घनी केशराशि देख कर ऋषिमुनियों के मन भी डोल जाएं, मनुष्य की बिसात ही क्या?’

उन्होंने अरुणा से कहा, ‘बेटी, अब ईश्वर में लौ लगाओ. रोज मंदिर जाओ. भगवत सेवा करो. वही मुक्तिमार्ग है.’

कुछ रोज तो वह मंदिर जाती रही पर सांसारिक मोहमाया न त्याग सकी. मंदिर में भी उस का मन भटकता रहता था. आंखें प्रतिमा पर टिकी रहतीं पर मन में श्रीकांत की छवि बसी थी. कानों में स्वामीजी के प्रवचन गूंजते और वह श्रीकांत के खयालों में खोई रहती.

समय सरकता रहा. उस के भाईबहन अपनेअपने परिवार को ले कर मगन थे. मातापिता का देहांत हो चुका था. अरुणा ने पढ़ाई पूरी कर के अपने ही कालेज में व्याख्याता की नौकरी कर ली थी. पठनपाठन में उस का मन लग गया था. किताबें ही उस की मित्र थीं. पर कभीकभी उस का एकाकी जीवन उसे सालता था.

बस अचानक एक झटके से रुकी और अरुणा वर्तमान में लौट आई. उस का गांव आ गया था. उस के भाई व भाभी ने उस का स्वागत किया.

‘‘आओ अक्का, अब तो वापस शहर नहीं जाओगी न?’’ राघव ने उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, नौकरी से रिटायर हो चुकी हूं. मैं काम करकर के थक गई थी. अब यहीं शांति से रहूंगी.’’

‘‘अच्छा किया, मुझे भी आप की मदद की जरूरत है,’’ नागमणि बोली, ‘‘आप तो जानती हैं कि श्रीधर की शादी तय हो गई है. उस की तैयारी करनी है. जया के भी पांव भारी हैं. वह भी जचकी के लिए आने वाली है. आप को ही सब करनाकराना है.’’

‘‘तुम सब कुछ मुझ पर छोड़ दो, भाभी. मैं संभाल लूंगी.’’

वह बड़े उत्साह से शादी की तैयारी में लग गई. वधू के लिए गहने गढ़वाना, मेहमानों के लिए पकवान बनाना, रंगोली सजाना आदि ढेरों काम थे.

बहू बिदा हो कर आई थी. घर में गांव की स्त्रियों का जमघट लगा हुआ था.

वरवधू द्वाराचार के लिए खड़े थे.

‘‘अरे भई, आरती कहां है? कोई तो आरती उतारो,’’ किसी ने गुहार लगाई.

अरुणा ने सुना तो थाल उठा कर दौड़ी.

नागमणि ने झटके से उस के हाथ से थाली छीन ली, ‘‘यह क्या कर रही हैं अक्का? आप को कुछ होश है कि नहीं? यह काम सुहागिनों का है. आप की तो छाया भी नववधू पर नहीं पड़नी चाहिए. अपशकुन होगा.’’

अरुणा पर घड़ों पानी पड़ गया. कुछ क्षणों के लिए वह भूल बैठी थी कि वह विधवा है. शुभ अवसरों पर उसे ओट में रहना चाहिए. उसे याद आया कि घर में जब भी पिता बाहर निकलते और वह उन के सामने पड़ जाती तो वे उलटे पैरों लौट आते और थोड़ी देर बैठ कर पानी पी कर फिर निकलते.

शहर में लोग इन बातों की परवा नहीं करते थे, पर गांव की बात और थी. यहां लोग अभी भी कुसंस्कारों में जकड़े हुए थे. लीक पीटते जा रहे थे.

कुछ दिनों बाद नागमणि ने फिर

उस के रहनसहन पर आपत्ति खड़ी कर दी.

‘‘अक्का, आप रसोईघर और पूजाघर में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

‘‘स्वामी अनंताचार्यजी कह रहे थे कि आप ने विधवा हो कर भी केशकर्तन नहीं कराए जो हमारे शास्त्रों के विरुद्ध है और आप को अशुद्ध माना जा रहा है.’’

अरुणा के हृदय पर भारी चोट लगी. इतने सालों बाद यह कैसी प्रताड़ना? अभी भी उस के आचार पर लोगों की निगाहें गड़ी हैं. जीवन के संध्याकाल में इस दौर से भी गुजरना होगा, यह उस ने सोचा न था. उसे अपने ही लोगों ने अछूत की तरह जीने पर मजबूर कर दिया था. पगपग पर लांछन, पगपग पर तिरस्कार.

आखिर एक दिन उस का मन इतना विरक्त हुआ कि उस ने तय कर लिया कि वह अपने केश उतरवा देगी.

घर में उत्सव जैसा माहौल था. नाई आया. आंगन में एक पीढ़े पर वह बैठी. नाई ने अपना उस्तरा तेज किया और उस के सिर पर फेरना शुरू किया. केशगुच्छ जमीन पर गिरते गए. नाई के जाने के बाद घर की बड़ीबूढि़यां आईं और बोलीं, ‘‘चलो बेटी, अब नहा लो.’’

अरुणा उठ खड़ी हुई. नहा कर उस ने एक कोरी रेशम की साड़ी पहनी जो विधवाओं का लिबास था. अब उस की दिनचर्या बिलकुल बदल गई थी. उस के हिस्से में आए जप, तप, पूजापाठ, व्रतउपवास और संयमी जीवन.

उस के गांव से कुछ स्त्रियां तीर्थयात्रा पर जा रही थीं. अरुणा भी उन के साथ हो ली.

घर लौटी तो हमेशा की तरह उस के भाई उसे बसस्टैंड पर लेने आए थे.

‘‘कहो अक्का, तुम्हारी यात्रा सुखद रही न?’’ केशव ने पूछा.

‘‘हां,’’ वह बताने लगी, ‘‘मैं ने चारों धाम के दर्शन कर लिए. मेरा जीवन सार्थक हो गया.’’

उस ने देखा राघव कुछ अनमना सा था.

‘‘क्या बात है राघव, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, अक्का.’’

नागमणि द्वार पर खड़ी उस का रास्ता देख रही थी.

‘‘भाभी, मैं तुम सब के लिए उपहार लाई हूं,’’ अरुणा बोली, ‘‘तुम्हारे और जया के लिए चंदेरी साडि़यां…’’

कहतेकहते उस की निगाह अंदर सहन में झूले पर बैठी जया पर पड़ी तो वह ठिठक गई.

‘‘अरे, यह क्या?’’ उस के मुंह से निकला.

जया का गला व माथा सूना था. सारे सुहाग के चिह्न नदारद. एक मैली सी साड़ी लपेटे वह शून्य में ताकती अनमनी सी बैठी थी.

‘‘भाभी,’’ अरुणा ने अस्फुट चीत्कार किया, ‘‘यह क्या देख रही हूं मैं? यह कब और कैसे हुआ?’’

नागमणि ने रोरो कर बताया कि जया का पति उसे मायके छोड़ने आया था. सुबह नदी में नहाने गया. हेमावती नदी में बाढ़ आई हुई थी. सुरेश तैरते हुए एक भंवर में फंस गया और तुरंत डूब गया.

‘‘ओह, इतना बड़ा हादसा हो गया और आप लोगों ने मुझे खबर तक न की.’’

‘‘यही नहीं,’’ नागमणि रो कर बोली, ‘‘पति की मृत्यु की खबर से जया को इतना गहरा सदमा लगा कि उसी शाम उसे प्रसव वेदना हुई और एक सतमासा बच्चा पैदा हुआ, वह भी मरा हुआ. इस दोहरे आघात से लड़की एकदम विक्षिप्त सी हो गई है. न किसी से बोलतीचालती है न ठीक से खातीपीती है. बस, दिनभर गुमसुम सी इस झूले पर बैठी रहती है.’’

‘‘लेकिन आप लोगों ने इस के गहने क्यों उतरवा दिए? यह तो बड़ी ज्यादती है.’’

‘‘हम ने नहीं, इस ने खुद उतार फेंके हैं. मुझे तो डर है कि यह कहीं दुख से पागल न हो जाए.’’

‘‘ओह,’’ अरुणा ने ठंडा निश्वास छोड़ा. इस भतीजी से उसे बहुत लगाव था. पलभर में उस का सुखी संसार उजड़ गया था.

कुछ दिन बाद बैठक में भाई राघव, भाभी नागमणि, भतीजे श्रीधर और भतीजी जया के साथ अरुणा बैठी हुई थी. अचानक भाई ने प्रसंग छेड़ा.

‘‘स्वामीजी ने कहा था कि जया मांगलिक है इसलिए उस का एक वटवृक्ष से गठबंधन करा कर बाद में उस का विवाह करना चाहिए. हम ने वह भी किया. फिर भी पता नहीं क्यों यह हादसा हो गया? स्वामीजी के अनुसार तो यदि एक नवग्रह जाप करा कर ग्रहशांति के लिए एक छोटा सा यज्ञ करा दिया गया होता तो यह अनर्थ न होता.’’

‘‘उन की छोड़ो, आगे की सोचो. अब जया के बारे में क्या इरादा है?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘उसे यों मझधार में तो छोड़ा नहीं जा सकता. तुम लोग उस की दूसरी शादी क्यों नहीं कर देते?’’

‘‘दूसरी शादी?’’

नागमणि भौचक उस का मुंह ताकने लगी. उस के होंठ कांपे और आंखों से आंसू ढुलकने लगे, ‘‘अक्का, क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज इस की अनुमति देगा?’’ राघव ने टोका.

‘‘राघव, तुम किस समाज की बात कर रहे हो? हम लोग भी तो समाज का अंग हैं और तुम तो गांव के मुखिया हो. सब के अगुआ हो. तुम्हें यह क्रांतिकारी कदम उठाना ही होगा. तुम्हें एक दृष्टांत कायम करना होगा. आखिर किसी को तो पहल करनी चाहिए तभी तो इन कुरीतियों का अंत होगा.’’

‘‘लेकिन बिरादरी वाले हमें जीने नहीं देंगे.’’

‘‘न सही, पर बेटी पहले है या बिरादरी? जरा सोचो, जया के पति की अकाल मृत्यु हुई है, पर तुम लोग जया को जीतेजी मार रहे हो. क्षति उस की हुई और सजा भी वही भुगते. यह कहां का न्याय है?’’

‘‘अक्का ठीक कह रही हैं,’’ केशव ने कहा.

‘‘लेकिन मेरा मन इस की गवाही नहीं देता. हमारे हिंदू धर्म में विधवा विवाह वर्जित है.’’

‘‘अन्य धर्मों में विधवा विवाह की छूट है. मुसलमानों और ईसाइयों में विधवा विवाह होते रहते हैं. पता नहीं, हम हिंदू ही नारी के प्रति इतने बर्बर क्यों हैं? पुरुष एक छोड़ दस शादियां कर सकता है. एक पत्नी के मरने पर दोबारा कुंआरी कन्या से विवाह कर सकता है. ये सारे कायदेकानून, सारे प्रतिबंध स्त्रियों के लिए ही हैं. क्यों न हों, ये नियम पुरुषों ने ही तो बनाए हैं. लेकिन अब सारे देश में बदलाव की लहर बह रही है.

‘‘स्त्रियों के हित में नित नए कानून बन रहे हैं. स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं. वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं, पर अफसोस, हमारा गांव वहीं का वहीं है. वही संकीर्ण मानसिकता, वही पिछड़ापन. कुप्रथाओं के मकड़जाल में फंसा, तंत्रमंत्र, छुआछूत, टोनाटोटका, झाड़फूंक और अंधविश्वासों से घिरा है हमारा ग्रामीण समाज. ऊपर से हमारे धर्म के ठेकेदार हमें धर्म की दुहाई दे कर तिगनी का नाच नचाते रहते हैं. मैं यह सब इसलिए कह रही हूं कि हमें जया को आजीवन रोने व कलपने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए. उस का भविष्य संवारने के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहिए.’’

‘‘मैं अक्का से सहमत हूं,’’ केशव बोला, ‘‘हमें जया की दूसरी शादी कर देनी चाहिए. मेरी नजर में एक अति उत्तम लड़का है. वह सुलझे विचारों वाला है. उस की सोच नई है. मैं उस से बात करूंगा.’’

‘‘ठीक है, पर एक बात, जातपांत को ले कर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए. जया को इस माहौल से निकालो. उसे शहर भेजो. वहां के उन्मुक्त वातावरण में उसे सांस लेने दो. उस के पंख मत कतरो. उस पर अंकुश मत लगाओ. उसे उड़ान भरने दो. उसे स्वच्छंद विचरने दो. उस के  व्यक्तित्व को विकसित होने दो.’’

‘‘अक्का, तुम ने भी तो कम उम्र में अपने पति को गंवाया था. तुम ने भी तो सारी उम्र निष्ठा से वैधव्य धर्म का पालन किया.’’

‘‘राघव, उस समय मेरे सामने और कोई विकल्प नहीं था. मुझ में मातापिता के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं थी. लेकिन यह जरूरी नहीं कि जया का हश्र मेरे जैसा हो. उस में और मुझ में एक पीढ़ी का फर्क है. हमारे समय में लड़कियों को पढ़ायालिखाया नहीं जाता था. उसे पहले पिता फिर पति और फिर पुत्र का आश्रित हो कर रहना पड़ता था. विधवा होना तो उस के लिए एक बड़ा अभिशाप था.

अपनी इच्छाओं का दमन कर, रूखासूखा खा कर, मोटाझोटा पहन कर वह एक उपेक्षित की जिंदगी गुजारती थी. उसे मनहूस, कुलच्छिनी माना जाता था और उस की दशा जानवरों से भी बदतर होती थी. तुम तो जानते हो कि हमारी तमिल भाषा में ‘मुंडे’ यानी ‘विधवा’ गाली है. ‘मुंडेदे’ यानी विधवा की अवैध संतान भी एक गाली है. लेकिन अब हम विधवा के प्रति सदय हैं. हम में जागरूकता आई है. हम ने कई पुरानी कुप्रथाओं का त्याग किया है. एक समय था कि हमारे देश में सती का चलन था. बालविवाह और देवदासी की प्रथा थी. हमारे दक्षिण भारत के गांवों में नवजात बच्चियों को दूध के गागर में डुबो कर मार दिया जाता था. अब जमाना बदल रहा है. हमें जमाने के साथ चलना चाहिए. जया पढ़ीलिखी है, सबल है, सक्षम है. उसे स्वावलंबी बनने दो. उसे नया जीवनदान दो.’’

नागमणि अरुणा के पैरों पर गिर पड़ी, ‘‘अक्का, मुझे क्षमा कर दो. मैं ने आप को बहुत जलीकटी सुनाई है. आप को बहुत दुख पहुंचाया है.’’

‘‘वह सब भूल जाओ. अब हमारे सामने जया की ज्वलंत समस्या है. इस का समाधान ढूंढ़ना है. जिंदगी जीने के लिए है, घुटघुट कर मरने के लिए नहीं.’’

वह उठ कर जया की बगल में जा बैठी. उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए उस ने कहा, ‘‘क्यों बिटिया, मैं ने ठीक कहा न?’’

जया के निस्पंद शरीर में तनिक हरकत हुई. उस ने सिर घुमा कर अरुणा को देखा और बिना कुछ बोल अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया.

बहुत हुआ अब और नहीं

जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं. ‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं. एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’ अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं.

अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे. अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की. अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदरबाहर होते रहते थे. रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया.

आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी. अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी. बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है.

मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना. मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया. ‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा. ‘‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया. ‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’ चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा. ‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’ अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझे आज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं. ‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थे. और गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे. ‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’ अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं. ‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था. इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया. मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी. अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं.

कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी. कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं. उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया. लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे. लच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकने लगा. पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’ सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई. ‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था. ‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था. ‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’ सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं. कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी. कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’ ‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’ अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’ मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई. ‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था. ‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था. ‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ाथोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का. ‘‘बहुतकुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’ ‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया. ‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’ कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.

एक से बढ़कर एक: दामाद सुदेश ने कैसे बदली ससुरजी की सोच

लेखिका- कल्पना घाणेकर

दरवाजेकी बैल बजाने के बजाय दरवाजा खटखटाने की आवाज सुन कर और आने वाली की पुकार सुन कर मैं सम झ गया कि कौन आया है. मैं ने कहा, ‘‘अरे भई जरा ठहरो… मैं आ रहा हूं,’’ बैठेबैठे ही मैं ने आने वाले से कहा.

यह सुन कर मेरी पत्नी बोली, ‘‘लगता है भाई साहब आए हैं,’’ कहते हुए उस ने ही दरवाजा खोल दिया.

‘‘आइए भाई साहब, बहुत दिनों बाद आज हमारी याद आई है.’’

‘‘भाभीजी, मैं आज एक खास काम से आप के पास आया हूं. लेकिन पहले चाय पिलाइए.’’

नंदा से चाय की फरमाइश की है तो मैं सम झ गया कि आज जरूर उस का कोई काम है. मैं ने अपने सामने रखे सारे कागजात उठा कर रख दिए, क्योंकि उस के आने की मु झे भी बड़ी खुशी हुई थी.

‘‘हां. बोलो क्या काम है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘देखो राजाभाई, मैं चित्रा की शादी पक्की करने जा रहा हूं. लड़का अच्छा है और घरबार भी ठीकठाक है… मु झे रुपयों की कोई कमी नहीं है. मेरी सिर्फ 2 बेटियां हैं. मेरा सबकुछ उन्हीं का तो है. मैं उन्हें बहुत कुछ दूंगा. सच है कि नहीं? फिर भी लड़के की ज्यादा जानकारी तो मालूम करनी ही पड़ेगी और वही काम ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूं.’’

दादाजी की बेटी चित्रा सचमुच बहुत सुंदर और भली लड़की थी. अमीरी में पल कर भी बहुत सीधीसादी थी. हम दोनों को हमेशा यही सवाल सताता कि चित्रा की मां बड़े घर की बेटी. मायके से खूब धनदौलत ले कर आई थी और हमेशा अपना बड़प्पन जताने वाली. उस की पढ़ाईलिखाई ज्यादा नहीं हुई थी और उसे न कोई शौक था, न किसी कला का ज्ञान. वह अपनी अमीरी के सपनों में खोने वाली और इसीलिए उस की मेरी पत्नी से जमी नहीं.

‘‘देख, राजाभाई, मेरे पास दौलत की कोई कमी नहीं है और मेरी बेटी भी अच्छी है. तो हमें अच्छा दामाद तो मिलना ही चाहिए.’’

‘‘हां भई हां. तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो. तुम्हारा देखा हुआ लड़का जरूर अच्छा ही होगा.’’

मैं उस के शब्द सुन कर चौंक पड़ा. बार रे बाप. क्या मैं फिर से ऐसे ही फंसूंगा? मेरे मन में विचार आया.

‘‘राजाभाई, लड़का तुम्हारी जानकारी में है. तुम्हारी चचेरी साली का बेटा, जो सदाशिव पेठ में रहता है.’’

इस पर मैं ने और नंदा ने एकदूसरे की तरफ देखा. हाल ही में हम ने एक शादी तय करने में योगदान दिया था. अब इस दोस्त से क्या कहूं? मैं वैसे ही उठ खड़ा हुआ और सुदेश का खत अलमारी से निकाल कर उसे दे दिया.

‘‘दादाजी, तुम्हारी चित्रा की शादी तय हो रही है, यह सुन कर हम दोनों को बहुत खुशी हो रही है. चित्रा बड़ी गुणी लड़की है. अत: उसे अच्छी ससुराल मिलनी चाहिए यही हमारी भी तमन्ना है. लेकिन अब पहले जैसी परिस्थितियां नहीं रही है. आजकल हर घर में 1-2 बच्चे… अपनी बच्चियों को मांबाप खूब धनदौलत देते हैं. तुम्हारे जैसे धनवान सिर्फ देते ही नहीं, बल्कि उस का बोलबोला भी करते हैं.

‘‘बारबार कह कर दिखाते हैं कि हम ने बेटी को इतना दिया, उतना दिया. यह बात किसी को पसंद आती है तो किसी को नहीं और लगता है कि उस का अपमान किया जा रहा है. इस पर वे क्या करते हैं, वह अब तुम्हीं इस खत में पढ़ लो. मैं क्या कहना चाहता हूं वह तुम सम झ जाओगे-

‘‘माननीय काकाजी को नमस्कार. मैं यह पत्र जानबू झ कर लिख रहा हूं, क्योंकि आज या कल कुछ बातें आप को मालूम होंगी, तो उस के कारण आप को पहले ही ज्ञात कराना चाहूंगा. पिछले कुछ दिनों से मैं बहुत परेशान हूं. फिर आप कहेंगे कि पहले क्यों नहीं बताया. जो कुछ घटित हुआ है उस समस्या का हल मु झे ही निकालना था.

‘‘हो सकता है मेरा निकाला हुआ हल आप को पसंद न आए. आप को कोई दोष न दे, यही मेरी इच्छा है. आप ने हमारी शादी तय करने में बड़ा योगदान दिया है. वैसे शादियां तय कराना आप का सामाजिक कार्य है. लेकिन कभीकभी ऐसा भी हो सकता है यह बतलाने के लिए ही यह पत्र लिख रहा हूं.

‘‘शादी के बाद मैं अपनी पत्नी के साथ उस के मायके जाया करता था. लेकिन हर बार किसी न किसी कारण वहां से नाराज हो कर ही लौटता था.

‘‘सासूमां अकसर कहतीं कि आप ने जो पैंट पहनी है, वह हम ने दी थी. वही है न? हां, क्या कभी अपनी पत्नी को कोई साड़ी दिलाई या जो हम ने दी थी उसी से काम चलाते हो?

‘‘फिर अपनी बेटी से पूछतीं कि बेटी क्या कोई नया गहना बनवाया या नहीं या गहने भी हमारे दिए हुए ही हैं. गले में अभी तक मामूली मंगलसूत्र ही है. क्या मैं दूं अपने गले का निकाल कर? मैं देख रही थी कि तेरे ससुराल वाले कुछ करते भी हैं या नहीं.

‘‘मेरी सास हमारे घर में आती तब भी वही ढाक के तीन पात. यह थाली हमारी दी हुई है न. यह सैट इतनी जल्दी क्यों निकाला है.

‘‘वह दूरदूर के रिश्तेदारों को हमारा घर दिखाने लातीं और बतातीं कि बेटी की गृहस्थी के लिए हम ने सबकुछ दिया है.

‘‘सुबह होते ही सास का फोन आता कि क्या तुम अभी तक उठी नहीं हो. आज खाने में क्या बना रही हो? खाना बनाने के लिए नौकरानी क्यों नहीं रख लेती. तुम अपनी सास से कह दो कि मैं ने कभी खाना बनाया नहीं है और मेरी मां को भी इस की आदत नहीं है. अगर तुम नौकरानी नहीं रख सकती तो मु झे बताओ, मैं एक नौकरानी तुम्हारे लिए भेज दूंगी, जो तुम्हारे सारे काम कर लेगी?

‘‘हमारी नईनई शादी हुई थी. सो अकसर फिल्म देखने जाते, तो फिर बाहर होटल में ही खाना खा लेते. तो कभी शौपिंग के लिए निकल पड़ते. शुरूशुरू में यह बात मु झे चुभी नहीं. मेरे मातापिता, भैयाभाभी कौन हमें सम झाता? मां तो मेरी बिलकुल सीधीसादी. उस ने देखा कि उस का बेटा यानी मैं तो हूं पूरा गोबर गणेश, फिर अपनी बीवी को क्या सम झाऊंगा. घर में होने वाली कलह से बचने के लिए उस ने मेरी अलग गृहस्थी बसाई. हम दोनों को उस पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन इस से मेरी आंखें पूरी तरह खुल गईं.

‘‘सिर्फ मीठीमीठी बातें और अच्छे शानदार कपड़े पहनने से पेट तो नहीं भरता. मेरी पत्नी को तो दालचावल भी बनाना नहीं आता था. पहले जब मैं ससुराल जाता तो मेरी सास बतातीं कि यह पूरनपूरी नीतू ने ही बनाई है. आज का सारा खाना उसी ने बनाया है. आप को गुलाबजामुन पसंद हैं न, वे भी उसी ने बनाए हैं.

‘‘मेरे घर में मां और भाभी होने के कारण मेरी पत्नी को क्याक्या बनाना आता है, इस का पता ही नहीं चला. उसे पूरनपूरी तो क्या सादी चपाती भी बनाना नहीं आता था. अगर अपनी मां से पूछ कर कुछ बनाना है तो पूछे कैसे? हमारे घर में फोन ही नहीं था. सबकुछ मुश्किल.

‘‘हमारे यहां फोन नहीं था तो उस के मांबाप हमेशा घर में आते कहते कि हमेशा बाहर की चीजें ला कर खाते रहते. मेरी नाराजगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. जब तक हमारी गृहस्थी अलग नहीं थी, तब सारा खर्च पिताजी और भाईसाहब उठाते थे.

‘‘इसलिए यह बो झ मेरे सिर पर कभी नहीं आया. पैसा कैसे खर्च किया जाए, मितव्ययित कैसे की जाए, मु झे इस का बिलकुल ज्ञान नहीं था. होटल में खाना, घूमना, मौजमस्ती तथा शौपिंग में ही मेरी सारी कमाई खर्च हो जाती थी. पिताजी से पैसा मांगना भी मु झे अच्छा नहीं लगता था. मां मेरी इस मजबूरी को सम झती थीं, इसलिए वे अपने साथसाथ मेरे घर के लिए भी राशन का इंतजाम कर देती थीं.

‘‘अब मु झे जीवन की असलियत का पता चलने लगा था. नईनई शादी की मौजमस्ती अब खत्म हो चली थी. इस से उबरने के लिए अब हमें अपना रास्ता खोज निकालना था और यही सोच कर मैं ने नीतू को सब बातें ठीक से सम झाने का फैसला कर लिया.

‘‘उसी समय शहर से जरा दूर पिताजी का एक प्लाट था. वे उसे मु झे देने वाले हैं यह बात उन्होंने मेरे ससुर को बताई तो उन्होंने घर बनाने के लिए रुपया दिया. हम सब से जरा दूर रहने के लिए गए, इसलिए बहुत से सवाल अपनेआप हल हो जाएंगे. अत: बंगला बनने तक मैं खामोश रहा.

‘‘नए घर में रहने के लिए जाने के बाद मैं ने अपनी पत्नी को सम झाया कि अब मेरी कमाई में ही घर का सारा खर्च चलाना है. उस ने मितव्ययिता शुरू कर दी. हमारा बाहर घूमनाफिरना बंद हो गया. शुरुआत में उसे घर के काम करने में बड़ी दिक्कत आती. इसलिए मैं भी उसे सहायता करता था. धीरेधीरे उस ने खाना बनाना सीख लिया. शहर से जरा दूर होने से अब मेरे सासससुर का आनाजाना जरा कम हो गया था. लेकिन सास जब कभी हमारे घर आतीं, तो फिर शुरू हो जाती कि नीतू तुम कैसे अपनी गृहस्थी चलाती हो. तुम्हारे घर में यह चीज नहीं है, वह चीज नहीं है.

‘‘इस पर नीतू अपनी मां को जवाब देती कि मां तुम्हारी गृहस्थी को कितने साल हो गए? मैं तुम्हारी उम्र की हो जाऊंगी तो मेरे पास भी वे सारी चीजें हो जाएंगी.

‘‘मु झे न बता कर मेरी सास हमारे लिए कोई चीज ले कर आती और कहतीं कि सुदेश बेटा, देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाई हूं. तुम्हारे पास यह चीज नहीं थी, इसलिए ले आई हूं. यह इंपौर्टेड माल है. मु झे तो इंडियन चीजें जरा भी पसंद नहीं आतीं.

‘‘मैं भी नहले पर दहला मारता कि हां, लेकिन मु झे भी दूसरों की दी हुई चीजें पसंद नहीं आती.

‘‘मेरी पत्नी नीता न मु झ से कुछ कह पाती और न अपनी मां से. लेकिन मेरी नाराजगी की वजह अब वह सम झने लगी थी. वह अब घर के सारे काम खुद करने लगी और मेरे प्यार के कारण अब उस में आत्मविश्वास जागने लगा था. अत: अब उस में धीरेधीरे परिवर्तन होने लगा. अब वह अपनी मां से सीधे कह देती कि मां, अब तुम मेरे लिए कुछ न लाया करो. सुदेश को भी तुम्हारा बरताव पसंद नहीं आता और इस से हम दोनों के बीच मनमुटाव होता है और  झगड़ा होने लगता है.

‘‘दूसरों की भावनाओं को सम झना मेरी सास ने कभी सीखा ही नहीं था और शान दिखाने की आदत कैसे छूटती? अब मु झे अपनी आमदनी बढ़ा कर इन सब से छुटकारा पाना था.

‘‘संयोग से मेरी कामना पूरी होने लगी. मैं ने एक लघु उद्योग शुरू किया और वह फूलनेफलने लगा. अब कमाई बढ़ने लगी, लेकिन यह बात मैं ने नीतू से छिपाये रखी.‘‘इसी बीच मेरे ससुर ने अपनी उम्र के 59 साल पूरे किए. इस अवसर का मैं ने लाभ उठाने का फैसला किया और अपने मातापिता से कहा कि मैं अपने ससुर की 60वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा हूं.

‘‘मेरे यह प्रस्ताव सुन कर मातापिता खुश हो गए. मां बोली कि दामाद भी तो बेटा ही होता है रे अच्छा कर रहे हो बेटा.

‘‘लेकिन मां को मेरी तिरछी चाल जरा भी सम झ में नहीं आईं.

‘‘मेरे सासससुर को जब यह बात पता चली तो वे बहुत खुश हो गए. इस पर मेरी पत्नी जरा छटपटाई, क्योंकि उस के मातापिता के लिए मेरे प्यार से अच्छी तरह वाकिफ थी, अत: मेरे आयोजन के बारे में उस के मन में शंका थी, यह बात उस के चेहरे पर साफ  झलकती थी.

‘‘समारोह के दिन सुबह होमहवन और पूजा के बाद सारे पुरोहितों को ससुर के हाथों किसी को चांदी का बरतन, किसी को चांदी की कटोरी तो किसी को चांदी की थाली आदि मेरे घर की महंगी चीजें दान करवाईं. उपस्थित ब्राह्मण और मेरे रिश्तेदार यह देख कर चकित रह गए. छोटीमोटी वस्तुओं को मैं ने घर के कोने में सजा रखा था, अत: मैं उन्हें अांगन में ले आया हूं.

‘‘मैं ने मेरे नौकर से सुबह ही कह दिया था कि वह  झोंपड़पट्टी में रहने वाले गरीबों को वहां ले कर आए. उन्हें अंदर बुलाया गया और सास के हाथों से 1-1 चीज का बंटवारा होने लगा. 1-1 चीज देते समय सास का चेहरा उतर गया था. आखिर उन्होंने मु झ से पूछ ही लिया कि अरे सुदेश, यह तुम क्या कर रहे हो. मेरी दी हुए सारी चीजें गरीबों में क्यों बांट रहे हो?

‘‘लेकिन सारी चीजों का बंटवारा होने तक मैं खामोश रहा. फिर बोला कि हां, वे सारी चीजें आप ने हमें दी थीं, अब अपने ही हाथों से आप ने उन्हें गरीबों में बांट दिया है. वैसे आप का हमें कुछ देना मु झे जरा भी नहीं भाया. अब आप किसी के सामने मु झ से नहीं पूछ सकेंगी कि सुदेश यह चीज हमारी दी हुई है. इन चीजों का दान करने से अब इन गरीबों की दुआएं आप को मिलेंगी. मैं तो आप के उपकारों से अब मुक्त हो गया हूं.

‘‘सब लोगों के सामने मैं ने अपने ससुर के हाथ में बंगला बनाने की लागत का चैक रख दिया और उन्हें नमस्कार करते हुए बोला कि यह रकम आप ने मु झे बंगला बनाने के लिए दी थी. यह राशि मैं आप को लौटा रहा हूं. बहुत सी संस्थाए गरीबों के लिए काम करती हैं. आप ये रुपए उन्हें दान करेंगे तो उन के लिए यह बड़ी सहायता होगी. इस पर वे बोले कि लेकिन यह राशि मैं ने तुम से वापस कहां मांगी थी?

‘‘वापस नहीं मांगी थी, लेकिन कईर् लोगों के सामने आप ने बारबार कहा कि मैं ने बंगला बना कर दिया है. मेरे मातापिता के आशीर्वाद से मैं यह रकम आप को वापस करने के काबिल हो गया हूं. आप ने बंगला बनाने के लिए रुपए दिए, लेकिन जिस जमीन पर यह बंगला बनाया गया वह तो मेरे पिताजी का दी हुई थी, यह बात आप भूल गए? आप अपने बेटी से पूछिए कि क्या मेरे पिताजी ने कभी उस से कहा कि यह जमीन मेरा दी हुई है.

‘‘सासूमां, वैसे आप के मु झ पर बड़े उपकार है आप ने जो कुछ दिया, उस का बारबार बखान न करतीं, तो मैं जिद कर के इस हालत में कभी नहीं पहुंचता कि आप के उपकारों का बो झ उतार सकूं. मु झे तो आप के सिर्फ आशीर्वाद की जरूरत है. कहते हैं कि दान देते वक्त एक हाथ की खबर दूसरे हाथ को नहीं होनी चाहिए और आप तो अपनी ही बेटी को दी हुई चीजों का लोगों के सामने ढिंढोरा पीटते थे.

‘‘मेरा यह व्यवहार मेरे मातापिता को बिलकुल अच्छा नहीं लगा. मेरे पत्नी को तो इस बात का गहरा सदमा लगा. वह अपनी मां से बोली कि मैं ने हजार बार कहा था, लेकिन तुम ने सुना नहीं. तुम्हें ऐसा ही जवाब मिलना था.

‘‘मेरे ससुर गुस्से से आगबबूला हो गए तो मेरे पिताजी ने उन्हें सम झाया कि साहब, जाने भी दीजिए. मेरा बेटा नादान है और उस से गलती हुई है. उस की गलती के लिए मैं आप से क्षमायाचना करता हूं. उसे ऐसा बरताव नहीं करना चाहिए था.

‘‘मेरे पिताजी की बात सुन कर मेरे ससुर को पश्चात्ताप हुआ. वे बोले कि सुदेश मु झे तुम पर बहुत गुस्सा आया था, लेकिन मैं ने तुम्हारे बरताव पर सोचा था तो पाया कि तुम ही ठीक हो. कांटे से कांटा निकालने की कहावत को तुम ने चरितार्थ किया है. पैसे से आया घमंड अब खत्म हो गया है. अब तुम हमें माफ कर दो. हमारे कारण तुम्हें काफी सहना पड़ा.

‘‘काकाजी, अब मैं उन का असली दामाद बन गया हूं. इस पर आप प्रतिक्रिया जरूर लिखिएगा.

‘‘आप का सुदेश’’

दादाजी ने पत्र वापस करते हुए कहा, ‘‘वह बिलकुल ठीक कह रहा है. देने वाले को भी चाहिए कि वह सुख प्राप्त करने के लिए दें. छोटीछोटी चीजें इकट्ठा करतेकरते हम ने दुख सहे, अब अपने बच्चों को ये सब न सहना पड़े, इसलिए वे अपनी बेटी को देते हैं. लेकिन उस में घमंड की भावना नहीं होनी चाहिए वरना लेने वाले की भावनाओं को ठेस पहुंचना स्वाभाविक है, यह ध्यान में रखना आवश्यक है.

‘‘अब मेरे हाथ से भी यह ऐसी गलती होने जा रही थी. तुम ने यह पत्र पढ़ने का मौका दे कर मु झे जगा दिया है. हमारे कारण हमारी बेटी की गृहस्थी में तूफान नहीं उठना चाहिए. तुम मेरी तरफ से सुदेश को धन्यवाद कहना कि उस के कारण और एक ससुर जाग गया है.

‘‘कहते हैं कि दान देते वक्त एक हाथ की खबर दूसरे हाथ को नहीं होनी चाहिए  और आप तो अपनी ही बेटी को दी हुई चीजों का लोगों के सामने ढिंढोरा पीटते थे…’’

पतझड़ में वसंत : सुषमा और राधा के बनते बिगड़ते हालात

‘प्रिय राधा,

‘स्नेह, मैं सुषमा, तेरी सहेली, तेरी पड़ोसिन, तेरी कलीग. शायद तू मुझे भूल गई होगी पर इन 10 बरसों में कोई दिन ऐसा न था जब तेरा हंसताखिलखिलाता चेहरा जेहन में न उभरा हो. बहुत याद आती है इंडिया की, इंडिया के लोगों की. मुझे तुझ से एक फेवर चाहिए. मैं यूएस से इंडिया आना चाहती हूं. क्या मैं कुछ दिन तेरे पास रह सकती हूं? मेरा आना न आना, तेरी हां या न पर है. ईमेल का जवाब फौरन देना. मैं अगले महीने की 20 तारीख तक चलने का प्रोग्राम बना रही हूं. मेरी बात हो सकता है तुझे अजीब लगे, उस के लिए माफी चाहती हूं. सबकुछ आ कर बताऊंगी.

‘तेरी सुषमा.’

ईमेल सुषमा का था. 10 बरस पहले यूएस में अपने बेटों के पास जा बसी थी. आज इतने लंबे समय के बाद वापस आ रही है. पर क्यों? लोग तो वहां जा कर वापस आना ही नहीं चाहते. फिर यह

तो बेटों के बुलाने पर ही गई थी. सोचतेसोचते बरामदे में पड़ी कुरसी पर आ बैठी. अतीत सामने आ कर खड़ा हो गया.

सामने वाली दीवार के पीछे सुषमा का परिवार रहता था. लंबीचौड़ी कोठी थी, 10-15 लोग रहते थे. ठीक, राधा के परिवार की तरह. दोनों की छतें इस तरह जुड़ी थीं कि गरमी में रात को जब परिवार के बच्चेबूढ़े सोने आते तो पता ही नहीं लगता कि घरों का आदि कहां, अंत कहां है. वैसे भी दोनों परिवार में बहुत अपनापन था. बच्चे भी बहुत हिलमिल कर रहते थे. उसे आज भी याद है, जब भी दोनों घरों में कोई खुशी आती, सब मिलजुल कर बांटते. चाहे किसी बच्चे का जन्मदिन हो या किसी को कंपीटिशन में जबरदस्त कामयाबी मिली हो.

राधा और सुषमा एक ही स्कूल में नौकरी करती थीं. दोनों ने अपने और बच्चों से जुड़े किसी भी फैसले को कभी अकेला नहीं लिया. स्कूल से रिटायर होने के बाद भी वे एकदूसरे की सलाह लेने में कोताही नहीं करती थीं.

राधा के 2 बेटे हैं तो सुषमा 3 बच्चों की मां है. कोईर् वक्त था जब पढ़ाई में दोनों के बच्चों में होड़ सी लगी होती. जिन्हें देख कर दोनों परिवारों के दूसरे बच्चे भी इस होड़ में शामिल हो जाते. दोनों सहेलियों ने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखे थे. वक्त के साथ सपनों में रंग भरने लगे. वैसे भी टीचर्स के बच्चों की सोच में सिर्फ और सिर्फ कैरियर होता है.

राधा के दोनों बेटों ने इंजीनियरिंग की और बाहर का रुख किया. सुषमा के तीनों बेटे भी मैडिकल की पढ़ाई कर के अमेरिका चले गए. कुछ वर्षों बाद तीनों भाइयों ने मिल कर एक हौस्पिटल का शुभारंभ किया. बेटों की तरक्की से दोनों माएं खुश थीं. यही नहीं, दोनों के परिवारों के बाकी बच्चे भी अच्छी नौकरी ले कर दूसरे शहरों में जा बसे थे. इतने बड़े घर में केवल राधा व राधा के पति कमलेश्वर थे. उधर, सुषमा व उस के पति रमेश रह गए थे. दोनों को रिटायर होने में समय था. सब के दिमाग में यही प्रश्न था, रिटायर हो कर वे कहां, क्या करेंगे?

बच्चों ने नए देश व माहौल में अपने को ढालने में देर न लगाई. दोनों दंपती जानते थे कि अब बच्चे वहीं बसेंगे, कोईर् यहां बसने नहीं आएगा.

राधा के बेटों ने मम्मीपापा को अमेरिका आ कर बसने का प्रस्ताव रखा. उन्होंने पहले तो इस प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दिया पर जब बेटों ने बारबार कहा तो कमलेश्वर ने पत्नी से कहा, ‘बच्चों की भावनाओं को मैं समझता हूं, पर यह समझ लो, हम कहीं नहीं जाएंगे. जहां हम रह रहे हैं वही ठिकाना ही हमारा सम्मान है. साधु अपनी कुटिया में रहता है, तो चार लोग उस से मिलने आते हैं. कुटिया छोड़ कर घरघर भीख मांगने जाएगा तो लोग दुत्कार भी सकते हैं.

‘सो, हम अपनी इस कुटिया में ही भले. जिस को मिलना है, यहां आ कर मिल जाए. और फिर हम बूढ़े पेड़ की तरह हैं, एक जगह से उखड़ कर दूसरी जगह की मिट्टी में नहीं जम सकते. चिडि़या अपने बच्चों को उड़ना सिखाती है, सदा उन के साथ नहीं उड़ती. यह देख कर कि उन्होंने उड़ना सीख लिया है, वह उन्हें आजाद छोड़ देती है. हम ने भी बच्चों को अच्छी शिक्षा व संस्कारों के मजबूत पंख दिए हैं. उन्हें अब हमारी जरूरत नहीं है. हम दोनों ही अपने तरीके से जीने के लिए आजाद हैं.’

बच्चे इस बात को नहीं मानते. उन का कहना था, ‘आप दोनों का शरीर इस उम्र में आने वाली तकलीफोें को कैसे झेलेगा? कोई तो साथ होना चाहिए. यहां हमारे पास होगे तो किसी अनहोनी का डर तो न होगा.’

बच्चों की मजबूरी और कमलेश्वर का स्वाभिमानी तर्क, दोनों अपनी जगह ठीक थे. पतिपत्नी के हठ के आगे बच्चों को घुटने टेकने पड़े.

सुषमा व उस के पति रमेश की सोच इन से अलग है. उन के बच्चों ने दोनों को जब अमेरिका आने का निमंत्रण दिया, तो वे मना न कर सके. ‘राधा, मेरे तीनों बेटों ने एक हौस्पिटल खोला है. बड़े हौस्पिटल के मालिक होने के साथ एक होटल भी खरीदा है. होटल का उद्घाटन हमारे हाथ से कराना चाहते हैं. हम दोनों के न जाने पर बच्चे नाराज हो जाएंगे. सो, हम ने भी सोचा है कि हम सबकुछ बेच कर वहीं बच्चों के पास क्यों न रहें.’

जाने से पहले सुषमा, सहेली से मिलने आईर् थी. बहुत खुश थी. अमेरिका जाने की खुशी से चमकती आंखों में न जाने कितने ही सपने थे.

‘मुझे भूल तो न जाएगी?’ सुषमा ने पूछा.

‘नहीं, कभी नहीं. जब जी करे, फोन कर लेना. मैं यहीं हूं, यहीं रहूंगी. यह तेरी सहेली, तेरे वापस आने का इंतजार करेगी,’ राधा ने उसे गले लगाते हुए कहा.

जाने के बाद राधा सोच रही थी, क्यों उस ने सुषमा से कहा, ‘तेरे वापस आने का इंतजार करूंगी. कहीं बुरा न मान गई हो. इस बात को 10 साल हो गए, लगता है सुषमा से मिले सदियां गुजर गईं. क्या उसे आज भी वे पुरानी बातें याद होंगी? आएगी, तो पूछूंगी. वैसे उस की खनकती हंसी और मुसकराती आंखें आज भी उस की उपस्थिति का उसे एहसास कराती हैं.

वक्त कभीकभी कितने सितम ढाता है, कौन जानता है? एक ऐक्सिडैंट में राधा के पति की अचानक मृत्यु हो गई. उस की तो दुनिया ही लुट गई. बच्चों ने एक बार फिर दोहराया, ‘मम्मी, यहां कैसे अकेली रहोगी, हमारे साथ अमेरिका में रहना ठीक होगा.’

‘नहीं, तुम्हारे पापा मुझे यहीं बैठा गए हैं. इस घर में आज भी तुम्हारे पापा हैं, उन के साथ जुड़ी यादें है. मुझे अभी यहीं रहने दो.’

‘बेटे अनिल और सुनील मां के मन की दशा को समझते थे. सो, चुप रहे. हां, एक पुरानी कामवाली व उस के बेटे से कहा, ‘आज से, तुम दोनों हमारे घर में ही रहोगे. कोई तो हो जो मां के साथ हो.’ कामवाली कमला और उस के बेटे बौबी को, अनिल और सुनील अच्छी तरह जानते थे, सो, तसल्ली थी.

ऐसे समय पर राधा को सुषमा की बड़ी याद आई. वक्त से बढ़ कर मरहम भी कोई नहीं है. फिर भी बच्चों ने सलाह दी कि मम्मी को कोई काम पकड़ना चाहिए. काम में व्यस्त रहेंगी तो मन लगा रहेगा.

राधा ने एक एनजीओ जौइन कर लिया. वक्त आसानी से कट जाता. लेकिन कई बार उसे लगता, 5 कमरों के इस दोमंजिले घर का ऊपरी हिस्सा तो बंद ही रहता है. साफसफाई के साथ आएदिन मरम्मत की जरूरत भी मुंहबाए खड़ी रहती है. कई लोगों ने बच्चों को सलाह दी, ‘इस मकान को बेच दो, अच्छे पैसे मिल जाएंगे? बदले में मां को एक छोटा फ्लैट खरीद दो. आधे दाम में एवन सोसायटी में बड़ा अच्छा फ्लैट मिल सकता है.’

‘वक्त की दौड़ में शामिल होना समझदारी हो सकती है. पर मेरे घर को ले कर ऐसा कुछ सोचना, समझदारी न होगी. नहीं, इस घर में हमारा बचपन बीता है, हमारे बचपन की मीठी यादें इस से जुड़ी हैं. यह घर हमारे दादीदादा की धरोहर है. इस का कोई मोल नहीं है.’ बेटों के मुंह से पति की भाषा सुन कर राधा को बड़ी खुशी हुई.

‘क्यों न हम ऊपर की मंजिल को किराए पर चढ़ा दें?’ बेटों ने प्रस्ताव रखा.

‘यह ठीक रहेगा, चहलपहल भी रहेगी और आमदनी भी होगी,’ राधा को बात पसंद आई. ऊपर की मंजिल में एक लाइब्रेरी है जिसे एक ट्रस्ट चलाता है. किराया भी अच्छा मिल जाता है. यह बच्चों की सूझबूझ से हुआ है. इस बीच, आसमान में बदलों के गरजने की जोरदार आवाज आई तो राधा के विचारों का सफर खत्म हुआ.

आज जब राधा को, सुषमा का मेल आया तो वह लाइब्रेरी में ही थी. ट्रस्ट के मैनेजर कई बार उस से कह चुके हैं ‘मैडम, हमें कोई लाइब्रेरियन बताएं. हमारे पास कोई लाइब्रेरियन नहीं है.’ वह सोच रही थी, ‘काश, आज सुषमा होती…’ ईमेल फिर से पढ़ कर सोचने लगी, ‘क्या जवाब दूं?’

‘प्रिय सुषमा

‘तेरी तरह मैं भी तुझे कभी नहीं भूली. यह दिल, घर का यह दरवाजा हमेशा ही तेरे स्वागत में खुला है. यह हिंदुस्तान है, यहां लोग किसी के घर पूछबता कर नहीं आते. फिर तू ने क्यों पूछा? शायद, विदेशी सभ्यता में ढल गई है. आएगी तो कान खींचूंगी, भला अपनी सभ्यता क्यों भूली.

‘तेरी अपनी राधा.’

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे पर सुषमा को देख राधा चौंक पड़ी

‘‘अरे, यह कैसा सुखद संयोग.’’

‘‘लो, तूने ही तो मुझे याद दिलाया था कि यह हिंदुस्तान है. बस, मुंह उठाए चली आई. कोई शक?’’

‘‘नहीं, कोई शक नहीं,’’ राधा ने देखा, दोनों के मिलनसुख में सुषमा के नयन कटोरे छलछला रहे हैं. राधा भी अपने को रोक न सकी. दोनों सहेलियां बहुत देर तक अनकहे दुख से एकदूसरे को भिगोती रहीं. पतियों की बातें, उन की मृत्यु का दुखद आगमन, फिर बच्चे. बच्चों की बात पर सुषमा चुप हो गई. राधा को कुछ अजीब सा लगा.

सो, आगे कुछ भी न बोली. सोचा, थकी है शायद, जैटलैग उतरेगा, तभी सामान्य हो पाएगी. बच्चों की बातें फिर कभी.

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सुषमा को आए डेढ़ महीना गुजर गया था. पर चेहरे की उदासी न गई. हंसताखिलखिलाता चेहरा जैसे वह अमेरिका में ही छोड़ आई थी.

‘‘क्या तुझे यहां मेरे घर में कुछ परेशानी है?’’ राधा के मन में कहीं अपराधबोध भी था.

‘‘अरे नहीं, बस यों ही,’’ सुषमा बात को टालना चाहती थी.

एक दिन एनजीओ से लौटी तो देखा सुषमा फूटफूट कर रो रही थी.

उसे रोता देख राधा घबरा गई, ‘‘क्या हुआ? बताती क्यों नहीं. मुझ से तो कहती है, मैं तेरी सहेली हूं. फिर क्यों अंदर ही अंदर घुट रही है?’’

यह सुन कर सुषमा का रोना और तेज हो गया.

राधा ने उसे झकझोर कर कहा, ‘‘मैं जो समझ पा रही हूं वह शायद यह है कि कोई ऐसी बात तो जरूर है जो तू मुझ से छिपा रही है. वैसे, मैं होती कौन हूं यह सब पूछने वाली? मैं तेरी कलीग ही तो हूं. बहुत बदल गईर् है, तू.’’

‘‘राधा, नहीं ऐसा मत कह, तू ही तो है जिस से आज तक मैं ने हर बात साझा की है,’’ वह बताने लगी, ‘‘10 साल पहले हम ने इंडिया छोड़ने से पहले देहरादून में फ्लैट खरीदा था. यह सोच कर कि कभी इंडिया आएंगे तो ठाठ से रहेंगे. जाते समय फ्लैट की चाबी जेठ के बेटे रवि को दे गई थी. यहां आने से पहले मैं ने रवि से फोन पर कहा, साफसफाई करा कर रखना. मैं इंडिया आ रही हूं. काफी समय से मैं उस के संपर्क में हूं. कुछ दिनों पहले कहता था, घर तैयार नहीं है.

‘‘आज फोन किया तो बताया, ‘आंटी, वह मकान मैं ने बेच दिया है. जल्दी दूसरा खरीद दूंगा. मुझे एक महीने का समय दो.’ राधा, मैं तो कहीं की नहीं रही. पहले तो मेरे बच्चों ने दुत्कार दिया, अब यहां ये सब…’’

‘‘क्या? बेटों ने तुझे दुत्कारा? मुझे कुछ अंदाजा तो था कि आज डेढ़ महीने से अंदर ही अंदर किसी दर्द को ले कर तू तड़प रही है,’’ राधा ने मन की बात कह दी.

‘‘हां, आज मैं तुझे सारी कहानी सुनाऊंगी, 10 वर्षों पहले मेरे बेटों ने खूबसूरत साजिश रची थी. हम दोनों को इमोशनल ब्लैकमेल कर के, हमें अमेरिका आने का निमंत्रण दिया. हम ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया तो कहा, ‘आप दोनों के नाम से हम एक होटल खोलना चाहते हैं. इस में आप का शेयर भी होगा.’ रमेश को लगा, बच्चों ने ठीक सोचा है. घर का पैसा घर में ही रहेगा. कुछ पैसे से हम ने देहरादून में फ्लैट खरीद लिया. जिस के बारे में बच्चों को आज भी जानकारी नहीं है. हां, कुछ पैसे हम ने यहां बैंक में भी छोड़ दिए थे.

‘‘अमेरिका पहुंच कर हम दोनों की खुशी दूनी हो गई जब पता लगा हम दोनों दादादादी बनने वाले हैं. बड़े बेटे विशाल के घर मेहमान आने वाला है. सोच कर मैं ने बहू को अपने गले की चेन देने का मन बना लिया था. बहू के घर बेटा हुआ. मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था. बहू की सेवा में मैं दिनरात लगी रहती थी.

‘‘बच्चा 6 महीने का हो गया तो बहू औफिस जाने लगी. दिनभर बच्चा मेरे पास रहता, रात को बहू के आने पर मैं रसोई में घुस जाती. पर अब तक मैं थक कर चूर हो चुकी होती थी. बच्चा 2 साल का हो गया तो नर्सरी जाने लगा. मैं ने राहत की सांस ली. तभी एक दिन छोटी बहू का फोन आया, ‘मांजी, आप फिर से दादी बनने वाली हैं. मैं आप को आ कर ले जाऊंगी.’

‘‘ठीक है, बहू की बात सुन कर मन तो खुश हुआ पर याद आया, कुछ दिनों पहले इसी के पति (मेरे बेटे) ने बताया था. ‘इंडिया से मेरी सास आई हैं. कुछ महीने रहेंगी.’ क्या बहू अपनी मां को प्रसव तक रोक नहीं सकती थी?

‘‘पहली बार लगा, मुझे इन लोगों ने फालतू समझा है? चुप रही. छोटे के घर बेटी ने जन्म लिया. मैं पिछला सब भूल कर फिर अपनी पुरानी फौर्म में आ गई. सोचने लगी, मेरे पास और काम ही क्या है, ये तो अपने बच्चे हैं. मैं जब नौकरी करती थी, तब मेरी सास बच्चों को संभालती थीं. मैं कुछ अनोखा तो कर नहीं रही. हां, यह जरूर था अब मैं पहले की अपेक्षा थकने लगी थी. मेरी थकान से जिसे सब से ज्यादा तकलीफ होती थी, मेरे पति थे. वे कहते, ‘क्यों सारा दिन खटती हो. बिलकुल नौकरमाई बन गई हो. छोड़ोे सब.’ मैं जानती थी. मेरी तकलीफ पति के सिवा कोई नहीं समझता.

‘‘एक दिन रमेश को दिल का दौरा पड़ा. बहुत कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका. मेरी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गईर् थी. दिनरात अकेले पड़ी रोती रहती. कभी कोई बेटा या बहू पूछने भी न आते. कभीकभार छोटी बिटिया मेरे आंसू पोंछ कर तोतली भाषा में पूछ लेती, ‘दादी मम्मा, आप क्यों रो रही हो?’ मन करता खूब चिल्लाचिल्ला कर रोऊं. कितनी दुखी और बेबस हूं मैं. इन सब से तो यह 5 वर्ष की बिटिया भली है जो मेरे आंसू देख कर बेचैन हो जाती है. राधा, मैं बिलकुल टूट चुकी थी. तब मुझे यहां की बहुत याद आई. जी करता पंख लगा कर उड़ जाऊं, इंडिया पहुंच जाऊं.

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‘‘एक रोज बीच वाली बहू ने फोन किया, ‘मम्मी, अब आप मेरे पास रहेंगी.’

‘‘‘नहीं बेटा, मुझे माफ करो. अब मैं तुम लोगों की सेवा न कर पाऊंगी.’

‘‘‘क्यों?’

‘‘मैं रुलाई रोक न पाई. उधर से बहू ने फोन पलट दिया. मैं रोती रही. उस दिन मुझे यकीन हो गया कि इन बच्चों ने मुझे आयानौकर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझा. ये बच्चे मेरे दुख को क्यों नहीं समझते? पति को गए सिर्फ 6 महीने हुए हैं. मुझे तो दोशब्द संवेदना के चाहिए. ये फोन पटक कर अपना गुस्सा दिखा रहे हैं.

‘‘राधा, इस घटना के बाद सब के चेहरे का नकाब उतरने लगा. मुझे ले कर बहूबेटों में खुसरफुसुर होने लगी. परोक्ष से कई बार सुना. ‘मम्मी, हम तीनों के पास 4-4 महीने रहेंगी.’ एक बहू बोली, ‘न, न, न.’ दूसरी ने कहा, ‘तो क्या करें?’

‘‘राधा, बस, मैं ने समझ लिया था कि यहां रुकना ठीक नहीं हैं. किंतु जाऊंगी कहां? कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा.

‘‘एक दिन बड़े बेटे विशाल ने कहा, ‘मम्मी, हम नया हौस्पिटल खोल रहे हैं. हमें कुछ पैसा चाहिए. पापा के जो 20 लाख रुपए जमा हैं, उन में से 15 लाख रुपए दे दो.’

‘‘‘सोचूंगी.’

‘‘मैं ने सोच रखा था, इन्हें तो अब एक कौड़ी न दूंगी. एक दिन छोटे बेटे विभव ने कहा, ‘मम्मी, एक  और बात, हम लोगों का छोटे फ्लैट में शिफ्ट होने का इरादा है. ऐसे में हम तीनों के साथ आप रह न सकोगी. सो, 6 महीने के लिए आप ओल्डएज होम में रह लो. नया घर बनते ही हम आप को ले आएंगे.’

‘‘मैं निशब्द, लगा, सारे शरीर का खून निचुड़ गया है. मैं ने हिम्मत दिखाई. मन के भीतर जो उमड़ रहा था, सब कह देना चाहती थी. सो, ‘ठीक है बेटा, तुम सब ने मिल कर बढि़या खेल रचा है. पहले हमें इमोशनल ब्लैकमेल कर के बच्चे पालने के लिए यहां बुला लिया. 10 वर्षों तक तुम हम से काम लेते रहे. जब मैं ने मानसिक व शारीरिक असमर्थता दिखाई, तो ओल्डएज होम का रास्ता दिखा दिया. अरे, गोरों के साथ रह कर तुम्हारे तो खून भी सफेद हो गए हैं. लानत है मुझ पर, मेरी कोख पर, जिस ने ऐसी निकम्मी औलादें पैदा कीं.’

‘‘‘कहां गए वे संस्कार, वे भारतीयों के जीवन मूल्य? थू है तुम पर, तुम्हारी शिक्षा पर.’ मेरी तीखी आवाज सुन कर बेटे इधरउधर हो गए थे. बहुएं तो पहले ही खिसक गई थीं. मैं बड़ी देर तक अकेली रोती रही. कमरे से बाहर आ कर किसी ने संवेदना के दोशब्द भी न कहे.

‘‘राधा, विश्वास नहीं होता था ये हमारे बेटे हैं. मैं ने तय कर लिया था, मैं इंडिया वापस जाऊंगी, यहां रही तो घुटघुट कर मर जाऊंगी. पर सवाल यह था, जाऊंगी कहां, रहूंगी कहां? मन अतीत के पन्ने पलटने लगा.

‘‘मन की लिस्ट में सब से ऊपर तेरा नाम था. इसीलिए मेल डाला था, ‘इंडिया पहुंच कर क्या मैं तेरे पास रुक सकती हूं? शुक्र है, अंतिम समय, अपनी धरती तो नसीब हो गई. नहीं तो किसी ओल्डएज होम की दीवारों से टक्कर मारमार कर मर जाती.’’

सुषमा अचानक चुप हो गई थी. सिर्फ आंखें बह रही थीं. राधा अपने को न रोक पाई. सहेली ने जो कुछ झेला है, दिल दहला देने वाला है. ठीक कह रही है- यकीन नहीं होता कि ये अपने बच्चे हैं जिन के संस्कारों और अनुशासन की पूरा महल्ला दुहाई देता था. उसी परिवार की एक मां आज बच्चों के दुर्व्यवहार से कितनी दुखी है. राधा जानती थी, रो कर सुषमा का मन हलका हो जाएगा.

‘‘10 मिनट बाद सुषमा ने कहा, अच्छा राधा, यह बता मैं कहां गलत थी?’’

‘‘नहींनहीं, तू कहीं गलत न थी. गलत तो समय की चाल थी. हां, इंडिया आने का तेरा फैसला बिलकुल सही था. बस, यह समझ, तू यहां सुरक्षित है. कई बार भावावेश में हम ऐसे फैसले ले लेते हैं जिन के परिणाम का हमें एहसास नहीं होता. सुषमा, मेरी समझ से महत्त्वाकांक्षी होना अच्छा है. पर स्वाभिमान को मार कर महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करना गलत है. सच तो यह है कि तेरे बेटों ने तेरे स्वाभिमान का सौदा किया है, जिसे तू समझ नहीं पाई. जब समझ आई, तो बहुत देर हो चुकी थी.’’

‘‘तू ठीक कहती है राधा,’’ सुषमा खामोश थी.

‘‘वैसे, तेरे बच्चों का भी कोई कुसूर नहीं है. वहां का माहौल ही ऐसा है. हमारे अपने वहां सहूलियतों और पैसों की चमक में रिश्तों की गरिमा को भूल जाते हैं. वे कोई ऐसी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते है जिस में उन की आजादी में बाधा पड़े. देखने में तो यह आया है कि विदेश जा कर बसे बच्चे, मांबाप को अपने पास सिर्फ जरूरत पड़ने पर बुलाते हैं. आ भी गए तो अपने साथ रखना नहीं चाहते हैं. इसीलिए तेरे बच्चों को जब लगा कि मां एक बोझ है तो बेझिझक, ओल्डएज होम का रास्ता दिखा दिया.

‘‘बदलाव यहां भी आया है. बच्चे यहां भी अलग रहना चाहते हैं. फिर भी एक चीज जो यहां है वहां नहीं है, रिश्तों की गरमाहट का एहसास. साथ ही, यहां बच्चों में बूढ़ों के दर्द को महसूस करने और उन की संवेदनाओं को समझने का जज्बा है. यही एहसास उन्हें मांबाप से दूर हो कर भी पास रखता है. तेरे बेटे रिश्तों की गरमाहट की कमी को तब महसूस करेंगे जब इन के बच्चे अपने मांबाप यानी उन को ओल्डएज होम का रास्ता दिखाएंगे. मन मैला मत कर. बच्चों से हमारी ममता की डोर कभी नहीं टूटती. हम उन का बुरा कभी नहीं चाहेंगे. वे जहां भी रहें, खुश रहें. अब आगे की सोच.’’

‘‘हां, वही सोच रही थी. रवि ने तो मेरी सोच के सारे दरवाजे बंद कर दिए.’’

‘‘जब सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं तो एक दरवाजा तो जरूर खुला होता है.’’

‘‘बता, कौन सा दरवाजा खुला है?’’

‘‘राधा का दरवाजा. देख, ध्यान से सुन, मैं यहां अकेली हूं. तू साथ रहेगी, तो मुझे भी हिम्मत बंधी रहेगी. मैं तुझ से सच कह रही हूं.’’

‘‘लेकिन कब तक?’’ सुषमा को राधा का प्रस्ताव कुछ अजीब सा लगा, ‘‘पर तेरे बेटे? वे क्या सोचेंगे?’’

‘‘यह घर मेरा है. मुझे अपने घर में किसी को बुलाने, रखने का पूरा हक है. वे दोनों तो खुश होंगे, कहेंगे, मम्मी, बहुत अच्छा किया जो सुषमा आंटी ने आप के साथ रहने का मन बना लिया है. अब हमें बेफिक्री रहेगी. कम से कम आप दो तो हो. सच तो यह है कि हम दोनों ने जीवन में वसंत को साथसाथ जिया. हर खुशी व तकलीफ में साथ थे. घरपरिवार के हरेक फैसले साथ लेते थे. आज भी हम साथ हैं. बेशक, यह उम्र का पतझड़ है, पर इसे हम वसंत की तरह तो जी सकते हैं. मेरे बेटे कहते हैं, ‘मम्मी, जो इस उम्र में साथ देता है वही सच्चा मित्र है. वे चाहे बच्चे हों, पड़ोसी हों या कोई और हो.’’’

‘‘राधा, तू कितनी खुश है जो ऐसी सोच वाले बच्चे हैं. एक मेरे…’’

‘‘ओह, तू फिर अपनों को कोसने लगी. छोड़ वह सब, आज में जीना सीख.’’

‘‘पर यह तो सोच, मैं यहां सारा दिन अकेली…’ सुषमा बोली थी.

‘‘नहीं, मेरे पास उस का भी तोड़ है. वह ऊपर की लाइब्रेरी तू संभालेगी.’’

‘‘मैं, इस उम्र में लाइब्रेरियन…’’

‘‘क्यों, मैं भी तो एनजीओ के लिए काम करती हूं. एक बात कहूंगी, यों खाली बैठ कर तू भी रोटी नहीं खाएगी. जानती हूं, पहचानती हूं तुझे और तेरे सम्मान को.’’

‘‘ठीक है, सोचूंगी.’’

दूसरे दिन सुबहसुबह खटरपटर सुन कर राधा ने रजाई से झांका, ‘‘कहां चली मैडम, सुबहसुबह?’’

‘‘लो, खुद ही तो नौकरी दिलाई. अरे, भूल गई? चल लाइब्रेरी तक तो छोड़ कर आ जा. पहला दिन है.’’

दोनों हंस रही थीं.

आज राधा ने कितने दिनों बाद सुषमा को खिलखिलाते देखा था. वही पहली वाली हंसी थी. कहीं मन में किसी ने कहा, खुशी ही तो जीवन की सब से नियामत है. इसे कहते हैं, पतझड़ में वसंत.

यह भी खूब रही एक बार मैं अपनी चाचीजी के साथ उन के पीहर गई. चाचीजी के पैर में पोलियो है, वे वाकर के सहारे से चलती हैं. उम्र 70 साल है. वे बहुत ही दुबलीपतली हैं. उन के पीहर का फ्लैट 5वें तले पर है. कुरसी पर बैठा कर 2 व्यक्ति उन्हें ऊपर चढ़ा देते हैं.

उस दिन हम ज्यों ही टैक्सी से उतरे, सामने झाकावला (बड़ी टोकरी में सामान ले जाने वाला) दिखाई दिया. उन्होंने उस से कहा, ‘‘भैया, इधर आ, सामान ढोएगा.’’

उस के हां कहने पर वे उस में बैठ गईं. झाकावाला उन्हें ऊपर ले गया. वहां पर सभी आश्चर्यचकित देखने लगे. फिर तो सब को बहुत हंसी आई. मैं भी जब इस घटना को याद करती हूं, मुसकराए बिना नहीं रहती.      अमराव बैद मैं अपने 5 साल के बेटे के साथ कुछ सामान खरीदने गई. उसी दुकान पर मेरे बेटे की ही कक्षा का लड़का भी अपने पिता के साथ कुछ खरीद रहा था. दोनों बच्चे आपस में बातें करने लगे. मैं ने अपने बेटे से कहा कि पास की ही दुकान से चौकलेट लेती हूं, आप बात कर के जल्दी आ जाइए.

मैं पास की दुकान पर चली गई. दुकानदार से कुछ टौफियां व 4 बड़ी चौकलेट मांगीं. दुकान पर कुछ मनचले युवक भी खडे़ थे. एक युवक ने कटाक्ष किया, ‘‘क्या बात है? टौफी खुद टौफी खाती है.’’

दूसरे ने कहा, ‘‘तभी तो टौफी जैसी है.’’

मैं ने गुस्से से उन की ओर देखा. दुकानदार ने मुझे पैकेट थमाते हुए कहा,

‘‘70 रुपए.’’

लड़का फिर बोला, ‘‘मैडम, गुस्सा क्यों दिखाती हैं, आज टौफियां हमारी ओर से ही खाइए.’’

यह कहने के साथ ही उस ने बड़ी शान से सौ रुपए का नोट दुकानदार की ओर उछाल दिया.

इतने में ही मेरा लड़का दौड़ते हुए आया और पूछा, ‘‘मम्मी, चौकलेट ले ली आप ने?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज चौकलेट इन अंकल ने आप के लिए ली है.’’

बच्चे ने भी बड़े मजे से कहा, ‘‘थैंक्यू अंकल.’’

अब उन लोगों की शक्लें देखने लायक थीं. बचे पैसे दुकानदार मुसकराते हुए उन्हें लौटा रहा था और मैं मुसकराते हुए अपने बेटे के साथ दुकान से निकल रही थी.

बच्चे की चाह में : राजो क्या बचा पाई अपनी इज्जत

लेखक- प्रदीप कुमार शर्मा

भौंरा की शादी हुए 5 साल हो गए थे. उस की पत्नी राजो सेहतमंद और खूबसूरत देह की मालकिन थी, लेकिन अब तक उन्हें कोई औलाद नहीं हुई थी. भौंरा अपने बड़े भाई के साथ खेतीबारी करता था. दिनभर काम कर के शाम को जब घर लौटता, सूनासूना सा घर काटने को दौड़ता. भौंरा के बगल में ही उस का बड़ा भाई रहता था. उस की पत्नी रूपा के 3-3 बच्चे दिनभर घर में गदर मचाए रखते थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजो रूपा के बच्चों को बुला लेती और उन के साथ खुद भी बच्चा बन कर खेलने लगती. वह उन्हीं से अपना मन बहला लेती थी.

एक दिन राजो बच्चों को बुला कर उन के साथ खेल रही थी कि रूपा ने न जाने क्यों बच्चों को तुरंत वापस बुला लिया और उन्हें मारनेपीटने लगी. उस की आवाज जोरजोर से आ रही थी, ‘‘तुम बारबार वहां मत जाया करो. वहां भूतप्रेत रहते हैं. उन्होंने उस की कोख उजाड़ दी है. वह बांझ है. तुम अपने घर में ही खेला करो.’’

राजो यह बात सुन कर उदास हो गई. कौन सी मनौती नहीं मानी थी… तमाम मंदिरों और पीरफकीरों के यहां माथा रगड़ आई, बीकमपुर वाली काली माई मंदिर की पुजारिन ने उस से कई टिन सरसों के तेल के दीए में मंदिर में जलवा दिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. बीकमपुर वाला फकीर जबजब मंत्र फुंके हुए पानी में राख और पता नहीं कागज पर कुछ लिखा हुआ टुकड़ा घोल कर पीने को देता. बदले में उस से 100-100 के कई नोट ले लेता था. इतना सब करने के बाद भी उस की गोद सूनी ही रही… अब वह क्या करे?

राजो का जी चाहा कि वह खूब जोरजोर से रोए. उस में क्या कमी है जो उस की गोद खाली है? उस ने किसी का क्या बिगाड़ा है? रूपा जो कह रही थी, क्या सचमुच उस के घर में भूतप्रेत रहते हैं? लेकिन उस के साथ तो कभी ऐसी कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, तो फिर कैसे वह यकीन करे? राजो फिर से सोच में डूब गई, ‘लेकिन रूपा तो कह रही थी कि भूतप्रेत ही मेरी गोद नहीं भरने दे रहे हैं. हो सकता है कि रूपा सच कह रही हो. इस घर में कोई ऊपरी साया है, जो मुझे फलनेफूलने नहीं दे रहा है. नहीं तो रूपा की शादी मेरे साथ हुई थी. अब तक उस के 3-3 बच्चे हो गए हैं और मेरा एक भी नहीं. कुछ तो वजह है.’

भौंरा जब खेत से लौटा तो राजो ने उसे अपने मन की बात बताई. सुन कर भौंरा ने उसे गोद में उठा लिया और मुसकराते हुए कहा, ‘‘राजो, ये सब वाहियात बातें हैं. भूतप्रेत कुछ नहीं होता. रूपा भाभी अनपढ़गंवार हैं. वे आंख मूंद कर ऐसी बातों पर यकीन कर लेती हैं. तुम चिंता मत करो. हम कल ही अस्पताल चल कर तुम्हारा और अपना भी चैकअप करा लेते हैं.’’

भौंरा भी बच्चा नहीं होने से परेशान था. दूसरे दिन अस्पताल जाने के लिए भाई के घर गाड़ी मांगने गया. भौंरा के बड़े भाई ने जब सुना कि भौंरा राजो को अस्पताल ले जा रहा है तो उस ने भौंरा को खूब डांटा. वह कहने लगा, ‘‘अब यही बचा है. तुम्हारी औरत के शरीर से डाक्टर हाथ लगाएगा. उसे शर्म नहीं आएगी पराए मर्द से शरीर छुआने में. तुम भी बेशर्म हो गए हो.’’ ‘‘अरे भैया, वहां लेडी डाक्टर भी होती हैं, जो केवल बच्चा जनने वाली औरतों को ही देखती हैं,’’ भौंरा ने समझाया.

‘‘चुप रहो. जैसा मैं कहता हूं वैसा करो. गांव के ओझा से झाड़फूंक कराओ. सब ठीक हो जाएगा.’’ भौंरा चुपचाप खड़ा रहा.

‘‘आज ही मैं ओझा से बात करता हूं. वह दोपहर तक आ जाएगा. गांव की ढेरों औरतों को उस ने झाड़ा है. वे ठीक हो गईं और उन के बच्चे भी हुए.’’ ‘‘भैया, ओझा भूतप्रेत के नाम पर लोगों को ठगता है. झाड़फूंक से बच्चा नहीं होता. जिस्मानी कमजोरी के चलते भी बच्चा नहीं होता है. इसे केवल डाक्टर ही ठीक कर सकता है,’’ भौंरा ने फिर समझाया.

बड़ा भाई नहीं माना. दोपहर के समय ओझा आया. भौंरा का बड़ा भाई भी साथ था. भौंरा उस समय खेत पर गया था. राजो अकेली थी. वह राजो को ऊपर से नीचे तक घूरघूर कर देखने लगा. राजो को ओझा मदारी की तरह लग रहा था. उस की आंखों में शैतानी चमक देख कर वह थोड़ी देर के लिए घबरा सी गई. साथ में बड़े भैया थे, इसलिए उस का डर कुछ कम हुआ.

ओझा ने ‘हुं..अ..अ’ की एक आवाज अपने मुंह से निकाली और बड़े भैया की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘इस के ऊपर चुड़ैल का साया है. यह कभी बंसवारी में गई थी? पूछो इस से.‘‘ ‘‘हां बहू, तुम वहां गई थीं क्या?’’ बड़े भैया ने पूछा.

‘‘शाम के समय गई थी मैं,’’ राजो ने कहा.

‘‘वहीं इस ने एक लाल कपडे़ को लांघ दिया था. वह चुड़ैल का रूमाल था. वह चुड़ैल किसी जवान औरत को अपनी चेली बना कर चुड़ैल विद्या सिखाना चाहती है. इस ने लांघा है. अब वह इसे डायन विद्या सिखाना चाहती है. तभी से वह इस के पीछे पड़ी है. वह इस का बच्चा नहीं होने देगी.’’ राजो यह सुन कर थरथर कांपने लगी.

‘‘क्या करना होगा?’’ बड़े भैया ने हाथ जोड़ कर पूछा. ‘‘पैसा खर्च करना होगा. मंत्रजाप से चुड़ैल को भगाना होगा,’’ ओझा ने कहा.

मंत्रजाप के लिए ओझा ने दारू, मुरगा व हवन का सामान मंगवा लिया. दूसरे दिन से ही ओझा वहां आने लगा. जब वह राजो को झाड़ने के लिए आता, रूपा भी राजो के पास आ जाती.

एक दिन रूपा को कोई काम याद आ गया. वह आ न सकी. घर में राजो को अकेला देख ओझा ने पूछा, ‘‘रूपा नहीं आई?’’ राजो ने ‘न’ में गरदन हिला दी.

ओझा ने अपना काम शुरू कर दिया. राजो ओझा के सामने बैठी थी. ओझा मुंह में कुछ बुदबुदाता हुआ राजो के पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक हाथ से छू रहा था. ऐसा उस ने कई बार दोहराया, फिर वह उस के कोमल अंगों को बारबार दबाने की कोशिश करने लगा.

राजो को समझते देर नहीं लगी कि ओझा उस के बदन से खेल रहा है. उस ने आव देखा न ताव एक झटके से खड़ी हो गई. यह देख कर ओझा सकपका गया. वह कुछ बोलता, इस से पहले राजो ने दबी आवाज में उसे धमकाया, ‘‘तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ रही हूं. तुम्हारी भलाई अब इसी में है कि चुपचाप यहां से दफा हो जाओ, नहीं ंतो सचमुच मेरे ऊपर चुड़ैल सवार हो रही है.’’

ओझा ने चुपचाप अपना सामान उठाया और उलटे पैर भागा. उसी समय रूपा आ गई. उस ने सुन लिया कि राजो ने अभीअभी अपने ऊपर चुड़ैल सवार होने की बात कही है. वह नहीं चाहती थी कि राजो को बच्चा हो. रूपा के दिमाग में चल रहा था कि राजो और भौंरा के बच्चे नहीं होंगे तो सारी जमीनजायदाद के मालिक उस के बच्चे हो जाएंगे.

भौंरा के बड़े भाई के मन में खोट नहीं था. वह चाहता था कि भौंरा और राजो के बच्चे हों. राजो को चुड़ैल अपनी चेली बनाना चाहती है, यह बात गांव वालों से छिपा कर रखी थी लेकिन रूपा जानती थी. उस की जबान बहुत चलती थी. उस ने राज की यह बात गांव की औरतों के बीच खोल दी. धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैलने लगी कि राजो बच्चा होने के लिए रात के अंधेरे में चुड़ैल के पास जाती है. अब तो गांव की औरतें राजो से कतराने लगीं. उस के सामने आने से बचने लगीं. राजो उन से कुछ पूछती भी तो वे उस से

सीधे मुंह बात न कर के कन्नी काट कर निकल जातीं. पूरा गांव उसे शक की नजर से देखने लगा. राजो के बुलाने पर भी रूपा अपने बच्चों को उस के पास नहीं भेजती थी.

2-3 दिन से भौंरा का पड़ोसी रामदा का बेटा बीमार था. रामदा की पत्नी जानती थी कि राजो डायन विद्या सीख रही है. वह बेटे को गोद में उठा लाई और तेज आवाज में चिल्लाते हुए भौंरा के घर में घुसने लगी, ‘‘कहां है रे राजो डायन, तू डायन विद्या सीख रही है न… ले, मेरा बेटा बीमार हो गया है. इसे तू ने ही निशाना बनाया है. अगर अभी तू ने इसे ठीक नहीं किया तो मैं पूरे गांव में नंगा कर के नचाऊंगी.’’ शोर सुन कर लोगों की भीड़ जमा

हो गई. एक पड़ोसन फूलकली कह रही थी, ‘‘राजो ने ही बच्चे पर कुछ किया है, नहीं तो कल तक वह भलाचंगा खापी रहा था. यह सब इसी का कियाधरा है.’’

दूसरी पड़ोसन सुखिया कह रही थी, ‘‘राजो को सबक नहीं सिखाया गया तो वह गांव के सारे बच्चों को इसी तरह मार कर खा जाएगी.’’ राजो घर में अकेली थी. औरतों की बात सुन कर वह डर से रोने लगी. वह अपनेआप को कोसने लगी, ‘क्यों नहीं उन की बात मान कर अस्पताल चली गई. जेठजी के कहने में आ कर ओझा से इलाज कराना चाहा, मगर वह तो एक नंबर का घटिया इनसान था. अगर मैं उस की चाल में फंस गई होती तो भौंरा को मुंह दिखाने के लायक भी न रहती.’’

बाहर औरतें उसे घर से निकालने के लिए दरवाजा पीट रही थीं. तब तक भौंरा खेत से आ गया. अपने घर के बाहर जमा भीड़ देख कर वह डर गया, फिर हिम्मत कर के भौंरा ने पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, राजो को क्या हुआ है?’’ ‘‘तुम्हारी औरत डायन विद्या सीख रही है. ये देखो, किशुना को क्या हाल कर दिया है. 4 दिनों से कुछ खायापीया भी नहीं है इस ने,’’ रामधनी काकी

ने कहा. गुस्से से पागल भौंरा ने गांव वालों को ललकारा, ‘‘खबरदार, किसी ने राजो पर इलजाम लगाया तो… वह मेरी जीवनसंगिनी है. उसे बदनाम मत करो. मैं एकएक को सचमुच में मार डालूंगा. किसी में हिम्मत है तो राजो पर हाथ उठा करदेख ले,’’ इतना कह कर वह रूपा भाभी का हाथ पकड़ कर खींच लाया.

‘‘यह सब इसी का कियाधरा है. बोलो भाभी, तुम ने ही गांव की औरतों को यह सब बताया है… झूठ मत बोलना. सरोजन चाची ने मुझे सबकुछ बता दिया है.’’

सरोजन चाची भी वहां सामने ही खड़ी थीं. रूपा उन्हें देख कर अंदर तक कांप गई. उस ने अपनी गलती मान ली. भौंरा ओझा को भी पकड़ लाया, ‘‘मक्कार कहीं का, तुम्हारी सजा जेल में होगी.’’

दूर खड़े बड़े भैया की नजरें झुकी हुई थीं. वे अपनी भूल पर पछतावा कर रहे थे.

समझदार सासूमां: नौकरानी की छुट्टी पर जब बेहाल हुईं श्रीमतीजी

किचनमें पत्नीजी के द्वारा जिस तरह से जोरजोर से बरतन पटके जा रहे थे, उस से मुझे अंदाजा हो गया कि घर में काम करने वाली ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली है, इसलिए नाराजगी बरतनों पर निकल रही है.

नौकरानी का घर पर नहीं आने का दोष भला बरतनों पर क्यों उतारा जाए? मैं सोचता रहा लेकिन उन से कुछ कहा नहीं. रात को बिस्तर में जाने से पहले वे फोन पर अपनी मां से नौकरानी की शिकायतें करती रहीं, ‘‘मम्मी, ये कमला ऐसे ही नागा करती है. इस का वेतन काटो तो बुरा मुंह बना लेती है. मैं तो यहां की नौकरानियों से तंग आ चुकी हूं.’’

उधर सासूजी न जाने क्या कह रही थीं, जिसे सुन कर पत्नीजी हांहूं किए जा रही थीं. फिर वे कह उठीं, ‘‘नहीं मम्मीजी, ऐसा मत कहो,’’ और फिर जोरों से हंस दीं.

आखिर मामला क्या है? सोच कर मेरा दिल जोरों से धड़क उठा.

पत्नीजी ने टैलीफोन रखा और गीत गुनगुनाती हुई आ कर लेट गईं.

‘‘बड़ी खुश हो, क्या नई नौकरानी खोज ली?’’ मैं ने उन से पूछा.

‘‘मेरी खुशी भी नहीं देखी जाती?’’ उन्होंने तमक कर कहा.

‘‘यही समझ लो, फिर भी बताओ तो कि मामला क्या है? क्या सासूजी आ रही हैं?’’

‘‘आप को कैसे पता?’’ पत्नी ने खुशीखुशी कहा.

मुझे तो जैसे बिजली का करंट लग गया. मैं ने सोचा सासूजी आएंगी तो कई महीने रह कर घर का बजट किसी भूकंप की तरह तहसनहस कर के ही जाएंगी.

मैं भी कल से 7-8 दिनों की छुट्टी ले कर कहीं चला जाता हूं, मैं ने मन ही मन विचार किया.

‘‘तुम्हें इतना खुश देख कर समझ गया था कि तुम्हारी मम्मीजी आ रही हैं,’’ मैं ने उन से कहा.

‘‘तुम कितने समझदार हो,’’ पत्नीजी ने मुझ से कहा तो सच जानिए मैं शरमा गया.

‘‘इसीलिए तो तुम ने मुझ से विवाह किया,’’ मैं ने कहा और उन के चेहरे को पढ़ने लगा. वे भी शर्म से लाल हो रही थीं.

मैं ने फिर प्रश्न किया, ‘‘वह घर की नौकरानी कब तक आ रही है?’’

पत्नीजी ने कहा, ‘‘एक बात सुन लीजिए. जब तक किसी के जीवन में चुनौतियां न हों, जीने का मजा ही नहीं आता. और प्रत्येक व्यक्ति के पीछे एक सैकंड लाइन होनी आवश्यक है.’’

मैं ने सुना तो मैं घबरा गया. पत्नीजी आखिर ये कैसी बातें कर रही हैं? मैं ने तो कभी पत्नीजी के पीछे किसी सैकंड लाइन के विषय में सोचा तक नहीं और आज ये क्या कह रही हैं? क्या मैं छुट्टी पर जा रहा हूं तो कोई दूसरा पुरुष मेरे स्थान पर यहां होगा? सोच कर ही मेरी रूह कांप गई. मेरे चेहरे पर आ रहे भावों को देख कर वे ताड़ गईं कि मेरे मन में क्या भाव चल रहा है.

हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं आप के विषय में नहीं कह रही हूं…’’

‘‘फिर?’’

‘‘मैं घर की नौकरानी कमला के बारे में कह रही हूं. उस की नागा, उस के अत्याचार इतने बढ़ चुके हैं कि आप विश्वास नहीं करेंगे कि मुझे उस से डर लगने लगा है. कभी भी नागा कर जाती है, वेतन काटो तो नौकरानियों के यूनियन में जाने की धमकी देती है. काम ठीक से करती नहीं. लेकिन मैं काम से निकाल नहीं सकती, क्योंकि घर में काम बहुत अधिक है…’’

‘‘फिर क्या सोचा…?’’

‘‘प्रत्येक परेशानी का कोई न कोई उपाय तो निकलता ही है.’’

‘‘क्या उपाय है वह?’’

‘‘वह उपाय ले कर ही तो मम्मीजी आ रही हैं,’’ पत्नीजी ने रहस्य को उजागर करते हुए कहा.

‘‘क्या उपाय है कुछ तो बताओ.’’

‘‘यह तो उन्होंने बताया नहीं, लेकिन वे कह रही थीं कि पूरी कालोनी की कामवाली बाइयों को सुधार कर रख दूंगी.’’

चूंकि सासूजी से मेरी कभी पटी नहीं थी, इसलिए मैं ने फिर सोचा कि उन के आने पर 7-8 दिनों की छुट्टी ले कर मैं शहर से बाहर घूम आता हूं. फिर मैं जिस सुबह बाहर गया, उसी रात को सासूजी ने मेरे घर में प्रवेश किया. पूरे 8 दिनों बाद मैं जब घर लौट कर आया तो देखा कि बालकनी में हमारी पत्नी गरमगरम पकौड़े खा रही हैं. सासूजी झूले में लेटी हैं और कमला यानी घर की नौकरानी रसोई में पकौड़े तलतल कर खिला रही है.

हमें आया देख कर पत्नीजी दौड़ कर हम से लिपट गईं और कहने लगीं, ‘‘यहां सब ठीक हो गया.’’

‘‘यानी कमला बाई वाला मामला…?’’

‘‘हां, कमला बाई एकदम ठीक हो गई.’’

‘‘कैसे…?’’

‘‘वह मैं बाद में बताऊंगी.’’

इतनी देर में कमला बाई प्रकट हो गई. हमारा सामान उठाया, कमरे में रखा और घर के बरतन साफ कर के, किचन में पोंछा लगा कर जातेजाते हमारे कमरे में आई और पत्नीजी से कहने लगी, ‘‘जाती हूं मेम साब नमस्ते.’’ यह कह कर वह सासूजी की ओर पलटी और बोली, ‘‘मैं जाती हूं अध्यक्षजी,’’ फिर वह विनम्रता के साथ चली गई.

घमंड में चूर रहने वाली कमला, जो एक भी अतिरिक्त काम नहीं करती थी और हमेशा अतिरिक्त काम का अतिरिक्त रुपया मांगती थी, आखिर ऐसा क्या हो गया कि इतनी बदल गई? मैं सोच रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था.

रात को भोजन के बाद जब पत्नीजी, मैं और सासूजी बैठ कर गप्पें मारने बैठे तो पत्नीजी ने बताया, ‘‘मैं कमला से बहुत परेशान हो गई थी. इस का असर पूरी गृहस्थी पर पड़ रहा था. मम्मीजी से मैं ने यह बात शेयर की, तो मम्मीजी ने कहा कि मैं आ कर एक दिन में सब परेशानियों को निबटा दूंगी.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘वही तो बता रही हूं पर आप को एक पल का भी चैन नहीं है. हुआ यह कि मम्मीजी ने मुझे आने पर बताया कि उन का परिचय कमला बाई से यह कह कर करवाया जाए कि जहां ये रहती हैं वहां की नौकरानियों की यूनियन अध्यक्ष हैं. मैं ने वही किया भी. मम्मीजी ने यहां के काम को देखा और कमला बाई के सामने मुझ से कहा कि पूरी कालोनी में कितनी नौकरानियों की जरूरत है? मैं कामवाली बाइयों को काम भी दिलवाती हूं और इस समय 150 से अधिक काम करने वाली महिलाओं का पंजीयन मेरे पास है. वे सब यहां दिल्ली में काम करने के लिए आने को भी तैयार हैं. यहां काम कम, वेतन अधिक है और शहर की सारी सुविधाएं हैं.

‘‘लेकिन मम्मीजी इतनी कामवाली बाइयां रहेंगी कहां?’’ मैं ने पूछा तो वे बोलीं कि तू उस की चिंता मत कर. वैलफेयर डिपार्टमैंट ऐसी महिलाओं के निवास की व्यवस्था कम से कम दामों में कर देता है.

‘‘मम्मीजी पूरी कालोनी में 10 काम करने वाली महिलाओं की जरूरत है, मैं ने मम्मीजी से कहा तो उन्होंने तुरंत मोबाइल निकाल कर कमला बाई के सामने नंबर मिलाया ही था कि कमला ने दौड़ कर मम्मीजी के पांव पकड़ लिए और रोते हुए कहने लगी कि मैडमजी पीठ पर लात मार लो, लेकिन किसी के पेट पर लात मत मारो.

‘‘क्यों क्या हुआ? मम्मीजी बोलीं तो वह बोली कि मैडमजी सारी कामवाली बाइयां बेरोजगार हो जाएंगी.

‘‘लेकिन तुम भी तो परेशान करने में कसर नहीं करती हो, यह कहने पर उस का कहना था कि ऐसा नहीं है मैडमजी, हम जानबूझ कर छुट्टी ले कर केवल अपनी उपयोगिता बताना चाहते हैं कि हम भी इंसान हैं और हमारे नहीं आने से आप के कितने काम डिस्टर्ब हो जाते हैं. इसलिए आप हमें इंसान समझ कर इंसानों को जो बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए उन्हें हमें भी दिया करें.’’

‘‘कह तो यह सच रही है, मेरी ओर मम्मीजी ने देख कर कहा.

‘‘मैं पूरी बुनियादी सुविधाएं देने को तैयार हूं,’’ मैं ने झट से कहा.

‘‘आप को कभी मुझ से शिकायत नहीं मिलेगी. मुझ से ही नहीं कालोनी की काम करने वाली किसी भी महिला से,’’ उस ने मुझे आश्वासन दिया तो मम्मीजी ने मोबाइल बंद कर दिया और उसी दिन से कमला के व्यवहार में 100% परिवर्तन आ गया,’’ पत्नीजी ने पूरी बात का खुलासा करते हुए कहा.

‘‘वाह, क्या समझदारी का सुझाव सासूजी ने दिया. सांप भी मर गया, लाठी भी नहीं टूटी,’’ मैं ने प्रसन्नता से कहा.

‘‘लेकिन आप नौकरानी यूनियन की अध्यक्ष कब बनीं?’’ मैं ने सासूजी से हैरत से पूछा.

‘‘लो कर लो बात. तुम भी कितने भोले हो. अरे वह तो उस को ठीक करने का नाटक था,’’ सासूजी बोलीं.

फिर हम सभी जोर से हंस पड़े. हमें अपनी समझदार सासूमां की तरकीब पर गर्व हो आया.

उत्तरजीवी: क्यों रह गई थी फूलवती की जिंदगी में कड़वाहट?

लेखक- के मेहरा

नारायणदास, यह देखो, तुम्हारा इकलौता पोता रोहित, तुम्हारे बेटे अजीत का बेटा, आज घोड़ी चढ़ रहा है.

मोगरा के फूल बिखरे पड़े हैं. मोगरा, जो मैं तुम्हारे लिए सफेद चादर पर बिछा देती थी, अपने जूड़े में छिपा लेती थी, मुट्ठी भरभर कर तुम्हारे ऊपर बिखेरती थी, जब तुम मेरे पास खुली छत पर चांदनी बटोरने चले आते थे.

शहनाई बज रही है. कभी मैं ने भी चाहा था कि मेरी बरात आए और शहनाई बजे. आज भी वही धुन बज रही है जो हमतुम गुनगुनाते थे, ‘तेरे सुर और मेरे गीत, दोनोें मिल कर बनेंगे प्रीत.’ मेरा रोमरोम झनक रहा है. मैं अंतर्मन से भीगी इस बच्चे को आशीष दे रही हूं. काश, तुम जिंदा होते, यह मंजर देखने के लिए.

रोहित की दुलहन का पिता कर्नल है. दादा राजदूत रह चुका है. बड़ेबड़े राजनेता आए हैं शादी में. मिलिटरी बैंड से बरात चढ़ रही है. एक से बढ़ कर एक गाड़ी, सब घोड़ी के पीछे रेंग रही हैं और उन में बैठी हैं राजरानियां, हीरेमोती चमकाती, साडि़यां सरसराती, खुशबू फैलाती.

तुम कहां हो? और कहां है तुम्हारी घमंडी बीवी राजरानी? दिल नहीं चाहता कि आगे सोचूं. बस, अपने चश्मे के मोटे शीशों से आज का नजारा देख रही हूं, अकेली मैं. बेटियांबहुएं दादीजीदादीजी की गुहार बीसियों बार लगा चुकी हैं, कानों पर विश्वास नहीं होता. अजीत का बेटा मेरे पांव छू कर मुझ से मेरा आशीर्वाद लेने आया घोड़ी चढ़ने से पहले. अजीत और उस की बहू ने भी पांव छुए. यकीन नहीं होता.

तुम ने यह हक मुझे जीतेजी कभी नहीं दिया था. तुम्हारी मौत ने दे दिया. तुम नहीं रहे, राजरानी नहीं रही, न रही तुम्हारी खबीसनी बहन, देशी. मैं तुम सब से उम्र में छोटी थी, सो अभी तक जिंदा हूं तुम्हारे हिस्से के सुखदुख उठाने को.

अजीत की बहू सुनंदा ने न्यौता भिजवाया था, साथ में 10 हजार रुपए नकद, 4 बढि़या, कीमती सूट, नई चप्पलें, शौल, पर्स, शृंगार का सारा सामान, और भी न जाने क्याक्या. पत्र में लिखा था, ‘चाचीजी, अब बस आप ही हमारे सिर की छतरी हैं. इस परिवार के सब बुजुर्ग उम्र से पहले ही गुजर गए. अपने इस इकलौते वंशदीप को आशीर्वाद देने के लिए ब्याह में जरूर आइएगा. मेरी छोटी बहन आप को लिवाने आएगी ताकि आप को कोई असुविधा न हो.’

भला हो सुनंदा का. नारायणदास, तुम्हारे गलत कामों की गिनती नहीं मगर कहीं कोई अच्छा काम जरूर तुम्हारे खाते में जमा रहा होगा जो तुम्हें ऐसे सुंदर कर्मों वाली लायक बहू मिली. कितनी अभागी थी राजरानी जोे जल्दी चली गई.

मैं ने सुना है, अजीत ने मां को क्लोरोफौर्म का डबल इंजैक्शन दे कर हमेशा के लिए सुला दिया, जैसा कि खानसामा प्यारेलाल ने बताया. सबकुछ होते हुए भी राजरानी पागल हो गई.

मैंराजरानी नहीं हूं, उस की सौत भी नहीं हूं. तुम्हारे संग अपने रिश्ते को क्या नाम दूं? बता कर तो जाते एक बार. राजरानी की गुनाहगार मैं थी तो इस की सजा मुझे मिलनी चाहिए थी. राजरानी क्यों पागल हो गई? हजार दुख तो मैं ने सहे थे, चुपचाप. कहती भी तो किस से? मैं क्यों न पागल हो गई?

उस के मायके वाले जयपुर के पुराने रईस थे. उस के पिता और फिर छोटे भाई जीवनभर उस के नाम से रुपयापैसा भेजते रहे, वह भी हजारों में. तुम सब उस पैसे से ऐश करते थे. उस के जेवर बेचबेच कर पैसा कारोबार में लगा दिया. घर खरीदा तो उस के जड़ाऊ कंगन बेच दिए. चोरी का इलजाम प्यारेलाल पर लगा दिया. फिर भी प्यारेलाल घर में बना रहा. राजरानी ने उसे निकालने को कहा तो तुम ने कहा कि रहने दो, गरीब है, पुराना खादिम है. कितनी भोली थी वह, बेवकूफ थी परले दरजे की. फूलों में पली, कौनवैंट में पढ़ी. तुम देखने गए थे तो वह स्कर्ट पहन कर साइकिल चला रही थी अपने लौन में. न बदन न काठी. तुम उसे बच्ची समझे थे.

सच बताऊं, मुझे उस से जलन थी. तुम जब बीमार पड़े और फालिज से निकम्मे हो गए थे तब मैं छिपछिप कर उसे तुम्हारी बेकार देह की मालिश करते देखती तो मेरे कलेजे को एक अजीब सी ठंडक मिलती. वह खाना बना कर नहानेधोने जाती, मैं रसोई में घुस कर सब्जी चुरा लाती.

जयपुर वाली रसोई खूब अच्छी बनाती थी. तुम्हें उसी के हाथ का खाना पसंद था. थूकपसीने की दोस्ती मुझ से और खाना बीवी के संग मेज सजा कर. जी जलता था मेरा. मन में आता था, जा कर मेजपोश खींच दूं और सारा तामझाम जमीन पर गिरा दूं मगर जब्त कर लेती थी अपना गुस्सा. फिर वह फितूर दिमाग से उतर कर मेरी नसनस में बहने लगता. खाना खा कर वह ठाट से सोती थी.

मैं मौका देखती रहती थी. उस की नाक बजने की आवाज के साथ ही मेरी नसों में दौड़ता गुस्सा नशा बन कर मुझ पर छा जाता था और मैं उसे लांघ कर तुम्हारे शरीर से आ लिपटती थी. तुम ने क्या कभी रोका मुझे? कितनी फुरती से हम उड़ जाते थे अपनी दुनिया में.

मगर तुम तो लाए ही मुझे इसीलिए थे. नेपालगंज तुम लकड़ी का व्यापार करने आए थे. साथ में था तुम्हारा भाई बिशनदास. मेरा पहाड़ी पंडित बाप लकड़ी का दलाल था. घर ले आया तुम को.

‘साब को चाय पिला, फूलवती. कुछ मीठाशीठा भी ला.’

मैं हिरनी सी कुलांचें भरती पहाड़ी ढलान के नीचे वाली गली के हलवाई से ताजा गुलाबजामुन ले आई थी. तुम्हें गुलाबजामुन से ज्यादा मीठी मैं लगी थी.

लकड़ी का ठेका तो अपनी जगह रहा. तुम मुझे अपने भाई की दुलहन बना कर ले आए. न बरात न बाजा…चार फेरों की शादी. मैं ने सोचा बड़े लोग हैं, बड़ा शहर, ऐश करूंगी. नहीं पता था कि मुझे दुख भोगने हैं. तुम्हारे भाई को तो भयंकर दमा था. मैं नादान उस बीमार पति की सेवा करती रही. कभी उस की पीठ पर, कभी छाती पर वैद्यजी का तेल मलती. कभी गरम पानी में पिपरमिंट डाल कर भाप दिलाती. उस का गोरागोरा पिलपिला मांस, कुरता, बनियान, लकीरों वाला पायजामा, सब में वही बास. चूड़े वाले हाथों से मैं साबुन से कपड़े धोती, मगर बास पीछा नहीं छोड़ती थी.

तुम्हारी विधवा बहन जहानभर के काढ़े बनाती. वह काढ़ा पी कर चुपचाप सो जाता. 5 महीने बाद मैं मायके गई, पहली और आखिरी बार. मां ने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा. मेरे चूड़े का रंग उतरउतर कर बदरंग, पीला सा पड़ गया था. मेरे हाथ सूखे, पांव फटेफटे. उस का मुंह उतर गया. मैं आंख चुरा कर पहाड़ी जंगलों में भाग गई. चीड़ और भांग की मिलीजुली खुशबू में लंबीलंबी सांसें लेती घंटों भटकती रही. मन हुआ, वहीं रह जाऊं. खूब दहाड़ मार कर रोई. मां से लिपटलिपट कर दुहाई दी कि मत भेजो अपने से दूर. मगर मां जल्लाद निकली.

‘अरी कम्बख्त, कोई नहीं कहेगा कि तू छोड़ आई. सब कहेंगे गंवार थी, छोड़ गए. हमारी इज्जत रख. तेरे और भी भाईबहन हैं.’

इस के बाद वह बूढ़ी नाइन को बुला लाई. नाइन ताई ने मुझे पत्नीधर्म की शिक्षा दी. मैं हंसहंस कर दोहरी हो गई. तब उस ने मेरे गाल पर चांटा जड़ दिया. जोर से चिल्लाई, ‘तेरी जिंदगी में दुख ही दुख हैं. अब अपनी कोशिश से जिंदगी सुधार ले वरना कहीं की नहीं रहेगी.’

उस की दी गई हिदायतें गांठ बांध लीं और चुपचाप वापस आ गई. भले ही नादान थी पर इतना तो पता था कि पतिपत्नी के रिश्ते का आधार क्या होता है.

सारे नुस्खे आजमाती रही तुम्हारे भाई पर. वह हंसनेमुसकराने लगा. मेरी ठोढ़ी उठा कर मुंह भी चूमता कभी. मैं सिकुड़ कर कछुआ बन जाती. जैसेतैसे मेरी गृहस्थी चलने लगी, मगर अकसर उस की सांस फूलने लगती. वह लाचार सा मुझे छोड़ कर खांसने लगता.

मैं डर जाती. अगर उसे ऐसावैसा कुछ हो जाता तो तुम्हारी बहन चिल्लाती, ‘क्या कर दिया उसे करमजली. जब से पांव धरा है, घर में रोज लड़का बीमार हो जाता है. पहले छठेछमासे अटैक होता था, अब आएदिन पड़ जाता है. अपने मौजमजे के मारे प्राण लेगी क्या?’

किस की मौज, किस का मजा. उस की कमजोरी मुझे खाने लगी. मैं ने तुम से एक दिन दोटूक बात की कि मुझे वापस भेज दो, जहां से लाए थे. तुम कुटिलाई से मुसकरा कर बोले, ‘पहले अपनी मां से पूछ ले फूलवती, फिर बोल. तेरे बाप को बराबर 500 रुपए महीना भिजवा रहा हूं.’

गोया मैं कोई नौकरानी थी और जैसे तुम मेरी तनख्वाह भेज रहे थे मेरे गांव. मेरा बाप, क्या तुम्हारे लकड़ी के ठेके नहीं पूरा कर रहा था? माल तो वही भिजवाता था जिस से तुम हजारों कमाते थे.

मुझे तो नहीं, अलबत्ता 1 हफ्ते बाद तुम ने राजरानी को उस के मायके जयपुर भेज दिया. तुम ने कहा कि तुम्हें बलूत की लकड़ी लाने असम जाना पड़ेगा. 2-4 महीने का चक्कर लगेगा. अंधा क्या मांगे दो आंखें. राजरानी क्या मांगे, अपना मायका.

उसे भेजने में तो तुम्हारा लाभ ही लाभ था. हर बार वह ढेर सारे सामान से लदीफंदी लौटती थी.

वह चली गई तो सारा काम मेरे जिम्मे. ऊपर से हुकूमत तुम्हारी बहन की. तुम झूठे, न कहीं जाना न आना. बिशन तुम्हारे लालच से चिढ़ता था. एकएक कर के सारे कीड़े रेंगरेंग कर बाहर आ रहे थे.

एक दिन मुझ पर जैसे पागलपन सवार हो गया. मैं आंगन में सिर झटकझटक कर नाचने लगी. मेरा पति चिल्लाता रहा मगर मुझे रोक नहीं पाया. तब तुम ने आ कर मुझे अपनी बलिष्ठ गिरफ्त में थाम लिया. मैं वहीं सब के सामने तुम से लिपट कर फूटफूट कर रोई.

बिशनदास तुम्हारे दफ्तर में कागजपत्तर संभालता था. रोज सुबह सफेद कमीज और सफेद पतलून पहन कर, काला बैग ले कर वह औफिस में जा बैठता था. खाना खाने के लिए 1 बजे घर आता था. अकसर उसी के रिकशे में देशी सौदासुलफ लाने बाजार चली जाती थी. घर पर मैं अकेली रहती थी.

उस दिन भी सुबह की रसोई समेट कर मैं छत पर चली गई. धूप में टंकी के पास बैठ कर कपड़े धोए और नहाई. छत के दरवाजे की ओर मेरी पीठ थी. तुम चुपके से आए और दरवाजे की सांकल लगा दी. मैं मुड़ कर देखती इस के पहले ही तुम ने मुझे गोद में उठा लिया. मैं चिल्लाई तो हथेली से मुंह दबा दिया.

‘चिल्लाचिल्ला…और जोर से चिल्ला. सुन कौन रहा है तेरी? देशी सुनेगी, प्यारेलाल सुनेगा. हां, मगर वे क्या तेरी तरफदारी करेंगे? तुझे ही इलजाम लगेगा. सोच ले. उन का दानापानी तो मुझ से है.’

मैं छटपटाती रही मगर छूट न पाई. फिर यह हरकत रोज का किस्सा बन गई. जितना ही मैं डरती, बचती उतना ही तुम रंग दिखाते. किसी को पता नहीं चला. मगर मैं मुंहजोर हो गई. एकदम निर्भीक. देशी की गालियों का मुंहतोड़ जवाब देती. प्यारेलाल पर रौब से हुक्म चलाती. जब मरजी घूमनेफिरने बाजार चली जाती. मुझे लगता था सब मेरे गुनाहगार थे, अव्वल दरजे के मक्कार.

बस, बिशन से दोस्ती बनाए रखी. उस पर मेरा हक था. वह सीधासादा मासूम इंसान था. तुम्हारे हथकंडों से बेखबर. मुझे सिनेमा ले जाता था. सोने की चूडि़यां बनवा दीं. उस के प्यार करने में आग नहीं थी मगर सुकून तो था, जो मुझे अपनी नियति समझ आती थी. मैं उसे ठग रही थी मगर तुम्हारी मरजी से. बेबस जो थी.

राजरानी वापस आई. मैं ने सोचा, चलो जान छूटी. मगर तुम घाघ थे. कोई न कोई मौका जुटा ही लेते. पहले मैं राजरानी से डरती रही, फिर वह डर भी निकल गया. तुम चोर थे तो मैं सीनाजोर.

मेरे हावभाव देख राजरानी का माथा ठनका. उस ने तुम पर अपनी गिरफ्त कस ली. जाने कैसे, शादी के वर्षों बाद उसे गर्भ रह गया. तुम फूले न समाए. तुम्हारा सारा ध्यान राजरानी पर केंद्रित हो गया. मैं गई भाड़ में. जलन ने मुझे कुटिल बना दिया. ऊपरऊपर से मैं खुशी दिखाती, अंदरअंदर कुढ़ती. मुझे बच्चा चाहिए था. अपना बच्चा, बिशनदास का बच्चा. बहुत जतन किए. कुछ नहीं हुआ.

राजरानी जचगी के लिए मायके चली गई. उसे वहां छोड़ कर तुम वापस आए तो तुम्हें फिर से मेरी तलब लगी. मन में आया कि तुम पर थूक दूं, मगर मुझे बच्चा चाहिए था, कैसे भी. मैं मुसकरा कर फिर से तुम्हारी हो ली. बच्चा आया, मेरा मन गुलजार हो गया. मैं ने चुपके से तुम्हें बताया पर तुम्हारे तो चेहरे का रंग फीका पड़ गया.

‘निकलवा, अभी गिरवा दे इसे.’

‘नहीं, हरगिज नहीं. कोई नहीं जानता कि यह तुम्हारा है. सब इसे बिशन का ही मानेंगे. नहीं गिरवाऊंगी.’

‘सब बिशन का ही मानेंगे इसे, सिवा बिशन के.’

‘क्या मतलब?’

‘बिशन बच्चा नहीं पैदा कर सकता और यह बात उसे पता है. सुन फूलवती, तू उस की दूसरी बीवी है. उस की पहली को जब पता चला, वह वापस नहीं आई. किसी और के संग जा बैठी. इसीलिए बिशन शुरूशुरू में तुझ से हाथ समेट कर बैठा रहा. जब तू पहली बार मायके जा कर लौट आई तब उस ने तुझे अपनाया, याद कर. बिशन को अगर पता चला कि तू पेट से है तो वह समझ जाएगा कि तू क्या कर रही है.’

मेरे हाथ के तोते उड़ गए यह कहानी सुन कर. मुझे तुम्हारे घर आए तीसरा साल था. इतना बड़ा किस्सा और मुझ से ही छिपा कर रखा तुम सब ने, राजरानी ने भी. तभी तुम ने यह भी बताया कि बिशनदास तुम्हारा जुड़वां भाई था, तुम से 2 घंटे छोटा. पैदाइश के समय सिर्फ डेढ़ किलो वजन था उस का. हजारों तकलीफें उठा कर उसे तुम्हारी मां ने पाला था और अब यह रोल तुम्हारी बहन अदा कर रही है.

‘कितने बेईमान हो तुम सब? कितने झूठे. ऐसे आदमी की शादी ही क्यों की?’

‘तुझे यहां कैसे लाता? तेरा रूप जो डंक मार गया. फूलवती, तू बेहद सुंदर जो थी.’

‘ओ हो, तो फिर राजरानी पर क्यों इतना लुटे जाते हो?’

‘अब पैसा भी तो कोई चीज है न. बस, तू अपनी जगह वह अपनी जगह. तू मुझे खुश रख, मैं हमेशा तेरा खयाल रखूंगा. पर तू यह बच्चेवच्चे का चक्कर छोड़ दे.’

मैं मरती क्या न करती. रोरो कर अंधी हो गई. मेरी अंदर की व्यथा कौन समझता. दुख जैसेतैसे छिपाया. कहा कि नजला हुआ है. बदले में तुम ने मुझे जड़ाऊ टीका और कंधे तक लटकते झुमके बनवा दिए. बड़ी चालाकी से तुम ने वे गहने अपने भाई को दिए और जताया कि बेटे होने की खुशी में उपहार दे रहे हो. बिशनदास खुश हो गया. खुद अपने हाथ से उस ने मुझे पहनाए और फिर मेरे साथ फोटो खिंचवाई. मैं फूली न समाई.

लकड़ी के ठेके से तुम ने हजारों कमाए मगर मेरे नाम कोई रकम जमा नहीं की जो मैं जिंदगीभर खाती. बिशनदास को तुम क्या देते थे? सिर्फ 250 रुपए महीना.

हमारा राज कब तक छिपा रहता? जिस दिन पकड़ा गया, तुम्हारे भाई ने जहर खा लिया. मैं विधवा हो गई. तुम्हारे खोटे करम एक अच्छेभले इंसान को खा गए. कितना शरीफ था. कुदरत ने भी क्या बंटवारा किया जुड़वां बच्चों में. एक को सारे सद्गुण, विद्या, लगन, कलाप्रियता, संवेदना सब दे कर सेहत छीन ली और दूसरे को सेहत दे कर मतलबी, बेईमान और ऐय्याश बना दिया. भाईबहन तुम्हें बहुत प्यारे थे, मगर अपनी ऐय्याशी सब से ज्यादा.

बिशनदास ने मरतेमरते मुझ से बदला लिया. उस ने अपना सारा हिस्सा देशी के नाम लिख दिया. तुम्हारे मांबाप उस की सेहत की चिंता के मारे अपनी पुरानी हवेली उसी के नाम कर गए थे. तुम ने बेसाख्ता उस की अंतिम इच्छा का मान रखा. दसियों छोटेमोटे किराएदार उस में बसे थे. वह किराया देशी को मिलने लगा. मुझे? मुझे क्या मिला, ठेंगा. मैं और भी निहत्थी और बेबस हो गई.

बिशनदास से मेरे रिश्ते का एक नाम था. उस के रहते मैं सुहागिन कहलाती थी, शृंगार करती थी. चवन्नीभर बिंदी मेरे उजले माथे पर चमचम करती थी. मेरा रूप जगमगाता था. अब मैं न सजसंवर सकती थी, न हंसबोल सकती थी. मेरा नाम एक गाली बन गया. मेरा अंतर्मन मुझे डसता. सोचा, तुम्हारी मनहूस दहलीज छोड़ कर मायके जा बैठूं. मगर वहां कौन खजाना गड़ा था. टीबी की मारी मां. भाई की कच्ची गृहस्थी, बूढ़ा बाप. सबकुछ बदल गया था.

बेटे के सामने होते तो तुम ऐसा दिखाते कि मुझे जानते भी नहीं. मगर अकेले में?

मैं ने अपने किवाड़ उढ़का लिए. तुम ने दर्जनों सफेद साडि़यां ला कर डाल दीं. औरगंडी कोटा, चंदेरी, शिफौन, सब राजरानी से चोरीचोरी. मैं सफेद साड़ी पहने उतरी तो तुम ने घेर लिया. तुम बोले कि फूलवती, तू हंसिनी लगती है. अपने नैनों में मुझे छिपा ले. कह कर तुम ने मेरी छाती में अपना सिर गड़ा दिया.

बेचारी राजरानी. मेरा अपराधी मन कभी भी उस की सेज पर डाका नहीं डालना चाहता था मगर तुम न माने.

मैं ने पूजापाठ में मन लगाया. आश्रम में जा कर रहने लगी. तुम चार दिन में इज्जत का ढोंग कर के वापस ले आए. आश्रम वाले अभिभूत हो गए. मैं ने हथियार डाल दिए. तुम्हारा दिया खाने के एवज में फर्ज भी तो अदा करना था. मैं तुम्हें पाले रही. मैं झूठ क्यों बोलूं. मेरी जवान देह तो वैसी की वैसी ही थी, भूखी, प्यासी.

तुम्हारा बेटा बड़ा हुआ तो राजरानी ने उसे अजमेर पढ़ने भेज दिया. अब वह रोजरोज उस से मिलने के बहाने चली जाती. तुम खुद भी चले जाते अकसर. मैं और देशी अकेले इस कोठी में. न हम आपस में बोलते थे न एकदूसरे को सह पाते थे. प्यारेलाल खाना बना देता. दोनों अलगअलग कमरों में बैठ कर उसे निगल लेते थे.

मुझे प्यारेलाल का ही आसरा था. शायद वह मेरे दर्द को समझता था. शायद वह मुझे भी अपने जैसा समझता था. महज एक खिदमतगार. मैं उस को देशी की तरह फटकारती नहीं थी. धीरेधीरे, मेरी शह पा कर उस के आधे दर्जन बच्चे हमारे आंगन में कूदनेफांदने लगे. देशी नाराज होती तो मैं उसे डांट देती. आखिरकार वह पुरानी हवेली में रहने चली गई. प्यारेलाल ने मुझ से कहा, ‘मालकिन, इन्हें पढ़ालिखा दिया करें. कुछ जोड़बाकी सीख जाएंगे.’

सच पूछो तो मुझे एक आसरा मिल गया. रोज स्कूल लगा कर बैठ जाती. धीरेधीरे महल्लेभर के गरीब बच्चे आ कर बैठने लगे.

तुम दोनों वापस आते तो स्कूल बंद. घर तुम्हें सजासजाया मिलता. रोटी, पानी, राशन, बगीचा सब एकदम ठीक. वक्त गुजरा. अजीत एअरफोर्स का बड़ा अफसर बना. हर तरह से सुंदर होशियार. उस के बौस ने ही उस को दामाद बना लिया. सुनंदा आई सर्वगुणसंपन्न. राजरानी का घमंड सातवें आसमान पर. तुम दोनों एक हो गए.

सफेद बालों के साथसाथ तुम ने इज्जत का जामा पहन लिया. मैं छिटक कर दूर जा पड़ी. घर के कोने में रखी हुई झाड़ू की तरह. अजीत बेंगलुरु में जा बसा. तुम भी वहीं चले जाते. जब यहां आते, देशी भी रहने आ जाती वरना शक्ल भी न दिखाती. उस के पास आमदनी थी, मेरे पास कुछ भी नहीं.

कितनी बार मैं ने मांग रखी. क्या मेरा हक नहीं था? बिशनदास क्या मेरा ब्याहता पति न था? मगर तुम मामूली हाथ खर्च दे कर टालते गए. बिशनदास के संभाले ही तुम्हारा कारोबार टिका  था. उस के मरने के बाद तुम्हारा मानो दाहिना हाथ ही कट गया. सारा बिजनैस चौपट हो गया. तुम ने कभी सोचा कि जिस भाई की शादी तुम ने अपनी जिम्मेदारी पर करवाई थी उस की विधवा को रोटीपानी की जरूरत पड़ेगी बुढ़ापे में? मेरा बच्चा आज होता तो वह भी अजीत जितना होता, कमा रहा होता.

राजरानी का पर्स नोटों से भरा रहता था और मेरे पास? पर्स ही नहीं था. जब तक तुम्हारा शरीर चला, तुम ने मुझे भोगा. राजरानी ने अपने घमंड में कभी जाहिर नहीं किया मगर मैं जानती हूं कि उसे पता था. वह अपने सुहाग का दिखावा करती थी. तुम्हारे सामने मीठी बनी रहती थी मगर पीठ पीछे, उस की आंखों की नफरत मुझ से सहन नहीं होती थी.

शायद मेरी बददुआ ही तुम को लगी कि तुम्हें फालिज मार गया. कोई कुछ न कर सका. प्यारेलाल और राजरानी तुम्हें संभालते रहे. 6 साल तुम पलंग पर पड़े रहे. पानी की तरह पैसा बहने लगा. मैं दूर से देखती रहती. राजरानी सबकुछ भूल कर तुम्हारे पास बैठी रहती.

नारायणदास, तुम्हारी जैसी नीयत थी वैसा तुम्हें फल भी मिला. सुनंदा जैसी बहू का कोई सुख नहीं मिला. पोता हुआ, पर तुम उसे चाह कर भी देख नहीं पाए. समझ ही नहीं थी. तुम मरे तो अजीत विदेश में था. जिस बच्चे को देखदेख कर मेरी ममता तरसती रही, उस का कंधा भी तुम्हें नसीब नहीं हुआ.

तुम्हारे जाने के बाद राजरानी बिखरने लगी. जब मैं उसे समझातीबुझाती, वह मुझे ही कोसने लगती. मेरा छुआ हुआ खाना तक नहीं खाती थी. दोचार बार आमनेसामने हमारी तकरार हुई. मैं ने डंके की चोट पर उसे साफसाफ सुना दिया :

‘राजरानी, मुझे दोष मत लगा. गलती तेरी है. मां की लाडो बनी रही जनमजिंदगी. बौराया मरद छोड़ कर तू मायके दौड़ जाए तो वह जहां चाहे, मुंह मारेगा ही. जवानी तो अंधी होती है. मैं तो दोनों तरफ से लुट गई. न इज्जत रही न रखवाला. और आज भिखारन बनी तेरे दो टुकड़ों के लिए यहां पड़ी हूं, तो तू डंडे बरसा रही है? शरम कर. मेरा आदमी मरा तेरे आदमी के कारण. तेरे पास तो पैसा है और पूत भी. मेरे पास क्या है?’

‘मेरे पूत का नाम न ले अपनी काली जबान से.’

‘तो जा न उसी के पास. यहां क्यों बैठी है? यह घर तो मनहूस है.’

उस के बाद राजरानी का डेरा बेटेबहू के पास लग गया. मैं घर में निपट अकेली. प्यारेलाल को भी कहां से पालती? चुपचाप राजरानी की भरीपूरी गृहस्थी में से चोरियां करने लगी. कभी कोई भांडा, कभी चांदी का सामान, कभी उस की विदेशी साड़ी. वह छठेछमासे आती, उसे पता भी न चलता. उस की याददाश्त कम होने लगी थी. धीरेधीरे उस का आना कम होने लगा. किसे होश था सामान का?

प्यारेलाल ने मोटर हथिया ली जो अजीत के नामकरण के वक्त राजरानी के मायके से आई थी. वह उस को टैक्सी में चलाने लगा. मैं ने उस से अपना कट रखवा लिया. वह रोज के रोज 30-40 रुपए दे देता. मैं ने कोठी को सजासंवार कर रखा. कोई ब्याहबरात होती तो सामने का बगीचा और कमरे किराए पर दे देती.

महल्लेभर के बच्चे इस आंगन को आबाद रखते. मैं खुद 8वीं तक पढ़ी थी मगर उन बच्चों का होमवर्क करातेकराते कुछ ज्यादा ही पढ़लिख गई. जिसे भी जरूरत होती मेरे पास सीखनेसमझने आ बैठता. बिशनदास का कमरा किताबों से भरा पड़ा था. मैं खूब पढ़ती. मेरा नाम चाचीजी पड़ गया. सिर्फ अजीत की नहीं जगतभर की चाची.

एक दिन सुना कि राजरानी बहुत बीमार है. मैं ने प्यारेलाल को खबर लाने के लिए भेजा. मगर उस के बेंगलुरु पहुंचने से पहले ही वह मर चुकी थी. बड़ी बुरी तरह मरी. दिमाग नहीं रहा था उस का. जहांतहां गंदगी फैला देती. पलंग पकड़ लिया था. पड़ेपड़े घाव हो गए. पूरे शरीर में गलन आ गई. हालांकि अजीत और सुनंदा ने सेवादवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. आखिरकार अजीत ने…

चलो, जो हुआ भला हुआ. निजातमिली.

राजरानी के मरने के बाद अजीत आया था. सुनंदा को राजरानी ने सब बताया था, मगर वह नेक स्वभाव की पढ़ीलिखी लड़की निकली. उस ने आदर से पूछा, ‘चाचीजी, मम्मी का बहुत सा सामान पड़ा है. आप को देखभाल करनी पड़ती है. आप चाहें तो हम ले जाएं?’

‘हां बेटी, सब तुम्हारा है. जो चाहे ले जाओ.’

वह तीनचार दिन तक सामान खोलतीछांटती रही. जो उसे ठीक लगा, ले गई. बाकी यहीं धरा है. मेरे मरने तक पड़ा रहेगा. घर तो कितना जर्जर हो चुका है. मेरा बुढ़ापा भी तो यहीं आ कर पसरा है जाने कब से.

अजीत कह गया था कि जब तक मैं जिंदा हूं वह कोठी नहीं बेचेगा. देशी कब की मर चुकी. पुरानी हवेली पर किराएदारों ने कब्जा जमा लिया. कौन कोर्टकचहरी कर रहा है? अजीत और सुनंदा के पास बहुत है. बेंगलुरु में ठाट से रहते हैं. एक बेटा, वह भी न्यूयौर्क में जा बसा है. आजकल फैशन है विदेश में बच्चों को भेज देने का.

मेरी रोटीपानी, सेवादवा सब इन बच्चों के तमाम गरीब मांबाप देख लेते हैं. बगीचे में सब्जियां लगी हैं. जो पेड़ तुम ने बोए थे खूब फल देते हैं. आम, लीची, अमरूद, अनार. मैं खुश हूं. तुम सब के मरने के बाद बांटबांट कर खाती हूं.

कहते हैं न कि सब से अच्छा प्रतिशोध है, बाद तक बचे रहना.

बरात दुलहन के घर तक पहुंच गई. अगवानी और मिलनी हो रही है. दुलहन की दादी, राजदूत की बीवी ने मुझे यानी रोहित की दादी को गले लगाया, मिलनी की और पशमीने की शौल ओढ़ाई. कल जब दुलहन की डोली घर आएगी तो मुंहदिखाई में उसे मैं अपना वही जड़ाऊ मांगटीका और झुमके दूंगी जो तुम ने मुझे दिलाए थे. आखिर मैं ठहरी उत्तरजीवी.

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