REVIEW: जानें कैसी है Parineeti और Hardy की फिल्म Code Name Tiranga

रेटिंगः आधा स्टार

निर्माताः टीसीरीज और रिलायंस इंटरटेनमेंट

लेखक व निर्देशकः रिभु दासगुप्ता

कलाकारःपरिणीति चोपड़ा, हार्डी संधू, शरद केलकर, रजित कपूर, शेफाली शाह, दिव्येंदु भट्टाचार्य, शिशिर शर्मा, सव्यसाची चक्रवर्ती, दीश मरीवाला व अन्य.

अवधिः दो घंटे 17 मिनट

भारत की ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’’ अर्थात ‘रॉ’ के एजेंट पिछले एक दशक से भी अधिक समय से बौलीवुड के फिल्मकारों के लिए पसंदीदा विषय बने हुए हैं. ‘रॉ’ एजेंटो को लेकर अब तक कई फिल्में व वेब सीरीज बन चुकी हैं. अब ‘रॉ’ एजेंट के रूप में एक महिला जासूस दुर्गा सिंह को केंद्र में रखकर रिभु दासगुप्ता फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’लेकर आए हैं, जो कि बतौर लेखक व निर्देशक रिभु दासगुप्ता की अति कमजोर फिल्म है. जिसमें न कहानी है और न ही देशभक्ति, न ही प्रेम कहानी ही है. मगर इस फिल्म को देखकर लोगो को 1975 में प्रदर्शित अशोक कुमार की फिल्म ‘‘चांरी मेरा काम’’ जरुर याद आ जाएगी.  इस फिल्म के कुछ दृश्यों को चुराकर फिल्मकार रिभु दासगुप्ता ने अपनी फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’ का हिस्सा बना दिया है. रिभु दासगुप्ता कलकत्ता के फिल्मी परिवार से संबंध रखते हैं. 2011 में उन्होेने फिल्म ‘माइकल’ का निर्देशन कर शोहरत बटोरी थी. इस फिल्म को ‘शंघाई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में पुरस्कार के लिए नोमीनेट भी किया गया था. फिर 2014 में टीवी सीरियल‘युद्ध’ में उन्होने अमिताभ बच्चन को निर्देशित किया था. 2016 में रहस्य रोमांच से भरपूर फिल्म ‘तीन’ का लेखन व निर्देशन किया था. इस फिल्म में भी अमिताभ बच्चन थे. यह फिल्म बाक्स आफिस पर अपनी लागत भी नही वसूल पायी थी. 2019 में रिभु दासगुप्ता ने नेटफ्लिक्स के लिए वेब सीरीज ‘बार्ड आफ ब्लड’ का निर्देशन किया, जो काफी चर्चा में रही. इसके बाद 2020 में नेटफ्लिक्स के लिए ही परिणीति चोपड़ा को लेकर ही फिल्म ‘द गर्ल आॅन द ट्ेन’ निर्देशित की, जो कि घटिया फिल्म मानी गयी. और अब वह परिणीति चोपड़ा को ही ‘हीरो’ लेकर फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’लेकर आए हैं. जो कि अति कमजोर, कहानी व निर्देशन विहीन फिल्म है. इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पारित कर दिया, यह भी आश्चर्य की बात है. क्योंकि यह फिल्म कहती है कि हमारे ‘रॉ’ के दूसरे नंबर के अधिकारी पाकिस्तान व आतंकवादियों के हाथों बिके हुए हैं.

कहानीः

फिल्म की कहानी टर्की से शुरू होती है. जहां ‘रॉ’ एजेंट दुर्गा सिंह कार्यरत है. वह एक दिन नाटकीय तरीके से एक टैक्सी में संयुक्त राष्ट् के लिए कार्यरत डाक्टर मिर्जा अली से मिलती है और उसे अपना परिचय इस्मत नामक भारतीय पत्रकार के रूप में देते हुए अपने प्रेम जाल में फांसती है. दुर्गा सिंह भारतीय संसद पर हमला कर चुके खालिद ओमार के खात्मे के मिशन पर है.  कहानी कई मोड़ों से गुजरती है. इसलिए डॉं. मिर्जा को प्रेम जाल में फांसती है. क्योंकि इलाके में होने वाली एक शादी में ओमार आने वाला है और डॉक्टर उस शादी के प्रीतिभोज के मेहमानों की सूची में शामिल है.  इसी प्रीतिभोज में रॉ एजेंट दुर्गा सिंह की असली पहचान खुलती है. डॉ. मिर्जा अली को पता चल जाता है कि वह इस्मत नहीं दुर्गा सिंह है. पर दोनो एक साथ मरने की कसमें खाते हैं. खालिद उमर के हाथों डॉ.  अली मिर्जा मारा जाता है. कहानी में कई मेाड़ आते हैं. अंततः दुर्गा, खालिद उमर को मौत के घाट उतार देती है और लोगों को बताती है कि जो भी गड़बड़ियां हो रही थीं, उसकी वजह ‘रॉ’ के दूसरे नबर के अधिकारी पाकिस्तान और खालिद ओमार के हाथों बिका होना था.

लेखन व निर्देशनः

महज नारी उत्थान के नामपर एक रॉ एजेंट को महिला के रूप में पेशकर बिन सिर पैर की कहानी गढ़ने के बाद विभु दासगुप्ता ने उसमें दूसरी फिल्मों के कुछ दृश्य चुराकर डालते हुए ‘कोड नेम तिरंगा’ के नाम से दर्शकांे को परोसते हुए सोच लिया कि दर्शक ‘तिरंगा’ के नाम पर उनकी फिल्म को सिर माथे पर बैठा लेगा. मगर वह यह भूल गए कि दर्शक को एक अच्छी कहानी चाहिए. मगर इस फिल्म में कहानी व निर्देशन दोनों का अभाव है. परिणीति चोपडा को दुर्गा सिंह के किरदार मंे लेना निर्देशक की सबसे बड़ी गलती रही. परिणीति चोपड़ा पर फिल्माए गए एक्शन दृश्य तो वीडियो गेम नजर आते हैं. इस फिल्म में न देश भक्ति है, न कोई प्रेम कहानी है. पता नही क्यों रिभु दासगुप्ता , परिणीति चोपड़ा को एक्शन स्टार बनाने के पीछे पड़ गए? क्या उन्होने  कंगना रानौट की फिल्म ‘धाकड़’ का हाल नही देखा है.

बतौर लेखक व निर्देशक रिभु दासगुप्ता परिणीति चोपड़ा व हार्डी संधू के बीच प्रेम कहानी को भी ठीक से विकसित नही कर पाए.

रिभु दासगुप्ता की परवरिश कलकत्ता में बंकिमचंद्र चटर्जी लिखित गीत  ‘‘वंदे मातरम’’ सुनते हुए हुई है. पर इस गीत को लेकर उनकी समझ यह है कि उन्होने ‘वंदे मातरम’ गीत को ‘युद्धगीत के रूप में अपनी फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’ में पेश कर डाला.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो रॉ एजेंट दुर्गा सिंह के  किरदार में परिणीत चोपड़ा एक प्रतिशत भी खरी नही उतरती. फिल्म प्रचारक से अभिनेत्री बनने वाली और प्रियंका चोपड़ा की कजिन परिणीति चोपड़ा को अभिनय करना आता ही नही है. इस बात को वह अतीत में  ‘इशकजादे’, ‘शुद्ध देशी रोमांस’, ‘हंसी तो फंसी’, ‘दावते इश्क’, ‘किल दिल’, ‘नमस्ते इंग्लैंड’, ‘जबरिया जोड़ी’

व ‘संदीप ओर पिंकी फरार’ जैसी असफल फिल्मों में साबित कर चुकी हैं. इसके बावजूद उन्हे रॉ एजेंट के किरदार में लेना अपने आप में निर्देशक की सोच पर सवालिया निशान उठाता है. परिणीति चोपड़ा ने अपनी तरफ से इस किरदार के हिसाब से खुद को ढालने के लिए कोई मेहनत नहीं की. तनाव के दृश्यों में सिगरेट पीने भर से रॉ एजेंट स्मार्ट नहीं दिख जाता. इसके लिए एक एजेंट जैसी कद काठी,  शरीर सौष्ठव और फुर्ती भी जरूरी है. डॉ.  मिर्जा अली के छोटे किरदार में हार्डी संधू कमजोर कहानी व पटकथा के चलते अपनी अभिनय प्रतिभा को निखार न सके. सह कलाकारों में किसी का भी अभिनय प्रभावित नहीं करता.

REVIEW: जानें कैसी है अजय देवगन की ‘भुजः द  प्राइड आफ इंडिया’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः अजय देवगन फिल्मस, पैनोरमा स्टूडियो, सेलेक्ट मीडिया

निर्देशकः अभिषेक दुधैया

कलाकारः अजय देवगन, सजय दत्त,  सोनाक्षी सिन्हा, नोरा फतेही, शरद केलकर, अमी विर्क, अनुराग त्रिपाठी व अन्य.

अवधिः एक घंटा 53 मिनट 

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉटस्टार डिजनी

1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के वक्त गुजरात के भुज हवाई अड्डे के एअरबेस को पाकिस्तानी वायुसेना ने बमबारी से ध्वस्त कर दिया था. तब भुज हवाई अड्डे के तत्कालीन प्रभारी आईएएफ स्क्वाड्रन लीडर विजय कर्णिक और उनकी टीम ने मधापर व उसके आसपास के गांव की 300 महिलाओं की मदद से वायुसेना के एयरबेस का पुनः निर्माण किया था. उसी सत्य ऐतिहासिक घटनाक्रम पर सिनेमाई स्वतंत्रता के साथ फिल्मकार अभिषेक दुधैया फिल्म‘‘भुजः द प्राइड आफ इंडिया’’लेकर आए हैं. जो कि तेरह अगस्त की शाम साढ़े बजे से ‘‘हॉट स्टार डिजनी’पर स्ट्रीम हो रही है.

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कहानीः

15 अगस्त 1947 को आजादी के समय हिंदुस्तान का विभाजन होने पर पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान बना था. पाकिस्तान के प्रधान मंत्री याहया खान ने पूर्वी पाकिस्तान में जुल्म ढाते हुए चालिस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. जिसके चलते वहां के लोगों व शांतिवाहिनी ने विद्रोह किया था और फिर पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान पर सैनिक आक्रमण किया था, तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को पाकिस्तान के खिलाफ भेजकर काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया था और पूर्वी पाकिस्तान को बांगला देश बनाने में मदद की थी. इससे बौखलाए याहया खान ने भारत के पश्चिमी हिस्से में कच्छ से घुसकर भुज पर आक्रमण किया था. उस वक्त भुज एअरबेस के प्रभारी आईएएफ स्क्वार्डन लीडर विजय श्रीनिवास कार्णिक(अजय देवगन )थे. जबकि उनके कमंाडर आर के नायर(शरद केलकर)हैं. आर के नायर ने एक अपंग मुस्लिम महिला से शादी की है. तीन दिसंबर 1971 को विजय कार्णिक और उनकी पत्नी उषा (प्रणिता सुभाष )  की शादी की दसवीं सालगिरह मनायी जाती है. उसी वक्त भुज पर पाक सेना की तरफ से बमबारी की खबर आती है. विजय कार्णिक परेशान होते हैं. उधर पाक में मौजूद भारतीय जासूस हीना रहमानी  पाक सेना के अगले कदमो की जानकारी पहुॅचती रहती है, जिसने पाक से सेना के उच्च अधिकारी से विवाह किया है. तो वहीं ‘रॉ अधिकारी रणछोड़दास पागी(संजय दत्त)हैं, जिन्हे मरूस्थल की अच्छी जानकारी है. वह रेगिस्तान की रेत कदमों के निशान देखकर बता देते हैं कि वह भारतीय सैनिक या पाक सैनिक के निशान हैं. रणछोड़ दास पागी चतुर चालाक है. वह पाक सेना को मूर्ख बनाकर आर के नायर को युद्ध जीतने की रणनीति बताता रहता है.  पाक वायुसेना ने भुज एअरबेस को तहस नहस कर दिया है. अब कोई हवाई जहाज न इस एअरबेस पर उतर सकता है और न ही उड़ान भर सकता है. उधर पाक अपने 150 टैंक व 1800 सैनिको  के साथ भुज पर कब्जा करने भेजता है. पाक जानता है कि अब भुज एअरबेस ठीक होने तक भारतीय सेना नही आ कसती. ऐसे में नियम के विपरीत जाकर स्वकार्डन लीडर विजय कार्णिक मधापुर गांव की 300 औरतों की मदद से भुज एअरबेस को ठीक कराने में सफल होते हैं. और पांच सौ सैनिक भुज एअरबेस पर उतरने में सफल हो जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

एक बेहतरीन व प्रेरणा दायक कहानी का लेखक, निर्देशक, एडीटर व वीएफएक्स ने बंटाधार कर दिया. पटकथा काफी कमजोर व भटकी हुई सी है. फिल्मकार ने फिल्म में एक साथ छह कहानियों और कई घटनाक्रम को पिरोने का प्रयास किया, जिन्हे दो घंटे के अंदर सही ढंग से पिरोना संभव नही. इसलिए किसी भी कहानी के साथ सही न्याय नही हो पाया. सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर कुछ गाने व कुछ अतार्किक दृश्य भी जोड़े गए हैं. अफसोस की बात यह है कि फिल्म के ट्रेलर व प्रचार में दिखाए जा चुके गाने के हिस्से और कुछ संवाद गायब हैं. फिर भी एडीटर फिल्म में कसावट न ला पाए. क्योकि पटकथा ही हिचकोले लेते हुए ही आगे बढ़ती है. यह हालत तब है, जब इसे तीन लेखक और अतिरिक्त संवाद लेखक ने गढ़ा है. कई बार ऐसा लगा कि हम किसी टीवी सीरियल के अलग अलग हिस्से जोड़कर देख रहे हैं.

फिल्म में बेवजह धर्म, मंदिर व भगवान की मूर्तियों से जुड़े दृश्य पिरोए गए हैं. राष्ट्वाद को लेकर जिस तरह से बात की गयी है, वह भी प्रभावशाली नही है. जब जल्द से जल्द एअरबेस बनाने का संकट हो, उस वक्त एअर बेस बनाने जा रही औरतें अपनी नेता संुदर बेन के साथ ढोल नगारे के साथ भजन गाती हैं, यह अजीब सा लगता है. वर्तमान सरकार की विचारधारा के अनुरूप राष्ट्वाद  को ठॅंूसने के चक्कर में ही फिल्म सही ढंग से नहीं बन पायी.

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वीएफएक्स भी बहुत घटिया है. एअरफोर्स को एअरबेस पर लेंड करने के लिए अजय देवगन ट्क का सहारा देने जा रहे है, उस वक्त जिस तरह से ट्क हिलता है, उससे एक नौसीखिया भी समझ जाएगा कि वीएफएक्स बहुत घटिया है. दुश्मन के एअर प्लेन को मार गिराने वाले दृश्य हों या गन फायरिंग के दृश्य हों, सभी वीडियो गेम जैसे ही हैं.

फिल्म की मूल कहानी ‘नारी सशक्तिकरण’ की है. किस तरह रातों रात एअरबेस को बनाने के लिए गांव की तीन सौ औरतें आती हैं और देश के लिए अपने घर की दीवारें तोड़कर वह ईंट वगैरह एअरबेस बनाने में लगा देती हैं. पर इस फिल्म में इन तीन सौ वीरांगनाओं को महत्व ही नही दिया गया. सोनाक्षी सिन्हा का फिल्म में आगमन लगभग सवा घंटे बाद होता है, पर उसके किरदार संुदर बेन का कोई असर नही दिखता. फिल्म में दो चार मिनट के दृश्य में एअरबेस को तीन सौ औरतों को जिस तरीके से बनाते हुए दिखाया है, वह भी अति बचकाना है. जब फिल्मकार कहानी की आत्मा की ही हत्या कर देता है, तो सब कुछ विखर जाता है.

संवाद भी प्रभावशाली नही है. ज्यादातर संवाद लोग वर्षों से सुनते आ रहे हैं. कुछ संवाद तो काफी विरोधाभासी हैं.

अभिनयः

विजय कार्णिक फिल्म के हीरो हैं, मगर विजय कार्णिक का किरदार निभाने वाले अजय देवगन ने साधारण अभिनय किया है. एक आर्मी आफिसर का जो ‘औरा’होना चाहिए, वह कहीं नजर ही नही आता. संजय दत्त भी नही जमे. जबकि अजय देवगन इससे पहले फिल्म‘तान्हाजीःद अनसंग वॉरियर’में कमाल का अभिनय कर चुके हैं. शरद केलकर ने ठीक ठाक अभिनय किया है. सोनाक्षी सिन्हा केवल खूबसूरत लगी हैं. नोरा फतेही ने एक्शन दृश्य अच्छे किए हैं, मगर उनके किरदार को ज्यादा जगह नही मिली. प्रणिता सुभाष का किरदार जबरन ठॅूंसा हुआ लगता है. संजय दत्त एक बार फिर चूक गए.

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रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः रिलायंस बिग सिनर्जी

निर्देशकः बिसरा दास गुप्ता

कलाकारः शमिता शेट्टी, मोना सिंह,  स्वास्तिका मुखर्जी,  निखिल भांबरी,  शरद केलकर, राइमा सेन,  मोहन कपूर, आमीर अली,  परमब्रता चक्रवर्ती व अन्य.

अवधिः 12 एपीसोड, 32 से 39 मिनट के , कुल अवधि सात घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः जी 5

फिनलैंड की 2014 की चर्चित वेबसीरीज ‘मुस्टट लेस्केट’ का कई देशों में रीमेक हो चुका है. अब ‘रिलायंस बिग सिनर्जी’ भी उसी का रीमेक ‘ब्लैक विडो’ लेकर आया है, जो कि 18 दिसंबर को ‘जी 5’पर स्ट्रीम हुई है. इस वेब सीरीज को बोल्ड कहा जा कसता है. क्योंकि इस वेब सीरीज में शुरू से आखिर तक बरकरार तीनों महिला किरदार समाज की हास्य व भावनाओं के साथ उस हकीकत को बयां करती हैं,  जिनके बारे में अक्सर बात ही नहीं जाती.

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कहानीः

यह कहानी तीन सहेलियों जयति सरदेसाई(स्वास्तिका मुखर्जी), वीरा मेहरोत्रा (मोना सिंह )और कविता( शमिता शेट्टी )की, जो कि अपने अपने पतियों से परेशान हैं. जयति सरदेसाई का पति ललित(मोहन कपूर)उसके साथ आए दिन मारपीट करते रहते हैं. कविता का पति नीलेश उसे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करते हुए पैसांे की खातिर पर पुरूषों के पास भेजता रहता है. जबकि वीरा का पति जतिन मेहरोत्रा(शरद केलकर)तनाव के चलते उसे पीटने के साथ ही बेटी सिया को मार डालने की धमकी देता है. जतिन व वीरा के पास अपना आलीशान मकान है. जतिन का ‘जेएम ट्रांसपोर्ट’का बड़ा व्यापार है, जिसमें रामी शेख भागीदार है. इन तीनों सहेलियों के सामने अब दो विकल्प हैं. एक खुद आत्महत्या कर लें अथवा अपने पतियों की हत्या कर दें. तीनों योजना बनाकर नाव में बम लगाकर अपने पतियों की हत्या कर डालती हैं. पर उनकी मुसीबत खत्म नही होती. पुलिस इंस्पेक्टर पंकज मिश्रा(परमब्रता चट्टोपाध्याय)अपनी सहायक रिंकू के साथ इस केस की जांच में जुट जाता है. पुलिस के साथ इन तीनों महिलाओं का चूहे बिल्ली का खेल शुरू रहता है, तो वहीं तीनों सेक्स संबंधों में लीन होकर अपनी स्वच्छंद जीवन को आगे बढ़ाने का प्रयास करती हैं.

केस आगे बढ़ता है तो उंगली ‘मेडी फार्मा’की मालकिन इनाया ठाकुर(राइमा सेन)की तरफ भी बढ़ती हैं. इनाया और‘जे एम ट्रांसपोर्ट’ का अपना संबंध है. इनाया एक वैक्सीन का अवैध तरीके से इंसानो पर ट्रायल बिहार के कोडा गांव में करा रही है,  जहां वैक्सीन पहुंचाने की जिम्मेदारी जतिन की है. इनाया लैब में एक वायरस तैयार कर रही है, जिसे फैलाकर लोगों को बीमार करेगी,  फिर उस बीमारी से लोगों को ठीक करने के लिए अपनी वैक्सीन बेचेगी. इनाया ने पुलिस कमिश्नर बैरी सिंह ढिल्लों (सव्यसाची चक्रवर्ती) को फांस रखा है.

इधर इन तीनों औरतों की जिंदगी में उथल पुथल मचती रहती है. जयति के पति ललित का बेटा जहांन सरदेसाई (निखिल भांबरी), जयति से सारी संपत्ति हासिल करने के लिए आ जाता है. तो वहीं तीनों मेंसे एक यानी कि जतिन मेहरोत्रा जीवित बच जाता है. कइ घटनाक्रम बदलते है. रामी शेख सहित कईयों की हत्याएं होती हैं. इनाया भी कर्ई लोगों की हत्या कराती रहती है. जतिन के जीवित वापस आने से पहले रीवा की जिंदगी में एलडी (आमीर अली ) का प्रवेश हो चुका होता है. उधर कविता की जिंदगी में कई प्रेमी आते हैं. कविता और जहान सरदेसाई के बीच सेक्स संबंध बनते हैं. अंततः कहानी एक नए मोड़ पर पहुंचती है.

लेखन व निर्देशनः

फिनलैंड की वेब सीरीज का भारतीय करण करते समय फिल्मकार बिरसा दास गुप्ता यह भूल गए कि फिनलैंड और भारत की संस्कृति में बहुत बड़ा अंतर है. पहले दो एपीसेाड देखते हुए दर्शक इससे तोबा कर लेता है, जबकि उसके बाद कहानी रोचक मोड़ से होकर गुजरती है. मगर पहले दो एपीसोड इस वेब सीरीज का बंटा धार कर देते हैं. पहले दो एपीसोड में मोहन कपूर की हरकते व संवाद भारतीय परिवेश में बहुत गलत हैं. कोई भी भारतीय पुरूष खुले आम अपनी पत्नी से पर पुरूष के साथ चिपकने के लिए नहीं कहेगा. इतना ही नहीं दो एपीसोड तक औरतों के साथ घरेलू हिंसा की बात है, मगर उसके बाद यह गायब हो जाता है. फिर अपराध, रहस्य व पुलिस की जांच व भ्रष्टाचार की कहानी हावी हो जाती है.

इसमें रोमांचक तत्व का घोर अभाव है. पर बकवास हास्यप्रद घटना जरुर हैं. कुछ दृश्य भावनात्मक बन पड़े हैं. मगर कहानी को खींचने के चक्कर में बेवजह के कई किरदार व दृश्य जोड़े गए हैं, जिनकी वजह समझ से परे है. पटकथा लेखन में काफी गड़बड़ियां हैं. यह पूरी सीरीज सही ढंग से बनती तो आठ एपीसोड से ज्यादा लंबी न होती. निर्देशक के तौर पर कई जगह बिरसा दासगुप्ता मात खा गए हैं. फिल्मकार का सारा ध्यान महिला किरदारों द्वारा अपने तरीके से पितृसत्ता को नष्ट करने  पर है, जिससे  वह महिलाएं अपने जीवन को नियंत्रित कर सकें और घरेलू हिंसा से आजादी का जश्न मना सकें.

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अभिनयः

सेक्स फोबिया कविता के किरदार को शमिता शेट्टी अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान करती हैं, पर कई जगह वह ओवर एक्टिंग करते नजर आती हैं. मोना सिंह स्थिरता लाती हैं. और निरंतर मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार रही जयति के किरदार में स्वास्तिका मुखर्जी ने शानदार अभिनय किया है. जतिन मेहरोत्रा के रूप में शरद केलकर,  ललित सरदेसाई के रूप में मोहन कपूर और नीलेश थरूर के रूप में विपुल रॉय अपनी भूमिका में ठीक ठाक हैं. शरद केलकर ने मुख्य कलाकार के रूप में अपने शानदार अभिनय के साथ सस्पेंस बनाए रखा,  जो हर तरफ से छाया हुआ है और कथा पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते है. सही मायनों में यह वेब सीरीज तो शरद केलकर की है. मजबूत,  चालाक,  सेक्सी उद्यमी इनाया के पेचीदा किरदार में राइमा सेन अपना जबरदस्त प्रभाव छोड़ती हैं. उन्होने अपने किरदार केे ग्रे रंगों को जीवंतता के साथ उकेरा है. जहांन के किरदार में निखिल भंाबरी अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं, वैसे उनके किरदार का सही ढंग से चरित्र चित्रण नही किया गया.

REVIEW: बम की बजाय फुसफुस पटाखा ‘लक्ष्मी’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः केप आफ गुड फिल्मस, तुशार कपूर और शबीना खान

निर्देशकः राघव लारेंस

कलाकारः अक्षय कुमार,  कियारा अडवाणी, शरद केलकर, अश्विनी कलसेकर.

अवधिः दो घंटे 21 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉट स्टार डिजनी

कोरोना के चलते सिनेमा घर बंद होने पर कई निर्माताओं ने अपनी फिल्में ओटीटी प्लेटफार्म को बेची. उस वक्त अक्षय कुमार व तुशार कपूर ने अपनी फिल्म‘लक्ष्मी बम’,  जिसका नाम अब ‘लक्ष्मी’हो गया है,  को भी ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘हॉट स्टार डिजनी ’को बेच दिया था. तभी लोगों ने सवाल पूछा था कि अक्षय कुमार ने अपनी फिल्म‘लक्ष्मी’को ओटीटी प्लेटफार्म को बेची, पर ओटीटी प्लेटफार्म पर वह ‘सूर्यवंशी’क्यों नही ला रहे हैं. अब फिल्म देखकर समझ में आ गया कि अक्षय कुमार ने एक व्यवसायी की भांति ओटीटी प्लेटफॉर्म को देकर अपना फायदा कर लिया. अन्यथा सिनेमाघरों में इस फिल्म को दर्शक नहीं मिलने थे. यह अतिघटिया व बकवास संवादों से युक्त फिल्म है. फिल्म्सर्जक राघव लारेंस की तमिल सुपर डुपरहिट फिल्म ‘कंचना’ का हिंदी रीमेक है. तमिल फिल्म का निर्देशन  करने के साथ साथ मुख्य भूमिका खुद राघव लारेंस ने ही निभायी थी. अब उसी पर बनी हिंदी फिल्म का लेखन व निर्देशन राघव लारेंस ने किया है, मगर मुख्य भूमिका में अक्षय कुमार हैं. अन्य कलाकार भी बौलीवुड के हैं. मगर फिल्म ‘लक्ष्मी’ हॉरर कॉमेडी के नाम पर बकवास व मूर्खता के अलावा कुछ नही है. इसमें अंध विश्वास व भूत प्रेत को बढ़ावा देने के साथ ही लव जेहाद की बात की गयी है.

 कहानीः    

आसिफ (अक्षय कुमार) और रश्मि (कियारा अडवाणी) ने भागकर प्रेम विवाह किया है. आसिफ मुस्लिम और रश्मि हिंदू है. आसिफ ‘‘जागो आवाम कमेटी’से जुड़कर अंध विश्वास फैलाने वाले बाबाओं की पोल खोलता रहता है और उसका तकिया कलाम है ‘जिस दिन भूत देख लेगा, उस दिन हाथ में चूड़ियां पहन लेगा.

आसिफ चाहता है कि एक बार वह रश्मि की उनके माता पिता के साथ मुलाकात करवा दें. रश्मि की माता रत्ना(आएशा रजा मिश्रा)और पिता सचिन(राजेश शर्मा )की शादी की सिल्वर जुबली एनिवर्सरी है. रश्मि की मॉं इस मौके पर आसिफ व रत्ना को बुलाती है. इस बार आसिफ तय करके जाता है कि वह रश्मि के माता पिता को मना लेगा. लेकिन रश्मि के माता पिता के घर रेवाड़ी से दमन पहुॅचने से पहले वह उस जगह पहुंच जाता है, जहां नही पहुंचना चाहिए था. फिर भी वह सबक नहीं लेता. दूसरे दिन वह बच्चों के साथ उसी मैदान पर क्रिकेट खेलने जाता है, क्रिकेट नहीं खेल पाते, मगर आसिफ की जिंदगी बदल जाती है. उस पर एक ट्रांसजेंडर लक्ष्मी शर्मा की आत्मा प्रवेश कर जाती है. फिर बहुत कुछ घटता है. शाहनवाज पीर बाबा आते हैं. आसिफ अपने तकिया कलाम के अनुरूप हाथों में चूड़ियां पहन लेते हैं. अंततः लक्ष्मी की आत्मा आसिफ के माध्यम से अपनी हत्या कर प्लॉट हथियाने वालों की हत्या कर देती है. उसके बाद लक्ष्मी शर्मा की मुंह बोली बेटी गीता उसी प्लाट पर एक विशाल ‘लक्ष्मी फाउंडेशन ट्रांसजेंडर’ की इमारत खड़ी कर देती है.

लेखन व निर्देशनः

लेखन व निर्देशन दोनों स्तर पर फिल्म‘लक्ष्मी’देखना सिरदर्द है. इसमें न हॉरर है और न ही कॉमेडी है. सफल तमिल फिल्म का हिंदी रीमेक करते हुए राघव लारेंस ने इसकी स्क्रिप्ट इतने गलत ढंग से बदली है कि फिल्म का सत्यानाश हो गया. इसके संवाद अतिघटिया और बकवास हैं. एक संवाद है, जब एक ढोंगी बाबा से अक्षय कुमार कहते हैं–‘‘आप बाबाओं के बाबा हो, वैष्णवी का ढाबा हो. ’’फिल्म में लेखक व निर्देशक की अपरिपक्वता की तरफ इशारा करने वाले अस्वाभाविक दृश्यों की ही भरमार है. इसके साथ ही इसमें ‘लव जेहाद’बेवजह ठॅूंसा गया है. इस दृश्य के माध्यम से फिल्मसर्जक का सामाजिक समरसता का संदेश देने का प्रयास पूरी तरह से विफल रहा. यह फिल्म ट्रांसजेंडरों पर कोई बेहतरीन बात नही करती और न ही फिल्म देखकर ट्रांसजेंडरों के प्रति किसी भी तरह का दयाभाव ही पैदा होता है.

जहां तक गानों का सवाल है, तो बिन बुलाए मेहमान की भांति रंग में भंग डालने से नहीं चूकते.

अभिनयः

अफसोस इस फिल्म में किसी का भी अभिनय प्रभावित नही करता. अक्षय कुमार भी काफी निराश करते हैं. अक्षय कुमार ने क्या सोचकर इस फिल्म में अभिनय करने के साथ ही इसका सहनिर्माण किया है, यह तो वही जाने. कियारा अडवाणी महज शो पीस ही हैं और काफी छोटे किरदार में हैं.  कुछ हद तक शरद केलकर ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है.

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