लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

रीती जब कोरोना टेस्ट के लिए कुरसी पर बैठी, तब उस के हाथपैर कांप रहे थे और आंखों के सामने अंधेरा सा छा रहा था.

एक बार कुरसी पर बैठने के बाद रीती का मन किया कि वह भाग जाए... इतनी दूर... इतनी दूर कि उसे कोई भी न पकड़ सके… ना ही कोई बीमारी और ना ही कोई दुख... मन में दुख का खयाल आया तो रीती ने अपनेआप को मजबूत कर लिया.

“ये सैंपल देना… मेरे दुखों को झेलने से ज्यादा कठिन तो नहीं,” रीती कुरसी पर आराम से बैठ गई और अपनेआप को डाक्टर के हवाले कर दिया... ना कोई संकोच और ना ही कोई झिझक.

सैंपल देने के बाद रीती आराम से अकेले ही घर भी वापस आ गई थी. हाथपैर धोने के बाद भी कई बार अपने ऊपर सेनेटाइज किया और अपना मोबाइल हाथ में ले लिया और सोफे में धंस गई.

सामने दीवार पर रीती के पापा की तसवीर लगी हुई थी, जिस पर चढ़ी हुई माला के फूल सूख गए थे. अभी उन्हें गए हुए 10 दिन ही तो हुए हैं, कोरोना ने उन जैसे जिंदादिल इनसान को भी अपना निवाला बना लिया था.

रीती यादों के धुंधलकों में खोने लगी थी.

ये भी पढ़ें- घबराना क्या: जिंदगी जीने का क्या यह सही फलसफा था

पापा की बीमारी का रीती को पता चला था, तब उन से मिलने जाने के लिए वह कितना मचल उठी थी, पर अमन इस संक्रमण काल में रीती के उस के मायके जाने के सख्त खिलाफ थे, पर रीती समझ चुकी थी कि हो सकता है कि वह फिर कभी पापा को न देख सके, इसलिए उस ने अमन की चेतावनी की कोई परवाह नहीं की… और वैसे भी अमन कौन सा उस की चिंता और परवाह करते हैं जो रीती करती. इसलिए वह लखनऊ से बरेली अपने मायके पापा के पास पहुंच गई थी, पर पापा की हालत बहुत खराब थी. एक तो उन की उम्र, दूसरा अकेलापन.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...