सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के कई रास्ते होते हैं : शेखर सेन

पद्मश्री शेखर सेन के पांच एक पात्रीय नाटकों के हजार शो कर चुके पद्मश्री शेखर सेन बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. वह गायक, संगीतकार, पेंटर, अभिनेता, सेट डिजायनर सब कुछ हैं. वह अपने एक पात्रीय संगीतमय नाटकों में सारी जिम्मेदारी खुद ही निभाते हैं. शेखर सेन उनमें से हैं, जो अपने माता पिता की याद में हर वर्ष छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर जाकर मुफ्त में अपने नाटकों के पांच शो करते हैं. इन शो में हर इंसान को नाटक देखने की पूरी छूट होती है.

मूलतः रायपुर, छत्तीसगढ़ निवासी शेखर सेन को संगीत अपने पिता डा. अरूण कुमार सेन व माता डा. अनीता सेन से विरासत में मिली है. दोनो मशहूर शास्त्रीय गायक व शिक्षाविद् थे. बौलीवुड में संगीतकार बनने की तमन्ना लेकर मुंबई आने वाले शेखर सेन ने बतौर गायक व संगीतकार गजल, भजन सहित कई विधाओं में 150 से अधिक संगीत के अलबम निकाले. उन्होंने धारावाहिक ‘रामायण’ में पार्श्वगायन के अलावा ‘गीता रहस्य’सहित कई धारावाहिकों को संगीत से संवारने के साथ साथ उन्हें अपनी आवाज से भी संवारा. फिर अपने अनुभवों का उपयोग करते हुए 1998 में उन्होंने संगीत प्रधान एक पात्रीय नाटक ‘‘तुलसीदास’’ लिखा, जिसका निर्देशन करने के साथ साथ उन्होंने इसमें अभिनय किया. उसके बाद उन्होंने भक्ति काव्य के हस्तियों कबीर, सूरदास, विवेकानंद के अलावा आम इंसान पर ‘साहेब’ नाटक लेकर आएं. यह सभी नाटक मानवीय भावनाओं व संवेदनाओ के साथ साथ कर्णप्रिय संगीत से ओतप्रोत है.

शेखर सेन की कला जगत की उपलब्धियों पर गौर करते हुए 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया और फिर दो माह बाद उन्हें ‘‘संगीत नाटक अकादमी’’ का अध्यक्ष नियुक्त किया. संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में अपने लगभग चार वर्ष के कार्यकाल में ‘संगीत नाटक अकादमी’को नए आयाम प्रदान किए.

प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के अंश…

आप फिल्मों में संगीतकार बनने की तमन्ना के साथ मुंबई आए थे, मगर..?

आपने एकदम सही कहा. लेकिन मुंबई पहुंचने के एक वर्ष के अंदर ही मेरी समझ में आ गया था कि यह मेरे बस की बात नहीं है. मैंने एक फिल्म में दस गाने गाए, मगर फिल्म बीच में बंद हो गयी, तो सब बेकार. तब मैंने सोचा कि वह काम करो, जहां अपने हाथ में कुछ तो हो. इसके अलावा अक्सर मेरे पास फिल्म निर्माता कोई न कोई कैसेट लेकर आते थे और उनकी फरमाइश होती थी कि ऐसा गाना बना दो. तो मेरा उन्हें जवाब होता था कि यदि इसकी नेल करनी है, तो मेरी क्या जरुरत, आप खुद ही बना लें. मैंने हमेशा वही करने का प्रयास किया, जिसमें मेरी अपनी कुछ तो मौलिकता हो. रंगकर्मी के रूप में मैं अच्छा काम कर रहा हूं. मेरे सभी पांच नाटक 1998 से चल रहे हैं. एक भी नाटक बंद नहीं हुआ. यह मेरी बहुत बड़ी उपलब्धि है. कई फसलों में समय लगता है. धान की फसल तो तीन माह बाद काटकर खाया जा सकता है. पर आम का पेड़ लगाने वाले कलाकार को धैर्य रखना पड़ता है.

केंद्र की नई सरकार द्वारा ‘‘पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट’’ ‘‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’’ जैसी संस्थाओं में की गई नए अध्यक्षों की नियुक्तियां विवादों में रहीं. पर संगीत नाटक अकादमीके अध्यक्ष पद पर आपकी नियुक्ति को लेकर कोई विवाद नही हुआ?

अच्छा…मैंने सदैव इमानदारी के साथ अपने काम को अंजाम दिया. किसी के भी प्रति मेरे मन में शत्रुता नहीं है. मुझे हमेशा लगता है कि हर इंसान से कुछ सीखा जा सकता है. ‘संगीत नाटक अकादमी’में भी दो चार लोगों ने मुझे लेकर विवाद पैदा करने की कोशिश की. पर मुझे पता था कि मेरी आत्मा पवित्र है. मेरा मानना है कि यदि कोई कलाकार मुझे अपना शत्रु मान रहा है, पर यदि वह गुणी कलाकार है, तो उसे पुरस्कार मिलना चाहिए. मैं हमेशा उसके पक्ष में रहूंगा. मैं यह मानकर चलता हूं कि यदि कोई इंसान मुझे गाली दे रहा है, तो उसे मुझमें कोई न कोई कमी नजर आ रही होगी. पर इसके यह मायने नहीं है कि मैं उसे शत्रु मान लूं. मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. शायद यही एक वजह है कि ‘संगीत नाटक अकादमी’में कोई विवाद इतना नहीं उभरा कि चर्चा का विषय बन गया हो.

‘‘संगीत नाटक अकादमी’’के अध्यक्ष के रूप में आपको किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के कई रास्ते होते हैं. सरकारी तंत्र में बैठे लोग भ्रष्टाचार के बहुत खूबसूरत रास्ते इजाद कर लेते हैं. तो मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती भ्रष्टाचार के इन सारे खूबसूरत रास्तों को बंद करने की थी. मैंने सबसे पहला काम यह किया कि सारे रास्ते बंद करवाए. इसके लिए मैंने पहला कदम यह उठाया कि सौ रूपए से ज्यादा नगद के लेन देन पर प्रतिबंध लगाया. सारी राशि सीधे बैंक खाते या चेक से देने की प्रणाली विकसित की. दूसरा नियम बनाया कि एक कलाकार को जल्दी दूसरी बार दोहराया नहीं जाएगा. इससे भी भ्रष्टाचार पर लगाम लगी. अब ‘संगीत नाटक अकादमी’ का कार्यालय दिल्ली में है. अब तक ज्यादातर कार्यक्रम दिल्ली में ही हुआ करते थे. यदा कदा कुछ कार्यक्रम मुंबई, मद्रास या दूसरे शहर में होते थे. इस वजह से सारी मलाई दिल्ली के कलाकार खा जाते थे. मैंने नियम बनाया कि सिर्फ 20 प्रतिशत कार्यक्रम दिल्ली में होंगे, बाकी के 80 प्रतिशत कार्यक्रम पूरे देश में और गांवों में होंगे. मैंने वर्धा में ‘ध्रुपद सम्मेलन’ करवाया. पंढरपुर में भक्ति उत्सव करवाया. तिरूवनंतपुरम, मदुराई, तंजापुर में कार्यक्रम करवाए. मैंने तेलंगाना के कुचीपुड़ी गांव में 10 दिवसीय वर्कशाप करवाया. दरभंगा, गया, मोतीहारी में कार्यक्रम हुए. बड़े शहरों में कार्यक्रम हों, तो भ्रष्टाचार करना आसान हो जाता है. पर छोटे शहरों, कस्बों या गांवों में, जहां आपको धर्मशाला में रूकना हो, वहां भ्रष्टाचार कैसे करेंगे? मेरा मानना है कि अंधे को अंधा कहने से कोई लाभ नहीं, बल्कि उसे दृष्टि देना ही फायदे का सौदा होगा.

कला और किसी संस्था को चलाना दो अलग चीजें हैं. आपने कैसे सामंजस्य बैठाया?

यह मेरे माता पिता के आशीर्वाद का फल है. यह गुण मुझे उन्हीं से विरासत में मिला. इसके अलावा जब हम एक नाटक करते हैं, तो उसमें कई विभाग होते हैं और हर विभाग का ध्यान मुझे ही रखना होता है. नाटक करते हुए मुझे ध्यान रखना होता है कि संगीत बराबर बज रहा है या नहीं? लाइटिंग ठीक से आ रही है या नहीं? वगैरह वगैरह…वह अनुभव भी काम आया. फिर संस्थान चलाने का गुण मेरे रक्त में है. मेरे माता पिता दोनों कौलेज में प्रिंसिपल थे. जिस कौलेज कैम्पस में मैं बड़ा हुआ, मेरे पिताजी उस कौलेज के दो बार वाइस चांसलर रहें. तो मेरी परवरिश ऐसे माहौल में हुई है, जहां मेरे माता पिता दोनों एडमिनिस्ट्रेटर के पद पर आसीन रहे. हां! मेरे सामने एक कठिनाई थी, ‘लाल फीताशाही’ से निपटने की. सरकारी तंत्र में लाल फीताशाही के चलते फाइल एक ही टेबल पर जमा रहती है. कहते हैं सरकारी उपक्रम में यदि किसी ने काम नहीं किया, तो उसकी नौकरी तुरंत जाती नहीं है. मेरी कोशिश रही कि मेरे कार्यलय से जुड़े हर इंसान के काम करने में तेजी आए और उनकी जवाबदेही तय हो. यदि किसी ने सही काम नही किया, तो उस पर कारवाही भी हो. दूसरी बात मैंने यह सोचा कि यदि शरीर में एक नहीं कई फोड़े हैं, तो उन्हें ठीक करने के लिए रक्त बदलने की प्रक्रिया करनी होगी. मैंने वही किया. मैंनेपूरे सिस्टम को अलग ढंग से चलाने की कोशिश की. मुझे इस बात का गर्व है कि ‘संगीत  नाटक अकादमी’’ का मेरे अध्यक्ष बनने के बाद मेरा आफिस 365 दिन काम करता है. जबकि अमूमन कोई भी सरकारी कार्यालय 365 दिन काम नहीं करता. मेरा मानना रहा है कि यदि आप लोगों को प्यार से जोडें, तो कुछ भी करवा सकते हैं. मैंने प्यार का ही रास्ता चुना. मान लीजिए कोई कार्यक्रम होना है, और मंच पर मेज नही लगी है, तो मैं किसी को कुछ कहता नहीं हूं. किसी को साथ लेकर खुद मेज उठाकर रख देता हूं. उस वक्त मेरी सोच यह होती है कि मेरा कार्यक्रम सही समय पर शुरू हो जाए. मेरी कोशिश रही है कि ‘संगीत नाटक अकादमी’की प्रतिष्ठा कहीं से भी धूमिल न होने पाए. क्योंकि किसी को भी यह याद नहीं रहेगा कि इसका अध्यक्ष कौन है.

नौटंकी, आल्हा उदल जैसी मरनासन्न कलाओं के लिए आपने कोई कदम उठाया?

मैंने सबसे पहला काम ऐसी कलाओं को जीवंत करने का किया. मैंने ललितपुर व छतरपुर में आल्हा उदल के कार्यक्रम करवाए. कार्यशालाएं करवायीं. ब्रज की नौटंकी, कानपुर की नौटंकी, हाथरस की नौटंकी, दक्षिण में कर्नाटक, केरला व आंध्रप्रदेश की नौटकी के कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए वहां कार्यक्रम करवाए. कलाकारों का सम्मान करवाया. दक्षिण भारत में‘‘यक्षगान’’की जो पुरानी प्रथा है, उसे जीवंतता प्रदान की. जब हमने किसी ग्रुप/मंडली को कार्यक्रम दिया, तो उनका ग्रुप फिर से जागा. जब उसके कार्यक्रम को हमने दूसरे राज्यों में करवाया, तो उसकी चर्चा हुई, फिर उन्हें निजी स्तर पर कार्यक्रम मिलने लगे. देखिए, ‘संगीत नाटक अकादमी’ के काम भले कम हों, पर नाम बहुत है. यदि किसी कलाकार को ‘संगीत नाटक अकादमी’ कोई कार्यक्रम करने का अवसर देती है, तो माना जाता है कि उसे राष्ट्रीय कार्यक्रम करने का मौका मिला. फिर उसे स्थानीय स्तर पर काम करने का मौका मिलने लगता है. मैं हर कार्यक्रम को राज्य सरकारों के साथ मिलकर करता हूं.

मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ और मैं मुंबई में रहता हूं. मेरे पिता का संबंध बंगाल से रहा है. तो मैंने कोशिश की कि छत्तीसगढ़, बंगाल व मुंबई में कार्यक्रम कम करूं. अन्यथा पक्षपाती होने का आरोप लग जाएगा. गत वर्ष अप्रैल माह में मैंने तीन दिन का छत्तीसगढ़ प्रतिभा रंग महेत्सव का आयोजन, अंधेरी, मुंबई के भवंस कौलेज में करवाया, जिसका सारा खर्च मैंने अपनी जेब से दिया. छत्तीसगढ़ से 150 कलाकारों का आना जाना व रहन व खाना सब मैंने अपने खर्चे से किया. मेरा मानना रहा है कि जहां मेरा जन्म हुआ, जिन कलाकारों के साथ मैंने बोलना, संगीत रचना करना और गीत गाना सीखा, उन्हें भी तो सम्मान मिलना चाहिए.

मैं बड़ी ईमानदारी से कहता हूं कि कलाकार की सेवा करना या कला माध्यमों की सेवा करना एक दिन का काम नहीं है. कलाकार के लिए हर दिन काम करना पड़ता है. मुझसे जो भी बन पा रहा है, मैं कर रहा हूं. मेरे जाने के बाद यदि काम रोक दिया गया, तो आज जो सोने के बर्तन नजर आ रहे हैं, वह तांबे के बर्तन हो जाएंगे.

इमानदारी से यह बात कह रहा हूं. मैं राजनीतिक व्यक्ति नही हूं. मैंने पिछले चार वर्ष के अपने कार्यकाल में सरकार का नमक नहीं खाया. इस पद पर मुझे कोई तनख्वाह नहीं मिलती है. मैं ‘संगीत नाटक अकादमी’के लिए दिल्ली या कहीं भी जाता हूं, तो खाने का बिल मैं अपनी जेब से ही देता हूं. इसलिए मैं कह सकता हूं कि कला व संस्कृति को लेकर किसी भी सरकार की कोई गंभीर योजना नही है. यह दुःखद है. मेरे अनुसार भारत में जो बजट शिक्षा का है, वही बजट संस्कृति के लिए होना चाहिए. मेरी राय में हर इंसान अपने बेटे को पहले एक सुसंस्कृत बनाना चाहता है, सुशिक्षित बाद में.

वर्तमान में जिस पार्टी की केंद्र में सरकार है, उसी की एक संस्था है संस्कार भारती. उसका संगीत कला अकादमीके कार्यक्रमों में क्या योगदान रहा?

सौभाग्य से मेरे साथ सभी संस्थाओं का साथ रहा. मैंने हर संस्था को महत्व दिया. आपने जिस संस्था का नाम लिया, वह भी शामिल है. अभी‘इप्टा’के 75 वर्ष होने पर पटना में कार्यक्रम हुआ, तो वहां भी हमने योगदान दिया. मेरा मानना है कि हर विचार धारा का सम्मान होना चाहिए. हर विचार धारा को आगे बढ़ाने और अपनी बात कहने का पूरा अवसर मिलना चाहिए. गांधी जी के कथन के अनुसार मेरी कोशिश यही रही है और आज भी है कि अंत में बैठे हुए इंसान तक मदद पहुंचे. मैंने अनदेखे कलाकार तक पहुंचने का प्रयास किया.

‘आल्हा उदल’या ‘पंडवाणी’ कोई अलग थोड़े ही है. यह गाव के किसान ही हैं, जो कि खेती के बाद फुरसत में इन कलाओं में अपना योगदान देते हैं. वह किसान ही है, जो रात में बैठकर आल्हा या शाम को ‘पंडवाणी’ गाता है. मैं किसान व उसके संगीत को कला के साथ जोड़ना चाहता हूं.

आपने मुंबई पहुंचने के बाद दुष्यंत कुमार की गजलों के अलबम से शुरुआत की थी. फिर भारत पाक विभाजन पर लिखी कविताओं को संगीतबद्ध किया. पर अंत में आप भक्तिकाल पर जाकर अटक गए?

मैंने यह कदम बहुत चाहकर नहीं उठाया. कई बार ‘मैन प्रपोजेस गौड डिस्पोजेस’होता है. आप सोचते तो बहुत कुछ हैं. जैसा कि आप भी जानते हैं कि मैं छत्तीसगढ़ से मुंबई फिल्मों में संगीत देने के लिए आया था. मैं गजले गाया करता था. मैंने बाकायदा हिंदी के साथ ही उर्दू लिखना पढ़ना सीखा था. जबान या अदब के लिहाज से उर्दू से मुझे बहुत मोहब्बत है. पर हमें यह देखना पड़ता है कि हम जो कर रहे हैं, वह किन लोगों को कितना प्रेरित करता है. मैं आज यदि भजन का कार्यक्रम करने से मना करता हूं, तो आज की तारीख में करीबन पचास से अधिक भजन गायक हैं. पर यदि मैं नाटक करना बंद कर दूं तो मेरे जैसा नाटक करने वाला दूसरा व्यक्ति नहीं है. मैं चाहूंगा कि हजार कलाकार आएं और भक्ति काल ही नहीं अन्य महापुरुषों पर भी बड़े बड़े नाटक करें. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद के जीवन पर भी नाटक किया जा सकता है. मौलाना आजाद पर भी नाटक किया जा सकता है. मैं यह नहीं कह रहा कि नाटक नहीं हो रहे हैं. पर वहीं सरकारी तंत्र वाला मसला है. दो अक्टूबर आ गया, तो गांधी जी पर नाटक लेकर आ गए. मेरे नाटक पूरे वर्ष चलते रहते हैं, सिर्फ किसी खास तिथि पर नहीं होते. मैं कबीर जयंती या गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर ही नाटक नहीं करता. दूसरी बात नाटकों के प्रति कलाकारों में कमिटमेंट नजर नहीं आता.

इमानदारी की बात यह है कि आज कला के लिए कोई भी कलाकार मरने को तैयार नहीं है. दूसरी बात कलाकार ने जिस दिन मांगने के लिए हाथ फैला दिया, उस दिन से देश में कला व कलाकार खत्म होने लगा. कलाकार तो देने वाला होता है.

तीसरी बात आज से छह सौ वर्ष पहले हिंदुस्तान का शासक कौन था, कोई नहीं जानता. मगर छह सौ वर्ष पहले के कबीर, चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, मीरा, विद्यापति, जयदेव इन्हें आज भी हर कोई जानता है. कहने का अर्थ यह कि यह देश शासकों या सम्राटों को याद नहीं रखता. पर सांस्कृतिक विभूतियों, अपने संतो व अपने देश के विचारकों को याद रखता है. स्वामी हरिदास का नाम आते ही लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान का भाव आता है. यह सम्मान का भाव सम्राट अशोक या बाबर के नाम से नही आता. इस देश ने सम्मान वहीं पर दिया, जहां साधना है. तो एक कलाकार के लिए साधना बहुत जरुरी है. जब कष्ट हुआ, जब व्यक्ति तपा, तो उसे सम्मान मिला. पर मेरी पीढ़ी की समस्या यह है कि हम तपने को तैयार ही नहीं हैं. हम रियाज नही करना चाहते. हम अपनी कला का संवर्धन करने के लिए मेहनत करने की बजाय कार्यक्रम पाने के लिए मेहनत करने में यकीन करने लगे हैं. मेरी राय में मांगने वाला कलाकार, कलाबाज है. देने वाला कलाकार ही वास्तव में कलाकार है.

हिंदी नाटकों की ही स्थिति गड़बड़ क्यों है. मराठी व गुजराती नाटकों के साथ ऐसा नही है?

समाज दोषी है. समाज में जागरूकता नही है.

आपको तो कई भाषाएं आती हैं?

मै मूलतः छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर का रहने वाला हूं. इसलिए हिंदी भाषा का अच्छा ज्ञान है. मुंबई में रहते हुए मराठी भाषा सीख गया. मुझे बंगला भाषा सिखाने का श्रेय शरतचंद्र को जाता है. उनकी हर रचना को मैनें बीस बीस बार पढ़ा है. मेरे पिता बंगाली थे, पर मैं अपने आपको बंगाली कभी नहीं मानता. मेरी मां दक्षिण की तेलगू भाषी तथा मेरे पिता बंगाली थे. यही वजह है कि मैंने अपने नाटक ‘साहब’में जान बूझकर दक्षिण भारतीय कृष्ण भजन रखा है और यह वह भजन है जिसे मेरी मां गाती रहती थीं. मैंने हमेशा वह चरित्र उठाया, जो पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करता हो.

आपने विदेशो में भी अपने एकपात्रीय नाटकों के सो किए हैं. क्या विदशों में हिंदी नाटक देखे जाते हैं?

जी हां! अमरीका में एक जगह है नेस्तुअन मधम, जिसे संगीत का गढ़ माना जाता है. 2009 की बात है. मैं अमरीका घूमने गया था, तब इसी शहर में मेरी मुलाकात अमरीका में रह रही बारबरा जैक्सन और स्टेफिनी नामक दो सहेलियों से हुई. इन्होंने बताया कि 2007 में इन दोनों सहेलियों ने मेरे ‘कबीर’नाटक को देखा था. उसके बाद इन दोनों ने हिंदी भाषा को लिखना व पढ़ना सीखा. अब यह दोनों सहेलियां मुझे हिंदी में ईमेल भेजती हैं. उस वक्त मैंने इनसे पूछा था कि उन्हें हिंदी सीखने की जरूरत क्यों पड़ी? तो उन्होंने मुझसे कहा था- ‘‘हमें‘कबीर’ नाटक बहुत पसंद आया था. इसकी संगीतमय प्रस्तुति पसंद आयी थी. लेकिन हमें अहसास हुआ कि कबीर की फिलोसफी को समझने के लिए भाषा सीखना जरूरी है. हिंदी भाषा सीखने के बाद ही हमने दोहों का सही अर्थ जाना.’’ इतना ही नहीं अब तो बारबरा जैक्सन ने ‘रामायण’पर कौमिक्स भी लिखा हैं.

इसके अलावा वाराणसी के राजेंद्र घाट पर मेरे ‘तुलसी’नाटक का शो था. उसी वक्त एक इंसान ने मुझसे आकर कहा कि 50 जपानी पर्यटक आए हैं और वह मेरे तुलसी नाटक को देखना चाहते हैं. मैंने यह सोच कर उन्हें इजाजत दे दी की यह जापानी 5 से 7 मिनट बैठेंगे और वापस चले जाएंगे. लेकिन वह 50 जापानी पर्यटक पूरे दो घंटे तक मेरे इस नाटक को देखते रहे. नाटक की समाप्ति के बाद द्विभाषिए की मदद से उन पर्यटकों ने मुझसे तुलसी को लेकर सवाल जवाब किए. तब मुझे अहसास हुआ कि भाषा ज्यादा अहमियत नही रखती, चरित्र महत्वपूर्ण होना चाहिए.

इतना ही नहीं लोग कहते हैं कि दक्षिण में हिंदी भाषा को अहमियत नहीं दी जाती. पर मैंने चेन्नई में 4000 तमिल भाषियों के बीच अपने ‘कबीर’नाटक का शो किया था, जिसे काफी सराहा गया था. इसी तरह चेन्नई में ही मेरे ‘कबीर’ नाटक को देखने के लिए एक 80 वर्षीय महिला सिल्क कांजीवरम की साड़ी पहने हुए लाठी लेकर आयी थी. नाटक देखने के बाद उसने मुझसे कहा- ‘‘सच तो यह है कि मैं आपके नाटक कबीर की एक लाइन भी समझ नही पायी. फिर भी मुझे नाटक देखते हुए बड़ा आनंद आया.’’

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