शगुन का नारियल: क्या थी पंडित जी की कहानी

‘‘दिमाग फिर गया है इस लड़की का. अंधी हो रही है उम्र के जोश में. बापदादा की मर्यादा भूल गई. इश्क का भूत न उतार दिया सिर से तो मैं भी बाप नहीं इस का,’’ कहते हुए पंडित जुगलकिशोर के मुंह से थूक उछल रहा था. होंठ गुस्से के मारे सूखे पत्ते से कांप रहे थे. ‘‘उम्र का उफान है. हर दौर में आता है. समय के साथसाथ धीमा पड़ जाएगा. शोर करोगे तो गांव जानेगा. अपनी जांघ उघाड़ने में कोई समझदारी नहीं. मैं समझऊंगी महिमा को,’’ पंडिताइन बोली. ‘‘तू ने समझया होता, तो आज यों नाक कटने का दिन न देखना पड़ता. पतंग सी ढीली छोड़ दी लड़की. अरे, प्यार करना ही था, तो कम से कम जातबिरादरी तो देखी होती. चल पड़ी उस के पीछे जिस की परछाईं भी पड़ जाए तो नहाना पड़े. उस घर में देने से तो अच्छा है कि लड़की को शगुन के नारियल के साथ जमीन में गाड़ दूं,’’

पंडित जुगलकिशोर ने इतना कह कर जमीन पर थूक दिया. बाप के गुस्से से घबराई महिमा सहमी कबूतरी सी गुदड़ों में दुबकी बैठी थी. आज अपना ही घर उसे लोहे के जाल सा महसूस हो रहा था, जिस में से सिर्फ सांस लेने के लिए हवा आ सकती है. शगुन के नारियल के साथ जमीन में गाड़ देने की बात सुनते ही महिमा को ‘औनर किलिंग’ के नाम पर कई खबरें याद आने लगीं. उस ने घबरा कर अपनी आंखें बंद कर लीं. 21 साल की उम्र. 5 फुट 7 इंच का निकलता कद. धूप में संवलाया रंग और तेज धार कटार सी मूंछ. पहली बार महिमा ने किशोर को तब देखा था, जब गांव के स्कूल से 12वीं जमात पास कर वह अपना टीसी लेने आया था. महिमा भी वहां खड़ी अपनी 10वीं जमात की मार्कशीट ले रही थी. आंखें मिलीं और दोनों मुसकरा दिए थे. किशोर झेंप गया, महिमा शरमा गई. तब वह कहां जातपांत के फर्क को समझती थी. धीरेधीरे बातचीत मुलाकातों में बदलने लगी और आंखों के इशारे शब्दों में ढलने लगे. महक की तरह इश्क भी फिजाओं में घुलने लगा और जबानजबान चर्चा होने लगी. इस से पहले कि चिनगारी शोला बन कर घर जलाती, किशोर आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया, इसलिए उन की मुलाकातें कम हो गईं.

इधर महिमा ने 12वीं जमात पास करने के बाद कालेज जाने की जिद की. उधर, किशोर की कालेज की पढ़ाई पूरी होने वाली थी. महिमा होस्टल में रह कर कालेज की पढ़ाई करने लगी और किशोर ग्रेजुएट होने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया. सही खादपानी मिलते ही दम तोड़ती प्यार की दूब फिर से हरी हो गई. मुलाकातें परवान चढ़ने लगीं. एक दिन गांव के किसी भले आदमी ने दोनों को साथसाथ देख लिया. बस, फिर क्या था तिल का ताड़ बनते कहां देर लगती है. नमकमिर्च लगी खिचड़ी पंडित जुगलकिशोर के घर तक पहुंचने की ही देर थी कि पंडितजी राशनपानी ले कर किशोर के बाप मदना के दरवाजे पर जा धमके. ‘‘सरकार ने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी क्या दे दी, अपनी औकात ही भूल बैठे. आसमान में बसोगे क्या? अरे, चार अक्षर पढ़ने से जाति नहीं बदल जाती.

नींव के पत्थर कंगूरे में नहीं लगा करते,’’ और भी न जाने क्याक्या वे मदना को सुनाते, अगर बड़ा बेटा महेश उन्हें जबरदस्ती घसीट कर न ले जाता. ‘‘कमाल करते हो बापू. अरे, यह समय उबलने का नहीं है. जरा सोचो, अगर जातिसूचक गालियां निकालने के केस में अंदर करवा दिया, तो बिना गवाह ही जेल जाओगे. जमानत भी नहीं मिलेगी,’’ महेश ने अपने पिता को समझया. पंडित जुगलकिशोर को भी अपनी जल्दबाजी पर पछतावा तो हुआ, लेकिन गुस्सा अभी भी जस का तस बना हुआ था. ‘‘पंचायत बुला कर गांव बदर न करवा दिया तो नाम नहीं,’’ पंडितजी ने बेटे की आड़ में मदना को सुनाया. पंडित जुगलकिशोर का गांव में बड़ा रुतबा था. मंदिर के पुजारी जो ठहरे. हालांकि अब पुरोहिताई में वह पहले वाली सी बात नहीं रही थी. बस, किसी तरह से दालरोटी चल जाती है, लेकिन कहते हैं न कि शेर भूखा मर जाएगा, लेकिन घास नहीं खाएगा. वही तेवर पंडितजी के भी हैं. चाहे आटे का कनस्तर रोज पैंदा दिखाता हो, लेकिन मजाल है, जो चंदन के टीके में कभी कोई कमी रह जाए.

वह तो पंडिताइन के मायके वाले जरा ठीकठाक कमानेखाने और दानदहेज में भरोसा करने वाले हैं, इसलिए समाज में पंडित जुगलकिशोर की पंडिताई की साख बची हुई है, वरना कभी की पोल चौड़े आ जाती. महिमा की पढ़ाईलिखाई का खर्चा भी उस के मामा यानी पंडिताइन के भाई सालग्राम ही उठा रहे हैं. कुम्हार का कुम्हारी पर जोर न चले, तो गधे के कान उमेठता है. पंडित जुगलकिशोर ने भी महेश को भेज कर महिमा को शहर से बुलवा कर घर में नजरबंद कर दिया. पति का बिगड़ा मिजाज देख कर पंडिताइन ने अपने भाई को तुरंत आने को कह दिया. 50 साल का सालग्राम कसबे में क्लर्की करता था. सरकारी नौकरी में रहने के चलते राजकाज के तौरतरीके और सरकार की पहुंच समझता था. वह जानता था कि भले ही सरकारी काम सरकसरक कर होते हैं, लेकिन यह सरकार अगर गौर करने लगे तो फिर ऐक्शन लेने में मिनट लगाती है.

गांव से पहले घर में पंचायत बैठी. मामा को देख महिमा के जी को शांति मिली. प्यार मिले न मिले, किस्मत की बात… जान की सलामती तो रहेगी. एक तरफ पंडित जुगलकिशोर थे, तो वहीं दूसरी तरफ पूरा परिवार, लेकिन अकेले पंडितजी सब पर भारी पड़ रहे थे. रहरह कर दबी हुई स्प्रिंग से उछल रहे थे. ‘‘चौराहे पर बैठा समझ लिया क्या ससुरों ने? अरे, शासन की सीढि़यां चढ़ लीं तो क्या गढ़ जीत लिया? चले हैं हम से रिश्ता जोड़ने… दो निवाले दोनों बखत मिलने क्या लगे तो औकात भूल गए…’’ पंडितजी ने अपने साले को सुनाया. ‘‘समय को समझने की कोशिश करो जीजाजी. अब रजवाड़ों का समय नहीं है. यह लोकतंत्र है. यहां भेड़बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं,’’ सालग्राम ने पंडित जुगलकिशोर को समझया. ‘‘मामा सही कह रहे हैं बापू. जातपांत आजकल पिछड़ी सोच वाली बात हो गई.

आप कभी गांव से बाहर गए नहीं न इसलिए आप को अटपटा लग रहा है. शहरों में आजकल दो ही जात होती हैं, अमीर और गरीब,’’ मामा की शह पा कर महेश के मुंह से भी बोल फूटे. पंडितजी ने उसे खा जाने वाली नजरों से घूरा. महेश सिर नीचा कर के खड़ा हो गया. ‘‘इस बच्चे को क्या आंखें दिखाते हो. सब सही ही तो कह रहे हैं. आप तो रामायण पढ़े हो न… भगवान राम ने केवट और शबरी को कैसा मान दिया था, याद नहीं…?’’ पंडिताइन बातचीत के बीच में कूदीं. ‘‘हां, रामायण पढ़ी है. माना कि समाज में सब का अपना महत्व है, लेकिन पैर की जूती को सिर पर पगड़ी की जगह नहीं पहना जाता,’’ पंडितजी ने पत्नी को घुड़क दिया. ‘‘चलो छोड़ो इस बहस को. बाहर चल कर चाय पी कर आते हैं,’’ सालग्राम ने एक बार के लिए घर की पंचायत बरखास्त कर दी. महिमा की उम्मीदों की कडि़यां जुड़तीजुड़ती बिखर गईं. ‘‘जीजाजी, मैं मानता हूं कि जो संस्कार हमें घुट्टी में पिलाए गए हैं,

उन के खिलाफ जाना आसान नहीं है, लेकिन मैं तो सरकारी नौकर हूं और मेरे अफसर यही लोग हैं. हमें तो इन के बुलावे पर जाना भी पड़ता है और इन का परोसा खाना भी पड़ता है. इन्हें भी अपने यहां न्योतना पड़ता है और इन के जूठे कपगिलास भी उठवाने पड़ते हैं. ‘‘अब इस बात को ले कर आप मुझे जात बाहर करो तो बेशक करो,’’ सालग्राम के हरेक शब्द के साथ पंडित जुगलकिशोर की आंखें हैरानी से फैलती जा रही थीं. ‘‘आप छोरी की पढ़ाईलिखाई मत छुड़वाओ. उसे पढ़ने दो. हो सकता है कि वह खुद ही आप के कहे मुताबिक चलने लगे या फिर समय का इंतजार करो. ज्यादा जोरजबरदस्ती से तो गाय भी खूंटा तोड़ कर भाग जाती है,’’ सालग्राम ने कहा. वे दोनों गांव के बीचोंबीच बनी चाय की थड़ी पर आ कर बैठ गए. लड़का 2 कप चाय रख गया. तभी शोर ने उन का ध्यान खींचा. देखा तो पुलिस की गाड़ी सरपंचजी के घर के सामने आ कर रुकी थी.

2 सिपाही उतर कर हवेली में गए और वापसी में सरपंचजी हाथ जोड़े उन के साथ आते दिखे. ‘‘देखें, क्या मामला है…’’ सालग्राम ने कहा और दोनों जीजासाला तमाशबीन भीड़ का हिस्सा बन गए. सालग्राम ने पुलिस अफसर की वरदी पर लगी नाम की पट्टी को देखा और जीजा को कुहनी से ठेला मार कर उन का ध्यान उधर दिलाया. नाम पढ़ कर पंडितजी सोच में पड़ गए. ‘‘इन का यह रुतबा है. सरपंच भी हाथ जोड़े खड़ा है,’’ सालग्राम ने कहा, तो पंडित जुगलकिशोर समझने की कोशिश कर रहे थे. तभी हवेली के भीतर से चायपानी आया और सरपंचजी मनुहार करकर के अफसर को खिलानेपिलाने लगे. ‘रामराम… धर्म भ्रष्ट हो गया…’ पंडितजी कहना चाह कर भी नहीं कह सके. वे साले के साथ चुपचाप वापस लौट आए. रात को घर की पंचायत में फैसला हुआ कि महिमा की पढ़ाई जारी रखी जाएगी. उसे ऊंचनीच समझ कर मामा के साथ वापस शहर भेज दिया गया. जब पंडित जुगलकिशोर के घर से इस चर्चा पर विराम लग गया, तो फिर किसी और की हिम्मत भी नहीं हुई बात का बतंगड़ बनाने की.

साल बीततेबीतते महिमा ग्रेजुएट हो गई और अब शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई. महेश ने भी शहर के कालेज में भरती ले ली थी. इस बीच न तो महिमा की जबान पर कभी किशोर का नाम आया और न ही बेटे ने कोई चोट देती खबर दी तो पंडितजी ने राहत की सांस ली. उन्हें लगा मानो यह दूध का उफान था,जो अब रूक गया है. लड़की अपना भलाबुरा समझ गई है. ‘‘जीजाजी, सुना आप ने… प्रशासनिक सेवाओं का नतीजा आ गया है. आप के गांव के किशोर का चयन हुआ है,’’ सालग्राम ने घर में घुसते ही कहा. यह सुनते ही पंडिताइन खिल गईं. पंडितजी के माथे पर बल पड़ गए. ‘‘हुआ होगा.. हमें क्या? बहुत से लोगों के हुए हैं,’’ पंडित जुगलकिशोर ने लापरवाही से कहा. ‘‘बावली बातें मत करो जीजाजी. समय को समझ. जून सुधर जाएगी कुनबे की. अरे, छोरी तो राज करेगी ही, आगे की पीढि़यां भी तर जाएंगी. बच्चों के साथ तो बाप का नाम ही जुड़ेगा न,’’ सालग्राम ने जीजा को समझया. ‘‘मामा सही कह रहे हैं बापू. जिस की लाठी हो भैंस उस की ही हुआ करे. राज में भागीदारी न हो तो जात का लट्ठ बगल में दबाए घूमते रहना. कोई घास न डालने का,’’ महेश भी मामा के समर्थन में उतर आया था.

‘‘अरे, ये तो छोराछोरी के भले संस्कार हैं जो इज्जत ढकी हुई है, वरना शहर में कोर्टकचहरी कर लेते तो क्या कर लेता कोई? कानून भी उन्हीं का साथ देता,’’ पंडिताइन कहां पीछे रहने वाली थीं. ‘‘लगता है, पूरा कुनबा ही ज्ञानी हो गया, एक मैं ही बोड़म बचा,’’ पंडितजी से कुछ बोलते नहीं बना, तो उन्होंने सब को झिड़क दिया, लेकिन इस झिड़क में उन की झेंप और कुछकुछ सहमति भी झलक रही थी. मामला पक्ष में जाते देख पंडिताइन झट भीतर से नारियल निकाल कर लाईं और जबरदस्ती पति के हाथ में थमा दिया. ‘‘छोरा गांव आया हुआ है, आज ही रोक लो, वरना गुड़ की खुली भेली पर मक्खियां आते कितनी देर लगती है,’’ पंडिताइन ने सफेद कुरताधोती भी ला कर पलंग पर रख दिए. पंडितजी कभी अपने कपड़ों को तो कभी सामने रखे मोली बंधे शगुन के नारियल को देख रहे थे. उन्होंने कुरता पहन कर धोती की लांग संवारी और नारियल को लाल गमछे में लपेट कर मदना के घर चल दिए बधाई देने.

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