फिल्म रिव्यू : कश्मीर पंडितों के दर्द को दिखाती ‘शिकारा’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः विनोद चोपड़ा फिल्मस

निर्देशकः विधु विनोद चोपडा

कलाकारः आदिल खान,सादिया,प्रियांशु चटर्जी व अन्य

अवधिः दो घंटे

19 जनवरी 1990 के दिन चार लाख कश्मीरी पंडितों को अपनी मातृभूमि कश्मीर छोड़कर भगाना पड़ा था और तब से यह लोग अपने ही देश में रिफ्यूजी बनकर जम्मू व दिल्ली के रिफ्यूजी कैंप में रह रहे हैं. 1990 में कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर होने वालों में फिल्मकार विधु विनोद चोपडा की मां शांति भी थी. फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा अपनी मां को समर्पित फिल्म ‘‘शिकारा’’ लेकर आए हैंं, जिसमें कश्मीर से निकाले गए कश्मीरी पंडितों की कथा है.

कहानीः

यह कहानी शुरू होती है. वर्तमान मेंं जम्मू के मुठ्ठी रिफ्यूजी कैंप से, जहां शिव (आदिल खान) की पत्नी शांति (सादिया) को पता चलता है कि अमरीका के राष्ट्पति ने शिव व उसे मिलने के लिए आगरा के ताजमहल में बुलाया है. राष्ट्पति ने इनके लिए ताज होटल में प्रेसींडेंशियल शूट बुक कर दिया है और हवाई जहाज की टिकट भी भेजी है. दोनो ताज होटल पहुंचने के बाद अपने शूट में आराम करते हैं. तब शिव अपनी पत्नी शांति को वीडियो पर एक फिल्म दिखाता है.

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यह फिल्म शुरू होती है 1989 के कश्मीर की. श्रीनगर में डल झील के पास एक फिल्म की शूटिंग के दौरान नाटकीय ढंग से शिव व शांति की मुलाकात होती है. इस पहली मुलाकात में ही शिव,शांति को अपना दिल दे बैठता है. फिर शिव अपने सबसे अच्छे दोस्त, क्रिकेटर व मुस्लिम युवक लतीफ (साइमन) की मदद से शांति तक अपना प्रेम संदेश भिजवाते हैं और शांति कह देती है कि शिव उसके पिता से आकर बात करे. लतीफ भारतीय टीम के लिए क्रिकेट खेलना चाहता है. शिव व शांति की शादी हो जाती है. इस शादी में हिंदू व मुस्लिम सभी शामिल होते हैं. शिव व शांति शिकारा पर अपना हनीमून मनाते हैंं.

उस वक्त शांति इच्छा व्यक्त करती हैं कि हो सके तो कभी ताज महल दिखाने उन्हे ले जाएं. लतीफ के पिता को शिव अब्बा कहते हैं. लतीफ के पिता अपने मकान को बनाने की बजाय सारा पत्थर शिव के मकान को बनाने में लगा देते हैंं. शांति की सहेली आरती से लतीफ शादी करना चाहता है. पर कुछ माह में ही हालात बदल जाते हैं. लतीफ के पिता की हत्या हो जाती है और लतीफ आतंकवादी बन जाता है. उसका पाकिस्तान से आना जाना शुरू हो जाता है. तमाम हिंदुओं के साथ आरती की भी हत्या लतीफ करता है.

एक दिन लतीफ अपने दोस्त शिव को बुलाकर समझाता है कि वह अपने पिता को बचाने के लिए माता पिता व पत्नी शांति के साथ कश्मीर छोड़कर ‘इंडिया’ चला जाए. शिव मना कर देता है. मगर दो दिन बाद ही कश्मीर के हालात इस कदर बिगड़ते हैं कि शिव व शांति के सााथ ही चार लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़कर भागना पड़ता है. इन्हे जम्मू के रिफ्यूजी कैंप में शरण मिलती है. कई उतार चढ़ाव के साथ तीस साल बीत गए. पर वह आज भी रिफ्यूजी कैंप में रहने को विवश हैं.

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इस बीच शिव अमरीका के राष्ट्पति को लगातार पत्र लिखते रहते हैं. पर कभी जवाब नहीं आया. कश्मीर में शिव के मकान पर हाजी ने कब्जा कर लिया है और वह खरीदना चाहते हैं, पर शिव मकान नहीं बेचना चाहते. क्योंकि वह अपनी पत्नी शांति के साथ वापस कश्मीर के अपने मकान में आना चाहते हैं. एक दिन शांति बीमार हो जाती है. शिव उनके इलाज के लिए कमर कस लेते हैं. वीडियो वाली फिल्म खत्म हो जाती है. शादी की तीसवीं सालगिरह का केक आ जाता है. तब शिव को बताना पड़ता है कि अब तक मकान न बेचने की जिद पर अड़े रहे शिव ने उसके इलाज व उसे ताज महल घुमाने के लिए मकान बेच दिया है. होटल आदि का खर्च भी अमरीका के राष्ट्पति ने नहीं भेजा है. नाव से ताजमहल की तरफ जाते समय रास्ते में ही शांति प्राण त्याग देती है. फिर शिव अपनी पत्नी शांति की अस्थियां लेकर कश्मीर के अपने गांव के मकान में रख देते हैं और वहीं रहकर बच्चो को पढ़ाने लगते हैं.

लेखन व निर्देशनः

फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा का एक विशाल मकसद के साथ इस फिल्म को बनाया है, मगर उनका प्रयास विफल रहा. पूरी फिल्म में कश्मीरी पंडितों के प्रति कोई संवेदना नही उपजती. कश्मीारी पंडितों की पीड़ा को मुखर अभिव्यक्ति नही मिलती. फिल्म में इमोशंस का घोर अभाव है. फिल्म इस बात को भी सही ढंग से रेखांकित नही करती कि 1990 में कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से भागने से पहले किस तरह के हालात बने. इस तरह के हालात अचानक कैसे बन गए. जब कश्मीर में हिंदू और मुस्लिम एक दूसरे की सभ्यता व संस्कुति का अटूट हिस्सा थे, तो फिर अचानक इनके बीच यह नफरत कैसे पैदा हो गई और इसके लिए दोषी कौन है?

फिल्म पुलिस, सेना, राजनीतिक दलों सहित किसी के भी भूमिका पर कुछ नहीं कहती. पिता की हत्या होते ही एक उभरता हुआ बेहतरीन क्रिकेटर कब कैसे आतंकवादी बनकर हिंदुओं की हत्याएं करने लगा. फिल्म के एक संवाद में अमरीका द्वारा हथियार बेचने की प्रवृत्ति को कश्मीर के लिए दोषी ठहराकर शिव से अमरीकी राष्ट्पति को लगातार पत्र लिखवाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली.

वास्तव में फिल्मकार ने एक संकीर्ण सोच के साथ अनाड़ी की तरह पटकथा लिखी है. विधु विनोद चोपड़ा ने इस फिल्म को शिव व शांति की प्रेम कहानी के ही रूप में पेश करने पर ज्यादा जोर दिया, मगर त्रासदियों के बीच इनका प्रेम भी ठीक से पल्लवित नहीं होता. अतीत में कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ अन्याय मुखर नहीं हो पाया और न ही उसका कश्मीर पर कोई असर नजर आया.

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अभिनयः

आदिल खान व सादिया की यह पहली फिल्म है, पर दोनों ने काफी परिपक्व अभिनय किया है. फिल्म में इनके बीच की केमिस्ट्री कमाल की है, जिससे इनके बीच के रिश्ते की विश्वसनीयता को बल मिलता है. निर्वासित कश्मीरी की पीड़ा को आदिल ने अपने अभिनय से बाखूबी उकेरा है. शिव के ममेरे भाई नवीन के छोटे किरदार में प्रियांशु चटर्जी ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

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